Wednesday 29 April 2015

क्या हम प्रलय के क़रीब हैं?


मनीष गुप्ता 
प्रश्न : क्या भगवान है?
संभावित उत्तर : है / शायद है / नहीं है।

प्रश्न: क्या सृष्टि ब्रह्मा, अल्लाह या गॉड ने रची थी?
संभावित उत्तर : हो सकता है / नहीं, आंखें खोलो और वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाओ।

उपरोक्त प्रश्नों के अलग अलग जवाब हो सकते हैं? परन्तु अगर आप पूछें कि, 'क्या प्रलय संभव है?' इसका एक ही जवाब होगा कि 'हां है', और आज प्रलय की सम्भावना पिछले हज़ारों वर्षों की तुलना में बहुत अधिक है। वैदर-पैटर्न पिछले दशक में बहुत तेज़ी से बदला है। हद से ज़्यादा सर्दी, गर्मी, सूखा, बाढ़, दुनिया के प्रत्येक कोने में महसूस की गई है। यह आने वाले कल की भीषणताओं के बावस्ता चेतावनी है। कहते हैं सन 2100 तक दुनिया का तापमान 3 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाएगा और इससे ग्रीनलैंड की पूरी बर्फ पिघलने पर समुद्र का लेवल 20-25 मीटर बढ़ सकता है। इससे मुंबई, कोलकता, न्यूयॉर्क, शंघाई, सिडनी, लॉस-एंजेल्स सब डूब जाएंगे।

ये कपोल कल्पना लगती है ना, एक लेख लिखने के लिए सनसनीखेज़ मनगढ़ंत बातें? राइट? तो अब यह सुनें - 2000 द्वीपों वाला मालदीव्स डूब रहा है, आप चाहें तो अपनी रिसर्च कर लें, आप दहल जाएंगे। इसी बात पर एक डाक्यूमेंट्री फिल्म बनी है, 'The Island President' (डूबते देश का रास्ट्राध्यक्ष) जो क्लाइमेट-चेंज पर बनी 'The Day After Tomorrow' से कम लोमहर्षक नहीं है। अंतर सिर्फ इतना है कि डॉक्यूमेंट्री फिल्म एक सच्चाई है।

दुनिया के कई भाग जो समुद्र तल से ज़्यादा ऊंचाई पर नहीं हैं, वे क्षेत्र अपनी भूमि को खो चुके हैं/ रहे हैं। बांग्लादेश और भारत के बीच साझा सुंदरबन धीरे-धीरे पानी की भेंट चढ़ता जा रहा है जो कि वैज्ञानिकों के अनुसार अगले 10-15 साल में ही पूरी तरह जलमग्न हो जायएगा। अभी भी बांग्लादेश का काफी इलाक़ा ज़्यादातर पानी में डूबा रहता है। ये इलाके अब रहने और खेती करने के लायक नहीं हैं। बाद में तो पता नहीं क्या होगा, अभी वर्तमान में भी लाखों बांग्लादेशी शरणार्थी आए हैं। इन शरणार्थियों से कहीं ज्यादा तादाद अवैध अप्रवासियों की है। एक तरफ तो वे बेचारे ख़ुद परेशान हैं, दूसरी तरफ भारत के सीमित संसाधनों पर भी अतिरिक्त बोझ पड़ रहा है।

अब देखिए कि किस तरह क्लाइमेट-चेंज काम करता है - एक देश में जलस्तर बढ़ा, तो दूसरे देश में अवैध अप्रवासी बढे। अब विपदा का सताया हुआ आदमी किसी भी कीमत पर जीविका ढूंढेगा। आज भारत में कई जगहों पर इन लोगों के कारण लॉ-एंड-आर्डर की स्थिति बिगड़ी है। मूल निवासियों का अमन-ओ-चैन छिन जाता है, ख़ासतौर से आसाम में तो यह एक बहुत बड़ी समस्या है। इस समस्या को आप मुंबई तक में महसूस कर सकते हैं। ना ग्लोबल वार्मिंग होती, ना उपजाऊ ज़मीन डूबती ना ब्रह्मपुत्र की देवमयी वादियों को ख़ौफ़ और नाउम्मीदी का कोहरा जकड़ पाता।

कैलिफोर्निया में सूखा, टेक्सास में बर्फ़बारी, काश्मीर में बाढ़-बेमौसम बारिश, उत्तराखंड में प्रकृति का प्रकोप; यह सब ग्लोबल वार्मिंग का ही परिणाम है। यह असल में हमारी सभ्यता के अंधे व अनियोजित, अंधाधुंध विकास की लोलुपता का नतीज़ा है। इतनी तरक़्क़ी करने के बाद भी इंसान पहले से ज़्यादा खिन्नचित्त, तनावग्रस्त और थका हुआ है। कमोबेश यह हर देश, हर शहर, हर गांव की कहानी है।

पृथ्वी-दिवस पर कई तरह की बातें सुनने पढ़ने को मिलीं - किसी ने कहा कचरा सबसे बड़ा दुश्मन है प्रकृति का; किसी ने कहा अमेरिका; किसी ने लिखा CFC के बारे में; कइयों ने सरकारी नीतियों, या उनके आभाव को दोष दिया। ये सारी बातें सही हैं। समस्या से लड़ने की उनकी योजना भी शायद सही हो। मगर किसी ने ज़ोर से यह बात नहीं उठाई कि इसका सबसे बड़ा कारण है जनसंख्या-विस्फ़ोट। हमने जंगल साफ़ किए हैं, हमने बांध बनाए हैं, और हम लगातार दीमक की तरह प्रकृति को चाट रहे हैं। जो भी उपाय हैं वो तो काम के हैं ही, लेकिन जनसंख्या कैसे नियंत्रण में रख सकें यह सबसे बड़ा मुद्दा है।

