Thursday 27 August 2015

कैसे दूर होगी कॉल ड्रॉप की समस्या ?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अधिकारियों से कॉल ड्रॉप की समस्या को तुरंत सुलझाने को कहा है. उन्होंने कहा कि इससे सीधे आम आदमी को परेशानी होती है. प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में हुई एक उच्च स्तरीय बैठक में यह निर्देश दिया गया. बैठक में उन्होंने डिजिटल एवं ग्रामीण बुनियादी ढांचा के अलावा कनेक्टिविटी की प्रगति की समीक्षा की. प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा जारी बयान के अनुसार, प्रधानमंत्री ने जतायी और अधिकारियों से पूछा कि आम आदमी को प्रभावित करने वाले इस समस्या के हल के लिये क्या किया जा रहा है. बयान में कहा गया है, उन्होंने समस्या के समाधान के लिये तेजी से कदम उठाने का निर्देश दिया और यह भी सुनिश्चित करने को कहा कि वॉयस कनेक्टिविटी की समस्या डेटा कनेक्टिविटी तक नहीं पहुंचे. बैठक में मोदी को देश भर में मोबाइल कनेक्टिविटी की स्थिति से अवगत कराया गया. उन्होंने अधिकारियों से दूरदराज और फोन संपर्क सुविधाओं से वंचित क्षेत्रों में रेलवे तथा अन्य संचार संबंधी ढांचागत सुविधाओं समेत मौजूदा संसाधनों का उपयोग करने को कहा. बयान के अनुसार, उन्होंने जोर देकर कहा कि डिजिटल बुनियादी ढांचे के लक्ष्य को डिजिटल इंडिया पहल के लक्ष्य के साथ जोड़ा जाना चाहिए. प्रधानमंत्री ने 1,000 दिन के भीतर देश में बिजली सुविधा से वंचित गांवों में बिजली पहुंचाने के लिये की गयी तैयारियों के बारे में अधिकारियों से ब्योरा मांगा. इसका जिक्र था. उन्होंने संबंधित विभागों को तात्कालिक आधार पर इस लक्ष्य में हुई प्रगति पर नजर रखने का निर्देश दिया. 
मोबाइल पर बात करते-करते फोन कट जाने (कॉल ड्रॉप) की समस्या विकट रूप धारण करती जा रही है। आखिर इससे कैसे निपटा जाए
हमारे मोबाइल फोन पर इतनी अधिक कॉल ड्रॉप आखिर क्यों होती हैं? सेवा प्रदाता कहते हैं कि ऐसा मोबाइल टावरों की कमी के चलते और बहुत कम स्पेक्ट्रम के चलते होता है। इसके बरअक्स सरकार का रुख विरोधाभासी है। वह कम कीमत पर बेहतर सेवाएं चाहती है जबकि वह बहुत अधिक टावरों के कारण चिकित्सकीय दिक्कतों की आशंका से भी ग्रस्त रहती है। इतना ही नहीं सरकार यह भी चाहती है कि सेवा प्रदाता नीलामी के जरिये स्पेक्ट्रम हासिल करने के क्रम में अत्यधिक धन खर्च करें। सरकार का कहना है कि स्पेक्ट्रम की कहीं कोई कमी नहीं है। सेवा प्रदाताओं को केवल निवेश करना है। क्या इन तमाम बातों के बीच बेहतर सेवाएं हासिल करने की गुंजाइश बनती है। इस स्थिति में कई बातें ऐसी भी हैं जिनका ताल्लुक प्रौद्योगिकी से लेकर नियामकीय पहलुओं और प्रशासनिक पहलुओं (नीतियों और नियमन) अथवा प्रबंधकीय पहलुओं (ढांचा, संगठन और प्रक्रिया)आदि से है। कॉल ड्रॉप की समस्या का निदान तलाश करने की कोशिश में इन्हें समझना और इनका प्रबंधन करना अत्यावश्यक है।

सबसे पहले सरसरी तौर पर नजर मारते हैं। एक सेवा प्रदाता कई सेल टावरों का परिचालन करता है जो एक दूसरे से जुड़े रहते हैं। इनके अलावा वह अन्य सेवा प्रदाताओं के टावर फिक्स्ड नेटवर्क की सहायता भी लेता है। साधारण तौर पर एक सेल टावर एक सेवा प्रदाता के लिए एक इलाके को कवर करता है। वहां एक ट्रांसीवर स्टेशन (रेडियो), एंटीना और कुछ अन्य उपकरण होते हैं। रेडियो को दो टावरों के बीच बेतार संचार तथा उस टावर से जुड़े उपभोक्ताओं तक संचार पहुंचाने के लिए स्पेक्ट्रम की आवश्यकता होती है। 

स्पेक्ट्रम और लाइसेंसिंग लागत से इतर किसी क्षेत्र में मौजूद टावरों की संख्या पूंजी और परिचालन लागत, उपयोग की गई ऊर्जा एवं सामग्री तथा पर्यावरण सभी से प्रभावित होती है। प्रत्येक टावर से एक खास संख्या में उपभोक्ता जुड़े रहते हैं और स्पेक्ट्रम का इस्तेमाल बेतार के संचार के लिए किया जाता है। जितने ज्यादा उपभोक्ता होंगे, उतने ही अधिक स्पेक्ट्रम की आवश्यकता महसूस होगी। ऐसे में सीमित टावरों पर कॉल का बोझ बढ़ता है और उनको अधिक स्पेक्ट्रम की आवश्यकता होती है। जहां टावर अधिक हैं, वहां सीमित स्पेक्ट्रम में काम चल जाता है लेकिन अधिक टावरों के प्रबंधन के लिए अधिक उपकरण चाहिए। यह बात लागत और पर्यावरण प्रभाव में इजाफा करती है। दूसरे शब्दों में कहें तो एक दी गई फ्रीक्वेंसी के दायरे में और सीमित टावरों और उपभोक्ताओं के रहते अपेक्षाकृत कम बैंड का स्पेक्ट्रम भी बेहतर प्रदर्शन कर सकता है। कॉल ड्रॉप तब भी हो सकती है जब स्पेक्ट्रम कम हो और उपभोक्ता ज्यादा। उस स्थिति में स्पेक्ट्रम में भार वहन क्षमता ही नहीं रह जाती है। अगर उपभोक्ता टावर के नजदीक होते हैं तो उनको बढिय़ा नेटवर्क मिलता है लेकिन अगर अन्य कंपनियों के टावर भी करीब ही हों तो सिग्नल से आने वाला हस्तक्षेप उसके  स्पेक्ट्रम को प्रभावित करता है और तब संकेत हासिल करना थोड़ा मुश्किल हो सकता है।

दूर स्थित टावर और कमजोर सिग्नल का नतीजा अक्सर खराब ही होता है। टावर से उपभोक्ता जितना करीब होगा उसे उतना ही मजबूत सिग्नल मिलेगा लेकिन इसके लिए यह भी जरूरी है कि अन्य कंपनियों के टावर आसपास न स्थित हों। अगर उनके सिग्नल भी उतने ही मजबूत हुए तो समस्या पैदा हो सकती है। 900 मेगाहट्र्ज स्पेक्ट्रम के लिए एंटीना की ऊंचाई करीब 10 मीटर हो तो दिल्ली में कम स्पेक्ट्रम के चलते यह 100 मीटर तक कारगर हो सकता है। जबकि इस्तांबुल में समान परिदृश्य में 200 मीटर तक अच्छा नेटवर्क मिलता है। म्यूनिख और बर्लिन में यह दूरी क्रमश: 300 और 350 मीटर हो जाती है।

