Tuesday 28 July 2015

101 इन्डियन साइंस कांग्रेस में डॉ कलाम के साथ जुड़ा हुआ संस्मरण

देश के पूर्व राष्ट्रपति ,मिसाइलमैंन डॉ ए .पी .जे अब्दुल कलाम को भावभीनी श्रद्धांजली अर्पित करता हुआ मेरा यह संस्मरण देश के कुछ प्रमुख अख़बारों (दैनिक जागरण ,लोकमत ,डीएनए,जन्संदेश टाइम्स,आज,अजीत समाचार ,हिमाचल दस्तक ,जनवाणी ,डेली न्यूज  ) में प्रकाशित हुआ  ...सिस्टम बदलना नहीं है बल्कि इस सिस्टम में रहकर इसे सुधारना है-डॉ कलाम
शशांक द्विवेदी
डिप्टी डायरेक्टर (रिसर्च), मेवाड़ यूनिवर्सिटी
देश के पूर्व राष्ट्रपति ,मिसाइलमैंन डॉ ए .पी .जे अब्दुल कलाम चिर निद्रा में विलीन हो गए है लेकिन अपने पीछे वो एक बड़ी वैज्ञानिक विरासत छोड़ कर गएँ है और उनकी इस विरासत और उनके विजन को पूरा करने की जिम्मेदारी अब देश के युवाओं के कन्धों पर है .उन्होंने भारत को विकसित राष्ट्र बनाने के लिए विजन 2020 का नारा दिया था जिसपर अब गंभीरता के साथ काम करने की जरुरत है .कलाम साहब न सिर्फ एक उम्दा वैज्ञानिक थे बल्कि एक सीधे ,सरल और सहज इन्सान भी थे जिन्होंने राष्ट्रपति रहते हुए भी जनता से खासकर देश के युवाओं  और बच्चों से सीधा संवाद स्थापित किया ..उनका एक संस्मरण मुझे भी याद आत है 
पिछले साल  101 विज्ञान कांग्रेस में आमंत्रित वक्ता के रूप में मुझे भी जम्मू जम्मू जाने का अवसर मिला .इन्डियन साइंस कांग्रेस चूँकि देश का सबसे बड़ा वैज्ञानिक आयोजन होता है जहाँ देश –विदेश के हजारों वैज्ञानिक भाग लेते है .इसका उद्घाटन हर साल खुद देश के प्रधानमंत्री करते है ,पिछले साल भी इसका उद्घाटन तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने किया था .इस आयोजन में ही पूर्व राष्ट्रपति डॉ ए .पी .जे अब्दुल कलाम साहब भी आये थे .  उद्घाटन सत्र के बाद पूर्व राष्ट्रपति डॉ ए .पी .जे अब्दुल कलाम का सेशन था मै पूरी तल्लीनता और बेसब्री से उनका इन्तजार कर रहा था .पूरा हाल खचाखच भरा था जिसमें अधिकांशतया स्कूली बच्चे थे ,जैसे ही कलाम साहब आये तालियों की गडगडाहट के साथ उनका संबोधन शुरू हुआ ,.ऐसा संबोधन ,ऐसा प्रेरणादायक भाषण मैंने आज तक जिंदगी में कभी किसी का नहीं सुना ,मै उनके पूरे भाषण में या यो कहें कि पब्लिक इंटरेक्शन के दौरान अपनी सीट पर बैठा नहीं ,खड़ा ही रहा ,उनके एक एक शब्द की रिकार्डिंग करता रहा जिससे कि कुछ छुट ना जाएँ साथ में कुछ जरुरी चीजें लिखता भी रहा .उनके पूरे संबोधन और इंटरेक्शन के दौरान बच्चे काफी खुश नजर आयें और पूरे समय बिना शोर मचाये उन्हें सुनते रहें .
जन्संदेश टाइम्स
उन्होंने कहा कि कल्पना ,ज्ञान से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है,,इसलिए कल्पनाशील बनो और सपने जरुर देखने चाहिए ,बिना सपनों के इन्सान कुछ बड़ा हासिल नहीं कर सकता . उन्होंने कहा कि छोटा सपना एक अपराध की तरह है इसलिए हमेशा बड़े  सपने देखो ,हमेशा आगे बढ़ो चाहे कितनी भी मुश्किलें आये आगे बढ़ो .इनोवेशन ही सफल जीवन जीने की कुंजी है ..आप अच्छा करेंगे तो देश का अच्छा  अपने आप हो जाएगा इसलिए पहले खुद को ईमानदार और मजबूत बनाये अपने कर्म , अपने सपनो के प्रति दृढ रहें .
अपने संबोधन के दौरान ही उन्होंने कई बच्चों के साथ सीधा संवाद स्थापित करते हुए उनके सवालों के सीधे जवाब भी दिए ..ज्यादा सवाल होने पर उन्होंने बच्चों को अपनी ईमेल आईडी और संपर्क सूत्र देते हुए कहा कि वो बाद में उन्हें संपर्क कर सकते है . लगभग 2 घंटे तक कलाम साहब का ये सत्र चलता रहा जहाँ बैठा हुआ हर व्यक्ति और बच्चा खुद को गौरान्वित महसूस कर रहा था .उन्होंने अपने सपनों के लिए, अपने देश के लिए कुछ कर गुजरने की शपथ भी सबको दिलाई .
दैनिक जागरण 
संबोधन के बाद उन्होंने देश के हर राज्य और हर हिस्से से आये स्कूली बच्चों के प्रोजेक्ट और उनके काम को देखा .उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित भी किया और कुछ अच्छे प्रोजेक्ट्स के लिए कुछ काम आगे भी करने को कहा .इस दौरान मै पूरे समय उनके साथ ही था ,उनसे बातचीत में मैंने कहा कि कि सर देश में अभी भी विज्ञान संचार का माहौल नहीं है लोगों के शोध उनके काम बड़े पैमाने पर आम जनता तक नहीं पहुँच पाते ना ही ऐसी कोई पुख्ता  सरकारी व्यवस्था है जिससे बच्चों के ये प्रोजेक्ट इस हाल से बाहर  जाकर आगे कुछ कर पायें . उन्होंने मेरी बात बहुत ध्यान  से सुनी और कहा कि शशांक जी इतनी समस्याएं है तभी तो आप जैसे विज्ञान संचारकों की जरुरत है जो विज्ञान को मीडिया के माध्यम से लोगों तक पहुचाएं .साथ में उन्होंने कहा कि हर सरकार एक जैसी ही होगी कोई थोडा ज्यादा अच्छी हो सकती है लकिन अल्टीमेटली हम सब को जमीनी स्तर पर विज्ञान को बढ़ावा देना होगा इसके लिए सिर्फ सरकारों के भरोसे नहीं रह सकते .हम सब को मिलकर काम करना होगा .
कुलमिलाकर उनका पूरा सकारात्मक व्यक्तित्व  देखकर मै दंग रह  गया था कि कहीं भी उन्होंने सिस्टम के प्रति कोई निराशा व्यक्त नहीं की बलिक इस सिस्टम में रहकर ही कुछ बेहतर करने को प्रेरित किया ..उन्होंने कहा कि सिस्टम बदलना नहीं है बल्कि इस सिस्टम में रहकर इसे सुधार  कर ही आगे बढ़ना है .कुलमिलाकर विज्ञान कांग्रेस में इतने अद्भुत व्यक्तित्व के धनी कलाम साहब से मिलकर बहुत अच्छा लगा .ऐसा प्रेरक सीधा ,सरल और सहज व्यक्तित्व मिलना आज की इस दुनिया में मिलना असंभव है  .

लोकमत 
डेली न्यूज 
वो देश के राष्ट्रपति भी बने लेकिन फिर भी  राजनीति के कीचड में कभी नहीं फसे ,वो देश में आम आदमी के राष्ट्रपति के रूप में हमेशा जानें गए ..आज वो हमारे बीच नहीं है लेकिन उनका विराट व्यक्तितिव हमेशा  जिन्दा रहेगा ,उनके विचार हमेशा प्रासंगिक रहेंगे ,अब देश के नौजवानों को उनके दिए गए विजन पर काम करते हुए इस देश को विकसित देश बनाना होगा .उनके 2020 मिशन को पूरा करने में अपना सहयोग देना ही उनके प्रति सच्ची श्रधांजली होगी .




