Tuesday 31 March 2015

सेहत को बड़ा नुकसान पहुँचा रहा है मोबाईल फोन

अत्यधिक मोबाइल उपयोग से कैंसर का खतरा
एक ताजा अध्ययन से पता चला है कि मोबाइल फोन का अत्यधिक इस्तेमाल करने से कोशिकाओं में एक तरह का तनाव पैदा होता है, जो कोशिकीय एवं अनुवांशिक उत्परिवर्तन से संबद्ध है तथा इसके कारण कैंसर का खतरा पैदा हो जाता है.
अध्ययन के मुताबिक मोबाइल फोन के इस्तेमाल से कोशिकाओं में उत्पन्न होने वाला विशेष तनाव (ऑक्सिडेटिव स्ट्रेस) डीएनए सहित मानव कोशिका के सभी अवयवों को नष्ट कर देता है. ऐसा विषाक्त पराक्साइड एवं स्वतंत्र कणों के विकसित होने के कारण होता है.
तेल अवीव विश्वविद्यालय के औषधि संकाय एवं नाक-कान-गला विभाग के अध्यक्ष यानिव हमजानी ने मोबाइल फोन का इस्तेमाल करने वालों के लार का अध्ययन किया, जिसके आधार पर उन्होंने मोबाइल फोन के इस्तेमाल और कैंसर से पीड़ित होने की दर के बीच संबंध स्थापित किया. हमजानी, राबिन चिकित्सा केंद्र में गर्दन की सर्जरी विभाग के अध्यक्ष भी हैं.
वेबसाइट साइंसडेली डॉट कॉम के अनुसार, हमजानी और उनके सहयोगी शोधकर्ता रफील फीनमेसर, थॉमस शपित्जर, गीडॉन बहर, रफी नागलर और मोशे गेविश ने अपना शोध इस परिकल्पना के आधार पर की कि चूंकि मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते समय लार ग्रंथि बहुत नजदीक रहती है, इसलिए लार में उपस्थित तत्वों के आधार पर इसे जाना जा सकता है कि क्या इसका संबंध कैंसर होने से है.
मोबाइल फोन का अत्यधिक इस्तेमाल करने वाले और इस्तेमाल न करने वाले लोगों के बीच तुलनात्मक अध्ययन में उन्होंने पाया कि मोबाइल फोन का अत्यधिक इस्तेमाल करने वालों के लार में ऑक्सिडेटिव स्ट्रेस की उपस्थिति के संकेत अधिक हैं.
यह अध्ययन, वैज्ञानिक शोधपत्रिका 'एंटीऑक्सिडेंट्स एंड रिडॉक्स सिग्नलिंग' में प्रकाशित हुआ है.
खतरे की घंटी बजाते मोबाइल!
मोबाइल फोन के बिना अब हम जिंदगी की कल्पना भी नहीं कर पाते। आदत ऐसी बन गई है कि जब कॉल नहीं होता, तो भी हमें लगता है कि घंटी बज रही है। यह घंटी दरअसल खतरे की घंटी हो सकती है। मोबाइल फोन और मोबाइल टावर से निकलने वाला रेडिएशन सेहत के लिए खतरा भी साबित हो सकता है। लेकिन कुछ सावधानियां बरती जाएं, तो मोबाइल रेडिएशन से होने वाले खतरों से काफी हद तक बचा जा सकता है।
क्या रेडिएशन से सेहत से जुड़ी समस्याएं होती हैं?
मोबाइल रेडिएशन पर कई रिसर्च पेपर तैयार कर चुके आईआईटी बॉम्बे में इलेक्ट्रिकल इंजिनियर प्रो. गिरीश कुमार का कहना है कि मोबाइल रेडिएशन से तमाम दिक्कतें हो सकती हैं, जिनमें प्रमुख हैं सिरदर्द, सिर में झनझनाहट, लगातार थकान महसूस करना, चक्कर आना, डिप्रेशन, नींद न आना, आंखों में ड्राइनेस, काम में ध्यान न लगना, कानों का बजना, सुनने में कमी, याददाश्त में कमी, पाचन में गड़बड़ी, अनियमित धड़कन, जोड़ों में दर्द आदि।
क्या कुछ और खतरे भी हो सकते हैं मोबाइल रेडिएशन से?
