Friday 24 October 2014

डिग्री और योग्यता में बढ़ता फासला

शशांक द्विवेदी 
राष्ट्रीय सहारा 
भारत में तकनीकी शिक्षा के वर्तमान स्वरूप को देखकर यह प्रतीत होता है कि हम अभी तक उसे व्यावहारिक और रोजगारपरक नहीं बना पाए हैं। पिछले 25 साल में उच्च शिक्षा और तकनीकी उच्च शिक्षा के क्षेत्र में काफी विस्तार हुआ है । हजारों इंजीनियरिंग कॉलेज खुल गए है और लगातार खुल भी रहे है । पर क्या इन संस्थानों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की गारंटी दी  जा सकती है । सच्चाई यह है कि देश के अधिकांश इंजीनियरिंग कॉलेज डिग्री बाँटने की दूकान बन कर रह गयें है .इन कालेजों से निकलने वाले लाखों युवाओं के पास इंजीनियरिंग की डिग्री तो है लेकिन कोई कुछ भी कर पाने का “स्किल “ नहीं है जिसकी वजह से देश भर में  हर साल लाखों लाखों इंजीनियर बेरोजगारी का दंश झेलने को मजबूर है ।
पिछले दिनों विभिन्न तकनीकी नौकरियों की सैलरी की सर्वे करने वाली कंपनी टीमलीज ने एक रिपोर्ट में बताया कि देश में इलेक्ट्रिशियन फिटर और प्लंबर की मांग बहुत ज्यादा है और जबकि इंजीनियर्स की माँग बहुत कम और आपूर्ति बहुत ज्यादा है ।  टीमलीज के सर्वे के अनुसार बारहवीं पास इलेक्ट्रिशियन की औसत सैलरी 11300 रुपये प्रति माह है, जबकि डिग्री वाले इंजीनियर की औसत सैलरी 14800 रुपये प्रति माह यानी 3500 रुपये ज्यादा है। पिछले छह साल में इलेक्ट्रिशियन प्लंबर, टेक्निशियन का वेतन बढ़ा है। जबकि आईटी इंजीनियरों की एंट्री लेवल तनख्वाह लगभग उतनी ही है। रिपोर्ट के अनुसार दस साल पहले जब आईटी का बूम हुआ था तब काफी मांग थी। जबकि पिछले 10 सालों में माँग में बढ़ोत्तरी नहीं हुई है जबकि माँग के मुकाबले कई गुना ज्यादा इन्जीनियरिंग ग्रेजुएट निकल रहें है । हर साल देश में 15 लाख इंजीनियर बनते है लेकिन उनमें से सिर्फ 4 लाख को ही नौकरी मिल पाती है बाकी सभी बेरोजगारी का दंश झलने को मजबूर है । नेशनल एसोशिएसन ऑफ सॉफ्टवेयर एंड सर्विसेज कंपनीज यानी नैसकाम के एक सर्वे के अनुसार  75 फीसदी टेक्निकल स्नातक नौकरी के लायक नहीं हैं। आईटी इंडस्ट्री इन इंजीनियरों को भर्ती करने के बाद ट्रेनिंग पर करीब एक अरब डॉलर खर्च करते हैं। इंडस्ट्री को उसकी जरुरत के हिसाब से इंजीनियरिंग ग्रेजुएट नहीं मिल पा रहें है । डिग्री और स्किल के बीच फासला बहुत बढ़ गया है । इतनी बड़ी मात्रा में पढ़े लिखे इंजीनियरिंग बेरोजगारों की संख्या देश की अर्थव्यवस्था और सामजिक स्थिरता के लिए भी ठीक नहीं है ।
लगातार बेरोजगारी बढ़ने की वजह से इंजीनियरिंग कालेजों में बड़े पैमाने पर सीटें खाली रहने लगी है । उच्च और तकनीकी शिक्षा के वर्तमान सत्र में ही पूरे देशभर में 7 लाख से ज्यादा सीटें खाली है । तकनीकी शिक्षा में देश के अधिकांश राज्यों में 60 से 70 प्रतिशत तक सीटें खाली है ।  इसने भारत में उच्च शिक्षा की शर्मनाक तस्वीर पेश की है । यह आंकड़ा चिंता बढ़ाने वाला भी है, क्योंकि स्थिति साल दर साल खराब ही होती जा रही है । एक तरफ प्रधानमंत्री देश के लिए ‘मेक इन इंडिया “की बात कर रहें है वही दूसरी तरफ देश में तकनीकी और उच्च शिक्षा के हालात बद्तर स्तिथि में है । ये हालात साल दर साल खराब होते जा रहें है ।  आज हमारे शैक्षिक कोर्स 20 साल पुराने है इसलिए इंडस्ट्री के हिसाब से छात्रों को अपडेटेड थ्योरी नहीं मिल पाती । इसी वजह से आज इंजीनियरिंग स्नातक के लिए  नौकरी पाना सबसे बड़ा चुनौतीपूर्ण कार्य होता जा रहा है । अभी स्तिथि यह है कि सारा ध्यान थ्योरी  सब्जेक्ट पर है,उन्हें रटकर पास करने में ही छात्र अपनी इति श्री समझते है । इंडस्ट्री और इंस्टीट्यूटस के मध्य एक कॉमन प्लेटफार्म स्थापित करने की दिशा में सरकारी और निजी दोनों के प्रयास जरूरी है  ।
एस्पायरिंग माइंड्स की एक रिपोर्ट के अनुसार 20 प्रतिशत से भी कम इंजीनियर आईटी क्षेत्र में नौकरी के लायक हैं। 8 प्रतिशत से भी कम इंजीनियर कोर इंजीनियरिंग के लायक हैं। इतनी बड़ी मात्रा में पढ़े दृलिखे इंजीनियरिंग बेरोजगारों की संख्या देश की अर्थव्यवस्था और सामजिक स्थिरता के लिए भी ठीक नहीं है । एस्पायरिंग माइंड्स ने अपनी रिपोर्ट में यह भी लिखा है कि देश में युवा बेरोजगारों  की बढ़ती फौज अर्थव्यवस्था की कुशलता और सामाजिक स्थिरता के हिसाब से भी अच्छा नहीं है । देश में तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में पढ़ाई लिखाई की गुणवत्ता बहुत अच्छी नहीं है। अधिकांश कालेजों में शिक्षण का स्तर  और प्रशिक्षण की व्यवस्था ठीक नहीं है । देश में इलेक्ट्रिशियन, प्लंबर और टेक्निशियन की मांग बढ़ रही है तो उसका लाभ कैसे उठाया जा सकता है। क्या हमारे पास ऐसी कोई योजना है, ऐसा कोई सेंटर हैं जो ऐसी नौकरियों के लिए कम पैसे में प्रशिक्षण दे सकें। ज्यादातर लोग तो अपने अनुभव से सीख कर ही नौकरी पाते हैं वो भी अस्थायी। जबकि प्रशिक्षण की बहुत आवश्यकता है ,इस दिशा में सरकार को पहल करनी पड़ेगी । अब वक्त आ गया है कि हम यह सोचें कि क्या हमारे पास क्वालिटी इंजीनियर हैं। चीन के कुल छात्रों का 34 प्रतिशत इंजीनियरिंग की पढ़ाई करता है जबकि भारत में कुल छात्रों का मात्र 6 प्रतिशत। इंजीनियरिंग में इतने कम एनरोलमेंट के बाद भी देश में क्वालिटी इंजीनियर इंजीनियरों की संख्या बहुत कम है । कुलमिलाकर तकनीकी शिक्षा के हालात बहुत खराब है और इस पर तत्काल ध्यान देने की जरुरत है ।
पिछले दिनों एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि युवाओं में प्रतिभा का विकास होना चाहिए । उन्होंने डिग्री के बजाय योग्यता को महत्त्व देते हुए कहा था कि छात्रों को स्किल डेवलपमेंट पर ध्यान देना होगा । आज देश में बड़ी संख्या में इंजीनियर पढ़ लिख कर निकल रहें है लेकिन उनमे “स्किल” की बहुत बड़ी कमी है इसी वजह से लाखों इंजीनियर हर साल बेरोजगारी का दंश झेल रहें है । इंडस्ट्री की जरुरत के हिसाब से उन्हें काम नहीं आता ।सच्चाई यह है कि आज डिग्री के बजाय हुनर की जरुरत है । शैक्षणिक स्तर पर स्किल डेवलपमेंट के मामले में जर्मनी का मॉडल पूरी दुनियाँ में प्रसिद्ध है .जर्मनी में  में डुअल सिस्टम चलता है। वहां के हाई स्कूल के आधे से ज्यादा छात्र 344 कारोबार में से किसी एक में ट्रेनिंग लेते हैं। चाहे वो चमड़े का काम हो या डेंटल टेक्निशियन का। इसके लिए वहाँ  छात्रों को सरकार से महीने में 900 डॉलर के करीब ट्रेनिंग भत्ता भी मिलता है। जर्मनी में स्किल डेवलपमेंट के कोर्स मजदूर संघ और कंपनियां बनाती है । वहां का चेंबर्स और कामर्स एंड इंडस्ट्रीज परीक्षा का आयोजन करता है। स्पेन ब्रिटेन से लेकर भारत तक सब जर्मनी के इस स्किल डेवलपमेंट का मॉडल  अपनाना चाहते हैं। पिछली यूपीए सरकार ने 2009 में जर्मनी के साथ स्किल डेवलपमेंट को लेकर कार्यक्रम भी बनाए थे ।लेकिन सरकारी लालफीताशाही के दौर में देश भर में उनका ठीक से क्रियान्वयन नहीं हो पाया । केंद्र सरकार को शैक्षणिक कोर्सेस के साथ साथ स्किल डेवलपमेंट्स के कार्यक्रमों पर विशेष ध्यान देना होगा और इन्हें पूरे देश में एक साथ चलाने होने तभी इसके सकारात्मक परिणाम निकल सकते है । प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मेक इन इंडिया का सपना तभी पूरा हो पायेगा जब देश के युवा हुनरमंद होंगे और वो डिग्री के बजाय हुनर को प्राथमिकता देंगे ।