Monday 27 July 2015

एक नई पृथ्वी की खोज

शशांक द्विवेदी
डिप्टी डायरेक्टर (रिसर्च), मेवाड़ यूनिवर्सिटी,
क्या हमारी पृथ्वी की तरह कोई और पृथ्वी इस ब्रह्माण्ड में है जहाँ जीवन की सम्भावना हो सकती है ? इस सवाल का जवाब लगता है अब मिल गया है अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के केप्लर मिशन ने पृथ्वी जैसा एक दूसरा गृह खोजनें का दावा किया है नासा के वैज्ञानिकों ने एक तारे की कक्षा में घूम रहे पृथ्वी के आकार के गृह को ढूंढ लिया है। ये ग्रह सौर-मंडल के अंदर ही है और इस पर पानी की मौजूदगी होने की संभावना है। खगोल वैज्ञानिकों ने वैसे तो पिछले कुछ सालों के दौरान हमारे सौरमंडल से बाहर अनेक नए ग्रहों का पता लगाया है और इनमे से कुछ ग्रहों को संभावित पृथ्वी के रूप में भी देखा गया है, लेकिन यह पहला मौका है जब किसी ग्रह में पृथ्वी जैसे गुण देखे गए हैं।
केपलर अंतरिक्ष दूरबीन से मिले ग्रह को केपलर 452बी नाम दिया है। सौर मंडल से बाहर मिला यह ग्रह हमारी धरती की तरह है। केपलर-452बी नाम का यह ग्रह जी2 जैसे सितारे की परिक्रमा जीवन के लायक क्षेत्र में कर रहा है। जी2 तारा भी हमारे सूर्य के जैसा है। पृथ्वी की तरह ही इसका अपना सूरज है। रिसर्च के मुताबिक, 'कैप्लर 452बी' पृथ्वी की ही तरह चट्टानी है। अपने तारे से यह उतना ही दूर है, जितना सूरज से पृथ्वी। यह न ज्यादा गर्म है और ना ही ज्यादा ठंड। इस कारण इस पर पानी और जिंदगी होने की उम्मीद है। पृथ्वी की तरह वहां जीवन होने की उम्मीद के कारण इसे 'अर्थ-2' के नाम से भी पुकारा जा रहा है। इस ग्रह की परिस्थितियां जीवन के अनुकूल हैं और खास बात यह है कि यह ग्रह अपने सूरज जैसे तारे के जीवन -अनुकूल क्षेत्र में ही चक्कर काट रहा है।
पृथ्वी से बाहर जीवन ढूंढने की नासा की कोशिशों में इस खोज को बहुत महत्वपूर्ण माना जा रहा है। नासा के स्पेस टेलीस्कोप कैप्लर ने इस ग्रह की खोज की है। इसे 2009 में लॉन्च किया गया था। इसने 2015 में गोल्डिलॉक जोन (जीवन की संभावना वाले) में आठ नए ग्रहों की खोज की है। 0.95 डायमीटर वाला ये टेलीस्कोप करीब एक लाख तारों पर नजर रखता है। नासा ने कहा है कि धरती के जैसी नई दुनिया में जीने की पर्याप्त परिस्थिति मौजूद है। बताया गया है कि यदि पौधों को वहां ले जाया जाए तो वे वहां भी जिंदा रह सकते हैं।  नासा के मुताबिक हमारी धरती के जैसी परिस्थिति में अपने सितारे का चक्कर काट रहा ग्रह जीवन की सभी परिस्थितियों और संभावनाओं को समेटे हुए है।
यह भी पृथ्वी की तरह अपने ग्रह का चक्कर लगाता है और इसमें 385 दिन लेता है। इसकी परतें भी पृथ्वी की तरह चट्टानी हैं। 'अर्थ-2'  का तापमान भी पृथ्वी की तरह है। अनुमान है कि अगर यहां ऐसा धरातल है तो फिर जीवन संभव है।  यह पृथ्वी से 1400 प्रकाश वर्ष दूर है। यह साइज में पृथ्वी से डेढ़ गुना बढ़ा हो सकता है। कैप्लर 452बी का पैरेंट स्टार कैप्लर 452 छह अरब साल पुराना है। यह हमारे सूरज से भी 1.5 अरब साल बड़ा है और 20% ज्यादा चमकीला है। नए ग्रह पर बहुत सारे बादल और सक्रिय ज्वालामुखी होने की संभावना है। अब तक खोजे गए ग्रहों में यह ग्रह पृथ्वी से सबसे ज्यादा मिलता है। इसी वजह से वैज्ञानिक इसे पृथ्वी की बहन और पृथ्वी-2 भी कह रहे हैं।
नासा ने अभी तक रहने लायक 12 ग्रहों की खोज की है और दूसरी पृथ्वी की खोज इस दिशा में एक मील का पत्थर है। नासा के साइंस मिशन डाइरेक्टरेट के सहायक प्रशासक जॉन ग्रुंसफेल्ड ने कहा कि इस उत्साहवर्द्धक परिणाम ने हमें अर्थ 2.0 की खोज के काफ़ी करीब पहुंचा दिया है। नया ग्रह ऐसे क्षेत्र में है जिसे रहने योग्य या गोल्डीलॉक्स जोन के रूप में जाना जाता है। तारे के आसपास का यह एक ऐसा क्षेत्र है जहां परिक्रमा करने वाले ग्रह की सतह पर तरल पानी काफी मात्रा में मौजूद रह सकता है। अगर कोई ग्रह अपने तारे से ज्यादा नजदीक होगा तो काफी गर्म होगा और ज्यादा दूर होगा तो काफी ठंडा। केपलर 452बी, अरबों सालों से अपने तारे से उचित दूरी पर है। वैज्ञानिकों का कहना है कि इसकी सतह के नीचे ज्वालामुखी भी हो सकते हैं। यह ग्रह हमारी पृथ्वी से थोड़ा ज्यादा बड़ा है। माना जा रहा है कि इसकी ग्रैविटी पृथ्वी के मुकाबले दोगुनी होगी। वैज्ञानिकों का कहना है कि इतने गुरुत्वाकर्षण में इंसान जिंदा रह सकते हैं। माना जा रहा है कि ऐसे  मौसम में पौधे भी अपना जीवन जी सकते हैं। इस ग्रह का तारा हमारी पृथ्वी के तारे यानी सूरज की तरह ही प्रकाश देता है। अगर यहां पर चट्टानें हुईं और वातावरण विकसित हुआ तो आप धूप भी सेक सकते हैं।

नासा के मुताबिक जीवन के लायक क्षेत्र में परिक्रमा करने वाला पहला छोटा ग्रह है । इसकी आकार धरती की तरह और वर्ष की लंबाई भी करीब समान है। एलियन के वहां मौजूद होने के बारे में अभी तक कुछ नहीं कहा जा सकता है। लेकिन वैज्ञानिकों ने इस बात की पुष्टि की है कि वहां पेड़-पौधे भेजे गए तो वह जिंदा रह सकते हैं। ज्यादातर जो बातें सामने आई है उससे यह साफ होता है कि वहां भी जीवन की भरपूर संभावनाएं है। केपलर 452बी यानी हमारी नई  पृथ्वी या अर्थ 2.0  हमसे 1,400 प्रकाश वर्ष दूर है। एक प्रकाश वर्ष यानी प्रकाश एक साल में जितनी दूरी तय करता है जिससे  यहां पहुंचने में ही अरबों साल लग जाएंगे। इसलिए फ़िलहाल यहाँ जाना असंभव लगता है लेकिन नासा की यह खोज भविष्य के लिए दूरगामी साबित हो सकती है . 

Friday 24 July 2015

न कौशल न विकास :क्या करें इस डिग्री-डिप्लोमा का ?

