Wednesday 21 May 2014

कब पूरा होगा ऑनलाइन वोटिंग का सपना ?

दैनिक जागरण 
शशांक द्विवेदी 
वर्तमान लोकसभा चुनाव में करोड़ों लोग अपने अपने पैतृक घर से दूर काम-धंधे,रोजगार ,नौकरी की वजह से देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में और विदेशों में रहने की वजह से वोट नहीं डाल पाए । जबकि इन  करोड़ों लोगों की दिलचस्पी अपने देश ,प्रदेश ,शहर की राजनीति में रहती है । लेकिन अपने पक्ष और पार्टी को वोट देकर समर्थन न कर पाने का मलाल इन्हें जरुर रहता है । चुनाव आयोग के इतने सार्थक और सकारात्मक प्रयास के बावजूद पूरे देश में औसत वोटिंग 60-65 फीसदी ही रहती है । इसका मतलब साफ़ है कि बाकी के 40 प्रतिशत लोग अपना कीमती वोट नहीं दे पातें । अनिवासी भारतीय हो या देश के भीतर ही विस्थापित इन 40 प्रतिशत लोगों के लिए चुनाव आयोग को क्या गंभीर नहीं होना चाहिए ? बिना ऑनलाइन वोटिंग के व्यवहारिक रूप से 100 प्रतिशत मतदान संभव नहीं है । चुनाव आयोग इन करोड़ों लोगों की समस्या को देखते हुए ऐसी व्यवस्था  करनी चाहिए कि वो घर बैठे अपना वोट दे सकें । मतलब आनलाइन वोटिंग के माध्यम से  बिना  बूथ पर गए बिना अपना वोट डाल सकें ।अप्रवासी भारतीय भी काफी  समय से ऑनलाइन वोटिंग की माँग कर रहें है । मगर उनके लिए भी अब तक सिर्फ ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन की ही सुविधा है, ऑनलाइन वोटिंग की सुविधा उपलब्ध नहीं कराई गई है। इसके लिए उन्हें पोलिंग बूथ पर पहुंचना अनिवार्य है। यही वजह है कि लाखों अप्रवासी भारतीय वोटिंग के अधिकार से वंचित रह जाते है ।
फिलहाल देश का युवा वर्ग मौजूदा राजनीतिक परिस्थियों को लेकर काफी जागरूक है, बावजूद इसके एक बड़ा हिस्सा पोलिंग बूथ तक नहीं पहुंचता। उनकी पहुंच सिर्फ सोशल नेटवर्किंग साइट्स तक ही रहती है। दरअसल बड़े शहरों में रहने वाला युवावर्ग मोबाइल, लैपटॉप और फोन के जरिए ही अपने सारे जरूरी काम निबटाना पसंद करता है। यही वजह है कि तकरीबन सभी प्राइवेट कंपनियां और सरकारी विभाग अपनी ऑनलाइन सेवाएं उपलब्ध कराने लगी हैं। मगर लोकसभा और विधान सभा चुनाव के सम्बंध में यह सुविधा अभी भी एक सपने की तरह है। पूरे देश के लिए ऑनलाइन वोटिंग का सपना फिलहाल आश्चर्यजनक या फिर असंभव सा लग सकता है लेकिन दृढ इच्छाशक्ति के साथ ऑनलाइन वोटिंग का सपना पूरा किया जा सकता है । दुनियाँ इक्कसवीं सदी में प्रवेश कर गई है और विज्ञान तकनीक ने बहुत तरक्की भी कर ली है इसलिए ऑनलाइन वोटिंग वोटिंग का सपना आगे आने वाले समय में पूरा होने की उम्मीद जरुर की जा सकती है ।