Monday 20 October 2014

भारत का अपना नेविगेशन सिस्टम

विशेष लेख
उम्मीद है कि वर्ष 2016 से भारत का अपना इंडियन नेविगेशन सिस्टमकाम करना शुरू कर देगा. फिलहाल इसके लिए अमेरिकी जीपीएसकी मदद ली जाती है. इसे विकसित करने के मकसद से भारत ने 16 अक्तूूबर को तीसरा सेटेलाइट सफलतापूर्वक लॉन्च कर दिया .इस तरह की तकनीक अभी अमेरिका और रूस के पास ही है. यूरोपीय संघ और चीन भी 2020 तक इसे विकसित कर पायेंगे, लेकिन भारत उससे पहले यह कामयाबी हासिल कर सकता है. क्या है नेविगेशन सिस्टम, क्या है इसकी खासियत आदि के अलावा अमेरिका और अन्य देशों के जीपीएस सिस्टम के बारे में  विशेष लेख
स्वदेशी क्षेत्रीय नेवीगेशन प्रणाली विकसित करने के लिए भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) 16 अक्तूबर को इंडियन रीजनल नेवीगेशनल सेटेलाइट सिस्टम-1सी (आइआरएनएसएस-1सी) का सफल प्रक्षेपण कर लिया . हालांकि, इसे लॉन्च करने की योजना 10 अक्तूबर को ही थी, लेकिन तकनीकी कारणों से इसकी तिथि आगे बढ़ा दी गयी. ‘आरआरएनएसएस- 1सीके प्रक्षेपण की 67 घंटे की उल्टी गिनती 13 अक्तूबर को सुबह 6.32 बजे से शुरू हो चुकी थी .दरअसल, इसरो की योजना अमेरिका के ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टमयानी जीपीएस की तरह ही एक अपना इंडियन रीजनल नेविगेशनल सेटेलाइट सिस्टमबनाने की है.  पूर्ण नेविगेशन का तंत्र विकसित करने के लिए अगले दो वर्षो में इसरो की कुल सात सेटेलाइट लॉन्च करने की योजना है. 1,425.4 किलोग्राम का भार ले जाने में सक्षम आइआरएनएसएस-1सीसात सेटेलाइटों की श्रृंखला में तीसरे नंबर का है. इससे पहले आइआरएनएसएस-1ए और बी का प्रक्षेपण क्रमश: 1 जुलाई, 2013 और 4 अप्रैल, 2014 को श्रीहरिकोटा से किया गया था.
 वर्ष 2016 तक आइआरएनएसएस कार्यक्रम के सभी सातों सेटेलाइट के पूरी तरह से संचालित होने की उम्मीद है. विशेषज्ञों का मानना है कि इसके बाद देशवासियों को इसके फायदे मिल सकते हैं. आरटी डॉट कॉमपर एक रिपोर्ट में बताया गया है कि आम आदमी की जिंदगी को सुधारने के अलावा सैन्य गतिविधियों, आंतरिक सुरक्षा और आतंकवाद-रोधी उपायों के रूप में यह सिस्टम बेहद उपयोगी होगा. 
 खासकर 1999 में सामने आयी कारगिल जैसी सुरक्षा संबंधी चुनौतियों से इसके जरिये समय रहते निपटा जा सकेगा. इस रिपोर्ट के मुताबिक, कारगिल घुसपैठ के समय भारत के पास ऐसा कोई सिस्टम मौजूद नहीं होने के कारण सीमा पार से होने वाले घुसपैठ को समय रहते नहीं जाना जा सका. बाद में यह चुनौती बढ़ने पर भारत ने अमेरिका से जीपीएस सिस्टम से मदद मुहैया कराने का अनुरोध किया गया था. हालांकि, अमेरिका ने मदद मुहैया कराने से इनकार कर दिया था. उसके बाद से ही जीपीएस की तरह ही देशी नेविगेशन सेटेलाइट नेटवर्क के विकास पर जोर दिया गया.
 वर्तमान में अमेरिका और रूस के पास ही पूर्णतया संचालित नेविगेशन सेटेलाइट है. यूरोपियन यूनियन (गैलीलियो) और चीन (बेइदोउ) भी इस दिशा में काम कर रहे हैं. इसके अलावा, जापान और फ्रांस भी अपना नेविगेशन सेटेलाइट नेटवर्क बनाने में जुटे हैं. माना जा रहा है कि इस सिस्टम के पूर्णतया संचालित होने पर भारत अन्य देशों को इसकी सुविधा मुहैया करा सकता है और विदेशी मुद्रा अजिर्त कर सकता है.

इंडियन रीजनल नेवीगेशन सेटेलाइट सिस्टम

इसरो की वेबसाइट इसरो डॉट जीओवी डॉट इनके मुताबिक, इंडियन रीजनल नेवीगेशन सेटेलाइट सिस्टम (आइआरएनएसएस) एक स्वतंत्र रीजनल नेवीगेशन सेटेलाइट सिस्टम है. इस सिस्टम को कुछ इस तरह से डिजाइन किया गया है, ताकि इस सेटेलाइट से भारत की भौगोलिक सीमा और आसपास करीब 1,500 से 2000 किलोमीटर के दायरे में किसी चीज की वास्तविक स्थिति को जाना जा सकता है. 

इस सिस्टम के तहत विभिन्न संगठनों या विभागों से जुड़े इस्तेमालकर्ताओं को किसी भी मौसम में एक्यूरेट रीलय टाइम पोजिशन, नेवीगेशन और टाइम (पीएनटी) संबंधी सेवाएं 24 घंटे मुहैया करायी जायेंगी. हिंद महासागर के इलाके में 20 मीटर से कम दूरी और भारत के स्थलीय इलाके में 10 मीटर से भी कम दूरी तक चीजों को नेवीगेट कर सके गा. यानी यह जो स्थिति बतायेगा, वह वास्तविक स्थिति के महज 10 मीटर के दायरे में होगा.