स्टडी कहती है कि मोबाइल रेडिएशन से लंबे समय के बाद प्रजनन क्षमता में कमी, कैंसर, ब्रेन ट्यूमर और मिस-कैरेज की आशंका भी हो सकती है। दरअसल, हमारे शरीर में 70 फीसदी पानी है। दिमाग में भी 90 फीसदी तक पानी होता है। यह पानी धीरे-धीरे बॉडी रेडिएशन को अब्जॉर्ब करता है और आगे जाकर सेहत के लिए काफी नुकसानदेह होता है। यहां तक कि बीते साल आई डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट के मुताबिक मोबाइल से कैंसर तक होने की आशंका हो सकती है। इंटरफोन स्टडी में कहा गया कि हर दिन आधे घंटे या उससे ज्यादा मोबाइल का इस्तेमाल करने पर 8-10 साल में ब्रेन ट्यूमर की आशंका 200-400 फीसदी बढ़ जाती है।
रेडिएशन कितनी तरह का होता है?
माइक्रोवेव रेडिएशन उन इलेक्ट्रोमैग्नेटिक वेव्स के कारण होता है, जिनकी फ्रीक्वेंसी 1000 से 3000 मेगाहर्ट्ज होती है। माइक्रोवेव अवन, एसी, वायरलेस कंप्यूटर, कॉर्डलेस फोन और दूसरे वायरलेस डिवाइस भी रेडिएशन पैदा करते हैं। लेकिन लगातार बढ़ते इस्तेमाल, शरीर से नजदीकी और बढ़ती संख्या की वजह से मोबाइल रेडिएशन सबसे खतरनाक साबित हो सकता है। मोबाइल रेडिएशन दो तरह से होता है, मोबाइल टावर और मोबाइल फोन से।
रेडिएशन से किसे ज्यादा नुकसान होता है?
मैक्स हेल्थकेयर में कंसल्टेंट न्यूरोलॉजिस्ट डॉ. पुनीत अग्रवाल के मुताबिक मोबाइल रेडिएशन सभी के लिए नुकसानदेह है लेकिन बच्चे, महिलाएं, बुजुर्गों और मरीजों को इससे ज्यादा नुकसान हो सकता है। अमेरिका के फूड एंड ड्रग्स ऐडमिनिस्ट्रेशन का कहना है कि बच्चों और किशोरों को मोबाइल पर ज्यादा वक्त नहीं बिताना चाहिए और स्पीकर फोन या हैंडसेट का इस्तेमाल करना चाहिए, ताकि सिर और मोबाइल के बीच दूरी बनी रहे। बच्चों और और प्रेगनेंट महिलाओं को भी मोबाइल फोन के ज्यादा यूज से बचना चाहिए।
मोबाइल टावर या फोन, किससे नुकसान ज्यादा?
प्रो. गिरीश कुमार के मुताबिक मोबाइल फोन हमारे ज्यादा करीब होता है, इसलिए उससे नुकसान ज्यादा होना चाहिए लेकिन ज्यादा परेशानी टावर से होती है क्योंकि मोबाइल का इस्तेमाल हम लगातार नहीं करते, जबकि टावर लगातार चौबीसों घंटे रेडिएशन फैलाते हैं। मोबाइल पर अगर हम घंटा भर बात करते हैं तो उससे हुए नुकसान की भरपाई के लिए हमें 23 घंटे मिलते हैं, जबकि टावर के पास रहनेवाले उससे लगातार निकलने वाली तरंगों की जद में रहते हैं। अगर घर के समाने टावर लगा है तो उसमें रहनेवाले लोगों को 2-3 साल के अंदर सेहत से जुड़ी समस्याएं शुरू हो सकती हैं। मुंबई की उषा किरण बिल्डिंग में कैंसर के कई मामले सामने आने को मोबाइल टावर रेडिएशन से जोड़कर देखा जा रहा है। फिल्म ऐक्ट्रेस जूही चावला ने सिरदर्द और सेहत से जुड़ी दूसरी समस्याएं होने पर अपने घर के आसपास से 9 मोबाइल टावरों को हटवाया।
मोबाइल टावर के किस एरिया में नुकसान सबसे ज्यादा?
मोबाइल टावर के 300 मीटर एरिया में सबसे ज्यादा रेडिएशन होता है। ऐंटेना के सामनेवाले हिस्से में सबसे ज्यादा तरंगें निकलती हैं। जाहिर है, सामने की ओर ही नुकसान भी ज्यादा होता है, पीछे और नीचे के मुकाबले। मोबाइल टावर से होनेवाले नुकसान में यह बात भी अहमियत रखती है कि घर टावर पर लगे ऐंटेना के सामने है या पीछे। इसी तरह दूरी भी बहुत अहम है। टावर के एक मीटर के एरिया में 100 गुना ज्यादा रेडिएशन होता है। टावर पर जितने ज्यादा ऐंटेना लगे होंगे, रेडिएशन भी उतना ज्यादा होगा।
कितनी देर तक मोबाइल का इस्तेमाल ठीक है?