ऑनलाइन वोटिंग और उसकी चुनौतियाँ
इंटरनेट या मोबाइल से वोटिंग करने के लिए सबसे पहले वोटरों का रजिस्ट्रेशन किया जाएगा। उसी वक्त वोटर का फोटो को साथ रजिस्ट्रेशन किया जाएगा। जो भी मतदाता ई-वोटर के तौर पर रजिस्टर्ड होगा उसका नाम सामान्य मतदाता सूची से निकाल दिया जाएगा, अर्थात एक बार ई-वोटर के तौर पर रजिस्टर्ड होने के बाद वह मतदान केंद्र पर जाकर मतदान नहीं कर सकेगा। इसका सबसे बड़ा नुकसान यह होगा कि मतदान के वक्त मतदाता की पहचान नहीं हो पाएगी। दूसरे इंटरनेट के जरिए वोटिंग करते वक्त यह सुनिश्चित नहीं हो पाएगा कि वोटिंग के वक्त वोटर के पास उसे प्रभावित करने वाला कोई तत्व मौजूद न हो और यह संविधान की गुप्त मतदान की अवधारणा के विपरीत है।
मोबाइल के जरिए मतदान करने से बोगस वोटिंग की संभावना बढ़ जाएगी। अगर किसी ने कई लोगों के नाम पर मोबाइल वोटिंग का रजिस्ट्रेशन करवा लिया और मतदान के दिन उनका उपयोग किया तो इससे बोगस मतदान बढ़ेगा। दूसरे इंटरनेट वोटिंग के लिए यह जरूरी है कि जिस कंप्यूटर के मार्फत रजिस्ट्रेशन कराया गया है वोटिंग भी उसी कंप्यूटर से की जाए। यानी एक कंप्यूटर से एक ही वोटर मतदान कर सकेगा। ऐसे में अगर एक घर में छह वोटर  होंगे तो सभी के लिए अलग - अलग कंप्यूटर की जरूरत होगी। जिनके पास खुद के कंप्यूटर नहीं है उनके लिए ई - पोलिंग बूथ की व्यवस्था करनी पड़ेगी जो कि एक हास्यास्पद स्तिथि होगी क्योंकि जो वोटर ई पोलिंग बूथ पर जाकर मतदान कर सकता है वह सामान्य पोलिंग बूथ पर भी जा सकता है।
नेशनल दुनियाँ 
चुनाव आयोग ई वोटिंग की पहल कर भी चुका है लेकिन अभी तक यह योजना विधानसभा और लोकसभा चुनाव में लागू नहीं हो पायी । चुनाव आयोग के अनुसार गुजरात नगरपालिका में 2010 और 2011 में ई-वोटिंग के माध्यम से मतदान कराया गया था । लेकिन इसके बाद यह योजना बहुत आगे नहीं बढ़ पाई । ऑस्ट्रेलिया, नॉर्वे और कनाडा जैसे कुछ देशों में ऑनलाइन वोटिंग के प्रयोग शुरू भी हो चुके हैं। अमेरिका में भी ऑनलाइन वोटिंग की सुविधा की मांग की जा रही है। इससे चुनाव में युवाओं की हिस्सेदारी बढ़ेगी और मतदान का प्रतिशत भी बढ़ेगा । लेकिन इसके दुरुपयोग की आशंका भी है । विशेषज्ञों के अनुसार राजनीतिक पार्टियां हैकरों की मदद से इस सिस्टम का दुरुपयोग कर सकती हैं। ऑनलाइन वोटिंग से सम्बंधित और भी कई तकनीकी समस्याएं है जिनके माकूल समाधान के बिना फिलहाल ये संभव नहीं लगती ऐसे में बाकी सुविधाओं के साथ-साथ वोटिंग को भी ऑनलाइन की लिस्ट में आने में शायद कई दशकों का समय लग जाएगा।
कुछ समाधान

