Sunday 20 July 2014

बुढ़ापे का मुकाबला

आहार में कैलोरी की मात्र कम करने से उम्र संबंधी जुड़ी बीमारियों को कम किया जा सकता है। वृद्ध होने की प्रक्रिया पर आहार के प्रभावों को जानने के लिए बंदरों पर 25 वर्ष तक किए गए अध्ययन में यह बात सामने आई है। यह अध्ययन अमेरिका की विस्कोंसिन मेडिसन यूनिवर्सिटी के नेशनल प्राइमेट रिसर्च सेंटर में 1989 में शुरू किया गया था। अध्ययन में 76 बंदरो को सम्मिलित किया गया। अध्ययन शुरू करने के समय इन बंदरों की आयु 7 से 14 वर्ष के बीच थी। इन बंदरों को दिए जाने वाले आहार में कैलोरी की मात्र 30 प्रतिशत कम कर दी गई थी। अध्ययन में शामिल दूसरे ग्रुप के बंदरों के आहार में कैलोरी की मात्र में कोई कटौती नहीं की गई। रिसर्चरों ने पाया कि जिन बंदरों ने भरपेट भोजन लिया उनमें बीमारियां उत्पन्न होने का खतरा कम कैलोरी लेने वाले बंदरों की तुलना में 2.9 गुना ज्यादा था। इसी तरह इन बंदरों में मृत्यु का खतरा तीन गुना अधिक पाया गया। इस अध्ययन से जुड़े प्रमुख रिसर्चर रिचर्ड वाइनड्रच का कहना है कि यह अध्ययन इस नाते महत्वपूर्ण है कि निचले क्रम के जीवों में हमने जो जीवविज्ञान देखा है वह प्राइमेट ग्रुप पर भी लागू होता है जिसमें मनुष्य भी शामिल है।
कैलोरी में कटौती के द्वारा बुढ़ापे का मुकाबला करने के पीछे जो प्रक्रिया है उससे उम्र से जुड़ी बीमारियों को रोकने वाली दवाएं विकसित करने में मदद मिल सकती है। शरीर को पोषक तत्वों की आपूर्ति बनाए रखते हुए कम कैलोरी वाली खुराक से मक्खियों और चूहों के आयुकाल में 40 प्रतिशत की वृद्धि देखी जा चुकी है। वैज्ञानिक काफी समय से कैलोरी कटौती की जीव-वैज्ञानिक प्रक्रिया को समझने की कोशिश कर रहे हैं। इस अध्ययन से जुडी एक अन्य रिसर्चर रोजालिन एंडरसन का कहना है कि बुढ़ापे की प्रक्रिया और उम्र से जुडी बीमारियों पर कैलोरी में कटौती के स्पष्ट प्रभाव दिखने की वजह से ही हम कैलोरी कटौती का विशेष अध्ययन कर रहे हैं। कुछ लोगों ने उन दवाओं का भी अध्ययन शुरू कर दिया है जो कैलोरी कटौती के समय सक्रिय रहने वाली प्रक्रियाओं को प्रभावित करती हैं। इन दवाओं में कुछ कंपनियां काफी दिलचस्पी ले रही हैं। विस्कोंसिन के रिसर्चरों के निष्कर्ष अमेरिका के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एजिंग यानी एनआइए में किए गए अध्ययन के नतीजों के एकदम विपरीत हैं। एनआइए ने 120 बंदरों पर अध्ययन करने के बाद कहा था कि कैलोरी कटौती वाले बंदरों में दूसरे बंदरों की तुलना में कोई खास अंतर नहीं देखने को मिला है। विस्कोंसिन के रिसर्चरों का कहना है कि एनआइए में किए गए अध्ययन में कटौती से मुक्त बंदरों की खुराक तय करने में जरूर कुछ गड़बड़ियां हुई होंगी। एंडरसन ने स्पष्ट किया है कि हम यह अध्ययन इसलिए नहीं कर रहे हैं कि लोग अपने आप कैलोरी की मात्र घटाने का फैसला करने लगें। यह मात्र एक अनुसंधान है, जीवन शैली बदलने की सिफारिश नहीं। उन्होंने बताया कि कैलोरी कटौती के अधिकांश लाभ ऊर्जा के नियमन से जुड़े हुए हैं। यह ईंधन के इस्तेमाल को प्रभावित करती है। कैलोरी कटौती मुख्य रूप से मेटाबोलिज्म को निर्धारित करती है।