दिन भर में 24 मिनट तक मोबाइल फोन का इस्तेमाल सेहत के लिहाज से मुफीद है। यहां यह भी अहम है कि आपके मोबाइल की SAR
वैल्यू क्या है? ज्यादा SAR वैल्यू के फोन पर कम देर बात करना कम SAR वैल्यू वाले फोन पर ज्यादा बात करने से ज्यादा नुकसानदेह है। लंबे वक्त तक बातचीत के लिए लैंडलाइन फोन का इस्तेमाल रेडिएशन से बचने का आसान तरीका है। इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि ऑफिस या घर में लैंडलाइन फोन का इस्तेमाल करें। कॉर्डलेस फोन के इस्तेमाल से बचें।
बोलते हैं आंकड़े
-2010
में डब्ल्यूएचओ की एक रिसर्च में खुलासा हुआ कि मोबाइल रेडिएशन से कैंसर होने का खतरा है।
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हंगरी में साइंटिस्टों ने पाया कि जो युवक बहुत ज्यादा सेल फोन का इस्तेमाल करते थे, उनके स्पर्म की संख्या कम हो गई।
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जर्मनी में हुई रिसर्च के मुताबिक जो लोग ट्रांसमिटर ऐंटेना के 400 मीटर के एरिया में रह रहे थे, उनमें कैंसर होने की आशंका तीन गुना बढ़ गई। 400 मीटर के एरिया में ट्रांसमिशन बाकी एरिया से 100 गुना ज्यादा होता है।
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केरल में की गई एक रिसर्च के अनुसार सेल फोन टॉवरों से होनेवाले रेडिएशन से मधुमक्खियों की कमर्शल पॉप्युलेशन 60 फीसदी तक गिर गई है।
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सेल फोन टावरों के पास जिन गौरेयों ने अंडे दिए, 30 दिन के बाद भी उनमें से बच्चे नहीं निकले, जबकि आमतौर पर इस काम में 10-14 दिन लगते हैं। गौरतलब है कि टावर्स से काफी हल्की फ्रीक्वेंसी (900 से 1800 मेगाहर्ट्ज) की इलेक्ट्रोमैग्नेटिक वेव्ज निकलती हैं, लेकिन ये भी छोटे चूजों को काफी नुकसान पहुंचा सकती हैं।
-2010
की इंटरफोन स्टडी इस बात की ओर इशारा करती है कि लंबे समय तक मोबाइल के इस्तेमाल से ट्यूमर होने की आशंका बढ़ जाती है।
रेडिएशन को लेकर क्या हैं गाइडलाइंस?
जीएसएम टावरों के लिए रेडिएशन लिमिट 4500 मिलीवॉट/मी. स्क्वेयर तय की गई। लेकिन इंटरनैशनल कमिशन ऑन नॉन आयोनाइजिंग रेडिएशन (आईसीएनआईआरपी) की गाइडलाइंस जो इंडिया में लागू की गईं, वे दरअसल शॉर्ट-टर्म एक्सपोजर के लिए थीं, जबकि मोबाइल टॉवर से तो लगातार रेडिएशन होता है। इसलिए इस लिमिट को कम कर 450 मिलीवॉट/मी. स्क्वेयर करने की बात हो रही है। ये नई गाइडलाइंस 15 सितंबर से लागू होंगी। हालांकि प्रो. गिरीश कुमार का कहना है कि यह लिमिट भी बहुत ज्यादा है और सिर्फ 1 मिलीवॉट/मी. स्क्वेयर रेडिशन भी नुकसान देता है। यही वजह है कि ऑस्ट्रिया में 1 मिलीवॉट/मी. स्क्वेयर और साउथ वेल्स, ऑस्ट्रेलिया में 0.01 मिलीवॉट/मी. स्क्वेयर लिमिट है।
दिल्ली में मोबाइल रेडिएशन किस लेवल पर है?
2010
में एक मैगज़ीन और कंपनी के सर्वे में दिल्ली में 100 जगहों पर टेस्टिंग की गई और पाया कि दिल्ली का एक-चौथाई हिस्सा ही रेडिएशन से सुरक्षित है लेकिन इन जगहों में दिल्ली के वीवीआईपी एरिया ही ज्यादा हैं। रेडिएशन के लिहाज से दिल्ली का कनॉट प्लेस, नई दिल्ली रेलवे स्टेशन, खान मार्केट, कश्मीरी गेट, वसंत कुंज, कड़कड़डूमा, हौज खास, ग्रेटर कैलाश मार्केट, सफदरजंग अस्पताल, संचार भवन, जंगपुरा, झंडेवालान, दिल्ली हाई कोर्ट को डेंजर एरिया में माना गया। दिल्ली के नामी अस्पताल भी इस रेडिएशन की चपेट में हैं।
किस तरह कम कर सकते हैं मोबाइल फोन रेडिएशन?