आइआरएनएसएस सिस्टम में मुख्य रूप से तीन घटक हैं. इन्हें इस रूप में जाना जाता है-स्पेस सेगमेंट (कॉन्स्टेलेशन ऑफ सेटेलाइट एंड सिगनल-इन-स्पेस यानी उपग्रहों के समूह और अंतरिक्ष में सिगनल), ग्राउंड सेगमेंट और इस्तेमालकर्ताओं का सेगमेंट. आइआरएनएसएस समूह के तहत सात उपग्रह आते हैं. इनमें से तीन उपग्रहों को जियोस्टेशनरी इक्वेटोरियल ऑरबिट यानी भूमध्यवर्ती कक्षा में स्थापित किया जायेगा और दो उपग्रहों को जियोसाइक्रोनस ऑरबिट में स्थापित किया जायेगा. आइआरएनएसएस में एल5’ और एस-बैंड सेंटर फ्रिक्वेंसी के तौर पर दो प्रकार के सिगनलों का इस्तेमाल किया जाता है. साथ ही 1176.45 मेगाहट्र्ज एल बैंड सेंटर फ्रिक्वेंसी और 2492.028 मेगाहट्र्ज एस-बैंड फ्रिक्वेंसी है. 

एल5 और एस-बैंड दोनों ही में दो डाउनलिंक हैं. सामान्य नागरिक जैसे इस्तेमालकर्ताओं के लिए यह स्टैंडर्ड पोजिशनिंग सर्विस और खास अधिकृत इस्तेमालकर्ताओं के लिए रेस्ट्रिक्टिव सर्विस  जैसी दो मूलभूत सेवाएं मुहैया कराता है.

सेटेलाइट नेविगेशन सेंटर
 इसरो की परियोजना के एक हिस्से के रूप में 28 मई, 2013 को बंगलुरु के निकट ब्यालालू में इसरो के डीप स्पेस नेटवर्क (डीएसएन) के कैंपस में सेटेलाइट नेविगेशन सेंटर स्थापित किया गया था. इसके लिए देशभर में 21 स्थानों पर स्थित रेंजिंग स्टेशनों के नेटवर्क से उपग्रहों की कक्षा को निर्धारित करने और नेविगेशन सिगनल की मॉनीटरिंग के लिए आंकड़े मुहैया कराये जायेंगे.
 इसके निर्माण में यह कोशिश की गयी है कि वह पूरी तरह से मानकों के अनुरूप हो. इनमें से पहले दो मॉडल का निर्माण 2012 से पहले ही कर लिया गया था. आइआरएनएसएस सेटेलाइट के प्रमुख घटकों जैसे स्पेसक्राफ्ट की संरचना, थर्मल कंट्रोल सिस्टम, प्रोपल्शन सिस्टम, पावर सिस्टम, टेलीमेट्री, ट्रैकिंग एंड कमांड, डेप्लॉयमेंट मेकेनिजम, चेक आउट और इंटेग्रेशन जैसी चीजें के डिजाइन की समीक्षा भी कई वर्ष पहले ही की जा चुकी है. 
 आइआरएनएसएस के नेविगेशन  सॉफ्टवेयर को इसरो सेटेलाइट सेंटर में देशी तरीके से विकसित किया गया है. सिगनल चैनल एसपीएस और आरएस डुअल फ्रिक्वेंसी रिसिवर को भी देश में ही विकसित किया गया है. नेविगेशन पेलोड का परीक्षण भी किया गया है, जो इसे पूर्ण कार्यसक्षम बनायेगा.
 यूरोप का गैलीलियो
 गैलीलियो यूरोप का अपना ग्लोबल नेविगेशन सेटेलाइट सिस्टम है. यह अत्यधिक सटीक, सिविलियन कंट्रोल (नागरिकों के नियंत्रण में), गारंटीयुक्त ग्लोबल पोजिशनिंग सेवा मुहैया करायेगा. यूरोपियन स्पेस एजेंसी की अधिकृत वेबसाइट इएसए डॉट आइएनटीमें बताया गया है कि अमेरिकी और रूसी ग्लोबल सेटेलाइट नेवीगेशन  सिस्टम के तौर पर यह क्रमश: जीपीएसऔर ग्लोनासके समकक्ष है. 
 डुअल फ्रिक्वेंसी स्टैंडर्ड के माध्यम से गैलीलियो रीयल-टाइम पोजिशनिंग एक्यूरेसी बताने में सक्षम है. चार में से पहले दो ऑपरेशनल सेटेलाइट को गैलीलियो कॉन्सेप्ट के मुताबिक अंतरिक्ष और धरती पर 21 अक्तूबर, 2011 को स्थापित किया गया. इसके बाद 2012 में दो और सेटेलाइट भेजे गये. गैलीलियो सिस्टम की पूर्ण क्षमता को विकसित करने के लिए इसमें 30 सेटेलाइट शामिल किये गये हैं. 

