Monday 23 April 2012

शोध और अनुसंधान की वर्तमान दशा


देश में शोध और अनुसंधान की वर्तमान दशा
शोध कार्य में देश की बड़ी ऊर्जा लगी है और उस पर होने वाला खर्च अरबों रुपयों में है लेकिन अपेक्षित मौलिक शोध सामने नहीं रहा है और इस पर निगरानी रखने वाला जिम्मेदार ढांचा पूरी तरह चरमरा गया है। यानी संस्थानों में ज्ञान के क्षेत्र में सृजन का काम करने वालों की जगह बची ही नजर आती नहीं है। कभी दुनिया भर में होने वाले शोध कार्य में भारत का नौ फीसद योगदान था जो आज घटकर महज 2.3 फीसद रह गया है
देश के विभिन्न विविद्यालयों में ऐसी ढेरों किताबें पाठ्यक्रम में शामिल हैं, जिनकी सामग्री किसी लेखक की किताब या शोध से चोरी की गई है। अमूमन किसी नई किताब के लिए अन्य पुस्तक या शोध से संदर्भ लिये जाते हैं जिसका बाकायदा उसमें जिक्र होता है लेकिन ऐसी अनेक किताबें प्रकाश में आई हैं जिनमें संदर्भ के रूप में सामग्री का इस्तेमाल नहीं है और लेखक ने उसे अपनी रचना या शोध के रूप में प्रस्तुत किया है। यानी चोरी की सामग्री से किताबें तैयार करने और उसे बाजार में बेचने का बड़ा कारोबार देश में चल रहा है। अनुमानत: यह कारोबार पांच सौ करोड़ रुपये सालाना का बताया जाता है। कई विविद्यालय और पुस्तकालय ऐसी किताबों के नियमित खरीदार हैं और कई प्रकाशक ऐसी ही किताबें छापते हैं। यानी इस करोबार का मजबूत ढांचा विकसित हो गया है। इसमें प्रकाशक, विविद्यालय या दूसरे शैक्षणिक संस्थान शिक्षक शामिल हैं। ऐसी किताबों का कारोबार अपेक्षाकृत पिछड़े माने जाने वाले विविद्यालयों महाविद्यालयों में बड़े पैमाने पर होता है। कई बार किसी ऐसे लेखक का परिचय पुस्तक पर छपा होता है जिसका इस पृथ्वी पर मिलना संभव ही नहीं है। कई का किताब में परिचय होता है लेकिन उनका विषय से कोई लेना-देना नहीं होता है। कई ऐसे लेखक होते हैं जिनका विषय से इतना भर लेना होता है कि वे उस विषय के विभाग से जुड़े होते हैं और उसका लाभ अपने परिचय के साथ विभाग का नाम देकर उठाते हैं। ऐसे भी कई लेखक मिलेंगे जो हिन्दी लिखना जानते हैं अंग्रेजी। लेकिन अंग्रेजी हिन्दी में दर्जनों किताबों के लेखक होने का दावा करते हैं और उस आधार पर विविद्यालयों महाविद्यालयों में स्वयं को उच्च पदों पर काबिज होने का हकदार मानते हैं। कई ने चंद दिनों में हजारों पृष्ठों की कई किताबें तैयार करने का दावा बना रखा है। विभिन्न क्षेत्रों में काला बाजारी, नकली सामानों की खरीद-बिक्री और कमीशनखोरी पर टिके कारोबार फल-फूल रहे हैं और किताबों के व्यापार में भी यह दिखता है। अश्लील किताबों का कारोबार इसमें एक है लेकिन फिलहाल हम यहां उन किताबों के बारे में चिंतित हैं जो उच्च शिक्षा के क्षेत्र में चल रही हैं और जिन पर देश की सामाजिक, सांस्कृतिक और तकनीकी प्रगति का दारोमदार है। किताबों के प्रकाशन से भ्रम होता है कि रचनाकर्म जारी है। विद्वतजनों का एक बड़ा तबका सृजनरत है और नित्य नये शोध हो रहे हैं। लेकिन जब हम रचना की तह तक पहुंचते हैं तो पता चलता है कि ये किताबें महज चोरी की सामग्री पर आधारित कारोबार का हिस्सा है। इंटरनेट के विकास के बाद ऐसी चोरी की सामग्री पर आधारित किताबों शोध का कोराबार तेजी के साथ बढ़ा है। सबसे चिंताजनक यह कि इस कारोबार के लिए भारतीय भाषाएं चुनी जा रही हैं। अंग्रेजी में प्रकाशित ऐसी किताबों शोध की चोरी इंटरनेट के सर्च इंजन के जरिये एक हद तक पकड़ी जा सकती है लेकिन अंग्रेजी से चुराकर हिन्दी या दूसरी भारतीय भाषाओं में किताब प्रकाशित करा ली जाए तो इसे पकड़ना संभव नहीं होता। हिन्दी में बड़ी तादाद में चोरी की सामग्री पर आधारित किताबें पीएचडी/एमफिल के लिए शोधों के बारे में जानकारियां मिलती हैं। ये चिंता और तब बढ़ जाती है जब इन किताबों