Friday, 16 May 2025

इतनी बिजली क्यों खाती है एआई

 चंद्रभूषण

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और क्लाउड कंप्यूटिंग की चर्चा अभी दुनिया में सबसे ज्यादा बिजली खाने वाली तकनीकों की तरह हो रही है। सन 2022 में लगाए गए हिसाब के मुताबिक ये दोनों उस समय दुनिया की दो फीसदी बिजली हजम कर रही थीं। उसी प्रक्रिया में अनुमान लगाया गया था कि सन 2026 तक इनकी बिजली खपत संसार की कुल खपत का साढ़े तीन प्रतिशत हो जाएगी। लेकिन जिस समय यह सारा हिसाब लगाया गया था, तबतक हर हाथ में पहुंच जाने वाले चैटजीपीटी, जेमिनी, ग्रॉक और मेटाएआई जैसे कृत्रिम बुद्धि बवंडरों का युग शुरू ही नहीं हुआ था। अभी तो इस हल्ले में चीन भी पूरी ताकत से कूद पड़ा है और इस मद में बिजली की ग्लोबल खपत का सटीक हिसाब लगना अभी बाकी है।

क्लाउड कंप्यूटिंग और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का किस्सा एक मामले में समान लगता है कि दोनों में बड़े-बड़े डेटा सेंटरों की जरूरत पड़ती है। लेकिन क्लाउड कंप्यूटिंग में तुलनात्मक रूप से ज्यादा बिजली डेटा स्टोरेज के काम में लगती है, जबकि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस में ऑपरेशंस के लिए अधिक ऊर्जा की जरूरत पड़ती है। आगे हम अपना ध्यान एआई पर ही केंद्रित करेंगे क्योंकि इस क्षेत्र का फैलाव अनपेक्षित तेजी से हो रहा है। ज्यादातर बड़ी एआई कंपनियों का केंद्र फिलहाल अमेरिका में ही है और अमेरिकियों का मानना है कि अगले पांच साल बीतते न बीतते, यानी सन 2030 तक ही उनकी कुल बिजली खपत का 9 फीसदी अकेले एआई के हिस्से जा रहा होगा। 

कृत्रिम बुद्धि इतनी बिजली का आखिर करती क्या है? सबसे पहले हम इसी बारे में कुछ जानकारियां जुटाते हैं। उसके बिजली खर्चे के पांच मुख्य चरण हैं, जिनपर हम एक-एक करके नजर डालेंगे। हमारे तक, यानी आम उपभोक्ता तक यह अपने आखिरी चरण में पहुंचती है और हमारे छोर पर ना के बराबर ही बिजली खाती है। 

एआई का पॉवर कंजम्प्शन ऊपर से शुरू होता है और वहां तक सोचना हमारे लिए अक्सर जरूरी भी नहीं होता। यह भी कि जिस एआई से हम काम लेते हैं, वह इस तकनीक का सिर्फ एक रूप है, हालांकि इसकी स्थिति धुरी जैसी है। 

एआई का काम पैटर्न पकड़ना है, जिसके लिए वह एक मॉडल का इस्तेमाल करती है। बहुत सारी तुलनाएं करते हुए, समानता और अंतर के आधार पर उसको नतीजे तक पहुंचना होता है।

फिलहाल हम ‘लार्ज लैंग्वेज मॉडल’ (एलएलएम) के बारे में ही बात करेंगे, क्योंकि अपने इर्दगिर्द हमें यही दिखता है। ऐसे हर मॉडल में लाखों-करोड़ों 'पैरामीटर' काम में लाए जाते हैं। पैरामीटर बोले तो तुलना की बुनियादें, या यूं कहें कि सूचना का पहाड़ चढ़ने के लिए गड़ी हुई खूंटियां। जिस मॉडल में जितने ज्यादा पैरामीटर, उतना ही वह बड़ा और जटिल मॉडल। ओपेनएआई के ‘जीपीटी-4’, गूगल के ‘पाम’ या जेमिनी और मेटा के ‘लामा’ जैसे लार्ज लैंग्वेज मॉडल में खरबों पैरामीटर मौजूद हैं। 

