Sunday 21 December 2014

इसरो द्वारा प्रक्षेपित अब तक के सफल कुछ बड़े अभियान

भारत मंगल की सतह पर तो नहीं उतरा मंगलयान, लेकिन मंगल की कक्षा में प्रवेश कर इतिहास रच दिया। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन [इसरो] ने मंगलयान अभियान को कम बजट और कम संसाधनों का इस्तेमाल करते हुए यह कामयाबी हासिल की है। मंगल को मॉम मिल गई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इन शब्दों के साथ देश और वैज्ञानिकों को बधाई दी। इसरो द्वारा अब तक के प्रक्षेपित कुछ सफल अभियान इस प्रकार है:-
इसरो के सफल अभियान-
1963-थुंबा से [21 नवंबर, 1963] को पहले राकेट का प्रक्षेपण
1975-पहले भारतीय उपग्रह आर्यभट्ट का [19 अप्रैल, 1975] को प्रक्षेपण
1979-एक प्रायोगिक उपग्रह भास्कर-1 का प्रक्षेपण
1980-एसएलवी-3 की सहायता से रोहिणी उपग्रह का सफलतापूर्वक कक्षा में स्थापन
1981-एप्पल नामक भूवैज्ञानिक संचार उपग्रह का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण। नवंबर में भास्कर-2 का प्रक्षेपण
1982-इन्सैट-1 का अप्रैल में प्रक्षेपण
1983-एस एल वी-3 का दूसरा प्रक्षेपण। आर एस-डी2 की कक्षा में स्थापना। इन्सैट-1बी का प्रक्षेपण
1984-भारत और सोवियत संघ द्वारा संयुक्त अंतरिक्ष अभियान में राकेश शर्मा का पहला भारतीय अंतरिक्ष यात्री बनना
1987-ए एस एल वी का-1 उपग्रह के साथ प्रक्षेपण
1988-भारत का पहला दूर संवेदी उपग्रह आईआरएस-1 का प्रक्षेपण
1990-इन्सैट-1डी का सफल प्रक्षेपण
1991-अगस्त में दूसरा दूर संवेदी उपग्रह आईआरएसएस-1बी का प्रक्षेपण
1992-एएसएलवी द्वारा तीसरा प्रक्षेपण मई महीने में। पूरी तरह स्वेदेशी तकनीक से बने उपग्रह इन्सैट-2ए का सफल प्रक्षेपण
1994-मई महीने में एसएसएलवी का चौथा सफल प्रक्षेपण
1995-दिसंबर में इन्सैट-2सी का प्रक्षेपण। तीसरे दूर संवेदी उपग्रह का सफल प्रक्षेपण।
1996-तीसरे भारतीय दूर संवेदी उपग्रह आईआरएसएस-पी3 का पी एस एल वी की सहायता से मार्च महीने में सफल प्रक्षेपण
1997-सितंबर महीने में पीएसएलवी की सहायता से भारतीय दूर संवेदी उपग्रह आई आर एस एस-1डी का सफल प्रक्षेपण
1999-इन्सैट-2ई इन्सैट-2 क्रम के आखिरी उपग्रह का फ्रांस से सफल प्रक्षेपण। भारतीय दूर संवेदी उपग्रह आई आर एस एस-पी4 श्रीहरिकोटा परिक्षण केंद्र से सफल प्रक्षेपण। पहली बार भारत से विदेशी उपग्रहों का प्रक्षेपण-दक्षिण कोरिया के किटसैट-3 और जर्मनी के डी सी आर-टूबसैट का सफल परीक्षण।
2000-इन्सैट-3बी का 22 मार्च, 2000 को सफल प्रक्षेपण
2002-जनवरी महीने में इन्सैट-3सी का सफल प्रक्षेपण। पीएसएलवी-सी4 द्वारा कल्पना-1 का सितंबर में सफल प्रक्षेपण
2004-जीएसएलवी एड्यूसैट का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण
2008-22 अक्टूबर को चन्द्रयान का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण
2013-5 नवंबर को मंगलयान का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण
2014-24 सितंबर को मंगलयान का मंगल की कक्षा में सफलतापूर्वक प्रवेश
इसरो के असफल अभियान-
-रोहिणी उपग्रह का पहले प्रायोगिक परीक्षण यान एस एल वी-3 की सहायता से प्रक्षेपण असफल
-1993-इन्सैट-2बी का जुलाई महीने में सफल प्रक्षेपण। पीएसएलवी द्वारा दूर संवेदी उपग्रह आई आर एस एस-1ई का दुर्घटनाग्रस्त होना
-1997-जून महीने में प्रक्षेपित इन्सैट-2डी का अक्टूबर महीने में खराब होना
-2001-जीएसएलवी-डी 1, का प्रक्षेपण आंशिक सफल


