Monday 7 May 2012

भारत का अंतरिक्ष कार्यक्रम


पृथ्वी से सौ किलोमीटर ऊपर अंतरिक्ष की सीमा आरंभ होती है । प्राचीन काल से ही मानव विभिन्न ग्रहों और अंतरिक्ष के रहस्य समझने या उसके संबंध में अधिक-से-अधिक जानकारी रखने की इच्छा रखता आया है । विभिन्न ग्रह कैसे हैं ? उनका धरातल कैसा है ? क्या वहां कोई जीव है या नहीं ? इन रहस्यों की खोज के प्रयास पिछली शताब्दी के मध्य से प्रारंभ हो गए थे ।
4 अक्तूबर, 1957 को सोवियत संघ ने स्पूतनिक नामक एक कृत्रिम उपग्रह अंतरिक्ष में भेजा था। यह उपग्रह 57 मिनट में पृथ्वी का एक चक्कर लगाता था । इसकेबाद से तो अमरीका और रूस के बीच अंतरिक्ष यात्रा के संबंध में होड़-सी लग गई । नवम्बर 57 मेंलाइका नामक एक कुतिया को अंतरिक्ष में भेजा गया । मनुष्य का अंतरिक्ष में प्रवेश 12 अप्रैल, 1961 को हुआ, जब पहली बार यूरी गागरिन अंतरिक्ष में गए । पहली बार अप्रैल 1969 में मानव ने अपने कदम चांद की धरती पर रखे । वर्ष 1961 से आज तक 400 से अधिक वैज्ञानिक और शोधकर्ता अंतरिक्ष में जा चुके हैं।
भारत में शुरूआत
भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम इतना परिपक्व हो गया है कि इसका गुणगान राष्ट्र में ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय जगत में भी हो रहा है । आरंभ से ही अंतरिक्ष संगठन का उद्देश्य समाज की भलाई रहा है । भारत ने बैलगाड़ी युग को बहुत पीछे छोड़ दिया है । आज इनसेट उपग्रह तथाआईआरएस उपग्रह स्वदेशी अंतरिक्ष विज्ञान के प्रतीक बन गए हैं । अंतरिक्ष कार्यक्रमों के लिए भारतीय संस्थानों तथा उद्योगों ने सहयोग किया है । आधुनिकतम उपकरणों तथा मशीनों का निर्माण देश में ही किया गया, जिसमें राकेट खंडों के लिए हल्की धातु, मोटर के खोल, द्रव प्रस्टर, प्रणोदक टैंक, गैस उत्पादन तथा इलैक्ट्रॉनिक उपकरण शामिल हैं ।
भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम की शुरूआत वर्ष 1962 में भारतीय राष्ट्रीय अंतरिक्ष अनुसंधान समिति (इन्कोस्पार) से हुई । इसी वर्ष, तिरुवनन्तपुरम के निकट थुम्बा भूमध्यरेखीय राकेट प्रक्षेपण केन्द्र (अर्ल्स) में काम शुरू हुआ । नवम्बर 1969 में भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम बनाया गया तथा भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) का गठन हुआ । अंतरिक्ष कार्यक्रमों की यात्रा ने वर्ष 1963 में एक छोटे-से रॉकेट प्रक्षेपण से शुरूआत करके आज हमें ऐसे मुकाम पर पहुंचा दिया है कि अब हमारे पास भारतीय राष्ट्रीय उपग्रह (इन्सैट) एवं भारतीय दूरसंवेदी (आईआरएस) उपग्रह जैसी अत्याधुनिक बहुउद्देश्यीय उपग्रह प्रणाली मौजूद हैं ।