अधिक स्पेक्ट्रम होने का एक अन्य लाभ यह है कि सबसे अधिक व्यस्त समय में भी दूरसंचार कंपनियों की क्षमता पर बहुत अधिक असर नहीं पड़ता। ऐसे में बिना कॉल ड्रॉप या कॉल ब्लॉक के सही ढंग से बात हो जाती है। हमारी समस्या यह है कि हमारे पास सेवा प्रदाता तो ढेर सारे हैं लेकिन उनके पास बहुत कम स्पेक्ट्रम उपलब्ध है। यह समस्या की वजह बनता है। जनता के दबाव या पर्यावरण संबंधी वजहों के चलते टावरों की संख्या में कमी आने से सही मायनों में दिक्कत शुरू होती है। लेकिन केवल नए टावरों का निर्माण करना ही समस्या का निदान नहीं है क्योंकि इससे स्पेक्ट्रम की कमी की समस्या नहीं दूर हो सकती। अन्य टावरों की मौजूदगी और उनके हस्तक्षेप के कारण भी स्पेक्ट्रम की क्षमता प्रभावित होती है। हमारे देश में पर्याप्त वाणिज्यिक स्पेक्ट्रम उपलब्ध नहीं कराया गया है। ऐसे में टावर चाहे जितने बढ़ा लिए जाएं, कॉल ड्रॉप की समस्या का निदान नहीं होने वाला। इसके अलावा नए टावर खड़े करने की प्रक्रिया महंगी है। पर्यावरण पर भी उसका नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। 

चीन से तुलना 

चीन और भारत के रवैये की तुलना की जाए तो इस बात में शुबहा नहीं रह जाता कि हमें अपना रवैया बदलने की आवश्यकता है। चीन ने सेवा प्रदाताओं को सस्ता स्पेक्ट्रम उपलब्ध कराया है ताकि आर्थिक विकास को बढ़ावा दिया जा सके। इसके अलावा भी उसने अन्य तरह का समर्थन उपलब्ध कराया है। विदेशी हिस्सेदारी के बावजूद उसने बहुत अधिक शुल्क नहीं थोपा है। भारत में बाजार की तुलना में कहीं अधिक सेवा प्रदाता हैं। यहां पर्याप्त वाणिज्यिक स्पेक्ट्रम उपलब्ध नहीं है और जो थोड़ा बहुत है भी उसकी कीमत बहुत अधिक है। यही वजह है कि सरकार के पास बहुत सारा स्पेक्ट्रम बेकार पड़ा है जबकि बड़े-बड़े सेवा प्रदाताओं को सीमित स्पेक्ट्रम में काम चलाना पड़ रहा है। आने वाले दिनों में स्थिति सुधरने के बजाय और अधिक खराब ही होगी। उल्लेखनीय है कि प्रभावी डाटा संचार के लिए व्यापक बैंड की आवश्यकता है। 

संभावित उपाय

एक संभावना यह है कि ऐसी नीतियां और नियम अपनाए जाएं जहां स्पेक्ट्रम को और अधिक किफायती बनाया जा सके। रोमिंग और स्पेक्ट्रम कारोबार की भी अनुमति प्रदान की जा सके। इससे स्पेक्ट्रम नीलामी पर होने वाले अत्यधिक खर्च पर तो कोई असर नहीं होगा लेकिन संभवत: स्पेक्ट्रम के इस्तेमाल को किफायती बनाने में अवश्य मदद मिलेगी। इसके अलावा तमाम स्पेक्ट्रम की पूलिंग की इजाजत के अलावा भुगतान के आधार पर रेडियो एक्सेस नेटवर्क (स्पेक्ट्रम समेत) तक कॉमन कैरियर पहुंच की सुविधा दी जानी चाहिए। अगर ग्रामीण सेवाओं के लिए छूट जैसी रियायतों के साथ इसके लिए तार्किक दर रखी जाए तो यह ब्रॉडबैंड सेवा मुहैया कराने में जबरदस्त भूमिका निभा सकता है। सही समन्वय और तालमेल से यह सरकार के राजस्व में बढ़ोतरी का सबब भी बनेगा। सरकार को सेवा प्रदाताओं और अन्य अंशधारकों को एक साथ लाना होगा। इसमें सूचना प्रौद्योगिकी एवं दूरसंचार मंत्रालय तथा सूचना प्रसारण मंत्रालय भी शामिल हैं। उसके बाद ही वह डिजिटल इंडिया का वादा निभाने की दिशा में योजना तैयार कर सकती है। 

मोबाइल फोन पर बातचीत करते समय कई बार आपकी कॉल अचानक कटी होगी। यही कॉल ड्रॉप है, जिसे लेकर केंद्र सरकार और टेलीकॉम कंपनियों में ठनी हुई है। सरकार इसे मुनाफा बढ़ाने की कंपनियों की साजिश मान रही है। उसने टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया (ट्राई) से इन कंपनियों के टैरिफ प्लान की जांच के लिए कहा है। वैसे ट्राई भी इन कंपनियों से कभी संतुष्ट नहीं रही। 2013 में उसने सर्विस क्वालिटी खराब पाए जाने पर टेलीकॉम कंपनियों के खिलाफ पांच करोड़ रुपए का जुर्माना ठोका था।
कॉल ड्रॉप की समस्या को लेकर टेलीकॉम कंपनियां और सरकार एक बार फिर आमने-सामने हैं। आइए जानते हैं क्या है यह विवाद और इसमें किसका क्या पक्ष है...।
सरकार का नजरिया
सरकार का मानना है कि कंपनियां ग्राहकों को बेहतर संचार सुविधा देने के क्षेत्र में निवेश ही नहीं कर रही। यही वजह है कि ट्राई के अनुसार पिछले एक साल में कॉल ड्रॉप का प्रतिशत दोगुना हुआ है और यह तय सीमा (तीन प्रतिशत) से चार गुना ज्यादा है। देश में मौजूद 2जी के 183 नेटवर्क सर्किल में से 25 यानी हर सात में से एक ट्राई के कॉल ड्रॉप को लेकर बने मापदंडों पर खरा नहीं उतरते।
कंपनियों के तर्क 
कंपनियां पर्याप्त स्पेक्ट्रम और टॉवर पॉलिसी न होने के बहाने समस्या का ठीकरा सरकार के सिर फोड़ रही हैं। टेलीकॉम कंपनियों का कहना है कि उन्हें पर्याप्त स्पेक्ट्रम या एयरवेव नहीं दिया गया है। न ही सरकारी जमीन और इमारतों पर टॉवर्स लगाने के लिए कोई पॉलिसी है। इस वजह से सिग्नल्स का कंजक्शन बढ़ रहा है और कॉल ड्रॉप की समस्या हो रही है।
उपभोक्ता को नुकसान!
कॉल ड्रॉप से नुकसान टैरिफ प्लान पर निर्भर करता है। अगर यह सेंकड के अनुसार है तो फिर कॉल कितनी बार भी कटे बिल की राशि में कोई फर्क नहीं पड़ेगा। मगर यदि यह मिनट के अनुसार है या कुछ नंबरों पर निर्धारित संख्या में मुफ्त कॉल की सुविधा है तो उपभोक्ता को नुकसान उठाना पड़ेगा। हालांकि टेलीकॉम कंपनियों के अनुसार 95 प्रतिशत प्लान सेकंड के अनुसार हैं, इसलिए जानबूझकर कॉल ड्रॉप की परिस्थितियां बनाकर किसी को फायदा नहीं होगा। हालांकि बार-बार कॉल कटना मानसिक तौर पर जरूर परेशानी भरा है।
क्यों है समस्या

