Tuesday 30 June 2015

दुनिया में पहली बार प्रयोग किया जाएगा कृत्रिम रक्त

विश्व में पहली बार कृत्रिम रक्त चढ़ाने का मानव पर परीक्षण किया जाएगा। यूके वर्ष 2017 से प्रयोगशाला में मूल कोशिकाओं (स्टेम सेल्स) से तैयार किए गए रक्त को मानव शरीर में चढ़ाने की योजना बना रहा है। यूके की नेशनल हेल्थ सर्विस (एनएचएस) ने यह घोषणा कि है कि दो साल के अंदर लैब में तैयार किए गए खून का व्यक्तियों पर क्लिनिकल ट्रायल शुरू किया जाएगा। यूनिवर्सिटी ऑफ ब्रिस्टल और एनएचएस ब्लड एंड ट्रांसप्लांट ने व्यस्क के मूल कोशिकाओं और गर्भनाल रक्त से कम मात्रा में लाल रक्त कोशिकाओं को विकसित किया है। मानव परीक्षण के दौरान 20 वालिंटियर्स के समूह को लैब में बनाए गया रक्त 5 से 10 मिलीलीटर की मात्रा में चढ़ाया जाएगा। एनएचएस के डॉ. निक वाटकिंस का कहना है कि हमें पूरा विश्वास है कि हमारी टीम 2017 में मानव परीक्षण का पहला चरण शुरू करने के लिए पूरी तरह से तैयार है।दुनियाभर के वैज्ञानिक सालों से रक्त तैयार करने संबंधी खोज में जुटे हुए हैं, जिससे रोगियों के इलाज के लिए वैकल्पिक व्यवस्था उपलब्ध हो सके। यह उम्मीद जताई जा रही है कि जब प्रयोगशाला में तैयार किया गया यह रक्त सफल होगा तोइससे रक्त संबंधी विकारों जैसे एनीमिया और थैलेसीमिया से ग्रस्त रोगियों को फायदा होगा। ऐसे रोगियों को आमतौर पर नियमित रूप से रक्त चढ़ाने के लिए सक्षम रक्तदाता को तलाशने में मुश्किलों का सामना करना पड़ता है।

