Saturday 28 February 2015

वैज्ञानिक चेतना पैदा करने की जरुरत

शशांक द्विवेदी
LOKMAT
पिछले दिनों प्रसिद्ध वैज्ञानिक और भारत रत्न प्रोफेसर सी एन आर राव ने कहा था कि प्रधानमंत्री मोदी ने “विकास “ की बात तो बहुत की लेकिन “विज्ञान” और “उच्च शिक्षा “ के लिए कुछ खास नहीं किया। जबकि देश में शोध ,विज्ञान और उच्च शिक्षा के हालात बहुत खराब है । प्रधानमंत्री मोदी ने कई महत्वपूर्ण मंचों पर कहा और वादा भी किया कि सरकार देश में शोध का माहौल बनायेगी लेकिन सच बात तो यह है कि देश में विज्ञान के बुनियादी विकास के लिए कोई भी ठोस रणनीति नहीं बनाई गयी ना ही इसके लिए पिछले अंतरिम बजट में कोई बड़ा आवंटन किया गया । हाल में ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुंबई में 102वीं विज्ञान कांग्रेस का उद्धघाटन करते हुए कहा था कि वैज्ञानिकों को शोध के काम के लिए सरकार की ओर से फंड की कोई कमी नहीं होगी उन्‍होंने कहा कि विज्ञान के द्वारा ही आधुनिक भारत का सपना पूरा होगा
आज वित्त मंत्री अरुण जेटली देश का केंदीय बजट संसद में पेश करने वाले है ऐसे में ये देखना काफी दिलचस्प होगा कि नई सरकार ने शोध ,विज्ञान ,उच्च शिक्षा के लिए क्या दिया ?क्योंकि पिछले कई सालों से केंद्र सरकार द्वारा विज्ञान के लिए बजट में जीडीपी का दो प्रतिशत खर्च करने की बात की गयी लेकिन दिया कभी दिया नहीं गया । केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद पिछले साल जुलाई में अंतरिम बजट में भी “विज्ञान “ के लिए कुछ खास नही किया गया था । विज्ञान को  हमेशा उम्मीद से काफी कम बजट मिला । फिलहाल यह जीडीपी का लगभग 1 प्रतिशत है । एक तरफ प्रधानमंत्री मोदी देश में “मेक इन इंडिया “ की बात कर रहें है वही दूसरी तरफ देश में बुनियादी विज्ञान को बढ़ावा देने वाला कोई बड़ा कार्यक्रम सरकार के पास नहीं है ।
विज्ञान से होने वाले लाभों के प्रति समाज में जागरूकता लाने और वैज्ञानिक सोच पैदा करने के उद्देश्य से हर साल 28 फरवरी को भारत में राष्ट्रीय विज्ञान दिवस मनाया जाता है। लेकिन पिछले कुछ सालों से विज्ञान दिवस एक सरकारी रस्म अदायगी का कार्यक्रम बन कर रह गया है क्योंकि आज के इस आधुनिक युग में भी “विज्ञान “ आम आदमी से काफी दूर है हम अभी तक आम आदमी में वैज्ञानिक चेतना का विकास नहीं कर पायें है ,देश में अंधविश्वास का बोलबाला है देश के लगभग हर हिस्से में विशेषकर गाँव और कस्बों में अंधविश्वास की जड़ें काफी गहरी है जिन्हें उखाड़ फ़ेकने के लिए आज लोगों में वैज्ञानिक सोच पैदा करने की जरुरत है विज्ञान संचार की दिशा में केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को काफी काम करने की जरुरत है समाज के हर तबके तक विज्ञान और तकनीक की पहुंच होनी चाहिए डिजिटल कनेक्टिविटी एक मौलिक अधिकारबनना जरूरी है हर नागरिक को विज्ञान से जोड़ना आवश्‍यक है देश के विकास में विज्ञान का महत्वपूर्ण योगदान है। विज्ञान दुनिया को और करीब लाता है। विज्ञान से ही आधुनिक भारत का सपना पूरा होगा। देश में शोध और अनुसंधान का माहौल होगा तो “मेक इन इंडिया “ का सपना भी पूरा हो सकेगा और हम तकनीकी प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी पूरी तरह से आत्मनिर्भर हो सकेंगे विज्ञान में ही गरीबी और बेरोजगारी दूर करने का सामर्थ्य है. देश  की प्रगति एवं मानव विकास, विज्ञान तथा तकनीकी से जुड़ा हुआ है और आज चीन ने विश्‍व में दूसरी बड़ी अर्थव्‍यवस्‍था का जो दर्जा हासिल किया है वह उसके विज्ञान और तकनीकी गतिविधियों से ही संभव हुआ है।
विज्ञान ने आधुनिक भारत को बदलने में काफी मदद की है। जब भी विश्‍व ने हमारे लिए अपने दरवाजे बंद किए तो हमारे वैज्ञानिकों ने अनूठी पहल की और हमें नया रास्‍ता दिखाने की सफल कोशिश की पहले प्रयास में ही मंगल ग्रह पर पहुंचना हमारी बड़ी कामयाबी है अपनी उपलब्धियों पर हमें गर्व है लेकिन अभी कई चुनौतियों का सामना करना है भारत के फार्मास्‍यूटिकल उद्योग ने विश्‍व में अपनी पहचान इसलिए बनाई है क्‍योंकि उसने शोध के क्षेत्र में बहुत अधिक निवेश किया है।अभी कई दूसरे क्षेत्रों में भी निवेश बढ़ाने की जरुरत है जिससे वो अधिक गति से तरक्की कर सकें इसके लिए हमें विज्ञान एवं वैज्ञानिकों के गौरव और सम्मान को बहाल करना होगा साथ में ही  विज्ञान, प्रौद्योगिकी और नवाचार को राष्ट्रीय प्राथमिकताओं में शीर्ष पर रखना होगा
विज्ञान काँग्रेस ने प्रधानमंत्री मोदी ने साफ़ कहा कि  अनुसंधान करने की सहूलियत उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी कारोबार करने की सहूलियत और अनुसंधान में कभी भी पैसों की कमी नहीं होने दी जायेगी, सरकार का यह प्रयास होगाउन्होंने कहा, 'मैं चाहता हूं कि हमारे वैज्ञानिक और अनुसंधानकर्ता सरकारी प्रक्रियाओं की नहीं, विज्ञान की गुत्थियां सुलझाएं' उनका इशारा देश में वैज्ञानिक समुदाय द्वारा अनुसंधान के लिए धन मिलने में विलंब तथा वैश्विक सम्मेलनों में शामिल होने के लिए अनुमति प्रक्रिया में विलंब के बारे में की जाने वाली शिकायतों की ओर था यह एक अच्छा संकेत है कि देश के प्रधानमंत्री को विज्ञान के क्षेत्र की बुनियादी समस्याओं के बारें में ठीक तरह से पता है लेकिन अब केंद्र सरकार इनके समाधान के लिए क्या कदम उठाती है इसके लिए भविष्य का इंतजार करना होगा
आज जरुरत इस बात की भी है कि वैज्ञानिक ज्यादा उचित, प्रभावी टिकाउ एवं किफायती प्रौद्योगिकियां विकसित करने के लिए पारंपरिक स्थानीय ज्ञान का समावेश करें ताकि विकास एवं प्रगति में जबरदस्त योगदान मिल सकेजिससे विज्ञान, प्रौद्योगिकी और नवाचार के हाथ निर्धनतम, दूरस्थ स्थल पर रहने वाले एवं सर्वाधिक जरुरतमंद व्यक्ति तक पहुँच जाएँ  अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में आज भारत की गिनती अग्रणी देशों में होती है। विज्ञान के कई दूसरे क्षेत्रों में भी बहुत-सी भारतीय प्रतिभाएं सक्रिय हैं। लेकिन देश में विज्ञान की शिक्षा ,शोध और अनुसंधान की स्थिति ठीक नहीं है समाज में वैज्ञानिक चेतना और वैज्ञानिक नजरिए की व्यापक कमी दिख रही है इस बार खुद  विज्ञान कांग्रेस का आयोजन कई गलत कारणों से भी सुर्खियों में रहा जहाँ कुछ सत्रों में वैज्ञानिक तथ्यों के अलावा मिथकों या कहानियों  को महत्त्व दिया गया प्राचीन भारत के गौरव-गान के लिए बहुत कुछ है, पर मिथकों और रूपकों को विज्ञान साबित करने की कोशिश से न तो उनका अर्थ और संदेश बचा रह सकता है न ही विज्ञान की समझ विकसित हो सकती है। फिलहाल विज्ञान की चर्चा अक्सर बड़ी वैज्ञानिक उपलब्धियों के नजदीक सिमट कर रह जाती है। मगर आज सबसे ज्यादा जरुरत इस बात की है कि देश में विज्ञान की शिक्षा की स्थिति कैसे सुधरे, और दूसरे, जन-समस्याओं के निराकरण में विज्ञान का उपयोग कैसे बढ़ाया जाए। देश में विज्ञान की शिक्षा के लिए स्कूली स्तर पर प्रयोगशालाओं की भारी कमी है। समझने और प्रयोग करके सीखने के बजाय विद्यार्थियों को तथ्य रटना पड़ता है जो कि ठीक नहीं है स्कूल के बाद विश्वविद्यालय स्तर पर भी विज्ञान शिक्षा के बुनियादी हालात ठीक नहीं है जिन पर तत्काल ध्यान देने की जरुरत है । आज जरुरत है विज्ञान के विषय में गंभीरता से एक राष्ट्रीय नीति बनाने की और उस पर संजीदगी से अमल करने की सिर्फ बातें करने और घोषणाओं से कुछ हासिल नहीं होने वाला । बहरहाल प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री को अपने वादे पर अमल करते हुए केंद्रीय बजट में विज्ञान और अनुसंधान के लिए और अधिक धनराशि स्वीकृत करनी चाहिए जिससे देश में वैज्ञानिक अनुसंधान में धन की कमी आड़े न आये और देश में वैज्ञानिक शोध और आविष्कार का एक सकारात्मक माहौल बने । 