Friday 17 October 2014

एंटीबायोटिक दवाओं के दुरुपयोग का सिलसिला

रमेश कुमार दुबे
चिकित्‍सा के इतिहास में एंटीबायोटिक का आविष्‍कार उसी प्रकार की चमत्‍कारिक घटना थी, जिस प्रकार विज्ञान के क्षेत्र में परमाणु बम की। दोनों घटनाएं 1940 के दशक में घटीं। दोनों में कई समानताएं भी थीं, जैसे इनका अत्‍यधिक इस्‍तेमाल मानव जाति के लिए विनाशकारी होता है। यद्यपि द्वितीय विश्‍व युद्ध के बाद परमाणु बम का इस्‍तेमाल नहीं किया गया है तथापि एंटीबायोटिक दवाओं के अत्‍यधिक इस्‍तेमाल से मनुष्‍य आपदा को न्‍योता दे रहा है। एंटीबायोटिक दवाओं के बल पर डॉक्‍टरों ने मरीजों में संक्रमण रोकने में कामयाबी पाई, लेकिन यह भी अनुभव किया गया कि इनके इस्‍तेमाल से शरीर के कई लाभदायक बैक्‍टीरिया भी नष्‍ट होते जा रहे हैं। इससे कीटों में प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो रही है। इसी का नतीजा है कि सर्दी-जुकाम सरीखी छोटी-मोटी बीमारियों में भी एंटीबायोटिक दवाएं अपना असर देर से दिखाती हैं। दूसरी नई श्रेणी की एंटीबायोटिक दवाओं की खोज का काम ठप पड़ा हुआ है क्‍योंकि डाइबिटीज, कैंसर, ब्‍लड प्रेशर जैसी बीमारियों की दवाओं की तुलना में एंटीबायोटिक दवाओं में मुनाफे की संभावना नहीं है।
एंटीबायोटिक दवाएं बैक्‍टीरिया से होने वाली विभिन्‍न बीमारियों में दो तरीके से काम करती हैं; पहला, शरीर में मौजूद बीमारी पैदा करने वाले बैक्‍टीरिया को मारती हैं और दूसरा, जरूरत के हिसाब से शरीर में अच्‍छे बैक्‍टीरिया पैदा करती हैं, जिससे वे खराब बैक्‍टीरिया से लड़ सकें। 20वीं सदी की शुरुआत से पहले सामान्‍य और छोटी बीमारियों से भी छुटकारा पाने में महीनों लगते थे, लेकिन एंटीबायोटिक दवा खाने के बाद उनसे एक सप्‍ताह से भी कम समय में छुटकारा मिलने लगा। कई आधुनिक दवाइयां तो प्रभावशाली एंटीबायोटिक के बिना काम ही नहीं करती हैं। इसीलिए इसे मैजिक बुलेट कहा जाने लगा। लेकिन एंटीबायोटिक दवाओं के अत्‍यधिक इस्‍तेमाल से यह मैजिक बुलेट बेअसर होने लगी है। इसकी प्रतिक्रिया मेंडॉक्‍टर अधिक शक्तितशाली एंटीबायोटिक लिखने लगे हैं। इसी का नतीजा है कि इनकी बिक्री में छह गुना इजाफा हुआ। उदाहरण के लिए कार्बापेनेम्‍स कही जाने वाली इन दवाओं का इस्‍तेमाल तब होता है जब दूसरे सभी उपाय विफल हो जाते हैं, लेकिन अब इसे साधारण बीमारियों में भी दिया जाने लगा है।
एंटीबायोटिक दवाओं के विरुद्ध बढ़ते प्रतिरोध को देखते हुए विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन ने चेतावनी दी है कि मानवता एंटीबायोटिक के बाद के ऐसे युग में प्रवेश कर रही है जहां सामान्‍य संक्रमण ठीक नहीं हो सकेंगे। विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन ने 114 देशों से लिए गए आंकड़ों के विश्‍लेषण के बाद बताया कि यह प्रतिरोध क्षमता दुनिया के हर कोने में दिख रही है। अकेले यूरोप में हर साल 25,000 मौतें बैक्‍टीरिया में दवाओं के खिलाफ प्रतिरोध पैदा करने के कारण हो रही हैं। हाल ही में ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने चेतावनी देते हुए कहा कि यदि एंटीबायोटिक का इसी तरह दुरुपयोग होता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब एंटीबायोटिक फेल हो जाएंगी। नई श्रेणी की एंटीबायोटिक को खोजने में कम से कम 25 साल लगेंगे। भारत विश्‍व में एंटीबायोटिक दवाओं का सबसे ज्‍यादा खपत करने वाला देश है। वर्ष 2000 में जहां एंटीबायोटिक की 8 अरब गोलियों का इस्‍तेमाल होता था, वहीं वर्ष 2010 में इसकी संख्‍या बढ़कर 12.9 अरब हो गई। एक भारतीय एक वर्ष में औसतन 11 एंटीबायोटिक का सेवन करता है। हम न सिर्फ दवाओं के रूप में एंटीबायोटिक का अंधाधुंध इस्‍तेमाल कर रहे हैं बल्िक खाद्य पदार्थों में भी एंटीबायोटिक के धड़ल्‍ले से इस्‍तेमाल को बढ़ावा मिल रहा है। पोल्ट्री उद्योग में मुर्गे-मुर्गियों को जल्‍दी बड़ा करने के लिए एंटीबायोटिक का इस्‍तेमाल हो रहा है। इनका मांस (चिकन) खाने से मानव शरीर के भीतर ऐसे जीवाणु उत्‍पन्‍न हो रहे हैं जो एंटीबायोटिक के असर को खत्‍म कर देंगे। पिछले दिनों दिल्‍ली स्िथत सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) के शोध में परीक्षण हेतु लिए गए चिकन के नमूनों में से 40 फीसदी में ऐसे एंटीबायोक्‍स पाए गए हैं, जो चिकन की तेज वृद्धि के लिए दिए गए थे। भारत की भांति उभरती अर्थव्‍यवस्‍था वाले देशों जैसे ब्राजील, रूस, चीन और दक्षिण अफ्रीका में भी एंटीबायोटिक दवाओं का उपभोग तेजी से बढ़ा है क्‍योंकि इन देशों में मध्‍य वर्ग की क्रय शक्ति में इजाफा हुआ है।
यदि एंटीबायोटिक दवाओं के दुरुपयोग का सिलसिला इसी तरह बढ़ता रहा तो वह दिन जल्‍द आएगा जब मरीजों पर एंटीबायोटिक का कोई असर नहीं होगा। इससे सर्दी-जुकाम, चोट लगने पर भी मौत हो जाया करेगी। अत: नई एंटीबायोटिक की खोज के साथ-साथ एंटीबायोटिक दवाओं के अंधाधुंध इस्‍तेमाल पर प्रतिबंध लगाने की आवश्‍यकता है ताकि साधारण पैरासिटामॉल से ठीक होने वाली बीमारियों के लिए डॉक्‍टर एंटीबायोटिक न लिखें।

Thursday 16 October 2014

ब्रेन ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम

हाल ही में, ब्रेन ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम में अनुसंधान के लिए नोबल पुरस्कार की घोषणा की गई. नोबल पुरस्कार विजेता जॉन ओ कैफी, मै–ब्रिट मूजर और एडवर्ड मूजर ने मस्तिष्क छवि तकनीक (ब्रेन इमेजिंग टेक्नीक) की पड़ताल के साथ न्यूरो-सर्जरी करा रहे मरीजों पर भी अध्ययन किया.
वैज्ञानिकों ने इस बात के सबूत दिए कि मनुष्यों में भी प्लेस और ग्रिड सेल्स होती हैं. अलजाइमर के मरीज में हिप्पोकैम्पस और इटोर्हिनल कोर्टेक्स प्रारंभिक चरण में अक्सर प्रभावित होते हैं और ये व्यक्ति अक्सर अपनी बात भूल जाते हैं और वातावरण को पहचान नहीं पाते.ब्रेन पोजिशनिंग सिस्टम के बारे में जानकारी इसलिए हमें इस बीमारी से प्रभावित लोगों के विनाशकारी स्थानिक स्मृति हानि को समझने में मदद कर सकती है.ब्रेन पोजिशनिंग सिस्टम की खोज कैसे उच्च संज्ञानात्मक कार्यों को निष्पादित करने के लिए विशेष कोशिकाओं की टुकड़ियों एक साथ काम करती हैं, के बारे में हमारी समझ को बदलती है. इसने अन्य संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं जैसे स्मृति, सोच और योजना के बारे में समझ के नए रास्ते खोल दिए हैं.चूहे के दिमाग में कोशिकाओं की खोज एक अंतरनिहित नेविगेशन प्रणाली की तरह काम करता है जो यह बताता है कि पशुओं को कैसे पता चलचा है कि वे कहां हैं, वे कहां जा रहे हैं और वे कहां गए थे. वे उन्हें ग्रिड सेल्स कहते हैं.
अक्सर, हमारे विचारों को उत्पादित करने वाले अरबों न्यूरॉन्स काम करते हैं, अपारदर्शी हैं. लेकिन ग्रिड सेल्स के जरिए एक फ्रेमवर्क के साथ संकेतों की इलेक्ट्रिकल रिकॉर्डिंग का एक मैप दिखाता है और बताता है कि वे पूरी तरह सहज हैं.
खोज का अनुमान
खोज का अनुमान व्यावहारिक और गहन दोनों ही है. ये कोशिकाएं प्राइमेट में मौजूद हैं ये साबित हो चुका है और वैज्ञानिकों की सोच है कि वे मनुष्यों के साथ–साथ सभी स्तनधारियों में पाया जाएगा.
स्पष्ट है कि मस्तिष्क के निर्देशों को समझने वाली कोशिकाओं के साथ ग्रिड कोशिकाएं और अन्य कोशिकाएं जो सीमाओं या सीमाओं को समझ सकते हैं– अन्य प्रयोगशालाओं द्वारा दोनों मूल रूप से मस्तिष्क के अन्य भागों में पहचाने गए हैं– एक प्रकार का डेड–रेकनिंग नेविगेशन सिस्टम बनाता है जो उस क्षण की मैपिंग करता है.
मस्तिष्क के इस हिस्से से सूचना हिप्पोकैम्पस में जाती है और फिर वापस आती है. ठीक उसी प्रकार जैसे ग्रिड प्लेस सेल्स को सूचित करता है और इसके विपरीत, ज्ञात नहीं है.
अब वैज्ञानिकों के पास एक प्रणाली के दो छोर हैं जिसके बीच में एक ब्लैक बॉक्स है और वह पूरी तरह से समझा नहीं जा सका है. एक छोर पर प्लेस सेल्स हैं. दूसरे छोर पर ग्रिड सेल्स हैं. बीच में, वास्तव में क्या होता है और कैसे ग्रिड सेल्स पहले स्थान पर बनता है.