स्पेक्ट्रम की कमी टॉवर की दिक्कत
- भारतीय ऑपरेटर्स के पास स्पेक्ट्रम की मात्रा बेहद कम है। इसका ज्यादातर हिस्सा रक्षा सेवाओं के लिए है। बाकी दर्जनों ऑपरेटर्स में बंटा है।

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यहां ऑपरेटर्स 10.5 मेगाहर्ट्ज के स्पेक्ट्रम से काम चलाते हैं। वहीं यूरोपीय देशों में यह औसतन 65 और अफ्रीका में 28 मेगाहर्ट्ज है। चीन के शंघाई में उपलब्ध स्पेक्ट्रम भी दिल्ली के मुकाबले ढाई गुना है, जबकि दोनों शहर आकार और आबादी के घनत्व में लगभग समान हैं।
- सेलफोन ऑपरेटर्स एसोसिएशन के मुताबिक स्पेक्ट्रम की कमी और कॉल ड्रॉप की समस्या से निपटने के लिए उन्होंने पिछले सात महीनों में देशभर में 70,000 बेस ट्रांसमिटिंग स्टेशन (टॉवर) लगवाए हैं।
- दो साल में एक लाख टॉवर और लगाने हैं। मगर रेडिएशन के डर के चलते टॉवर्स के लिए निजी साइट्स आसानी से उपलब्ध नहीं हो पा रहीं।

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स्पेक्ट्रम कम्यूनिकेशन सिग्नल्स ले जानेवाली तरंगें हैं। ये हाईवे की तरह हैं। जब इस पर ट्रैफिक बढ़ता है तो लोगों की रफ्तार धीमी हो जाती है। ऐसे ही जब एक नेटवर्क के दायरे में ज्यादा लोग मोबाइल इस्तेमाल करते हैं, तो कुछ रुकावटें आती हैं।
- टॉवर सिग्नल्स को अपना सफर पूरा करने में मदद करते हैं। देश में फिलहाल 4,25,000 टॉवर हैं। साउंड व डाटा ट्रांसमिशन सुधारने के लिए दो लाख और टॉवर्स की जरूरत है
यह है समाधान
जो उपलब्ध है उसे खरीदें कंपनियां

सरकार का मानना है कि कंपनियां उपलब्ध स्पेक्ट्रम नहीं खरीद रहीं। 2012 में जितना ऑफर किया गया था उसका 48 फीसदी खरीदा। 2013 में 20 फीसदी, 2014 में 81 फीसदी और इस वर्ष 88 फीसदी ही खरीदा है। जो खरीदा है उसका पूरा इस्तेमाल हो माना जा रहा है कि मोबाइल कंपनियां अब 2जी, 3जी के बजाय 4जी में निवेश करना चाहती हैं। वे इसके लिए बाजार के और तैयार होने का इंतजार कर रही हैं। जो स्पेक्ट्रम इन कंपनियों ने खरीदा है, उसे भी बचाकर रख रही हैं।
- टॉवर नीति की जरूरत
कंपनियों के अनुसार अगर टॉवर के बारे में कोई राष्ट्रीय नीति नहीं बनाई गई तो यह समस्या और बढ़ेगी। फिलहाल इसके लिए स्थानीय निकायों की इजाजत लेनी होती है, इसलिए हर जगह अलग-अलग तरह की समस्याएं हैं।
- लोगों के मन सेदूर हो डर
विश्व व्यापार संगठन की रिपोर्ट और देश के विभिन्न न्यायालयों के फैसलों में टॉवर्स के स्वास्थ्य पर कोई विपरीत असर न होने की बात है। इसके बावजूद लोग रिहायशी क्षेत्रों में इन्हें लगवाने को तैयार नहीं हैं।
कुछ महीनों में गहराया विवाद

29
अप्रैल 2015: टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया (ट्राई) ने कॉल ड्रॉप की समस्या से निपटने के लिए नए मानक तय किए।

7
जुलाई: दूरसंचार मंत्री रविशंकर प्रसाद ने टेलीकॉम ऑपरेटर्स द्वारा दी जा रही सेवाओं की गुणवत्ता के विशेष ऑडिट के आदेश दिए।

14
जून: दूरसंचार मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा कि कंपनियों के पास बिना बाधा सेवाएं देने के लिए पर्याप्त स्पेक्ट्रम है।
19 अगस्त: सरकार ने ट्राई से कंपनियों के टैरिफ प्लान की जांच करने को कहा, ताकि पता लगे कॉल ड्रॉप से ये फायदा तो नहीं कमा रहीं।