ऑनलाइन वोटिंग में वोटर की आइडेंटिफिकेशन के लिए  आधार कार्ड और एनपीआर के डेटा को प्रयोग करके उसे  ऑनलाइन लिंक किया जा सकता

है इससे आइडेंटिटी के फर्जीवाडा से काफी हद तक बचा जा सकता है । आधार केंद्र सरकार की ओर से हर नागरिक को जारी किया जाने वाला एक विशिष्ट पहचान संख्या है जो कि भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण द्वारा प्रदान की जाती है । इस पर 12 अंकों का उस नागरिक का एक यूनिक नंबर लिखा होता है। किसी भी काम जिसमें पहचान की जरूरत होती है, इस कार्ड का इस्तेमाल किया जा सकता ळें इससे  वेरिफिकेशन की प्रक्रिया भी आसान हो जाएगी। कहीं भी, कभी भी, किसी भी स्तर पर वैरिफिकेशन एक डेटा बेस के जरिये हो सकता है । जबकि नैशनल पॉपुलेशन रजिस्टर में देश के हर नागरिक की जानकारी दर्ज होती है। इसमें इंट्री पंचायत, जिला, राज्य या राष्ट्रीय स्तर पर की जाती है। इसमें रजिस्टर करने के बाद 18 साल से ऊपर के सभी लोगों को स्मार्ट नैशनल आइडेंटिटी दिया जाता है ।  सिस्टम ,आन लाइन हैकिंग और तकनीकी गडबडी दूर करने के लिए चुनाव आयोग देश के 543 लोकसभा  के विभिन्न केन्दों में अपनी तरफ से अपने ही केन्द्रों में  ऑनलाइन वोटिंग की सुविधा भी कर सकता है जिससे घर से दूर बैठे लोग अपनी लोकसभा या विधानसभा के लिए वोट कर सके दूसरी बात अगर चुनाव आयोग घर बैठे ऑनलाइन वोटिंग करवा पाने में फिलहाल असमर्थ है तो कम से कम वो ऐसी व्यवस्था तो कर ही सकता है कि मुंबई में काम करने वाला वहीं मुंबई में अपनी लोकसभा के लिए वोट डाल सके और ऐसे बूथों की व्यवस्था तो की ही जा सकती है । कुलमिलाकर शत प्रतिशत मतदान के लक्ष्य को पाने के लिए इस तरह के नवीन प्रयोग किये जा सकते है और किये भी जाने चाहिए ।  क्योंकि इन क़दमों से लोगों की चुनाव में भागीदारी और हिस्सेदारी बढेगी जिससे  लोकतंत्र मजबूत होगा ।

Sunday 11 May 2014

स्वदेशी और आत्मनिर्भरता का कोई विकल्प नहीं

राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी दिवस पर विशेष 
आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ते कदम
शशांक द्विवेदी 