शशांक द्विवेदी 
पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश को युवाओं को स्किल्ड बनाने के उद्देश्य से स्किल इण्डिया प्रोग्राम लाँच कर दिया .देश में मेक इन इंडिया ,डिजिटल इंडिया और अब स्किल इण्डिया जैसे कार्यक्रम लाँच करने के लिए मोदी सरकार बधाई की पात्र है क्योकि पहली बार कोई सरकार इतने महत्वपूर्ण मुद्दों को संजीदगी से ले रही है और इन पर बाकायदा अभियान चला रही है . स्किल इंडिया कैम्पेन को लांच करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि “आईआईटी नहीं बल्कि आईटीआई है सदी की जरूरत “.उनकी इस बात से सहमत हुआ जा सकता है लेकिन क्या देश में आईटीआई की दशा ठीक है ?क्या वो गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा देने के लिए जाने जाते है .इन कुछ सवालों के जवाब हमें खोजने होंगे साथ में इस बात की भी पड़ताल करनी होगी कि देश भर के १२००० आईटीआई के शिक्षकों का स्तर कैसा है ?उनके प्रशिक्षण के लिए सरकार ने अब तक क्या कदम उठाये है क्योकि सरकार जब प्राइमरी और माध्यमिक लेवल की शिक्षा के लिए अत्यधिक पढ़े लिखे और डिग्री होल्डर का चयन करती है ऐसे में आईटीआई के आध्यापकों के चयन और उनके प्रशिक्षण के लिए क्या व्यवस्था है ?सच्चाई तो यह है कि आईटीआई आध्यापकों के उचित प्रशिक्षण के लिए अभी तक कोई ठोस सिस्टम विकसित ही नहीं हो पाया है .इस महत्वपूर्ण विषय पर काम करने की जरुरत है 
नेशनल सैंपल सर्वे के एक अध्ययन के मुताबिक, स्कूली शिक्षा के दौरान कम्पयूटर प्रशिक्षण प्राप्त 44 प्रतिशत घर बैठे हैं। टैक्सटाइल प्रशिक्षण प्राप्त 66 प्रतिशत के पास नौकरियां नहीं हैं।
स्कूलों में वोकेशनल कोर्स उत्तीर्ण महज् 18 प्रतिशत किशोरों को ही संबंधित ट्रेड की नौकरी मिल पाई; शेष 82 प्रतिशत अपनी पढाई का लाभ नहीं पा सके। ज्यादातर बेरोजगारी झेलने को मजबूर हैं। इस 18 प्रतिशत में से मात्र 40 प्रतिशत को ही औपचारिक शर्तांे पर नौकरी मिली। जाहिर है कि शेष 60 प्रतिशत की नौकरी अस्थाई किस्म की है। नौकरियां हासिल करने वालों में 30 प्रतिशत ऐसे थे, जिनके पास स्नातक अथवा उच्च डिग्री थी।
यह हाल क्यों है ? यह हाल इसलिए नहीं कि है, तकनीकी क्षेत्र में विद्यार्थियों की आवक अधिक है या कि नौकरियां कम हैं। हकीकत यह है कि आज भारत के मात्र तीन प्रतिशत कर्मचारी ही वोकेशनल प्रशिक्षण प्राप्त है। अधिक की पूर्ति के लिए भारत में वोकेशनल स्कूलों की कमी है।
असलियत यह है कि भारत और दुनिया का आधुनिक कारपोरेट जगत ज्यादा कौशल की मांग कर रहा है। इसकी तुलना में उपलब्ध विद्याथियों की रोजगार संबंधी काबिलियत कम है। यह स्थिति शिक्षण तथा प्रायोगिक सुविधा व गुणवत्ता में कमी के कारण उत्पन्न हुई है। गुणवत्ता में कमी और प्रायोगिक सुविधाओं में कमी का असर लघु अवधि पाठ्यक्रमों में ही नहीं, स्नातक स्तरीय इंजीनियरिंग और व्यावसायिक प्रबंधन की पढाई पढ चुके युवाओं के समक्ष बेरोजगारी बनकर सामने आ रहा है।
इंजीनियरिंग
भारत में आज इंजीनियंरिंग शिक्षा के आई आई टी, बी आई टी, एन आई टी. तथा क्षेत्रीय कालेजों जैसे कई प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग संस्थान हैं। ये ऐसे संस्थान हैं, जहां से पढने वाले विद्यार्थियों को इस बात की गारंटी है कि वे बेरोजगार नहीं बैठेंगे। किंतु भारत के ज्यादातर और उनमें भी खासकर निजी इंजीनियरिंग काॅलेजों से यह गारंटी भी अब गायब हो रही है। ऐसा क्यों है ? गेहूं व खेत बेचकर या कर्ज लेकर अपने बच्चों को इंजीनियर बनाने का सपना पालने वाले गरीब अभिभावकों के लिए यह सर्वाधिक चिंता का विषय बनता जा रहा है। इस चिंता से चिंतित होना जरूरी है।
एम आई टी, अमेरिका और आई आई टी, नई दिल्ली के पढे दो इंजीनियरिंग छात्र क्रमशः वरुण अग्रवाल और हिमाशुं अग्रवाल ने एस्पायरिंग माइंड्स नामक संस्था बनाकर यह चिंता करनी शुरु की है। किंतु क्या इसके कारण और निवारण को लेकर भारतीय तकनीकी शिक्षा जगत वाकई चिंतित है ? आइये, चिंतित हों और चिंतन कर कुछ रास्ता निकालें।
निजी कालेज: खाली पड़ी सीटें
परिदृश्य यह है कि एक ओर जाने कितने निजी इंजीनियरिंग काॅलेज इस सितम्बर के महीने में भी बाट जोह रहे हैं कि कोई आये और उनकी सीटें भरे; दूसरी ओर, एक साल पहले जुलाई-2013 में उत्तीर्ण होकर निकले कितने इंजीनियरिंग डिग्रीधारी बाट जोह रहे हैं कि कोई आये और उनकी बेरोजगारी दूर करे। तमिलनाडु के काॅलेजों मंे इंजीनियरिंग की दो लाख सीटें हैं। प्रवेश के लिए इस वर्ष तमिलनाडु के मात्र 1.74 लाख विद्यार्थियों ने ही आवेदन किया।
उत्तर प्रदेश में पाॅलीटेक्निक संस्थानों में करीब सवा लाख सीटें हैं। जुलाई अंत तक मात्र 15 हजार प्रवेश से चिंतित शासन ने सभी के लिए विशेष प्रवेश खोल दिया। जुलाई अंत में विज्ञापन निकाला कि दसवीं मंे 35 प्रतिशत अंक प्राप्त कोई भी विद्यार्थी अगस्त की सुनिश्चित तारीखों में प्रवेश ले सकता है। ऐसे अखबारी विज्ञापन हमारे तकनीकी संस्थानों की दुर्दशा और खाली सीटों को लेकर संस्थान मालिकों की बेचैनी दर्शाते हैं।
गिरता पैकेज: गायब रोजगार गारंटी
प्रवेश न लेने के पीछे का मुख्य कारण तकनीकी क्षेत्र में बढती बेरोजगारी और गिरता पैकेज है। चित्र यह है कि एक ओर, सरकारी नौकरियों में आठवीं पास चपरासी भी 15 हजार रुपये से कम तनख्वाह नहीं पा रहा; निजी दुकानों में काम करने वाले अकुशल कर्मचारी भी आठ-दस हजार से कम में नहीं मिलते; दूसरी तरफ, बी टेक उत्तीर्ण नौजवान इतना भी नहीं कमा पा रहे कि बैंक द्वारा रियायती दर पर दिया शिक्षा कर्ज चुका सकंे। दुखद है कि ऐसी पढाई पढाने वाले निजी इंजीनियरिंग काॅलेजों में पढाने के लिए भी अभिभावकों को चार साल में लगभग आठ लाख रुपये खर्च करने को मजबूर हैं और बाद में पछताने को भी।
चिंता की दूसरी बात यह है कि इंजीनियरिंग स्नातक बनने के बाद ज्यादातर विद्यार्थी ऐसी नौकरियों में है, जिनका उनकी तकनीकी पढाई से कोई लेना-देना नहीं है। बी ए, बी काॅम जैसे सामान्य स्नातक की भांति, इंजीनियरिंग डिग्रीधारी भी बैंक, संयुक्त लोक सेवा आयोग, कर्मचारी चयन आयोग तथा प्रादेशिक सेवा आयोगों द्वारा आयोजित सामान्य परीक्षाओं में नौकरी ढूंढ रहे हैं। विशिष्ट बीटीसी के जरिए उत्तर प्रदेश की प्राथमिक पाठशालाओं मंे पढाने की नौकरी की दौङ में बी टेक डिग्रीधारी भी शमिल देखे गये है।
विषय कौशल का अभाव: बड़ा कारण
इंजीनियरिंग कोर्स के चुनाव में आज आई टी और कम्पयूटर सांइस आज सबसे ज्यादा पसंद की जाने वाली शाखायें हैं। देश मंे हर साल करीब 6 लाख विद्यार्थी कम्पयूटर इंजीनियरिंग स्नातक की डिग्री हासिल करते हैं। गौर करने की बात है कि आज इनमे से 20 प्रतिशत भी साफ्टवेयर के क्षेत्र भर्ती योग्यता के काबिल नहीं निकल रहे। ’एस्पारिंग मांइड्स’ नामक संगठन की राष्ट्रीय रोजगार योग्यता रिपोर्ट-2013 के अनुसार मात्र 18.43 प्रतिशत इंजीनियरिंग स्नातक ही साॅफ्टवेयर क्षेत्र के काबिल पाये गये। यह हाल तब है, जब ज्यादातर कंपनियां वास्तविक इजीनियर की बजाय ज्यादातर प्रोग्रामर भर्ती कर रहे हैं।
सर्वे के मुताबिक, 91.82 प्रतिशत के पास प्रोग्रामिंग और अन्वेषण संबंधी कौशल का अभाव पाया गया। पाया गया कि 71.23 प्रतिशत में संबंधित ज्ञान की कमी तथा 60 प्रतिशत में अपने क्षेत्र से जुङे कौशल का अभाव है। 57.96 प्रतिशत में संक्षेपण, विश्लेषण तथा कम समय में अधिक कर पाने के कौशल की कमी है। 25 से 35 प्रतिशत दैनिक अंग्रेजी बोलने से हिचकते हैं। 30 प्रतिशत ऐसे हैं, जिन्हे दशमलव, अनुपात, माप प्रणाली, वर्गमूल जैसे साधारण गणितीय आकलन करने में कठिनाई होती है।
प्रशिक्षित शिक्षकों का अभाव
अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद के प्रमुख के एक बयान के मुताबिक हो सकता है कि 55 हजार विद्यार्थियों पर किए इस सर्वेक्षण की सैंपल संख्या नाकाफी हो, किंतु इसे कम बताकर इस सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता कि भारत में तकनीकी शिक्षण अपनी चमक खो रहा है। अब यह कोई छिपी बात भी नहीं है कि तकनीकी क्षेत्र में प्रशिक्षित शिक्षकों का अभाव बढा है; शिक्षण स्तर घटा है। बी टेक के कितने अध्यापक 15-20 हजार की मामूली तनख्वाह पा रहे हैं। न तो पाठ्यक्रम नियोजकों में परंपरागत पाठ्यक्रम में बदलाव व बेहतरी की कोई ललक अनुभव की जा रही है और न ही शिक्षकों में नई तकनीक व उत्पादों के बारे में जानने और विद्यार्थियों को बताने की।
निजी कालेज: गिरता प्रदर्शन