वैज्ञानिकों ने अपना अध्ययन शुरू करने के छह महीने के भीतर ही कैलोरी कटौती से मुक्त बंदरों में डायबिटीज के लक्षण देखे थे। ये बंदर अपनी युवावस्था में ही थे। दूसरी तरफ आहार में कम कैलोरी लेने वाले बंदरों में काफी लंबे समय तक डायबिटीज का कोई लक्षण नहीं मिला। बहुत कम लोग कैलोरी में 30 प्रतिशत कटौती बर्दाश्त कर सकते हैं। फिर भी विस्कोंसिन में किए गए अध्ययन में बहुत सी बातें आशाजनक हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि चूहों, कीड़ों और मक्खियों में कैलोरी कटौती के पीछे जो बुनियादी जीवविज्ञान काम करता है वह वानर प्रजातियों में भी दिखाई देता है।

Saturday 19 July 2014

आविष्कारों में जुगाड़ की प्रवृत्ति

प्रसिद्ध वैानिक डॉ. रघुनाथ माशेलकर ने कहा है कि आविष्कारों को सस्ता बनाने के चक्कर में जुगाड़ की प्रवृत्ति के कारण विश्व के वैानिक समुदाय में भारत की छवि खराब है। पणजी में कला अकादमी में आयोजित सम्मान समारोह में उन्होंने कहा, ‘जुगाड़ की प्रवृत्ति के कारण दुनिया में आविष्कार के क्षेत्र में भारत की छवि खराब है। भारत में जैसे-तैसे केवल लागत पर विचार किया जाता है, सुरक्षा पर नहीं।’ गोवा में जन्मे 71 वर्षीय माशेलकर ने कहा कि वह निजी रूप से इस प्रकार के जुगाड़ से सहमत नहीं हैं। गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर पार्रिकर और अन्य उच्चाधिकारियों के समक्ष उन्होंने कहा कि हम चीजों की उपेक्षा करते हैं और जैसे-तैसे चीजों की व्यवस्था करते हैं। यह मुङो पसंद नहीं है। माशेलकर का कहना है कि भारत को सस्ती उत्कृष्टता के विचार का समर्थन करने की जरूरत है। वह इस विचार का प्रचार कर रहे हैं। उनके मुताबिक हमें ऐसी उच्च प्रौद्योगिकी का प्रयोग करना चाहिए जिससे चीजें सस्ती बन सकें। उन्होंने कहा कि विान को समाज और लोगों के लिए प्रासंगिक और प्रभाव डालने वाला होना चाहिए। काउंसिल फॉर साइंटिफिक एंड इंडस्टियल रिसर्च (सीएसआइआर) के प्रमुख रह चुके माशेलकर ने समारोह में अपने बचपन का किस्सा भी सुनाया जब वह स्ट्रीट लाइट के पोल के नीचे पढ़ा करते थे। उन्होंने कहा कि जीवन में कड़ी मेहनत का कोई विकल्प नहीं है और सरल उपायों से काम नहीं हो सकता है। कड़ी मेहनत की बदौलत से ही ऊंचाइयों को छुआ जा सकता है, अन्य माध्यमों से नहीं।

गेहूं की जन्म कुंडली