ऐसे समय में जब जनसंख्या के बोझ से अधिकांश देश कराह रहे हैं, चीन जनसंख्या कम करने के कोशिश कर रहा है। बुरे समय की पदचाप सुनाई देनी शुरू हो गई है। इसका सबसे बड़ा कारण जनसंख्या है। हमारे पास अभी भी सबको देने के लिए पानी, अन्न, बिजली, रोड, शिक्षा, सुश्रुषा, टॉयलेट्स नहीं हैं। कितने ही लोग इतनी निम्नस्तरीय ज़िंदगी जी रहे हैं कि उनकी दिक्कतों के बारे में पढ़ने पर आप शायद चैन से नहीं सो पाएंगे। शर्मनाक बात है कि विश्व की जनसंख्या बढ़ाने में हम भारतियों का भी खासा योगदान रहा है। बहुत कोफ़्त होती है जब ऐसे समय में कोई पंडित या मुल्ला ज़्यादा बच्चे पैदा करने की बात करता है। ऐसे लोग न केवल जड़ हैं बल्कि देश के दुश्मन भी हैं। न केवल देश, बल्कि ऐसे लोग पूरी मानवता के ही दुश्मन हैं।

फ़ुटनोट :

हर इतवार की तरह सुबह मैं अख़बार का, अपने लेख के मुंबई नवभारत में छपने का, इंतज़ार कर रहा था। लेख तो आया, लेकिन नेपाल की विषादग्रस्त ख़बर के साथ। अगर हम अभी भी नहीं चेतते हैं, और कोई क्रांतिकारी कदम नहीं उठाते हैं तो विध्वंस-नृत्य देखने के लिए तैयार रहें। वैसे वही ठीक होगा क्योंकि इस देश में जनसंख्या कम करने की बात करना जुर्म समझा जाता है। और वैसे भी हम-आप कर क्या सकते हैं - common sense की भला उस देश में क्या औकात जहां मंदिरों-मस्जिदों से सत्ता चलती हो?

हिमालय को छेड़ेंगे तो विनाश होगा ही

अरुण तिवारी ।।
नेपाल को केंद्र बनाकर आया भूकंप हिमालयी क्षेत्र के लिए न तो पहला है न आखिरी। भूकंप पहले भी आते रहे हैं, आगे भी आते रहेंगे। हिमालय की उत्तरी ढलान यानी चीन के हिस्से में कोई न कोई आपदा महीने में एक-दो बार हाजिरी लगाने जरूर आती है। कभी यह ऊपर से बरसती है तो कभी नीचे सब कुछ हिला के चली जाती है। अभी ऐसी आपदाओं की आवृत्ति हिमालय की दक्षिणी ढलान यानी भारत, नेपाल और भूटान के हिस्से में भी बढ़ गई है। हिमालयी क्षेत्र में भूकंप तो आएंगे ही। इनके आने के स्थान और समय की घोषणा सटीक होगी, इसका दावा नहीं किया जा सकता। दुष्प्रभाव कम होगा, इसका दावा भी तभी किया जा सकता है, जब हिमालय को लेकर हमारी समझ अधूरी न हो और आपदा प्रबंधन को लेकर संवेदना, सावधानी, सतर्कता और तैयारी पूरी हो।
बच्चा पहाड़, कच्चा पहाड़
सबसे पहले तो समझना होगा कि हिमालय बच्चा पहाड़ है, कच्चा पहाड़ है। वह बढ़ रहा है, इसलिए हिल रहा है, इसीलिए झड़ भी रहा है। इसे और छेड़ेंगें तो यह और झड़ेगा, और विनाश होगा। भूकंप का खतरा हिमालय में इसलिए भी ज्यादा है क्योंकि भारतीय भू-भाग हिमालय को पांच सेंटीमीटर प्रति वर्ष की रफ्तार से उत्तर की तरफ धकेल रहा है। यह स्वाभाविक प्रक्रिया है। इसलिए हिमालयी क्षेत्र में भूस्खलन भी एक स्वाभाविक घटना है। ग्रेट हिमालय और मध्य हिमालय की मिलान पट्टी के नीचे गहरी दरारें हैं। इन दरारों वाले इलाकों में निर्माण करेंगे, तो विनाश होगा ही। मलबा या सड़कों में पानी रिसेगा, तो भी विभीषिका तय है।

दरअसल हमने हिमालयी इलाकों में आधुनिक निर्माण करते वक्त कई गलतियां की हैं। ध्यान से देखें तो हमें पहाड़ियों पर कई 'टैरेस' दिखाई देंगे। स्थानीय बोली में इन्हें 'बगड़' कहते हैं। ये उपजाऊ मलबे के ढेर जैसे होते हैं। पानी रिसने पर ये बैठ सकते हैं। हमारे पूर्वज बगड़ का उपयोग खेती के लिए करते थे। हम बगड़ पर होटेल-मकान बना रहे हैं। हमने नहीं सोचा कि नदी नीचे है, रास्ता नीचे, फिर भी हमारे पूर्वजों ने मकान ऊंचाई पर क्यों बसाये? वह भी उचित चट्टान देखकर। वह सारा गांव एक साथ भी तो बसा सकते थे। लेकिन नहीं। चट्टान जितनी इजाजत देती थी, उतने मकान उन्होंने एक साथ बनाए, बाकी अगली सुरक्षित चट्टान पर। हमारे पूर्वज बुद्धिमान थे। उन्होंने नदी किनारे कभी मकान नहीं बनाए। सिर्फ पगडंडियां बनाईं। लेकिन हमने सड़कें बनाईं। नदी के बीच बांध बनाए। नदी किनारे मलवा फैलाया। नदी के रास्ते और दरारों पर निर्माण किए। कंक्रीट के मकान बनाए, वह भी बहुमंजिले। तीर्थयात्रा को पिकनिक समझ लिया गया है। हम 'हिल व्यू' से संतुष्ट नहीं। पर्यटकों और आवासीय ग्राहकों को सपने भी 'रिवर व्यू' के बेचना चाहते हैं। यह गलत है।

