Thursday 28 August 2014

अब .com की जगह .भारत

सरकार ने देवनागरी लिपि में डॉट भारत डोमेन नाम जारी करना आज से शुुरू कर दिया है।  इसमें हिंदी, कोंकणी और मराठी समेत आठ भाषाओं को शामिल किया गया है।  यानी वेबसाइट का नाम अब इन भाषाओं में डॉट भारत एक्सटेंशन के साथ लिखा जा सकेगा। अब हिंदी भाषा में डोमेन नाम के साथ वेबसाइट बनाने वाले हिंदी भाषा में नाम बुक करा सकते हैं। वेबसाइट के नाम के अंत में डॉट काम, डॉट नेट के बजाय हिंदी में डॉट भारतहोगा। संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री रवि शंकर प्रसाद ने कहा, ‘यह पहल आठ भाषाओं में नहीं /कनी चाहिए। मैंने विभाग से डॉट भारत डोमेन नाम जल्दी ही सभी भारतीय भाषाओ में उपलब्ध कराने को कहा है।’  उन्होंने कहा, ‘हम नेशनल आप्टिकल फाइबर नेटवर्क (एनओएफएन) के जरिये इस साल 60,000 गांवों को ब्राडबैंड से जोड़ेंगे।
क्या होगा फायदा ?

अभी इंटरनेट पर वेबसाइट का पता जब हम देते हैं, तो डोमेन डॉट कॉम,डॉट जीओवी या डॉट इंन अग्रेजी भाषा में होता है। डॉट भारत डोमेन हिंदी भाषा में होगा। साथ ही हिंदी भाषा में ही आप इंटरनेट का इस्तेमाल कर सकेंगे।

Monday 25 August 2014

मानवयुक्त अभियान में होगी देरी

मानव युक्त अंतरिक्ष अभियान को अंजाम देने वाले देशों के विशिष्ट क्लब में शामिल होने के लिए भारत का इंतजार बढ़ता ही जा रहा है। अमरीका, रूस और चीन की तरह इस क्लब का सदस्य बनने भारत का यह सपना कम से कम अगले तीन साल तक पूरा नहीं हो पाएगा। 
2017 से पहले संभव नहीं 
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने पिछले दशक के मध्य में मानव युक्त अंतरिक्ष अभियान का इरादा जाहिर किया था और वर्ष 2015 में इस अभियान को अंजाम देने की समय-सीमा तय की थी। अभियान के तहत पृथ्वी की निचली कक्षा में दो से तीन सदस्यीय एक दल को भेजकर उसे पूर्व निर्धारित स्थान पर वापस उतारने की योजना थी। इस अभियान को वर्ष 2015 में अंजाम देने के लिए 12 हजार 500 करोड़ रूपए की लागत अनुमानित थी और सरकार को यह कोष चरणबद्ध तरीके से आवंटित करना था। 
सरकार ने इस अभियान को तो मंजूरी दे दी मगर अभी तक इस मद में केवल 149 करोड़ रूपए की राशि ही आवंटित की गई है। इसके अलावा 12 वीं पंचवर्षीय योजना (2012-2017) में भी यह महात्वाकांक्षी परियोजना को जगह नहीं मिली है। इस तरह कम से कम वर्ष 2017 तक भारत के मानव युक्त अंतरिक्ष अभियान की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
तकनीकी बाधाएं भी
वित्तीय मुद्दों और 12 वीं पंचवर्षीय योजना में अनदेखी के अलावा इस अभियान को आगे बढ़ाने में तकनीकी बाधाएं भी आड़े आईं। इसरो की योजना के मुताबिक मानव युक्त अंतरिक्ष अभियान का प्रक्षेपण भू-स्थैतिक प्रक्षेपण यान जीएसएलवी मार्क-3 से किया जाना है। जीएसएलवी मार्क-3 एक ज्यादा शक्तिशाली प्रक्षेपण यान है जो 4 टन या उससे अधिक वजनी उपग्रहों को पृथ्वी की कक्षा में स्थापित करने की योग्यता रखता है। मगर इसका विकास अभी तक नहीं हो पाया है। जीएसएलवी मार्क-3 के विकास में सबसे बड़ी रूकावट तब आई जब वर्ष 2010 में एक के बाद एक जीएसएलवी के दो अभियान विफल हो गए। 
हालांकि, इस साल स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन युक्त जीएसएलवी का एक प्रक्षेपण सफल रहा है जिससे जीएसएलवी मार्क-3 के विकास का रास्ता साफ हुआ है। फिर भी जीएसएलवी प्रक्षेपण यान को अभी ऑपरेशनल होना पड़ेगा साथही सटीकता यानी 99/100 की एक्यूरेसी (100 में 99 बार सफलता की गारंटी) हासिल करनी होगी। यह प्रक्षेपण यान अभी विकास के दौर से गुजर रहा है। 

हालांकि, जिस यान में बैठकर अंतरिक्ष यात्रियों को उड़ान भरना है उसका एक कू्र मॉडल हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड ने तैयार कर के इसरो को दिया है। अगस्त महीने में जीएसएलवी मार्क-3 के होने वाले प्रयोगात्मक प्रक्षेपण में इस कू्र मॉडल का उपयोग किया जाएगा। इस दृष्टिकोण से यह प्रक्षेपण काफी अहम है और इसपर अंतरिक्ष वैज्ञानिकों के साथ-साथ पूरे देश की निगाहें हैं। 