इंटरनेट की लत

एक शोध रिपोर्ट 
दिलचस्प बात है कि जिस इंटरनेट को हमारे निजी और सामाजिक जीवन की कई गंभीर समस्याओं का इलाज माना जा रहा था, वही अब एक समस्या बनकर हमारे सामने आ रहा है। इंटरनेट यूज करने की आदत कैसे एक लत का रूप लेती जा रही है, इस बारे में हुई ताजा स्टडी की रिपोर्ट गौर करने लायक है।
हॉन्ग कॉन्ग यूनिवर्सिटी की सिसीलिया चेंग और एंजिल यी-लाम ली के नेतृत्व में हुई इस स्टडी के मुताबिक दुनिया में 6 फीसदी लोग ऐसे हैं जिन्हें इंटरनेट की लत का शिकार कहा जा सकता है। स्टडी बताती है कि उत्तरी और पश्चिमी यूरोप में ऐसे लोग महज 2.6 फीसदी पाए गए, लेकिन मध्य यूरोप में यह आंकड़ा 10.9 फीसदी तक चला गया। एक बात और जिसे स्टडी में खास तौर पर रेखांकित किया गया वह यह कि इंटरनेट ऐक्सेसिबिलिटी से इसका सीधा नाता नहीं है। यानी जिन इलाकों में इंटरनेट की पैठ ज्यादा है, उन क्षेत्रों के लोगों में ही इंटरनेट की लत ज्यादा पाई जाए ऐसा जरूरी नहीं है।स्टडी में यह देखा गया है कि यूजर इंटरनेट इस्तेमाल करने की अपनी इच्छा पर जिंदगी की दूसरी जरूरतों के मद्देनजर कंट्रोल रख पाता है या नहीं। इस इच्छा पर नियंत्रण रखने में नाकामी को उसकी लत के रूप में लिया गया है और यह देखा गया है कि इसका उसकी दैनिक जिंदगी पर अक्सर बड़ा बुरा असर पड़ता है। इस स्टडी में 31 देशों के 89000 लोगों को शामिल किया गया है। इसलिए यह तो नहीं कहा जा सकता कि इस स्टडी का रेंज कम था, लेकिन फिर भी इस तरह की स्टडीज की बढ़ती संख्या और इनके निष्कर्षों में अक्सर दिखने वाले परस्परविरोध के मद्देनजर जरूरी है कि इन निष्कर्षों को बगैर परखे स्वीकार न किया जाए।
उदाहरण के तौर पर इस स्टडी के बारे में आई शुरुआती रिपोर्टों से यह साफ नहीं है कि इंटरनेट की लत को परिभाषित करते हुए क्या पैमाना रखा गया है। इसे मेडिकल टर्म के रूप में इस्तेमाल किया गया है या पारंपरिक अर्थ में। क्या इंटरनेट अडिक्ट को ड्रग अडिक्ट के रूप में लिया जाना चाहिए जिन्हें लत से मुक्त कराने के लिए बाकायदा इलाज कराना पड़ता है और दवाएं खानी पड़ती हैं या ये बस एक आदत है जिसे काउंसिलिंग के जरिए छुड़ाया जा सकता है?इसमें शक नहीं कि यह नए दौर की एक बड़ी समस्या है और निकट भविष्य में यह समस्या और गंभीर रूप लेने वाली है। इसलिए भी यह ज्यादा जरूरी है कि इन स्टडीज को सीरियसली लिया जाए। एक प्रॉजेक्ट के तौर पर इस मसले को उठाने, कथित रिसर्च के बाद उसके निष्कर्षों पर हौवा खड़ा करने और फिर इन सबको भूल कर अगले प्रॉजेक्ट की फंडिंग में जुट जाने का ट्रेंड इस मामले में कारगर नहीं होगा। जरूरत इस बात की है कि इस विषय को महत्वपूर्ण मान इस पर काम करने वाली टीम इसे सचमुच गंभीरता से ले और इसके तमाम पहलुओं पर गौर करते हुए उसका हल भी सुझाए।(ref-nbt)

Thursday 18 December 2014

जीएसएलवी-मार्क3 का सफल परीक्षण-ऐतिहासिक उपलब्धि

शशांक द्विवेदी (Shashank Dwivedi)
अंतरिक्ष के क्षेत्र में ऐतिहासिक उपलब्धि 
अंतरिक्ष के क्षेत्र में आज भारत ने एक बार फिर इतिहास रच दिया .इसरो और कामयाबी एक दूसरे के पर्यायवाची बन गयें है .भारत के लिए आज दोहरी खुशी का मौका है। एक तो देश के सबसे बड़े रॉकेट का लॉन्च कामयाब रहा है और दूसरी अच्छी खबर यह है कि भारत भी अंतरिक्ष में इंसान भेजने की काबिलियत हासिल करने में कामयाब रहा है, यानी साफतौर पर आज भारत के लिए बहुत बड़ा दिन है।

भारत के सबसे बड़े रॉकेट जीएसएलवी मार्क-3 का श्रीहरिकोटा से सफल लॉन्च हुआ। इस कामयाबी के साथ ही भारत उन देशों की सूची में शामिल हो गया, जो अंतरिक्ष में बड़े सेटेलाइट भेज सकते हैं। इस लॉन्च से दूसरी बड़ी सफलता जो भारत को मिली वो ये है कि अब भारत भी अंतरिक्ष में इंसान भेज सकेगा, हालांकि इसमें अभी और वक़्त लगेगा।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुरुवार को जीएसएलवी-मार्क3 के सफल परीक्षण पर भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (इसरो) के वैज्ञानिकों को बधाई दी। मोदी ने अपने संदेश में कहा, जीएसएलवी का सफल परीक्षण हमारे वैज्ञानिकों के परिश्रम और प्रतिभा का एक और उदाहरण है। आप सभी के प्रयासों के लिए बधाइयां।
अंतरिक्ष में इंसान को भेजने की काबिलियत फिलहाल सिर्फ रूस, अमेरिका और चीन के पास है। सुबह 9.30 बजे सतीश धवन स्पेस सेंटर से जीएसएलवी मार्क-3 रॉकेट को लॉन्च किया गया। करीबन 20 मिनट बाद लॉन्च के सफल होने का ऐलान किया गया। भारत के अंतरिक्ष यान ने करीब 125 किलोमीटर की ऊंचाई तय की, फिर पैराशूट के सहारे धरती पर लौटा। अंडमान निकोबार द्वीप समूह के पास बंगाल की खाड़ी में अंतरिक्ष यान ने लैंड किया, जहां मौजूद कोस्ट गार्ड के जहाज़ ने अतंरिक्ष यान को बाहर निकाला।इसरो के एक अधिकारी ने बताया कि इस क्रू मॉड्यूल का आकार एक छोटे से शयनकक्ष के बराबर है, जिसमें दो से तीन व्यक्ति आ सकते हैं।
जीएसएलवी-मार्क3 के सफल परीक्षण के बाद यहां मिशन के नियंत्रण कक्ष में इसरो के वैज्ञानिकों की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। इसरो के अध्यक्ष के. राधाकृष्णन ने बताया, भारत ने इस रॉकेट का निर्माण एक दशक पहले ही शुरू कर दिया था और आज प्रयोग के तौर पर इसका पहला परीक्षण किया गया। ठोस और तरल इंजनों का प्रदर्शन उम्मीद के मुताबिक ही रहा। मानवरहित क्रू मॉड्यूल बंगाल की खाड़ी में गिरा, जैसी कि उम्मीद थी।वहीं, जीएसएलवी-मार्क3 के परियोजना निदेशक एस. सोमनाथ ने कहा, भारत के पास अब एक नया प्रक्षेपण यान है। भरतीय रॉकेट की वहन क्षमता में महत्वपूर्ण वृद्धि हुई है।मंगल अभियान की कामयाबी के बाद अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में भारत की यह दूसरी बड़ी सफलता है। जीएसएलवी मार्क 3 (जिओ सिंक्रोनस लॉन्च व्हीकल) की ये पहली टेस्ट फ्लाइट थी। इस रॉकेट का वजन 630 टन है। इसकी ऊंचाई करीब 42 मीटर है और यह 4 टन का वजन ले जा सकता है। जीएसएलवी मार्क-3 को बनाने में 160 करोड़ रुपये की लागत आई है।
क्या होगा फायदा
इसके साथ ही अंतरिक्ष में इंसान को भेजने का भारत का सपना जल्द पूरा हो सकता है। फिलहाल रूस, अमेरिका और चीन के पास इंसान को अंतरिक्ष में भेजने की काबिलियत है। अब भारत भी इन देशों की लीग में शामिल हो गया है।
42.4 मीटर लंबे जीएसएलवी एमके-3 के मिशन के पूरे होने से इसरो को भारी सेटलाइट्स को उनकी कक्षा में पहुंचाने में मदद मिलेगी। जीएसएलवी एमके-3 की परिकल्पना और उसकी डिजाइन इसरो को इनसैट - 4 श्रेणी के 4,500 से 5,000 किलोग्राम वजनी भारी कम्युनिकेशन सैटलाइट्स को लॉन्च करने की दिशा में पूरी तरह आत्मनिर्भर बनाएगा। इससे अरबों डॉलर के कमर्शल लॉन्चिंग मार्केट में भारत की क्षमता में इजाफा होगा।
क्या है जीएसएलवी?