नेवीगेशन सैटेलाइट आईआरएनएसएस 1 सी का सफल परीक्षण

भारत ने आज सफलतापूर्वक इसरो के पीएसएलवी सी-26 के जरिए आईआरएनएसएस उपग्रह को लांच कर दिया. उपग्रह को यहां तड़के एक बजकर 32 मिनट पर लांच किया गया और इस सफलता से माना जा रहा है कि भारत अमेरिका के ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम की बराबरी पर आकर देश का खुद का नेवीगेशन सिस्टम स्थापित करने की दिशा में और एक कदम आगे बढ़ गया है.
आईआरएनएसएस 1 सी इसरो द्वारा लांच किए जाने वाले सात उपग्रहों की श्रृंखला में तीसरा उपग्रह है. यहां ठीक एक बजकर 32 मिनट पर फर्स्ट लांच पैड से राकेट ने उपर की ओर उठना शुरू किया और रात के अंधेरे में उससे निकलने वाली लपटें किसी सुनहरी तरंगों जैसी लग रही थी और देखने वालों के लिए यह एक अद्भुत नजारा था. लांच के 20 मिनट बाद लांच यान ने सफलतापूर्वक 1425.4 किलोग्राम वजनी उपग्रह को लक्षित कक्षा में स्थापित कर दिया. इसरो ने इस उपग्रह को 17.86 डिग्री के झुकाव के साथ पृथ्वी से सबसे नजदीक की दूरी 284 किलोमीटर और पृथ्वी से सबसे ज्यादा दूरी 20,650 किलोमीटर पर सब जियोसिंक्रोनस ट्रांसफर ऑर्बिट (सब जीटीओ) में स्थापित करने का लक्ष्य रखा था. इसरो के अध्यक्ष के राधाकृष्णन ने लांच के बाद कहा, ‘‘भारत ने सफलतापूर्वक आईआरएनएसएस-1 (सी) को लांच कर दिया है. इसरो की पूरी टीम इसके लिए बधाई की पात्र है.’’ उन्होंने इसके साथ ही उपग्रह के सफल लांच के लिए योगदान देने वाले पूरे दल को भी बधाई दी.
 यह सातवां मौका है जब इसरो ने अपने अभियानों के लिए पीएसएलवी के एक्सएल एडीशन का इस्तेमाल किया है. 1425.4 किलोग्राम वजनी इस उपग्रह का जीवनकाल दस साल है. आईआरएनएसएस-1 (सी) के साथ पीएसएलवी-26 को वास्तव में दस अक्तूबर को लांच किया जाना था लेकिन कुछ तकनीकी कारणों से इसके लांच को स्थगित कर दिया गया. पूरी तरह से विकसित आईआरएनएसएस सिस्टम में पृथ्वी से 36 हजार किलोमीटर की उंचाई पर जीईओ स्थतिक कक्षा में तीन उपग्रह होंगे और चार उपग्रह भूस्थतिक कक्षा में होंगे.
 नेवीगेशनल सिस्टम से दो प्रकार की सेवाएं प्राप्त होंगी...एक होगी स्टैंडर्ड पोजिशनिंग सर्विस जो सभी यूजर्स को उपलब्ध करायी जाती है और दूसरी होगी...रिसट्रिक्टिड सर्विस जो केवल अधिकृत यूजर्स को ही प्रदान की जाती है. आईआरएनएसएस सिस्टम में अंतत: सात उपग्रह शामिल होंगे और इसे 1420 करोड़ रूपये की लागत से साल 2015 तक पूरा किए जाने का लक्ष्य रखा गया है.
इस श्रंखला के पहले दो उपग्रहों, आईआरएनएसएस-1 (ए) और 1 (बी) को क्रमश: पिछले साल जुलाई और इस साल अप्रैल में प्रक्षेपित किया गया था. चूंकि इन्हें भारत द्वारा विकसित किया जा रहा है इसलिए आईआरएनएसएस को इस तरह से डिजाइन किया गया है कि ये देश और इसकी सीमा से 1500 किलोमीटर के क्षेत्रीय दायरे में यूजर्स को सटीक स्थतिक सूचना सेवा मुहैया कराएंगे.
आईआरएनएसएस की विशेषताओं में क्षेत्रीय और जहाजरानी नौवहन, आपदा प्रबंधन, वाहनों का पता लगाना, बेड़ा प्रबंधन, पर्वतारोहियों और यात्रियों को यात्रा मार्ग में मदद करना और चालकों को नौवहन में मदद करना है. भारत अपना नेवीगेशन सिस्टम विकसित कर रहा है और कुछ चुनिंदा देशों के समूह भी अपने खुद के नेवीगेशन सिस्टम को विकसित कर चुके हैं जिनमें रूस का ग्लेबल आर्बटिंग नेवीगेशन सेटेलाइट सिस्टम, अमेरिका का ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम, यूरोपीय संघ का गैलेलियो, चीन का बीदयू सेटेलाइट नेवीगेशन सिस्टम और क्वासी जेनिथ सेटेलाइट सिस्टम शामिल है.
क्या है जीपीएस?
जीपीएस यानी ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम एक ऐसी प्रणाली है जो अंतरिक्ष में सैटेलाइट नेविगेशन के जरिए किसी भी मौसम में लोकेशन तथा समय की जानकारी देता है।
भारत की तकनीक
आइआरएनएसएस के तहत भारत अपने भौगोलिक प्रदेशों तथा अपने आसपास के कुछ क्षेत्रों तक नेविगेशन की सुविधा रख पाएगा। इसके तहत भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा कुल 7 नेविगेशन सैटेलाइट अंतरिक्ष में प्रक्षेपित किए जाने है, जोकि 36000 किमी की दूरी पर पृथ्वी की कक्षा का चक्कर लगाएंगे। यह भारत तथा इसके आसपास के 1500 किलोमीटर के दायरे में चक्कर लगाएंगे। जरूरत पड़ने पर उपग्रहों की संख्या बढ़ाकर नेविगेशन क्षेत्र में और विस्तार किया जा सकता है।
कैसे काम करता है आइआरएनएसएस?
आइआरएनएसएस दो माइक्रोवेव फ्रीक्वेंसी बैंड, जो एल 5 और एस के नाम से जाने जाते हैं, पर सिग्नल देते हैं। यह 'स्टैंडर्ड पोजीशनिंग सर्विस' तथा 'रिस्ट्रिक्टेड सर्विस' की सुविधा प्रदान करेगा। इसकी 'स्टैंडर्ड पोजीशनिंग सर्विस' सुविधा जहां भारत में किसी भी क्षेत्र में किसी भी आदमी की स्थिति बताएगा, वहीं 'रिस्ट्रिक्टेड सर्विस' सेना तथा महत्वपूर्ण सरकारी कार्यालयों के लिए सुविधाएं प्रदान करेगा।
जीपीएस से बेहतर आइआरएनएसएस
यह अमेरिकन नेविगेशन सिस्टम जीपीएस से कहीं अधिक बेहतर है। मात्र 7 सैटेलाइट के जरिए यह अभी 20 मीटर के रेंज में नेविगेशन की सुविधा दे सकता है, जबकि उम्मीद की जा रही है कि यह इससे भी बेहतर 15 मीटर रेंज में भी यह सुविधा देगा। जीपीएस की इस कार्यक्षमता के लिए 24 सैटेलाइट काम करते हैं, जबकि आईआरएनएसएस के मात्र सात।
आइआरएनएसएस की विशेषताएं
आइआरएनएसएस सुरक्षा की दृष्टि से हर प्रकार से लाभकारी है। खासकर सुरक्षा एजेंसियों और सेना के लिए। ये प्रणाली देश तथा देश की सीमा से 1500 किलोमीटर की दूरी तक के हिस्से में इसके उपयोगकर्ता को सटीक स्थिति की सूचना देगी। यह इसका प्राथमिक सेवा क्षेत्र भी है। नौवहन उपग्रह आईआरएनएसएस के अनुप्रयोगों में नक्शा तैयार करना, जियोडेटिक आंकड़े जुटाना, समय का बिल्कुल सही पता लगाना, चालकों के लिए दृश्य और ध्वनि के जरिये नौवहन की जानकारी, मोबाइल फोनों के साथ एकीकरण, भूभागीय हवाई तथा समुद्री नौवहन तथा यात्रियों तथा लंबी यात्रा करने वालों को भूभागीय नौवहन की जानकारी देना आदि शामिल हैं।
आईआरएनएसएस के सात उपग्रहों की यह श्रृंखला स्पेस सेगमेंट और ग्राउंड सेगमेंट दोनों के लिए है। आईआरएनएसएस के तीन उपग्रह भूस्थिर कक्षा [जियोस्टेशनरी ऑर्बिट] के लिए और चार उपग्रह भूस्थैतिक कक्षा [जियोसिन्क्रोनस ऑर्बिट] के लिए हैं। यह श्रृंखला वर्ष 2015 से पहले पूरी होनी है।