हमारे पूर्वजों ने 20-25 किमी से अधिक गति में वाहन नहीं चलाए। हमने धड़धड़ाती वोल्वो बसों और जेसीबी जैसी मशीनों के लिए पहाड़ के रास्ते खोल दिए। पगडंडियों को राजमार्ग बनाने की गलती की। अब पहाड़ों में और ऊपर रेल ले जाने का सपना देख रहे हैं। पूर्वजों ने तो चौड़े पत्ते वाले बांज, बुरांस और देवदार लगाए। इमारती लकड़ी के लालच में हमारे वन विभाग ने चीड़ ही चीड़ लगाया। चीड़ ज्यादा पानी पीने और एसिड छोड़ने वाला पेड़ है। दरारों से दूर रहना हिमालयी निर्माण की पहली शर्त होनी चाहिए। दूसरी है, जल निकासी वाले मार्गों की सुदृढ़ व्यवस्था। हमें चाहिए कि मिट्टी-पत्थर की संरचना और धरती के पेट को समझकर निर्माण स्थल का चयन करें।
जलनिकासी के मार्ग में निर्माण न करें। नदियों को रोके नहीं, बहने दें। हिमालय को भीड़ और शीशे की चमक पसंद नहीं। इसलिए वहां जाकर मॉल बनाने का सपना न पालें। हिमालयी लोक आस्था, अभी भी हिमालय को एक तीर्थ ही मानती है। हम भी यही मानें। तीर्थ आस्था का विषय है। वह तीर्थयात्री से त्याग, संयम और समर्पण की मांग करता है। हम इसका पालन करें। बड़ी वोल्वो में नहीं, छोटे से छोटे वाहन में जाएं। पैदल तीर्थ करें, तो अति उत्तम। एक तेज हॉर्न से हिमालयी पहाड़ के कंकड़ तक सरक आते हैं। सोचिए, गाड़ियों का लगातार गुजर रहा काफिला हिमालय पर क्या असर डालता होगा। इसलिए अपने वाहन की रफ्तार और हॉर्न की आवाज न्यूनतम रखें। अपने साथ कम से कम सामान ले जाएं और ज्यादा से ज्यादा कचरा वापस लाएं।
कंकर-कंकर में शंकर
राज्य सरकारें आपदा प्रबंधन के लिए जरूरी तंत्र, तकनीक, तैयारी व सतर्कता सुनिश्चित करें। हिमालयवासी अपने लिए एक अलग विकास नीति और मंत्रालय की मांग कर रहे हैं। क्या इस पर ध्यान दिया जाएगा? आखिर ग्रेट हिमालय को संस्कृत में 'हिमाद्रि' यानी आर्द्र हिमालय क्यों कहते है? हरिद्वार को 'हरि का द्वार' और उत्तराखंड-हिमाचल को देवभूमि क्यों कहा गया? पूरे हिमक्षेत्र को 'शैवक्षेत्र' घोषित करने के क्या मायने हैं? शिव द्वारा गंगा को अपने केशों में बांधकर मात्र इसकी एक धारा को धरती पर भेजने का क्या मतलब है? 'कंकर-कंकर में शंकर' का विज्ञान क्या है? इन अवधारणाओं को समझेंगे तो देर-सबेर हम हिमालय के संकट का हल भी निकाल लेंगे।

Friday 24 April 2015

आई गर्मी शुरू हुई पानी की मुश्किल



शशांक द्विवेदी 
नवभारतटाइम्स(NBT) के संपादकीय पेज में 20/04/2015 को प्रकाशित 
नवभारतटाइम्स(NBT)
पिछले दिनों पेयजल की कमी की आशंका को लेकर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने विधानसभा में कहा कि अगर दिल्ली में पानी की कटौती करनी पड़ी तो यह पूरी दिल्ली में एक समान तरीके से की जाएगी। इसमें गरीब, वीआईपी और मंत्रियों को लेकर भेदभाव नहीं किया जाएगा। गर्मियां अपने उरूज पर पहुंचने को हैं और दिल्ली में जल संकट की आहट मिलने लगी है। उसे पड़ोसी राज्य हरियाणा से अतिरिक्त पानी लेना पड़ता है लेकिन इस बार पानी को लेकर दोनों राज्यों में ठन गई है। फिलहाल हरियाणा जितना पानी पहले से दे रहा है, उसके अलावा पानी की कोई अतिरिक्त मात्रा गर्मी में देने को तैयार नहीं है।

बीस में पांच अपने
पिछले दिनों एक वैश्विक संस्था नेचर कंजरवेंसी ने साढ़े सात लाख से अधिक आबादी वाले संसार के 500 शहरों के जल ढांचे का अध्ययन कर यह निष्कर्ष निकाला कि राजधानी दिल्ली पानी की कमी से जूझ रहे दुनिया के 20 शहरों में दूसरे नंबर पर है। जापान की राजधानी टोक्यो इस मामले में नंबर एक है। इस सूची में दिल्ली के अलावा भारत के चार शहर कोलकाता, चेन्नै, बेंगलुरू और हैदराबाद शामिल हैं। सच्चाई यह है कि अपना पूरा देश गंभीर जल संकट की स्थिति से गुजर रहा है। समय रहते प्रबंध नहीं किए गए तो आने वाले समय में यहां विकराल स्थिति उत्पन्न हो जाएगी।

देश में पानी के अधिकांश स्थानीय स्रोत सूख चुके हैं। सैकड़ों छोटी नदियां विलुप्ति के कगार पर हैं। संरक्षण के अभाव में देश के अधिकांश गांव और कस्बों में तालाब-कुएं सिरे से गायब हो गए हैं। गंगा और यमुना भी अधिकतर जगहों पर अत्यधिक प्रदूषित हैं, जिसकी वजह से इनका पानी पीने योग्य नहीं रह गया है। पिछले दिनों आई वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम की एक रिपोर्ट ने जल संकट को 10 शीर्ष वैश्विक खतरों में सबसे ऊपर रखा है। फोरम की 10वीं ग्लोबल रिस्क रिपोर्ट में जल संकट को शामिल किया गया। वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम में प्रस्तुत ग्लोबल रिस्क रिपोर्ट में पहली बार वैश्विक जल संकट को बड़ा और संवेदनशील मुद्दा माना गया है।

कुछ समय पहले तक ग्लोबल रिस्क रिपोर्ट में वित्तीय चिंताओं, चीन की प्रगति, स्टॉक और बांड्स में तेज बदलाव, तेल बाजार के उतार-चढ़ाव इत्यादि को जगह मिलती थी। इस बार फोरम ने पानी की कमी को तरजीह दी है। भारत में भी गर्मियां शुरू हो गई हैं। इस मौसम में जल के कई स्रोत सूखने या जल स्तर कम होने से पानी की किल्लत होने लगती है। लेकिन, अभी यह संकट देश के कई हिस्सों में विकराल रूप धारण करने लगा है।