Tuesday 25 August 2015

नए खतरों के प्रति अधिक सावधानी जरूरी

भारत डोगरा 
ओजोन परत के लुप्त होने या उसमें छेद होने से सूर्य की जीवनदायिनी किरणों में इतना बदलाव आ जाता है कि मनुष्यों में त्वचा कैंसर और मोतियाबिंद की संभावना काफी बढ़ सकती है। निश्चय ही अनेक अन्य जीवों पर भी प्रतिकूल असर पड़ता है। अधिकांश महत्वपूर्ण फसलों (जिन पर प्रयोग किए गए) के बारे में यही पता चला है कि ओजोन परत के लुप्त होने का उन पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। यहां तक कि समुद्रों की वनस्पति भी बुरी तरह प्रभावित होगी, जिससे इन विशाल जल भंडारों का पूरा खाद्य चक्र और जीवन बुरी तरह प्रभावित हो सकता है।
प्राय: यह भ्रान्ति फैली हुई है कि मांट्रियल के समझौते और इसी कार्य को आगे बढ़ाने वाले अन्य अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों के फलस्वरूप यह समस्या सुलझ चुकी है। किन्तु हकीकत यह है कि सीएफसी व ओजोन परत को नुकसान पहुंचाने वाले अन्य रसायनों का उत्पादन और अवैध तस्करी बड़ी मात्रा में समझौते के बाद भी होता था। अंटार्कटिक क्षेत्र के ऊपर 12000 वर्ग मील तक बड़ा छेद ओजोन परत में देखा गया। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यू.ने.ई.प.) के अनुसार ओजोन परत के कम होने के कारण प्रति वर्ष 3 लाख त्वचा कैंसर के अतिरिक्त केस और 15 लाख मोतियाबिंद के अतिरिक्त केस होने की संभावना है। आज से सत्तर वर्ष पहले सीएफसी के बारे में कोई नहीं जानता था। केवल सात दशकों में एक नए रसायन का इतनी तेजी से प्रसार हुआ व उसने इतनी तबाही मचाई कि सूर्य की किरणों को ही खतरनाक बनाने का विश्वव्यापी खतरा उत्पन्न कर दिया। इस अनुभव के बाद हमें कम से कम यह सवाल जरूर पूछना चाहिए कि जिन अन्य नए रसायनों को हम दुनिया में तेजी से फैलाते जा रहे हैं, क्या उनके स्वास्थ्य व पर्यावरण संबंधी असर के बारे में हम अपने को संतुष्ट कर चुके हैं? अनेक विशेषज्ञों ने साफ-साफ  कहा है कि इनमें से अधिकांश रसायनों के बारे में हमारी जानकारी अधूरी है, व विशेषकर अपने मिश्रित रूप में दो या दो से अधिक रसायन कितना नुकसान कर सकते हैं, उसके बारे में तो हमारी जानकारी बहुत ही अपर्याप्त है। लिवरपूल विश्वविद्यालय से जुड़े विशेषज्ञ डॉ. वाईवन हावर्ड ने एक बहुचर्चित लेख में बताया है कि आज हमारे शरीर में 300 से 500 ऐसे रसायन मौजूद हैं जिनका आज से 50 वर्ष पहले अस्तित्व था ही नहीं या नहीं के बराबर था। खतरनाक रसायनों को जब मिश्रित किया जाता है, तो उनका खतरनाक असर 10 गुणा तक बढ़ सकता है जबकि वत्र्तमान जांच विभिन्न रसायनों की अलग-अलग ही की जाती है। अत: यदि सीएफसी वाली गलती नहीं दुहरानी है तो संकीर्ण आर्थिक स्वार्थों के ऊपर उठकर हमें विभिन्न रसायनों व उनके मिश्रणों के स्वास्थ्य व पर्यावरण असर का पता लगाना होगा व विश्व को खतरनाक रसायनों से बचाने के विशेष प्रयास करने होंगे। इस वर्ष 2015 में एक बहुत व्यापक अध्ययन के परिणाम सामने आए हैं जिससे विश्व के 28 देशों के 174 वैज्ञानिकों ने आपसी सहयोग से यह पता लगाने का प्रयास किया कि सामान्य उपयोग में आने वाले रसायनों का कैंसर से कितना संबंध है। जिन रसायनों का अध्ययन हुआ, उनमें 85 में से 50 रसायन ऐसे पाए गए जिनका कैंसर के कारणों पर ‘लो डोज’ असर पाया गया। 13 के संदर्भ में संपर्क एक सीमा के बाद कैंसर उत्पन्न करने वाले असर देखे गए। संभवत: सबसे अधिक खतरा खाद्य चक्र को प्रभावित करने वाले खतरनाक रसायनों व नई तकनीकों से है। लंदन फूड कमीशन ने बताया था ब्रिटेन में 92 ऐसे कीटनाशकों/जंतुनाशकों को स्वीकृत मिली हुई है जिनके बारे में पशुओं पर होने वाले अध्ययनों से पता चला था कि इनसे कैंसर व जन्म के समय की विकृत्तियां होने की संभावना है। संयुक्त राज्य अमेरिका की नेशनल एकेडमी ऑफ साईंसिस ने एक रिपोर्ट में कहा कि पेस्टीसाईड के कारण एक पीढ़ी में लगभग 10 लाख कैंसर के अतिरिक्त कैंसर उत्पन्न होने की संभावना है। इसके अतिरिक्त विकिरण के खतरे के प्रति विशेष तौर पर सचेत रहना जरूरी है। परमाणु ऊर्जा के उत्पादन के पूरे चक्रमें विकिरण के खतरे के प्रति वर्तमान से अधिक सजगता की जरूरत है।
प्लूटोनियम 238 एक विशेष तरह का प्लूटोनियम है जो अणुबमों में उपयोग होने वाले प्लूटोनियम से 280 गुणा अधिक रेडियोधर्मी है। डॉ. हेलन केल्डीकाट नामक एक विशेषज्ञ के अनुसार केवल एक पांऊड प्लूटोनियम 238 को यदि पूरे विश्व में बराबर बिखेर दिया जाए तो इससे सभी लोगों में फेफड़े के कैंसर का खतरा उत्पन्न हो सकता है। वर्ष 1964 में एक उपग्रह में 2 पांऊड प्लूटोनियम-238 रखा गया था। वायुमंडल में दुबारा प्रवेश करते समय यह उपग्रह दुर्घटनाग्रस्त हो गया व इसमें बचा प्लूटोनियम वाष्पीकृत हो गया। इस समय तक हमारे पर्यावरण में इस प्लूटोनिमय के अवशेष हैं जो कैंसर बढ़ा रहे हैं। वर्ष 1970 में अपोलो-13 अंतरिक्ष यान का 8.3 पांऊड प्लूटोनियम-238 प्रशान्त महासागर में गिर गया, और इसने महासागर की गहराईयों में पहुंचकर वहां कितना विनाश किया, यह आज तक पता नहीं है। वर्ष 1989 में गेलीलियो अंतरिक्ष यान को बृहस्पति ग्रह की ओर भेजा गया, व इसकी बिजली के लिए इसमें 50 पांऊड प्लूटोनियम 238 रखा गया। जिस तकनीक से इसे बृहस्पति की ओर भेजा गया, उसमें इस यान के पृथ्वी के वायुमंडल में पुन: प्रवेश करने और दुर्घटनाग्रस्त होने का काफी खतरा था। कुछ समय पहले प्रकाशित समाचारों के अनुसार कुछ देशों में इस बात की स्वीकृति मिल गई है कि अणु नाभिकीय विद्युत संयंत्रों के आसपास एकत्र हो रहे रेडियोधर्मिता युक्त अवशेषों का उपयोग अनेक उपभोक्ता वस्तुओं के निर्माण में किया जाए। संयुक्त राज्य अमेरिका से तो ऐसे समाचार भी मिले हैं कि रेडियोधर्मिता युक्त अवशेषों का प्रयोग खाद के रूप में किया जाए या इसे खाद में मिला दिया जाए। विकिरण के असर पर एक विख्यात अनुसंधनकत्र्ता डॉ. क्रिस बुसबी ने यह मत व्यक्त किया है कि कैंसर की दर में वृद्धि का एक प्रमुख कारण वायुमंडल में किए गए नाभिकीय परीक्षण है। उन्होंने बताया कि चूंकि यह दुष्परिणाम खुले रूप में कुछ वर्षों के बाद सामने आता है, अत: कारण और परिणाम के बीच संबंध स्थापित करना कठिन होता है। उनके अनुसंधान से पता चला कि यह खतरा अधिक वर्षा के इलाकों में अधिक है। इस अनुसंधान का सबसे दर्दनाक पक्ष यह है कि महिलाओं के स्तनों पर भी विकिरण का दुष्परिणाम पड़ा जिसके कारण वायुमंडलीय नाभिकीय विस्फोटों के आसपास रहने वाली महिलाओं में स्तन का कैंसर हुआ और उनका दूध पीने वाले बच्चों का स्वास्थ्य बिगड़ा और कुछ बच्चों की मौत हुई। इसके अतिरिक्त मोबाईल फोनों के अत्यधिक व असावधानी से किए गए उपयोगों व इसके लिए जरूरी टावरों के तेज प्रसार से भी गंभीर स्वास्थ्य समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं जो भविष्य में