का कारोबार जनसंचार विभाग जैसे क्षेत्रों में दिखता है। पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है लेकिन इस समय मीडिया से जुड़े अध्ययन- अध्यापन क्षेत्र ही इस तरह की किताबों की खपत के सबसे बड़े केन्द्र बने हुए हैं। कई किताबों पर जो आईएसबीएन नंबर दिए गए हैं वे आईएसबीएन की सूची में हैं ही नहीं। एक मुहिम के तहत सभी को भागीदार बनाने के उद्देश्य ऐसी किताबों की जांच-पड़ताल शुरू करनी होगी। यह किसी भी समाज के भविष्य के साथ जुड़ी मूल बात है कि सृजन की प्रक्रिया कुंद कर दी जाए, तो वह स्वत: गुलामी का आकांक्षी हो जाता है। हमारे सामने नकल पर आधारित जिन लेखकों की किताबें आई हैं, उनमें से ज्यादातर किसी किसी विविद्यालय में ऊंचे पदों पर काबिज रहे हैं या हैं। लेकिन उनके नामों का उल्लेख इसीलिए नहीं किया जा रहा है क्योंकि हजारों में से कुछ चुनिंदा के नाम गिनाने का आरोप लग सकता है। कइयों के बारे में मीडिया में खबरें आई भी हैं। एक टीवी चैनल ने तो चोर गुरु शीषर्क से एक कार्यक्रम भी शुरू किया है और विविद्यालय में नकल करके लिखने वाले शिक्षकों के खिलाफ शिकायतें भी दर्ज करायी हैं। शोध कायरे में देश की बड़ी ऊर्जा लगी है और उस पर होने वाला खर्च अरबों में है लेकिन अपेक्षित मौलिक शोध सामने नहीं रहा है और इस पर निगरानी रखने वाला जिम्मेदार ढांचा पूरी तरह चरमरा गया है। यानी संस्थानों में ज्ञान के क्षेत्र में सृजन का काम करने वालों की जगह बची नजर आती नहीं है। कभी दुनिया भर में होने वाले शोध कार्य में भारत का नौ फीसद योगदान था जो आज घटकर महज 2.3 फीसद रह गया है। सृजन के क्षेत्र में हमारी बढ़ती दरिद्रता का आलम क्या है इस पर भी एक नजर डालें। देश में इस्तेमाल की जाने वाली तकनीक (टेक्नोलॉजी) को लें तो तकरीबन पूरी टेक्नोलॉजी आयातित है। इनमें 50 फीसद तो बिना किसी बदलाव के ज्यों की त्यों इस्तेमाल होती है और 45 फीसद थोड़ा-बहुत हेर-फेर के साथ जिसे अंग्रेजी के प्रचलित मुहावरे में कॉस्मेटिक चेंज कहा जाता है के साथ इस्तेमाल होती है। इस तरह विकसित तकनीक के लिए हमारी निर्भरता आयात पर है। कहा तो जा रहा है कि देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं है लेकिन ये प्रतिभा क्या केवल विदेशों में नौकरी या मजदूरी करने वाली हैं? दूसरे पहलू से भी इस बढ़ती दरिद्रता को देखने की जरूरत है। देश की जनसंख्या का मात्र 10-11 फीसद हिस्सा ही उच्च शिक्षा ले पाता है। इसके विपरीत जापान में 70-80 प्रतिशत, यूरोप में 45-50, कनाडा और अमेरिका में 80-90 फीसद लोग उच्च शिक्षा लेते हैं। चिंतनीय यह है कि पहले ही कम लोगों को उच्च शिक्षा मिल पाती है, उस पर भी उन्हें चोरी और नकल की किताबें पढ़नी पड़ती हैं। जहां नकल की संस्कृति विकसित की जा रही हो वहां मौलिक शोध संस्कृति जगह कैसे विकसित हो सकती है? सरकार को चाहिए कि इस बारे में गंभीरता पूर्वक विचार करे। जिन भी शिक्षकों की किताबों या शोध सामग्री के बारे में शिकायत मिलती हो, उसकी तत्काल जांच कराने का प्रभावी ढांचा विकसित हो। जिन शिक्षकों की किताबों या शोधों के बारे में अब तक ऐसी जानकारी मिली है, उन्हें तत्काल सेवा मुक्त कर उसकी जांच कराएं। उन्हें भी दंडित करें जो उन्हें अब तक संरक्षण देते रहे हैं। शोध की संस्कृति विकसित करने के कार्यक्रम तैयार किए जाने चाहिए और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि शोध में भाषा के सवाल को आड़े नहीं आने देना चाहिए। भारत जैसे मुल्क में यहां की भाषाओं में मौलिक शोध की आपार संभावनाएं हैं। अंग्रेजी को शोध का माध्यम बनाने में नकलची और चोरी की संस्कृति के वाहकों की बड़ी भूमिका है। लेखक -अनिल चमड़िया


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