एमड्राइव इंजन की अवधारणा

ईंधन रहित इंजन
क्या कोई इंजन ईंधन के बगैर चल सकता है? जब ब्रिटिश वैज्ञानिक रॉबर्ट शायर ने 2000 में एमड्राइव इंजन का डिजाइन तैयार किया तो वैज्ञानिक समुदाय ने यह कहकर उनकी अवधारणा को खारिज कर दिया कि इस तरह का इंजन असंभव है, क्योंकि यह भौतिकी के सिद्धांत के विपरीत है। अब नासा ने एक नई किस्म के असंभव इंजन का अनुमोदन कर दिया है जिससे अंतरिक्ष भ्रमण के क्षेत्र में बड़ी क्रांति आ सकती है। नासा की ईगलवर्क्‍स लेबोरेटरीज के इंजीनियरों ने एक इंजन से ईंधन के बगैर ही वेग उत्पन्न करने में सफलता प्राप्त की है। यह एक तरह से भौतिकी के इस नियम का उल्लंघन है कि हर क्रिया पर समान और विपरीत क्रिया उत्पन्न होती है। पारंपरिक अंतरिक्ष यानों को अंतरिक्ष में आगे बढ़ने के लिए बड़ी मात्र में ईंधन ले जाना पड़ता है। इस ईंधन से उत्पन्न थ्रस्ट यान को आगे की ओर धकेलता है। यह तरीका कारगर है, लेकिन इसमें ईंधन और अंतरिक्ष में उसके प्रक्षेपण की लागत बहुत ज्यादा आती है। नासा इंजीनियरों ने केनी ड्राइव नामक इंजन का परीक्षण किया है। इस मशीन में बिजली से माइक्रोवेव तरंगें उत्पन्न की जाती हैं।
इन तरंगों को विशेष रूप से निर्मित एक पात्र के अंदर छोड़ा जाता है। माइक्रोवेव के लिए बिजली सौर ऊर्जा से मिलती है। इसका अर्थ यह हुआ कि इस इंजिन को किसी प्रणोदक की आवश्यकता नहीं है। जब लंदन में कार्यरत वैज्ञानिक रॉबर्ट शायर ने अपने एमड्राइव इंजन की अवधारणा पेश की तो सिर्फ चीनी वैज्ञानिकों ने उनकेविचार को गंभीरता से लिया था। उन्होंने अपने इंजन से 720 मिलीन्यूटन यानी 72 ग्राम थ्रस्ट पैदा करने का दावा किया था। चीनियों द्वारा निर्मित इंजन एक उपग्रह को धकेलने में सक्षम था। पश्चिम में किसी को भी चीनी वैज्ञानिकों के इस दावे पर यकीन नहीं हुआ। ब्रिटिश वैज्ञानिक प्रो. शायर अपनी कंपनी एसपीआर लिमिटेड के जरिये अपने एमड्राइव इंजन में लोगों का ध्यान आकृष्ट करने की कोशिश करते रहे हैं। शायर ने अपने इंजन के कई सिस्टम निर्मित किए हैं, लेकिन उनके आलोचकों का कहना है कि भौतिकी के नियमों के अनुसार इस तरह के सिस्टम काम नहीं कर सकते। अमेरिकी वैज्ञानिक गाइडो फेटा ने अपना एक अलग माइक्रोवेव इंजन निर्मित किया। उन्होंने नासा से इस इंजन के परीक्षण का आग्रह किया। नासा के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए परीक्षण के नतीजे गत 30 जुलाई को क्लीवलैंड में एक वैज्ञानिक सम्मेलन में प्रस्तुत किए गए। परीक्षण के नतीजे आश्चर्यजनक रूप से सकारात्मक थे। जॉनसन स्पेस सेंटर के पांच रिसर्चरों ने फेटा के इंजन को स्थापित करने में छह दिन लगाए। इसके बाद वे दो दिन तक इस पर परीक्षण करते रहे। परीक्षण के दौरान यह प्रणोदक रहित इंजन 30 और 50 माइक्रोन्यूटन वेग उत्पन्न करने में सफल रहा। यदि नासा के रिसर्चरों की बात सही साबित होती है तो अंतरिक्ष में इस टेक्नोलॉजी के चमत्कारिक उपयोग हो सकते हैं। सौर पैनलों से इंजन के संचालन के लिए बिजली मिल सकती है। इससे इंजन को लंबे समय तक बिना किसी अतिरिक्त खर्च के चलाना संभव हो सकेगा।
इससे उपग्रहों को कक्षा में लंबे समय तक कार्यरत रखने की लागत कम हो जाएगी और स्पेस स्टेशनों का खर्च घटेगा। साथ ही उनका जीवनकाल भी बढ़ जाएगा। सुदूर अंतरिक्ष में लंबी यात्रएं करना बहुत आसान हो जाएगा। अंतरिक्ष यात्रियों को महीनों के बजाय कुछ ही हफ्तों में मंगल पर पहुंचाया जा सकेगा। एक वैज्ञानिक हेरॉल्ड वाइट का अनुमान है कि इस इंजन के बड़े संस्करण से हम प्रोक्सिमा सेंटारी की यात्र सिर्फ 30 वर्षो में कर सकने में समर्थ हो सकेंगे। प्रोक्सिमा सेंटारी हमारा सबसे करीबी पडोसी तारा है और वर्तमान टेक्नोलॉजी से वहां तक पहुंचने में 76,000 वर्ष लगेंगे। नासा ने अभी इस इंजन की कार्यप्रणाली को ठीक से नहीं समझाया है। जाहिर है वैज्ञानिक समुदाय ईंधन रहित इंजन के दावे की बहुत बारीकी से पड़ताल करेंगे।