और विकट हो सकती हैं। इस तरह जब किसी नई तकनीक या उत्पाद का बहुत तेज प्रसार होता है, तो उसमें यह संभावना बनी रहती है कि इस नए उत्पाद या तकनीक ये जुड़े खतरे भी उतनी ही तेजी से फैल जाएं। यदि किसी नए उत्पाद का उपयोग धीरे-धीरे बढ़े तो यह संभावना बढ़ जाती है कि उसके किसी खतरों के बारे में अधिकांश उपभोक्ताओं को समय पर पता चल जाएगा। पर जिस तेजी से मोबाईल फोन जैसे नए उत्पाद फैलते हैं उसमें समय पर चेतावनी मिलने की संभावना कम हो जाती है। मान लीजिए कि कुछ खतरे दस वर्ष तक उपयोग के बाद ही सामने आने की संभावना है। तो इससे पहले कि इन खतरों का आभास हो करोड़ों लोग मोबाईल फोन का भरपूर उपयोग वर्षों तक कर चुके होंगे व इनमें से अनेक को तो इस फोन के अधिक उपयोग की इतनी आदत बन चुकी होगी कि वे खतरे पता चलने पर भी इसका उपयोग ज्यादा कम नहीं कर पाएंगे। अत: नई तकनीकों या उत्पादों का बहुत तेज प्रसार भी कई खतरों से भरा है। मोबाईल फोन के तेज प्रसार को प्रगति के द्योतक के रूप में प्रचारित किया गया है। यह सबसे तेज औद्योगिक प्रसार का क्षेत्र रहा है। इसमें सर्वाधिक प्रतिस्पर्धा व होड़ देखी गई है। विज्ञापन व प्रचार-प्रसार भी सबसे अधिक इस उत्पाद का हुआ है। भ्रष्टाचार भी सबसे अधिक इसी क्षेत्र में पनपा है। जब किसी उत्पाद के साथ इतने बड़े आर्थिक हित जुड़े हैं तो जरूरी बात है कि इस उत्पाद के खतरों या दुष्परिणामों को छिपाने या कम दर्शाने के काफी प्रयास भी किए जाते हैं। इस कारण प्राय: महत्वपूर्ण जानकारी उपभोक्ताओं तक समय पर नहीं पहुंचती है। एक ओर तो लोगों ने अपने रुझान व जरूरतों के अनुसार सेल फोन को बहुत तेजी से अपनाया है। दूसरी ओर प्रचार-प्रसार द्वारा भी लोगों को मोबाईल फोन का अधिक उपयोग करने या नए बेहतर मोबाईल खरीदने के लिए बहुत प्रेरित किया गया है। बेहतर जीवन-शैली को बेहतर मोबाईल से जोड़ कर बार-बार प्रचारित किया गया है। निश्चय ही लोगों को मोबाईल फोन में बहुत से लाभ नजर आए होंगे तभी उन्होंने इतनी तेजी से मोबाईल फोन को अपने जीवन का जरूरी हिस्सा बनाया। पर सवाल यह है कि यदि उन्हें मोबाईल फोन से जुड़े सभी खतरों की पूरी जानकारी होती तब उनकी क्या प्रतिक्रिया होती? अब देर से ही सही, पर मोबाईल फोन से जुड़े विभिन्न खतरों के बारे में प्रमाणिक जानकारी उपलब्ध होने लगी है। भारतीय सरकार के संचार व सूचना तकनीक मंत्रालय ने हाल ही में मोबाईल फोन से जुड़े खतरों के अध्ययन के लिए एक आठ सदस्यों की अन्तर्मंत्रालय समिति का गठन किया। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि मोबाईल फोन व इनके लिए बनाए गए टावर से निकलने वाले रेडियेशन या विकिरण से स्वास्थ्य संबंधी कई खतरे जुड़े हैं जैसे याद्दाश्त कमजोर होना, ध्यान केंद्रित न कर पाना, पाचन तंत्र में गड़बड़ी होना व नींद में कठिनाई होना, सिरदर्द, थकान, हृदय स्पंदन प्रतिक्रिया में देरी आदि। अन्य जीव-जंतुओं पर असर के बारे में इस समिति ने बताया कि चिडिय़ा-गौरेया, मधुमक्खी, तितली, अन्य कीटों की संख्या में बड़ी कमी आने के लिए मोबाईल टावर से होने वाले रेडियेशन भी जिम्मेदार हैं। इससे पहले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रो. जितेंद्र बेहारी का इस विषय पर अनुसंधान भी सुर्खियों में आया था। इस शोध को इंडियन कांऊसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च व कांऊसिल फॉर साईंटिफिक एंड इंडस्ट्रीयल रिसर्च ने प्रयोजित किया था। इस अनुसंधान का निष्कर्ष यह है कि मोबाईल का अधिक समय तक इस्तेमाल करना खतरनाक तो अवश्य है पर यह कितना खतरनाक सिद्ध होगा यह कई बातों पर निर्भर होगा जैसे कि मोबाईल फोन का उपयोग करने वाले व्यक्ति की उम्र कितनी है, उसे पहले से कौन सी बीमारी या स्वास्थ्य समस्या है, वह कितने समय फोन उपयोग करता है व उसके फोन की क्वालिटी कैसी है। विशेष परिस्थितियों में मोबाईल फोन का उपयोग हृदय रोग, कैंसर (विशेषकर दिमाग का कैंसर), आर्थराईटिस, अल्जाईमर, नपुसंकता (स्पर्म की कमी) व जल्द बुढ़ापा आने की संभावना बढ़ा सकता है। मोबाईल के अधिक उपयोग से रेडिएशन शरीर का पानी सोख लेता है व इस कारण कई बीमारियां उत्पन्न होती है। उम्र के हिसाब से देखें तो मोबाईल फोन व टावर का सबसे अधिक खतरा छोटे बच्चों के लिए है। अत: छोटे बच्चों को मोबाईल व टावर से बचा कर रखना सबसे जरूरी है। मोबाईल फोन गिर जाने से दरार पड़ जाए, कुछ टूटन आ जाए तो रेडियशन का खतरा बहुत बढ़ जाता है अत: ऐसे टूटे या दरार वाले मोबाईल फोन का उपयोग कभी नहीं करना चाहिए। इस खतरे को कम करने के लिए कुछ सावधानियां बरती जा सकती हैं। जहां तक संभव हो लैंड लाईन फोन का उपयोग करना चाहिए व जब बहुत जरूरत हो तब मोबाईल फोन का उपयोग केवल बेहद जरूरी बात के लिए करना चाहिए। विशेषकर लंबी बात मोबाईल फोन पर नहीं करनी चाहिए। सिगनल कमजोर हो, तो भी मोबाईल फोन का उपयोग न करें क्योंकि इस स्थिति में रेडिएशन ज्यादा निकलती है। फोन को पास रख कर न सोएं, विशेष तौर पर सिर व तकिए से फोन दूर रखें। हो सके तो रात को मोबाईल को स्विच ऑफ कर दें। मोबाईल को वाईब्रेशन मोड में न रखें क्योंकि इस स्थिति में रेडिएशन ज्यादा निकलतीे है। बच्चों को मोबाईल इस्तेमाल न करने दें। मोबाईल टावर के पास न रहें। यदि पास में मोबाईल टावर बन रहा है तो उसे रिहायशी स्थान से हटाने के लिए कार्यवाही करें। ध्यान रखें कि बच्चों के स्कूल के पास टावर नहीं हों। इसके साथ ही सरकार को बड़ा नीतिगत फैसला लेना होगा कि यदि मोबाईल फोन का प्रचार-प्रसार किया जाए तो साथ ही इनके खतरों व इससे जुड़ी सावधानियों के बारे में भी जानकारी देनी होगी। सरकार को स्वयं भी इन खतरों व सावधानियों का प्रचार-प्रसार करना चाहिए। टावर संबंधी स्पष्ट व सख्त नीतियां अपनाई जानी चाहिए ताकि इनके रेडिएशन की चपेट में आकर किसी का स्वास्थ्य तबाह न हो। धनी मोबाईल उपभोक्ताओं के लिए बेहतर क्वालिटी व बचाव साधनों से लैस मोबाईल फोन खरीदकर खतरे कम करना संभव है, पर यह गरीब उपभोक्ताओं के लिए ऐसा बचाव कठिन है। विश्व के विकसित देशों की अपेक्षा भारत में खतरों से बचाव के लिए सरकारी नीति और भी महत्वपूर्ण है। इसके साथ ही अन्य तरह के इलैक्ट्रोमेगनैटिक प्रदूषण को कम करने के प्रयास भी जरूरी हैं।
गर्म जलवायु व शरीर की कमजोरी के कारण भी भारत में यह खतरे पश्चिमी विकसित देशों से अधिक हैं। यह खतरे भविष्य में इस कारण तेजी से बढ़ेंगे क्योंकि अब बचपन से ही मोबाईल फोनों का उपयोग हो रहा है व काफी असावधानी से हो रहा है। कई बार सोते समय रात को ऑन मोबाइल बच्चों के बहुत पास रख दिया जाता है जो बहुत अनुचित है, विशेषकर यदि फोन दिमाग के पास ही पड़ा हो। इन खतरों के प्रति सचेत रहना, उनके बारे में जरूरी जानकारी समय पर उपलब्ध करवाना व समय रहते अधिक खतरनाक उत्पादों से परहेज करना बहुत जरूरी है।