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रेडिएशन कम करने के लिए अपने फोन के साथ फेराइट बीड (रेडिएशन सोखने वाला एक यंत्र) भी लगा सकते हैं।
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मोबाइल फोन रेडिएशन शील्ड का इस्तेमाल भी अच्छा तरीका है। आजकल कई कंपनियां मार्केट में इस तरह के उपकरण बेच रही हैं।
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रेडिएशन ब्लॉक ऐप्लिकेशन का इस्तेमाल कर सकते हैं। दरअसल, ये खास तरह के सॉफ्टवेयर होते हैं, जो एक खास वक्त तक वाईफाई, ब्लू-टूथ, जीपीएस या ऐंटेना को ब्लॉक कर सकते हैं।
टावर के रेडिएशन से कैसे बच सकते हैं?
मोबाइल रेडिएशन से बचने के लिए ये उपाय कारगर हो सकते हैं:
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मोबाइल टॉवरों से जितना मुमकिन है, दूर रहें।
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टावर कंपनी से ऐंटेना की पावर कम करने को बोलें।
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अगर घर के बिल्कुल सामने मोबाइल टावर है तो घर की खिड़की-दरवाजे बंद करके रखें।
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घर में रेडिएशन डिटेक्टर की मदद से रेडिएशन का लेवल चेक करें। जिस इलाके में रेडिएशन ज्यादा है, वहां कम वक्त बिताएं।
Detex
नाम का रेडिएशन डिटेक्टर करीब 5000 रुपये में मिलता है।
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घर की खिड़कियों पर खास तरह की फिल्म लगा सकते हैं क्योंकि सबसे ज्यादा रेडिएशन ग्लास के जरिए आता है। ऐंटि-रेडिएशन फिल्म की कीमत एक खिड़की के लिए करीब 4000 रुपए पड़ती है।
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खिड़की दरवाजों पर शिल्डिंग पर्दे लगा सकते हैं। ये पर्दे काफी हद तक रेडिएशन को रोक सकते हैं। कई कंपनियां ऐसे प्रॉडक्ट बनाती हैं।
क्या कम सिग्नल भी हो सकते हैं घातक?
अगर सिग्नल कम आ रहे हों तो मोबाइल का इस्तेमाल न करें क्योंकि इस दौरान रेडिएशन ज्यादा होता है। पूरे सिग्नल आने पर ही मोबाइल यूज करना चाहिए। मोबाइल का इस्तेमाल खिड़की या दरवाजे के पास खड़े होकर या खुले में करना बेहतर है क्योंकि इससे तरंगों को बाहर निकलने का रास्ता मिल जाता है।
स्पीकर पर बात करना कितना मददगार?
मोबाइल शरीर से जितना दूर रहेगा, उनका नुकसान कम होगा, इसलिए फोन को शरीर से दूर रखें। ब्लैकबेरी फोन में एक मेसेज भी आता है, जो कहता है कि मोबाइल को शरीर से 25 मिमी (करीब 1 इंच) की दूरी पर रखें। सैमसंग गैलेक्सी एस 3 में भी मोबाइल को शरीर से दूर रखने का मेसेज आता है। रॉकलैंड हॉस्पिटल में ईएनटी स्पेशलिस्ट डॉ. धीरेंद्र सिंह के मुताबिक इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रेडिएशन से बचने के लिए स्पीकर फोन या या हैंड्स-फ्री का इस्तेमाल करें। ऐसे हेड-सेट्स यूज करें, जिनमें ईयर पीस और कानों के बीच प्लास्टिक की एयर ट्यूब हो।
क्या मोबाइल तकिए के नीचे रखकर सोना सही है?
मोबाइल को हर वक्त जेब में रखकर न घूमें, न ही तकिए के नीचे या बगल में रखकर सोएं क्योंकि मोबाइल हर मिनट टावर को सिग्नल भेजता है। बेहतर है कि मोबाइल को जेब से निकालकर कम-से-कम दो फुट यानी करीब एक हाथ की दूरी पर रखें। सोते हुए भी दूरी बनाए रखें।
जेब में मोबाइल रखना दिल के लिए नुकसानदेह है?
एस्कॉर्ट्स हार्ट इंस्टिट्यूट में कार्डिएक साइंसेज के चेयरमैन डॉ. अशोक सेठ के मुताबिक अभी तक मोबाइल रेडिएशन और दिल की बीमारी के बीच सीधे तौर पर कोई ठोस संबंध सामने नहीं आया है। लेकिन मोबाइल के बहुत ज्यादा इस्तेमाल या मोबाइल टावर के पास रहने से दूसरी समस्याओं के साथ-साथ दिल की धड़कन का अनियमित होने की आशंका जरूर होती है। बेहतर यही है कि हम सावधानी बरतें और मोबाइल का इस्तेमाल कम करें।
पेसमेकर लगा है तो क्या मोबाइल ज्यादा नुकसान करता है?