पिछली शताब्दी के आठवें दशक में हमने परीक्षणों व प्रदर्शनों से यह यात्रा आरंभ की । इसके तहत हमने बड़े-बड़े परीक्षण किए, जिनमें सैटेलाइट इंस्ट्रक्शनल टेलीविजन एक्सपेरीमेंट (साइट) एवं सैटेलाइट टेलीकम्युनिकेशन एक्सपेरीमेंट प्रोजेक्ट (स्टेप) शामिल हैं । इसी श्रृंखला में हमने प्रायोगिक उपग्रहों यथा – आर्य भट्ट, भास्कर एवं एप्पल का निर्माण भी किया, जिन्होंने नौवें दशक में इन्सैट एवं आईआरएस प्रणालियों की स्थापना के लिए मार्ग प्रशस्त किया ।
भारत ने दो प्रकार के उपग्रह प्रक्षेपण यानों की रूपरेखा तैयार कर उनको इस्तेमाल योग्य बनाया है। इनमें से एक है ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान (पीएसएलवी), जिससे भारतीय सुदूर संवेदी उपग्रह प्रक्षेपित किए जाते हैं और दूसरा है भू-स्थैतिक उपग्रह प्रक्षेपण यान (जीएसएलवी), जिससे इन्सैट परिवार के उपग्रह छोड़े जाते हैं । पीएसएलवी 1600 किलोग्राम भार का उपग्रह ध्रुवीय कक्षा में स्थापित कर सकता है । एसएलवी उपग्रहों को भू-स्थैतिक अंतरण कक्षा और पृथ्वी की निम्न कक्षाओं में स्थापित कर सकता है । भारत के पास सर्वाधिक सुदूर संवेदी उपग्रह हैं ।
बहु-उपयोगी अंतरिक्ष कार्यक्रम
दूरसंवेदी उपग्रह प्रणाली, आईआरएस-1 सी एवं आईआरएस-1 डी को विश्व के सर्वश्रेष्ठ असैनिक दूरसंवेदी उपग्रहों में गिना जाता है । इन उपग्रहों की खास विशेषता के सहारे हम समन्वित सतत विकास मिशन जैसे कार्यक्रम संचालित कर रहे हैं, जिसके तहत हम स्थानीय स्तर पर योजना बनाकर भू-जल संसाधनों का अधिकतम उपयोग कर रहे हैं ।  इन उपग्रहों द्वारा एकत्रित आंकड़ों का इस्तेमाल विभिन्न क्षेत्रों यथा – कृषि, फसल अनुमान, भूमिगत जल स्रोतों का पता लगाने, वन सर्वेक्षण, अनुत्पादक भूमि के मानचित्रण, बर्फ पिघलने के अनुमान, सिंचाई, कमान क्षेत्र प्रबंधन, खनिजों का पता लगाने, संभावित मत्स्य क्षेत्र का पता लगाने, शहरी योजना बनाने एवं पर्यावरण पर निगाह रखने जैसे अनेक कार्यों में किया जा रहा है । दूरसंवेदी उपग्रहों के निर्माण व संचालन ने हमें वाणिज्यिक रूप से भी फायदा पहुंचाया है ।
भारत एकमात्र ऐसा देश है, जो आम आदमी के लाभ के लिए नवीनतम प्रौद्योगिकी का उपयोग कर रहा है । भारतीय प्रक्षेपण राकेटों की विकास लागत ऐसे ही विदेशी  प्रक्षेपण राकेटों की विकास लागत का एक-तिहाई है । भारतीय अंतरिक्ष प्रणाली आज राष्ट्रीय अवसंरचना का महत्वपूर्ण अंग बन गई है । दूरसंचार, दूरदर्शन प्रसारण, मौसम विज्ञान, आपदा चेतावनी, दूर चिकित्सा, प्राकृतिक संसाधन सर्वेक्षण और प्रबंधन, दूरवर्ती शिक्षा और खोजबीन तथा बचाव अभियान जैसी महत्वपूर्ण सेवाओं की कल्पना भी अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी के हस्तक्षेप के बिना नहीं की जा सकती है । अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी ने भारत को विश्व में विशेष स्थान दिलाया है ।
