अरुण तिवारी
यूंतो गंगा संरक्षण का यह सन्नाटा दौर है। कहीं कोई बवाल न हो, इस डर से
सरकार ने गंगा पर बनी अंतरमंत्रालयी समिति की रिपोर्ट को कुंभ तक के लिए
टाल दिया है। ताज्जुब है कि इसका आभास होने के बावजूद 17 जून, 2012 को
दिल्ली के जंतर-मंतर पर साधु-संतों के दिखाये दम ने चुप्पी साध ली है!
उत्तराखंड की पनबिजली परियोजनाओं पर सवाल उठाते-उठाते जनता-नेता जैसे थक
चुके हैं। राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण को लेकर विशेषज्ञ सदस्य खुद
उठाये सवालों के जवाब नहीं मांग रहे हैं लेकिन इस सन्नाटे के दौर में
आईआईटी ने उम्मीद की छोटी सी खिड़की खोली है। यदि निर्मल-अविरल गंगा चाहिए,
तो जरूरी होगा सभी की राय का सम्मान और साझेदारी का ऐलान। आईआईटी, कानपुर
ने दिल्ली में त्रिदिवसीय चर्चा आयोजित कर यही संदेश देने की कोशिश की।
उसने ऐसे कई सुझावों से सहमति भी जताई है, लंबे समय से गंगा आंदोलनकारी
जिनकी मांग करते रहे हैं जैसे जीरो डिस्चार्ज, प्रकृति के लिए ताजा जल और
नदियों की जीवंत पण्राली छेड़े बगैर पनबिजली निर्माण, कार्यक्रम से पहले
नीति, नदी सुरक्षा के लिए कानून, नदियों की जीवंत पण्राली को ‘नैचुरल
पर्सन’ का दर्जा, उपयोगी नवाचारों को मान्यता और जननिगरानी आदि। उद्घाटन
सत्र के दौरान देशी गंगा प्रेमियों से ज्यादा विदेशी निवेशकों व तकनीकी
विशेषज्ञों की मौजूदगी को लेकर शंका व सवाल उठाये जा सकते हैं। योजना सरकार
को स्वीकार्य होगी-नहीं होगी, लागू होगी-नहीं होगी, इस पर भी सवाल हो सकते
हैं; लेकिन यदि आयोजित चर्चा को सच मानें, तो गंगा योजना को लेकर आईआईटी
ने खुले दिमाग का परिचय दिया है। उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन
पर्यावरणीय प्रबंधन योजना-2020 तैयार करने का संयुक्त जिम्मा देश के सात
प्रमुख आईआईटी संस्थानों के पास है। आईआईटी, कानपुर और इसके अकादमिक
प्रतिनिधि डॉ. विनोद तारे की भूमिका योजना निर्माण कार्य में संयोजक की है।
सभी की राय का सम्मान करने का निर्णय खासतौर पर डॉ विनोद तारे की निजी
सोच व प्रयासों का परिणाम है। गंगा कार्य योजना के योजनाकारों व
क्रियान्वयन के कर्णधारों ने यही नहीं किया था। कालांतर में गंगा कार्य
योजना के फेल होने का यह सबसे बड़ा कारण बना। उन्होंने इस सच को छिपाने की
भी कोशिश नहीं की कि सरकारी अमले के पास भारत के जल संसाधन की वस्तुस्थिति
की ताजा और समग्र जानकारी आज भी उपलब्ध नहीं है। डॉ तारे ने योजना से पहले
उसका नीति दस्तावेज, सफल क्रियान्वयन सुनिश्चित करने के लिए कानून और
नवाचारों को भी जरूरी माना। सब जानते हैं कि नदी पूर्णत: प्राकृतिक व
संपूर्ण जीवंत पण्राली है। इसे ‘नैचुरल पर्सन’ के संवैधानिक दर्जे की
मांग हाल में जलबिरादरी के मेरठ सम्मेलन में उठी थी। डॉ. तारे ने इससे
सहमति जताई कि नदियों के अधिकार व उनके साथ हमारे व्यवहार की मर्यादा इसी
दज्रे से हासिल की जा सकती है। उन्होंने कहा कि प्राकृतिक संसाधनों के सफल