इन्हें ट्रेनिंग देने से लेकर इस्तेमाल करने तक बेहिसाब गणनाएं करनी पड़ती हैं। एक मोटा अनुमान है कि जितनी बिजली एक मॉडल को चलाने में खर्च होती है, उसकी एक चौथाई उसे ट्रेनिंग देने में ही लग जाती है। ध्यान रहे, मॉडल को दिन-रात चलाते रहने वाले लोगों की संख्या करोड़ों में होती है, जो अरबों में भी जा सकती है, जबकि उसे ट्रेनिंग देने वाली टीम छोटी होती है और वह छोटे दायरे में ही काम करती है। एआई मॉडल को ट्रेन करना किसी बच्चे को बहुत सारी किताबें पढ़ाकर होशियार बनाने जैसा है, लेकिन यह प्रक्रिया बहुत ज़्यादा बिजली खाती है। 

इसमें मॉडल को बहुत बड़े डेटासेट पर बार-बार चलाया जाता है ताकि वह पैटर्न सीख सके और सही नतीजे दे सके। लार्ज लैंग्वेज मॉडल के लिए यह डेटासेट सिर्फ शब्दों का होता है। जीपीटी-3 में 17 लाख करोड़ शब्दों पर काम करने की क्षमता थी! किसी और मॉडल का डेटासेट विज्ञान के एक खास दायरे में पूरी दुनिया में अबतक हुए प्रयोगों और प्रेक्षणों का हो सकता है। मॉडल ट्रेनिंग के इस काम में ग्रैफिक्स प्रॉसेसिंग यूनिट (जीपीयू) और टेंसर प्रॉसेसिंग यूनिट (टीपीयू) नाम के हजारों खास तरह के प्रॉसेसर हफ्तों या महीनों लगातार काम करते हैं। इन प्रॉसेसर्स का इस्तेमाल हाल तक सिर्फ गेम खेलने में होता था, लेकिन अभी इनकी मेन ड्यूटी बदल गई है। 

मॉडल ट्रेनिंग के काम में तो भारी बिजली खर्च होती ही है, प्रॉसेसर्स को ठंडा करके कामकाजी बनाए रखने में भी कुछ कम ऊर्जा नहीं लगती। एक बार मॉडल अपना काम सीख जाए, फिर जो काम हम उससे लेते हैं उसे 'इनफरेंस' कहते हैं। एक अकेले इनफरेंस में कुछ नहीं जाता, लेकिन करोड़ों लोगों ने दिन-रात सवालों की झड़ी लगा रखी हो तो मशीन को इनका सही जवाब तुरत-फुरत खोज लाने में कितनी बिजली खर्च करनी पड़ती होगी, इसकी कल्पना ही की जा सकती है। ऊपर जिन जीपीयू और टीपीयू की बात हमने की, वे एक साथ ढेरों गणनाएं कर सकते हैं, इसलिए एआई के काम में वे काफी अच्छे साबित होते हैं। इन प्रॉसेसर्स की नई पीढ़ियाँ कम बिजली में भी ज्यादा काम करने लगी हैं, लेकिन एआई की भूख इतनी तेज बढ़ रही है कि उनकी किफायतशारी काम नहीं आ रही है। 

एआई के मामले में बिजली का एक बड़ा खर्चा डेटा सेंटरों से भी जुड़ा है। दुनिया भर की लगातार बदल रही जानकारियां, मानव इतिहास में अभी तक का संचित ज्ञान, इसकी सारी रचनात्मकता डिजिटाइज होकर डेटा सेंटरों में पहुंच रही है। एआई के मॉडल्स इसी डेटा बेस पर ट्रेन किए जाते हैं और फिर दुनिया भर से आए सवालों का जवाब खोजने के लिए वे ऐसे ही डेटा बेसेज पर काम करते हैं। ये सारी सूचनाएं, जानकारियां तभी सुरक्षित रह सकती हैं, जब उन्हें स्टोर करने वाले बेस लगातार ठंडे रखे जाएं और बिजली के किसी बड़े फ्लक्चुएशन से उन्हें न गुजरना पड़े। इसके लिए डेटा बेसेज में और उनके विशाल ‘लिक्विड कूलिंग सिस्टम’ में बैक-अप के उपायों के साथ बिजली की भारी और स्थिर आपूर्ति जरूरी है। इसके लिए जो उपाय किए गए हैं, उन्हें सुनकर माथा घूम जाता है। 