Wednesday 20 August 2014

उर्जा संकट से निपटने के लिये अक्षय ऊर्जा

शशांक द्विवेदी 
अक्षय उर्जा दिवस पर विशेष प्रस्तुति 
सस्ती व सतत ऊर्जा की आपूर्ति किसी भी देश की तरक्की के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है। देश में उर्जा के दो प्रमुख माध्यम बिजली और पेट्रोलियम पदार्थाे की कमी होने से वैज्ञानिकों का ध्यान पुनः ऊर्जा के अन्य स्रोतों की ओर गया है। किसी भी देश क लिए ऊर्जा सुरक्षा के मायने यह हैं कि वत्र्तमान और भविष्य की ऊर्जा आवश्यकता की पूर्ति इस तरीके से हो कि सभी लोग ऊर्जा से लाभान्वित हो सकें, पर्यावरण पर कोई कु-प्रभाव न पड़े, और यह तरीका स्थायी हो, न कि लघुकालीन । हमें घरेलू, औद्योगिक और कृषि क्षेत्र में जरूरी ऊर्जा की मांग को पूरा करने के लिए दूसरे वैकल्पिक उपायों पर भी विचार करने की आवश्यकता है। यह अक्षय ऊर्जा के प्रयोग से ही संभव है । भारत में अक्षय ऊर्जा के कई स्रोत उपलब्ध है ।  सुदृढ़ नीतियों द्वारा इन स्रोतों से ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है । अक्षय उर्जा में वे सारी उर्जा शामिल हैं जो प्रदूषणकारक नहीं हैं तथा जिनके स्रोत का क्षय नहीं होता, या जिनके स्रोत का पुनः-भरण होता रहता है। सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, जलविद्युत उर्जा, ज्वार-भाटा से प्राप्त उर्जा, बायोमास, जैव इंधन आदि नवीनीकरणीय उर्जा के कुछ उदाहरण हैं। अक्षय ऊर्जा स्रोत वर्ष पर्यन्त अबाध रूप से भारी मात्रा में उपलब्ध होने के साथ साथ सुरक्षित, स्वतरू स्फूर्त व भरोसेमंद हैं। साथ ही इनका समान वितरण भी संभव है। पूरे विश्व में, कार्बन रहित ऊर्जा स्रोतों के विकास व उन पर शोध अब प्रयोगशाला की चाहरदीवारी से बाहर आकर औद्योगिक एवं व्यापारिक वास्तविकता बन चुके हैं। वर्तमान में अक्षय ऊर्जा स्रोत देश में संस्थापित कुल विद्युत क्षमता का लगभग 9 प्रतिशत योगदान देते हैं। जिसे बढ़ाने की आवश्यकता है ।
देश की उर्जा आवश्कताओं की स्थायी पूर्ति के लिए अक्षय ऊर्जा उर्जा स्रोतों का सहारा लेकर   गुजरात ने अनेक विकास कार्यों के साथ सौर ऊर्जा के क्षेत्र में भी मिसाल कायम की है। गुजरात में  600 मेगावाट के सौर ऊर्जा संयंत्र की स्थापना भारत  ही नहीं पूरे  एशिया के लिए एक उदाहरण है। देश में सौर संयंत्रों से कुल 900 मेगावाट बिजली पैदा होती है। इसमें 600 मेगावाट अकेले गुजरात बना रहा है। 
गुजरात ने नहर के उपर सौर ऊर्जा संयंत्र लगा कर अनूठी मिसाल कायम की है। इससे बिजली तो बनेगी ही, पानी का वाष्पीकरण भी रुकेगा। नहर पर छत की तरह तना यह संयंत्र दुनिया में पहला ऐसा प्रयोग है। गुजरात के मेहसाणा जिले में स्थापित यह संयंत्र 16 लाख यूनिट बिजली का हर साल उत्पादन करेगा। साथ ही वाष्पीकरण रोककर 90 लाख लीटर पानी भी बचाएगा। यह संयंत्र आम के आम और गुठलियों के दाम की तरह है। चंद्रासन गाँव की नहर पर 750 मीटर की लंबाई में यह सौर संयंत्र बनाया गया है। इस संयंत्र की लागत 12 करोड़ रुपए के आसपास हैं। चंद्रासन संयंत्र पहला पायलट प्रोजेक्ट होने की वजह से इसकी लागत कुछ अधिक आई है।
गुजरात में नर्मदा सागर बाँध की नहरों की कुल लंबाई 19 हजार किलोमीटर है और अगर इसका दस प्रतिशत भी इस्तेमाल होता है तो 2400 मेगावाट स्वच्छ ऊर्जा का उत्पादन किया जा सकता है। नहरों पर संयंत्र स्थापित करने से 11 हजार एक़ड भूमि अधिग्रहण से बच जाएगी और 2 अरब लीटर पानी की सालाना बचत होगी सो अलग। यह प्रयोग अन्य राज्यों में भी अपनाया जाना चाहिए।  देश मे प्रति व्यक्ति औसत उर्जा खपत वहाँ के जीवन स्तर की सूचक होती है। इस दृष्टि से दुनियाँ के देशों मे भारत का स्थान काफ़ी नीचे है । देश की आबादी बढ़ रही है । बढ़ती आबादी के उपयोग के लिए और विकास को गति देने के लिए हमारी उर्जा की मांग भी बढ़ रही है द्रुतगाति से देश के विकास के लिए औद्योगीकरण, परिवहन और कृषि के विकास पर ध्यान देना होगा । इसके लिए उर्जा की आवश्यकता है । दुर्भाग्यवश उर्जा के हमारे प्राकृतिक संसाधन बहुत ही सीमित है। खनिज तेल पेट्रोलियम, गैस, उत्तम गुणवत्ता के कोयले के हमारे प्राकृतिक संसाधन बहुत ही सीमित हैं। हमें बहुत सा पेट्रोलियम आयात करना पड़ता है । हमारी विद्युत की माँग उपलब्धता से कही बहुत ज़्यादा है । आवश्यकता के अनुरुप विद्युत का उत्पादन नहीं हो पा रहा है।
भारत में अक्षय ऊर्जा के पर्याप्त  संसाधन उपलब्ध हैं, और अक्षय ऊर्जा के तरीके ग्राम स्वराज्य या स्थानीय स्तर पर स्वावलंबन के सपने से भी अनुकूल हैं, इसलिए देश में इन्हे बड़े पैमाने पर अपनाने की जरूरत है । जिससे देश में उर्जा के क्षेत्र में बढती  मांग और आपूर्ति के बीच के अंतर को कम किया जा सके । हमें न केवल वैकल्पिक ऊर्जा बनाने के लिए पर्याप्त इंतजाम करना होगा, बल्कि सांस्थानिक परिवर्तन भी करना होगा जिससे कि लोगों के लिए स्थायी और स्थानीय ऊर्जा के संसाधनों से स्थानीय ऊर्जा की जरुरत पूरी हो सके।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का यह विचार काफी मायने  रखता है कि तेल निर्यातक देशों के संगठन ओपेक की तर्ज पर भारत के नेतृतव में सौर ऊर्जा की संभावना वाले देशों का संगठन बनाया जाए। वास्तव में जब जी आठ, दक्षेस, जी 20 और ओपेक जैसे संगठन बन सकते हैं तो सौर ऊर्जा की संभावना वाले देशों का संगठन क्यों नहीं बन सकता। भारत ऐसे देशों के संगठन का नेतृत्व कर सकता है और सौर ऊर्जा के क्षेत्र में शक्ति बनकर अपना दबदबा कायम कर सकता है । भारत में सौर ऊर्जा की असीम संभावनाएं है। गुजरात से प्रेरणा लेकर मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और महाराष्ट्र जैसे राज्यों को भी पहल करनी चाहिए। ये राज्य भी बिजली के संकट से जूझ रहे हैं, जबकि धूप यहाँ साल में आठ महीने रहती है। मध्यप्रदेश सरकार ने भी इस दिशा में सकारात्मक कदम उठाते हुए सौर ऊर्जा के लिए भूमि बैंक की स्थापना के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है। इस प्रस्ताव में  अनुपयोगी भूमि को चिन्हांकित कर उन पर सौर संयंत्र लगाने की पहल की जाएगी। महाराष्ट्र सरकार ने भी उस्मानाबाद व परभणी में 50-50 मेगावाट के दो संयंत्र लगाने की पहल प्रारंभ की है।सौर उर्जा संयंत्र लगाने की दिशा में कुछ राज्यों के प्रयास सराहनीय है ।