उपग्रह आधारित आपदा प्रबंधन सहायता (डीएमएस) के कार्य हैं – जोखिमग्रस्त क्षेत्रों को पहचानने, क्षति का निर्धारण आदि सुलभ कराने के लिए डिजिटल डाटा बेस का सृजन, उपग्रह एवं वायुमंडलीय आंकड़ों के उपयोग से बड़ी प्राकृतिक आपदाओं की निगरानी तथा समुचित तकनीकोंउपकरणों का विकास, एयर बोर्न लेजर टैराइन मैपर का उपयोग करके जोखिमग्रस्त क्षेत्रों के लिए आंकड़ों का अर्जन तथा आपातकालीन सहायता के लिए संचार व्यवस्था का सुदृढीक़रण, बारहमासी निगरानी क्षमता की दिशा में एयर बोर्न सिंथेटिक अपर्चर राडार (असर) का विकास, एनआरएसए में निर्णय सहायता केन्द्र की एकल खिड़की सेवा प्रदाता के रूप में स्थापना और अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष एवं प्रमुख आपदा चार्टर का सदस्य होने के नाते इसमें सहायता ।
सितम्बर 2004 में भू-स्थैतिक उपग्रह प्रक्षेपण यान (जीएसएलवी-एफ01) द्वारा प्रक्षेपित एडुसैट, भारत का पहला उपग्रह है, जो शिक्षा के लिए समर्पित है । एडुसैट, वन वे टीवी प्रसारण, इंटरएक्टिव टीवी, वीडियो कान्फ्रेन्सिंग, कम्प्यूटर कान्फ्रेन्सिंग, वेब आधारित इंस्ट्रक्शन आदि जैसे शिक्षा प्रदान करने वाले विकल्पों की व्यापक श्रृंखला उपलब्ध करा रहा है ।
भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) इन्सैट की मौसम विज्ञान संबंधी आंकड़ा संसाधन प्रणाली (आईएमडीपीएस) के जरिए इन्सैट के आंकड़ों का संसाधन एवं प्रसारण करता है ।  ऊपरी वायुमंडल, समुद्री सतह के तापमान और हवा में आद्रता संबंधी सूचकांक के आंकड़े नियमित रूप से प्राप्त किए जाते हैं ।
स्थापित किए गए उपग्रह
वर्ष 2010 में जिओ सिन्क्रोनस सेटेलाइट लॉन्च व्हीकल (जीएसएलवी) के दो अभियान विफल हो गए थे – जीएसएलवी-एफ 06 – संचार उपग्रह जीसेट-5पी को लेकर जाने वाले इस यान में प्रक्षेपण के एक मिनट बाद ही विस्फोट हो गया था और वह बंगाल की खाड़ी में जा गिरा था । जीसैट-5पी में 24 सी-बैंड और 12 विस्तारित सी-बैंड टांसपोंडर्स थे । जीएसएलवी-डी 3 - जीसैट-4 को लेकर जा रहा जीएसएलवी-डी 3 का अभियान भी अप्रैल 2010 में विफल हो गया था ।
इन विफलताओं के कारण भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के आगामी कार्यक्रमों पर भले ही संदेह जताया गया हो, लेकिन भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के पीएसएलवी, सी-16 ने 20 अप्रैल, 2011 को रिसोर्ससेट-2 एवं दो अन्य छोटे उपकरणों को ले जाकर उनको निर्धारित कक्षा में सफलतापूर्वक स्थापित किए ।
रिसोर्ससेट-पृथ्वी पर्यवेक्षण उपग्रह है । यह 1206 किलोग्राम का है तथा इसका जीवनकाल पांच वर्ष है । वर्ष 2003 में स्थापित किए गए रिसोर्ससेट-1 की तुलना में यह उपग्रह अधिक उन्नत किस्म का है । रिसोर्ससेट-2 के प्रक्षेपण के साथ ही इसरो के दूरसंवेदी उपग्रहों की संख्या 10 हो गई है ।
यह धरती के अंदर खनिज पदार्थों के आंकड़े जुटाने में अधिक सक्षम होगा । इसमें लगे उच्च तकनीक के तीन कैमरों की मदद से फसल की स्थिति, वनों की कटाई पर निगरानी, जलाशयों एवं झीलों में जल और हिमालय में बर्फ पिघलने की स्थिति का आकलन करने में मदद मिलेगी । इसके अतिरिक्त इसकी सहायता से आपदा प्रबंधन और अन्य गतिविधियों का जायजा भी लिया जा सकेगा । समुद्री जहाज की स्थिति और गति की निगरानी के लिए इसमें ऐसा स्वत: पहचान तंत्र (एआईएस) स्थापित किया गया है ।