आम आदमी को विज्ञान से जोड़ना होगा

राष्ट्रीय विज्ञान दिवस पर विशेष
dainik Jagran
शशांक द्विवेदी
देश में वैज्ञानिक चेतना पैदा करने के उद्देश्य से हर साल 28 फरवरी को भारत में राष्ट्रीय विज्ञान दिवस मनाया जाता है। लेकिन पिछले कुछ सालों से विज्ञान दिवस एक सरकारी रस्म अदायगी का कार्यक्रम बन कर रह गया है क्योंकि आज के इस आधुनिक युग में भी “विज्ञान “ आम आदमी से काफी दूर है हम अभी तक आम आदमी में वैज्ञानिक चेतना का विकास नहीं कर पायें है ,देश में अंधविश्वास का बोलबाला है देश के लगभग हर हिस्से में विशेषकर गाँव और कस्बों में अंधविश्वास की जड़ें काफी गहरी है जिन्हें उखाड़ फ़ेकने के लिए आज लोगों में वैज्ञानिक सोच पैदा करने की जरुरत है विज्ञान संचार की दिशा में केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को काफी काम करने की जरुरत है समाज के हर तबके तक विज्ञान और तकनीक की पहुंच होनी चाहिए डिजिटल कनेक्टिविटी एक मौलिक अधिकार बनना जरूरी है हर नागरिक को विज्ञान से जोड़ना आवश्‍यक है देश के विकास में विज्ञान का महत्वपूर्ण योगदान है। विज्ञान दुनिया को और करीब लाता है। विज्ञान से ही आधुनिक भारत का सपना पूरा होगा। देश में शोध और अनुसंधान का माहौल होगा तो प्रधानमंत्री मोदी का “मेक इन इंडिया “ का सपना भी पूरा हो सकेगा और हम तकनीकी प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी पूरी तरह से आत्मनिर्भर हो सकेंगे विज्ञान में ही गरीबी और बेरोजगारी दूर करने का सामर्थ्य है देश  की प्रगति एवं मानव विकास, विज्ञान तथा तकनीकी से जुड़ा हुआ है और आज चीन ने विश्‍व में दूसरी बड़ी अर्थव्‍यवस्‍था का जो दर्जा हासिल किया है वह उसके विज्ञान और तकनीकी गतिविधियों से ही संभव हुआ है।
विज्ञान ने आधुनिक भारत को बदलने में काफी मदद की है। जब भी विश्‍व ने हमारे लिए अपने दरवाजे बंद किए तो हमारे वैज्ञानिकों ने अनूठी पहल की और हमें नया रास्‍ता दिखाने की सफल कोशिश की पहले प्रयास में ही मंगल ग्रह पर पहुंचना हमारी बड़ी कामयाबी है अपनी उपलब्धियों पर हमें गर्व है लेकिन अभी कई चुनौतियों का सामना करना है भारत के फार्मास्‍यूटिकल उद्योग ने विश्‍व में अपनी पहचान इसलिए बनाई है क्‍योंकि उसने शोध के क्षेत्र में बहुत अधिक निवेश किया है।अभी कई दूसरे क्षेत्रों में भी निवेश बढ़ाने की जरुरत है जिससे वो अधिक गति से तरक्की कर सकें इसके लिए हमें विज्ञान एवं वैज्ञानिकों के गौरव और सम्मान को बहाल करना होगा साथ में ही  विज्ञान, प्रौद्योगिकी और नवाचार को राष्ट्रीय प्राथमिकताओं में शीर्ष पर रखना होगा
पिछले दिनों मुंबई में हुई 102वीं विज्ञान काँग्रेस ने प्रधानमंत्री मोदी ने साफ़ कहा कि  अनुसंधान करने की सहूलियत उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी कारोबार करने की सहूलियत और अनुसंधान में कभी भी पैसों की कमी नहीं होने दी जायेगी, सरकार का यह प्रयास होगाउन्होंने कहा, 'मैं चाहता हूं कि हमारे वैज्ञानिक और अनुसंधानकर्ता सरकारी प्रक्रियाओं की नहीं, विज्ञान की गुत्थियां सुलझाएं' उनका इशारा देश में वैज्ञानिक समुदाय द्वारा अनुसंधान के लिए धन मिलने में विलंब तथा वैश्विक सम्मेलनों में शामिल होने के लिए अनुमति प्रक्रिया में विलंब के बारे में की जाने वाली शिकायतों की ओर था यह एक अच्छा संकेत है कि देश के प्रधानमंत्री को विज्ञान के क्षेत्र की बुनियादी समस्याओं के बारें में ठीक तरह से पता है लेकिन अब केंद्र सरकार इनके समाधान के लिए क्या कदम उठाती है इसके लिए भविष्य का इंतजार करना होगा

आज जरुरत इस बात की भी है कि वैज्ञानिक अपने आविष्कार के माध्यम से प्रयोगशाला से बाहर निकलकर सीधे आम आदमी से जुड सकें ,उनकी समस्याओं के समाधान के लिए नयें तरीके ईजाद कर सकें, उनसे संवाद स्थापित कर सकें जिससे विज्ञान और तकनीक का सीधा लाभ गरीब से गरीब और जरूरतमंद व्यक्ति को मिल सके अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में आज भारत की गिनती अग्रणी देशों में होती है। विज्ञान के कई दूसरे क्षेत्रों में भी बहुत-सी भारतीय प्रतिभाएं सक्रिय हैं। लेकिन देश में विज्ञान की शिक्षा ,शोध और अनुसंधान की स्थिति ठीक नहीं है समाज में वैज्ञानिक चेतना और वैज्ञानिक नजरिए की व्यापक कमी दिख रही है इस बार खुद  विज्ञान कांग्रेस का आयोजन कई गलत कारणों से भी सुर्खियों में रहा जहाँ कुछ सत्रों में वैज्ञानिक तथ्यों के अलावा मिथकों या कहानियों  को महत्त्व दिया गया प्राचीन भारत के गौरव-गान के लिए बहुत कुछ है, पर मिथकों और रूपकों को विज्ञान साबित करने की कोशिश से न तो उनका अर्थ और संदेश बचा रह सकता है न ही विज्ञान की समझ विकसित हो सकती है। फिलहाल विज्ञान की चर्चा अक्सर बड़ी वैज्ञानिक उपलब्धियों के नजदीक सिमट कर रह जाती है। मगर आज सबसे ज्यादा जरुरत इस बात की है कि देश में विज्ञान की शिक्षा की स्थिति कैसे सुधरे, और दूसरे, जन-समस्याओं के निराकरण में विज्ञान का उपयोग कैसे बढ़ाया जाए। देश में विज्ञान की शिक्षा के लिए स्कूली स्तर पर प्रयोगशालाओं की भारी कमी है। समझने और प्रयोग करके सीखने के बजाय विद्यार्थियों को तथ्य रटना पड़ता है जो कि ठीक नहीं है स्कूल के बाद विश्वविद्यालय स्तर पर भी विज्ञान शिक्षा के बुनियादी हालात ठीक नहीं है जिन पर तत्काल ध्यान देने की जरुरत है । आज जरुरत है विज्ञान के विषय में गंभीरता से एक राष्ट्रीय नीति बनाने की और उस पर संजीदगी से अमल करने की सिर्फ बातें करने और घोषणाओं से कुछ हासिल नहीं होने वाला ।