भारतीय कृषि वैानिकों को गेहूं की जन्म कुंडली तैयार करने में अहम सफलता मिली है। जीनोम आनुवांशिकी तैयार करने की इस उपलब्धि से गेहूं की ऐसी खास प्रजातियां तैयार की जा सकेंगी, जिनकी खेती कहीं भी और किसी भी मौसम में की जा सकती है। गेहूं की फसल पर रोग व कीटों का प्रकोप संभव नहीं होगा। जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से मुक्त गेहूं की नई प्रजातियां खाद्य सुरक्षा के लिए किसी क्रांति से कम नहीं होगी। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, पंजाब कृषि विश्वविद्यालय और दिल्ली विश्वविद्यालय के वैानिकों की साझा टीम ने यह सफलता दिलाई है। गेहूं की जन्मकुंडली बनाने पर 35 करोड़ रुपये खर्च हुए हैं। यह धनराशि विान और प्रौद्योगिकी मंत्रलय के जैव प्रौद्योगिकी विान विभाग ने उपलब्ध कराई थी। नायाब अनुसंधान करने वाली टीम के एक वरिष्ठ जैव प्रौद्योगिकी वैानिक डाक्टर नागेंद्र कुमार सिंह ने बताया कि जलवायु परिवर्तन से गेहूं की खेती प्रभावित हो रही है, जिससे उत्पादकता में समुचित वृद्धि नहीं हो रही है। गेहूं की खेती के लिए ठंडे वातावरण की जरूरत होती है, लेकिन साल दर साल तापमान वृद्धि से गेहूं की पैदावार में अपेक्षित सुधार नहीं हो रहा है। सिंह ने बताया कि भारत में इस परियोजना के अनुसंधान में कुल 21 सदस्यीय टीम लगी हुई है। जीन सेक्वेंशिंग की इस उपलब्धि से सूखारोधी प्रजातियां विकसित की जा सकेंगी। धान के बाद गेहूं विश्व की सबसे ज्यादा पैदा होने वाली फसल है। पिछले दो दशक में गेहूं की उत्पादकता 25 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से बढ़ी है। इसे देखते हुए जीनोम सेक्वेंशिंग जरूरी हो गया था। उन्होंने कहा,खेती की आधुनिक तकनीकों में जीनोम सीक्वेंसिंग, जर्म प्लाज्मा और जीन में तब्दीली से गेहूं के ऐसी प्रजातियां विकसित की जा सकेंगी, जिन पर रोगों का प्रकोप नहीं हो सकेगा। कम अथवा बिना सिंचाई के भीअच्छी पैदावार लेना संभव हो सकेगा। क्षेत्रीय भौगोलिक जलवायु के हिसाब से फसलों के बीज तैयार करना आसान हो गया है। स्थानीय बारिश और मिट्टी की नमी से ही फसल तैयार हो जाएगी

Friday 11 July 2014

साइबर सुरक्षा का सवाल

शशांक द्विवेदी 
हाल में ही केंद्र सरकार ने साइबर सुरक्षा को गंभीरता से लेते हुए राष्ट्रीय साइबर प्राधिकरण बनाने का फैसला किया है। देश में साइबर सुरक्षा के प्रति लापरवाही देखते हुए देर से ही सही लेकिन सरकार ने अब इस मुद्दे पर संजीदगी दिखाई है । क्योंकि मौजूदा समय में साइबर युद्ध एक सच्चाई बन गया है। इसके प्रति लापरवाह नहीं रहा जा सकता है। भारत को भी अपने साइबर तंत्र को बेहद मजबूत बनाना होगा। खतरनाक कंप्यूटर वायरस के जरिये सामरिक एवं आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण प्रतिष्ठानों की वेबसाइटों पर हमला करना और उनके आंकड़े चुरा लेना आम बात हो गई है।