यूथसेट - भारत और रूस के संयुक्त उपक्रम से तैयार 92 किलोग्राम का उपग्रह यूथसेट तारामंडल और पर्यावरण का अध्ययन करेगा ।
एक्स-सेट - सिंगापुर के नानयांग टेक्नोलॉजिकल विश्वविद्यालय द्वारा निर्मित 106 किलोग्राम का एक्स-सैट उपग्रह मानचित्रीकरण करने में सक्षम है ।
अब तक कुल 18 अभियानों में से यह 17वां सफल अभियान था । 20 सितम्बर, 1993 को इसका पहला अभियान पीएसएलवी-डी1 विफल हो गया था ।  पीएसएलवी से अब तक 47 उपग्रहों का सफल प्रक्षेपण किया जा चुका है, जिसमें 26 भारतीय उपग्रह और 21 विदेशी उपग्रह शामिल हैं।  इन प्रक्षेपणों के द्वारा  भारत व्यावसायिक दृष्टिकोण से विदेशी उपग्रहों को भी प्रक्षेपित करने वाले देशों की चुनिंदा सूची में शामिल हो चुका है ।
पीएसएलवी
यह इसरो के विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केन्द्र द्वारा वर्ष 1994 से डिजाइन और विकसित किया जा रहा है । चार स्टेज वाले इस रॉकेट में बारी-बारी से ठोस एवं द्रव ईंधनों का इस्तेमाल होता है ।  इसकी 44 मीटर लंबाई, 295 टन वजन और 2.8 मीटर का व्यास है । यह 620 किलोमीटर दूर भू-समकालिक स्थानांतरण कक्षा (सनसिंक्रोनस पोलर आर्बिट) में 1050 किलोग्राम भार के उपग्रह ले जाने में सक्षम है। प्रत्येक पोलर सेटेलाइट लॉन्च व्हीकल  (पीएसएलवी) के प्रक्षेपण पर 1.7 करोड़ डॉलर का खर्च आता है। पीएसएलवी ऐसा परिवर्तनशील यान है, जो ध्रुवीय सौर समकालिक कक्षा, निम्न पृथ्वी कक्षा और समकालिक स्थानांतरण कक्षा में कई उपग्रहों को स्थापित कर सकता है ।
अब तक के अभियान इस प्रकार हैं -
क्रम संख्या
पीएसएलवी
उपग्रह
तारीख
परिणाम
1डी 1आईआरएस -1 ई20 सितम्बर, 1993असफल
2डी 2आईआरएस- पी 215 अक्तूबर, 1994सफल
3डी 3आईआरएस- पी 321 मार्च, 1996सफल
4सी 1आईआरएस – 1 डी29 सितम्बर, 1997सफल
5सी 2ओशियनसैट व 2 अन्य उपग्रह26 मई, 1999सफल
6सी 3टीईएस22 अक्तूबर, 2001सफल
7सी 4कल्पना-112 सितम्बर, 2002सफल
8सी 5रिसोर्ससैट-117 अक्तूबर, 2003सफल
9सी 6कोर्टोसेट-1, हैमसैट05 मई, 2005सफल
10सी 7कार्टोसैट-2 और 3 अन्य उपग्रह10 जनवरी, 2007सफल
11सी 8एजाईल23 अप्रैल, 2007सफल
12सी 10टीईसीएसएएआर23 जनवरी, 2008सफल
13सी 9कार्टोसैट-2ए, आईएमएस-1 एवं 8 नैनो उपग्रह28 अप्रैल, 2008सफल
14सी 11चंद्रयान-122 अक्तूबर, 2008सफल
15सी 12आरआईसैट-2
एवं एएनयूसैट
20 अप्रैल, 2009सफल
16सी 14ओशियनसैट -2 एवं 6 अन्य उपग्रह23 सितम्बर, 2009सफल
17सी 15कार्टोसैट-2 बी और चार अन्य उपग्रह12 जुलाई 2010सफल
18सी 16रिसोर्ससैट-2 और 2 अन्य उपग्रह20 अप्रैल, 2011सफल
उज्ज्वल भविष्य