'जल ही जीवन है' का मुहावरा भारत में काफी प्रचलित है लेकिन इसका वास्तविक अर्थ देश की अधिकांश जनसंख्या को नहीं पता है। पानी के बिना जिंदगी का क्या हाल हो जाता है, इसका अंदाजा पिछले दिनों मालदीव में मची अफरा-तफरी से लगा सकते हैं, जहां भीषण जल संकट की वजह से आपातकाल लगाना पड़ा था। पीने के पानी को लेकर मालदीव में कई जगह हिंसक झड़पें भी हुईं। वहां ये हालात देश के सबसे बड़े वाटर ट्रीटमेंट प्लांट में लगी आग की वजह से पैदा हुए थे। बाद में मालदीव सरकार को भारत के अलावा श्रीलंका, चीन और अमेरिका से भी मदद मांगनी पड़ी।
भारत के कई हिस्सों में पेयजल किल्लत इस कदर बढ़ गई है कि इसका लाभ उठाने के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियां आगे आ गई हैं। कुछ ने जमीन से पानी निकाल कर तो कुछ ने सामान्य जल आपूर्ति के जरिए मिलने वाले पानी को ही बोतल बंद कर के बेचना शुरू कर दिया है। देश में बोतल बंद पानी का व्यवसाय लगातार बढ़ता जा रहा है। निस्संदेह, यह कोई खुशखबरी नहीं है। शहरी इलाकों से लेकर तमाम ग्रामीण क्षेत्रों में औसत गृहणियों का अच्छा-खासा समय पेयजल एकत्र करने में बर्बाद हो जाता है।
सरकारों की यह जिम्मेदारी है कि वे हर नागरिक को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराएं। लेकिन वे इसके लिए सजग नहीं हैं। लोगों को साल भर पर्याप्त पीने का पानी मुहैया कराने के लिए जल संरक्षण और जल संवर्धन की दिशा में प्राथमिकता के साथ काम करना पड़ेगा। बरसाती पानी को संजोकर रखने तथा गंदे पानी को दोबारा प्रयोग में लाने योग्य बनाने की दिशा में गंभीरतापूर्वक काम करने की जरूरत है। इसी तरह भू-जल को प्रदूषण से बचाने पर भी प्राथमिकता के आधार पर ध्यान देना आवश्यक है। समुद्र के पानी को सिंचाई के लिए इस्तेमाल करने की विधि भी विकसित की जानी चाहिए।

बूंद-बूंद से सागर
भू-जल के भारी दुरुपयोग की सबसे बड़ी वजह हमारा मौजूदा कानून है जिसके तहत लोग जितना चाहें उतना जल जमीन से निकालते जा रहे हैं। भू-जल संसाधन के इस्तेमाल को लेकर अभी तक कोई स्पष्ट कानूनी ढांचा नहीं बना है। इस दिशा में भी काम होना चाहिए, लेकिन सबसे अहम मोर्चा है जल संरक्षण। इसके जरिए हम जल संकट से काफी हद तक निजात पा सकते हैं। कहावत है, बूंद-बूंद से सागर भरता है। यदि इस कहावत को अक्षरशः सत्य माना जाए तो छोटे-छोटे प्रयास एक दिन काफी बड़े समाधान में परिवर्तित हो सकते हैं। आकाश से बारिश के रूप में गिरे हुए पानी को बर्बाद होने से बचाना और उसका संरक्षण करना पानी बचाने का एक अच्छा उपाय हो सकता है। जल संरक्षण के लिए इस तरह के कई और प्रयास भी करने पड़ेंगे।

Thursday 9 April 2015

क्या बताएगी दुनिया की सबसे बड़ी मशीन

लार्ज हैड्रॉन कोलाइडर (एलएचसी) के दोबारा चलनें पर 
चंद्रभूषण
17 मील लंबी यह मशीन हर बार सिर्फ कुछ पेचीदा खबरों से लोगों को चौंकाती भर है। कभी कुछ ऐसा करके नहीं देती, जिसका सिर-पैर समझ में आए। यूरोप की साझा न्यूक्लियर रिसर्च लैबोरेटरी सीईआरएन (सर्न) की लार्ज हैड्रॉन कोलाइडर (एलएचसी) नाम वाली इस मशीन ने दो-तीन साल पहले गॉड पार्टिकल नाम की एक अजीब चीज खोजकर दुनिया को चौंकाया था। कुछ दिन हल्ला मचा। पीटर हिग्स को 1964 में दी गई उनकी प्रस्थापना सही साबित होने पर नोबेल प्राइज भी मिल गया, लेकिन फिर सब ठंडा पड़ गया। अब इतने दिन बाद वही मशीन दोबारा चल पड़ने का शोर है। जब पिछला ही समझ में नहीं आया तो इस बार क्या आएगा?

फिलहाल इतना ही कहा जा सकता है- धीरज रखें और समझने की कोशिश करते रहें। हो सके तो दुनिया के उन दस हजार सबसे जहीन भौतिकशास्त्रियों की सोचें, जो इस मशीन के पल-पल के काम पर नजर रखे हुए हैं। इससे होने वाले तजुर्बों के पीछे उनका बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है। कुछ समय पहले स्टीवन वाइनबर्ग (वही, जिन्हें बहुत पहले पाकिस्तानी भौतिकशास्त्री अब्दुस्सलाम के साथ फिजिक्स का नोबेल मिला था) ने एक बहुत ही मार्मिक (और उतना ही लंबा) लेख लिखा था कि किस तरह अमेरिका में एलएचसी जैसी ही एक मशीन बनाने की उनकी कोशिश सिरे नहीं चढ़ पाई, क्योंकि लाख सिर मारकर भी वे अपने राजनेताओं को इसका महत्व नहीं समझा पाए थे। यह यूरोपियन नेताओं का ही जिगरा है कि आर्थिक तंगी और आतंकवाद की तमाम बुरी खबरों के बावजूद उन्होंने सर्न के बजट में रत्ती भर कटौती नहीं होने दी।

नखरीली मशीन

एलएचसी दुनिया की सबसे बड़ी ही नहीं, सबसे नखरीली मशीन भी है। इसे बहुत सूक्ष्म स्तर पर 14 टेरा इलेक्ट्रॉन वोल्ट (टीईवी) तक की ऊर्जा पैदा करने के लिए तैयार किया गया है। इसकी मात्रा का अंदाजा कैसे लगाया जाए? एक टीईवी लगभग उतनी ही ऊर्जा है, जिस पर कोई मच्छर आपके कान के पास भनभनाता है? मच्छर के बराबर (चलिए, उसकी चौदह गुनी) ऊर्जा के लिए इतना तामझाम? जी हां, बशर्ते यह याद रखें कि इतनी ऊर्जा के साथ जो दो प्रोटॉन आपस में टकराए जाते हैं, उनका वजन मच्छर का करोड़ अरब-अरब (1 के बाद 25 जीरो) वां हिस्सा भर ही हुआ करता है। यह सारा इंतजाम इस टक्कर से निकलने वाले मलबे का अध्ययन करने के लिए है। मुहावरा जरा सा घुमा दें तो 'क्या प्रोटॉन और क्या प्रोटॉन का शोरबा!'