प्रस्तावित साइबर प्राधिकरण का मकसद सरकारी वेबसाइटों को साइबर हमलों से बचाना है। फिलहाल प्राधिकरण का प्रस्ताव शुरुआती चरण में हैं। लेकिन प्राधिकरण के गठन को लेकर सैद्धांतिक मंजूरी मिल गई है। प्राधिकरण साइबर गतिविधियों से जुड़े मामलों के लिए दिशा-निर्देश तय करने के साथ प्रभावी नीतियां भी बनाएगा।  इसका मकसद देश में अनुकूल साइबर सिक्योरिटी सिस्टम तैयार करना है जो वैश्विक माहौल के अनुरूप हो ताकि साइबर हमलों को रोका जा सके। ताकि सरकारी डाटा विदेशी एजेंसियों की पहुंच से सुरक्षित रहे।
देश के सरकारी रक्षा, विज्ञान और शोध संस्थान और राजनयिक दूतावास पर साइबर जासूसी का आतंक मंडरा रहा है। दुनिया के सबसे बड़े साइबर जासूसी रैकेट के खतरे से जूझ रहे इन संस्थानों को बेहद संवेदनशील जानकारियों और आंकड़ों की चोरी होने का डर है। साइबर वर्ल्ड में जासूसी करने के लिए अमेरिका ने पूरे विश्व में लगभग 150 जगहों पर 700 सर्वर्स लगा रखा है। ब्रिटिश अखबार गार्जियन के मुताबिक इन सर्वर्स में से एक भारत में भी कहीं लगा रखा गया हैै। बताया जा रहा है कि दिल्ली के नजदीक किसी स्थान पर इसके लगे होने की आशंका जताई गई हैै। गार्जियन ने ये दावा किया है कि सीआईए के पूर्व कर्मचारी एडवर्ड स्नोडेने द्वारा दिए गए दस्तावेजों के आधार पर ये बात कही गई है। दरअसल स्नोडेन ने ही अमेरिकी और ब्रिटिश जासूसी कार्यक्रम का सनसनीखेज ब्योरा प्रेस को लीक किया था।
अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी द्वारा संचालित एक्सकीस्कोर जासूसी कार्यक्रम के 2008 के एक प्रशिक्षण सामग्री में वो नक्शा भी शामिल था, जिसमें विश्वभर में लगे सर्वर्स की जानकारी थी। उसी नक्शे के मुताबिक इनमें से एक अमेरिकी जासूसी सर्वर भारत की राजधानी नई दिल्ली के आसपास के इलाके में लगे होने की संभावना है। एनएसए अपने एक्सकीस्कोर कंप्यूटर प्रोग्राम के जरिए ही दुनिया भर में इंटरनेट पर जारी किसी भई किस्म की गतिविधियों पर नजर रखती है। इसी प्रोग्राम के जरिए ही करोड़ों इंटरनेट यूजर्स के ईमेल, ऑनलाइन चैटिंग और ब्राउजिंग की जासूसी होती हैै। इसी वजह से एनएसए को इंटरनेट यूजर्स के पूरे इतिहास, भूगोल के बारे में पता रहता है। रिपोर्ट के मुताबिक जैसे ही कोई इंटरनेट पर बैठता है और काम शुरू करता है वैसे ही वो एक्सकीस्कोर कार्यक्रम की जद में आ जाता है ।
अपने देश की सुरक्षा के लिए खुफिया एजेंसीयां अक्सर दूसरे देशों की जासूसी करती हैं । लेकिन अब न सिर्फ जासूसी का तरीका बदल रहा है, बल्कि उसका दायरा भी बढ़ गया है ।  साइबर स्पाइंग से सिर्फ सुरक्षा नहीं, बल्कि व्यापार संबंधी गोपनीय जानकारियां भी चुराई जा रही है । जब ऐसे दावे सामने आए कि अमरीका अपने यूरोपीय दोस्तों और भारत की भी जासूसी कर रहा है तो चिंताएँ और बढ़ गईं है । देश में साइबर सुरक्षा में मैनपावर की बहुत कमी है । साइबर सुरक्षा  के आकंडो के अनुसार चीन में साइबर सुरक्षा के काम में सवा लाख विशेषज्ञ तैनात हैं। अमेरिका में यह संख्या 91 हजार से ऊपर है। रूस में भी लगभग साढ़े सात हजार माहिर लोग इस काम में लगे हुए हैं। जबकि अपने यहां यह संख्या सिर्फ 5560 है ।फिलहाल स्तिथि बहुत ज्यादा चिंताजनक है जिस पर तत्काल एक्शन की जरुरत है ।