LOLMAT
देश  में  प्रौद्योगीकीय क्षमता के विकास को बढ़ावा देने के लिये भारत में प्रतिवर्ष 11 मई को राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसी दिन अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व में सन् 1998 में भारत ने पोखरण में  अपना दूसरा परमाणु परीक्षण किया था। यह दिवस हमारी ताकत ,कमजोरियों,लक्ष्य के विचार मंथन के लिये मनाया जाता है जिससे  प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हमें देश  की दशा और दिशा का सही ज्ञान हो सके।
पिछले दिनों ही भारत ने अपनी उन्नत स्वदेशी प्रौद्योगिकी का परिचय देते हुए दुश्मन के बैलिस्टिक मिसाइल को हवा में ही ध्वस्त करने के लिए सुपरसोनिक इंटरसेप्टर मिसाइल का सफल परीक्षण किया था । और अंतरिक्ष के क्षेत्र में एक बड़ी कामयाबी हासिल करते हुए इसरो ने भारत के दूसरे नेवीगेशन सैटेलाइट आईआरएनएसएस-1 बी का सफल प्रक्षेपण किया था । ये दोनों कामयाबी भविष्य के लिये दूरगामी सिद्ध होगी क्योंकि हम स्वदेशी प्रौद्योगिकी का प्रयोग करके रक्षा और अंतरिक्ष के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रहें है और भारत विश्व के 6 ताकतवर देशों के समूह में शामिल हो गया है । भविष्य में भारत  उन सभी ताकतों को और भी कडी टक्कर देगा जो साधनों की बहुलता के चलते प्रगति कर रहें है क्योंकि भारत के पास प्रतिभाओं की बहुलता है।
लेकिन ये कामयाबियाँ अभी मंजिल तक पहुँचने का पड़ाव भर है और हमें काफी बड़ा रास्ता तय करते हुए विश्व को यह दिखाना है कि भारत में प्रतिभा और क्षमता की कोई कमी नहीं है । टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में काफी आगे बढ़ने के बाद भी भारत दुनिया के कई देशों से पिछड़ा हुआ है और उसे  अभी बहुत से लक्ष्य  तय करने होंगे । इसीलिए ग्यारह मई का दिन प्रौद्योगिकी के लिहाज से भारत के लिए बेहद महत्वपूर्ण है । इस दिन 1998 में पोखरण में न सिर्फ सफलतापूर्वक परमाणु परीक्षण किया गया, बल्कि इस दिन से शुरू हुई कड़ी 13 मई तक भारत के पांच परमाणु धमाकों में तब्दील हो चुकी थी । भारत ने न सिर्फ परमाणु विस्फोट से अपनी कुशल प्रौद्योगिकी का प्रदर्शन किया, बल्कि अपने प्रौद्योगिकी कौशल के चलते किसी को कानोंकान परमाणु परीक्षण की भनक भी नहीं लगने दी । अत्याधुनिक उपग्रहों से दुनिया के कोने-कोने की जानकारी रखने वाला अमेरिका भी 11 मई, 1998 को भारतीय प्रौद्योगिकी के सामने गच्चा खा गया था । भारत ने परमाणु शक्ति बनकर निसंदेह दुनिया में आज अपनी धाक जमा ली है, लेकिन देश अब भी कई देशों से कई मोर्चे पर पिछड़ा हुआ है । भारत आज अपने दम पर मिसाइल रक्षा तंत्र विकसित करने में सफल हो गया है, लेकिन अभी अमेरिका,चीन  जैसी व्यवस्था स्थापित करने के लिए इसे बहुत मेहनत करनी होगी । चीन ने राडार की पकड़ में न आने वाला ‘स्टेल्थ’ विमान विकसित कर लिया है जो अब तक केवल अमेरिका के पास था । भारत को  विश्व शक्ति बनने के लिये दूसरों से श्रेष्ठ हथियार प्रौद्योगिकी विकसित करनी पड़ेगी ।
DAINIK JAGRAN
फिलहाल अंतरिक्ष के क्षेत्र में भारत ने सफलता के नयें आयाम स्थापित किये है । भारत ने अंतरिक्ष के क्षेत्र में इतिहास रचते हुए  अपने मंगल मिशन को सफलतापूर्वक अंजाम दिया और पीएसएलवी सी25  रॉकेट  के माध्यम से मार्स आर्बिटर यान को अंतरिक्ष की कक्षा में स्थापित कर दिया । यह देश के लिए बहुत बड़ी कामयाबी है । इस सफलता के साथ ही भारत विश्व के उन चार देशों में शामिल हो गया जिन्होंने मंगल पर सफलता पूर्वक अपने यान भेजे है । 19 अप्रैल 1975 में स्वदेश निर्मित उपग्रह ‘आर्यभट्ट’ के प्रक्षेपण के साथ अपने अंतरिक्ष सफर की शुरूआत  करने वाले इसरो की यह सफलता भारत की अंतरिक्ष में बढ़ते वर्चस्व की तरफ इशारा करती है ।  