तीन साल पहले मशीन जब आधी ताकत पर चली तो इतने में ही इलेक्ट्रिकल टेंशन से उसमें लगा तांबे का एक जोड़ खुल गया। मशीन का टेंपरेचर माइनस 271 डिग्री सेल्सियस बनाए रखने के लिए वहां भरी गई लिक्विड हीलियम रिस गई और सब कुछ भरभंड हो गया। मरम्मत के बाद अभी हाल में दोबारा इसे चलाया गया तो पता चला, जोड़ाई में इस्तेमाल धातु का एक बारीक सा टुकड़ा भीतर ही रह गया है। डर था कि सारा सिलसिला फिर से न शुरू करना पड़े। गनीमत है कि मसला जल्दी हल हो गया। बहरहाल, हम-आप जैसे लोगों के लिए मसला इतना छोटा नहीं है। जैसे यह कि इस मशीन को करना क्या है? क्यों इतने पढ़े-लिखे लोग इसमें इतनी दिलचस्पी ले रहे हैं? हमारे लिए इसका मतलब क्या है?

क्वांटम मेकेनिक्स और हाई एनर्जी फिजिक्स को कुछ लोग अंधेरे में काली बिल्ली पकड़ने की कला बताते हैं। पिछले तीन सालों में एलएचसी ने काली बिल्ली को थोड़ा भूरा बना दिया है। गॉड पार्टिकल या हिग्स बोसॉन ने एक अर्से से फिजिक्स के सामने खड़ी काली दीवार में एक हल्की सी दरार पैदा कर दी है, हालांकि दीवार आज भी ज्यों की त्यों है। धरती गोल है या चपटी, इस किस्म के सवालों में आपकी जरा भी दिलचस्पी हो तो जरा इस सवाल पर सोच कर देखें- ऐसा क्यों है कि कुछ मूल कणों में वजन होता है, लेकिन कुछ में बिल्कुल नहीं होता? मसलन, परमाणु के भीतरी कणों में बिजली ढोने वाले इलेक्ट्रॉन सबसे हल्के होते हैं, फिर भी इनमें वजन होता है, लेकिन रोशनी के कण फोटॉन जरा भी वजनी नहीं होते।

डार्क मैटर
हिग्स और कई अन्य वैज्ञानिकों ने मूल कणों का जो स्टैंडर्ड मॉडल प्रस्तावित किया था, उसमें इस सवाल का जवाब है। कणों में वजन हिग्स फील्ड से आता है। जब तक हिग्स बोसॉन के होने को लेकर दुविधा थी, तब तक कुछ हलकों में यह मॉडल मजाक की चीज समझा जाता था। एलएचसी ने साबित कर दिया कि हिग्स बोसॉन होते हैं। जिस तरह इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन, न्यूट्रॉन वगैरह के ज्यादातर गुण आज आठवीं के बच्चे भी जानते हैं, वैसा अभी इनके साथ नहीं है। लेकिन मशीन चल पड़ी है (और अबकी यह दोगुनी रफ्तार और दस गुनी सघनता से चलेगी) तो उम्मीद करें कि एक-दो सालों में इनके बारे में काफी कुछ जान लिया जाएगा। फिजिक्स के अंधेरे की एक बड़ी मिसाल डार्क मैटर और डार्क एनर्जी नाम के दो अजूबे हैं, जिनके बारे में इतना पता है कि ब्रह्मांड का 95 फीसदी से भी ज्यादा वजन इन्हीं का है। लेकिन ये क्या हैं, कैसे हैं, कुछ नहीं मालूम। क्या दुनिया की सबसे बड़ी मशीन इनका कुछ खाका खींच पाएगी? देखते हैं।


Tuesday 7 April 2015

भविष्य की तकनीक और तकनीक का भविष्य

आनेवाले समय में टेक्नोलॉजी का विस्तार किस हद तक होगा, यह जानने की उत्सुकता दुनियाभर में है. इस संबंध में लोगों की जिज्ञासा को कुछ हद तक दूर करने के लिए डिजिटल तकनीक के बड़े नामों में से एक बिल गेट्स ने एक सोशल मीडिया साइट पर खास सत्र के दौरान लोगों द्वारा पूछे गये सवालों के जवाब दिये हैं. इन जवाबों और इनसे निकलते संकेतों तथा तकनीक के भविष्य पर आधारित है ये लेख  
मौजूदा दौर तकनीक का है और दुनियाभर में इसकी तूती बोल रही है. हमारे रोजमर्रा के जीवन से जुड़ी शायद ही कोई ऐसी चीज है, जिसमें तकनीक का इस्तेमाल न होता हो. कहा जा सकता है कि तकनीक ने हमारे जीवन से जुड़े विभिन्न आयामों को पूरी तरह से बदल दिया है. 
इसकी बदौलत आसान होती हमारी जीवनशैली की निर्भरता दिन-ब-दिन तकनीक पर बढ़ती जा रही है. भारत समेत दुनिया के अनेक देशों में शोधकर्ताओं और वैज्ञानिकों समेत कंपनियां नयी-नयी तकनीकों का इजाद कर रही हैं और हम उनका इस्तेमाल कर रहे हैं. इतना ही नहीं, इस क्षेत्र में परिवर्तन भी अब काफी तेजी से होने लगा है. यानी पुरानी तकनीक को चलन से हटाने और नयी तकनीक के चलन में आने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है. लोग हमेशा यह जानने की कोशिश करते हैं कि किस क्षेत्र में कौन सी नयी तकनीक आ चुकी है और भविष्य में कैसी तकनीक आने वाली है.
लोगों की इन्हीं जिज्ञासाओं को शांत करने के लिए दुनिया के प्रसिद्ध तकनीकी विशेषज्ञ बिल गेट्स ने, जो आज किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं, हाल ही में एक खास सत्र का आयोजन किया. पॉलिगॉन डॉट कॉमकी एक रिपोर्ट के मुताबिक, ‘आस्क मी एनीथिंगयानी मुझसे कुछ भी पूछियेनामक इस सत्र में बिल गेट्स ने भविष्य में कैसी होगी तकनीकविषय पर लोगों की तमाम जिज्ञासाओं को शांत करने की अच्छी कोशिश की है. इस सत्र में उन्होंने खास तौर पर तकनीक और मनोरंजन के भविष्य पर खुल कर अपने विचार रखे हैं. लोगों ने बिल गेट्स से तरह-तरह के सवाल पूछे. क्रेवऑनलाइन डॉट कॉमने उनमें से कुछ चुनिंदा सवाल-जवाब के बारे में जिक्र किया है. प्रस्तुत हैं इस सत्र के कुछ प्रमुख सवाल और गेट्स द्वारा दिये गये उनके जवाब :