सातों उपग्रह वर्ष 2015 तक कक्षा में स्थापित कर दिए जाएंगे और तब आईआरएनएसएस प्रणाली शुरू हो जाएगी।

Tuesday 14 October 2014

अंग निर्माण की संभावनाएं

शरीर में बनेंगे नए अंग
यदि यह समझ में आ जाए कि गिरगिट कैसे अपनी पूंछ उगा लेता है तो मनुष्यों में भी अंग पुनर्निर्माण की कोई तकनीक विकसित की जा सकती है.एक दिन मरीज खुद अपनी आवश्यकता के हिसाब से नए अंग उगा सकेंगे। ब्रिटिश वैज्ञानिकों को ऐसी कोशिकाएं उत्पन्न करने में सफलता मिली है जो शरीर में प्रविष्ट होने के बाद एक पूरी तरह से कार्य सक्षम अंग में विकसित हो सकती हैं। चूहों पर किए गए इस प्रयोग से भविष्य में दिल, गुर्दे और जिगर की बीमारियों के समुचित इलाज की उम्मीद जग गई है। यह अनुसंधान अभी प्रारंभिक अवस्था में है, लेकिन वैज्ञानिकों को पूरा भरोसा है कि इससे भविष्य में प्रत्यारोपित अंगों पर निर्भरता कम करने में मदद मिलेगी। इस अनुसंधान का नेतृत्व एडिनबरा विश्वविद्यालय की वैज्ञानिक क्लेर ब्लैकबर्न ने किया है। प्रो. ब्लैकबर्न की टीम ने चूहे के अंदर एक कृत्रिम थाइमस उगाया है। थाइमस एक छोटा सा अंग है जो दिल के करीब पाया जाता है। शरीर की प्रतिरोधक प्रणाली में इस अंग की विशेष भूमिका होती है। प्रो. ब्लैकबर्न का कहना है कि प्रयोगशाला में कोशिकाओं से अंग विकसित करना अंग पुनर्निर्माण चिकित्सा के लिए एक बड़ी चुनौती है। कोशिकाओं में कुछ फेरबदल करके हमने कोशिका की एक ऐसी किस्म विकसित की है जो शरीर में प्रत्यारोपित किए जाने के बाद एक पूरी तरह से सक्षम अंग में तब्दील हो सकती है। रिसर्चरों को प्रयोगशाला में स्टेम कोशिकाओं से दिल, जिगर और मस्तिष्क के कुछ हिस्से उगाने में कामयाबी जरूर मिली है, लेकिन अभी तक कोई भी शरीर के बाहर विकसित की गई कोशिकाओं से एक संपूर्ण अंग उगाने में सफल नहीं हो पाया था।
मनुष्यों में इस तरह की अंग पुनर्निर्माण चिकित्सा को सुरक्षित और प्रभावी बनाने में अभी दस साल लग सकते है, लेकिन वैज्ञानिकों ने ब्लैकबर्न की उपलब्धि को एक महत्वपूर्ण कदम बताया है। यह शरीर के अंदर थाइमस टी-कोशिकाएं उत्पन्न करता है। ये कोशिकाएं बीमारी से शरीर की रक्षा करती है। जब उन्हें कोई समस्या नजर आती है तो वे एक समन्वित प्रतिरोधी कार्रवाई करती हैं। इसके जरिये कैंसर जैसी हानिकारक कोशिकाओं और बैक्टीरिया तथा वायरस जैसे रोगाणुओं को अलग करने की कोशिश की जाती है। रिसर्चरों ने पता लगाया है कि कृत्रिम थाइमस भी टी-कोशिकाएं उत्पन्न कर सकता है। इससे उन शिशुओं को फायदा हो सकता है जिनमें कार्य सक्षम थाइमस नहीं पाया जाता। वैज्ञानिकों ने थाइमस उगाने के लिए चूहे के भ्रूण से फाइब्रोब्लास्ट नामक कोशिकाएं निकालीं। उन्होंने इन कोशिकाएं में कुछ ऐसा फेरबदल किया कि वे थाइमस कोशिकाओं की तरह बर्ताव करने लगीं। इन कोशिकाओं को जब चूहों में प्रविष्ट किया गया तो उन्होंने थाइमस निर्मित कर दिया। यह कृत्रिम थाइमस हर तरह से कुदरती थाइमस की तरह था। ब्रिटेन की मेडिकल रिसर्च कौंसिल के एक प्रमुख डॉक्टर रॉब बकल का कहना है कि एक संपूर्ण अंग को प्रत्यारोपित करने के बजाय क्षतिग्रस्त ऊतकों के नए हिस्से उगाना एक बेहतर विकल्प है। एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में अंग प्रत्यारोपित करना चुनौतीपूर्ण होता है। इस तरह के प्रत्यारोपण की अपनी सीमाएं हैं और उपयुक्त अंगदाताओं की कमी हमेशा बनी रहती है। डॉ. बकल का यह भी मानना है कि ब्लैकबर्न की तकनीक को मनुष्यों में सुरक्षित इस्तेमाल करने से से पहले अभी और रिसर्च की आवश्यकता पड़ेगी।
शरीर के अंगों को दोबारा उगाने के लिए वैज्ञानिक दूसरे जीव-जंतुओं पर भी रिसर्च कर रहे हैं। गिरगिट में अपनी पूंछ दोबारा उगाने की अद्भुत क्षमता पाई जाती है। वैज्ञानिकों को यदि यह समझ में आ जाए कि गिरगिट कैसे अपनी पूंछ उगा लेता है तो मनुष्यों में भी अंग पुनर्निर्माण की कोई तकनीक विकसित की जा सकती है। एरिजोना स्टेट यूनिवर्सिटी से संबद्ध अमेरिकी वैज्ञानिकए प्रो. केनरो कुसुमी का कहना है कि मनुष्यों और गिरगिटों में बहुत से जीन समान होते हैं हमने पता लगाया है कि गिरगिट अपनी कटी हुई हुई पूंछ वाले हिस्से में 326 जीनों को सक्रिय कर देता है। सेलमेंडर, टेडपोल और मछलियों में भी अपनी पूंछ दोबारा उगाने की क्षमता होती है, लेकिन गिरगिटों में ऊतकों का विकास एक अलग ढंग से होता है।