Monday 9 February 2015

आइवीएफ पर विवाद

ब्रिटेन में विवादास्पद आइवीएफ तकनीक को मंजूरी
इस तकनीक का मकसद बचपन की आनुवंशिक बीमारियों से छुटकारा दिलाना है, लेकिन भविष्य में इसका दुरुपयोग भी हो सकता है .
ब्रिटेन में हाउस ऑफ कॉमंस ने भारी मतों से विवादास्पद आइवीएफ यानी परखनली तकनीक को मंजूरी दे दी है जिससे तीन लोगों के डीएनए से भ्रूण उत्पन्न पैदा किए जा सकेंगे। नई आइवीएफ तकनीक से पहला आइवीएफ शिशु अगले वर्ष जन्म ले सकता है। दुनिया में दूसरे देशों के विशेषज्ञों ने विवादास्पद तकनीक को मंजूरी दिए जाने पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। उनका कहना है कि ब्रिटेन मानव निषेचन और भ्रूण विज्ञान कानून में संशोधन करके बहुत बड़ी गलती करेगा। इस बारे में 44 ब्रिटिश सांसदों का मानना है कि इस तकनीक से यूरोपीय कानूनों का उल्लंघन होता है। कई लोगों ने इस तकनीक की नैतिकता पर सवाल उठाए हैं। इस तकनीक के कुछ अन्य आलोचकों का कहना है कि इससे बच्चों में अज्ञात स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का खतरा बढ़ जाएगा। ब्रिटिश हाउस ऑफ लॉर्डस में अगले महीने इस मुद्दे पर चर्चा होगी और वहां संशोधन के ठुकराए जाने की संभावना बहुत कम है। नया कानून इसी साल अक्टूबर में लागू हो जाएगा। इसके तुरंत बाद मानव परीक्षण शुरू हो जाएंगे। इस तकनीक के पक्षधरों का कहना है कि नए इलाज से ब्रिटेन में 2,500 महिलाओं को लाभ होगा।
इस तकनीक का असली मकसद बचपन की आनुवंशिक बीमारियों से छुटकारा दिलाना है, लेकिन भविष्य में मनचाहे गुणों वाली संतान अथवा डिजाइनर बेबी पैदा करने के लिए इस तकनीक का दुरुपयोग भी हो सकता है। यह तकनीक दरअसल जर्मलाइन जीन थिरैपी का एक रूप है जिसमें एक परिवार में होने वाली संतानों को वंशानुगत बीमारियों से निजात दिलाने के लिए उनके डीएनए को बदल दिया जाता है। हमारी कोशिकाओं में पाए जाने वाले माइटोकांडिया में आनुवंशिक गड़बड़ियों से करीब 6,500 लोगों में से एक व्यक्ति प्रभावित होता है। माइटोकांडिया के विकारों का इस समय कोई इलाज नहीं है। इन्हें मां से शिशुओं में फैलने से रोकने का भी कोई तरीका नहीं है। माइटोकांडिया दरअसल हमारी कोशिका का सूक्ष्म बिजलीघर है। माइटोकांडिया में 37 जीन होते है। ये जीन हमारी कोशिकाओं की ऊर्जा आपूर्ति के लिए जरूरी होते हैं। हमारे डीएनए का एक बहुत बड़ा हिस्सा कोशिका के नाभिक में होता है। हमारे शरीर को रूप और आकार देने वाले जीन इसी डीएनए में होते हैं। ब्रिटेन की न्यूकैसल यूनिवर्सिटी के रिसर्चरों द्वारा विकसित इस तकनीक को माइटोकांडियल ट्रांसफर भी कहा जाता है। इस विधि में एक स्वस्थ महिला डोनर के डीएनए का इस्तेमाल किया जाता है। इसका उद्देश्य माताओं द्वारा बच्चों में आनुवंशिक बीमारियों के प्रसार को रोकना है। इन बीमारियों में मस्कुलर डिस्ट्रोफी यानी मांसपेशियों का क्षय तथा हृदय और लीवर की बीमारियां शामिल हैं। ज्यादातर बच्चों में यह बीमारी हलके रूप में प्रकट होती है लेकिन साल में जन्म लेने वाले पांच से दस बच्चे माइटोकांडिया रोग के उग्र रूप से प्रभावित होते हैं। नई तकनीक से ऐसे बच्चों का जीवन सुधारा जा सकता है। इस विधि में आनुवंशिक विकारों वाली महिला की अंडाणु कोशिका की आनुवंशिक सामग्री को एक स्वस्थ महिला के अंडाणु में हस्तांतरित कर दिया जाता है ताकि उसके माइटोकांडिया का डीएनए आइवीएफ शिशु में पहुंच सके। इसका अर्थ यह हुआ कि शिशु को तीन अभिभावकों यानी माता-पिता और डोनर महिला से से डीएनए मिलेगा, लेकिन वैज्ञानिकों का कहना है कि शिशु को डोनर से सिर्फ 0.1 फीसद डीएनए ही मिलेगा।
कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि अभी माइटोकांडिया को हम ठीक से समझ नहीं पाए हैं। उसके डीएनए से व्यक्ति के गुणों पर असर पड़ सकता है। इसलिए नई तकनीक को मंजूरी देने से पहले माइटोकांडिया को ठीक से समझना जरूरी है। इस तकनीक से जन्म लेने वाली लड़कियों की भावी संतानें आगे की पीढ़ियों में भी माइटोकांडिया के परिवर्तनों को जारी रखेंगी।