अमेरिका सहित दुनियाँ के विकसित देशों द्वारा की जा रही सबसे बड़ी साइबर जासूसी एक अहम मुद्दा है । यह सीधे सीधे राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा मामला है इसलिए इस पर अब सरकार को गंभीर होकर काम करना चाहिए । भारत सहित कई एशियाई देशों का सारा कामकाज गूगल, याहू जैसी वेबसाइट्स के जरिए होता है इसलिए यहां की सरकारें संकट में घिर गईं हैं। भारत चाहता है कि याहू, गूगल जैसी अमेरिकी कंपनियां भारत के साथ अहम जानकारियों को साझा करे।  भारत में फोन और इंटरनेट की केंद्रीय मॉनिटरिंग की प्रणाली हाल में ही शुरू हुई है। सुरक्षा मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति से मंजूरी के जरिए खुफिया एजेंसियों को फोन टैपिंग, ई मेल स्नूपिंग, वेब सर्च और सोशल नेटवर्क पर सीधी नजर रखने के अधिकार मिले हैं।लेकिन गूगल, फेसबुक, माइक्रोसॉफ्ट आदि को नई मॉनिटरिंग प्रणाली नीति के तहत लाना और उनके सर्वर में दखल देना भारतीय एजेंसियों के लिए काफी मुश्किल हो रहा है। ये कंपनियां अपने सर्वर देश से बाहर होने और विदेशी कानूनों के तहत संचालन का तर्क देती हैं।
अमेरिकी खुफिया एजेंसी ने साइबर दुनिया में जासूसी का काम बहुत पहले ही शुरू कर दिया था । ब्रिटिश समाचार पत्र गार्जियन और अमेरिकी समाचार पत्र वाशिंगटन पोस्ट ने स्नोडेन से प्राप्त दस्तावेजों के आधार पर अति गोपनीय प्रिज्म के बाबत खुलासे ने साफ कर दिया कि साइबर दुनिया की नौ बड़ी कंपनियां बाकायदा जांच एजेंसियों की साझेदार हैं। इस सनसनीखेज खुलासे को सार्वजनिक किया गया  था। रिपोर्ट के मुताबिक प्रिज्म के तहत एनएसए माइक्रोसॉफ्ट, याहू, गूगल, फेसबुक, पालटॉक, एओएल, स्काइप, यूट्यूब और एपल के सर्वरों से सीधे सूचनाएं हासिल कर रही है। इस कार्यक्रम पर अमेरिकी सरकार बीस लाख डॉलर से ज्यादा सालाना खर्च कर रही है। ब्रिटिश अखबार के अनुसार ब्रिटेन की खुफिया एजेंसी जीसीएचक्यू भी अमेरिकी ऑपरेशन का हिस्सा है।

दुनियाँ में इंटरनेट प्रणाली पर काफी हद तक अभी भी अमेरिकी नियंत्रण है और अधिकांश बड़ी इंटरनेट कंपनियां अमेरिकी हैं। सभी के सर्वर वहीं है और  वे वहां के कानूनों से संचालित होती हैं,इसलिए सबसे बड़ा  सवाल भारत सहित दूसरे देशों से है कि वे साइबर दुनिया में अपनी निजता को कैसे बचाते हैं। ये सवाल निजता ,साइबर सुरक्षा के साथ साथ राष्ट्रीय सुरक्षा से भी जुड़ा हुआ है । इसी वजह से सरकार को राष्ट्रीय साइबर प्राधिकरण बनाने के लिए बाध्य होना पड़ा क्योंकि इन सभी कंपनियों के सर्वर विदेश में होने से सरकारी डाटा कभी भी हैक किया जा सकता है या सूचनाएं लीक की जा सकती है । सरकारी निजता और सुरक्षा के लिहाज से साइबर प्राधिकरण बनाना सरकार का सकारात्मक कदम है । यह देश की साइबर सुरक्षा को और अधिक मजबूती प्रदान करेगा