भूस्थिर उपग्रह प्रक्षेपण यान अंतरिक्ष में उपग्रह के प्रक्षेपण में सहायक यान होता है। ये यान उपग्रह को पृथ्वी की कक्षा में स्थापित करने में मदद करता है। जीएसएलवी ऐसा बहुचरण रॉकेट होता है जो दो टन से अधिक भार के उपग्रह को पृथ्वी से 36 हजार किलोमीटर की ऊंचाई पर भू-स्थिर कक्षा में स्थापित कर देता है जो विषुवत वृत्त या भूमध्य रेखा की सीध में होता है। ये रॉकेट अपना कार्य तीन चरण में पूरा करते हैं। इनके तीसरे यानी अंतिम चरण में सबसे अधिक बल की आवश्यकता होती है।

रॉकेट की यह आवश्यकता केवल क्रायोजेनिक इंजन ही पूरा कर सकते हैं। इसलिए बिना क्रायोजेनिक इंजन के जीएसएलवी रॉकेट का निर्माण मुश्किल होता है। अधिकतर काम के उपग्रह दो टन से अधिक के ही होते हैं। इसलिए विश्व भर में छोड़े जाने वाले 50 फीसद उपग्रह इसी वर्ग में आते हैं। जीएसएलवी रॉकेट इस भार वर्ग के दो तीन उपग्रहों को एक साथ अंतरिक्ष में ले जाकर निश्चित किलोमीटर की ऊंचाई पर भू-स्थिर कक्षा में स्थापित कर देता है। यही इसकी की प्रमुख विशेषता है।
जीएसएलवी की उपलब्धियां

- जीएसएलवी-एफ 06 ने 25 दिसंबर, 2010 को जीसैट-5पी का प्रक्षेपण किया जो असफल रहा।

- जीएसएलवी-डी 3 ने 15 अप्रैल, 2010 को जीसैट-4 का प्रक्षेपण किया जो असफल रहा।
- जीएसएलवी-एफ 04 ने 2 सितंबर, 2007 को इन्सेट-4 सीआर का सफल प्रक्षेपण किया गया।
- जीएसएलवी-एफ02 ने 10 जुलाई, 2006 को इन्सेट-4 सी का प्रक्षेपण किया गया लेकिन यह असफल रहा।
- जीएसएलवी-एफ 01 ने 20 सितंबर, 2004 को एडुसैट (जीसैट-3) का सफल प्रक्षेपण किया गया।
- जीएसएलवी-डी 2 ने 8 मई, 2003 को जीसैट-2 का सफल प्रक्षेपण किया गया।
- जीएसएलवी-डी 1 ने 18 अप्रैल, 2001 को जीसैट-1 का सफल प्रक्षेपण किया गया।
सफलता की उड़ान 
भारत ने अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में एक और सधा हुआ कदम आगे बढ़ाया है। देश में बने सबसे बड़े रॉकेट जीएसएलवी मार्क-3 का सफल प्रक्षेपण किया गया। यह इस रॉकेट की पहली टेस्ट फ्लाइट है। इस तरह हम अंतरिक्ष में बड़े सैटेलाइट भेजने की क्षमता रखने वाले गिने-चुने मुल्कों में शामिल हो गए हैं। मंगल मिशन के बाद भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) की यह एक चमकदार सफलता है। सच तो यह है कि हल्के उपग्रह ले जाने में सक्षम पीएसएलवी रॉकेटों के मामले में हमारे देश को महारत हासिल है पर, जीएसएलवी में हमारा हाथ तंग रहा है। इसके सभी प्रोजेक्ट अब तक असफल रहे थे। लेकिन इस बार के प्रक्षेपण से लगता है कि इस तकनीक को भी हमने साध लिया है। सबसे बड़ी बात यह है कि इसरो ने अपने इस प्रयोग के जरिये इंसान को स्पेस में भेजने के रास्ते पर पहला कदम बढ़ा दिया है।
जीएसएलवी मार्क-3 रॉकेट के साथ मनुष्य को अंतरिक्ष में ले जाने वाला एक कैप्सूल भी भेजा गया था, जिसे अंतरिक्ष से सफलतापूर्वक धरती पर उतार लिया गया है। यह एक बार में दो-तीन लोगों को अंतरिक्ष में ले जा सकता है। रॉकेट इस कैप्सूल को 125 किलोमीटर की ऊंचाई तक लेकर गया, जहां यह रॉकेट से अलग हो गया, और फिर पैराशूट के सहारे इसे बंगाल की खाड़ी में उतार लिया गया। कैप्सूल की इस कामयाब लैंडिंग से अगले कुछ सालों में भारतीय खोजी दल को चांद पर उतारने की योजना को पंख लग गए हैं।
अभी तक केवल अमेरिका चालीस-पैंतालीस साल पहले अपने अपोलो अभियान में गिनती के 19 लोगों को चंद्रमा पर पहुंचा कर वहां से उन्हें जीवित वापस ला सका है। इंसान को अंतरिक्ष में ले जाने की क्षमता उसके अलावा सिर्फ रूस और चीन के पास है। इसरो की इस कामयाबी के बाद हम भारी सैटलाइट्स भेजने के मामले में तो आत्मनिर्भर होंगे ही, अरबों डॉलर के कमर्शल लॉन्चिंग मार्केट में भी भारत की एंट्री हो जाएगी।आज विश्व में अगर एक ताकतवर ब्रैंड इंडिया उभर कर आया है, तो उसमें आर्थिक तरक्की के साथ-साथ अंतरिक्ष विज्ञान की हमारी उपलब्धियों का भी महत्वपूर्ण योगदान है। इसरो ने एक के बाद एक सफलता के झंडे गाड़े हैं, लेकिन थोड़े अफसोस की बात यह है कि अन्य वैज्ञानिक संगठनों की ओर से कोई बड़ी खुशखबरी बहुत दिनों से नहीं आई है। इसरो के बराबर समझे जाने वाले रक्षा शोध संगठन डीआरडीओ का बजट अच्छा-खासा होने के बावजूद वह कोई बड़ा काम नहीं कर पा रहा है, लिहाजा रक्षा के क्षेत्र में आयात पर हमारी निर्भरता कम होने का नाम नहीं ले रही है। कृषि और स्वास्थ्य के क्षेत्रों में भी हमारे शोध-अनुसंधान की हालत काफी कमजोर है। हमें विज्ञान के हर क्षेत्र में आगे बढ़ना होगा, तभी दुनिया हमें एक आधुनिक शक्ति के रूप में पहचानेगी।