क्या कभी आपने सोचा है कि जो हम बार-बार विकास औऱ तकनीक की बात करते हैं, उसकी गति में रह रहकर ब्रेक क्यों लग जाता है? इसका एक मात्र कारण है विकास के लिए बुनियादी जरूरत में कमी का होना। और वो बुनियादी जरूरत है बिजली। कोई देश कैसे वैश्विक ताक़त बनने के ख़्वाब देख सकता है, जिसकी आधी से ज्यादा आबादी बिजली की बड़ी किल्लत से दो-चार हो।
वैसे तो दक्षिण एशिया में ऊर्जा की विशाल क्षमता होने बात कही जाती रही है, लेकिन इसी क्षेत्र के देशों में सबसे ज्यादा लोग बिजली संकट से परेशान हैं। राजधानी दिल्ली ही नहीं भारत के कई राज्यों में बिजली की भारी किल्लत है। बिजली संकट इतना गंभीर है कि गाँव तो क्या शहरों में भी भारी कटौती हो रही है या फिर किसी न किसी तकनीकी ख़राबी से अकसर सप्लाई बंद हो जाती है। हालत ये है कि शहरों में गगनचुंबी मॉल्स भी अपनी बिजली का इंतज़ाम करने के लिए जेनरेटर पर निर्भर रहते हैं। दिल्ली से सटे गुड़गांव जैसा साइबर सिटी हो या बैंगलोर जैसी सिलिकन वैली, सभी जगहों पर बिजली की समस्या आम है।
अगर ग्रामीण इलाक़ों की बात करें तो वहां हालत और भी बदतर है। कई राज्यों की स्थिति यह है कि अभी गाँवों तक बिजली ही नहीं पहुँची है। जहाँ बिजली पहुँच भी गई है वहाँ कभी कुछ घंटों के लिए ही बिजली आती है और कहीं कभी-कभी आती है। इसका एक उदहारण बिहार में मुजफ्फरपुर का रतनौली गांव है, जहां बिजली के खंभे तो जरूर लगे हैं लेकिन वहां बिजली की गारंटी कोई नहीं दे सकता। रतनौली जैसे देश में कई और भी गांव हैं जहां बिजली तो दूर उसके खंभे तक नहीं मिलेंगे।
बिजली की ऐसी विकट समस्या के रहते हुए क्या भारत वास्तव में महाशक्ति बन सकता है? सच कहें तो बिल्कुल नहीं। 21 सदी में बिजली के बिना विकास नामुमकिन है। चलिए थोड़ी देर के लिए देश की भौगोलिक संरचना को जिम्मेदार मानते हुए कह दें कि अलग-अलग भौगोलिक स्थिति होने से देश के कई इलाकों तक बिजली नहीं पहुंच पाया है। लेकिन, सूर्य की रोशनी किसी भी संरचना की मोहताज नहीं होती। मालूम हो कि दुनिया में परंपरागत उर्जा स्रोत न केवल सीमित है, बल्कि हमें कई उर्जा उत्पादों के लिए दूसरे देशों पर निर्भर रहना पड़ता है। भारत में फिलहाल 170,000 मेगावॉट से ज्यादा बिजली की उत्पादन क्षमता है और बिजली की वार्षिक मांग चार फीसदी की दर से बढ़ रही है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक व्यस्त घंटों में बिजली की 10 फीसदी की कमी रहती है।
उधर विशेषज्ञों का मानना है कि ऊर्जा तंत्र में इतनी भारी गड़बड़ी का मूल कारण बिजली की आपूर्ति में कमी है। उनके मुताबिक दक्षिण एशियाई देश बिजली की मांग और आपूर्ति के अंतर को अपने विशाल ऊर्जा संसाधनों और दूसरे देशों के साथ बिजली का लेन-देन कर काफी हद तक कम कर सकते हैं। लेकिन ये कोई स्थायी निवारण नहीं हो सकता।
अगर देश से अज्ञानता, असमानता और बेरोजगारी को मिटाना है तो गाँव और शहर में 24 घंटे बिजली की व्यवस्था करनी होगी, जिसके लिए सौर उर्जा ही एक मात्र स्थायी विकल्प है। सूर्य की रोशनी का इस्तेमाल कर सौर उर्जा पैदा कर हमें आत्मनिर्भर बनना ही पड़ेगा। सौर ऊर्जा में शुरू में लागत भले ज़्यादा हो, लेकिन चूँकि इसको चलाने का ख़र्च नहीं है, इसलिए दीर्घकाल में यह लागत ज़्यादा नहीं होगी।