Friday 4 July 2014

इसरो की कारोबारी छलांग

 इसरो की ऐतिहासिक सफलता 
दैनिक जागरण 
शशांक द्विवेदी 
अंतरिक्ष के क्षेत्र में इतिहास रचते हुए भारत ने पीएसएलवी-सी23 राकेट जरिए चार देशों के पांच उपग्रहों का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण किया और ये उपग्रह कक्षा में स्थापित हो गए। 44 मीटर ऊंचे, 230 टन वजनी और करीब 100 करोड़ रुपए की लागत वाले पीएसएलवी सी-23 ने पांच विदेशी उपग्रहों को अंतरिक्ष में प्रक्षेपित किया। इनमें फ्रांस का 714 किलोग्राम भार वाला स्पॉट-7 प्रमुख है.इसके अलावा पीएसएलवी सी-23 ने जर्मनी के 14 किलो भार वाले एआईएसएटी, कनाडा के 15-15 किलो भार वाले एनएलएस7.1 (सीएएन-एक्स4) और एनएलएस7.2 (सीएएन-एक्स5) और सिंगापुर के सात किलो वजन वाले वीईएलओएक्स-1 उपग्रह को भी अंतरिक्ष में भेजा गया।
प्रधानमंत्री ने इसे ऐतिहासिक बताते हुए कहा कि विदेशी उपग्रहों का यह सफल प्रक्षेपण ‘भारत की अंतरिक्ष क्षमता की वैश्विक अभिपुष्टि’ है। वास्तव में ये सफलता कई मायनों में बहुत खास है क्योंकि एक समय था जब भारत अपने उपग्रहों के प्रक्षेपण के लिए दूसरे देशों पर निर्भर था और आज भारत विदेशी उपग्रहों के प्रक्षेपण से अरबों डालर की विदेशी मुद्रा अर्जित कर रहा है । जिससे भारत को वाणिज्यिक फायदा हो रहा है । इसरो के कम प्रक्षेपण लगत की वजह से दूसरे देश भारत की तरफ लगातार आकर्षित हो रहें है । इसरो ने अब तक 19 देशों के 40 उपग्रहों का प्रक्षेपण किया है जिससे देश के पास काफी विदेशी मुद्रा आई है। चाँद और मंगल अभियान सहित इसरो अपने 100 से ज्यादा अंतरिक्ष अभियान पूरे करके इतिहास रच चुका है ।
19 अप्रैल 1975 में स्वदेश निर्मित उपग्रह ‘आर्यभट्ट’ के प्रक्षेपण के साथ अपने अंतरिक्ष सफर की शुरूआत  करने वाले इसरो की यह सफलता भारत की अंतरिक्ष में बढ़ते वर्चस्व की तरफ इशारा करती है । इससे  दूरसंवेदी उपग्रहों के निर्माण व संचालन में वाणिज्यिक रूप से भी फायदा पहुंच रहा है । ये सफलता इसलिए खास है क्योंकि भारतीय प्रक्षेपण राकेटों की विकास लागत ऐसे ही विदेशी  प्रक्षेपण राकेटों की विकास लागत का एक-तिहाई है । 