कार्बन उत्सर्जन रोकने को लेकर सहमति

शशांक द्विवेदी (Shashank dwivedi )
लीमा शिखर सम्मेलन 
जलवायु परिवर्तन और कार्बन उत्सर्जन को लेकर पेरू की राजधानी लीमा में 1 दिसम्बर से 14  दिसंबर 2014 तक 194   देशों के प्रतिनिधि पर्यावरण के बदलाव पर चर्चा करने के लिए जमा हुए थे  । 12 दिसंबर तक निर्धारित ये सम्मेलन  समय से दो दिन अधिक चला । भारत समेत 194  देशों ने वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में कटौती के राष्ट्रीय संकल्पों के लिए आम सहमति वाला प्रारूप स्वीकार कर लिया, जिसमें भारत की चिंताओं का समाधान किया गया है. इसके साथ ही जलवायु परिवर्तन के मुकाबले के लिए वर्ष 2015 में पेरिस में होने वाले एक नए महत्वाकांक्षी और बाध्यकारी करार पर हस्ताक्षर का रास्ता साफ हो गया।
इस शिखर सम्मेलन का आयोजन युनाइडेट नेशन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेंट चेंज (यूएनएफसीसीसी) द्वारा किया गया था जिसमें दुनियाँ भर के राजनीतिज्ञों, राजनयिक, जलवायु कार्यकर्ता और पत्रकारों ने भाग लिया। इस शिखर सम्मेलन का उद्देश्य नई जलवायु परिवर्तन संधि के लिए मसौदा तैयार करना था , ताकि 2015 में पेरिस में होने वाली वार्ता में सभी देश संधि पर हस्ताक्षर कर सकें। और हर देश को कानूनी रूप से बाध्य एक संधि के लिए राजी करना था, ताकि ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन घट सके और 1997 के क्योटो प्रोटोकॉल को नए मसौदे से बदला जा सके।
इस वार्ता के अध्यक्ष और पेरू के पर्यावरण मंत्री मैनुएल पुल्गर विडाल ने लगभग दो हफ्ते तक चली बैठक के बाद अपनी घोषणा में कहा- दस्तावेज को मंजूरी मिल गई है। मुझे लगता है कि यह अच्छा है और यह हमें आगे ले जाएगा। मसौदे के अनुसार विभिन्न देशों की सरकारों को वैश्विक समझौते के लिए आधार तैयार करने के लिए ग्रीन हाउस गैसों में कटौती की अपनी राष्ट्रीय योजना 31 मार्च 2015 को आधार तिथि मानकर पेश करनी होगी। हालांकि, ऐसे अधिकांश कठोर निर्णय वर्ष 2015 में पेरिस में होने वाली शिखर बैठक के लिए टाल दिए गए हैं। उस शिखर बैठक में होने वाले करार को वर्ष 2020 से प्रभावी होना है।
इस मसौदे पर भारतीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा कि भारत की सभी चिंताओं का ध्यान रखा गया है। वर्ष 2015 में होने वाले समझौते के लिए होने वाली बातचीत पर वार्ताकारों द्वारा मोटे तौर पर दी गई सहमति के बाद उन्होंने कहा कि हमने लक्ष्य हासिल कर लिए और जो हम चाहते थे हमें मिल गया।
समीक्षा का केवल उल्लेख किया
इस मसौदे में केवल इस बात का जिक्र है कि सभी देशों द्वारा लिए गए संकल्पों के जलवायु परिवर्तन पर पड़ने वाले संयुक्त प्रभावों की दिसंबर 2015 में होने वाली
पेरिस शिखर बैठक के एक माह पहले समीक्षा की जाएगी। वर्तमान मसौदे में भारत और अन्य कई विकासशील देशों के लगातार जोर देने पर जलवायु परिवर्तन के लिए पैसा देने की क्षमता के आधार पर देशों के श्रेणीकरण के सिद्धांतों के बारे में अलग से एक पैराग्राफ जोड़ा गया। पूर्व में दिए गए मसौदे को लेकर भारत और चीन की चिंता यह थी कि इससे अमीर देशों की तुलना में उनके जैसी उभरती अर्थ व्यवस्थाओं पर ज्यादा बोझ आएगा।
पहले केवल अमीर देशों की जिम्मेदारी थी
इस नए समझौते की मूल बात यह है कि इसमें जलवायु परिवर्तन से निपटने की जिम्मेदारी सभी देशों पर डाल दी गई है। इसके पहले 1997 में हुई क्योटो संधि में उत्सर्जन में कटौती की जिम्मेदारी केवल अमीर देशों पर डाली गई थी। संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण प्रमुख क्रिस्टियाना फिगुरेज ने कहा कि लीमा में अमीर और गरीब दोनों तरह के देशों की जिम्मेदारी तय करने का नया तरीका खोजा गया है। यह बड़ी सफलता है।
शिखर सम्मेलन में भारत का पक्ष 
इस सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर धनी देशों पर दवाब बढ़ाते हुए भारत ने कहा है कि दुनियाभर में गरीबों के विकास की खातिर विकसित राष्ट्र अपने कार्बन उत्सर्जन में कटौती करें। भारत ने जलवायु परिवर्तन के खतरे का सामना करने को विकासशील देशों की मदद के लिए विकसित राष्ट्रों से प्रौद्योगिकी हस्तांतरण व वित्तीय मदद देने की मांग भी की । पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने साफ कहा कि कार्बन उत्सर्जन में कटौती के संबंध में भारत ने समय सीमा स्वीकार नहीं किया। हालांकि भारत ने खुद ही कई ऐसे कदम उठाए हैं जिससे जलवायु परिवर्तन को थामा जा सकेगा। जावड़ेकर ने कहा कि विकसित देशों का कार्बन उत्सर्जन भारत के मुकाबले कई गुना ज्यादा है। ऐसे में इन देशों को अपने उत्सर्जन में कटौती करनी चाहिए। वैसे भी भारत सहित विकासशील देशों में गरीबों की संख्या अधिक है, उन्हें विकास की जरूरत है। इसलिए विकासशील देश अपने उत्सर्जन में कटौती नहीं कर सकते।
अमेरिका और चीन की तरह भारत अपना कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए कोई समयसीमा भी तय नहीं करेगा। फिलहाल भारत का प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन चीन की अपेक्षा काफी कम है।इसके साथ ही कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए भारत सरकार ने सौर ऊर्जा उत्पादन क्षमता 20 हजार मेगावाट से बढ़ाकर एक लाख मेगावाट करने का लक्ष्य रखा है। इसके साथ ही नमामि गंगे और हिमालय मिशन जैसे कार्यक्रम शुरू किए गए हैं। पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा कि भारत जलवायु परिवर्तन के खिलाफ वैश्विक लड़ाई के लिए प्रतिबद्ध और पूरी तरह से तैयार है और  हम जलवायु परिवर्तन संबंधी चिंताओं के सार्थक समाधान के साथ जनता के लिए विकास केंद्रित नीतियों को लागू कर रहे हैं।
दो धड़ों में बंटी दुनियाँ 
अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अक्सर आमने-सामने नजर आने वाले विकसित और विकासशील देश एक बार फिर इसी मुद्रा में नजर आये । लीमा में जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में शिरकत कर रहे देश मोटे तौर पर दो धड़ों में बंट गए । एक तरफ विकसित देशों के धड़े में यूरोपीय संघ के देश और जापान खुलकर अपना पक्ष रख रहे थे वहीं दूसरी तरफ ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, भारत और चीन ने भी बेसिक के नाम से यहां अपना अलग मंच बना लिया । बेसिक देशों ने जलवायु परिवर्तन समझौते के मसौदे पर चर्चा के लिए इस मंच के तहत नियमित बैठकें करने का फैसला लिया । अगले साल पेरिस में हस्ताक्षर किए जाने वाले समझौते का अंतिम मसौदा तय करने के लिए अब ये देश साथ मिलकर काम करेंगे।
भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व कर रहे पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने बेसिक देशों के प्रतिनिधियों के साथ कई द्विपक्षीय बैठकें करके रणनीति तय की । बेसिक देश कई मसलों को लेकर एकमत हैं। सम्मेलन में सभी देशों की घरेलू जलवायु परिवर्तन संबंधी कार्ययोजनाओं यानी इच्छित राष्ट्रस्तरीय तयशुदा योगदान (इंटेंडेड नेशनली डिटरमाइंड कंट्रीब्यूशन-आईएनडीसी) पर विचार-विमर्श हुआ। बेसिक देश आईएनडीसी को संरचनात्मक स्तर पर और ज्यादा अनुकूलन आधारित बनाने पर सहमत हुए हैं।
अनुकूलन की व्यवस्था के तहत जलवायु परिवर्तन के कारण सामने आने वाली स्थितियों का लाभ उठाते हुए नई प्रणालियों के विकास पर जोर दिया जाएगा। ताकि इन प्रणालियों के विकास से होने वाले लाभ के जरिये जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसान को बेअसर किया जा सके। दूसरी ओर यूरोपीय संघ और जापान जैसे विकसित देश जलवायु परिवर्तन समझौते को केवल न्यूनीकरण की व्यवस्था पर केंद्रित रखने पर जोर दे रहे हैं।
लीमा शिखर सम्मेलन में विकसित और विकासशील देशों के बीच मतभेद और विवाद एक बार फिर खुल कर सामने आ गयें  । जिसकी वजह से सम्मेलन में कोई बड़ी उपलब्धि हासिल नहीं हुई। सारे वार्ताकार अंतत इस बात पर सहमत हुए कि सभी देशों को कार्बन उत्सर्जन पर अंकुश लगाने के लिए काम करना चाहिए। कार्बन  उत्सर्जन को ही लू, बाढ़, सूखा और समुद्र के जलस्तर में बढ़ोतरी का कारण माना जा रहा है ।
क्योटो प्रोटोकाल के अंतर्गत केवल सर्वाधिक विकसित देशों को ही अपना उत्सर्जन कम करना था और यह एक मुख्य कारण था कि अमेरिका ने इसे स्वीकार करने से इन्कार कर दिया था।अमेरिका कहना था कि चीन और भारत जैसे तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्था वाले देश हर हाल में इसका हिस्सा बनें। विकासशील देशों का यह तर्क सही  है कि जब वैश्विक भूमंडलीय तापवृद्धि (ग्लोबल वार्मिग) में ऐतिहासिक रूप से उनका योगदान पश्चिम के औद्योगिक-विकसित देशों की तुलना में न के बराबर है, तो उन पर इसे कम करने की समान जवाबदेही कैसे डाली जा सकती है? जबकि  लीमा में  क्योटो प्रोटोकोल से उलट धनी देश सबकुछ सभी पर लागू करना चाहते थे , खासकर उभरते हुए विकासशील देशों पर । 
कार्बन उत्सर्जन न रुका तो नहीं बचेगी दुनिया 
पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र समर्थित इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने चेतावनी देते हुए कहा कि कार्बन उत्सर्जन न रुका तो नहीं बचेगी दुनिया । दुनिया को खतरनाक जलवायु परिवर्तनों से बचाना है तो जीवाश्म ईंधन के अंधाधुंध इस्तेमाल को जल्द ही रोकना होगा । आईपीसीसी ने कहा है कि साल 2050 तक दुनिया की ज्यादातर बिजली का उत्पादन लो-कार्बन स्रोतों से करना जरूरी है और ऐसा किया जा सकता है । इसके बाद बगैर कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज (सीसीएस) के जीवाश्म ईंधन का 2100 तक पूरी तरह इस्तेमाल बंद कर देना चाहिए । संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की-मून ने कहा, विज्ञान ने अपनी बात रख दी है । इसमें कोई संदेह नहीं है. अब नेताओं को कार्रवाई करनी चाहिए । हमारे पास बहुत समय नहीं है । मून ने कहा, जैसा कि आप अपने बच्चे को बुखार होने पर करते हैं, सबसे पहले हमें तापमान घटाने की जरूरत है. इसके लिए तुरंत और बड़े पैमाने पर कार्रवाई किए जाने की जरूरत है ।
आईपीसीसी रिपोर्ट की खास बातें
ग्लोबल वॉर्मिंग को 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने को जो फैसला 2009 में किया गया था उस पर अमल के लिए उत्सर्जन तुरंत कम करना होगा ।
बिजली उत्पादन को तेजी से कोयले के बजाय नए और अन्य कम कार्बन वाले स्रोतों में बदलना होगा, जिसमें परमाणु ऊर्जा भी शामिल है ।
ऊर्जा क्षेत्र में नवीकरणीय स्रोतों का हिस्सा वर्तमान के 30ः से बढ़ाकर 2050 तक 80ः तक हो जाना चाहिए ।
दीर्घकाल में बगैर सीसीएस के जीवाश्म ईंधन से ऊर्जा उत्पादन को 2100 तक पूरी तरह बंद करना होगा ।
सीसीएस यानी कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज तकनीक से उत्सर्जन सीमित किया जा सकता है पर इसका विकास धीमा है ।
शिखर सम्मेलनों के अधूरे लक्ष्य
पिछले 13 महीनों के दौरान प्रकाशित आईपीसीसी की तीन रिपोर्टों में जलवायु परिवर्तन की वजहें, प्रभाव और संभावित हल का खाका रखा गया है । इस संकलन में इन तीनों को एक साथ पेश किया गया है कि ताकि 2015 के अंत तक जलवायु परिवर्तन पर पर एक नई वैश्विक संधि करने की कोशिशों में लगे राजनेताओं को जानकारी दी जा सके । हर वर्ष विश्व में पर्यावरण सम्मेलन होते है पर आज तक इनका कोई ठोस निष्कर्ष नही निकला है । जबकि दिलचस्प है कि दुनिया की 15 फीसदी आबादी वाले देश दुनिया के 40 फीसदी प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग कर रहे है। 
1992 में रियो डि जेनेरियो में अर्थ समिट यानी पृथ्वी सम्मेलन  से लेकर लीमा तक के शिखर सम्मेलनों के लक्ष्य अभी भी अधूरे हैं। आज आपसी विवादों के समाधान की जरूरत है। कटु सच्चाई यह है कि जब तक विश्व अपने गहरे मतभेदों को नहीं सुलझा लेता तब तक कोई भी वैश्विक कार्रवाई कमजोर और बेमानी सिद्ध होगी। आज जरुरत है ठोस समाधान की ,इसके लिए एक निश्चित समय सीमा में लक्ष्य तय होने चाहिए । पिछले 2 दशक में पर्यावरण संरक्षण को लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर 20  जलवायु सम्मेलन हो चुके है लेकिन अब तक कोई ठोस नतीजा नहीं निकला । लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए की पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन पर साल 2015 में पेरिस में होने वाली शिखर बैठक में कुछ ठोस नतीजे सामने आये जिससे पूरी दुनियाँ को राहत मिल सके ।