पिछले दिनों ग्रीनपीस की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत को वैकल्पिक उर्जा प्रणालियों में निजी और सरकारी स्तर पर 2050 तक 6,10,000 करोड़ रूपये सालाना निवेश करने की जरूरत बताई गई थी। इस निवेश से भारत को जीवाश्म ईंधन पर खर्च किये जानेवाला सालाना एक ट्रिलियन रूपये की बचत होगी और इस नये निवेश के कारण अगले कुछ सालों में ही 20 तक भारत रोजगार के 24 लाख नये अवसर भी पैदा कर सकेगा। अगर भारत सरकार रिपोर्ट के आधार पर इन उपायों को लागू करती है तो 2050 तक भारत की कुल उर्जा जरूरतों का 92 प्रतिशत प्राकृतिक संसाधनों से प्राप्त किये जाएंगे। और सबसे चौंकानेवाली बात यह होगी उस वक्त भी हम आज से भी सस्ती बिजली प्राप्त कर सकेंगे। एक रिपोर्ट के मुताबिक प्राकृतिक स्रोत से प्राप्त बिजली की कीमत 2050 में 3.70 रूपये प्रति यूनिट होगी।
ऐसे में अगर भारत सौर ऊर्जा को सामान्य बिजली में बदलने का प्रयोग कामयाब हो गया तो गाँवों और कस्बों में न केवल कंप्यूटर शिक्षा, बल्कि दूसरे अनेक क्षेत्रों में भी रोज़गार पनप सकते हैं। सौर उर्जा के माध्यम से जहां किसान खेतों की सिचाई सोलर पंप से कर सकेंगे वहीं अंधेरे में जीवन व्यतीत कर रहा ग्रामीण भारत का बड़ा हिस्सा भी रोशनी से जगमगा उठेगा।
इसके लिए जरूरत इस बात कि है कि ग्रामीण क्षेत्रों में सौर उर्जा और उससे जुड़े साजोसामान का चलन बढाया जाए। और फिर वो दिन दूर नहीं होगा जब गांवों में साइकिल मरम्मत की दुकानों की तरह उन इलाकों में भी सौर उर्जा से चलने वाले छोटे-मोटे उपकरणों का निर्माण और मरम्मत की दुकानें भी देखे जा सकते हैं, जो स्थानीय रोजगार भी उपलब्ध कराएगा।
जब से लोगों को विश्व-स्तर पर यह समझ में आ रहा है कि तेल तीव्रता से समाप्त हो रहा है, ऊर्जा का मुद्दा नीति-चर्चाओं में प्रमुख जगह लिए हुए है ।  पारंपरिक तौर पर ऊर्जा के रूप में बिजली प्रायः तेल, कोयला, जल या परमाणु ऊर्जा से प्राप्त की जाती है । गांव में ऊर्जा की आपूर्ति पर्याप्त नहीं है जिसके कारण लोग रोजगार के लिए शहरों की ओर पलायन करते हैं । शहरों में बिजली की आपूर्ति के कारण वहां उद्योग विकसित हो रहे है जिसके कारण गांव की अपेक्षा शहरों में भीड़ बढ़ती जा रही है । ऊर्जा आपूर्ति के लिए गैर नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों जैसे कोयला, कच्चा तेल आदि पर निर्भरता इतनी बढ़ रही है कि इन स्रोतों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है । विशेषज्ञों का कहना है कि अगले 40 वर्षों में इन स्रोतों के खत्म होने की संभावना है । ऐसे में विश्वभर के सामने ऊर्जा आपूर्ति के लिए अक्षय ऊर्जा स्रोतों से बिजली प्राप्त करने का विकल्प रह जाएगा । अक्षय ऊर्जा नवीकरणीय होने के साथ-साथ पर्यावरण के अनुकूल भी है ।
गुजरात के सौर उर्जा संयंत्र से पूरे देश को सीख लेने की जरुरत है साथ में देश के सभी राज्यों के लिए यह एक अनुकरणीय उदहारण भी है । देश के सभी राज्यों को सौर व अन्य वैकल्पिक उर्जा के निर्माण की दिशा में सार्थक कदम अविलम्ब उठाना चाहिए जिससे देश की उर्जा जरूरते सतत व् निर्बाध तरीके से पूरी होती रहें । 