डॉ. सेठ का कहना है कि अगर शरीर में पेसमेकर लगा है तो हैंडसेट से 1 फुट तक की दूरी बनाकर बात करें। शरीर में लगा डिवाइस इलेक्ट्रिक सिग्नल पैदा करता है, जिसके साथ मोबाइल के सिग्नल दखल दे सकते हैं। ऐसे में ये शरीर को कम या ज्यादा सिग्नल पहुंचा सकते हैं, जो नुकसानदेह हो सकता है। ऐसे में ब्लूटूथ या हैंड्स-फ्री डिवाइस के जरिए या फिर स्पीकर ऑन कर बात करें। पेसमेकर जिस तरफ लगा है, उस पॉकेट में मोबाइल न रखें।
पेंट की जेब में रखने से क्या स्पर्म्स पर असर होता है?
जाने-माने सेक्सॉलजिस्ट डॉ. प्रकाश कोठारी का मानना है कि मोबाइल रेडिएशन से नुकसान होता है या नहीं, इसका कोई ठोस सबूत नहीं हैं। फिर भी एहतियात के तौर पर आप अपने मोबाइल को कमर पर बेल्ट के साथ लगाएं तो बेहतर होगा।
क्या ब्लूटूथ का इस्तेमाल नुकसान बढ़ाता है?
अगर हम ब्लूटूथ का इस्तेमाल करते हैं, तो हमारे शरीर में रेडिएशन थोड़ा ज्यादा अब्जॉर्ब होगा। अगर ब्लूटूथ ऑन करेंगे तो 10 मिली वॉट पावर अडिशनल निकलेगी। मोबाइल से निकलने वाली पावर के साथ-साथ शरीर इसे भी अब्जॉर्ब करेगा। ऐसे में जरूरी है कि ब्लूटूथ पर बात करते हैं तो मोबाइल को अपने शरीर से दूर रखें। एक फुट की दूरी हो तो अच्छा है।
गेम्स /नेट सर्फिंग के लिए मोबाइल यूज खतरनाक है?
मोबाइल पर गेम्स खेलना सेहत के लिए बहुत नुकसानदेह नहीं है, लेकिन इंटरनेट सर्फिंग के दौरान रेडिएशन होता है इसलिए मोबाइल फोन से ज्यादा देर इंटरनेट सर्फिंग नहीं करनी चाहिए।
SAR की मोबाइल रेडिएशन में क्या भूमिका है?
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कम एसएआर संख्या वाला मोबाइल खरीदें, क्योंकि इसमें रेडिएशन का खतरा कम होता है। मोबाइल फोन कंपनी की वेबसाइट या फोन के यूजर मैनुअल में यह संख्या छपी होती है। वैसे, कुछ भारतीय कंपनियां ऐसी भी हैं, जो एसएआर संख्या का खुलासा नहीं करतीं।
क्या है SAR: अमेरिका के नैशनल स्टैंडर्ड्स इंस्टिट्यूट के मुताबिक, एक तय वक्त के भीतर किसी इंसान या जानवर के शरीर में प्रवेश करने वाली इलेक्ट्रोमैग्नेटिक तरंगों की माप को एसएआर (स्पैसिफिक अब्जॉर्पशन रेश्यो) कहा जाता है। एसएआर संख्या वह ऊर्जा है, जो मोबाइल के इस्तेमाल के वक्त इंसान का शरीर सोखता है। मतलब यह है कि जिस मोबाइल की एसएआर संख्या जितनी ज्यादा होगी, वह शरीर के लिए उतना ही ज्यादा नुकसानदेह होगा।
भारत में SAR के लिए क्या हैं नियम?
अभी तक हैंडसेट्स में रेडिएशन के यूरोपीय मानकों का पालन होता है। इन मानकों के मुताबिक हैंडसेट का एसएआर लेवल 2 वॉट प्रति किलो से ज्यादा बिल्कुल नहीं होना चाहिए। लेकिन एक्सपर्ट इस मानक को सही नहीं मानते हैं। इसके पीछे दलील यह दी जाती है कि ये मानक भारत जैसे गर्म मुल्क के लिए मुफीद नहीं हो सकते। इसके अलावा, भारतीयों में यूरोपीय लोगों के मुकाबले कम बॉडी फैट होता है। इस वजह से हम पर रेडियो फ्रीक्वेंसी का ज्यादा घातक असर पड़ता है। हालांकि, केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तावित गाइडलाइंस में यह सीमा 1.6 वॉट प्रति किग्रा कर दी गई है, जोकि अमेरिकी स्टैंडर्ड है।
मेट्रो या लिफ्ट में मोबाइल यूज करते वक्त क्या ध्यान रखें?