ये सफलता इसलिए खास है क्योंकि भारतीय प्रक्षेपण राकेटों की विकास लागत ऐसे ही विदेशी  प्रक्षेपण राकेटों की विकास लागत का एक-तिहाई है । सुपरसोनिक इंटरसेप्टर मिसाइल और आईआरएनएसएस-1 बी की  कामयाबी देश के लिये काफी महत्वपूर्ण है स्वदेशी तकनीक और उपकरणों का प्रयोग किया गया है । इस कामयाबी में स्वदेशी तकनीक  के साथ साथ आत्मनिर्भरता की तरफ बढ़ते कदम की भी पुष्टि होती है । अगर सकारात्मक सोच और ठोस रणनीति के साथ हम लगातार  अपनी प्रौद्योगीकीय जरूरतों को पूरा करने की दिशा में आगे कदम बढ़ाते  रहें तो वो दिन दूर नहीँ जब हम खुद अपने नीति नियंता बन जायेगे और दूसरे देशों पर किसी तकनीक,हथियार और उपकरण  के लिए निर्भर  नहीं रहना पड़ेगा ।
अगर हम एक विकसित देश बनने की इच्छा रखते हैं तो  आतंरिक और बाहरी चुनौतियों से निपटने के लिए हमें दूरगामी रणनीति बनानी पड़ेगी । क्योंकि भारत  पिछले छह दशक के दौरान अपनी अधिकांश प्रौद्योगीकीय जरूरतों की पूर्ति दूसरे देशों से कर रहा है । वर्तमान में हम अपनी सैन्य जरूरतों का 70 फीसदी हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर आयात कर रहे हैं। रक्षा  जरूरतों के लिए भारत का दूसरों पर निर्भर रहना कई मायनों में खराब है एक तो यह कि अधिकतर दूसरे देश भारत को पुरानी प्रौद्योगिकी ही देने को राजी है, और वह भी ऐसी शर्ता पर जिन्हें स्वाभिमानी राष्ट्र कतई स्वीकार नहीं कर सकता।
 हमारे घरेलू उद्योगों ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी जोरदार उपस्थिति दर्ज करायी है इसलिए देश  की जरूरतों को पूरा करने के लिए भारतीय उद्योग के कौशल संसाधनों एवं प्रतिभाओं का बेहतर उपयोग करना जरुरी है । क्योंकि आयातित टैक्नोलाजी पर हम  ब्लैकमेल का शिकार भी हो सकते  है। सुरक्षा  मामलों  में देश को आत्मनिर्भर बनाने में सरकार और ऐकडेमिक जगत की भी बराबर की साझेदारी होनी चाहिए । इसके लिए मध्यम और लघु उद्योगों की प्रौद्योगिकी के  आधुनिकीकरण व स्वदेशीकरण में अहम भूमिका हो सकती है। 
स्वतंत्रता प्राप्ति के समय हमारा वैज्ञानिक व प्रौद्योगिकी ढाँचा न तो विकसित देशों जैसा मजबूत था और न ही संगठित। इसके बावजूद   प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हमने काफी कम समय में बड़ी उपलब्धियाँ हासिल की । स्वतंत्रता के बाद भारत का प्रयास यही रहा है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के माध्यम से आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन भी लाया जाए। जिससे देश के जीवन स्तर में संरचनात्मक सुधार हो सके । इस उद्देश्य में  हम कुछ  हद तक सफल भी रहें है लेकिन अभी भी विज्ञान और प्रौद्योगिकी को आम जन मानस से पूरी तरह से जोड़ नहीं पाये है ।
अर्थव्यवस्था के भूमंडलीकरण और उदारीकरण के दबाव के कारण आज प्रौद्योगिकी की आवश्यकता बढ़ गई है। वास्तव में प्रौद्योगिकीय गतिविधियों को बनाए रखने के लिए तथा सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों का सामना करने के लिए भारतीय जन मानस में वैज्ञानिक चेतना का विकास करना अनिवार्य है। वैज्ञानिक तथा प्रौद्योगिकीय ज्ञान के सतत विकास और प्रसार के लिए हम सब को आगे आना होगा । एक व्यक्ति और एक संस्था से ही यह काम सफल नहीं हो सकता है इसमें हम सब की सामूहिक और सार्थक  भागीदारी की जरुरत है ।
देश में स्वदेशी प्रौद्योगिकी को बड़े पैमाने पर विकसित करने की जरुरत है और इस दिशा में जो भी समस्याएं है उन्हें सरकार द्वारा अबिलम्ब दूर करना होगा तभी सही मायनों में हम विकसित राष्ट्र का अपना सपना पूरा कर पायेगे । अगर हम एक विकसित देश बनने की इच्छा रखते हैं तो  आतंरिक और बाहरी चुनौतियों से निपटने के लिए हमें दूरगामी रणनीति बनानी पड़ेगी । क्योंकि स्वदेशी व आत्मनिर्भरता का कोई विकल्प नहीं है। 
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Thursday 8 May 2014