Thursday 25 June 2015

डिजिटल इंडिया और महंगा इंटरनेट



शशांक दि्वेदी डिप्टी डॉयरेक्टर(रिसर्च), मेवाड़ विश्वविद्यालय
"हिंदुस्तान " के संपादकीय पेज पर 25जून2015 को प्रकाशित
"HINDUSTAN"
पिछले दिनों 1.1 लाख करोड़ रुपये की 2जी -3जी स्पेक्ट्रम नीलामी से सरकार का खजाना तो भर गया, लेकिन इसकी कीमत आम आदमी को अपनी जेब से चुकानी पड़ रही है। हाल में देश की सभी बड़ी दूरसंचार कंपनियों ने इंटरनेट पैक की दरें 40 से 100 फीसदी तक बढ़ा दी हैं। पिछले एक साल में कई बार इंटरनेट डेटा पैक की दरें बढ़ाई हैं, जिसका सीधा असर आम आदमी की जेब पर पड़ा है। स्पेक्ट्रम नीलामी के बाद उद्योग संगठनों ने यह संकेत दिए थे कि डाटा इस्तेमाल की दरों में बढ़ोतरी होगी, क्योंकि ऑपरेटरों को सरकार को करीब 1करोड़ रुपये का भुगतान करना है। ये भुगतान अब आम आदमी, खासकर युवा वर्ग अपनी जेब से कर रहा है। और यह सब तब हो रहा है, जब दुनिया भर में मुफ्त वाई-फाई सेवा के लिए कोशिशें जारी हैं।
,09,874
जब सरकार देश में डिजिटल इंडिया का सपना देख रही है, तब इंटरनेट के उपभोक्ताओं के लगातार बढ़ने से ये कीमतें कम होनी चाहिए थीं। क्या इन बढ़ी हुई कीमतों के साथ डिजिटल इंडिया प्रोग्राम के तहत इंटरनेट को गांव-गांव पहुंचाया जाएगा? अंतरराष्ट्रीय दूरसंचार संघ यानी आईटीयू की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में इंटरनेट 60 से ज्यादा देशों से महंगा है। आईटीयू के अनुसार किफायती ब्रॉडबैंड देने वाले देशों की सूची में भारत 93वें स्थान पर है, जबकि मोबाइल इंटरनेट के मामले में 67वें स्थान पर। एशियाई देशों से ही तुलना करें, तो भारत में इंटरनेट मॉरीशस, माल्टा व पड़ोसी श्रीलंका से भी महंगा है, जबकि महत्वाकांक्षी डिजिटल इंडिया प्रोग्राम की सफलता सुनिश्चित करने के लिए इंटरनेट दरों का कम होना जरूरी है।
सूचना प्रौद्योगिकी की दुनिया में भारत को एक ताकत के रूप में देखा जाता है, लेकिन भारत में चीजें उतनी तेज गति से आगे नहीं बढ़ रहीं, जितनी बढ़नी चाहिए। एक तरफ देश में इंटरनेट इस्तेमाल करने की दर बहुत ज्यादा है, वहीं दूसरी तरफ औसत इंटरनेट स्पीड बहुत कम है। टेलीकॉम कंपनियां जितनी स्पीड का दावा करती हैं, उससे काफी कम स्पीड उपभोक्ता को मिलती है। कहने को देश में इंटरनेट कनेक्शन की स्पीड 24 एमबीपीएस तक पहुंच गई है, लेकिन इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों को ये सेवाएं उसी रफ्तार से नहीं मिलतीं।
हाई स्पीड इंटरनेट और बेहतर सेवा के लिए 3-जी जैसी तकनीक देश के हर हिस्से में अब भी मौजूद नहीं है। इंटरनेट की उपयोगिता सिर्फ लोगों को तकनीकी आधार पर जोड़ने या सूचनाएं देने तक सीमित नहीं रही, बल्कि इसने हमारे जीवन को ज्यादा सुविधाजनक और बेहतर बनाने में भी योगदान दिया है। अनगिनत सेवाओं व सुविधाओं को आम आदमी तक पहुंचाया है। अब इसे आगे बढ़ाते हुए सरकार बहुत से प्रशासनिक कामकाज की लागत घटा सकती है। हम स्मार्ट सिटी बसाने जा रहे हैं, अगर ये बने, तो ये सबसे महंगी इंटरनेट सेवा मुहैया करने वाले स्मार्ट सिटी होंगे।

Tuesday 9 June 2015

अभी दूर है स्किल इंडिया का सपना

नवभारत टाइम्स (NBT)
शशांक द्विवेदी 
डिप्टी डायरेक्टर (रिसर्च ),मेवाड़ यूनिवर्सिटी
नवभारत टाइम्स (NBT) के संपादकीय पेज पर प्रकाशित  
अपने पहले साल में मोदी सरकार ने विज्ञान, शोध, तकनीक और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सुधार के लिए कोई बड़ा और ठोस कदम नहीं उठाया। वैज्ञानिक शोध के लिए पर्याप्त बजट नहीं दिया गया, न ही बुनियादी विज्ञान के प्रसार के लिए कोई विशेष कार्ययोजना बन पाई, जिससे विज्ञान को आम लोगों से जोड़ा जा सके। 'अटल नवाचार मिशन' के तहत अनुसंधान और विकास के लिए सिर्फ 150 करोड़ रुपये आवंटित किए गए।
स्किल डिवेलपमेंट के लिए सरकार जरूर संजीदा हुई और इसके लिए बाकायदा अलग मंत्रालय भी बनाया गया, लेकिन इसके भी ठोस नतीजे अभी तक आए नहीं हैं। दूसरी तरफ देश में तकनीकी और उच्च शिक्षा की हालत बहुत खराब हो गई है। हायर और टेक्निकल एजुकेशन के मौजूदा सत्र में देश भर में सात लाख से ज्यादा सीटें खाली हैं। नया सत्र जुलाई से शुरू होने वाला है, लेकिन इस स्थिति में बदलाव की कोई गुंजाइश नजर नहीं आ रही।
यूपीए जैसा ही माहौल