Monday 24 August 2015

जानी दुश्मन न बन जाएं रोबॉट

मुकुल व्यास
'टर्मिनेटर' और 'ट्रांसेंडेंस' जैसी बहुचर्चित हॉलिवुड फिल्मों ने हमें सिखाया है कि रोबॉटों पर भरोसा नहीं करना चाहिए। कुछ समय पहले जर्मनी की एक कार फैक्टरी में एक रोबॉट द्वारा एक व्यक्ति को कुचले जाने की घटना सामने आई थी। हाल ही गुड़गांव के मानेसर में भी रोबॉट के हाथों एक मजदूर की जान चली गई। ये घटनाएं संयोग हो सकती हैं, फिर भी ये कृत्रिम बुद्धि के संभावित खतरों पर गंभीरतापूर्वक गौर करने की जरूरत बताती हैं। ऑक्सफर्ड यूनिवर्सिटी के डॉ. स्टुअर्ट आर्मस्ट्रॉन्ग का कहना है कि भविष्य में बुद्धिमान रोबॉट न सिर्फ मनुष्यों से ज्यादा तेज और चालाक होंगे बल्कि वे देशों का शासन चलाने और हमारा पूरी तरह से सफाया करने में भी सक्षम होंगे। यदि हमने कृत्रिम बुद्धि पर चल रहे अनुसंधान में सावधानियां नहीं बरतीं तो हमें लेने के देने पड़ जाएंगे।
डॉ.आर्मस्ट्रॉन्ग का मानना है कि कृत्रिम बुद्धि चालित मशीनें जिस रफ्तार से काम करेंगी उसका मुकाबला मानव मस्तिष्क नहीं कर सकेगा। ये मशीनें इतनी शक्तिशाली हो जाएंगी कि वे मनुष्यों के साथ अपने संवाद को दरकिनार करके अर्थव्यवस्था, शेयर बाजार, स्वास्थ्य और परिवहन सेवाओं को अपने नियंत्रण में ले लेंगी। भविष्य के रोबॉट आर्टिफिशियल जनरल इंटेलिजेंस (एजीआई) से लैस होंगे। इस वजह से वे सौंपे गए सीमित और विशिष्ट कार्यों के अलावा दूसरे कार्य करने में भी सक्षम होंगे।

डॉ. आर्मस्ट्रॉन्ग की चिंता यह है कि यदि एजीआई से युक्त रोबॉट को मनुष्यों को परेशानी से बचाने की साधारण हिदायत भी दी जाए तो वह इसका अर्थ यह निकाल सकता है कि मनुष्यों को मारना है। यदि उसे यह कहा जाए कि मनुष्यों को सुरक्षित रखना है तो वह इसका मतलब यह निकालेगा कि मनुष्यों को बंदी बनाकर रखना है। उनका कहना है कि इंसानी भाषा गूढ़ होती है और उसका गलत अर्थ भी निकाला जा सकता है।एआई यानी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के विकास में लगी कंपनियां इस टेक्नॉलजी के अनियंत्रित होने के खतरों से भली भांति परिचित हैं। गूगल ने एआई पर चल रही रिसर्च पर नजर रखने के लिए एक नैतिक बोर्ड गठित किया है। कंपनी ने ब्रिटेन की डीपमाइंड सहित कुछ ऐसी कंपनियां खरीदी हैं जो कंप्यूटरों के लिए एआई से युक्त सॉफ्टवेयर विकसित कर रही हैं। इस सॉफ्टवेयर से कंप्यूटर मनुष्य की तरह सोचने लगेंगे। डीपमाइंड के एक संस्थापक डेमिस हैसाबिस ने कुछ समय पहले एक इंटरव्यू में चेतावनी दी थी कि एआई इस सदी की सबसे ज्यादा जोखिम भरी टेक्नॉलजी है और मनुष्य की विलुप्ति में इसकी बड़ी भूमिका हो सकती है।


इससे पूर्व कई वैज्ञानिक भी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के खतरों पर अपनी चिंता व्यक्त चुके हैं। स्टीफन हॉकिंग ने पिछले साल कहा था कि रोबॉटों का उदय मानव जाति के लिए विनाशकारी सिद्ध हो सकता है। उनके मुताबिक एआई का उदय मानव इतिहास की सबसे बड़ी घटना होगी और यदि हमने इसके खतरों से बचना नहीं सीखा तो यह अंतिम घटना भी हो सकती है। एआई डिजिटल सहायकों और ड्राइवर रहित कारों के रूप में हमारे सामने आ रही है, लेकिन हॉकिंग के अनुसार यह मनुष्य जाति के लिए खतरे की घंटी है। मानव जाति के सामने अनिश्चित भविष्य इसलिए भी है क्योंकि टेक्नॉलजी ने अपने बारे में सोचना और माहौल के साथ खुद को ढालना सीख लिया है। लेकिन हॉकिंग ने यह भी माना कि यह टेक्नोलॉजी युद्ध,गरीबी और बीमारी के उन्मूलन में मनुष्य की मदद कर सकती है।