आयु में बढ़ोतरी और इंसान की अमरता

जहां तक जीवन संभाव्यता यानी इंसान की उम्र में बढ़ोतरी और अमरत्व की प्राप्ति के संबंध में रिसर्च का सवाल है तो इस बारे में हमें अभी थोड़ा सोचना होगा. मेरा मानना है कि यह थोड़ा आत्मकेंद्रित होगा, खासक र ऐसे दौर में जब हम मलेरिया और टीबी जैसी बीमारी से जूझ रहे हों. मेरा मानना है कि इंसान की अमरता के संबंध में शोध से ज्यादा इन बीमारियों को खत्म करने पर जोर होना चाहिए और धनी व्यक्तियों को इसके लिए आगे आना चाहिए. बेहतर यह होगा कि हमलोग एकसाथ जीवन जीयें.

माइक्रोसॉफ्ट का होलोलेंस

होलोलेंस बेहद आश्चर्यजनक चीज है. माइक्रोसॉफ्ट इस सॉफ्टवेयर को विकसित करने पर काम कर रहा है. वाकई में यह एक तरह से वचरुअल रियलिटी यानी आभासी वास्तविकता की शुरुआत है. इसकी स्पीड सुपर सुपर फास्ट होगी. हालांकि इसे साकार होने में यानी सॉफ्टवेयर को विकसित होने में कुछ वर्षो का समय लगेगा.

प्रोग्रामिंग में जॉब का आइडिया..

यह अब भी सुरक्षित है. साथ ही यह बेहद मजेदार है और हमें अन्य सभी मसलों पर ज्यादा तर्कसंगत तरीके से सोचने का मौका देता है. हालांकि अगली पीढ़ी के लिए इस क्षेत्र में बदलाव लाने का बेहतर अवसर है, लेकिन यह भी सत्य है कि ज्यादातर विषयों या क्षेत्रों में यह समझ होनी चाहिए कि प्रोग्राम को कैसे उपयोगी बनाये रखा जाये.

थोरियम आधारित न्यूक्लियर पावर

सुरक्षित और सस्ती परमाणु ऊर्जा के लिए अब तक पर्याप्त शोध और विकास (रिसर्च एंड डेवलपमेंट) कार्य को अंजाम नहीं दिया गया है. मैं टेरापावरके इजाद के समर्थन में हूं, जो चौथी पीढ़ी का एक बेहतर साधन साबित हो सकता है. इसमें थोरियम का इस्तेमाल नहीं किया जाता. इसमें 97 फीसदी यूरेनियम का इस्तेमाल किया जाता है, जिसे सामान्य रूप से रिएक्टर में ब्रीडिंग या बर्निग के द्वारा इस्तेमाल में नहीं लाया जाता है. इसका मतलब यह हुआ कि यह ईंधन हमेशा सस्ता होगा. हालांकि इस दिशा में अब तक अनेक इनोवेशन किये गये हैं, लेकिन इतना तय है कि आज हमारे पास इसके जो भी विकल्प मौजूद हैं, उन सभी से यह ज्यादा सुरक्षित है.

बिटक्वॉइन और क्रिप्टोकरेंसी

बिटक्वॉइन एक बेहद दिलचस्प नयी तकनीक है. हमारे फाउंडेशन से जुड़े कार्यो में यह भी शामिल है और बैंकिंग सुविधाएं मुहैया कराने के लिए गरीबों को हम डिजिटल करेंसी की मदद कर रहे हैं. दो कारणों से हम खास तौर पर बिटक्वॉइन का इस्तेमाल नहीं करते हैं. एक तो यह कि गरीबों के पास इस करेंसी के होने की दशा में स्थानीय मुद्रा के मूल्य में उतार-चढ़ाव होने से उन्हें नुकसान हो सकता है. दूसरा भुगतान की प्रक्रिया में कोई गलती होने पर उसकी वापसी मुश्किल है. हालांकि बिटक्वॉइन संबंधी प्रक्रिया को ज्यादा तर्कसंगत बनाने से वित्तीय लेन-देन की प्रक्रिया सस्ती होगी, लेकिन हमारे लिए यह बड़ी चुनौती होगी कि इसे आतंकियों के लिए मददगार साबित होने से बचाया जा सके. अन्यथा यह तकनीक घातक साबित हो सकती है.

सुपर इंटेलिजेंस

मैं उस समूह में शामिल हूं जो सुपर इंटेलिजेंस को लेकर परेशान हैं. पहले मशीन हमारे लिए बहुत काम करती थी, लेकिन उसमें सुपर इंटेलिजेंस नहीं था. यदि हम इसे बेहतर ढंग से मैनेज करते तो यह हमारे लिए पॉजीटिव होता. मेरा मानना है कि कुछ दशकों के बाद यह इंटेलिजेंस बहुत शक्तिशाली हो जायेगा.