सिर्फ कुछ आईआईटी, एनआईटी, आईआईएम और सरकारी कॉलेजों के भरोसे देश उच्च शिक्षा में तरक्की नहीं कर सकता। सरकार के पास निजी संस्थानों और विश्वविद्यालयों के लिए भी कोई बेहतर कार्य योजना होनी चाहिए। उसे पता लगाने की कोशिश करनी चाहिए कि इतने बड़े पैमाने पर साल दर साल सीटें क्यों खाली रह रही हैं, हायर एजुकेशन से लोगों का मोहभंग क्यों हो रहा है और इसे ठीक कैसे किया जा सकता है। इंजीनियरिंग कॉलेजों की सीटों का खाली रहना देश की अर्थव्यवस्था और सामाजिक स्थिरता के लिए भी ठीक नहीं है।

दस साल चली पिछली यूपीए सरकार ने भी इंजीनियरिंग में गुणवत्ता लाने के लिए कोई प्रयास नहीं किया, जिसका नतीजा यह हुआ कि 2010 के बाद से उच्च शिक्षा की बुनियाद कमजोर पड़ने लगी। दरअसल गवर्नमेंट ने बिना किसी विशेष खोजबीन के और बिना गुणवत्ता को ध्यान में रखे हजारों इंजीनियरिंग कालेज खोलने की अनुमति दे दी, लेकिन उनके भविष्य के बारे में नहीं सोचा गया।बिना स्किल के हजारों-लाखों इंजीनियरिंग ग्रेजुएट बेरोजगार घूमने लगे तो इससे लोगों का मोहभंग होना शुरू हो गया। रही-सही कसर बढ़ती महंगाई और मोटी फीस ने पूरी कर दी। मोदी सरकार से उम्मीद थी कि वह इस मामले में कुछ अलग कोशिश करेगी, लेकिन कुछ नहीं हुआ।
सरकार जब भयंकर कर्ज में डूबी एक बीमार एयरलाइंस को उबारने के लिए प्रयास कर सकती है तो उसे उच्च और तकनीकी शिक्षा के लिए भी कुछ जरूर करना चाहिए। इस सचाई को हमें समझना ही होगा कि तकनीकी और उच्च शिक्षा में मजबूती के बिना हम दुनिया में आगे नहीं बढ़ सकते, क्योंकि विकास का असली रास्ता शिक्षा और कौशल से होकर ही जाता है। हालत यह है कि देश में लाखों युवाओं के पास इंजीनियरिंग की डिग्री तो है लेकिन कुछ भी कर पाने का 'स्किल' नहीं है। इसकी वजह से अपने यहां हर साल लाखों इंजीनियर बेरोजगारी का दंश झेलने को मजबूर हैं।पिछले दिनों जारी हुई सीआईआई की इंडिया स्किल रिपोर्ट-2015 के मुताबिक हर साल सवा करोड़ भारतीय युवा रोजगार बाजार में उतरते हैं। इनमें मात्र 37 प्रतिशत ही रोजगार के काबिल होते हैं। यह आंकड़ा कम होने के बावजूद पिछले साल के 33 प्रतिशत के आंकड़े से ज्यादा है और इससे यह संकेत मिलता है कि युवाओं को हुनरमंद करने की दिशा में धीमी गति से ही सही, लेकिन काम हो रहा है।