Monday 4 August 2014

प्रकृति का सृजन !!

विज्ञान और ज्ञान के अन्य क्षेत्रों में तरक्की के बावजूद प्रकृति का ज्यादातर कामकाज अब भी हमारे लिए रहस्यमय है। मसलन, वैज्ञानिकों ने यह पाया है कि मानवीय डीएनए का लगभग आठ प्रतिशत हिस्सा ही उपयोगी है, शेष बचा हुआ 92 प्रतिशत निष्क्रिय रहता है। पहले यह माना जाता था कि लगभग 80 प्रतिशत डीएनए किसी न किसी रूप में उपयोगी है, लेकिन ऑक्सफोर्ड के शोधकर्ताओं का कहना है कि अगर लगभग 90 प्रतिशत डीएनए न हो, तब भी जीवन का कामकाज चलता रहेगा। यह 90 या 92 प्रतिशत डीएनए वह है, जो करोड़ों साल की विकास यात्रा में कभी काम आया होगा, लेकिन अब नहीं है। इस नतीजे पर पहुंचने के लिए वैज्ञानिकों  ने अन्य जीवों के डीएनए के साथ मानव डीएनए का तुलनात्मक अध्ययन किया और उन जीन्स को पहचाना, जो जैव विकास यात्रा के दौरान साझा थे और अभी तक मौजूद हैं। उनकी मौजूदगी का मतलब है कि वे उपयोगी हैं, तभी प्रकृति ने उन्हें बचाकर रखा है। कुछ वैज्ञानिकों ने निष्क्रिय जीन्स को ‘जंक जीन्स’ यानी कूड़ा कहा है, जो विकास यात्रा के दौरान इकट्ठा हो  गया है। लेकिन क्या यह सचमुच कूड़ा है? हमें अक्सर आश्चर्य होता है कि प्रकृति इतनी फिजूलखर्ची क्यों करती है? जब कुछ ही पौधे उगाने हैं, तो पेड़ इतने सारे बीज क्यों बिखेरते हैं? एक संतान पैदा करने के लिए अरबों शुक्राणु क्यों बनते हैं? लोगों को इस बात पर भी ऐतराज होता है कि नदियों का मीठा पानी समुद्र में जाकर व्यर्थ हो जाता है।

इसी तरह यह भी एक सवाल है कि इतने सारे व्यर्थ के निष्क्रिय डीएनए क्यों हर मानव कोशिका के अंदर मौजूद हैं? उपयोगितावादी नजरिये से प्रकृति की इस फिजूलखर्ची को रोककर ज्यादा से ज्यादा फायदा उठाने की कोशिश इंसान खास तौर पर आधुनिक समय में कर रहा है। हम फैक्टरी की तरह के मुर्गी फॉर्मो में मुर्गियों को पैदा कर रहे हैं। नदियों का पानी समुद्र में न जाए, इसलिए बांध बना रहे हैं। पौधों से ज्यादा से ज्यादा उत्पादन हासिल करने के लिए उन्हें रसायन और कृत्रिम रोशनी दे रहे हैं। लेकिन इस नजरिये के नुकसान भी हैं, और ऐसा लगता है कि यह नजरिया प्रकृति के स्वभाव को न समझने की वजह से है। प्रकृति का मूल स्वभाव उत्पादन नहीं, सृजन है। उत्पादन का अर्थ है एक जैसी कई सारी चीजें पैदा करना, जबकि सृजन का अर्थ है कि अब तक जो नहीं हुआ, उसकी रचना करना।

प्रकृति का हर सृजन इसीलिए अद्वितीय होता है। कहते हैं कि दो सूक्ष्मजीवी भी बिल्कुल एक जैसे नहीं होते। यह विविधता प्रकृति के बने रहने के लिए जरूरी है। अगर सारे जीव एक जैसे होंगे, तो किसी एक संकट या एक बीमारी से सब मारे जाएंगे, विविधता बचे रहने की गारंटी है। सृजन के लिए विविधता का होना जरूरी है, तभी अलग-अलग तत्वों के मेल से नए-नए रूप बनेंगे। जो चीज प्रकृति में हमें व्यर्थ लगती है, वह हो सकता है कि उसके लिए काम की हो। कुछ वैज्ञानिक यह मानते हैं कि 92 प्रतिशत डीएनए बेकार नहीं हैं, उन्हें प्रकृति ने इसलिए बचाकर रखा है कि उसकी कभी जरूरत पड़ सकती है। वह हमारी संचित निधि है, कूड़ा नहीं है। अब मनुष्य प्रकृति के तर्क को फिर से समझने की कोशिश कर रहा है और यह देखा जा रहा है कि जो चीजें पहले बेकार या प्रकृति की फिजूलखर्ची लगती थीं, उनका कुछ उपयोग है और उन्हें नष्ट करने से प्रकृति का संतुलन बिगड़ गया और कई दिक्कतें पैदा हो गईं। जीवन की विकास यात्रा का जो इतिहास हम मनुष्यों की कोशिकाओं में दबा पड़ा है, भविष्य में कभी हम उसे पढ़ पाएंगे और वह न जाने किस दौर में हमारी मानवता के काम आ जाए।(ref-HT)

दिमाग की क्षमता का कितना इस्तेमाल ?