गूगल और मेटा इस काम के लिए अपने छोटे-छोटे परमाणु बिजलीघर खड़े करने की योजना पर काम कर रहे हैं। दोनों कंपनियों को अपने एआई कारोबार के लिए डेढ़-डेढ़ सौ मेगावाट बिजली की जरूरत है, जो फिलहाल ग्रिड से ही पूरी हो रही है। लेकिन बैक-अप की व्यवस्था उन्हें फिर भी रखनी ही होगी। सिस्टम का आकार अभी जितना बड़ा हो गया है, बाहर से आ रही बिजली में कोई समस्या आ जाने पर मजबूत से मजबूत जेनरेटर या इनवर्टर भी सहज ढंग से उसे चलाते रहने की व्यवस्था नहीं कर सकता। डेढ़ सौ मेगावाट का परमाणु बिजलीघर दस साल से कम समय में नहीं बन सकता, लिहाजा उन्हें मॉड्युलर फिशन रिएक्टर की उभरती टेक्नॉलजी पर भरोसा करना होगा।

इसके विपरीत, इलॉन मस्क के कारखाने से निकली एआई ‘ग्रॉक’ का पैमाना अचानक इतना बड़ा हो गया है कि उनकी कंपनी मॉड्युलर एटॉमिक रिएक्टर का भी भरोसा नहीं कर सकती। दुनिया की सारी कंपनियां अभी मॉडल ट्रेनिंग के लिए कुछ हजार जीपीयू और टीपीयू का इस्तेमाल कर रही हैं, लेकिन ग्रॉक सीधे दस लाख ऐसे ही प्रॉसेसर्स जमा करने की राह पर है। अपने सिस्टम और डेटाबेस की विशाल ऊर्जा जरूरत पूरी करने के लिए वह मस्क की ही टेस्ला कंपनी की बनाई विशाल बैटरियों का इस्तेमाल करने जा रहा है। मस्क का दावा है कि इन बैटरियों को अक्षय ऊर्जा स्रोतों से ही चार्ज किया जाएगा, लिहाजा उनकी एआई को पर्यावरण हितैषी (ग्रीन) तकनीक माना जाए! 


Friday, 2 May 2025

40 गुना तेजी से पदार्थ को निगलने वाला ब्लैक होल


 डॉ शशांक द्विवेदी

परियोजना प्रबंधक, टीएसएससी

(कौशल विकास एवं उद्यमिता मंत्रालय,भारत सरकार)

जेम्स वेब टेलीस्कोप ने हाल ही में एक "असंभव" ब्लैक होल का पता लगाया है, जो अपनी सैद्धांतिक सीमा से 40 गुना तेजी से पदार्थ को निगल रहा है यह खोज एडिंगटन सीमा नामक एक सैद्धांतिक सीमा से परे है, जो किसी ब्लैक होल द्वारा अवशोषित किए जा सकने वाले पदार्थ की अधिकतम दर को निर्धारित करती है 

जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप ने LID-568 नामक एक प्राचीन ब्लैक होल का अध्ययन किया, जो बिग बैंग के मात्र 1.5 अरब साल बाद अस्तित्व में था। यह ब्लैक होल, जो सूर्य के द्रव्यमान का लगभग 10 लाख गुना है, असाधारण रूप से तेजी से पदार्थ को निगल रहा है, जिससे यह एडिंगटन सीमा (वह सैद्धांतिक अधिकतम दर जिस पर ब्लैक होल विकिरण दबाव और गुरुत्वाकर्षण के संतुलन के कारण पदार्थ को अवशोषित कर सकता है) से 40 गुना अधिक है।

जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप के अवलोकनों, विशेष रूप से इसके निकट-अवरक्त स्पेक्ट्रोस्कोपी के माध्यम से, ने इस "असंभव" ब्लैक होल की सच्चाई को उजागर किया। शोधकर्ताओं ने पाया कि LID-568 में अत्यधिक घने और गर्म पदार्थ की एक डिस्क है, जो अत्यधिक कुशलता से ऊर्जा उत्पन्न करती है। यह दक्षता, संभवतः मजबूत चुंबकीय क्षेत्रों द्वारा संचालित, ब्लैक होल को इतनी अधिक चमक के साथ पदार्थ को अवशोषित करने में सक्षम बनाती है। इसके अतिरिक्त, शक्तिशाली गैस जेट्स, जो इसके ध्रुवों से निकलते हैं, पदार्थ को बाहर निकालते हैं, जिससे यह एडिंगटन सीमा को पार कर सकता है।

यह खोज, जो नेचर पत्रिका में प्रकाशित हुई, यह समझने में महत्वपूर्ण है कि शुरुआती ब्रह्मांड में सुपरमैसिव ब्लैक होल इतनी तेजी से कैसे विकसित हुए। यह सुझाव देता है कि कुछ ब्लैक होल, जैसे LID-568, विशेष परिस्थितियों में अति-तेजी से वृद्धि कर सकते हैं, जिससे प्रारंभिक ब्रह्मांड में विशाल ब्लैक होल के निर्माण का रहस्य सुलझाने में मदद मिलती है।

क्या होता है ब्लैक होल

ब्लैक होल  एक ऐसी खगोलीय वस्तु है, जिसका गुरुत्वाकर्षण इतना शक्तिशाली होता है कि प्रकाश भी उससे बचकर निकल नहीं सकता। यह अंतरिक्ष में एक क्षेत्र होता है, जहां द्रव्यमान अत्यधिक सघन  होता है।  ब्लैक होल आमतौर पर तब बनते हैं, जब कोई विशाल तारा (सुपरनोवा विस्फोट के बाद) अपने जीवनकाल के अंत में ढह जाता है। इसके अलावा, छोटे ब्लैक होल ब्रह्मांड के प्रारंभिक चरण में बिग बैंग के दौरान भी बन सकते हैं। इवेंट होराइजन ब्लैक होल की वह सीमा है, जिसके अंदर से कुछ भी (प्रकाश सहित) बाहर नहीं निकल सकता। इसे "नो रिटर्न पॉइंट" भी कहते हैं। ब्लैक होल अंतरिक्ष में पाई जाने वाली ऐसी जगह होती है, जहां गुरुत्वाकर्षण बल बहुत अधिक होता, जिसके प्रभाव क्षेत्र में आने पर कोई भी वस्तु यहां तक कि प्रकाश भी उससे बच नहीं सकता है। प्रकाश भी उसके अंदर समा जायेगा । जब कोई विशाल सितारा अपने द्रव्यमान और गुरुत्वाकर्षण के कारण ढह जाता है, यानि उसका सारा द्रव्यमान छोटे से क्षेत्र में सिमट कर रह जाता है, तो वह ब्लैक होल बन जाता है।ब्लैक होल का पलायन वेग बहुत ही अधिक होता है, इसलिए प्रकाश भी उसके अंदर जाने के बाद बाहर नहीं निकल सकता है। ब्लैक होल अदृश्य होते हैं, क्योंकि वे प्रकाश को अवशोषित कर लेते हैं। लेकिन इनका पता उनके आसपास के पदार्थ (जैसे गैस या तारे) पर प्रभाव और गुरुत्वाकर्षण लेंसिंग से चलता है। ये समय और अंतरिक्ष को भी विकृत करते हैं। स्टीफन हॉकिंग के अनुसार, ब्लैक होल पूरी तरह "काले" नहीं होते। वे क्वांटम प्रभावों के कारण धीरे-धीरे ऊर्जा (हॉकिंग विकिरण) उत्सर्जित करते हैं और समय के साथ सिकुड़ सकते हैं।

जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप का अवलोकन

जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप के अवलोकनों से पता चलता है कि भौतिकी को चुनौती देने वाला "तेज़ गति से भोजन करने वाला" ब्लैक होल वास्तव में बहुत सामान्य है। टेलीस्कोप  का उपयोग करने वाले खगोलविदों ने बताया कि उन्हें प्रारंभिक ब्रह्मांड से एक ब्लैक होल मिला है जो सैद्धांतिक रूप से संभव से 40 गुना तेज़ी से पदार्थ को खा रहा था। हालाँकि, नए शोध से पता चलता है कि यह अत्यधिक भोजन करने की दर एक अतिशयोक्ति हो सकती है। "रिकॉर्ड तोड़ने वाले" ब्लैक होल के जेम्स टेलीस्कोप  अवलोकनों पर फिर से विचार करने के बाद, खगोलविदों ने पुष्टि की कि यह बिल्कुल भी चरम नहीं है।

शोधकर्ताओं ने पाया कि वास्तव में, भारी धूल ने ब्लैक होल को अस्पष्ट कर दिया, जिससे गलत गणनाएँ हुईं । एक संचित ब्लैक होल में, गिरने वाली सामग्री को संपीड़ित और गर्म किया जाता है, जिससे यह उच्च-ऊर्जा विकिरण उत्सर्जित करता है जैसे कि एक्स-रे जो सामग्री को दूर धकेलते हैं। ब्लैक होल द्वारा उपभोग किए जा सकने वाले पदार्थ की मात्रा एडिंगटन सीमा द्वारा नियंत्रित होती है, जो अधिकतम चमक को परिभाषित करती है जिस पर बाहरी विकिरण दबाव ब्लैक होल के गुरुत्वाकर्षण खिंचाव को संतुलित करता है। यह सीमा सीधे ब्लैक होल के द्रव्यमान पर निर्भर करती है - द्रव्यमान जितना अधिक होगा, एडिंगटन सीमा उतनी ही अधिक होगी।

धूल में छोड़ दिया गया

ब्लैक होल की भूख के बारे में शुरुआती गलत अनुमान का कारण यह है कि धूल प्रकाश को अवशोषित करती है और बिखेरती है, जो ब्लैक होल से हम तक पहुँचने वाले प्रकाश को काफी हद तक मंद कर देती है।

"LID-568 जैसी भारी धूल से ढकी वस्तु के लिए, यह बहुत महत्वपूर्ण है कि धूल के विलुप्त होने को ठीक से ठीक किया जाए," सियोल नेशनल यूनिवर्सिटी एस्ट्रोनॉमी रिसर्च सेंटर के निदेशक और अध्ययन के सह-लेखक म्युंगशिन इम के अनुसार यदि इस प्रभाव को ठीक से नहीं समझा जाता है, तो इससे ब्लैक होल के द्रव्यमान की गलत गणना हो सकती है, जो बदले में, इससे जुड़ी एडिंगटन सीमा को प्रभावित करती है।

इम ने बताया कि, टीम के अध्ययन में, शोधकर्ताओं ने इसके चारों ओर गैस से अवरक्त प्रकाश का उपयोग करके ब्लैक होल के द्रव्यमान को मापा। अवरक्त विकिरण ऑप्टिकल प्रकाश की तुलना में धूल से बहुत कम प्रभावित होता है, जिसका उपयोग ब्लैक होल द्रव्यमान माप के लिए पिछले अध्ययन में किया गया था।

इस अलग दृष्टिकोण ने उन्हें ब्लैक होल के द्रव्यमान की गणना करने की अनुमति दी जो कि एक अरब सौर द्रव्यमान से थोड़ा कम है - पिछले अनुमान से लगभग 40 गुना अधिक। इस संशोधित ब्लैक होल द्रव्यमान का उपयोग करके, एडिंगटन चमक की पुनर्गणना की गई। कुल मिलाकर, देखी गई चमक एडिंगटन सीमा से काफी मेल खाती थी। इसलिए, जब ब्लैक होल को देखा गया तो वह सुपर-एडिंगटन चरण में नहीं था, टीम ने निष्कर्ष निकाला। यह केवल धूल से घिरा हुआ था।

परिणामस्वरूप, एलआईडी-568 की वर्तमान फीडिंग आदतों को सुपरमैसिव ब्लैक होल के विकास के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। टीम के दृष्टिकोण से आकाशगंगाओं के एक नए वर्ग में धूल से छिपे ब्लैक होल की बेहतर समझ हो सकती है, जिन्हें "छोटे लाल बिंदु" कहा जाता है।

(लेखक टीएसएससी, कौशल विकास एवं उद्यमिता मंत्रालय,भारत सरकार में परियोजना प्रबंधक हैं )

Monday, 28 April 2025

दूसरे ग्रह पर जीवन की खोज !