Wednesday 1 October 2014

सस्ती लागत कीमती उपलब्धि


भारत शुरू से ही अपने उत्पादों को सस्ता बनाने में माहिर है। इसकी मिसाल विश्व की सबसे सस्ती कार नैनो (2600 डालर), सबसे सस्ता टैबलेट आकाश (2500 रुपया) के बाद भारत अब मंगल पर स्पेसक्राफ्ट भेजने में सबसे कम पैसा खर्च कर इस कड़ी को कायम रखा है। भारत ने हेल्थकेयर और एजूकेशन सहित विविध क्षेत्रों में सस्ती लागत का नमूना पेश किया है। मार्स मिशन इसी तरह का उदाहरण है। इससे भारत ने एशिया में अपने को वैश्विक स्तर पर स्पेस के क्षेत्र में हो रही दौड़ में एक बजट प्लेयर के रूप में ऊभरने की कोशिश की है। देश की आर्थिक एवं सामाजिक जरूरतों को पूरा करने के मकसद से यह मिशन काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा है। इसरो द्वारा 5 सितंबर को लांच किए गए मार्स मिशन पर भारत सरकार को 80 मिलियन डालर का खर्च आया है, जो कि नासा के क्यूरियोसिटी प्रोजेक्ट की 2.5 अरब डालर की तुलना में बेहद कम है। इस सैटेलाइट को मंगलयान (मार्स व्हीकल) का नाम दिया गया है। इसके डिजाइन को काफी तवज्जो दी गई है।
वैश्विक स्तर पर अब तक 51 मिशन भेजे गए हैं जिसमें 21 असफल हुए हैं। जिसमें चीन द्वारा भेजा गया एक सैटेलाइट भी शामिल है। देखने में लाल और ऊजली पट्टी वाले इस राकेट को साउथ इस्टर्न तट से छोड़ा गया जो अगले साल सितंबर तक मार्स की कक्षा में स्थापित हो जाएगा। मार्स पर भेजे जाने वाले प्रोब्स में असफल होने की दर काफी रही है, ऐसे में इसकी सफलता पर भारत को गर्व होना चाहिए। खासकर तब जब इसी तर्ज पर चीन द्वारा2011 में पृथ्वी की कक्षा के लिए भेजा गया मिशन असफल रहा था। केवल अमेरिका, यूरोप और रूस अब तक मार्स पर लैंड कराने में सफल हो सके हैं। इसरो के मुताबिक यात्रा तो अभी शुरू हुई है चुनौतीपूर्ण समय तो आना बाकी है।
लागत को कैसे किया गया कम
अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में भारत से अमेरिका, रूस और चीन कहीं आगे हैं लेकिन इसके बावजूद भारत ने इतनी कम लागत में इसे कैसे सफल कर दिखाया है? यह जानकर सभी को आश्चर्य हो रहा है। मंगलयान को भेजने की लागत को कम रखे जाने के सवाल पर निस्टैड्स के वैज्ञानिक गौहर रजा ने कहा कि भारत को पहले से लांच किए गए सैटेलाइट से काफी कुछ सीखने को मिला है। पहले से मौजूद तकनीक को अपनाने के साथ टेस्ट के लिए कम से कम माडल बनाने पड़े हैं जिसके कारण लागत में काफी कमी आई है। यूरोपियन और अमेरिकन देशों के मुकाबले इसरो ने अपने बजट को काफी कम रखा था क्योंकि वह उसे वहन नहीं कर सकता था। सामान्य तौर पर नासा (अमेरिकन स्पेस एजेंसी) और यूरोपियन स्पेस एजेंसी स्पेसक्राफ्ट के लिए तीन माडल बनाते हैं जिसकी वजह से खर्च में बढ़ोतरी होती है। यहां पर ध्यान देने वाली बात यह है कि इसरो ने माडल तो कई बनाए लेकिन फिजिकल रूप में नहीं बल्कि इसके लिए साफ्टवेयर का सहारा लिया। स्पेसक्राफ्ट को लांच करने के लिए जरूरी माडल को ही फिजिकल रूप में निर्माण किया जिससे लागात में काफी कमी आई। जहां तक तकनीकी स्तर पर ध्यान देने की बात है तो भारत ने इसे ऐसे समय पर लांच किया है जब मंगल भारत की कक्षा के नजदीक हो ताकि ईंधन की बचत की जा सके। इसके अलावा स्पेसक्राफ्ट को सीधे उडऩे के बजाए 350 टन के वजन वाले राकेट को एक महीने के लिए चक्कर काटने के लिए जरूरी वेलोसिटी की जरूरत पड़ती है ताकि इसे पृथ्वी के गुरूत्वाकर्षण बल के प्रभाव से बाहर निकाला जा सके। इसी को ध्यान में रखते हुए भारत फ्रूगल अप्रोच को अपनाता है, जिससे खतरे की आशंका बढ़ जाती है। जिसका उदाहरण भारत के कई असफल मिशन रहे हैं। इसरो ने पृथ्वी के इर्द-गिर्द घूमने के लिए क्राफ्ट को इस तरह से डिजाइन किया है कि वह 6 से 7 बार चक्कर लगा सके, जिससे मार्स तक पहुंचने के लिए जरूरी मोमेंटम को हासिल किया जा सके। इससे फ्यूल की बचत की जाती है। इस वजह से भारत को स्पेस में एक ग्राम भेजने के लिए 1000 रूपए की लागत आई जो कि नासा की लागत से करीब दस गुणा कम थी।
भारत की क्यों हो रही है आलोचना
भारत जैसे गरीब देश को इस बात के लिए भी आलोचना का शिकार होना पड़ रहा है कि जिस देश की एक बड़ी आबादी गरीबी में गुजर-बसर करती है वहां पर ऐसे मिशन को लांच करना कितना जायज है? भारत की आलोचना इस बात के लिए भी की जा रही है कि जो देश गरीबी और ऊर्जा की कमी झेलने के साथ पिछले एक दशक में अर्थव्यवस्था में तेजी से गिरावट दर्ज की गई हो वहां के लिए यह कितना जरूरी है। भारत हमेशा से यह तर्क देता आया है कि भारत ने जो स्पेश प्रोग्राम विकसित किए हैं, रोजमर्रा की जिंदगी में उनकी महत्ता है। हालांकि इस मिशन से जुड़े लोगों का कहना था कि यह भारत विकास के लक्ष्य के साथ कदम से कदम मिला कर चलने की दिशा में लांच किया गया एक मिशन है। इसरो का जोर इस बात को लेकर था कि स्पेस रिसर्च का इस्तेमाल कर, कैसे आर्थिक बाधाओं को दूर किया जा सके, ताकि देश में खुशहाली लाई जा सके। भारत जैसे देश के लिए यह एक लक्जरी नहीं है बल्कि आवश्यकता है क्योंकि सैटेलाइट का इस्तेमाल टेलीविजन ब्राडकास्टिंग से लेकर मौसम पूर्वानुमान और आपदा प्रबंधन में किया जाता है। इस मिशन से देश की अर्थव्यवस्था के साथ साइक्लोन के पूर्वानुमान में भी काफी मदद मिलेगी।