इलेक्ट्रॉनिक चिप और इंजेस्टिबल सेंसर

आज से पांच-दस साल बाद किसी विकसित देश में जन्म लेने वाले बच्चे को एक अनोखा टैटू मिल सकता है। यह टैटू एक इलेक्ट्रॉनिक चिप के रूप में होगा। डाक टिकट से भी छोटी इस चिप को संभवतः सीने में प्रत्यारोपित किया जाएगा। यह चिप बच्चे के शरीर की हर गतिविधि, उसके सोने की अवधि, उसके सांस लेने की दर, उसके शरीर के तापमान और उसके पोषण की स्थिति पर नजर रखेगी। चिप द्वारा एकत्र किए गए सारे आंकड़े मोबाइल फोनों या टैब्लेटों को भेज दिए जाएंगे जहां ऐप्स के जरिए अभिभावकों और डॉक्टरों को तत्काल बच्चे के स्वास्थ्य के बारे में सभी महत्वपूर्ण जानकारियां मिल जाएंगी। युनिवर्सिटी ऑफ सदर्न कैलिफोर्निया में कार्डियोवैस्कुलर मेडिसिन डिविजन की प्रमुख लेजली सैक्सन का कहना है कि इस तरह की चिपों से सिर्फ बच्चों को ही फायदा नहीं होगा। भविष्य में खिलाड़ियों और सैनिकों सहित हर व्यक्ति को इसका लाभ मिलेगा। मरीज अपने व्यक्तिगत सेंसरों द्वारा एकत्र आंकड़ों की मदद से अपनी बीमारियों से बेहतर ढंग से निपट सकेंगे।
कुछ समय पहले टैक्सस में एक इंटरेक्टिव कॉन्फ्रेंस में सैक्सन ने बताया कि सेंसरों द्वारा एकत्र आंकड़ों का भंडार दवा कंपनियों और दूसरी बायोमेडिकल कंपनियों के लिए बहुमूल्य साबित होगा। हो सकता है भविष्य में ये कंपनियां आपसे आंकड़े प्राप्त करने के लिए आपको अच्छा-खासा भुगतान भी करें। इस तरह के व्यक्तिगत आंकड़ों के दुरुपयोग का खतरा हो सकता है और खुद सैक्सन भी इस बात को मानती हैं। आंकड़ों के दुरुपयोग को रोकने और लोगों की प्राइवेसी के अधिकार को सुरक्षित करने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई निगरानी व्यवस्था भी कायम करनी पड़ेगी। लेकिन इस तरह की चीजों से भयभीत होने के बजाय हमें इनका सकारात्मक पक्ष देखना चाहिए। दरअसल इन स्मार्ट मशीनों से हमें अपने शरीर को ज्यादा बेहतर ढंग से समझने में मदद मिलेगी। 
कुछ विकसित देशों में शरीर से बायोमीट्रिक डेटा प्राप्त करने का प्रचलन शुरू भी हो चुका है। सैक्सन के मुताबिक करीब 27 प्रतिशत अमेरिकी बायोमीट्रिक डेटा नापने के लिए किसी न किसी डिवाइस का प्रयोग कर रहे हैं। लोगों द्वारा प्रयुक्त किए जा रहे उपकरणों में एक रिस्टबैंड शामिल है जो शारीरिक गतिविधि और निद्रा के समय को रिकॉर्ड करता है। इस तरह के डिवाइस आगे चल कर ज्यादा उन्नत सेंसरों में तब्दील होंगे। जाहिर है इनसे मनुष्य और मशीन के बीच एक नया रिश्ता बनेगा, उनमें एक नया इंटरफेस बनेगा। इस तरह के सेंसर शरीर के भीतर प्रत्यारोपित किए जा सकेंगे और उनकी नेटवर्किंग की जा सकेगी। भविष्य में आपके शरीर के भीतर के सेंसरों को आपकी स्मार्ट कार के साथ जोड़ा जा सकेगा। इससे ड्राइविंग का मजा बढ़ जाएगा। सैक्सन का कहना है कि इस तरह के सेंसर आपको रोड रेज या पत्नी से झगड़ा करने से भी रोकेंगे।
पश्चिमी बाजारों में शीघ्र ही ऐसे इंजेस्टिबल सेंसर आने वाले हैं, जिन्हें गोली के साथ निगला जा सकेगा। ये सेंसर यह देखेंगे कि मरीज ने अपनी दवा की खुराक निर्धारित मात्रा में ली है या नहीं। वे यह भी देखेंगे कि दवा की खुराक लेने के बाद शरीर के अंदर किस तरह की प्रतिक्रिया होती है। इससे डॉकटरों को दवा की सही मात्रा निर्धारित करने में मदद मिलेगी। सैक्सन का कहना है कि करीब 30 से 50 प्रतिशत मरीज डॉक्टरों द्वारा निर्धरित खुराक समुचित मात्रा में नहीं लेते। एक अमेरिकी दवा कंपनी द्वारा विकसित किए गए इंजेस्टिबल सेंसर को एफडीए की अनुमति मिल गई है। इस सेंसर का इस्तेमाल हृदय रोग से संबंधित एक ड्रग के साथ किया जाएगा। 
सैक्सन का मानना है कि युवाओं, खासकर बच्चों में इस तरह के सेंसरों का प्रयोग विकासशील देशों में काफी उपयोगी साबित हो सकता है, जहां बीमारियां फैलने का खतरा ज्यादा रहता है। इन चिपों से काफी मदद मिल सकती है। इन सेंसरों के जरिए विकासशील देशों में कुपोषण और जन स्वास्थ्य की दूसरी समस्याओं को बेहतर ढंग से समझने और उनका उपाय खोजने में भी मदद मिल सकती है।