बहुचर्चित अमेरिकी उद्योगपति और वैज्ञानिक इलोन मस्क ने किसी समय एआई को बहुत बढ़ावा दिया था, लेकिन पिछले कुछ समय से वह इसके प्रबल आलोचक बन गए हैं। उनके मुताबिक एआई रिसर्च 'शैतान को आमंत्रित' करने जैसा है। उन्हें डर है कि अत्यधिक चतुर रोबॉट मनुष्य के अंत का कारण बन सकते हैं। मस्क चाहते हैं कि भविष्य के रोबॉट मनुष्यों के नियंत्रण में ही रहें। इसके लिए वे 36 रिसर्च परियोजनाओं पर धन लगा रहे हैं।

अक्षय उर्जा अपनाना जरुरी भी और मजबूरी भी

शशांक द्विवेदी
दुबई में भारतीय समुदाय के लोगों को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि अगले पाँच साल में सबको बिजली देगें क्योकि बिजली के बिना विकास संभव नहीं है उन्होंने खुद अपने भाषण में लोगों से पूछा था कि आज के समय में क्या बिना बिजली के जीवन की कल्पना कर सकते है ? हालात यह है कि देश में करोड़ों लोग आज भी अँधेरे में जीवन जीने को मजबूर है । पिछले दिनों बिजली, कोयला तथा नवीकरणीय ऊर्जा मंत्री गोयल ने कहा था कि  ‘देश में 28 करोड़ लोगों के घरों में बिजली कनेक्शन नहीं है। देश में बिजली के उत्पादन और आपूति में आज भी एक बड़ा फासला है । जिसे दूर करना एक बड़ी चुनौती है । भारत बड़े पैमानें पर  ऊर्जा की कमी से जूझ रहा है। उर्जा की माँग और आपूर्ति का अंतर दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है । देश में करोड़ों लोग आज भी बिना बिजली के रहने को मजबूर है। देश के 28 में से 9 राज्यों  आंध्र प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, गोवा, दिल्ली, हरियाणा, केरल, पंजाब और तमिलनाडु  का ही पूरी तरह विद्युतीकरण हो पाया है । बाकी 19 राज्यों में तो पूर्ण विद्युतीकरण भी नहीं हुआ है । विद्युतीकरण के बावजूद इन 9 राज्यों में भी बिजली कटौती आम बात है। अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आइईए) के अनुसार अगले 20 सालों में भी भारत में ऊर्जा की समस्या बनी रहेगी। अभी भी देश के कई हिस्सों में माँग की सिर्फ 15 प्रतिशत बिजली की आपूर्ति हो पाती है । आइईए के अनुमान के मुताबिक  2030 तक भी देश के कई राज्यों में अबाधित बिजली आपूर्ति नहीं हो सकेगी। कुलमिलाकर उर्जा की यह समस्या देश के विकास और भविष्य को सीधा सीधा प्रभावित  करती है जिसके लिए हमें अभी से संजीदा होना होगा ,ठोस कदम उठाने होंगे । पिछले एक साल के दौरान केंद्र सरकार अक्षय उर्जा के क्षेत्र में उत्पादन बढ़ाने के लिए काफ़ी संजीदा दिख रही है ,इसके लिए सरकार कई योजनायें भी लेकर आ रही है जो कि सकारात्मक कदम है फ़िलहाल दिसंबर 2014 तक भारत में नवीनीकृत ऊर्जा विकल्पों की स्थापित क्षमता कुल 33,791.74 मेगावाट के आसपास है इनमें पवन ऊर्जा 22,465.03, सौर ऊर्जा3,062.68, लघु जल विद्युत ऊर्जा 3,990.83 , बायोमास ऊर्जा1,365.20 , बायोगैस कोजेनेशन 2,800.35 , अपशिष्ट ऊर्जा से 107.58 मेगावाट की स्थापित क्षमता है ये आंकड़े देश की ऊर्जा जरूरतों की तुलना में भले ही कम लगे लेकिन यही वे सारे संसाधन हैं जहां भरपूर संभावनाएं भी छिपी हुई है सन् 1990 में भारत में पवन ऊर्जा के विकास पर ध्यान दिया गया और देखते ही देखते इस वैकल्पिक ऊर्जा का योगदान काफी बढ़ गया भारत की स्थापित ऊर्जा क्षमता में नवीनीकृत ऊर्जा विकल्पों का योगदान लगभग 12 फीसदी तक पहुंच गया है
भारत में अक्षय उर्जा की 31 दिसम्बर 2014 तक इंस्टाल्ड क्षमता  (कुल 33,791.74)
स्रोत
इंस्टाल्ड क्षमता  (मेगा वाट में )
पवन उर्जा
22,465.03
सौर उर्जा
3,062.68
लघु जल विद्युत ऊर्जा  
3,990.83
बायोमास उर्जा
1,365.20
बायोगैस कोजेनेशन
2,800.35
अपशिष्ट उर्जा
107.58
Total
33,791.74