यह सफलता अंतरिक्ष जगत के दो वैश्विक प्रतिस्पर्धियों के बीच सहयोग की मिसाल भी बनेगी। भारतीय कंपनी एंट्रिक्स कॉरपोरेशन एवं फ्रांस की कंपनी एस्ट्रियम एसएएस विश्व बाजार में उपग्रहों से ली गई सुदूर संवेदी तस्वीरें भेजने के मामले में एक-दूसरे की प्रतिस्पर्धी हैं। स्पॉट एवं भारतीय सुदूर संवेदीउपग्रह धरती के छायाचित्र लेने वाले दो मशहूर उपग्रह हैं। इसके बाद भी एक भारतीय रॉकेट से उसके प्रतिस्पर्धी का उपग्रह स्पॉट-7  लांच किया जाना सुखद संकेत है । अमेरिका की फ्यूट्रान कॉरपोरेशन की एक शोध रिपोर्ट भी बताती है कि अंतरिक्ष जगत के छोटे खिलाडियों के बीच इस तरह का अंतरराष्ट्रीय सहयोग रणनीतिक तौर पर भी सराहनीय है। वास्तव में इस क्षेत्र में किसी के साथसहयोग या भागीदारी सभी पक्षों के लिए लाभदायक स्थिति है। इससे बड़े पैमाने पर लगने वाले संसाधनों का बंटवारा हो जाता है। खासतौर पर इसमें होने वाले भारी खर्च का। यह भारतीय अंतरिक्ष उद्योग की वाणिज्यिक प्रतिस्पर्धा की श्रेष्ठता का गवाह है ।
वैज्ञानिकों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सार्क देशों के लिए एक सार्क उपग्रह लॉन्च करने का आह्वाहन काफी महत्वपूर्ण है । उन्होंने कहा कि इस तरह के उपग्रह से  भारत के पड़ोसी देशों को आधुनिक तकनीकी का लाभ मिलेगा और यह उपग्रह भारत की तरफ से पड़ोसी देशों को तोहफा होगा । ताकि दूरस्थ शिक्षा, टेलिमेडिसिन, और कृषि संबंधी जानकारी जैसी सुविधाएं उन्हें मिल पाएं । ऐसे तकनीकी तोहफे से सार्क देशों के साथ भारत के सम्बंध भी मजबूत होंगे ।
उपग्रह के प्रक्षेपण में भारत कारोबारी छलांग पहले ही लगा चुका है, 23 अप्रैल 2007 को भारत के उपग्रहीय प्रक्षेपण यान ने इटली के खगोल उपग्रह एंजिल का सफलता पूर्वक प्रक्षेपण किया। यह पहला सफल कारोबारी प्रक्षेपण था जिससे भारत दुनिया के पांच देशों अमेरिका, रूस, फ्रांस और चीन के विशिष्ट क्लब में शामिल हो गया था। इन प्रक्षेपणों के द्वारा भारत व्यवसायिक दृष्टिकोण से विदेशी उपग्रहों को भी प्रक्षेपित करने वाली चुनींदा सूची में शामिल हो चुका है।  पिछले साल 5 नवंबर 2013 को भारत ने अंतरिक्ष के क्षेत्र में इतिहास रचते हुए  अपने मंगल मिशन को सफलतापूर्वक अंजाम दिया और पीएसएलवी सी25  रॉकेट  के माध्यम से मार्स आर्बिटर यान को अंतरिक्ष की कक्षा में स्थापित कर दिया था । यह देश के लिए बहुत बड़ी कामयाबी है । इस सफलता के साथ ही भारत विश्व के उन चार देशों में शामिल हो गया जिन्होंने मंगल पर सफलता पूर्वक अपने यान भेजे है । भारत की अंतरिक्ष एजेंसी इसरो अमरीका, रूस और और यूरोप के कुछ देश (संयुक्त रूप से) यूरोपीय यूनियन की अंतरिक्ष एजेंसी के बाद चैथी ऐसी एजेंसी बन गयी जिसने इतनी बड़ी कामयाबी हासिल की है । चीन और जापान इस कोशिश में अब तक कामयाब नहीं हो सके हैं। रूस भी अपनी कई असफल कोशिशों के बाद इस मिशन में सफल हो पाया है। अब तक मंगल को जानने के लिए शुरू किए गए दो तिहाई अभियान नाकाम साबित हुए हैं। 22 अक्टूबर 2008 मंे मून मिशन की सफलता के बाद इसरों का लोहा पूरी दुनिया मान चुकी है। चांद पर पानी की खोज का श्रेय भी चंद्रयान 1 को ही मिला। भविष्य में इसरों उन सभी ताकतों को और भी कडी टक्कर देगा जो साधनों की बहुलता के चलते प्रगति कर रहा है, भारत के पास प्रतिभाओं की बहुलता है।