एक दूसरी रिपोर्ट के अनुसार हर साल देश में 15 लाख इंजीनियर तैयार होते है लेकिन उनमें सिर्फ चार लाख को नौकरी मिल पाती है। नैसकॉम (नेशनल असोसिएशन ऑफ सॉफ्टवेयर एंड सर्विसेज कंपनीज) द्वारा कराए गए एक सर्वे के अनुसार देश के 75 फीसदी टेक्निकल ग्रेजुएट नौकरी के लायक नहीं हैं।
आईटी इंडस्ट्री इन इंजीनियरों को भर्ती करने के बाद इनकी ट्रेनिंग पर करीब एक अरब डॉलर खर्च करती है। इंडस्ट्री को उसकी जरूरत के हिसाब से इंजीनियरिंग ग्रेजुएट नहीं मिल पा रहे। डिग्री और स्किल के बीच फासला बहुत बढ़ गया है। असल में हमने यह समझने में बहुत देर कर दी कि अकादमिक शिक्षा की तरह अपनी नई पीढ़ी को बाजार की मांग के मुताबिक उच्च गुणवत्ता वाली स्किल एजुकेशन देना भी हमारे लिए बहुत जरूरी है।एशिया की एक आर्थिक महाशिक्त दक्षिण कोरिया ने स्किल डिवेलपमेंट के मामले में चमत्कार कर दिखाया है। 1950 तक विकास के स्तर और विकास दर, दोनों ही मामलों में कोरिया हमारे मुकाबले कहीं नहीं था। लेकिन अभी अगर उसकी गिनती भारत से एक पायदान आगे के देशों में होती है और विकास के कुछ पैमानों पर वह जर्मनी को भी पीछे छोड़ चुका है तो इसमें सबसे बड़ी भूमिका स्किल एजुकेशन की ही है।
हुनर बढ़ाने पर जोर
आज डिग्री से ज्यादा जरूरत हुनर की है। केंद्र सरकार को शैक्षणिक कोर्सेज के साथ स्किल डिवेलपमेंट के कार्यक्रमों पर विशेष ध्यान देना होगा क्योंकि 'मेक इन इंडिया' का सपना 'स्किल इंडिया' के बिना पूरा नहीं हो सकता। सरकार अगर वाकई देश को साइंस-टेक्नॉलजी के क्षेत्र में आगे बढ़ाना चाहती है और अपने वादे के मुताबिक करोड़ों युवाओं को रोजगार देना चाहती है तो उसे शोध, विज्ञान, तकनीक, उच्च शिक्षा और स्किल डेवलपमेंट के लिए बजट बढ़ाना होगा। इसके साथ ही तकनीकी संस्थानों में नियुक्ति और इनके संचालन आदि के मामले में उसे संकीर्ण नजरिए से ऊपर उठना होगा।
Article link
http://blogs.navbharattimes.indiatimes.com/nbteditpage/entry/skill-india-dream-is-far-away