चिकित्सा का नया आयाम

डीएनए की खोज का चिकित्सकीय महत्व 
डीएनए हमारे जीवन का कोड है। इसमें हमारी तमाम आनुवंशिक सूचनाएं दर्ज हैं। वैज्ञानिक काफी समय से इस अत्यंत महत्वपूर्ण जैविक मॉलीक्यूल के दूसरे उपयोग भी विकसित करने में जुटे हुए हैं। अमेरिका में हार्वर्ड के वीस इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों ने डीएनए की पिंजरानुमा संरचनाएं तैयार की हैं। सिर्फ डीएनए को लेकर पहली बार इतनी बड़ी और जटिल संरचनाएं निर्मित की गई हैं। भविष्य में इस तरह की संरचनाओं का उपयोग शरीर के ऊतकों तक दवाएं पहुंचाने के लिए किया जा सकता है। डीएनए के इन पिंजरों में हुक लगाकर उनके साथ दूसरे रसायन भी जोड़े जा सकते हैं। वीस इंस्टीट्यूट के प्रमुख वैज्ञानिक प्रो. पेंग यिन का कहना है कि डीएनए पर आधारित सूक्ष्म टेक्नोलॉजी अथवा नैनो टेक्नोलॉजी में दिलचस्प और असीमित संभावनाएं हैं। डीएनए के इन पिंजरों की मदद से वैज्ञानिक कई तरह की तकनीकें विकसित कर सकते है। मसलन, इनसे सूक्ष्म विद्युत संयंत्र निर्मित किए जा सकते हैं और खास तरह के रसायनों के उत्पादन के लिए सूक्ष्म फैक्टियां बनाई जा सकती हैं। इनके अलावा डीएनए की संरचनाओं की मदद से अत्यंत संवेदनशील सेंसर बनाए जा सकते हैं। ये सेंसर असामान्य ऊतकों द्वारा छोड़े जाने वाले रसायनों का पता लगाकर रोगों का सही निदान करने में मदद कर सकते हैं।
डीएनए संरचनाओं की खास बात यह है कि इन संरचनाओं की प्रोग्रामिंग की जा सकती है। वैज्ञानिक डीएनए के अक्षरक्रम को निर्धारित कर सकते हैं। कुछ उपयोगों के लिए डीएनए की बड़ी संरचनाएं तैयार करनी पड़ेंगी। इस क्षेत्र में काम करने वाले शोधकर्ता अभी तक डीएनए ओरिगामी नामक विधि का इस्तेमाल कर रहे थे। इस विधि से ज्यादा जटिल संरचनाएं बनाना संभव नहीं था। यिन और उनके सहयोगियों ने इस तकनीक को आगे बढ़ाते हुए प्रिज्म जैसी बड़ी-बड़ी संरचनाएं बनाईं। नैनो टेक्नोलॉजी के अलावा दूसरे क्षेत्रों में भी डीएनए रिसर्च आगे बढ़ रही है। मुख्य शोध चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में हो रही है। डीएनए की मदद से डॉक्टर यह पता लगा सकेंगे कि ट्यूमर हर मरीज को किस तरह से प्रभावित करता है। इस आधार पर वह यह तय कर सकेंगे कि किसी खास किस्म के कैंसर से निपटने के लिए कौन-सी दवा ज्यादा कारगर होगी। इससे मरीज के लिए सही इलाज खोजने का समय भी बहुत कम किया जा सकेगा। मानव जीनों के विश्लेषण में हाल ही में मिली सफलता का लाभ सभी लोगों को मिलेगा। वैज्ञानिकों का कहना है कि लोग भविष्य में कुछ भुगतान करके अपना आनुवंशिक कोड पढ़ सकेंगे। इससे उन्हें यह पता लग जाएगा कि आगे चलकर उन्हें किस तरह की बीमारियां हो सकती हैं। वैज्ञानिक डीएनए के अलावा आरएनए यानी राइबोन्यूक्लिक एसिड के चिकित्सकीय उपयोग पर भी शोध कर रहे हैं। डीएनए की तरह आरएनए प्रोटीन संश्लेषण में प्रमुख भूमिका अदा करता है। आनुवंशिक सूचनाओं के संप्रेषण में भी इसकी कुछ भूमिका होती है। शोधकर्ताओं का मानना है कि आरएनए पर आधारित दवाएं विभिन्न किस्म के कैंसर और एड्स आदि के इलाज में कारगर हो सकती हैं। परीक्षणों के दौरान ये दवाएं असरदार दिखाई दी हैं। आरएनए का स्वरूप अस्थिर होने के कारण इसके प्रयोग में भी कुछ बाधाएं आई हैं। शोधकर्ताओं को आरएनए आधारित दवाओं के कामयाब होने का पूरा भरोसा है।
इसी तरह ूमन माइक्रोबायोम प्रोजेक्ट से हासिल किए गए ज्ञान के आधार पर गंभीर किस्म की बीमारियों के इलाज के लिए माइक्रोबायोम टेक्नोलॉजी की मदद ली जा रही है। माइक्रोबायोम प्रोजेक्ट के तहत मनुष्य को प्रभावित करने वाले जीवाणुओं के जीनों को पढ़ने की कोशिश की गई है। अनगिनत अदृश्य बैक्टीरिया और जीवाणु मनुष्य के स्वास्थ्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इनके जीनों को पढ़कर हमें यह पता लग जाएगा कि ये जीवाणु शरीर के लिए प्रोटीन आदि का निर्माण कैसे करते हैं और हमारे शरीर के साथ या दूसरे जीवाणुओं के साथ ये किस तरह का व्यवहार करते हैं।