Wednesday 4 February 2015

सामरिक क्षेत्र में एक बड़ी कामयाबी


शशांक द्विवेदी 
रक्षा क्षेत्र में एक बड़ी कामयाबी हासिल करते हुए भारत ने अपनी सबसे ताकतवर परमाणु मिसाइल अग्नि-5 का ओडिशा के बालासोर तट से सफल परीक्षण कर लिया । अग्नि-5 का यह तीसरा सफल परीक्षण है । देश में तैयार किया गया अग्नि-5 भारत का पहला अंतर-महाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल है, जो 5000 किलोमीटर की दूरी तक मार करने में सक्षम है। अग्नि-5 की जद में आने वाले यूरोप के कई देशों के अलावा चीन भी शामिल है।अमेरिका, रूस, फ्रांस और चीन के बाद भारत दुनिया का पांचवां ऐसा देश है, जिसके पास अंतर महाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल है। डीआरडीओ ने 4 साल में इस मिसाइल को तैयार किया जिसे बनाने में करीब 50 करोड़ रुपये की लागत आई है। इस मिसाइल का वजन 50 टन और इसकी लंबाई 17.5 मीटर है।यह एक टन का परमाणु हथियार ले जाने में सक्षम है और 20 मिनट में 5000 किमी की दूरी तय कर सकती है। अग्नि-5 दुश्मनों के सैटेलाइट नष्ट करने में भी उपयोगी है  और इसके लॉचिंग सिस्टम में कैनिस्टर तकनीक का इस्तेमाल किया गया है। जिस वजह से इस मिसाइल को कहीं भी बड़ी आसानी से ट्रांसपोर्ट किया जा सकता है। इसे सड़क से भी लांच किया जा सकता है।
रक्षा अनुसंधान व विकास संगठन के अनुसार यह मिसाइल सभी पैमानों पर खरा उतरी है। अस्सी फीसद से ज्यादा स्वदेशी उपकरणों से बनी इस मिसाइल ने भारत को नाभिकीय बम के साथ सुदूर लक्ष्य पर सटीक वार करने वाली अतिजटिल तकनीक का रणनीतिक रक्षा कवच दिया है। इसके जरिए भारत अपने किसी भी हमलावर को भरोसेमंद पलटवार क्षमता के साथ मुंहतोड़ जवाब दे सकता है। वास्तव में ये भारत के इतिहास की सबसे बड़ी सामरिक उपलब्धि है क्योंकि इस कामयाबी में स्वदेशी तकनीक  के साथ साथ आत्मनिर्भरता की तरफ बढ़ते कदम की भी पुष्टि होती है । अगर सकारात्मक सोच और ठोस रणनीति के साथ हम लगातार  अपनी रक्षा जरूरतों को पूरा करने की दिशा में हम कदम बढ़ाते  रहें है तो वो दिन दूर नहीँ जब हम खुद अपने नीति नियंता बन जायेगे और हमें किसी तकनीक,हथियार और उपकरण  के लिए दूसरों पर निर्भर  नहीं रहना पड़ेगा ।
अत्याधुनिक तकनीक का इस्तेमाल
अग्नि-5 तीन स्तरीय, पूरी तरह से ठोस ईंधन पर आधारित तथा 17.5 मीटर लंबी मिसाइल है जो विभिन्न तरह के उपकरणों को ले जाने में सक्षम है। इसमें मल्टीपल इंडीपेंडेंटली टागेटेबल रीएंट्री व्हीकल (एमआरटीआरवी) भी विकसित किया जा चुका है। यह दुनिया के कोने-कोने तक मार करने की ताकत रखता है तथा देश का पहला कैनिस्टर्ड मिसाइल है। जिससे इस मिसाइल को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना सरल होगा ।
अग्नि-पांच को अचूक बनाने के लिए भारत ने माइक्रो नेवीगेशन सिस्टम, कार्बन कंपोजिट मैटेरियल से लेकर कंप्यूटर व सॉफ्टवेयर तक ज्यादातर चीजें स्वदेशी तकनीक से विकसित कीं। अग्नि-5 का प्रयोग छोटे सेटेलाइट लांच करने और दुश्मनों के सेटेलाइट नष्ट करने में भी किया जा सकता है। एक बार इसे दागने के बाद रोकना मुश्किल है। इसकी रफ्तार गोली से भी ज्यादा तेज है और यह 1 टन परमाणु हथियार ले जाने में सक्षम है।
भारत के लिए बहुत महत्वपूर्ण
आज के इस तकनीकी युग  में हजारों किलोमीटर दूर तक मार करने वाली बैलिस्टिक मिसाइलों की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका होगी। क्योंकि  जिस तरह से चीन एशिया  में लगातार अपनी सैन्य ताकत को बढ़ा रहा है ऐसे में भारत को  भी अपनी सैन्य क्षमता को बढ़ाते हुए उसे अत्याधुनिक तकनीक से लैस करते जाना होगा । तभी देश बदलते समय के साथ विश्व में अपनी मजबूत सैन्य उपस्थिति दर्ज करा सकेगा ।
जमीन और  सीमा विवाद को लेकर जिस तरह चीन भारत को लगातार चुनौती दे रहा है और कट्टरपंथी ताकतों को बढ़ावा देकर पकिस्तान अपने सामरिक हित पूरा  कर रहा ऐसे में देश के पास लंबी दूरी की अग्नि-5 जैसी  बैलेस्टिक मिसाइलों का होना बेहद जरूरी है । देश की रक्षा जरूरतों को देखते  हुए अग्नि -5 का परीक्षण  काफी जरूरी हो गया था क्योंकि पड़ोस में चीन के पास बैलिस्टिक मिसाइलों का अंबार लगा हुआ है जिससे एक सैन्य असंतुलन पैदा हो गया था । चीन ने दो साल पहले ही 12 हजार किलोमीटर दूर तक मार करने वाली तुंगफंग-31 ए बैलिस्टिक मिसाइलों का विकास कर लिया है । लेकिन अब अग्नि 5 के सफल परिक्षण से कोई दुश्मन देश हम पर हावी नहीं हो सकेगा ।
आत्मनिर्भरता ही एक मात्र विकल्प
अग्नि-5  की सफलता ने भारत की सामरिक प्रतिरोधक क्षमता की पुष्टि कर दी है और डीआरडीओ ने अपनी ख्याति और क्षमताओं के अनुरूप ही अग्नि 5  को आधुनिक तकनीक के साथ विकसित किया है । लेकिन देश की रक्षा प्रणाली में आत्मनिर्भरता और रक्षा जरूरतों को समय पर पूरा करने की जिम्मेदारी सिर्फ डीआरडीओ की ही नहीं होनी चाहिए बल्कि आत्म निर्भरता संबंधी जिम्मेदारी’  रक्षा मंत्रालय से जुड़े सभी पक्षों की होनी चाहिए। देश में स्वदेशी रक्षा प्रौद्योगिकी को बड़े पैमाने पर विकसित करने की जरुरत है और इस दिशा में जो भी समस्याएं है उन्हें सरकार द्वारा अबिलम्ब दूर करना होगा तभी सही मायनों में हम विकसित राष्ट्र का अपना सपना पूरा कर पायेगे । सरकार को यह महसूस करना चाहिए कि अत्याधुनिक आयातित प्रणाली भले ही बहुत अच्छी हो लेकिन कोई भी विदेशी प्रणाली लंबे समय तक अपनी रक्षा जरूरतों को पूरा नहीं कर सकती। सैन्य तकनीकों और हथियार उत्पादन में आत्मनिर्भरता देश की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए बहुत जरुरी है । इसके साथ ही  भारत को हथियारों के आयात की प्रवृत्ति पर रोक लगानी चाहिए।
अगर हम एक विकसित देश बनने की इच्छा रखते हैं तो  आतंरिक और बाहरी चुनौतियों से निपटने के लिए हमें दूरगामी रणनीति बनानी पड़ेगी । क्योंकि भारत  पिछले छह दशक के दौरान अपनी अधिकांश सुरक्षा जरूरतों की पूर्ति दूसरे देशों से हथियारों को खरीदकर कर रहा है । वर्तमान में हम अपनी सैन्य जरूरतों का 70 फीसदी हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर आयात कर रहे हैं।
रक्षा  जरूरतों के लिए भारत का दूसरों पर निर्भर रहना कई मायनों में खराब है एक तो यह कि अधिकतर दूसरे देश भारत को पुरानी रक्षा प्रौद्योगिकी ही देने को राजी है, और वह भी ऐसी शर्ताे पर जिन्हें स्वाभिमानी राष्ट्र कतई स्वीकार नहीं कर सकता। वास्तव में स्वदेशी व आत्मनिर्भरता का कोई विकल्प नहीं है।
पिछले वर्षों में सैन्य  हथियारों ,उपकरणों की कीमत दोगुनी कर देने, पुराने विमान, हथियार व उपकरणों के उच्चीकरण के लिए मुंहमांगी कीमत वसूलने और सौदे में मूल प्रस्ताव से हट कर और कीमत मांगने के कई केस देश के सामने आ चुके है । वहीं अमेरिका रणनीतिक रक्षा प्रौद्योगिकी में भारत को भागीदार नहीं बनाना चाहता । अमेरिका भारत को हथियार व उपकरण तो दे रहा है पर उनका हमलावर इस्तेमाल न करने व कभी भी इस्तेमाल की जांच के लिए अपने प्रतिनिधि  भेजने जैसी शर्मनाक शर्ते भी लगा रहा है। आयातित टैक्नोलाजी पर हम  ब्लैकमेल का शिकार भी हो सकते  है। वर्तमान  हालात ऐसे हैं कि हमें बहुत मजबूती के साथ आत्मनिर्भर होने की जरूरत है। वर्तमान समय में भारत दुनिया का सबसे बड़ा हथियार आयातक देश बनता जा रहा है। रक्षा मामले में आत्मनिर्भर बनने की तरफ मजबूती से कदम उठाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है ।
कामयाबी के साथ चुनौतियाँ भी

अग्नि 5 के सफल परीक्षण के बाद रक्षा वैज्ञानिकों को दुश्मन मिसाइल को मार गिराने वाली इंटरसेप्टर मिसाइल और मिसाइल डिफेंस सिस्टम पर अधिक काम करने की जरुरत है । क्योंकि अमेरिका, रूस, फ्रांस, चीन जैसे देश इस सिस्टम को विकसित कर चुके हैं । मिसाइल डिफेंस सिस्टम के तहत दुश्मन देश के द्वारा दागी गई मिसाइल को हवा में ही नष्ट कर दिया जाता है । इस कामयाबी के साथ ही हमारी चुनातियाँ भी अधिक बढ़ गई है क्योंकि अब चीन और पाकिस्तान इसका जवाब देने के लिए हथियारों और उपकरणों की होड़ में शामिल हो जायेगें इसलिए हमें सतर्क रहते हुए अपने रक्षा कार्यक्रमों को मजबूत करते जाना होगा । इस कामयाबी को आगे बढ़ाते हुए हमें अपनी सैन्य क्षमताओ को स्वदेशी तकनीक से अत्याधुनिक बनाना है जिससे कोई भी दुश्मन देश हमारी तरफ देखने से पहले सौ बार सोचे ।