आंकड़ा यह है कि वर्ष 2006-07 की तुलना में वर्ष 2012-13 में इंजीनियरिंग काॅलेजांे की संख्या दोगुनी और इंजीनियरिंग सीटों की संख्या 4,99697 से बढकर 17,61967 हो गई है। इन कुल सीटो में 15 आई आई टी, आईएसएम-धनबाद, आई टी-बीएचयू और बीआईटी-पिलानी जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों की हिस्सेदारी लगभग आधा प्रतिशत है। ए आई ट्रिपल थ्री प्रवेश परीक्षा के जरिए प्रवेश वाले एनआईटी, आई आईएफटी, आई आई आई आई डी एम जैसे अच्छे माने जाने वाले इंजीनियरिंग संस्थानों के हिस्से में भी कुल 25,575 सीटें हैं। उक्त दोनो को मिलाकर कुल सीटों का दो प्रतिशत भी नहीं है। जाहिर है कि भारतीय के कुल इंजीनियरिंग संस्थानों में निजी संस्थानों हिस्सेदारी ही ज्यादा है। लिहाजा, लगाम कसने की पहली प्राथमिकता निजी कालेज ही ज्यादा हैं।
ऐसा नहीं है कि सारे निजी इंजीनियरिंग काॅलेज स्तरहीन हैं। किंतु कई राज्यों का हाल कुछ ज्यादा ही बुरा है। दक्षिण के पांचों राज्यों से लेकर उत्तर के हरियाणा-उत्तर प्रदेश में तकनीकी शिक्षण की ये गिरावट साफ दिखाई दे रही है। इस बदहाली के चलते इंजीनियरिंग मंे प्रवेश लेना अब अत्यंत आसान हो गया है। लिहाजा, अयोग्य विद्यार्थी भी इस क्षेत्र में प्रवेश ले रहे हैं।
अन्ना विश्वविद्यालय ने एक अध्ययन में पाया कि पिछले साल इंजीनियरिंग के करीब 60 प्रतिशत विद्यार्थी पहले साल की परीक्षा पास नहीं कर पाये। ऐसे भी उदाहरण है कि बोर्ड के टाॅपर इंजीनियरिंग के पहले सेमेस्टर में फेल हो गये। वजह यह है कि इंटर बोर्ड परीक्षाओं जिन्हे पास नहीं होना चाहिए, उन्हे भी 80 प्रतिशत अंक दिए जा रहे हैं। मां-बाप को गलतफहमी हो जाती है कि उनका बच्चा पढने में होशियार है। लिहाजा, वे उसे कर्ज लेकर भी इंजीनियर बनाने का सपना पाल लेते हैं। इनमंे से कितनें फेल होने पर आत्महत्या करते हैं और कितने पास होने पर नौकरी न मिलने पर मां-बाप के पछतावे का कारण बनते हैं।
नियंत्रक संस्था का अभाव
जून, 2011 में एक पत्रिका को दिए एक साक्षात्कार में मेट्रोमैन श्रीधरन ने इस स्थिति के लिए निजी कालेजों की आई बाढ तथा उनकी गुणवान संचालन हेतु किसी कारगर नियंत्रक संस्था के अभाव को जिम्मेदार बताया था। उन्होने कहा कि जब मैने इंजीनियरिंग की पढाई शुरु की, तब मद्रास प्रेसीडेंसी में चार इंजीनियरिंग कालेज थे, आज दो हजार हैं। ज्यादातर व्यापार की दुकानें बन र्गइं हैं। लिहाजा, इंजीनियरिंग पढने वाले विद्यार्थी भी बाद में प्रबंधक बनकर दुकानों पर तेल-साबुन बेचने को मजबूर हैं। डीम्ड विश्वविद्यालयों को लेकर भी मेट्रोमैन ने चिंता व्यक्त की। मेट्रोमैन की चिंता और तर्क गलत नहीं। उत्तराखण्ड के ज्यादातर पालीटेक्निक संस्थान अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद से बगैर मान्यता ही चल रहे हैं। उच्च शिक्षा के हर क्षेत्र में निजी काॅलेजों को दाखिले के नाम पर मनमानी राशि वसूलने की जैसे छूट मिली हुई है। छात्रवृति के नाम पर उत्तर प्रदेश शासन द्वारा जारी राशि में काॅलेज प्रबंधन द्वारा किए जा रहे घोटालों के कई सामने आये ही हैं। अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद भी जैसे मान्यता प्रमाणपत्र बांटने वाली संस्था बनकर रह गई है। जरूरी है कि परिषद अपनी चुप्पी तोङे और वास्तविक नियंत्रक की भूमिका निभाने के लिए आगे आये। भारत सरकार भी यदि चाहती है कि भातीय इंजीनियरिंग को विश्व स्तरीय इंजीनियरिंग बनाने की विषय-वस्तु कोरा नारा बनकर न रह जाये तो भूमिका निभाने के लिए आगे तो उसे भी आना पङेगा। वरना् तो दिवसों को मनाना अधूरा ही रहेगा और विश्वस्तरीय इंजीनियर बनाने का सपना भी।
सरकार से अपेक्षा
‘यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि यहां कोई गलती करता है, तो आप उसे कोर्ट में ले जा सकते हैं। लेकिन उसे उसके व्यवसाय विशेष से बाहर नहीं कर सकते।’ – मेट्रोमैन श्रीधरन का यह बयान तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में स्तर व समाधान तय करने की ओर सख्त कदम की मांग का इशारा है। यह कैसे संभव हो ? प्रशिक्षित शिक्षकों की आवक, जिज्ञासा व सम्मान कैसे सुनिश्चित हो ? सिर्फ मुनाफा खाने के लिए खङे किए गये इन निजी काॅलेजों में शिक्षा और शिक्षण की गुणवत्ता कैसे कायम हो ? इनके बेहिसाब मुनाफे पर लगाम कैसे लगे ? इंजीनियरिंग की पढाई कैसे नवाचारों के जन्म देने का मूल परिणाम लेकर आये ? ये सभी प्रश्न, भारतीय तकनीकी के समक्ष एक गंभीर चुनौती बनकर पेश हैं। लोगों को उम्मीद है कि नमो की नई सरकार की सख्त निगाह इस पर पङेगी। सरकारी इंजीनियरिंग कालेजों की संख्या बढेगी। जरूरत हुई तो नये कानून बनेंगे। चार सालों में सब कुछ रटा-पढा देने की नकारा पद्धति हटेगी। भारतीय इंजीनियरिंग काॅलेज बंद दीवारों की बजाय, जमीनी हकीकत और जरूरत से रुबरु नवाचारों की खुली प्रयोगशाला बनकर उभरेंगे। देश में तकनीकी शिक्षा का स्तर सुधरेगा। तकनीकी बेरोजगारों की संख्या घटेगी और साथ-साथ तकनीकी निर्यात की हमारी बेबसी भी।
विश्वेश्वरैया का रास्ता भूल गए
1820 में मैसूर के कोलार जिले के एक संस्कृत शास्त्री. एक वै़द्य श्री मोक्षगुण्डम श्रीनिवास शास्त्री के घर प्रख्यात सिविल इंजीनियर श्री मोक्षगुण्डम विश्वेश्वरैया का जन्म हुआ। हालांकि उन्होने तेल, साबुन, स्टील आदि की फैक्टरियां भी लगाईं। अंत में मैसूर के एक सम्मानित दीवान के रूप में सेवानिवृत हुए। किंतु दुनिया उन्हे उनकी फैक्टरियों या दीवानी के लिए नहीं, बल्कि उनके नवाचारों के लिए ही जानती है। उन्होने बांधों में रोके गये पानी से रिसाव रोकने के लिए स्टील के विशेष दरवाजों को ईजाद किया। दक्षिण भारत के अनुकूल सिंचाई की विशेष ब्लाक प्रणाली विकसित की। समुद्री कटाव से विशाखापत्तम बंदरगाह को बचाने की प्रणाली हो, हैदराबाद को बाढ से बचाने की प्रणाली अथवा सिधु नदी से सुक्कुर कस्बे को जलापूर्ति की प्रणाली… इन सभी नवाचारों पर श्री विश्वेश्वरैया का नाम दर्ज है। उनके द्वारा विकसित प्रणालियां कालांतर में नये भारत की सिंचाई, जलापूर्ति व पनबिजली उत्पादन का सहयोगी आधार बनीं। उनके इन नवाचारों की वजह से ही मरणोपरान्त 1955 में उन्हे भारत के सर्वोच्च सम्मान-भारत रत्न से नवाजा गया। उनके नवाचारों की वजह से ही उनके 155वें जन्म दिन-15 सितम्बर, 2014 को पूरे भारत ने इंजीनियरों के दिन के रूप में मनाया। इस वर्ष विषय वस्तु की ऊंचाई भी आसमान से कम ऊंची नहीं रखी – ’टू मेक इंडियन इंजीनियरिंग वल्र्ड क्लास’ यानी भारतीय इंजीनियरिंग को विश्वस्तरीय बनाना।
किंतु क्या इस विषय वस्तु में दर्ज सपना भारत में इंजीनियरिंग की पढाई और पढाई के बाद नवाचारों के मौजूदा परिदृश्य से कहीं आसपास भी दिखाई देता है ? अभियांत्रिकी दिवस पर भारतीय इंजीनियरों ने स्व श्री विश्वेश्वरैया और उनके नवाचारों को तो याद रखा, लेकिन क्या वे नवाचारों के उनके रास्ते को याद रख पा रहे हैं ? भारतीय इंजीनियरिंग के मद्देनजर इस समय बहस के लिए ये प्रश्न पर मौजूं भी हैं और जरूरी भी।
आईआईटी : नवाचारों से दूर, पर पैकेज के पास
वैज्ञानिक का काम होता है, नये-नये सिद्धांतों की खोज करना। इंजीनियर का काम होता है, उन सिद्धांतों को व्यवहार में उतारकर नवाचारों को जन्म देना। भारत की गरीब-गुरबा नागरिकों के लिए उपयोगी नवाचार रचने लायक इंजीनियरों को तैयार करने के सपने के साथ 1951 में भारत की पहली आई आई टी (खडगपुर) की स्थापना हुई। किंतु आज 63वें वर्ष के अंत में क्या हम कह सकते हैं कि आई आई टी ने वह मूल सपना पूरा किया, जिसके लिए इन्हे अस्तित्व में लाया गया ? आई आई टी से निकले कितने विद्यार्थी तकनीकी उत्पादों की दुनिया में नामी नवाचारों को जन्म दे पाये ? आई आई टी अथवा आई आई टी वि़द्यार्थियों द्वारा रचित कितने नवाचार ऐसे हैं, जो दुनिया के गरीब ग्रामीणों, किसानांे तथा परंपरागत कारीगरों को केन्द्र में रखकर रचे गये ? इनमें से कितने हैं, जो कि आज व्यवहार में हैं ? इन तमाम सवालों को लेकर आई आई टी समूह के संस्थानों पर सवालिया निशान हो सकता है। आई आई टी जैसे सरकारी संस्थान जनता की गाढी कमाई से प्राप्त करों से जुटाये सरकारी धन से चलते हैं। आपको आपत्ति हो सकती है कि ऐसे सरकारी तकनीकी संस्थानों और विद्यार्थियों… दोनो को चाहिए कि वे जनता की गाढी कमाई का उपयोग नागरिकों के लिए उपयोगी तकनीकी नवाचारों को जन्म देने में करें, न कि बङी तनख्वाह की नौकरी हासिल करने अथवा बङा कारोबार खङा करने में। आप कह सकते हैं कि नौकरी और पैकेज के बीच कहीं फंस गया है, अपेक्षित तकनीकी नवाचार। ऐसी आपत्तियों और सवालों के बावजूद, यह सच है कि नौकरी और कारोबार के मामले में आई आई टी से पढे विद्यार्थियों की काबिलियत को लेकर आज कोई सवाल नहीं है। हालांकि देश की सभी आई आई टी में इंजीनियरिंग की हर शाखा की पढाई के लिए देश की हर आई आई टी मशहूर नहीं हैं; खासकर, नई आई आई टी में पढाने वाले अच्छे शिक्षकों की कमी का सवाल सुनाई देता रहता है।