मंगल का खुलता रहस्य

अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा द्वारा मंगल ग्रह पर भेजा गया क्यूरियॉसिटी रोवर वहां से जिस तरह की सूचनाएं दे रहा है वे विश्व वैज्ञानिक बिरादरी को चमत्कृत कर देने के लिए काफी हैं। दो साल पहले जिस स्थान पर यह उतरा था, वहां से आसपास की भौगोलिक स्थिति की तस्वीरें उसी समय से मिलने लगी थीं। इन तस्वीरों से पता चला था कि वहां करीब 154 किलोमीटर चौड़ा क्रेटर (उल्कापात से बना गड्ढा) है जिसके बीच में करीब 5 किलोमीटर ऊंचा पहाड़ है। इस बीच खास बात यह हुई कि पृथ्वी से मिल रहे निर्देशों के मुताबिक यह रोवर धीरे-धीरे अपनी जगह से चलकर पहाड़ की जड़ तक पहुंचा और उस पर चढ़ने लगा। पूरे दो वर्षों की चढ़ाई के बाद वह पहाड़ की चोटी तक जा पहुंचा और इस दौरान क्रेटर और पहाड़ की बनावट के बारे में ऐसी बारीक सूचनाएं भेजीं जो उपग्रहों द्वारा भेजे गए चित्रों से कभी हासिल नहीं की जा सकती थीं। इन सूचनाओं के विस्तृत विश्लेषण का काम वैज्ञानिक समुदाय आने वाले दिनों-वर्षों में करेगा। रोवर से ही आगे मिलने वाली सूचनाएं इस काम में वैज्ञानिकों का मार्गदर्शन करेंगी। लेकिन, अभी तक मिल चुकी सूचनाएं भी कम क्रांतिकारी नहीं हैं।इन सूचनाओं के आधार पर वैज्ञानिकों को लगता है कि करीब साढ़े तीन अरब साल पहले इस क्रेटर का ज्यादातर हिस्सा पानी से भरा रहा होगा। अगर यह बात सही है तो मंगल के क्लाइमेट के बारे में अब तक बनी इस धारणा पर सवाल उठ जाता है कि इस ठंडे और सूखे ग्रह पर उष्णता और आर्द्रता क्षणिक और स्थानीय बात ही रही होगी। बहरहाल, हर नई मान्यता अपने साथ सवालों का बवंडर भी लाती है।अगर प्राचीन काल में मंगल की सतह पर इतनी भारी मात्रा में पानी था तो फिर वहां जीवन की संभावना से इनकार कैसे किया जा सकता है? पुरानी मान्यताओं से उलझना, उनमें से बहुतों को गलत साबित करना और इस प्रक्रिया में उपजे नए सवालों की चुनौतियों से जूझना साइंस का नेचर रहा है। इस बार खास बात सिर्फ यह है कि मनुष्य के भेजे एक दूत ने जिस तेजी से मंगल की दुनिया के राज खोलने शुरू किए हैं, उसे देखते हुए लगता नहीं कि यह लाल ग्रह ज्यादा समय तक हमारे लिए रहस्य का गोला बना रहेगा।