बढ़ता प्रदूषण और घटती पैदावार

शशांक द्विवेदी 
प्रकाशन विभाग भारत सरकार की प्रमुख पत्रिका "योजना" के जनवरी अंक में प्रकाशित शशांक द्विवेदी का लेख 
 अंग्रेजी भाषा में स्वच्छता को सैनिटेशन कहते है जबकि हिंदी भाषा में स्वच्छता का अर्थ बहुत व्यापक संदर्भो में है यहाँ स्वच्छता का मतलब भूमि ,वायु और जल तीनों से है । स्वच्छ वातावरण के लिए भूमि ,वायु और जल तीनों स्वच्छ होने चाहिए । लेकिन दुर्भाग्यवश भारत में ये तीनों ही प्रदूषण का शिकार हो रहें है जिसका सीधा असर हम सब पर पड़ रहा है । 
 हाल में ही पर्यावरण और वायु प्रदूषण का भारतीय कृषि पर प्रभाव शीर्षक से प्रोसिडिंग्स ऑफ नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस में प्रकाशित एक शोध पत्र के नतीजों ने  सरकार ,कृषि विशेषज्ञों और पर्यावरणविदों की चिंता बढ़ा दी है । शोध के अनुसार भारत के अनाज उत्पादन में वायु प्रदूषण का सीधा और नकारात्मक असर देखने को मिल रहा है। देश  में धुएं में बढ़ोतरी की वजह से अनाज के लक्षित उत्पादन में कमी देखी जा रही है। करीब 30 सालों के आंकड़े का विश्लेषण करते हुए वैज्ञानिकों ने एक ऐसा सांख्यिकीय मॉडल विकसित किया जिससे यह अंदाजा मिलता है कि घनी आबादी वाले राज्यों में वर्ष 2010 के मुकाबले वायु प्रदूषण की वजह से गेहूं की पैदावार 50 फीसदी से कम रही। खाद्य उत्पादन में करीब 90 फीसदी की कमी धुएं की वजह से देखी गई जो कोयला और दूसरे प्रदूषक  तत्वों की वजह से हुआ।भूमंडलीय तापमान वृद्धि और वर्षा के स्तर की भी 10 फीसदी बदलाव में अहम भूमिका है। कैलिफॉर्निया विश्वविद्यालय में वैज्ञानिक और शोध की लेखिका जेनिफर बर्नी के अनुसार ये आंकड़े चैंकाने वाले हैं हालांकि इसमें बदलाव संभव है। वह कहती हैं, हमें उम्मीद है कि हमारे शोध से वायु प्रदूषण को कम करने के संभावित फायदों के लिए कोशिश की जाएगी। असल में जब भी सरकार वायु प्रदूषण या इसकी लागत पर कोई चर्चा करती है और इसे रोकने के लिए नए कानून बनाने की बात करती है तब कृषि क्षेत्र पर विचार नहीं किया जाता है। 
पिछले दिनों  संयुक्त राष्ट्र में जलवायु परिवर्तन के लिए बने अंतर सरकारी पैनल(आइपीसीसी)  रिपोर्ट में भी इसी तरह की चेतावनी दी गई थी । ‘जलवायु परिवर्तन 2014- प्रभाव, अनुकूलन और जोखिम’ शीर्षक से जारी इस रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन का प्रभाव पहले से ही सभी महाद्वीपों और महासागरों में विस्तृत रूप ले चुका है। रिपोर्ट के अनुसार जलवायु गड़बड़ी के कारण एशिया को बाढ़, गर्मी के कारण मृत्यु, सूखा तथा पानी से संबंधित खाद्य की कमी का सामना करना पड़ सकता है। कृषि आधारित अर्थव्यवस्था वाले भारत जैसे देश जो केवल मानसून पर ही निर्भर हैं, के लिए यह काफी खतरनाक हो सकता है। जलवायु परिवर्तन की वजह से दक्षिण एशिया में गेहूं की पैदावार पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। वैश्विक खाद्य उत्पादन धीरे-धीरे घट रहा है। एशिया में तटीय और शहरी इलाकों में बाढ़ की वृद्धि से बुनियादी ढांचे, आजीविका और बस्तियों को काफी नुकसान हो सकता है। ऐसे में मुंबई, कोलकाता, ढाका जैसे शहरों पर खतरे की संभावना बढ़ सकती है।

इस रिपोर्ट के आने के बाद अब यह स्पष्ट है कि कोयला और उच्च कार्बन उत्सर्जन से भारत के विकास और अर्थव्यवस्था पर धीरे-धीरे खराब प्रभाव पड़ेगा और देश में जीवन स्तर सुधारने में प्राप्त उपलब्धियां नकार दी जाएंगी। वैश्विक उदारीकरण के बाद अगर किसी क्षेत्र को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है तो वह खेती ही है। दुनिया में सबसे तेज गति के साथ उभर रही अर्थव्यवस्थाओं में भारत का दूसरा स्थान है। इसके बावजूद कृषि क्षेत्र की विकास दर महज 2012 -2013 में 1.8 फीसद पर सिमट गई है (देखें बाक्स एक में ) । यहाँ तक की राष्ट्रीय आय में कृषि की हिस्सेदारी भी साल दर साल घटती चली जा रही है. (देखें चित्र बाक्स दो में ) 
  
हाल ही में महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में करीब 12 लाख हेक्टेयर में हुई ओला वृष्टि से गेहूं, कॉटन, ज्वार, प्याज जैसी फसल खराब हो गई थी। ये घटनाएं भी आइपीसीसी की अनियमित वर्षा पैटर्न को लेकर की गई भविष्यवाणी की तरफ ही इशारा कर रही हैं। जलवायु परिवर्तन आदमी की सुरक्षा के लिए खतरा है क्योंकि इससे खराब हुए भोजन-पानी का खतरा बढ़ जाता है जिससे अप्रत्यक्ष रूप से विस्थापन और हिंसक संघर्ष का जोखिम बढ़ता है। आइपीसीसी ने इससे पहले भी समग्र वर्षा में कमी तथा चरम मौसम की घटनाओं में वृद्धि की भविष्यवाणी की थी। इस रिपोर्ट में भी गेहूं के ऊपर खराब प्रभाव पड़ने की भविष्यवाणी की गई है।
इसलिए भारत सरकार को इस समस्या से उबरने के लिए सकारात्मक कदम उठाने होंगे। तेल रिसाव और कोयला आधारित पावर प्लांट, सामूहिक विनाश के हथियार हैं। इनसे खतरनाक कार्बन उत्सर्जन का खतरा होता है। हमारी शांति और सुरक्षा के लिए हमें इन्हें हटाकर अक्षय ऊर्जा की तरफ कदम बढ़ाना, अब हमारी जरूरत और मजबूरी दोनों बन गया है। सरकार को तुरंत ही इस पर कार्रवाई करते हुए स्वच्छ ऊर्जा संक्रमण से जुड़ी योजनाओं को लाना चाहिए। 
देश में हर जगह, हर तरफ, हर सरकार ,हर पार्टी विकास की बातें करती है लेकिन ऐसे विकास का क्या फायदा जो लगातार विनाश को आमंत्रित करता है। ऐसे विकास को क्या कहें जिसकी वजह से संपूर्ण मानवता का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया हो। पिछले दिनों पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने जलवायु परिवर्तन पर इंडियन नेटवर्क फॉर क्लाइमेट चेंज असेसमेंट की रिपोर्ट जारी करते हुए चेताया है कि यदि पृथ्वी के औसत तापमान का बढ़ना इसी प्रकार जारी रहा तो अगामी वर्षों में भारत को इसके दुष्परिणाम झेलने होंगे।इसका सीधा असर देश की कृषि व्यवस्था पर भी पड़ेगा ।
जिस तरह मौसम परिवर्तन दुनिया में भोजन पैदावार और आर्थिक समृद्धि को प्रभावित कर रहा है, आने वाले समय में जिंदा रहने के लिए जरूरी चीजें इतनी महंगी हो जाएंगी कि उससे देशों के बीच युद्ध जैसे हालात पैदा हो जाएंगे । यह खतरा उन देशों में ज्यादा होगा जहां कृषि आधारित अर्थव्यवस्था है। पर्यावरण का सवाल जब तक तापमान में बढ़ोतरी से मानवता के भविष्य पर आने वाले खतरों तक सीमित रहा, तब तक विकासशील देशों का इसकी ओर उतना ध्यान नहीं गया। परन्तु अब जलवायु चक्र का खतरा खाद्यान्न उत्पादन को प्रभावित कर रहा है, किसान यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि कब बुवाई करें और कब फसल काटें । तापमान में बढ़ोतरी जारी रही तो खाद्य उत्पादन 40 प्रतिशत तक घट जाएगा, इससे पूरे विश्व में खाद्यान्नों की भारी कमी हो जाएगी। ऐसी स्थिति विश्व युद्ध से कम खतरनाक नहीं होगी। 
मौसम का बिगड़ा मिजाज 
दुनिया भर में मौसम का मिजाज बिगड़ा हुआ है।  औद्योगिक क्रांति के दुष्परिणामस्वरूप दुनिया भर के लोग प्रकति का कहर झेलने को मजबूर हैं। 22 साल पहले 1992 में यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन अन क्लाइमेट चेंज बना था। तभी से जलवायु परिवर्तन से निपटने के उपायों पर चर्चा शुरू हुई, लेकिन अब तक हम इन खतरों से निपटने के लिए कोई ठोस रणनीति पर क्रियान्वयन शुरू नहीं हो पाया है। जो भी निर्णय हुए, केवल सैद्धांतिक स्तर पर ही टिके हैं। उनका जमीनी धरातल पर उतरना बाकी है। अनुसंधानकत्र्ताओं ने आगाह किया है कि वायु में बढ़ती कार्बन डाईअक्साइड तथा परमाणु विस्फोटों से होने वाले विकिरण के उच्चतम तापक्रम की रोकथाम की व्यवस्था शीघ्रातिशीघ्र होनी चाहिए अन्यथा विनाश तय है। 