सिर्फ सोचने भर से नियंत्रित होगा बायोनिक पैर

आइसलैंड के शोधकर्ताओं ने अगली पीढ़ी का ऐसा बायोनिक पैर तैयार किया है जो व्यक्ति की सोच से नियंत्रित होगा। इस तकनीक के तहत सर्जरी के जरिए मायोइलेक्ट्रिक सेंसर को व्यक्ति के मांसपेशियों के ऊतकों में लगाया जाएगा जिससे यह तंत्रिकाओं और मस्तिष्क के बीच संकेत को समझने में मदद करेगा। पैर की गति एक रिसीवर से जुड़ी होगी और पूरी प्रक्रिया इस तरह से सुव्यवस्थित है कि यह रोगी को अवचेतन रूप से गति करने में मदद करती है। प्रत्यारोपित किए गए सेंसर कृत्रिम पैर में लगे कम्प्यूटर को बेतार संकेत भेजते हैं जिससे वह अवचेतन अवस्था में आता है और इससे वह पैरों की गति, प्रतिक्रिया के साथ नियंत्रण भी रखता है। इस नई तकनीक को ओसुर कंपनी ने विकसित किया है। मस्तिष्क नियंत्रित कृत्रिम अंग प्रोजेक्ट से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता थोर्वाल्डुर इंगवर्सन का कहना है कि यह तकनीक उपयोगकर्ता को सहज और एकीकृत अनुभव देती है। आइसलैंड के शोधकर्ताओं ने अगली पीढ़ी का ऐसा बायोनिक पैर तैयार किया है जो व्यक्ति की सोच से नियंत्रित होगा। इस तकनीक के तहत सर्जरी के जरिए मायोइलेक्ट्रिक सेंसर को व्यक्ति के मांसपेशियों के ऊतकों में लगाया जाएगा जिससे यह तंत्रिकाओं और मस्तिष्क के बीच संकेत को समझने में मदद करेगा। पैर की गति एक रिसीवर से जुड़ी होगी और पूरी प्रक्रिया इस तरह से सुव्यवस्थित है कि यह रोगी को अवचेतन रूप से गति करने में मदद करती है। प्रत्यारोपित किए गए सेंसर कृत्रिम पैर में लगे कम्प्यूटर को बेतार संकेत भेजते हैं जिससे वह अवचेतन अवस्था में आता है और इससे वह पैरों की गति, प्रतिक्रिया के साथ नियंत्रण भी रखता है। इस नई तकनीक को ओसुर कंपनी ने विकसित किया है। मस्तिष्क नियंत्रित कृत्रिम अंग प्रोजेक्ट से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता थोर्वाल्डुर इंगवर्सन का कहना है कि यह तकनीक उपयोगकर्ता को सहज और एकीकृत अनुभव देती है।

जलवायु परिवर्तन और उपभोगवादी संस्कृति

ज्ञानेद्र रावत 
आजकल पर्यावरण क्षरण और जलवायु परिवर्तन का सवाल बहस का मुद्दा बना हुआ है कारण इसके चलते आज समूची दुनिया का अस्तित्व खतरे में है। पर्यावरणविद् इस बारे में समयस मय पर चेता रहे हैं और वैज्ञानिकों के शोध- अध्ययनों ने इस तथ्य को साबित कर दिया है। सच यह है कि जीवनदायिनी प्रकृति और उसके द्वारा प्रदत्त प्राकृतिक संसाधनों के बेतहाशा उपयोग और भौतिक सुख सुविधाओं की चाहत की अंधी दौड़ के चलते आज न केवल प्रदूषण बड़ा है बल्कि अंधाधुंध प्रदूषण से जलवायु में बदलाव आने से धरती तप रही है। यूएन की अंतर सरकारी पैनल की रिपोर्ट के अनुसार 2080 तक 3.2 अरब लोग पानी की तंगी से, 60 करोड़ लोग भोजन व तटीय इलाकों के 60 लाख लोग बाढ़ की समस्या से जूझेंगे। हालात की भयावहता की ओर इशारा करते हुए कोलम्बिया यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक स्टीफन मोर्स का कहना है कि ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव मलेरिया, लू आदि बीमारियों के वितरण और संचरण में प्रभाव लाने वाला साबित होगा और ये पूरे