Sunday 7 December 2014

जिंदगी में नया आयाम जोड़ती मोबाइल टेक्नोलॉजी

एम-लर्निग ,4जी तकनीक तथा सोशल नेटवर्किग शिक्षा के क्षेत्र में बड़ा बदलाव ला रहा है
आरंभ में मोबाइल फोन को लैंडलाइन फोन के विकसित विकल्प के तौर पर मुहैया कराया गया था. धीरे-धीरे इसमें कई खासियतें जुड़ती चली गयीं. अब स्मार्टफोन का जमाना है, जिसका बहुआयामी उपयोग पढ़ने-लिखने और सीखने के तौर-तरीके को भी बदल रहा है. किस तरह से स्मार्टफोन इन कार्यो को अंजाम देता है, क्या है एम-लर्निग और 4जी तकनीक तथा सोशल नेटवर्किग इस पर विशेष लेख 
सूचना एवं संचार इस ग्रह की एक ऐसी तकनीक है, जिससे मानव जीवन का कोई भी पहलू अछूता नहीं रह गया है. संचार अगर आज के दौर की जरूरत है, तो निश्चित तौर पर सूचना हर व्यक्ति का अधिकार. दूसरे शब्दों में, सूचना का संचार सामाजिक-आर्थिक विकास का आधार बनता जा रहा है. 
दुनियाभर में सूचना एवं संचार यानी दोनों ही तकनीकों का एक सर्वसुलभ और सर्वव्यापक माध्यम है मोबाइल टेक्नोलॉजी. मोबाइल  अब केवल बात करने और संदेश भेजने की ही डिवाइस नहीं है, बल्कि लोगों के हाथों में नये रूप में पहुंच रहा स्मार्टफोन डेस्कटॉप का भी स्थान ले चुका है. स्मार्टफोन के जरिये अब वे सारे काम कहीं भी और कभी भी आसानी से निपटाये जा सकते हैं, जिसके लिए घर में डेस्कटॉप के सामने बैठ कर घंटों काम करना होता था. तकनीकी साक्षरता और विकास के साथ कदमताल करने में मोबाइल तकनीकें अहम भूमिका अदा कर रही हैं. इसी कड़ी में अब लर्निग ऑन द मूवके सिद्धांत पर आधारित मोबाइल लर्निग (एम-लर्निग) एक प्रभावी शैक्षिक माध्यम बनने की ओर अग्रसर है. आइटीयू (इंटरनेशनल टेलीकम्युनिकेशन यूनियन) की एक रिपोर्ट के अनुसार, मोबाइल ब्रॉडबैंड का विस्तार दोहरे अंकों की दर के साथ हो रहा है. एक अनुमान के मुताबिक, इस वर्ष के अंत तक पूरी दुनिया में मोबाइल ब्रॉडबैंड की पहुंच 2.3 अरब के आंकड़े को पार कर चुकी होगी. टेलीकम्युनिकेशन के विशेषज्ञों का मानना है कि विकासशील देशों में 55 प्रतिशत से अधिक मोबाइल ब्रॉडबैंड की पहुंच आर्थिक और सामाजिक विकास की गाथा लिखने में सक्षम है.
शिक्षा, विज्ञान और 4जी तकनीक
आज के दौर में इंटरनेट के बिना उच्च शिक्षा के बारे में सोचना भी मुश्किल है. पिछले पांच वर्षो में 45 प्रतिशत तक की वार्षिक दर से मोबाइल ब्रॉडबैंड से लोग जुड़े हैं. इसी से फिक्स्ड ब्रॉडबैंड की तुलना में मोबाइल ब्रॉडबैंड सब्स्क्रिप्शन दोगुने से भी ज्यादा हो गया है. बाजार विशेषज्ञों का मानना है कि लैंडलाइन फोन को सैचुरेशन प्वाइंट (वह बिंदु, जहां मांग की संभावना नगण्य हो) पर पहुंचने में एक शताब्दी लग गयी, वहीं मोबाइल फोन ने इस सफर को 20 वर्षो से भी कम समय में पूरा कर लिया और स्मार्टफोन तो शुरुआत में ही लगभग आधे सफर को तय कर चुका है.
अब दुनिया 4जी टेक्नोलॉजी को अपना रही है. यह अल्ट्रा ब्रॉडबैंड इंटरनेट एक्सेस आधारित तकनीक है, जो थर्ड जेनरेशन (3जी) टेक्नोलॉजी का परिवर्धित रूप है.  4जी का एलटीइ (लॉन्ग टर्म एवोल्यूशन) नेटवर्क डाटा को बहुत तेजी से ट्रांसफर करने में सक्षम है. स्क्राइब्ड डॉट कॉमकी रिपोर्ट के अनुसार, 4जी का एलटीइ नेटवर्क 100 एमबीपीएस की स्पीड तक डाउनलिंक करने और 50 एमबीपीएस की स्पीड तक अपलिंक करने में सक्षम है.
4जी और एम-लर्निग
4जी में वीडियो डाउनलोड करने की स्पीड 3जी की स्पीड से दोगुने से भी ज्यादा होती है. स्पीड तेज होने पर शिक्षा और विज्ञान शोध के क्षेत्र में अवसरों की भरमार होगी. इससे दुनियाभर के छात्र अपने विषय के विशेषज्ञों, ऑनलाइन कक्षाओं, ऑनलाइन लाइब्रेरी और विश्वविद्यालय नेटवर्क से जुड़ सकेंगे.
टेलीकम्युनिकेशन विशेषज्ञों के मुताबिक, 2015 तक वीडियो ऑन डिमांड ट्रैफिक तीन अरब प्रतिमाह तक पहुंच जायेगी. वीडियो-ऑन-डिमांड में हाइडेफिनेशन (एचडी) इंटरनेट वीडियो की हिस्सेदारी 77 प्रतिशत तक पहुंच चुकी होगी. ब्राजील, चीन और भारत में रिसर्च और डेवलपमेंट के क्षेत्र में मोबाइल ब्रॉडबैंड टेक्नोलॉजी खासकर 3जी और 4जी की भूमिका भविष्य तय करेगी. साइंस और टेक्नोलॉजी से जुड़ी जानकारियां किसी भी देश में आम लोगों के लिए उतनी ही आसान हो जायेंगी, जितना कि स्मार्टफोन की पहुंच. इंटरनेशनल टेलीकम्युनिकेशन यूनियन की रिपोर्ट के अनुसार, टेलीकम्युनिकेशन के इतिहास में विकासशील देशों में मोबाइल फोन उपभोक्ताओं की संख्या विकसित देशों की तुलना में कई गुना ज्यादा है.
शिक्षा के लिए सोशल नेटवर्किग
भौतिकी और गणित के कई सिद्धांतों के माध्यम से सोशल नेटवर्क के व्यवहार और क्रियाकलापों का अध्ययन किया जाता है. लेकिन सोशल नेटवर्क के द्वारा विज्ञान और गणित का अध्ययन मौजूदा पीढ़ी की अहम उपलब्धि है. विभिन्न सोशल नेटवर्क पर विभिन्न स्टडी ग्रुप के माध्यम से सूचनाओं के आदान-प्रदान की प्रक्रिया तेजी से प्रचलन में आ रही है. फेसबुक, गूगल प्लस, मायस्पेस, एचआइ5, ट्विटर (माइक्रोब्लॉगिंग), फ्लिकर, इंस्टाग्राम और पिंटरेस्ट (फोटो शेयरिंग व टैगिंग), फोर स्क्वायर (जियोलोकेशन), एनोबी (बुक्स), लिंक्ड-इन (बिजनेस) युवाओं के बीच काफी प्रसिद्ध हो चुकी है.
स्क्राइब्ड डॉट कॉमकी रिपोर्ट के अनुसार, जेनेटिक्स और सेल बायोलॉजी के क्षेत्र में काम करनेवाले नेचर पब्लिशिंग ग्रुप साइटेबलनाम से फ्री साइंस लाइब्रेरी और पर्सनल लर्निग टूल जैसी सुविधाएं उपलब्ध करा रहा है. दूसरी ओर, आइपैड एप द्वारा साइंटिफिक मीडिया कंटेंट रिसर्च के क्षेत्र में काम कर रहे वैज्ञानिकों और युवाओं के लिए महत्वपूर्ण माध्यम साबित हो रहा है. आइपैड का मोशन सेंसर कई ऐसे एप्लीकेशन पर आधारित होता है, जो अध्ययन के लिए युवाओं को आकर्षित करता है. इतना ही नहीं, छात्र आइपैड के मोशन सेंसर को बैलेंस स्किल, रीयल व वर्चुअल रोबोटिक्स और अन्य वाहनों के लिए रिमोट कंट्रोल के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं. आइपैड के क्लानॉमिटर एप (कोण मापने की विधि) द्वारा किसी दीवार की ऊंचाई, कोण, ढलान आदि को मापा जा सकता है. एक्सलिरोमीटर एप भौतिकी के विभिन्न प्रयोगों में इस्तेमाल में लाया जा सकता है.
थॉमसन रयूटर्स वेब ऑफ साइंस डाटाबेसके मुताबिक, वर्ष 1980 से 2009 के बीच साइंटिफिक पब्लिकेशन का दायरा काफी बड़ा हुआ है. पिछले तीन दशकों में वर्ल्ड साइंटिफिक प्रोडक्शन की बात करें तो पब्लिकेशन की संख्या चार लाख से बढ़ कर 12 लाख तक पहुंच गयी. दुनियाभर में विज्ञान के प्रति लोगों का रुझान बढ़ा है. एम-साइंस और साइंस आधारित मोबाइल एप इस दायरे को असीमित करने का सामथ्र्य रखते हैं.
विकासशील देशों के लिए एम-साइंस
मोबाइल डिवाइसेस विभिन्न स्नेतों से सूचनाओं के प्राप्त करने और प्रसारित करने के कारण विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों के बड़े समूहों में अपनी पैठ बना रही हैं. इंटरनेट आसानी से एक्सेस होने के कारण मोबाइल डिवाइसेस शिक्षा, खासकर विज्ञान से लोगों को तेजी से जोड़ रही है. विकसित देशों में उच्च शिक्षा विभिन्न माध्यमों से आम लोगों तक पहुंचती है. ऑनलाइन प्लेटफार्म पर आम लोगों के लिए वीडियो लेक्चर जैसी सुविधाएं उपलब्ध होती हैं. निश्चित ही मोबाइल ब्रॉडबैंड के प्रसार से इस प्लेटफार्म का दायरा विभिन्न महाद्वीपों के उन छोटे-मोटे देशों तक बढ़ेगा, जहां  हाल के वर्षो में इस तकनीक की कल्पना तक नहीं की गयी थी. केवल अफ्रीकी देशों की बात करें तो सेलफोन उपभोक्ताओं की संख्या दोगुनी रफ्तार से बढ़ रही है. वर्ष 2010 में अफ्रीका में सेलफोन उपभोक्ताओं की संख्या छह करोड़ 30 लाख थी, जो महज दो वर्षो में बढ़ कर 15 करोड़ 20 लाख पर पहुंच गयी.
मोबाइल डिवाइसेस द्वारा सेंसिंग, कंप्यूटिंग और साइंटिफिक इन्फॉरमेशन के प्रसार की प्रक्रिया को एम-साइंसकहा जाता है. एम-साइंस इन्फॉरमेशन और कम्युनिकेशन के क्षेत्र में स्टेट-ऑफ-आर्ट (नवीनतम तकनीक से पूर्ण) का रूप ले रहा है. साइंटिस्ट और रिसर्च स्कॉलर ऑनलाइन सर्विसेज और एप्लीकेशन के माध्यम से डाटा एक्सेस व डाटा एनालिसिस की प्रक्रिया को आसान बना पा रहे हैं. खासकर मोबाइल द्वारा इ-जर्नल, पाडकॉस्ट, वेब लेक्चर, वेबिनॉर्स, वर्चुअल कांफ्रेंस, मोबाइल कोलेबरेशन टूल्स और एम-लर्निग जैसे शब्द हम मोबाइल टेक्नोलॉजी की ही वजह से सुन पा रहे हैं. नये स्मार्ट जीपीएस आधारित मोबाइल एप्लीकेशन से भूकंप की मॉनीटरिंग भी संभव है. शहरों में होने वाले वायु प्रदूषण के प्रभाव के अध्ययन में मोबाइल द्वारा आसानी से आंकड़े इकट्ठा किये जा सकते हैं. सेंसर युक्त मोबाइल डिवाइसेस से बड़े पैमाने पर साइंटिफिक रिसर्च से जुड़े काम किये जा सकते हैं. विशेषज्ञों का मानना है कि अगर हम सभी एप्लीकेशन पर गौर करें तो बड़ी ही आसानी से कह सकते हैं कि मोबाइल डिवाइसेस अब तक के इतिहास में सबसे बड़ा साइंटिफिक इंस्ट्रूमेंट है.
स्मार्टफोन है बहुद्देश्यीय यंत्र