 

डॉ. शशांक द्विवेदी

परियोजना प्रबंधक

टीएसएससी, कौशल विकास एवं उद्यमिता मंत्रालय,भारत सरकार

काफी समय से  ये सवाल उठता रहा है कि, क्या पृथ्वी के अलावा ब्रह्माण्ड के किसी दूसरे ग्रह पर जीवन मौजूद है? क्या किसी ग्रह पर एलियंस की मौजूदगी है-एलियंस का घर है? इन सवालों का जवाब जानने और नए-नए ग्रहों की खोज करने में हजारों वैज्ञानिक दिन-रात जुटे हुए हैं। मगर अब एक भारतीय वैज्ञानिक को अपनी खोज में ऐसी सफलता हाथ लगी है, जिसने पूरी दुनिया को चौंका दिया है।

भारतीय वैज्ञानिक डॉ. निक्कू मधुसूदन ने एक ऐसी खोज की है, जिससे दुनियां आश्चर्यचकित है आईआईटी -बीएचयू  और एमआईटी  से पढ़े इस वैज्ञानिक ने कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में अपनी टीम के साथ जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप से 120 प्रकाश वर्ष दूर एक खास ग्रह K2-18b को देखा परखा।

खोज में क्या मिला?

डॉ. मधुसूदन की खोज में जीवन के पुख्ता संकेत मिलें हैं। ग्रह पर डाइमिथाइल सल्फाइड (DMS) नाम का एक खास अणु मिला है जो पृथ्वी पर सिर्फ जीव बनाते हैं- जैसे समुद्री पौधे। वहां मीथेन और कार्बन डाइऑक्साइड जैसी गैसें भी हैं, जो बताती हैं कि ग्रह हाइसीन वर्ल्ड है- यानी ऐसा ग्रह, जहां ढेर सारा पानी और हाइड्रोजन भरा वातावरण हो, जो जीवन के लिए सही हो सकता है।

डॉ. मधुसूदन ने ही सबसे पहले हाइसीन ग्रहों की बात दुनिया को बताई थी। उनकी खोज द एस्ट्रोफिजिकल जर्नल में छपी है और इसे अब तक का सबसे बड़ा जीवन का सबूत माना जा रहा है। यह खोज उस सवाल को भी हवा देती है कि अगर ब्रह्मांड में जीवन है, तो हमने अब तक एलियंस क्यों नहीं देखे? डॉ. मधुसूदन का जवाब है कि अगर इस ग्रह पर जीवन मिला, तो शायद हमारी आकाशगंगा में जीवन हर जगह हो!

डॉ निक्कू मधुसूदन ने पहले K2-18b ग्रह को खोजा , फिर रिसर्च में पता किया है कि इस ग्रह के वायुमंडल में हाइड्रोजन मौजूद है। इस ग्रह के वायुमंडल में भारी हाइड्रोजन मौजूद है। रिसर्च के दौरान ये भी पता चला है कि इस ग्रह पर महासागर है। ऐसे में यहां जीवन की संभावना काफी है। बता दें कि ये ग्रह पृथ्वी से 120 लाइट इयर दूर यानी 1.13 ट्रिलियन किलोमीटर (700 ट्रिलियन मील) दूर है.  तारा K2-18 हमारे सूरज की तुलना में छोटा और नया है। इसकी मोटाई सूरज की 45 फीसदी और आयु लगभग पौने तीन अरब साल है। ध्यान रहे, हमारे सूरज की उम्र का हिसाब पांच अरब साल के आसपास लगाया गया है। K2-18 की सतह का तापमान भी सूरज के आधे से थोड़ा ही ज्यादा है। इसका तकनीकी नाम ब्राउन ड्वार्फ है लेकिन अभी हम 'लाल तारा' ही चलाते हैं।