लिफ्ट या मेट्रो में मोबाइल के इस्तेमाल से बचें क्योंकि तरंगों के बाहर निकलने का रास्ता बंद होने से इनके शरीर में प्रवेश का खतरा बढ़ जाता है। साथ ही, इन जगहों पर सिग्नल कम होना भी नुकसानदेह हो सकता है।
मोबाइल को कहां रखें?
मोबाइल को कहां रखा जाए, इस बारे में अभी तक कोई आम राय नहीं बनी है। यह भी साबित नहीं हुआ है कि मोबाइल को पॉकेट आदि में रखने से सीधा नुकसान है, पेसमेकर के मामले को छोड़कर। फिर भी एहतियात के तौर पर महिलाओं के लिए मोबाइल को पर्स में रखना और पुरुषों के लिए कमर पर बेल्ट पर साइड में लगाए गए पाउच में रखना सही है।
किस मोबाइल का कितना SAR?
ज्यादातर मोबाइल फोन्स का एसएआर अलग-अलग होता है:
मोटोरोलाV195s 1.6
नोकिया E710 1.53
एलजी र्यूमर2 1.51
सोनी एरिक्सन W350a 1.48
एपल आईफोन-4 1.51
सैमसंग Soul 0.24
नोकिया 9300 0.21
सैमसंग गैलेक्सी S-2 0.338
ब्लैकबेरी कर्व-8310 0.72


Wednesday 25 March 2015

शुरू करें सोशल मीडिया उपवास

सोशल मीडिया और स्मार्ट फोन के एडिक्शन पर रेशू वर्मा का शानदार लेख 
गौर से देखिए, आपके आसपास कोई बेचैन युवक या युवती जरूर होगी जो अपने स्मार्टफोन पर हर दो मिनट पर फेसबुक चेक कर रही होगी कि थोड़ी देर पहले की गई उसकी पोस्ट पर कोई नया लाइक या कॉमेंट आया कि नहीं। फेसबुक से मुक्त हुए तो वॉट्सऐप भी देख लें और वॉट्सऐप के बाद ई-मेल देखना तो बनता ही है। थोड़ी-थोड़ी देर पर नॉर्मल एसएमएस देख लेना तो खैर आम बात है। हर पांच मिनट या इससे भी कम में मेसेज देखने की बेचैनी हमारी युवा-पीढ़ी का खास लक्षण बन गया है। युवा ही नहीं, कई अधेड़ भी ऐसा करते नजर आ सकते हैं।
अपनी एकाग्रता भंग करके मेसेज देखने का मतलब साफ है। स्मार्टफोन हमारी कुशलता को बेहतर नहीं बना रहे। वे लोगों को मन लगा कर कोई भी काम करने से रोकने वाली एक बड़ी डिवाइस बन गए हैं। इससे अटेंशन स्पैन यानी ध्यान देने की अवधि बहुत कम हो गई है। आधा घंटा लगातार एक ही विषय पर टिककर सोचने, पढ़ने के रास्ते में न जाने कितने मेसेज कितना व्यवधान पैदा करते हैं, अब इस विषय पर सोचना आवश्यक हो गया है।
लाइफ स्टाइल में जगह 
इंटरनेट का आविष्कार हुए 50 साल से भी अधिक हो गए हैं, लेकिन हमारी लाइफस्टाइल का जरूरी हिस्सा बने इसको कुछ ही साल हो रहे हैं। हर किसी के जीवन का एक अभिन्न अंग यह तब से बना है, जब से मोबाइल इंटरनेट सस्ता हुआ और फेसबुक, ट्विटर जैसे सोशल मीडिया का आगमन हुआ। अभी एक तरफ सोशल मीडिया के सकारात्मक पहलू पर किताबें लिखी जा रही हैं, तो दूसरी तरफ इसके नकारात्मक पहलू परेशान भी कर रहे हैं। साइबर सिकनेस, फेसबुक डिप्रेशन और इंटरनेट अडिक्शन डिसऑर्डर जैसी मनोवैज्ञानिक बीमारियां सोशल मीडिया की ही देन हैं। हर वक़्त अपडेट देखना, क्या नया अपलोड करना है, किसने क्या कॉमेंट किया है, ये ऐसी चीजें हो गई हैं जो हर समय दिमाग में घूमती रहती हैं। इसके चलते लोगों का काम में ध्यान लगना काफी कम हो गया है।