आइंस्टीन के बराबर पहुंचे पीटर हिग्स!

नोबेल पुरस्कार विजेता पीटर हिग्स को दुनिया का सबसे पुराने वैज्ञानिक पुरस्कार रॉयल सोसायटी के कोपले मेडल से नवाजा गया। ये पुरस्कार जीतने के साथ ही हिग्स, चार्ल्स डार्विन और अल्बर्ट आइंस्टीन की श्रेणी में शामिल हो गए। उन्हें हिग्स बोसोन के सिद्धांत पर काम करने के लिए यह पुरस्कार मिला है जिसका आविष्कार 2012 में किया गया था। 86 वर्षीय हिग्स को कोपले मेडल पार्टिकल फिजिक्स में उनके मूल योगदान को देखते हुए दिया गया है जिसमें मौलिक कणों में द्रव्यमान की उत्पति के सिद्धांत का जिक्र है। इसका लार्ज हैड्रोन कोलाइडर पर प्रयोग कर पुष्टि भी की गई है। हिग्स बोसोन के अस्तित्व की पुष्टि दो प्रयोगों से हुई जिसे लार्ज हैड्रन कोलाइडर में 2012 में किया गया। साल 2013 का भौतिकी का नोबेल पुरस्कार संयुक्त रूप से हिग्स और एंगलर्ट को दिया गया था। हिग्स ने कहा, इस साल का कोपले मेडल पुरस्कार प्राप्त करना सम्मान की बात है जो रायल सोसायटी का प्रतिष्ठित पुरस्कार है। 
इसलिए दिया जाता अवॉर्ड 
इसे वैज्ञानिक शोध में उल्लेखनीय उपलब्धियों के लिए दिया जाता है और हाल में इसे मशहूर वैज्ञानिकों जैसे भौतिकीविद स्टीफन हॉकिंग, डीएनए फिंगरप्रिंट के वैज्ञानिक एलेक जेफरेज और आंद्रे गीम को ग्रेफेन के आविष्कार के लिए दिया गया। 


Thursday 23 July 2015

एक दशक बाद चांद पर रहने लगेगा इंसान

नासा द्वारा कराए गए एक अध्ययन के अनुसार करीब एक दशक बाद इंसान चांद पर रहने में कामयाब हो जाएगा। रिपोर्ट्स के मुताबिक इस अध्ययन में ह्यूमन मिशन को फिर से चांद पर ले जाने की योजना का खाका खींचा गया है। अमेरिकन न्यूज ऐंड टेक्नॉलजी मीडिया नेटवर्क- द वर्ज की रिपोर्ट के मुताबिक इस बारे में 20 जुलाई को अपोलो-11 के क्रू के चांद की सतह पर पहले कदम रखने की 46वीं सालगिरह के मौके पर घोषणा की गई। नेक्सजेन स्पेस एलएलसी ने अपने एक अध्ययन में इस बारे में विस्तार से योजना बनाई है कि चांद पर उतरने के लिए अगला कदम कब और कैसे उठाया जाना है। इस अध्ययन के लिए नासा ने ही फंड उपलब्ध कराया था। अध्ययन में कहा गया है कि अगर नासा बताई गई योजना पर काम करे तो 2017 तक चांद पर रोबॉट भेजकर उसे सुरक्षित वापस बुलाया जा सकेगा। इसके बाद रोवर्स 2018 से 2020 तक हाईड्रोजन की तलाश के लिए चांद के ध्रुवों का चक्कर लगाना शुरू करेंगे। 2021 में इंसानों को चांद पर उतारने के लिए रोबॉट्स वहां स्थायी बेस बनाएंगे। अध्ययन में कहा गया है कि नासा यह सब अपने मौजूदा बजट में ही कर सकती है। नासा पहले ही अपने अगली पीढ़ी के रॉकेट- स्पेस लॉन्च सिस्टम (एसएलएस) के साथ चांद पर जाने की योजना बना रहा है, लेकिन वहीं जमने की कोई योजना नहीं है।

अंतरिक्ष से निकली ध्वनियों को बनायें रिगटोन!