चंद्रभूषण
मन में गमकता नीम चमकते जुगनू
इंसान अपने दिमाग का दस प्रतिशत हिस्सा ही इस्तेमाल करता है- ऐसी किंवदंती लगभग एक सदी से चल रही है। इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। इसे सही या गलत साबित करने का कोई तरीका भी नहीं है। लेकिन इसे आधार बनाकर हॉलिवुड ने कई सारी कामयाब फिल्में जरूर बना डाली हैं। अभी सिनेमाहॉलों में चल रही फिल्म लूसीमें भी इसी थीम को निचोड़ा गया है। एक नशीले केमिकल का ओवरडोज एक लड़की के दिमाग को शत-प्रतिशत सक्रियता में ला देता है और अपनी सुपरह्यूमन दिमागी ताकत के बल पर वह कहर मचा देती है।
कहना मुश्किल है कि यह दस पर्सेंट वाला मिथक कहां से शुरू हुआ। शायद फ्रायड द्वारा अवचेतन पर किए गए काम से, जिसने साबित किया कि लोगों के ज्यादातर क्रिया-कलाप उनके मन के अंधेरे कोनों से संचालित होते हैं, जिनके बारे में खुद उन्हें भी कुछ पता नहीं होता। या यूरोप में ओरिएंटलिज्म को लेकर गाई जाने वाली गाथाओं से, जो बताती थीं कि भारत के ऋषि-मुनि योग-ध्यान के जरिये अपने मस्तिष्क की पूरी क्षमता जगाकर तरह-तरह के चमत्कार कर डालते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि इंसानी दिमाग को विज्ञान के लिए फाइनल फ्रंटियरमाना जाता है। पिछले तीस-चालीस वर्षों में इस पर काफी सारा ठोस काम हुआ है और इसकी कई गुत्थियां सुलझाई गई हैं। लेकिन इन खोजों में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो बताता हो कि मानव मस्तिष्क का 90 फीसदी हिस्सा आम तौर पर बेकार पड़ा रहता है। हां, इधर इसके बारे में यूज इट ऑर लूज इटकी बात जरूर कही जाने लगी है। यानी अगर आप ढर्रे के ही कामों में उलझे रहे, नई चीजें सीखने और उलझनें सुलझाने का सिलसिला बिल्कुल ही बंद कर दिया तो धीरे-धीरे आपकी बुद्धि कुंद हो जाएगी और उम्र आने से पहले ही आप सठिया जाएंगे।
वैसे, फिल्मी चमत्कारों को एक तरफ रख दें तो दिमाग का छोटा हिस्सा ही इस्तेमाल करने वाली बात एक अलग नजरिये से काफी काम की है। सोचें कि बिल्कुल बुनियादी स्तर पर हमारी दिमागी क्षमताएं किस तरह की हैं और उनका हम कितना इस्तेमाल कर पा रहे हैं। जैसे सूंघने की क्षमता। इस मामले में हमारा मुकाम जीव जगत में काफी नीचे है। अपनी सोसाइटी के सबसे ऊंचे फ्लोर की छत पर चीनी के कुछ दाने डाल दीजिए। दस मिनट के अंदर पता नहीं कहां से उसे सूंघती हुई चींटियां पहुंच जाएंगी और आधे घंटे में वहां कुछ नहीं बचेगा। जाहिर है, चींटियां इस मामले में हमसे कहीं सुपीरियर हैं। लेकिन गंध के साथ अनुभवों की कड़ियां जोड़ने में हम चीटियों से ही नहीं, अपने से छह हजार गुनी सूंघने की ताकत रखने वाले कुत्तों से भी बेहतर हैं।
रात में राह चलते आम के बौर, नीम के फूल, या रातरानी की गमक हमें हाईस्कूल बोर्ड की छुट्टियों में लौटा ले जाती है। यहां से कोई कविता शुरू हो सकती है, या किसी बिछड़े हुए दोस्त को फेसबुक पर ढूंढ़ निकालने की इच्छा जन्म ले सकती है। कोई भीनी गंध, कोई अटपटा स्वाद, घुप्प बरसाती अंधेरे में पेड़ों पर गुंछे जुगनुओं की चकमक हमारे दिमाग की कोई सोई हुई क्षमता जगा सकती है। लेकिन दिनोंदिन इनसे दूर होकर हम कंप्यूटर की कच्ची नकल बनते जा रहे हैं। यह तो अपनी दिमागी क्षमता का एक पर्सेंट भी इस्तेमाल नहीं हुआ।(Ref-nbt.in)

Saturday 2 August 2014

ताकि अजूबा बनकर न रह जाए विज्ञान

शशांक द्विवेदी
नवभारत टाइम्स(NBT)
पिछले कुछ सालों में विज्ञान संचार के लिए देश में कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों का आयोजन हुआ है। ये प्रयास सकारात्मक दिशा में हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि हम अभी तक विज्ञान को आम आदमी से नहीं जोड़ पाए हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह शायद यह है कि विज्ञान संचार किसी के लिए रोजी-रोटी का विषय नहीं बन पाया है। देश के अधिकांश हिंदी अखबारों और इलेक्ट्रॉनिक चैनलों में विज्ञान पत्रकार नहीं हैं। न ही निकट भविष्य में इन माध्यमों में विज्ञान पत्रकारों के लिए कोई संभावना बनती दिख रही है। विज्ञान, अनुसंधान और शोध से संबंधित खबरें इधर प्रिंट मीडिया में थोड़ी जगह बनाने लगी हैं, लेकिन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इनसे कोसों दूर है। कोई भी देख सकता है कि विज्ञान और तकनीक से जुड़े मामलों में सिर्फ सनसनीखेज खबरें ही खबरिया चैनलों में जगह बना पाती हैं।