एक वक्त हम अपना खाली समय किताब पढ़ने में बिताते थे। सफर में सोचते थे कि कितनी जल्दी कुछ पढ़ लिया जाए। अभी वही समय अपने मोबाइल फोन पर सोशल मीडिया के मेसेज और स्टेटस अपडेट देखते निकल जाता है। किसी भी मीडिया से सूचना और ज्ञान हासिल करने में कोई बुराई नहीं, लेकिन वह अगर हमारा अटेंशन स्पैन कम कर रहा हो, एकाग्रता भंग करने का स्थायी स्त्रोत ही बनता जा रहा हो तो सोचना बनता है। 
आप किसी भी क्षेत्र में हों, काम तो एक एकाग्रता की मांग करता ही है। इसके बिना आप अपने काम में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकते। घड़ी-घड़ी मोबाइल निकाल कर देखना, बेमतलब मेसेज बॉक्स में झांकना एक बीमारी है। समस्या यह है कि अन्य मनोवैज्ञानिक बीमारियों की तरह सोशल मीडिया से होने वाली बीमारियों से ग्रस्त लोग भी यह मानने को तैयार नहीं होते कि वे बीमार हैं। हकीकत यह है कि अगर शुरुआती लक्षणों पर ध्यान न दिया गया तो ये बीमारियां काफी गंभीर रूप ले सकती हैं।
भारत में ऐसी बीमारियों के बारे में ज्यादा जागरूकता नहीं है, लेकिन अमेरिका जैसे देशों में एक बड़ी आबादी मोटी फीस देकर इनका इलाज करवा रही है। वहां इसके लिए दवाएं और चिकित्सीय सहायता मौजूद है। इस समस्या को जितनी जल्दी समझ लिया जाए, इलाज उतना ही आसान हो जाता है। एकाग्रता में कमी कोई छोटी बात नहीं। आगे चलकर यही बड़ी मानसिक और अन्य बीमारियों को जन्म देती है। आभासी दुनिया कितनी भी काम की हो, लेकिन जब वह खुद के लिए नुकसानदेह साबित होने लगे तो उससे एक दूरी बना लेने में ही अक्लमंदी है। अभी तो हम ऑफिस में अपने काम के बीच भी मोबाइल देखते रहते हैं। क्लास में टीचर की नजरें बचाकर सोशल मीडिया के भी एक-दो चक्कर मार ही लेते हैं। जब हमारा दिमाग कई जगह बंटा होता है, तो वह किसी भी जगह अपना सौ फीसदी नहीं दे सकता। जाहिर है, यह समस्या बेहतर उत्पादकता की राह में रोड़े अटकाती है। 
सोशल नेटवर्क उपवास
पहले तो सोशल मीडिया तक पहुंच सिर्फ लैपटॉप और डेस्कटॉप कंप्यूटर द्वारा ही संभव थी। अभी स्मार्टफोन ने सोशल मीडिया तक पहुंच को ऑल टाइम ईजी बना दिया है। इसके चलते टेलिकॉम कंपनियों का कारोबार बहुत तेजी से बढ़ा है। देश की सबसे बड़ी टेलिकॉम कंपनी भारती एयरटेल का शेयर पिछले एक साल में करीब 36 फीसदी ऊपर गया है। इन कंपनियों के लगातार उछलते मुनाफे का एक बड़ा हिस्सा सोशल नेटवर्किंग साइटों पर युवाओं की बेचैन और लगातार उपस्थिति से आता है। कंपनियां मुनाफा कमाएं, इसमें कोई हर्ज नहीं है। हर्ज तब है, जब एकाग्रता में कमी युवाओं का परफॉर्मेंस खराब करने लगे। तो अब सोचने की जरूरत है कि क्या हफ्ते में एक या दो दिन सोशल नेटवर्क उपवास की एक नई परंपरा शुरू की जाए? यानी इन दिनों में फेसबुक, ट्विटर या वॉट्सऐप पर न जाने का प्रण लिया जाए, और उस पर कायम भी रहा जाए!

साभार –NBT)

Sunday 22 March 2015

एलियंस को भेजेंगे संदेश

बाहरी दुनिया से संपर्क के प्रयास पर हमें अपनी रणनीति बदल देनी चाहिए। चुपचाप रेडियो संदेशों को सुनने के बजाए हमें बाहरी दुनिया की तरफ सूचना प्रधान संदेश संप्रेषित करने चाहिए .
कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि हमें सौरमंडल से बाहर दूसरे तारों के आवास क्षेत्रों में स्थित ग्रहों की तरफ संदेश भेजना शुरू कर देना चाहिए ताकि पारलौकिक जीव हमारी बात सुन सकें। पारलौकिक जीवन की खोज से जुड़े सेटी प्रोजेक्ट के विशेषज्ञों का विचार है कि अब हमें दूसरे लोक में बुद्धिमान सभ्यताओं के संकेतों के लिए बाहरी रेडियो संदेशों को सुनना बंद कर देना चाहिए। गौरतलब है कि ब्रह्मांड से आने वाले संदेशो को सुनने के लिए सेटी का गठन किया गया था। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी और कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी जैसे संस्थानों के खगोल-भौतिकविद इस प्रोजेक्ट में शामिल हुए। सेटी इंस्टीट्यूट के एक वैज्ञानिक डगलस वकोच का कहना है कि हमें अब दूसरे सौरमंडलों के गोल्डीलॉक्स क्षेत्रों में स्थित ग्रहों को उपयुक्त संदेश भेजने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। गोल्डीलॉक्स क्षेत्र ऐसा क्षेत्र है जहां तापमान जीवन के लिए उपयुक्त होता है। उन्होंने कहा कि पिछले पचास वषों से खगोल वैज्ञानिक इरादतन रेडियो संकेतों की तलाश कर रहे हैं ताकि दूसरी सभ्यताओं के बारे में कोई सुराग हाथ लग जाए। अब दूसरी अर्धशती में प्रवेश करते हुए हमें अपनी रणनीति बदल देनी चाहिए। चुपचाप रेडियो संदेशों को सुनने के बजाए हमें बाहरी दुनिया की तरफ इरादतन सूचना प्रधान संदेश संप्रेषित करने चाहिए। दूसरे तारों के आवास योग्य क्षेत्रों में पृथ्वी जैसे ग्रह दिखने के बाद हमें संप्रेषण योजनाओं के लिए कुदरती लक्ष्य मिल गए हैं। वकोच ने कहा कि हमें कई वषों तक तारों के एक समूह विशेष लक्षित करना होगा।
नासा के केप्लर स्पेस टेलीस्कोप ने तारों के आवास योग्य क्षेत्रों में 3800 से अधिक ग्रहों का पता लगाया है। ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी के रिसर्चरों ने ताजा अध्ययन में पता लगाया है कि हमारी आकाशगंगा में अरबों ग्रहों पर परिस्थितियां पानी और जीवन के लिए अनुकूल हो सकती हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि नए खोजे गए ग्रहों की तरफ संकेत भेजना नई दुनिया से संपर्क करने का सबसे अच्छा तरीका हो सकता है। पारलौकिक जीवों को किस तरह के संदेश भेजे जाएं, इस पर वैज्ञानिकों की एक राय नहीं है। लोग एलियंस से क्या कहना चाहेंगे, यह जानने के लिए सेटी ने अर्थ स्पीक्स नामक एक साइट स्थापित की है। इस साइट पर लोगों से अंतर-नक्षत्रीय संदेशों का प्रारूप भेजने को कहा गया है। साइट पर भेजे गए संदेशों में पृथ्वी के ज्ञान को थोपने के बजाय मुख्य जोर एलियंस से मदद मांगने पर दिया गया। वकोच का कहना है कि मनुष्य ब्रह्मांडीय हीन भावना का शिकार है। वह यह मान कर चलता है कि पारलौकिक जीव तकनीकी दृष्टि से हम से ज्यादा उन्नत हैं और उनके समक्ष हम से सीखने के लिए कुछ भी नहीं है। सेटी के विशेषज्ञों का कहना है कि सरकारों को मिल कर परग्रही प्राणियों के लिए संदेश निर्धारित चाहिए। बुनियादी संदेश भेजने के लिए उपकरण पहले से मौजूद हैं और कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि संदेश भेजने की अनिच्छा के पीछे राजनीतिक कारण हैं। इसका तकनीक से कोई लेना देना नहीं है। वरिष्ठ खगोल वैज्ञानिक और सेटी रिसर्च सेंटर के निदेशक सेठ शोष्टक के अनुसार कुछ लोग एलियंस से संपर्क करने के विचार का विरोध कर रहे हैं। उन्हें डर है कि इससे खतरनाक पारलौकिक जातियां हमारी उपस्थिति के बारे में सचेत हो जाएंगी।
शोष्टक का कहना है कि संदेश भेजने मात्र से पृथ्वी के संकट में पड़ने की आशंका निराधार है। हम पिछले 70 सालों से अंतरिक्ष में अपने प्रसारण भेज रहे हैं। इनमे टेलीविजन, एफएम और रेडार संकेत शामिल हैं। पृथ्वी पर जीवन का अस्तित्व चार अरब साल से है और किसी ने भी अभी तक इसे नष्ट करने के बारे में नहीं सोचा। अत: हमें आशावादी होना चाहिए। दूसरी तरफ अमेरिकी वैज्ञानिक डेविड ब्रिन का मानना है कि पारलौकिक दुनिया से संपर्क करने की कोशिश एक बड़ी भूल होगी। उन्होंने कहा कि हम समस्त ब्रह्मांड की तकनीक संपन्न जातियों में सबसे युवा हैं। इसलिए हमें सजग रहना चाहिए।