अगर आप कोई अनूठा रिगटोन चाहते हैं, तो राष्ट्रीय वैमानिकी एवं अंतरिक्ष प्रशासन (नासा) आपकी मदद कर सकता है। नासा ने हाल में पिछले 50 वर्षो में अंतरिक्ष में रिकॉर्ड की गईं ऐसी ध्वनियां जारी की हैं, जिन्हें रिगटोन बना सकते हैं। 
अब आपका मोबाइल जितनी बार बजेगा, उतनी बार चांद पर पहला कदम रखने वाले अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री नील आर्मस्ट्रांग का उद्धरण, 'मानव के लिए एक छोटा कदम, मानवजाति के लिए एक बड़ी छलांग' या अंतरिक्ष शटल की गड़गड़ाहट सुन सकते हैं। अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी ने ध्वनियां जारी करने के लिए सोशल साउंड प्लेटफॉर्म 'साउंडक्लाउड' पर एक पेज बनाया है। 
ब्रिटिश ऑनलाइन संगीत समाचार साइट 'गिगवाइज' के अनुसार, अंतरिक्ष में शून्यता की वजह से ध्वनियां दब गई हैं, लेकिन वैज्ञानिकों ने विशेष उपकरणों के इस्तेमाल से ध्वनि कैद करने के तरीके ढूंढ़ लिए हैं। रिकॉíडंग में शनि के छल्ले, वरुण, बृहस्पति और लाखों मील दूर पृथ्वी की ध्वनि कैसी होगी, सभी ध्वनियां शामिल हैं। उदाहरण के लिए 'लिफ्ट ऑफ' नामक इस क्लिप में चंद्रमा के पहले मानव मिशन 'अपोलो 11' की ध्वनियां शामिल हैं। समाचार वेबसाइट 'द इनक्विसिटर' की रिपोर्ट के अनुसार, द साउंडक्लाउड पेज पर अब तक 63 फाइलें शामिल हुई हैं, जिनमें पिछले 50 वर्षो में अंतरिक्ष अन्वेषण के कुछ सबसे ऐतिहासिक पल शामिल हैं। 

Tuesday 21 July 2015

आईआईटी और गुणवत्ता

आशुतोष 
कुछ दिन पहले आईआईटी रुड़की द्वारा अंडर परफॉर्म करने वाले अपने 73 छात्रों को संस्थान से निकालने की ख़बरों के बीच ही कुछ ऐसी ख़बरें सामने आ रही हैं जिनके माध्यम से इन संस्थानों से निकलने वाले छात्रों की गुणवत्तापरक क्षमता के विकसित होने पर बड़ा प्रश्न चिन्ह लगने वाला है और इस सबके बीच में सबसे बुरी खबर यही हो सकती है अंतर्राष्ट्रीय स्तर के ये संस्थान केवल सामान्य शिक्षा के केंद्र बनकर ही न रह जाएँ. पिछले वर्ष जहाँ कमज़ोर तबकों के लोगों के लिए प्रवेश के लिए 8.8% की पात्रता रखी गयी थी यदि इस वर्ष भी उसे बनाये रखा जाता है तो इस समूह की 507 सीटों को पूरी तरह से भर पाना असंभव हो जायेगा जिससे निपटने के लिए अब इस सीमा को और घटकर 6.1% किया जा रहा है जिससे सीटें खाली न रह सकें. बेशक समाज के कमज़ोर तबकों को आज़ादी के बाद देश की मुख्यधारा में शामिल करने के लिए इस तरह के आरक्षण की आवश्यकता थी और उसे देखते हुए इस आरक्षण को 10 वर्षों के लिए एक अस्थायी व्यवस्था के तौर पर अपनाया गया था पर आज भी निचले स्तर की शिक्षा व्यवस्था में सुधार न होने के कारण आम गरीबों और वंचितों तक ये सुविधाएँ उस स्तर तक नहीं पहुँच पायी हैं जहाँ उन्हें होना चाहिए था.
क्या हमारे नेताओं की आज की पीढ़ी ईमानदारी के साथ यह कह सकती है कि उसने संविधान की मुल भावना के साथ इस मामले में न्याय करते हुए समाज के वंचितों तक सही दिशा में पहुँचने की कोशिश की है ? वह आरक्षण जो समाज के गहरे विभाजन को दूर करने के सपने के साथ अस्थायी रूप से शुरू किया गया था आज राजनीति का बहुत बड़ा मुद्दा बन चुका है जिसमें एक बार आरक्षण का लाभ लेकर आगे बढ़ चुके लोगों को ही इसका अधिक लाभ लगातार मिल रहा है और यह नेताओं को भी भाता है इसलिए कोई भी दल देश की सही प्रतिभाओं को सामने लाने तथा नयी पीढ़ी में नयी प्रतिभा को तैयार करने के स्थान पर केवल आरक्षण का झुनझुना पकड़ा कर अपनी राजनीति करने में ही व्यस्त रहा करते हैं. आरक्षण दिया जाना चाहिए इसका सामाजिक स्तर पर भी केवल राजनैतिक कारणों से ही विरोध किया जाता है पर जब तक ज़मीनी हालत की प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के स्तर को सुधारने का काम सही तरह से नहीं किया जायेगा तब तक क्या समाज का वास्तविक भला हो सकता है ? इस बात का जवाब आज कोई भी नहीं देना चाहता है क्योंकि इसके सामने आते ही मामला आरक्षण समर्थन और विरोध में हो जाता है.
देश में तेज़ी बढ़ते हुए कोचिंग कल्चर ने भी इन संस्थानों की गुणवत्ता पर बुरा असर डाला है  क्योंकि एक समय था जब बारहवीं की परीक्षा पास करने के बाद बच्चे इन प्रतियोगी परीक्षाओं में भाग लिया करते थे पर कुछ लोगों ने आईआईटी के परीक्षा पैटर्न को ध्यान में रखते हुए अपने यहाँ उसी तरह से केवल प्रवेश को अपना लक्ष्य बनाकर पढ़ाना शुरू कर दिया जिसके बाद से ही इन संस्थानों में केवल एक विशेष पद्धति से शिक्षा पाये हुए छात्र ही पहुँचने लगे जिनमें कड़ा परिश्रम करने की क्षमता तो थी पर वे किसी बड़े शोध आदि पर काम करने के लायक बिल्कुल भी नहीं थे जिससे पूरा मामला बिगड़ता ही जा रहा है. आज आईआईटी के पास उस स्तर के छात्र पहुँच ही नहीं पाते हैं जिसकी उसे आवश्यकता है और केवल सतही जानकारी के बल पर छात्र आगे बढ़कर नौकरियां तो पा जाते हैं पर उनका देश और समाज के साथ विज्ञान की प्रगति में कोई योगदान नहीं दिखाई देता है तो इस स्थिति में इतने बड़े संस्थानों को चलाये जाने की आवश्यकता भी क्या है जिससे केवल पैसा कमाने वाले रोबोट ही पैदा किये जा रहे हों ? 
आईआईटी के शिक्षक भी आज इस बात को मानते हैं कि आने वाले छात्रों में आज वो गुणवत्ता कहीं भी नहीं दिखाई देती है जो उनमें होनी चाहिए तो आखिर सरकार की तरफ से इतना धन इस क्षेत्र में खर्च करने की क्या आवश्यकता है ? सतही शिक्षा पाकर कुछ करने के मंसूबों के साथ नौकरियां तो मिल सकती हैं पर उससे देश का क्या भला होगा यह जानने की आज कोई कोशिश नहीं कर रहा है. क्या मानव संसाधन विकास मंत्रालय के साथ ही केंद्र और राज्य सरकारों को इस बारे में अब सही दिशा में सोचने की आवश्यकता नहीं है जिससे हमारे संस्थान विश्व स्तरीय बन सकें और यहाँ से निकले हुए छात्र पूरे विश्व में अपनी कामयाबी का झंडा गाड़ सकें ? क्या समाज की यह ज़िम्मेदारी भी नहीं बनती है कि अब बच्चों को आईआईटी का रोबोट बनाने के स्थान पर कुछ वास्तविक शोध और सकारात्मक परिणामों के लिए तैयार करने के बारे में सोचना शुरू कर सके ? आखिर हम हर काम सरकार पर ही लाद कर खुद को ज़िम्मेदारियों से क्यों अलग कर लिया करते हैं जबकि हमें भी पता है कि हमारी आवश्यकताओं को सरकारें कभी भी नहीं समझना चाहती हैं.सुधार की बात वहीं से शुरू करनी होगी जहाँ से इसे बिगाड़ा गया है क्या आज देश को ऐसे विद्यालयों की आवश्यकता नहीं है जहां पर समाज के वंचितों को मिड डे मील, ड्रेस और वजीफे की अप-संस्कृति से बाहर निकालने के काम पर सोचना शुरू किया जाये ? क्या आँखें बंद करके आरक्षण की पैरवी करने वाली सभी सरकारों ने कभी इन छात्रों के भविष्य के बारे में सोचने की कोशिश की है जो 6.1% नम्बर पाकर इस वर्ष आईआईटी में प्रवेश पाने वाले हैं ? क्या उनकी माध्यमिक शिक्षा उस स्तर की है जो उन्हें आईआईटी के  दबाव को झेलने और वहां पर कुछ करने लायक बना सकती हो तो फिर जहाँ कमी है उसे दूर करने के स्थान पर इन छात्रों को संस्थानों में उपहास का पात्र बनाने की आवश्यकता ही क्या है ? अब आरक्षण की मांग और विरोध करने वाले दोनों ही समूहों को सरकार और सुप्रीम कोर्ट से यह मांग खुद ही करनी चाहिए कि आईआईटी जैसे शिक्षण संस्थानों में शिक्षा की गुणवत्ता और सबको समान अवसर देने के कुछ अन्य तरह के उपाय भी सोचे जाने चाहिए. आज यदि सरकारें इन महत्वपूर्ण संस्थानों के लिए माध्यमिक शिक्षा के स्तर पर पूरा ध्यान देने के बारे में सोचना शुरू करे और एक 20 वर्षीय योजना भी बनाये जिसमें समाज के वंचितों को निचले स्तर से ही इस शिक्षा के लिए तैयार किया जाये और चरणबद्ध तरीके से समाज में असमानता के इस स्तर को दूर करने के बारे में सोचा जाये तो सभी के लिए समान अवसर और भेदभाव को दूर करने में सफलता मिल सकती है.    