साल फैलेंगी। पहाड़ों पर ठंड के बावजूद भी मलेरिया फैलेगा। शहरों में आवासीय व जनसंख्या की समस्या विकराल होगी, दैनिक सुविधाएं उपलब्ध कराने में प्रशासन को दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा और खासकर विकासशील देशों में उच्च घनत्व वाली आबादी के बीच एचआईवी, तपेदिक, श्वास रोग व यौन रोगों में वृद्धि होगी। निष्कर्ष यह कि ग्लोबल वार्मिंग की मार से क्या शहर-गांव, क्या घनाढ्य या शहरी मध्य वर्ग, निम्न वर्ग या फिर प्राकृतिक संसाधनों पर सदियों से आश्रित आदिवासी-कमजोर वर्ग कोई भी नहीं बचेगा और बिजली-पानी के लिए त्राहि-त्राहि करते लोग संक्रामक बीमारियों से मौत के मुंह में जाने को विवश होंगे। वैश्विक तापमान के बारे में नासा के अध्ययन में यह खुलासा हुआ है कि बीते 30 सालों में धरती का तापमान 0.2 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है। यदि इसमें एक डिग्री का इजाफा हो जाता है तो यह पिछले 10 लाख साल के अधिकतम तापमान के बराबर हो जाएगा। रूटगर्स यूनिवर्सिटी के प्रख्यात मौसम विज्ञानी एलेन रोबॉक कहते हैं कि यदि आने वाले समय में ग्लोबल वार्मिंग दो-तीन डिग्री और बढ़ जाती है तो धरती की तस्वीर ही बदल जाएगी। वैज्ञानिकों के अनुसार 21 वीं सदी बीतते-बीतते धरती का औसत तापमान 1.1 से 6.4 डिग्री सेन्टीग्रेड तक बढ़ जाएगा। भारत में बंगाल की खाड़ी व उसके आस- पास यह वृद्धि 2 डिग्री और हिमालयी क्षेत्र में यह 4 डिग्री तक होगी जो समूची सभ्यता को तहस-नहस कर देगी। देखा जाए तो मौजूदा खतरे के लिए पश्चिमी या विकसित शक्तिशाली राष्ट्रों के साथसाथ् ा हम भी उतने ही दोषी हैं जितने अमेरिका, चीन, रूस और जापान।भारत विश्व में सबसे कम प्रदूषण करने वाला देश है और भारत की हिस्सेदारी विश्व कार्बन प्रदूषण में मात्र चार फीसदी ही हैकहने मात्र से हमारी जिम्मेवारी कम तो नहीं हो जाती। जबकि सीएफसी रसायनों का प्रयोग देश में आजादी से 20 साल पहले ही शुरू हो गया था और फिर 1950 के बाद इसमें आई तेजी में भी भारत का योगदान कम नहीं है। फिर भी हमारी सरकार विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) और अर्थव्यवस्था की बेलगाम तेज रμतार पर निसार है। दुनिया के 70 देशों में पर्यावरणीय लोकतंत्र सूचकांक के मामले में भारत का स्थान 24वां है। जबकि लिथुआनिया इस सूचकांक में शीर्ष स्थान पर रहा। बीते दिनों वॉशिंगटन के वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट और एक्सेस इनीशिएटिव द्वारा जारी दुनिया के शीर्ष 10 देशों में लिथुआनिया के बाद लातविया, रूस, अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका, ब्रिटेन, हंगरी, बुल्गारिया, पनामा और कोलंबिया का नाम सूची में है। इस तरह का आकलन दुनिया में पर्यावरण सतर्कता को लेकर 70 देशों में पहली बार किया गया है। असलियत में यह सूचकांक ऐसा शक्तिशाली आधार है जो सरकारों को पर्यावरण के मामले में ज्यादा पारदर्शी बनाने और आम नागरिकों को ज्यादा अधिकारों की वकालत करने में मदद करेगा। इसमें दो राय नहीं कि यदि हमें पर्यावरण सुधारना है, वायुमंडल को प्रदूषण से