उपग्रह प्रक्षेपण में भारत कारोबारी छलांग पहले ही लगा चुका है । उसने पहली कारोबारी छलांग 23 अप्रैल, 2007 को लगाई थी, जब भारत के उपग्रहीय प्रक्षेपण यान ने इटली के खगोल उपग्रह एंजिल का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण किया था । इस पहले सफल कारोबारी प्रक्षेपण के बाद भारत दुनिया के पांच देशों अमरीका, रूस, फ्रांस और चीन के विशिष्ट क्लब में शामिल हो गया था। इस समय कुल 2468 उपग्रह अंतरिक्ष में घूम रहे हैं, लेकिन रिसोर्स सैट-2 ऐसा आधुनिक रिमोट सेंसिंग उपग्रह है, जिसमें प्राकृतिक संसाधनों के अध्ययन और प्रबंधन में मदद मिलेगी ।
22 अक्तूबर, 2008 को मून मिशन की सफलता के बाद इसरो का लोहा पूरी दुनिया मान चुकी है । चांद पर पानी की खोज का श्रेय भी चन्द्रयान-1 को ही मिला । अंतरिक्ष में भारत के बढते वर्चस्व को देखते हुए जब अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत के दौरे पर आए तो मुम्बई में सेंट जेवियर्स कॉलेज के छात्रों से उन्होंने कहा कि भारत और अमरीका कई क्षेत्रों में भागीदारी को नए आयाम तक पहुंचा सकते हैं, उनमें से एक अंतरिक्ष का क्षेत्र भी है । भविष्य में इसरो उन सभी ताकतों को और भी कड़ी टक्कर देगा, जो साधनों की बहुलता के चलते प्रगति कर रही हैं । भारत के पास प्रतिभाओं की बहुलता है ।
भारत वर्ष 2016 में नासा के चंद्र मिशन का हिस्सा बन सकता है और भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) चंद्रमा के आगे के अध्ययन के लिए अमेरिकी जेट प्रणोदन प्रयोगशाला से साझेदारी भी कर सकता है । इसरो के अध्यक्ष के.राधाकृष्णन के अनुसार इसरो उन तीन उम्मीदवारों में से एक है, जिनके बारे में नासा 2016 के मिशन के लिए विचार कर सकता है । उन्होंने आगामी प्रक्षेपणों के विषय में कहा कि इसरो अगले महीने से संचार और सुदूर संवेदी उपग्रहों के सिलसिले की योजना बना रहा है, वहीं देश के आगामी चंद्र मिशन चंद्रयान-2 के संबंध में कार्य प्रगति पर है । चंद्रयान-2 के संभवत: 2013-14 में प्रक्षेपण की संभावना है । भारत अपने संचार उपग्रह जीसैट-8 का प्रक्षेपण अगले महीने फ्रेंच गुआना से करेगा । इसके बाद पीएसएलवी से एक संचार उपग्रह और प्रक्षेपित किया जाएगा । भारत पर्यावरण संबंधी अध्ययनों के लिहाज से मेघा-ट्रापिक्स उपग्रह के लिए फ्रांस से संयुक्त उपक्रम पर भी विचार कर रहा है ।
भविष्य में अंतरिक्ष में प्रतिस्पर्धा बढेग़ी । भारत के पास इसमें थोड़ी-बहुत बढत पहले से है, इसमें और प्रगति करके इसका बड़े पैमाने पर वाणिज्यिक उपयोग संभव है । कुछ साल पहले तक फ्रांस की एरियन स्पेश कंपनी की मदद से भारत अपने उपग्रह छोड़ता था, पर अब वह ग्राहक के बजाए साझीदार की भूमिका में पहुंच गया है । यदि इसी प्रकार भारत अंतरिक्ष क्षेत्र में सफलता प्राप्त करता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब हमारे यान अंतरिक्ष यात्रियों को चांद, मंगल या अन्य ग्रहों की सैर करा सकेंगे। भारत अंतरिक्ष विज्ञान में नई सफलताएं हासिल कर विकास को अधिक गति दे सकता है । 

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