इस तारे के इर्दगिर्द घूमने वाला भीतर से दूसरा ग्रह K2-18बी पृथ्वी से काफी बड़ा है। इसकी त्रिज्या पृथ्वी की ढाई-तीन गुनी है। इस हिसाब से इसका वजन पृथ्वी का 20-25 गुना होना चाहिए था, बशर्ते इसकी बनावट पृथ्वी जैसी ही होती। लेकिन वजन में यह पृथ्वी का साढ़े आठ से दस गुना ही है। इससे एक बात साफ है कि इसका घनत्व पृथ्वी से काफी कम है। ऐसा वहां लोहा कम होने के चलते भी हो सकता है और ग्रह में द्रव-गैस ज्यादा होने से भी।


एक अच्छी बात इस ग्रह के साथ यह है कि यह अपने तारे के गोल्डिलॉक जोन में पड़ता है। यानी पानी वहां द्रव अवस्था में मौजूद हो सकता है। ग्रह का औसत तापमान 23 डिग्री सेल्सियस से 27 डिग्री सेल्सियस के बीच होने का अनुमान लगाया गया है। यह खुद में एक आश्चर्यजनक बात ही है क्योंकि अपने तारे के इर्दगिर्द इसकी कक्षा हमारे सौरमंडल में बुध ग्रह की तुलना में आधी से भी छोटी है। डॉ  मधुसूदन के अनुसार  समुद्र की सबसे आम वनस्पति और समुद्री खाद्य शृंखला की बुनियाद समझे जाने वाले फाइटोप्लैंक्टन द्वारा उत्सर्जित ये गैसें पृथ्वी के वातावरण में जिस अनुपात में पाई जाती है, K2-18बी पर इनकी उपस्थिति उसकी कम से कम हजार गुना प्रेक्षित की गई है। तो क्या एक सुदूर तारे के इर्दगिर्द घूम रही इस दुनिया में समुद्रों की भरमार है, जहां समुद्री जीवन की नींव के रूप में फाइटोप्लैंक्टन की फसलें लहलहा रही हैं?

कौन हैं डॉ. निक्कू मधुसूदन?

भारत में 1980 में जन्मे, डॉ. मधुसूदन ने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, बीएचयू , वाराणसी से  बीटेक  की डिग्री हासिल की ।  ​​बाद में, उन्होंने मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी  से मास्टर डिग्री के साथ-साथ पीएचडी भी की।  2009 में उनकी पीएचडी थीसिस हमारे सौर मंडल के बाहर के ग्रहों के वायुमंडल का अध्ययन करने के बारे में थी, जिन्हें एक्स्ट्रासोलर ग्रह कहा जाता है।

किसने खोजा था हमारी पृथ्वी को

हम अपनी पृथ्वी की तरह ही दूसरी पृथ्वी खोज रहें हैं ऐसे में यह जानना भी जरुरी है कि हमारी पृथ्वी कि खोज किसने की थी।  हमारी अपनी पृथ्वी,जिसमें हम रह रहें हैं उसकी खोज का श्रेय फर्डिनैंड मैगलन को दिया जाता है। मैगलन एक पुर्तगाली अन्वेषक थे जिन्होंने 1519 में स्पेन से एक अभियान शुरू किया, जिसका उद्देश्य मसाला द्वीप (आज का इंडोनेशिया) तक पहुंचने का मार्ग खोजना था। उन्होंने और उनके दल ने पृथ्वी की परिक्रमा की और दुनिया को बताया कि पृथ्वी गोल है।

कुलमिलाकर अब वैज्ञानिकों की नजर इस ग्रह पर टिकी है। इस ग्रह पर गहरा शोध किया जा रहा है। माना जा रहा है कि आने वाले समय में जैसे-जैसे इस ग्रह के रहस्य से पर्दा उठेगा, कई हैरान कर देने वाले खुलासे वैज्ञानिक कर सकते हैं।