नेचर क्लाइमेट चेंज एंड अर्थ सिस्टम साइंस डाटा जर्नल में प्रकाशित  एक रिपोर्ट के अनुसार इस साल के दौरान चीन, अमेरिका और यूरोपीय संघ के वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में क्रम से 28 ,16 और 11 फीसद की हिस्सेदारी है जबकि भारत का आंकड़ा सात फीसद है। इसमें बताया गया है कि प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन के मामले में भारत की हिस्सेदारी 1.8 टन है जबकि अमेरिका, यूरोपीय संघ और चीन की प्रति व्यक्ति हिस्सेदारी क्रम से 17.2 टन, 7.3 और 6.6 टन है।यह रिपोर्ट ब्रिटेन के ईस्ट एंजलिया विश्वविद्यालय के ग्लोबल कार्बन परियोजना द्वारा किये गये एक अध्ययन पर आधारित है । पिछले कई सालों से क्योटो प्रोटोकॉल की धज्जियां उड़ाई गई हैं। कार्बन उत्सर्जन पर काबू पाने  के लिए विकसित और विकासशील देशों के बीच अभी तक सहमति नहीं बन पाई है । विकसित देश अपनी जिम्मेदारी विकासशील देशों पर थोपना चाहते हैं। जबकि कार्बन उत्सर्जन के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार वही है ।
ज्याफिजिकल रिसर्च लेटर्स नामक शोध- पत्रिका में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार धरती का तापमान लगातार बढ़ने के कारण ही अंटार्कटिका और ग्रीनलैंड के बाद विश्व में बर्फ के तीसरे सबसे बड़े भंडार माने जाने वाले कनाडा के ग्लेशियरों पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। अगर यही हाल रहा तो इन ग्लेशियरों के पिघलने से दुनिया भर के समुद्रों का जलस्तर बढ़ जाएगा। हिमालय ग्लेशियर बहुत तेजी से पिघल रहे हैं और 2035 तक सभी ग्लेशियर पिघल जायेंगे । 1950 के बाद से हिमालय के करीब 2000 ग्लेशियर पिघल चुके हैं । परन्तु इस अत्यन्त गंभीर मुद्दे पर दुनिया बहुत कम चिंतित दिख रही है । 
पलायन की बडी वजह 
जलवायु परिवर्तन पलायन की बडी वजह भी बनने जा रहा है । इंटरनेशनल आॅंर्गनाइजेशन फाॅर माइग्रेशन ने अनुमान लगाया है कि 2050 तक तकरीबन 20 करोड लोगों का पलायन जलवायु परिवर्तन की वजह से होगा । वहीं कुछ और संगठनों का मानना है कि 2050 तक यह संख्या 70 करोड तक हो सकती हे क्योंकि 2050 तक दुनिया की आबादी बढकर 9 अरब तक पहुॅच जाने का अनुमान है । इसका मतलब यह है कि उस समय तक दुनिया की कुल आबादी में से आठ फीसदी लोग प्रदूषण की वजह से पलायन की मार झेल रहे होंगे । 
दुनिया पूंजीवाद के पीछे भाग रही है। उसे तथाकथित विकास के अलावा कुछ और दिख ही नहीं रहा है। वास्तव में जिसे विकास समझ जा रहा है वह विकास है ही नहीं। क्या सिर्फ औद्योगिक उत्पादन में बढ़ोतरी कर देने को विकास माना जा सकता है? जबकि एक बड़ी आबादी को अपनी जिंदगी बीमारी और पलायन में गुजारनी पड़े। वायु प्रदुषण और कृषि के इस शोध पत्र के नतीजों को सरकार और समाज के स्तर पर गंभीरता से लेना होगा नहीं तो इसके नतीजे आगे चलकर और भी ज्यादा खतरनाक होंगे ।  अभी भी समय है कि हम सब चेत जाएँ  और पर्यावरण संरक्षण पर ध्यान दें नहीं तो विनाश निश्चित है ।
रहने के लायक नहीं है शहर 
पिछले दिनों विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की एक रिपोर्ट के अनुसार  देश की राजधानी दिल्ली का वातावरण बेहद जहरीला हो गया है । इसकी गिनती विश्व के सबसे अधिक प्रदूषित शहर के रूप में होने लगी है। यदि वायु प्रदूषण रोकने के लिए शीघ्र कदम नहीं उठाए गए तो इसके गंभीर परिणाम सामने आएंगे। डब्ल्यूएचओ ने वायु प्रदूषण को लेकर 91 देशों के 1600 शहरों पर डाटा आधारित अध्ययन रिपोर्ट जारी की है। इसमें दिल्ली की हवा में पीएम 25 (2.5 माइक्रोन छोटे पार्टिकुलेट मैटर) में सबसे ज्यादा पाया गया है। पीएम 25 की सघनता 153 माइक्रोग्राम तथा पीएम 10 की सघनता 286 माइक्रोग्राम तक पहुंच गया है। जो कि स्वास्थ्य के लिए बेहद खतरनाक है। वहीं बीजिंग में पीएम 25 की सघनता 56 तथा पीएम 10 की 121 माइक्रोग्राम है। जबकि कुछ वर्षो पहले तक बीजिंग की गिनती दुनिया के सबसे प्रदूषित शहर के रूप में होती थी, लेकिन चीन की सरकार ने इस समस्या को दूर करने के लिए कई प्रभावी कदम उठाए। जिसके सकारात्मक परिणाम सामने आए हैं। डब्ल्यूएचओ के इस अध्ययन में 2008 से 2013 तक के आंकड़े लिए गए हैं। जिसमें वर्ष 2011 व 2012 के आंकड़ों पर विशेष ध्यान दिया गया है। एक अध्ययन के मुताबिक वायु प्रदूषण भारत में मौत का पांचवां बड़ा कारण है। हवा में मौजूद पीएम25 और पीएम10 जैसे छोटे कण मनुष्य के फेफड़े में पहुंच जाते हैं। जिससे सांस व हृदय संबंधित बीमारी होने का खतरा बढ़ जाता है। इससे फेफड़ा का कैंसर भी हो सकता है। दिल्ली में वायु प्रदूषण बढ़ने का मुख्य कारण वाहनों की बढ़ती संख्या है। इसके साथ ही थर्मल पावर स्टेशन, पड़ोसी राज्यों में स्थित ईंट भट्ठा आदि से भी दिल्ली में प्रदूषण बढ़ रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का नया अध्ययन यह बताता है कि हम वायु प्रदूषण की समस्या को दूर करने को लेकर कितने लापरवाह हैं और यह समस्या कितनी विकट होती जा रही है। खास बात यह है कि ये समस्या सिर्फ दिल्ली में ही नहीं है बल्कि देश के लगभग सभी शहरों की हो गई है ।अगर हालात नहीं सुधरे तो वो दिन दूर नहीं जब शहर रहने के लायक नहीं रहेंगे । जो लोग विकास ,तरक्की और रोजगार की वजह से गाँव से शहरों की तरफ आ गयें है उन्हें फिर से गावों की तरफ रुख करना पड़ेगा ।
स्वच्छ वायु सभी मनुष्यों, जीवों एवं वनस्पतियों के लिए अत्यंत आवश्यक है। इसके महत्त्व का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि मनुष्य भोजन के बिना हफ्तों तक जल के बिना कुछ दिनों तक ही जीवित रह सकता है, किन्तु वायु के बिना उसका जीवित रहना असम्भव है। मनुष्य दिन भर में जो कुछ लेता है उसका 80 प्रतिशत भाग वायु है। प्रतिदिन मनुष्य 22000 बार सांस लेता है। इस प्रकार प्रत्येक दिन में वह 16 किलोग्राम या 35 गैलन वायु ग्रहण करता है। वायु विभिन्नगैसों का मिश्रण है जिसमें नाइट्रोजन की मात्रा सर्वाधिक 78 प्रतिशत होती है जबकि 21 प्रतिशत ऑक्सीजन तथा 0.03 प्रतिशत कार्बन डाइ ऑक्साइड पाया जाता है तथा शेष 0.97 प्रतिशत में हाइड्रोजन, हीलियम, आर्गन, निऑन, क्रिप्टन, जेनान, ओजोन तथा जल वाष्प होती है। वायु में विभिन्न गैसों की उपरोक्त मात्रा उसे संतुलित बनाए रखती है। इसमें जरा-सा भी अन्तर आने पर वह असंतुलित हो जाती है और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक साबित होती है। श्वसन के लिए ऑक्सीजन जरूरी है। जब कभी वायु में कार्बन डाई ऑक्साइड, नाइट्रोजन के ऑक्साइडों की वृद्धि हो जाती है, तो यह खतरनाक हो जाती है ।
भारत को विश्व में सातवें सबसे अधिक पर्यावरण की दृष्टि से खतरनाक देश के रूप में स्थान दिया गया है । वायु शुद्धता का स्तर भारत के मेट्रो शहरों में पिछले 20 वर्षों में बहुत ही खराब रहा है आर्थिक स्तिथि ढाई गुना और औद्योगिक प्रदूषण चार गुना और बढा है। डब्ल्यूएचओ के अनुसार हर साल लाखों लोग खतरनाक प्रदूषण के कारण मर जाते हैं। वास्तविकता तो यह है कि पिछले 18 वर्ष में जैविक ईधन के जलने की वजह से कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन 40 प्रतिशत तक बढ़ चुका है और पृथ्वी का तापमान 0.7 डिग्री सैल्शियस तक बढ़ा है। अगर यही स्थिति रही तो सन् 2030 तक पृथ्वी के वातावरण में कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा 90 प्रतिशत तक बढ़ जाएगी। 
कार्बन उत्सर्जन न रुका तो नहीं बचेगी दुनिया 
दुनिया को खतरनाक जलवायु परिवर्तनों से बचाना है तो जीवाश्म ईंधन के अंधाधुंध इस्तेमाल को जल्द ही रोकना होगा । पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र समर्थित इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने चेतावनी देते हुए कहा कि कार्बन उत्सर्जन न रुका तो नहीं बचेगी दुनिया । आईपीसीसी ने कहा है कि साल 2050 तक दुनिया की ज्यादातर बिजली का उत्पादन लो-कार्बन स्रोतों से करना जरूरी है और ऐसा किया जा सकता है । इसके बाद बगैर कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज (सीसीएस) के जीवाश्म ईंधन का 2100 तक पूरी तरह इस्तेमाल बंद कर देना चाहिए । संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की-मून ने कहा, विज्ञान ने अपनी बात रख दी है. इसमें कोई संदेह नहीं है. अब नेताओं को कार्रवाई करनी चाहिए । हमारे पास बहुत समय नहीं है । मून ने कहा, जैसा कि आप अपने बच्चे को बुखार होने पर करते हैं, सबसे पहले हमें तापमान घटाने की जरूरत है. इसके लिए तुरंत और बड़े पैमाने पर कार्रवाई किए जाने की जरूरत है ।
आईपीसीसी रिपोर्ट की खास बातें
ग्लोबल वॉर्मिंग को 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने को जो फैसला 2009 में किया गया था उस पर अमल के लिए उत्सर्जन तुरंत कम करना होगा ।
बिजली उत्पादन को तेजी से कोयले के बजाय नए और अन्य कम कार्बन वाले स्रोतों में बदलना होगा, जिसमें परमाणु ऊर्जा भी शामिल है ।
ऊर्जा क्षेत्र में नवीकरणीय स्रोतों का हिस्सा वर्तमान के 30ः से बढ़ाकर 2050 तक 80ः तक हो जाना चाहिए ।
दीर्घकाल में बगैर सीसीएस के जीवाश्म ईंधन से ऊर्जा उत्पादन को 2100 तक पूरी तरह बंद करना होगा ।
सीसीएस यानी कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज तकनीक से उत्सर्जन सीमित किया जा सकता है पर इसका विकास धीमा है ।
पिछले 13 महीनों के दौरान प्रकाशित आईपीसीसी की तीन रिपोर्टों में जलवायु परिवर्तन की वजहें, प्रभाव और संभावित हल का खाका रखा गया है । इस संकलन में इन तीनों को एक साथ पेश किया गया है कि ताकि 2015 के अंत तक जलवायु परिवर्तन पर पर एक नई वैश्विक संधि करने की कोशिशों में लगे राजनेताओं को जानकारी दी जा सके । हर वर्ष विश्व में पर्यावरण सम्मेलन होते है पर आज तक इनका कोई ठोस निष्कर्ष नही निकला है । जबकि दिलचस्प है कि दुनिया की 15 फीसदी आबादी वाले देश दुनिया के 40 फीसदी प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग कर रहे है। 
पर्यावरण संरक्षण का संकल्प
वास्तव में पर्यावरण संरक्षण ऐसा ही है जैसे अपने जीवन की रक्षा करने का संकल्प। सरकार और समाज के स्तर पर लोगों को पर्यावरण के मुद्दे पर गंभीर होना होगा नहीं तो प्रकृति का कहर झेलने के लिए हमें तैयार रहना होगा।और ये कहर बाढ़ ,सूखा ,खाद्यान में कमी किसी भी रूप में हो सकता है । कृषि और वायु प्रदुषण के इस  शोध के आकलन में यह भी बताया गया है अगर प्रदूषण कम होगा  तो कृषि  उत्पादन भी बेहतर हो सकता है। वैज्ञानिकों ने फसल की पैदावार, उत्सर्जन, वर्षा के ऐतिहासिक आंकड़ों का परीक्षण करने से यह निष्कर्ष निकला है। इस ऐतिहासिक शोध में सामान्य तौर पर इसी बात की पुष्टि की गई है कि खाद्य उत्पादन पर वायु प्रदूषण का गहरा असर पड़ता है। 
भारत सरकार पहले ही कह चुकी है कि वह आगामी वर्षों  में कार्बन उत्सर्जन में 25 प्रतिशत तक की कमी लाने का प्रयास करेगी। देश में कार्बन उत्सर्जन को कम करने की दिशा में एक बड़ा कदम बढ़ाते हुए भारत सरकार ने सौर ऊर्जा उत्पादन क्षमता 20 हजार मेगावाट से बढ़ाकर एक लाख मेगावाट करने का लक्ष्य रखा है। हमें अपनी दिनचर्या में पर्यावरण संरक्षण को शामिल करना होगा। हम अपना योगदान देकर इस पृथ्वी को नष्ट होने से बचा सकते हैं। प्रकृति पर जितना अधिकार हमारा है उतना ही हमारी भावी पीढ़ीयों का भी , जब हम अपने पूर्वजों के लगाये वृक्षों के फल खाते हैं , उनकी संजोई धरोहर का उपभोग करते हैं तो हमारा नैतिक दायित्व है कि हम भविष्य के लिये भी नैसर्गिक संसाधनो को सुरक्षित छोड़ जायें ,कम से कम अपने निहित स्वार्थों हेतु उनका दुरुपयोग तो न करें । अन्यथा भावी पीढ़ी और प्रकृति हमें कभी माफ नहीं करेगी ।  इस लिए आज ही और इसी वक्त संकल्प लें कि पृथ्वी को संरक्षण देने के लिए जो हम कर सकेंगे करेंगे और जो नहीं जानते उन्हें इससे अवगत कराएँगे या फिर अपने परिवेश में इसके विषय में जागरूकता फैलाने के लिए प्रयास करेंगे ।  
वर्तमान परिवेश में आज जरुरत इस बात की है कि हम  भविष्य के लिए ऐसा नया रास्ता चुनें जो संपन्नता के आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय पहलुओं तथा मानव मात्र के कल्याण के बीच संतुलन रख सके। हमें यह हमेशा याद रखना होगा कि पृथ्वी हर आदमी की जरूरत को पूरा कर सकती है लेकिन किसी एक आदमी के लालच को नहीं।