अंतरिक्ष का बाजार
जानकारों के मुताबिक भारत 304 अरब डालर के वैश्विक स्पेस मार्केट पर अपनी सस्ती तकनीक के आधार पर कब्जा करने में कामयाब हो सकता है। नासा के अपने प्रोब मिशन पर 4.5 अरब डालर खर्च किए थे जो कि इसका एक हिस्सा भर है। इसरो के मुताबिक भारत का स्पेस एक्सप्लोरेशन बजट केवल इसके कुल बजट का 0.34 फीसदी है जिसका 7 फीसदी ही प्लैनेटरी एक्सप्लोरेशन के लिए इस्तेमाल में लाया गया है। भारतीय स्पेस प्रोग्राम के सामने कई चुनौतियां अभी भी मौजूद हैं लेकिन भारत में अभी कंपोनेंट आयात करने के साथ डीप स्पेस मोनिटरिंग सिस्टम की कमी है। जिसके लिए अमेरिका पर निर्भर रहना पड़ता है। इसका इस्तेमाल सैटेलाइट को देखने के लिए किया जाता है, जब वह मार्स के नजदीक होता है। यूएस सैटेलाइट इंडस्ट्री एसोसिएशन के मुताबिक 2012 से सैटेलाइट इंडस्ट्री का ग्लोबल स्पेस बिजनेस में करीब189.5 अरब डालर दांव पर लगा हुआ है। इसरो की स्पेस की क्षमता को बड़े स्तर पर देखते हुए अगर सभी चीजें सही तरीके से हुईं तो भारत स्पेस इंडस्ट्री की कुल हिस्सेदारी के एक चौथाई हिस्से पर अगले एक दशक या दो दशक में कब्जा जमा सकता है। वास्तविकता ऐसी है कि इस क्षेत्र में कंपीटिशन के साथ काफी संभावनाएं हैं। हालांकि भारत का प्रोग्राम अधिकतर शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए है लेकिन चीन द्वारा 2007 में एंटी सैटेलाइट मिसाइल टेस्ट के बाद क्षमता विकसित करना जरूरी है।
इसरो का मार्स मिशन
इसरो द्वारा 5 सितंबर को लांच किए गए मंगलयान एक साल की यात्रा करने के बाद मार्स कक्षा में स्थापित हो जाएगा। लांच होने के बाद इस मुद्दे पर इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गेनाइजेश के जन संपर्क अधिकारी देवी प्रसाद कार्णिक ने बताया कि लागत को कम करने के कई स्तर पर काम किए गए हैं। कैसे प्रभावी बनाया जाए। अमेरिका किसी भी मिशन को उपयुक्त बनाने पर जोर देता है जबकि रूस का फोकस इसे प्रभावी बनाने पर टिका रहता है।
कार्णिक के मुताबिक मोड्यूलर अप्रोच को अपनाया गया। भारत ने विकास इंजन के लिए तकनीक फ्रेंच सरकार के साथ मिलकर 1970 में हासिल किया था। इसमें किसी तरह का कोई पैसे का लेन-देन नहीं हुआ था। उस समय से लेकर अभी तक 120 ऐसे इंजन बनाए जा चुके हंै। हमारे यहां हर नई लांच के लिए पुराने लांच पैड का इस्तेमाल पहले से सफल रहे तकनीक को नए इंजन की जरूरत के मुताबिक बदलाव कर उपयोग में लाया जाता है।
इसी तरह का मोड्यूलर अप्रोच मार्स मिशन के लिए भी इस्तेमाल में लाया गया ताकि लागत में कमी के साथ तय समय पर लांच को अंजाम दिया जा सके। इसके अलावा किसी खास मिशन के लिए बार बार परीक्षण रकरने में समय की बर्बादी के साथ पैसा भी काफी खर्च होता है। इस वजह से परीक्षण की संख्या को कम करने के साथ सबसे बेहतर परीक्षण को लांच के लिए इस्तेमाल में लाया जाता है। मंगलयान को पृथ्वी की कक्षा से भेजने के लिए जरूरी ईंधन मंल कमी लाने के लिए दो बातों पर अधिक ध्यान दिया जाता है। इसके साथ ही लांच का प्लान ऐसे किया जाता है ताकि किसी भी स्थिति में उसका लांच प्रभावित नहीं हो। इससे परीक्षण के लंबा खिंचने के बावजूद भी लागत में बढ़ोतरी नहीं होती थी। इस मिशन को पूरा करने के लिए प्रधानमंत्री की घोषणा से 15 महीने के भीतर पूरा किया गया। 

ये हैं भारत के सपूत जिन्होंने किया मंगल फतह
सफल मंगल अभियान से भारत ने पूरी दुनिया में एक अलग मुकाम हासिल कर लिया है. इतना ही नहीं भारत ने सबसे कम कीमत पर यह सफलता हासिल की है. इस पूरे अभियान में लगभग  450 करोड़ रुपये खर्च हुए. जबकि अमेरिका में अंतरिक्ष पर  बनी एक फिल्म ग्रेविटी में इससे ज्यादा पैसे खर्च हुए थे. अमेरिका ने मंगलअभियान में भारत से 10 गुणा ज्यादा पैसा खर्च किया था. अमेरिका, रुस व जापान के बाद भारत मंगलअभियान में सफलता पाने वाला चौथा देश बन गया और हमने अपने प्रतियोगी चीन को पीछे छोड़ दिया है. भारत को यह गौरव दिलाने में कई वैज्ञानिकों का अहम योगदान है.

मंगल अभियान में भारत ने एक ही बार में सफलता हासिल कर ली. 67 करोड़ किलोमीटर का यह सफर इतना आसान नहीं था. इस सफर को तय करने में कई दिग्गजों ने पूरी मेहनत की है. इससे पहले चीन का पहला मंगल अभियान, यंगहाउ-1, 2011 में असफल रहा. 1998 में जापान का पहला मंगल अभियान ईधन खत्म हो जाने के कारण असफल हुआ था. वर्ष 1960 से लेकर अभी तक दुनिया भर में मंगल पर 51 अभियान भेजे गए और इनकी सफलता की दर 24 प्रतिशत रही है. इसलिए भारत के इस अभियान पर ज्यादा दबाव रहा. आइये हम जानते है उन वैज्ञानिकों के विषय में जिन्होंने इस अभियान को सफल बनाया. 
 इसरो के अध्यक्ष  डॉ. के. राधाकृष्णन
जब क्रिकेट की टीम जीत का परचम लहराती है, तो इसका श्रेय कप्तान को जाता है. ठीक इसी तरह मंगल अभियान की सफलता का बड़ा हिस्सा इसरो के अघ्यक्ष डॉ.के. राधाकृष्णन को जाता है. राधाकृष्णन कहते हैं, 'हम किसी से मुक़ाबला नहीं कर रहे हैं, बल्कि अपनी क्षमता को उच्च स्तर पर ले जाने की कोशिश कर रहे हैं.' अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी, उपयोग और अंतरिक्ष कार्यक्रम प्रबंधन में 40 वर्षों से भी अधिक विस्तृत उनका  कैरियर कई उपलब्धियों से भरा पड़ा है. 
डॉ. के. राधाकृष्णन का जन्म 29 अगस्त 1949 को इरिन्जालाकुडा, केरल में हुआ. 1970 में  केरल विश्वविद्यालय से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की, आईआईएम बेंगलूर में पीजीडीएम पूरा किया 1976 और आईआईटी, खड़गपुर से अपने "भारतीय भू-प्रेक्षण प्रणाली के लिए कुछ सामरिक नीतियाँ" शीर्षक वाले शोध प्रबंध पर डॉक्टरेट की उपाधि हासिल की. 1971 में इसरो के विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केंद्र, तिरुवनंतपुरम में एक इंजीनियर के रूप में इन्होंने अपने कॅरियर की शुरूआत की और आज इसरो के अध्यक्ष पद पर हैं.  
सुब्बा अरुणन प्रोजेक्ट डायरेक्टर 
मंगल अभियान में सुब्बा अरुणन की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण रही है. 24 मिनट का वक्त जिस पर मंगलअभियान की सफलता टिकी थी. उस पर विशेष नजर रखे हुए थे. सुब्बा अरुणन का जन्म तमिलनाडु के तिरुनेलवेली में हुआ. इन्होंने अपने करियर की शुरुआत विक्रम साराभाई स्पेश सेंटर से 1984 में शुरु किया. इन्हें 2013 में मंगल अभियान के लिए प्रोजेक्ट डायरेक्टर की भूमिका दी गयी. यह एक मेकेनिकल इंजीनियर हैं. 
ए. एस किरण कुमार, स्पेस एप्लीकेशन सेंटर
मंगल अभियान की सफलता में अलूर सिलेन किरण कुमार की महत्वपूर्ण भूमिका है. उन्होंने भौतिकी विज्ञान में नेशनल कॉलेज बेंगलूर से 1971 में डिग्री हासिल की. इसके बाद उन्होंने 1973 इलेक्ट्रोनिक में मास्टर डिग्री हासिल की और 1975 में एम टेक डिग्री हासिल की. 1975 में ही उन्होंने इसरो के साथ काम करना शुरु किया.