स्मार्टफोन एक ऐसी ऑल-इन-वन डिवाइस है, जिससे आम जरूरतों के साथ-साथ कई विशेष कार्य किये जा सकते हैं. साइंटिफिक रिसर्च के क्षेत्र में विभिन्न मापकों के लिए इस्तेमाल किया जाता है. विशेष प्रकार के नोट बनाने (टेक्स्ट) के लिए की-बोर्ड, वायस के इस्तेमाल के साथ कुछ मामलों में हैंड राइटिंग भी की जा सकती है. खास मौकों पर चित्र व वीडियो बनाना किसे नहीं आता है. जीपीएस से वास्तविक स्थिति का निर्धारण, वायरलेस कनेक्शन (वाइ-फाइ) से अपलोडिंग करना स्मार्टफोन की सामान्य खासियतों में है. माइक्रोफोन, मैग्नेटोमीटर/ कंपास, एक्सिलरोमीटर, जायरोमीटर (दिक्सूचक), एंबिएंट लाइट सेंसर महत्वपूर्ण फीचर हैं. मोबाइल डिवाइसेस से तापमान, आद्र्रता, दाब मापना भी संभव हो चुका है. निकट भविष्य में कई ऐसे नये फीचर जोड़े जायेंगे, जो साइंटिफिक रिसर्च की दिशा में इंजीनियर, रिसर्च स्कॉलर  के साथ- साथ आम लोगों के लिए भी काफी मददगार साबित होंगे.