Tuesday 3 February 2015

खेती में नई तकनीक

फलों की जीन संशोधित फसल 
आनुवंशिक परिवर्तनों के जरिये पौधे की कोशिकाओं द्वारा उत्पन्न कुदरती पदार्थो की मात्र को घटाया -बढ़ाया जा सकता है  
जीनों के संपादन की नई तकनीकें उपलब्ध होने के बाद फल-सब्जियों और दूसरे कृषि उत्पादों में आनुवंशिक परिवर्तन करना संभव हो जाएगा। इसके लिए उनमें बाहरी जीन प्रविष्ट करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। रिसर्चरों का कहना है कि जीन संपादन जीन संशोधन से एकदम भिन्न जैव तकनीक है। जीन संशोधित फसलों पर पूरी दुनिया में चल रहे विवाद को देखते हुए समाज में जीन संपादित फल-सब्जियों की स्वीकार्यता अधिक हो सकती है। जीन संपादन तकनीक से लाभान्वित होने वाले फलों में विटामिन ए वाले केले और कुछ खास ढंग के सेब शामिल हैं जो काटे जाने पर भूरे नहीं होंगे। आनी वाले दिनों में यूरोपीय बाजारों में इस तरह के फल दिख सकते हैं। इटली में सेन माइकेल कृषि संस्थान के वैज्ञानिक चिदानंद नागमंगला कांचीस्वामी का कहना है कि बाहरी जीनों के प्रविष्ट कराने के बाद उगाई गई फसलों की तुलना में बाहरी जीनों के बिना तैयार की गईं जीन संपादित फसलें ज्यादा कुदरती हैं। सिर्फ कुछ मामूली आनुवंशिक हेरफेर से फलों के गुणों में परिवर्तन किया जा सकता है। इन आनुवंशिक परिवर्तनों के जरिये पौधे की कोशिकाओं द्वारा उत्पन्न कुदरती पदार्थो की मात्र को घटाया -बढ़ाया जा सकता है।
फलों के जीन समूहों के बारे में लगातार नई जानकारियां मिलने के बाद जीन संपादन के लिए क्रिस्पर और टॉलेन जैसी तकनीकें विकसित हो चुकी हैं। इनसे किसी भी फल का जीन संपादन करना आसान हो गया है। अभी तक फलों की जीन संशोधित फसलों पर जीन संपादन की नई तकनीक नहीं आजमाई गई थी। इस समय विकसित की गई फलों की अधिकांश फसलों में बाहरी जीन डालने के लिए वानस्पतिक बैक्टीरिया का प्रयोग किया गया है। यूरोपीय यूनियन के कठोर नियमों के कारण इन फलों में से सिर्फ पपीते का ही आंशिक व्यावसायिक इस्तेमाल हो पाया है। रिसर्चरों का कहना है कि जीनों की काट-छांट वाली फसलों को यूरोपीय यूनियन जीन असंशोधित श्रेणी में रखने पर विचार कर सकती है। कांचीस्वामी और उनके सहयोगियों के मुताबिक जीन संपादन तकनीक से उच्च गुणों वाली बेहतर फसलों के विकास में मदद मिलेगी और ऐसी फसलों का उन देशों में भी व्यवसायीकरण किया जा सकेगा जहां आनुवंशिक रूप से संशोधित फसलों को लेकर तीव्र विवाद है। इस बीच आस्ट्रेलियाई वैज्ञानिकों ने एक ऐसा जीन संशोधित केला तैयार किया है जो बच्चों के कुपोषण की समस्या के हल में मदद कर सकता है। विटामिन ए की कमी से दुनिया में हर साल सात लाख बच्चो की मौत होती है और तीन लाख बच्चे दृष्टिहीनता के शिकार हो जाते हैं। रिसर्चरों का दावा है कि आनुवंशिक सुधारों के फलस्वरूप पूर्वी अफ्रीका में उगने वाली केले की किस्म में विटामिन ए की मात्र बढ़ गई है। ब्रिस्बेन में क्वींसलैंड युनिवर्सिटी में केला परियोजना पर काम कर रहे प्रमुख वैज्ञानिक जेम्स डेल का कहना है कि पूर्वी अफ्रीका में प्रमुख खाद्य वस्तु के रूप में उगाए जाने वाले केले में लौह तत्व और बीटा केरोटीन की मात्र अपेक्षित स्तर पर नहीं होती जिस वजह से बच्चों को भरपूर पोषक तत्व नहीं मिल पाते। केले की नई किस्म में बीटा केरोटीन की मात्र बढ़ाने के लिए कुछ खास जीन शामिल किए गए हैं।