बचाना है तो हमें संयम बरतना होगा। वह संयम भोग की मर्यादा का हो, नीति के पालन का होना चाहिए, तृष्णा पर अंकुश का होना चाहिए, प्राकृतिक संसाधन यथा मिट्टी, जल, खनिज, वनस्पति आदि के उपयोग में होना चाहिए, तभी विश्व में शांति और स्थायित्व संभव है अन्यथा नहीं। यह सही है कि ग्लोबल वार्मिंग अब दरवाजे पर खड़ी नहीं है, वह घर के अंदर आ चुकी है और अब उससे आंखें नहीं मूंदी जा सकती हैं। जहां तक विश्व परिदृश्य पर ग्लोबल वार्मिंग से निपटने का सवाल है, यह उतना आसान नहीं है जितना समझा जाता है क्योंकि औद्योगिक क्रांति की शुरुआत के बाद बीसवीं सदी के अंत में बहुतेरे ऐसे देश भी औद्योगिक विकास की अंधी दौड़ में शामिल हुए जो पहले धीमी रतार से इस ओर बढ़ने की चेष्टा कर रहे थे। नतीजतन समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया। इसका यदि कोई कारगर समाधान है तो वह है विकास के किफायती रास्तों की खोज, जिसका धरती और वायुमंडल पर बोझ न पड़े। यह सच है कि यह काम इतना आसान और आनन-फानन में किया जाने वाला नहीं है। इसमें दो राय नहीं कि विभिन्न क्षेत्रों में अमरीका ने ही सबसे तेजी से औद्योगिक विकास किया जिसके बलबूते ही वह विश्व महाशक्ति के रूप में उभर कर सामने आया। इसके बावजूद पर्यावरण रक्षा की पहल में हिस्सेदारी से बचने का प्रयास उसके गैर जिम्मेदाराना रवैये का ही सबूत है। भले कार्बन डाईआॅक्साइड गैस के उत्सर्जन में भारत का योगदान 1.1 अरब टन ही क्यों न हो लेकिन यह तो सच है कि ग्लोबल वार्मिंग का असर तो हम पर भी पड़ेगा। वह बात दीगर है कि वह हमारी जमीन से उठी हो या फिर अमेरिका या चीन से। इसलिए अब जरूरत इस बात की है कि भारतीय नेतृत्व अपना यह तर्क बदले कि पहले पश्चिमी देश अपना उत्सर्जन कम करें फिर हम करेंगे। बेहतर यही होगा कि हम अपनी ओर से ऐसी पहल करें, जो विकसित देशों के लिए भी अनुकरणीय हो। यथार्थ में उपभोगवाद और सुविधावाद ने पर्यावरण की समस्या को और जटिल बना दिया है। इस मनोवृत्ति पर नियंत्रण परमावश्यक है। आज व्यक्ति, समाज और पदार्थ के चारों ओर अर्थ व पदार्थ परिक्रमा कर रहे हैं। इसलिए आज मानव जाति के अस्तित्व की रक्षा और इस भूमंडल को संभाव्य खतरों से बचाने के लिए जरूरी है कि हम सभी संयम प्रधान जीवनशैली का अनुसरण और संकल्प करें। आज एक दूसरे पर दोष मढ़ने, आरोप-प्रत्यारोप से कुछ होने वाला नहीं। खर्चीला र्इंधन जलाने वाला विकास का तरीका लंबे समय के लिए न तो उचित है, न उपयोगी ही। कारण अब धरती के पास इतना र्इंधन ही नहीं बचा है। यह सही है कि पर्यावरण संरक्षण की दिशा में आज उठाए गए कदम लगभग एक दशक बाद अपना सकारात्मक प्रभाव दिखाना आरंभ करेंगे। इसलिए जरूरी है कि समस्या के भयावह रूप धारण करने से पहले सामूहिक प्रयास किए जाएं। सरकार कुछ करे या न करे लेकिन अब समय आ गया है कि हम कुछ करें। हम सबसे पहले अपनी जीवन शैली बदलें और अधिक से अधिक पेड़ लगाएं जिससे र्इंधन के लिए उनके बीज, पत्ते, तने काम आएंगे और हम धरती के अंदर गड़े कार्बन को वहीं रखकर वातावरण को बचा सकेंगे। तभी धरती बचेगी। इतना तो हम कर ही सकते हैं।