इसरों अध्यक्ष के अनुसार भारत की अंतरिक्ष योजना भविष्य में मानवयुक्त अंतरिक्ष मिशन भेजने की है। लेकिन इस तरह के अभियान की सफलता सुनिश्चित करने के लिए अभी बहुत सारे परिक्षण किए जाने हैं। भारत वर्ष 2016 में नासा के चंद्र मिशन का हिस्सा बन सकता है और इसरों चंद्रमा के आगे के अध्य्यन के लिए अमेरिकी जेट प्रणोदन प्रयोगशाला से साझेदारी भी कर सकता है। देश मंे आगामी चंद्र मिशन चंद्रयान 2 के सम्बंध में कार्य प्रगति पर है। चंद्रयान 2 के संभवता 2015 में प्रक्षेपण की संभावना है। 
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) और रूसी अंतरिक्ष एजेंसी रोस्कॉसमॉस के चंद्रमा के लिए संयुक्त मानव रहित इसरो अभियान चंद्रयान-2 मिशन रूस के नीतिगत निर्णय की प्रतीक्षा में अटक गया है। चीन के साथ साझा मिशन विफल हो जाने के मद्देनजर रूस अपने अंतरग्रही मिशनों की समीक्षा कर रहा है।इस पर सरकार को जल्दी फैसले के लिए रूस पर दबाव बनाना पड़ेगा । चंद्रयान-2 मिशन 2015 में प्रस्तावित हैं तथा इसे भू-समकालिक उपग्रह प्रक्षेपण यान (जीएसएलवी) एम के 2 से प्रक्षेपित किया जाएगा। 
1969 में प्रसिद्ध वैज्ञानिक विक्रम साराभाई के निर्देशन मंे राष्टीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन   का गठन हुआ था। तब से अब तक चांद पर अंतरिक्ष यान भेजने की परिकल्पना तो साकार हुई। अब हम चांद पर ही नहीं बल्कि मंगल पर भी पहुँच चुके है । प्रक्षेपित उपग्रहों से प्रदान सूचनाओं के आधार पर हम अब हम संचार, मौसम संबधित जानकारी, शिक्षा के क्षेत्र में, चिकित्सा के क्षेत्र में टेली मेडिसिन, आपदा प्रबंधन एवं कृषि के क्षेत्र में फसल अनुमान, भूमिगत जल के स्त्रोतों की खोज, संभावित मत्सय क्षेत्र की खोज के साथ साथ पर्यावरण पर निगाह रख रहे हंै।  भारत ने अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में जिस तरह कम संसाधनों और कम बजट में न सिर्फ अपने आप को जीवित रखा है बल्कि बेहतरीन प्रर्दशन भी किया है। 
भविष्य में अंतरिक्ष में प्रतिस्पर्धा बढेगी । भारत के पास कुछ बढत पहले से है, इसमें और प्रगति करके इसका बड़े पैमाने पर वाणिज्यिक उपयोग संभव है । कुछ साल पहले तक फ्रांस की एरियन स्पेश कंपनी की मदद से भारत अपने उपग्रह छोड़ता था, पर अब वह ग्राहक के बजाए साझीदार की भूमिका में पहुंच गया है । यदि इसी प्रकार भारत अंतरिक्ष क्षेत्र में सफलता प्राप्त करता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब हमारे यान अंतरिक्ष यात्रियों को चांद, मंगल या अन्य ग्रहों की सैर करा सकेंगे। भारत अंतरिक्ष विज्ञान में नई सफलताएं हासिल कर विकास को अधिक गति दे सकता है ।