भरोसे का संकट
वैज्ञानिक जागरूकता और जन सशक्तीकरण के लिहाज से हिंदी में विज्ञान पत्रकारिता की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। लेकिन हम विज्ञान से जुड़े व्यक्तियों और वैज्ञानिकों को ही विज्ञान के क्षेत्र में कुशल मानते हैं। यही कारण है कि जो पत्रकार विज्ञान पत्रकारिता के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम कर रहे हैं, उन्हें भी खास विश्वसनीय नहीं माना जा रहा। कई ऐसे विषय हैं जिन्हें खोजी विज्ञान पत्रकारिता का हिस्सा बनाया जाना चाहिए। लेकिन ज्यादातर विज्ञान पत्रकार इन मुद्दों पर कलम नहीं चलाते। कारण? इन्हें जब तक वैज्ञानिक संस्थाओं की मान्यता नहीं मिलती तब तक इन्हें प्रामाणिक नहीं माना जाएगा। हिंदी में विज्ञान संचार और स्थानीय स्तर पर देसी वैज्ञानिकों की जानकारी देने वाले लेखन का सामने आना बहुत जरूरी है। अमेरिका में हर दस में से एक परिवार अपनी भाषा में कोई न कोई वैज्ञानिक पत्रिका जरूर पढ़ता है। लेकिन हमारे देश में वैज्ञानिक पेशों से जुड़े लोगों के घरों में भी ऐसी पत्रिकाएं दिखाई नहीं देतीं।

विज्ञान संचार का उद्देश्य लोगों को विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में होने वाली गतिविधियों और खोजों की समग्र जानकारी प्रदान करना है। ऐसे अनेक वैज्ञानिक, विज्ञान संबंधी खोजें, पद्धतियां, पारंपरिक ज्ञान और नवाचार के प्रयोग मीडिया में जगह न मिलने के कारण अज्ञात रह जाते हैं। खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय संसाधनों से आविष्कारों में लगे लोग। हाल ही में अमेरिकी पत्रिका फोर्ब्स ने सात ग्रामीण भारतीय वैज्ञानिकों की जानकारी दी है। इन अविष्कारकों ने विज्ञान के महानगरीय परिवेश से दूर रहकर भी ऐसी तकनीकें ईजाद की हैं जिनसे देश भर में लोगों को जीवन में बदलाव के अवसर मिले हैं।

इनमें से ज्यादातर ने प्राथमिक शिक्षा भी प्राप्त नहीं की है। इनके नामों का चयन आईआईएम अहमदाबाद के प्राध्यापक और भारत में हनीबी नेटवर्क के संचालक अनिल गुप्ता ने फोर्ब्स पत्रिका के लिए किया था। वाकई खोज-परख कर सामने लाई गई ये जानकारियां विज्ञान पत्रकारिता का श्रेष्ठ उदाहरण हैं। रोजमर्रा की जिंदगी में विज्ञान और तकनीकी विषयों से संबंधित जानकारी लोगों की निर्णय क्षमता के विकास में भी मददगार हो सकती है।

हमारे देश में 3500 से भी अधिक हिंदी विज्ञान लेखकों का विशाल समुदाय है। लेकिन प्रतिबद्ध लेखक मुश्किल से 5 या 7 प्रतिशत ही होंगे। इन लेखकों ने विज्ञान के विविध विषयों और विधाओं में 8000 से भी अधिक पुस्तकें लिखी हैं, मगर इनमें से अधिकतर पुस्तकों में गुणवत्ता का अभाव है। मौलिक लेखन कम हुआ है और संदर्भ ग्रंथ ना के बराबर हैं। लोकप्रिय विज्ञान साहित्य सृजन में प्रगति अवश्य हुई है, लेकिन ऐसा विज्ञान साहित्य, जिसमें गुणवत्ता हो और जो जन साधारण की समझ में भी आ सके, कम लिखा गया है। इंटरनेट पर आज हिंदी में विज्ञान सामग्री अति सीमित है। विश्वविद्यालयों तथा राष्ट्रीय वैज्ञानिक संस्थानों में कार्यरत विषय विशेषज्ञ अपने आलेख, शोधपत्र और किताबें अंग्रेजी में लिखते हैं। हिंदी अथवा अन्य भारतीय भाषाओं के विज्ञान लेखन में वे कोई रुचि नहीं लेते। संभवत: भाषागत कठिनाई और वैज्ञानिक समाज की घोर उपेक्षा उन्हें इस दिशा में आगे नहीं आने देती।

अर्थव्यवस्था के भूमंडलीकरण और उदारीकरण के दबाव के कारण आज तकनीकी ज्ञान की जरूरत बढ़ गई है। नई सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों का सामना करने के लिए भी भारतीय जन मानस में वैज्ञानिक चेतना का विकास करना अनिवार्य है। संचार माध्यम समाज में वैज्ञानिक दृष्टिकोण जगाने में अहम भूमिका निभा सकते हैं। अखबारों में नियमित विज्ञान कॉलम और टीवी में विज्ञान का स्लॉट होगा तो लोगों का इस ओर रुझान बढ़ेगा। आज इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में अंधविश्वास से जुड़े कार्यक्रम लगातार दिखाए जा रहे हैं और विज्ञान से जुड़े कार्यक्रमों का सर्वथा अभाव है। यह स्थिति बदलनी चाहिए। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, दोनों को विज्ञान से जुड़ी खबरों और लेखों के प्रति ज्यादा संजीदगी दिखानी पड़ेगी। इसके बिना विज्ञान आम आदमी के लिए एक अजूबा ही बना रहेगा।

डिजिटल दौर में
संचार माध्यमों के साथ-साथ वैज्ञानिकों की भी जिम्मेदारी है कि वे विज्ञान को लोगों तक पहुंचाने में सहयोग करें। इंटरनेट और डिजिटल क्रांति के जरिए क्षेत्रीय भाषाओं में विज्ञान को और प्रभावी बनाया जा सकता है। देश में विज्ञान संचार के उन्नयन के लिए इसे व्यावहारिक और रोजगारपरक भी बनाना होगा। सरकार अगर अपनी तरफ से इस दिशा में कुछ भी करने की स्थिति में न हो तो उसे सरकारी विज्ञान पत्रिकाओं का पारिश्रमिक तो बढ़ा ही देना चाहिए।
Article link
http://blogs.navbharattimes.indiatimes.com/nbteditpage/entry/importance-of-science-communication