जल- मल की समस्या

सीवेज यानी गंदे जल की निकासी आज दुनियाभर में एक बड़ी समस्या है. चूंकि इसका बेहतर तरीके से निस्तारण करना खर्चीला है, इसलिए गरीब देशों और खास कर मलिन बस्तियों में इसकी निकासी बड़ी समस्या है. धनी लोग साफ पानी की जरूरतों के लिए जिन तरीकों का इस्तेमाल करते हैं वह बेहद खर्चीली है. इसलिए मैंने इंजीनियरों के समक्ष यह चुनौती पेश की और उनको एक ऐसे प्रोसेसर के इजाद का लक्ष्य दिया, जो सीवेज यानी नाली के पानी को साफ कर उसे पीने लायक बना सके. साथ ही ख्याल रखा गया कि लागत कम हो, ताकि गरीब देशों में ज्यादा से ज्यादा लोग उसका फायदा उठा सकें.

मुङो यह बताते हुए प्रसन्नता हो रही है कि हमलोग इस कोशिश में काफी आगे बढ़ चुके हैं. हमारी टीम ने इस मशीन का प्रोटोटाइप विकसित कर लिया है और उसे संबंधित एजेंसी को मंजूरी के लिए भेज दिया गया है. उम्मीद है कि इस तकनीक के कामयाब होने से विकासशील देशों में बीमारियों को कम करने और लोगों के रहन-सहन के स्तर को बढ़ाने में मदद मिलेगी.

बीमारियों का उन्मूलन

पोलियो उन्मूलन पर हमने बहुत काम किया है. मैंने इसे ज्यादा फोकस किया है. इसका सबसे आखिरी मामला करीब छह माह पहले अफ्रीका में सामने आया था और अब हम उम्मीद करते हैं कि कोई अन्य मामला सामने नहीं आयेगा. हालांकि, इसे सुनिश्चित होने में अभी एक साल का समय लगेगा. अफगानिस्तान और पाकिस्तान में अब तक पूरी तरह से इस बीमारी का उन्मूलन नहीं हुआ है. इसलिए जब तक पूरी दुनिया से इसका नाश नहीं होगा, तब तक इसके अन्य देशों में फैलने का जोखिम बरकरार रहेगा. हालांकि पाकिस्तान में सेना और सरकार दोनों ही ने इस मसले को गंभीरता से लिया है और नाइजीरिया की तर्ज पर ही वे अपने यहां इस बीमारी से निपटना चाहते हैं. लेकिन तालिबान इनकी राह में एक बड़ी बाधा बन कर खड़ा हुआ है. कई बार ऐसे मामले सामने आये हैं, जिनमें बच्चों को पोलियो की दवा पिलाने जा रही माताओं का तालिबानियों ने कत्ल कर दिया है.


Monday 6 April 2015

क्या है ' इंटरनेट न्यूट्रैलिटी' ?

आजकल देश में नेट न्यूट्रैलिटी' की बहुत चर्चा है ये क्या है आइये इसको जानते है
इंटरनेट पर की जाने वाली फोन कॉल्स के लिए टेलीकॉम कंपनियां अलग कीमत तय करने की कोशिशें कर चुकी हैं. कंपनियां इसके लिए वेब सर्फिंग से ज़्यादा दर पर कीमतें वसूलना चाहती थीं. इसके बाद टेलीकॉम सेक्टर की नियामक एजेंसी 'ट्राई' ने आम लोगों से 'नेट न्यूट्रैलिटी' या 'इंटरनेट तटस्थता' पर राय मांगी है. देश भर में इस सवाल पर बहस छिड़ी हुई है. ऐसे में इससे संबंधित कुछ बातों को हर इंटरनेट यूजर को समझना चाहिए. पढ़ें लेख विस्तार से नेट न्यूट्रैलिटी(इंटरनेट तटस्थता) वो सिद्धांत है जिसके तहत माना जाता है कि इंटरनेट सर्विस प्रदान करने वाली कंपनियां इंटरनेट पर हर तरह के डाटा को एक जैसा दर्जा देंगी. इंटरनेट सर्विस देने वाली इन कंपनियों में टेलीकॉम ऑपरेटर्स भी शामिल हैं. इन कंपनियों को अलग अलग डाटा के लिए अलग-अलग कीमतें नहीं लेनी चाहिए. चाहे वो डाटा भिन्न वेबसाइटों पर विजिट करने के लिए हो या फिर अन्य सेवाओं के लिए. उन्हें किसी सेवा को न तो ब्लॉक करना चाहिए और न ही उसकी स्पीड स्लो करनी चाहिए. ये ठीक वैसा ही है कि सड़क पर हर तरह की