सिर्फ कौशल नहीं काम भी जरूरी

पिछले आम चुनाव में रोजगार एक बड़ा मुद्दा बना था, जिसे ठोस रूप देने के लिए मोदी सरकार ने 'मेक इन इंडिया' और 'स्किल इंडिया' को अपने वर्किंग अजेंडा में काफी ऊंची जगह दे रखी है। इन दोनों नारों का जमीनी शक्ल लेना अभी बाकी है, लेकिन इन पर काम करते हुए सरकार को भारतीय युवाओं के कौशल और रोजगार को जोड़ने वाली बारीकियों को ध्यान में रखना चाहिए। लेबर ब्यूरो द्वारा 2014 के लिए पेश की गई रिपोर्ट बताती है कि कुछ ऊंची नौकरियों को छोड़ दें तो भारत के रोजगारदाता किसी को छोटी या मझोली नौकरियों पर रखते वक्त उसके कौशल से ज्यादा उसके तजुर्बे पर नजर रखते हैं। 
रिपोर्ट बताती है कि अगर आपके पास किसी ट्रेड से जुड़ा डिप्लोमा है तो आपको नौकरी मिलने की गुंजाइश अपेक्षाकृत कम होगी। वजह? डिप्लोमा होल्डर होने के चलते आप बेहतर पगार की उम्मीद करेंगे, हालांकि कंपनी को तुरंत एक प्रफेशनल के रूप में आपकी सेवाएं मिलनी शुरू नहीं होंगी। इसके बजाय एक अकुशल व्यक्ति, जो बहुत कम पैसों पर कहीं छोटा-मोटा काम पकड़ कर दस जगह धक्के खाता हुआ बेहतर काम की तलाश में उसी कंपनी के पास पहुंचा है, उसके लिए ज्यादा काम का साबित होता है, क्योंकि वह तुलनात्मक रूप से पैसे भी कम मांगता है और पहले ही दिन संतोषजनक नतीजे भी देना शुरू कर देता है। 

अध्ययन के नतीजे लोगों को डिप्लोमा लेने से हतोत्साहित करने वाले हैं। इनके मुताबिक आईटीआई या किसी और स्किल सेंटर से डिप्लोमा लेकर निकले व्यक्तियों में बेरोजगारी की दर 14.5 प्रतिशत है। सिविल और कंप्यूटर इंजीनियरिंग के क्षेत्रों को छोड़ दें तो बाकी सभी क्षेत्रों के डिप्लोमा होल्डरों में पचीस फीसदी से भी ज्यादा लोग बेरोजगार हैं। खासकर कपड़ा उद्योग संगठित क्षेत्र में भारतीय युवाओं को सबसे ज्यादा रोजगार देता रहा है, लेकिन अभी हालत यह है कि इससे जुड़ी स्किल ट्रेनिंग लेकर निकले लोगों में 17 फीसदी बेरोजगार हैं। रिपोर्ट बताती है कि पिछले दस सालों में हर साल एक करोड़ 20 लाख लोग जॉब मार्केट में आ रहे हैं, लेकिन हर साल औसतन 55 लाख लोगों को ही कोई न कोई रोजगार मिल पा रहा है। 
जाहिर है, कुशल और शिक्षित बेरोजगारों की दिनोंदिन लंबी होती कतार को भारत की विकास कथा का हिस्सा बनाने के लिए सिर्फ कोई एक पेच पकड़ कर काम करना काफी नहीं है। मसलन, यह कहना बेमानी है कि पेचकस चलाने वाला अगर ज्यादा अच्छी तरह पेचकस चलाएगा तो उसे रोजगार मिलने की संभावना बढ़ जाएगी। सरकार अगर नए स्किल डिवेलपमेंट सेंटरों के लिए पैसा जारी करती है तो उसे यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि इनसे निकले युवाओं को न सिर्फ काम मिले, बल्कि उन्हें उनके कौशल के अनुरूप और बेहतर पगार वाला काम मिले। इसके लिए बेरोजगार युवाओं से पहले तमाम छोटी-बड़ी रोजगारदाता कंपनियों को स्किल इंडिया कैंपेन का हिस्सा बनाया जाना चाहिए।(ref : NBT Edit )


प्राथमिक शिक्षा में नवाचार

भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण, जिसके जरिए देश के हर नागरिक को आधार दिया जा रहा है, के पूर्व मुखिया नंदन नीलेकणि अब शिक्षा की अलख जगाने के लिए आगे आ रहे हैं। नीलेकणि की योजना है कि प्राथमिक शिक्षा में नवाचार किया जाए ताकि 5-12 वर्ष के आयु वर्ग के बच्चों को पढ़ने के लिए प्रेरित किया जाए और प्रौद्योगिकी के जरिए उन्हें गणित में महारथ हासिल कराई जा सके। सूत्रों के अनुसार उनका उद्देश्य शिक्षा के क्षेत्र में प्रौद्योगिकी का ऎसा प्लेटफार्म सुलभ कराना है जिसके जरिए शिक्षकों, अभिभावकों, वैज्ञानिकों, शोधकर्ताओं को सीखने में आने वाली विशेष समस्याओं को हल करने में राहत मिल सके। "एक स्टेप" नाम से इस प्रोजेक्ट पर नीलेकणि ने कार्य भी शुरू कर दिया है। इस योजना के अन्तर्गत देश के हर बच्चे को शिक्षा से जोड़ने की पहल की जाएगी और देश में शिक्षा का माहौल बनाया जाएगा। गौरतलब है कि आधार कार्ड का विरोध कर रही मोदी सरकार ने नंदन नीलेकणि के समझाने के बाद ही आधार कार्ड योजना को जारी रखा था। बताया जाता है कि उन्होंने पीएम मोदी को इसके फायदे बताए, जिसके आधार पर ही पीएम ने जन-धन आधार

मोबाइल योजना तथा अन्य योजनाओं को आधार कार्ड से कनेक्ट करने का निर्णय लिया। सूत्रों के अनुसार उनकी पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मुलाकात भी हुई है और उन्होंने अपनी योजना का खाका भी पेश किया है। राजनीतिक विशेषज्ञों के अनुसार नंदन नीलेकणि कांग्रेस छोड़ सकते हैं। उल्लेखनीय है कि 2014 के चुनाव के दौरान उन्होंने कांग्रेस का दामन थाम लिया था। वे बेंगलूरू की दक्षिणी सीट से चुनाव भी लड़े, पर विजयी नहीं हुए। इसके बाद न तो कांग्रेस की राज्य इकाई और न ही केन्द्रीय नेतृत्व ने उन्हें गंभीरता से लिया।