प्रबंधन के बगैर किसी भी राष्ट्र का सतत-स्वावलंबी आर्थिक विकास संभव नहीं।
अत: सुनिश्चित करना होगा कि नदी पण्राली को नुकसान पहुंचाये बगैर पनबिजली
निर्माण हो।इसके लिए क्या उचित व मान्य तकनीक हो सकती है? योजना इस पर काम करेगी।
उन्होंने योजना के सफल क्रियान्वयन के लिए व्यापक व विकेन्द्रित जननिगरानी
को भी उपयोगी माना। माना गया कि उद्योगों, होटलों व ऐसे अन्य व्यावसायिक
उपक्रमों व रिहायशी क्षेत्रों से निकलने वाले शोधित- अशोधित मल-अवजल को
प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष किसी रूप में गंगा और उसकी सहायक धाराओं और प्राकृतिक
नालों में डालना पूरी तरह प्रतिबंधित हो। यह मांग पहली बार गंगा ज्ञान
आयोग अनुशंसा रिपोर्ट-2008 के जरिए सरकार के सामने रखी गई थी। गंगा संरक्षण
के काम से जुड़े अधिकारी व तकनीकी लोग इसकी व्यावहारिकता पर सवाल उठाते
रहे। सुखद है कि गंगा योजना ने ‘जीरो डिस्चार्ज’ हासिल करने को अपना
लक्ष्य बनाया है। हालांकि प्रस्तावित लक्ष्य को औद्योगिक अवजल के अलावा एक
लाख से अधिक आबादी यानी ए-श्रेणी शहरों के सीवेज तक सीमित रखा गया है,
बावजूद इसके ‘जीरो डिस्चार्ज’ को लक्ष्य बनाना सकारात्मक संकेत है।
सवाल है, तो सिर्फ यही कि ‘जीरो डिस्चार्ज’ लक्ष्य प्राप्ति की अवधि 25
से 30 साल रखी गई है और अनुमानित खर्च है सौ बिलियन डॉलर यानी पांच लाख
करोड़ रुपये। इसके तौर-तरीके, व्यावहारिकता व संभावित दुष्प्रभावों की अभी
से जांच जरूरी होगी। अवैज्ञानिक सिंचाई को अनुशासित कर नदी प्रवाह बनाये
रखने वाला बहुत सारा भूजल तथा नहरों के जरिए पहुंचा सतही जल बचाया जा सकता
है। रासायानिक उर्वरकों का प्रयोग प्रदूषण व पानी का खपत दोनों बढ़ाता है।
कीटनाशकों का जहर बांटने का काम है ही। इन समस्याओं से निजात के लिए फसल
चक्र में बदलाव करना होगा। मिश्रित खेती को प्राथमिकता देनी होगी। सिक्किम
ने जैविक कृषि राज्य बनने की दिशा में प्रयास शुरू कर दिए हैं। पूरे देश की
कृषि को ही जैविक कृषि की ओर मोङ़ना होगा, तभी हमारा खान-पान-स्वास्थ्य,
मिट्टी-पानी-नदियां यानी पूरी कुदरत रासायनिक उर्वरकों के जहर से बच सकती
है। योजना इससे भी इत्तेफाक रखती है कि ताजा पानी प्रकृति के लिए हो और
उद्योग, ऊर्जा, कृकृषि, निर्माण जैसी विकास की आवश्यकताओं के लिए ‘वेस्ट वाटर’ यानी अवजल
का इस्तेमाल हो। योजनाकारों ने औद्योगिक- व्यावसायिक-बागवानी प्रयोग के
लिए जलापूर्ति की लागत के बराबर वसूली का प्रस्ताव रखा है। नीतिगत तौर पर
यह तय करने व व्यावहारिक तौर पर लागू करने से ही मल व अवजल का शोधन तथा
पुन: उपयोग सुनिश्चित होगा। उक्त नीतिगत उपायों को ‘नेशनल गंगा रिवर
बेसिन एन्वायरन्मेंट मैनेजमेंट प्लान’ में जगह देकर आईआईटी संस्थानों ने
नायाब पहल की है। लेकिन योजना लक्ष्य से भटके नहीं और सरकार सकारात्मक
बिंदु लागू करे, कंपनियां लूटकर न ले जाने पायें; जन-जन को इसके लिए जागते
रहना होगा।(ref-sahara)
No comments:
Post a Comment