सोलर पावर का लक्ष्‍य पाँच गुना बढ़ा
पिछले दिनों केंद्र सरकार की कैबिनेट की बैठक में सरकार ने जवाहर लाल नेहरू सोलर मिशन का लक्ष्‍य पांच गुना बढ़ाने का निर्णय लिया है। अब सरकार वर्ष 2022 तक 1 लाख मेगावाट बिजली का उत्‍पादन सोलर प्रोजेक्‍ट से करेगी। इसके लिए 6 लाख करोड़ रुपये के निवेश का लक्ष्‍य रखा गया है। यूपीए सरकार में यह लक्ष्‍य 20 हजार मेगावाट तय किया था। नयें प्लान के अनुसार वर्ष 2022 तक 40 हजार मेगावाट छतों पर लगने वाले सोलर प्रोजेक्‍ट (रूफटॉप) से और 60 हजार मेगावाट बड़े और मझोले ग्रिड से जुड़े प्रोजेक्‍ट के माध्‍यम से पूरा किया जाएगा।
इसके लिए केंद्र सरकार ने 15050 करोड़ रुपये सब्सिडी देने का भी निर्णय लिया है। यह सब्सिडी रूफटॉप सोलर प्रोजेक्‍ट और छोटे सोलर प्रोजेक्‍ट के लिए दिया जाएगा। इसके अलावा रूफटॉप सोलर प्रोजेक्‍ट लगाने वाले लोगों को अतिरिक्‍त सुविधाएं भी देने का ऐलान पहले ही किया जा चुका है, इसमें अतिरिक्‍त एफएआर, होम लोन आदि प्रमुख है।
अक्षय ऊर्जा क्षेत्र में सरकारी पहल
केंद्र सरकार वर्ष 2022 तक 100 गीगा वाट सौर ऊर्जा और 60 गीगा वाट पवन ऊर्जा सहित 160 GW गीगा वाट से भी अधिक अक्षय ऊर्जा स्रोत कायम करने की योजना बना रही है। इसके लिए छोटी पनबिजली, जैव ऊर्जा, नवीन और उभरती प्रौद्योगिकियों पर जोर दिया जा रहा है। सरकार देश में अक्षय ऊर्जा निर्माण केन्‍द्र स्‍थापित करने के साथ ही अक्षय ऊर्जा विश्‍वविद्यालय स्‍थापित करने और बहुविध रोजगार सृजन पर भी जोर दे रही है। 
देश के अक्षय ऊर्जा कार्यक्रम पर जोर देते हुए सरकार ने पिछले कई महीनों के दौरान देश में 'स्‍वच्‍छ ऊर्जा' पर जोर दिया है। देश में अक्षय ऊर्जा बिजली उत्‍पादन के तीव्र विकास को आसान बनाने के क्रम में नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय एक अक्षय ऊर्जा विधेयक तैयार करने में जुटा है। कई योजनाएं प्रक्रिया के चरण में हैं, जैसे-1000 मेगावाट ग्रीड से जुड़ी सौर फोटोवोल्‍टेइक बिजली परियोजनाएं स्‍थापित करने के लिए केन्‍द्रीय सार्वजनिक इकाइयों को 1000 करोड़ रुपये की सहायता देना, राजस्‍थान, गुजरात, तमिलनाडु और लद्दाख में अल्‍ट्रा मेगा सौर बिजली परियोजनाएं, रक्षा बलों द्वारा 300 मेगावाट वाली ग्रीड से जुड़ी सौर पीवी बिजली परियोजनाएं, वर्ष 2019 तक 20,000 मेगावाट क्षमता वाली 25 सौर ऊर्जा परियोजनाएं तैयार करना और रक्षाबलों तथा अर्द्ध-सैनिक संस्‍थापनाओं द्वारा 300 मेगावाट से अधिक सौर बिजली परियोजनाओं को स्‍थापित करना। सरकार ने 2015-16 से लेकर 2017-18 के दौरान तीन वर्षों की अवधि में 1,000 करोड़ रुपये की धनराशि के साथ 1,000 मेगावाट ग्रीड से जुड़ी सौर पीवी बिजली परियोजनाएं स्‍थापित करने की योजना भी मंजूर की है।
अक्षय उर्जा अपनाना जरुरी भी और मजबूरी भी 
कार्बन उत्सर्जन और जलवायु परिवर्तन के बढ़ते खतरे का देखते हुए पूरी दुनियाँ ही अक्षय उर्जा अपनाने को विवश हो रही है और सच्चाई है कि आज नहीं तो कल हमें अक्षय उर्जा अपनाना ही पड़ेगा। देश में बिजली की भारी किल्लत को देखते हुए अक्षय उर्जा स्रोत को बड़े पैमाने पर अपनाना भारत की मजबूरी भी है और जरुरत भी है ।इसलिए भारत सरकार ने इन स्रोतों को विकसित करने को उच्च प्राथमिकता दी है।  आज जरुरत है कि हम सब अक्षय उर्जा के स्रोतों का उपयोग करें और दूसरों को भी करने के लिए प्रेरित करें क्योकि अक्षय उर्जा ही देश का भविष्य है । भारत में पिछले कुछ सालों में नवीकृत ऊर्जा के संसाधन काफी बढ़े हैं. वित्तीय वर्ष 2008 से 2013 के बीच देश के सकल नवीकृत ऊर्जा उत्पादन में क्रमश: 7.8 से 12.3 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गयी है. इसमें पवन ऊर्जा का योगदान लगभग 67फीसदी है और यह सकल स्थापित क्षमता में 22.4 गीगावाट का योगदान करती है  पवन ऊर्जा का प्रचलन दिनोंदिन बढ़ रहा है और आज स्थिति यह है कि भारत पवन ऊर्जा उत्पादन में विश्व में पांचवा स्थान रखता है  
अक्षय ऊर्जा को बढ़ावा

पिछले दिनों दिल्ली में प्रथम नवीकरणीय ऊर्जा वैश्विक निवेशक सम्‍मेलन में प्रधानमंत्री ने कहा था कि नवीकरणीय ऊर्जा उत्‍पादन पर जोर दिया जाना यह सुनिश्चित करने का प्रयास है कि भारत के सभी निर्धनों की पहुंच ऊर्जा तक कायम की जा सके  उन्‍होंने कहा कि भारत नवीकरणीय ऊर्जा उत्‍पादन में धीरे-धीरे मेगावाट से जीगावॉट की ओर बढ़ रहा है, फिर भी आज लाखों परिवार ऐसे हैं जिनके पास ऊर्जा के कनेक्‍शन नहीं हैं। उन्‍होंने कहा कि जब तक अंतिम परिवार तक बिजली नहीं पहुंच जाती, तक तक विकास के लाभ जन साधारण तक नहीं पहुंच सकते। प्रधानमंत्री ने जोर देकर कहा कि वैश्विकरण के इस युग में ऊर्जा उत्पादन और वितरण के क्षेत्र में भारी बढ़ोतरी करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
देश के टेलीकॉम टॉवर प्रतिवर्ष लगभग 5 हजार करोड़ का तेल जला रहे हैं । यदि वह अपनी आवश्यकता सौर ऊर्जा से प्राप्त करते हैं तो बड़ी मात्रा में डीजल बचाया जा सकता है । सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए लोगों को इसकी ओर आकर्षित करना जरूरी है । लोग इसको समझने तो लगे हैं लेकिन इसका प्रयोग करने से कतराते हैं । छोटे स्तर पर सोलर कूकर, सोलर बैटरी, सौर ऊर्जा से चलने वाले वाहन, मोबाइल फोन आदि का प्रयोग देखने को मिल रहा है लेकिन ज्यादा नहीं । विद्युत के लिए सौर ऊर्जा का प्रयोग करने से लोग अभी भी बचते हैं जिसका कारण सौर ऊर्जा का किफायती न होना है । सौर ऊर्जा अभी महंगी है और इसके प्रति आकर्षण बढ़ाने के लिए जागरूकता जरूरी है । साथ ही यदि इसे स्टेटस सिंबल बना दिया जाए तो लोग आकर्षित होंगे । समाज के कुछ जागरूक लोगों को इकट्ठा करके पहले उन्हें इसकी ओर आकर्षित किया जाए तो धीरे-धीरे और लोग भी इसका महत्व समझने लगेंगे ।

अक्षय उर्जा अपनाना जरुरी भी और मजबूरी भी
कार्बन उत्सर्जन और जलवायु परिवर्तन के बढ़ते खतरे का देखते हुए पूरी दुनियाँ ही अक्षय उर्जा अपनाने को विवश हो रही है और सच्चाई है कि आज नहीं तो कल हमें अक्षय उर्जा अपनाना ही पड़ेगा देश में बिजली की भारी किल्लत को देखते हुए अक्षय उर्जा स्रोत को बड़े पैमाने पर अपनाना भारत की मजबूरी भी है और जरुरत भी है इसलिए भारत सरकार ने इन स्रोतों को विकसित करने को उच्च प्राथमिकता दी है।  आज जरुरत है कि हम सब अक्षय उर्जा के स्रोतों का उपयोग करें और दूसरों को भी करने के लिए प्रेरित करें क्योकि अक्षय उर्जा ही देश का भविष्य है ।