Thursday 16 July 2015

स्किल इंडिया पर निर्भर मेक इन इंडिया

सतीश पेडणोकर
भारत को मैन्यूफैक्चरिंग हब बनाकर करोड़ों लोगों को रोजगार देने के लिए मोदी सरकार ने मेक इन इंडिया जैसी महत्वाकांक्षी योजना शुरू की है। देशिवदेश में इसकी र्चचा है। लेकिन इसे सफल बनाने के लिए देशी-विदेशी पूंजी निवेश और आर्थिक सुधार जितने जरूरी हैं, उतना ही जरूरी है कौशल या हुनरमंद श्रमशक्ति। यदि देश के पास हुनरमंद लोग नहीं होंगे तो पूंजी निवेश और आर्थिक सुधार जैसे कारक भी मेक इन इंडिया को सफल बनाने में नाकाम साबित होंगे। न केवल श्रमशक्ति हुनरमंद होनी चाहिए, बल्कि नियंतण्र स्तर पर प्रतियोगी भी होनी चाहिए। इसीलिए मेक इन इंडिया को सफलता के लिए सरकार ने एक और महत्वाकांक्षी योजना स्किल इंडिया शुरू की है। भारत सवा सौ करोड़ की विशाल मनुष्यशक्ति का देश है और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि यह युवाशक्ति का देश है। 65 प्रतिशत आबादी 35 साल से कम उम्र की है। इसमें शिक्षित युवाशक्ति की तादाद भी अच्छी- खासी है, लेकिन भारत की यह खूबी तब कमजोरी में बदल जाती है जब स्किल या हुनर की बात आती है। इन शिक्षित लोगों में बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जिनके पास कोई हुनर नहीं है। हमारी शिक्षा व्यवस्था ने युवाओं को शिक्षा तो दी, मगर कोई स्किल नहीं दी जिससे वे किसी उद्योग या व्यवसाय में नौकरी पा सकें या अपना व्यवसाय खुद शुरू कर सकें। दरअसल, हुनर भी ऐसा होना चाहिए, जिसकी बाजार में मांग हो। हमारी शिक्षा व्यवस्था का आधुनिक उद्योगों की जरूरतों के साथ कोई तालमेल ही नहीं है। हमारे स्कूलों और कॉलेजों से पढ़कर निकले छात्र उद्योगों की जरूरतों को पूरा नहीं कर पाते, इसलिए नौकरी पाने लायक नहीं होते। हमारी शिक्षा पद्धति की विडंबना यह है कि हमने शिक्षा को किताबी बना दिया, उसे रोजगार से जोड़ने की कोशिश नहीं की। दिल्ली विविद्यालय के कुलपति दिनेश सिंह कहते हैं कि हमने 2011 में मुंबई की एक बड़ी फाइनेंशियल कॉरपोरेशन कंपनी को आमंत्रित किया था कि वह छात्रों को अपने यहां नौकरी के लिए नियुक्त कर सके। इसके लिए स्नातक स्तर के अभ्यार्थियों से कंपनी बुनियादी जानकारी की अपेक्षा कर रही थी, लेकिन 1200 अभ्यर्थियों में महज तीन अभ्यार्थियों को कंपनी ने चुना। दरअसल, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद समय दर समय शिक्षा के क्षेत्र में बहुत-सी गलतियां हुई हैं, जो राष्ट्र के विकास में अवरोध पैदा कर रही हैं। यदि 1200 छात्रों में केवल तीन छात्र चुने जाते हैं तो इसका मतलब यही है कि हम छात्रों को हुनरमंद नहीं बना पा रहे हैं। 
सीआईआई की नवीनतम रपट इंडिया स्किल रिपोर्ट-2015 के मुताबिक, हर साल सवा करोड़ युवा रोजगार बाजार में आते हैं लेकिन ये तभी हमारे लिए एसेट बन सकते हैं जब वे आधुनिक उद्योगों की जरूरतों के मुताबिक सही तरीके से प्रशिक्षित हों। अन्यथा वे बेरोजगारों की फौज ही बढ़ाएंगे। रपट के मुताबिक अभी आने वाले युवाओं में से 37 प्रतिशत ही रोजगार के काबिल होते हैं। यह आंकड़ा कम होने के बावजूद पिछले साल के 33 प्रतिशत के आंकड़े से ज्यादा है और संकेत देता है कि युवाओं को स्किल देने की दिशा में धीमी गति से ही सही काम हो रहा है। सरकार हमारी शिक्षा व्यवस्था की इस मूलभूत कमी को दूर करने की कोशिश कर रही है। प्रधानमंत्री मोदी इस बारे में बहुत ज्यादा सचेत हैं और इस दिशा में निरंतर कोशिश कर रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शिक्षक दिवस के दिन छात्रों के लिए स्किल की आवश्यकता पर बहुत जोर दिया। चुनाव प्रचार के दौरान भी उन्होंने बार-बार कहा था कि हमें स्किल्ड इंडिया बनाना है। इसके पीछे का तर्क किसी को भी समझ में आने वाला है कि देश के करोड़ों लोगों को रोजगार केवल तभी दिया जा सकता है, जब उनके पास कोई स्किल हो। ऐसा न होने के कारण ही आज देश की हालत यह है कि एक तरफ करोड़ों लोग बेरोजगार हैं, तो दूसरी तरफ लोगों को जरूरत के समय प्लंबर, कारपेंटर आदि सामान्य तकनीशियन तक नहीं मिल पाते। उद्योगों को भी कई तरह के तकनीशियन चाहिए होते हैं मगर उन्हें कुशल और हुनरमंद लोग मिल नहीं पाते। हुनर की मांग और आपूत्तर्ि में इस खाई की वजह यह है कि हमारे देश में स्किल डेवलपमेंट पर ध्यान ही नहीं दिया गया। यदि भारत में मौजूद युवाशक्ति के स्किल विकास पर ध्यान दिया जाए तो हमारा देश निश्चित ही विकास के मामले में सफलता के झंड़े गाड़ सकता है। आज के जमाने में विकास के लिए संसाधन, पूंजी आदि जितना ही जरूरी है हुनरमंद मानवीय संसाधन। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि देशभर में स्किल विकास केंद्रों का जाल हो, साथ ही साथ इन केंद्रों को उद्योगों के साथ जोड़ा जाए। यह सही है कि विकास के लिए सही नीतियों का चुनाव जरूरी है, लेकिन विकास और स्किल का भी चोली-दामन का साथ रहा है। यदि देश में स्किल का विकास न हो तो विकास बहुत लंबी दूरी तक नहीं जा पाता, उसे लोगों में स्किल विकसित होने तक का इंतजार करना ही पड़ता है। इसलिए इन दिनों विकास के लिए मानव संसाधनों के विकास की जरूरत पर भी बल दिया जाने लगा है। इसका मतलब है कि देश के नागरिक पढ़े-लिखे हों और उनके पास इस तरह का हुनर हो जिसके जरिये वे विकास में अहम योगदान दे सकें। स्किल भी ऐसी होनी चाहिए जिसकी उद्योग और व्यापार धंधों को जरूरत हो और जिसे नवीनतम तकनीक के अनुसार ढाला जा सके। अगर लोगों के पास स्किल हो और बाजार की मांग के अनुसार न हो तो स्किल और बाजार के बीच में मिसमैच हो जाएगा। ऐसी स्थिति में स्किल होने के बावजूद लोगों को रोजगार नहीं मिल पाएगा। यही कारण है 44 प्रतिशत कंप्यूटर ट्रेनिंग लेने वाले और 60 प्रतिशत टैक्सटाइल से जुड़े स्किल की ट्रेनिंग लेने वाले खाली बैठे हैं। यह समस्या केवल हमारे ही नहीं, बाकी देशों की भी है और उन्होंने इसे अपने तरीके से सुलझाया है। जर्मनी में चैंबर आफ कॉमर्स इस तरह की स्किल्स पर नजर रखता है जिनकी उद्योगों को आवश्यकता है और उसके लिए पाठ्यक्रम बनाने और उसे लागू करने में मदद करता है। हमारी औद्योगिक संस्थाओं फिक्की और सीआईआई को इससे सबक लेना चाहिए और कुशल मानव संसाधन चाहिए तो उन्हें इस दिशा में कोशिश करनी चाहिए, क्योंकि देश में वोकेशनल संस्थाएं बहुत कम हैं। अभी जो वोकेशनल संस्थाएं हैं, अपनी पूरी क्षमता से काम करें तो भी हर साल स्कूल छोड़ने वालों में से केवल तीन प्रतिशत को ही वोकेशनल ट्रेनिंग दे सकती हैं। 
दरअसल, पश्चिमी देश पिछले वर्षो के अनुभव के बाद इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि अकादमिक शिक्षा की तरह ही बाजार की मांग के मुताबिक उच्च गुणवत्ता वाली स्किल की शिक्षा देनी भी जरूरी है। एशिया की आर्थिक महाशक्ति दक्षिण कोरिया ने स्किल विकास के मामले में चमत्कार कर दिखाया है और उसके चौंधिया देने वाले विकास के पीछे स्किल विकास का सबसे महत्वपूर्ण योगदान है। इस मामले में उसने जर्मनी को भी पीछे छोड़ दिया है। 1950 में दक्षिण कोरिया की विकास दर हमसे बेहतर नहीं थी। लेकिन इसके बाद उसने स्किल विकास में निवेश करना शुरू किया। यही वजह है कि 1980 तक वह भारी उद्योगों का हब बन गया। उसके 95 प्रतिशत मजदूर स्किल्ड हैं या वोकेशनली ट्रेंड हैं, जबकि भारत में यह आंकड़ा तीन प्रतिशत है। ऐसी हालत में भारत कैसे आर्थिक महाशक्ति बन सकता है। स्किल इंडिया बनाने के अपने इरादे के तहत मोदी सरकार ने अलग मंत्रालय बनाया है। यह बताने के लिए कि सरकार इसे कितना महत्व देती है, नेशनल स्किल डेवलपमेंट मिशन भी बनाया गया है। हमारे देश में स्किल विकास का कार्यक्रम नया नहीं है लेकिन स्वतंत्र मंत्रालय जरूर नया है। इसलिए नए एप्रोच की जरूरत है। वैसे यह सवाल बार-बार उठ रहा है कि केंद्र सरकार पहले की तरह हर योजना को स्वतंत्र रूप से पैसा देगी या इस मंत्रालय को ही सभी स्किल विकास के कार्यक्रमों के संचालन की जिम्मेदारी दे दी जाएगी। यह भले ही निकट भविष्य में न हो, लेकिन आखिर में ऐसा ही होना है। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)