ट्रैफिक के साथ एक जैसा बर्ताव किया जाए. जैसे कारों से उनके मॉडल या ब्रांड के आधार पर पेट्रोल की अलग-अलग कीमतें या अलग रेट पर रोड टैक्स नहीं वसूले जाते हैं. नई संकल्पना ये विचार उतना ही पुराना है जितना कि इंटरनेट लेकिन 'इंटरनेट तटस्थता' शब्द दस साल पहले चलन में आया. सामान्य तौर पर बराबरी या तटस्थता जैसे शब्द तभी ज्यादा इस्तेमाल किए जाते हैं जब किसी ख़ास मुद्दे पर कोई मुश्किल हो. उदाहरण के लिए जब आप 'औरतों के लिए बराबरी की बात' करते हैं. इसीलिए ट्रैफिक के संदर्भ में 'सड़क यातायात तटस्थता' जैसे किसी शब्द का इस्तेमाल नहीं किया जाता है क्योंकि सभी तरह के ट्रैफिक के साथ एक जैसा ही बर्ताव किया जाता है. लेकिन अगर कंपनियां आपकी गाड़ी के मॉडल के हिसाब से पेट्रोल की अलग-अलग कीमतें वसूलने लगें तो आप किसी दिन इस मुहावरे तक पहुंच सकते हैं. कंपनियां खिलाफ क्यों? सवाल उठता है कि टेलीकॉम कंपनियां इंटरनेट नेटवर्क की तटस्थता के खिलाफ क्यों हैं? वे इस बात से परेशान हैं कि नई तकनीकी ने उनके कारोबार के लिए मुश्किलें खड़ी कर दी हैं. उदाहरण के लिए एसएमएस सेवा को व्हॉट्स ऐप जैसे लगभग मुफ़्त ऐप ने लगभग मार ही डाला है. इसलिए वे ऐसी सेवाओं के लिए ज्यादा रेट वसूलने की कोशिश में हैं जो उनके कारोबार और राजस्व को नुकसान पहुंचा रही हैं. हालांकि इंटरनेट सर्फिंग जैसी सेवाएं कम रेट पर ही दी जा रही हैं. ये अहम क्यों? एक सवाल ये भी है कि इंटरनेट तटस्थता आपके लिए महत्वपूर्ण क्यों है? इससे मुकरने का एक मतलब ये भी है कि आपके खर्च बढ़ सकते हैं और विकल्प सीमित हो सकते हैं. उदाहरण के लिए स्काइप जैसी इंटरनेट कॉलिंग सुविधा की वजह से मोबाइल कॉलों पर असर पड़ सकता है क्योंकि लंबी दूरी की फोन कॉल्स के लिहाज से वे कहीं अधिक सस्ती हैं. ये टेलीकॉम सर्विस देने वाली कंपनियों के राजस्व को नुकसान पहुंचा रहा था. इस नई हक़ीक़त के मुताबिक खुद को ढालने की बजाय कंपनियों ने स्काइप पर किए जाने वाले फोन कॉल्स के लिए डाटा कीमतें बेतहाशा बढ़ा दीं. इंटरनेट पर फोन कॉल की क्रांति नहीं होती. लेकिन पिछली दिसंबर में एयरटेल ने कहा कि वह इंटरनेट कॉल के लिए थ्री-जी यूजर से 10 केबी के चार पैसे या दो रुपये प्रति मिनट की दर से शुल्क वसूलेगा. इंटरनेट पर एक मिनट के कॉल में तकरीबन 500 केबी डाटा खर्च होता है. इससे उपजी आलोचनाओं की बाढ़ के बाद कंपनी ने बढ़ी दरों को वापस ले लिया और इसके ठीक बाद ट्राई ने इंटरनेट की तटस्थता के सवाल पर एक कंसल्टेशन पेपर जारी कर दिया. खिलाफ तर्क इंटरनेट की तटस्थता के खिलाफ क्या तर्क दिए जाते हैं? इंटरनेट की तटस्थता को संभवतः सरकारी कानून की जरूरत होगी. एक मजबूत तर्क ये दिया जा रहा है कि सरकार को मुक्त बाजार के कामकाज में दखल नहीं देना चाहिए. प्रतिस्पर्धा वाले मुक्त बाज़ार में जो सबसे कम कीमतों पर सबसे अच्छी सेवाएं देगा, उसे जीतना चाहिए. हालांकि इस बात के खतरे भी हैं कि कंपनियां अपना एकाधिकार बनाए रखने के लिए गठजोड़ कर लें खासकर उन बाजारों में जहां प्रतिस्पर्धा कम है, जैसे मोबाइल डाटा का बाजार. ऑपरेटर्स का दूसरा तर्क ये है कि उन्होंने अपना नेटवर्क खड़ा करने में हज़ारों करोड़ रुपये खर्च किए हैं जबकि व्हॉट्स ऐप जैसी सेवाएं जो मुफ्त में वॉइस कॉल की सर्विस देकर उनके उन्हीं नेटवर्क्स का मुफ्त में फायदा उठा रही हैं. इससे टेलीकॉम कंपनियों के कारोबार को नुकसान पहुंच रहा है. अब आगे क्या? ट्राई ने स्काइप, वाइबर, व्हॉट्स ऐप, स्नैपचैट, फेसबुक मैसेंजर जैसी सेवाओं के नियमन से जुड़े 20 सवालों पर भी जनता से फीडबैक मांगा है. इनमें से एक सवाल ये भी है कि क्या इस तरह की कॉलिंग सर्विस देने वाली कंपनियों को टेलीकॉम ऑपरेटर के नेटवर्क के इस्तेमाल के लिए अतिरिक्त कीमत चुकानी चाहिए? यह कीमत यूजर की ओर से दिए गए डाटा शुल्क के अतिरिक्त होगी. इसके बगैर क्या? इंटरनेट तटस्थता को लागू नहीं किया गया तो क्या होगा? अगर ऐसा होता है तो ऑपरेटर इंटरनेट कॉलिंग सर्विस की एवज में डाटा कीमतों के अलावा इसके लिए ज्यादा पैसे वसूल सकते हैं. या फिर इन सेवाओं के लिए अलग से डाटा कीमतें तय की जा सकती हैं. वे कुछ सेवाओं को ब्लॉक कर सकते हैं या उनकी स्पीड को सुस्त कर सकते हैं ताकि यूजर के लिए इनका इस्तेमाल मुश्किल हो जाए. उदाहरण के लिए व्हॉट्स ऐप की डाटा स्पीड को धीमा करके या फिर इसे महंगा करके यूज़र के लिए इसकी कॉलिंग सर्विस का मजा किरकिरा किया जा सकता है. उपभोक्ता की आवाज़ क्या होगा अगर ट्राई इंटरनेट तटस्थता को लागू करती है? अगर व्हॉट्स ऐप या स्काइप या फेसबुक मैसेंजर जैसे खिलाड़ियों के लिए अतिरिक्त चार्ज को ट्राई इजाजत देती है तो आप अपनी सेवाओं में थोड़ा बदलाव देखेंगे. फेसबुक या गूगल से करार करने वाले ऑपरेटर्स की स्पेशल पेशकशें वापस ली जा सकती हैं. जैसे रिलायंस के नेटवर्क पर फेसबुक जैसी कुछ वेबसाइट फ्री में उपलब्ध हैं. या फिर ये भी हो सकता है कि टेलीकॉम कंपनियां अपने घाटे की भरपाई के लिए डाटा टैरिफ में इजाफा कर दें. कुछ लोगों का कहना है कि ट्राई का कदम इंडस्ट्री के लिए सहानुभूति की ओर इशारा करता है. ऐसे लोगों को फिक्र है कि ट्राई को उपभोक्ताओं के बनिस्बत इंडस्ट्री की आवाज़ ज्यादा जोर से सुनाई देगी. यानी इंटरनेट तटस्थता के बरकरार रहने की कम ही उम्मीद है.