बीटा केरोटीन की उच्च मात्र की वजह से यह केला अंदर से संतरी रंग का है। बीटा केरोटीन शरीर के अंदर जाकर विटामिन ए में परिवर्तित होता है। आस्ट्रेलियाई रिसर्चरों ने बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन से प्राप्त एक करोड़ डॉलर की वित्तीय मदद से युगांडा में परीक्षण के तौर पर जीन संशोधित केले की कुछ किस्में उगाई हैं। युगांडा में करीब 70 प्रतिशत आबादी अपनी अधिकांश पौष्टिक खुराक के लिए केले पर निर्भर है। युगांडा में उगाया गया केला मानव परीक्षणों के लिए अमेरिका भेजा गया है। इसके नतीजे इस वर्ष के अंत तक प्राप्त हो जाएंगे। युगांडा के सांसद इस समय जीन संशोधित केले से संबंधित विधेयक पर विचार कर रहे हैं।

नई एंटीबायोटिक की खोज

दवा प्रतिरोध का मुकाबला
जीवाणु विकसित करने की नई विधि से उम्मीद है कि शक्तिशाली एंटीबायोटिक दवाएं विकसित की जा सकेंगी 
वैज्ञानिकों ने लगभग तीस साल बाद एंटीबायोटिक की एक नई किस्म खोजी है जो ऐसी संक्रामक बीमारियों से लड़ने में मदद कर सकती हैं जिनमें मौजूदा दवाएं बेअसर साबित हो रही हैं। टेक्सोबैक्टीन नामक यह एंटीबायोटिक कई तरह के दवा प्रतिरोधी बैक्टीरिया को नष्ट करने में सक्षम है जिनमें टीबी उत्पन्न करने वाले बैक्टीरिया शामिल हैं। इस एंटीबायोटिक के प्रयोग से जीवाणु अपनी कोशिका की दीवार नहीं बना पाते। इससे उनकी दवाओं का प्रतिरोध करने की क्षमता नष्ट हो जाती है। अमेरिका में बोस्टन स्थित नॉर्थ ईस्टर्न यूनिवर्सिटी के एंटीमाइक्रोबियल डिस्कवरी सेंटर के डायरेक्टर किम लुइस का कहना है कि टेक्सोबैक्टीन बहुत तेजी से इंफेक्शन का सफाया का देती है। गौरतलब है कि दुनिया में खतरनाक बीमारियां फैलाने वाले जीवाणुओं में दवा प्रतिरोधी क्षमता लगातार बढ़ रही है और वैज्ञानिकों ने चेताया है कि रोगाणुओं में दवा प्रतिरोध की समस्या जलवायु परिवर्तन जितनी ही गंभीर है। जनस्वास्थ्य विशेषज्ञों ने इस बात पर गहरी चिंता जताई है कि एंटीबायोटिकरोधी रोगाणु लगभग प्रत्येक देश में पहुंच चुके हैं। स्थिति इतनी हताशापूर्ण है कि डॉक्टरों के पास बची हुई सबसे शक्तिशाली एंटीबायोटिक दवाएं भी बेअसर साबित हो रही हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पिछले साल अपनी एक रिपोर्ट में दवा प्रतिरोध की गंभीरता पर सबका ध्यान खींचा था। एक अन्य रिपोर्ट में चेतावनी दी गई थी कि यदि दवा प्रतिरोध से निपटने के लिए कारगर उपाय नहीं किए गए तो दुनिया की अर्थव्यवस्था पर 2050 तक खरबों डॉलर का बोझ आ जाएगा।
चूहों पर किए गए ताजा अध्ययनों के दौरान अमेरिकी वैज्ञानिकों ने पाया कि नए एंटीबायोटिक से स्टेफाइलोकोकस और स्ट्रेप्टोकोकस नामक जीवाणु बेअसर हो जाते हैं। इन जीवाणुओं से फेफड़ों और रक्त में जानलेवा इन्फेक्शन उत्पन्न हो सकते हैं। यह दवा एंट्रोकोकस के विरुद्ध भी कारगर सिद्ध हुई है जो हृदय पेट और प्रोस्ट्रेट आदि को इंफेक्ट कर सकता है। अधिकांश एंटीबायोटिक दवाएं बैक्टीरिया या फफूंदी से निकाली जाती हैं, लेकिन वैज्ञानिक अभी बहुत कम बैक्टीरिया में एंटीबायोटिक क्षमता की जांच कर पाए हैं। इसकी वजह यह है कि 99 प्रतिशत जीवाणुओं को प्रयोगशाला में विकसित नहीं किया जा सकता। लुइस की टीम ने इस समस्या से निपटने के लिए आइचिप नामक एक उपकरण विकसित किया। यह उपकरण बैक्टीरिया को उनके कुदरती माहौल में विकसित करता है। लुइस की टीम ने मैसाचुसेट्स की एक कंपनी और यूनिवर्सिटी ऑफ बोन के रिसर्चरों के साथ मिलकर मिटटी के नमूनों में करीब 10,000 बैक्टीरिया में एंटीबायोटिक की जांच की। उन्होंने 25 रसायन खोजे जिनमें टैक्सोबैक्टीन को सबसे ज्यादा उपयोगी पाया गया। ज्यादातर एंटीबायोटिक दवाएं बैक्टीरिया के प्रोटीन को निशाना बनाती हैं, लेकिन बैक्टीरिया नए प्रोटीन उत्पन्न करके दवा प्रतिरोधी क्षमता हासिल कर लेते हैं। टैक्सोबैक्टीन सीधे बैक्टीरिया की कोशिका दीवार की निर्माण सामग्री पर प्रहार करती है। लुइस का कहना है कि इस एंटीबायोटिक को दवा के रूप में उपलब्ध कराने से पहले अभी और रिसर्च की जरूरत है। इस दवा के असर को जांचने के लिए मानवीय परीक्षण दो साल में शुरू हो सकते हैं।

इस एंटीबायोटिक के संभावनापूर्ण होने के बावजूद इसमें कुछ कमियां हैं। यह सिर्फ ऐसे बैक्टीरिया के खिलाफ काम करती है जिनमें बाहरी कोशिका दीवार नहीं होती। ऐसे बैक्टीरिया को ग्राम पॉजिटिव बैक्टीरिया कहा जाता है जिनमें टीबी और स्ट्रेप्टोकोकस शामिल है। यह ग्राम नेगिटिव बैक्टीरिया के खिलाफ बेअसर साबित हुई है जिनमें ई-कोलाई जैसे खतरनाक दवा-प्रतिरोधी जीवाणु शामिल हैं। इन सीमाओं के बावजूद नई एंटीबायोटिक की खोज और जीवाणुओं को विकसित करने के लिए खोजी गई नई विधि से उम्मीद है कि आने वाले वषों में शक्तिशाली एंटीबायोटिक दवाएं विकसित की जा सकेंगी।