Friday 2 May 2014

कुदरती क्षमताओं को पंगु बनाते मोबाइल ऐप

मुकुल श्रीवास्तव, असिस्टेंट प्रोफेसर, लखनऊ विश्वविद्यालय 
मोबाइल ऐप (ऐप्लीकेशन) विश्लेषक कंपनी फ्लरी के मुताबिक, हम मोबाइल ऐप लत की ओर बढ़ रहे हैं। स्मार्टफोन हमारे जीवन को आसान बनाते हैं, मगर स्थिति तब खतरनाक हो जाती है, जब मोबाइल के विभिन्न ऐप का प्रयोग इस स्तर तक बढ़ जाए कि हम बार-बार अपने मोबाइल के विभिन्न ऐप्लीकेशन को खोलने लगें। कभी काम से, कभी यूं ही। फ्लरी के इस शोध के अनुसार, सामान्य रूप से लोग किसी ऐप का प्रयोग करने के लिए उसे दिन में अधिकतम दस बार खोलते हैं, लेकिन अगर यह संख्या साठ के ऊपर पहुंच जाए, तो ऐसे लोग मोबाइल ऐप एडिक्टेड की श्रेणी में आ जाते हैं। पिछले वर्ष इससे करीब 7.9 करोड़ लोग ग्रसित थे। इस साल यह आंकड़ा बढ़कर 17.6 करोड़ हो गया है, जिसमें ज्यादा संख्या महिलाओं की है।
रिपोर्ट के अनुसार, ऐसे लोग मोबाइल का इस्तेमाल कपड़ों की तरह करते हैं और 24 घंटे उसे अपने से चिपकाए घूमते हैं। हमारे देश के संदर्भ में यह रिपोर्ट इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि भारत मोबाइल उपभोक्ताओं के मामले में हम दुनिया में दूसरे स्थान पर हैं और यहां स्मार्ट फोन धारकों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। जाहिर है, इसी के साथ देश में ऐप के लती लोगों की संख्या भी बढ़ेगी। भारत में सबसे लोकप्रिय मोबाइल एप के रूप में सोशल नेटवर्किग साइट फेसबुक और चैटिंग ऐप व्हाट्सअप प्रमुख हैं। आंकड़ों के मुताबिक, दुनिया भर में व्हाट्स अप के 50 करोड़ उपभोक्ता हो गए हैं, जिनमें दस प्रतिशत भारतीय हैं। इनमें बड़ा हिस्सा युवाओं का है, जो लोगों से हमेशा जुड़े रहना चाहते हैं, जिसका परिणाम मोबाइल ऐप के अधिक इस्तेमाल और उसकी लत के रूप में सामने आ रहा है। बार-बार फेसबुक या व्हाट्स अप खोलकर देखना, मोबाइल के बगैर बेचैनी होना, इस लत के खास लक्षण हैं। इसके परिणामस्वरूप एकाग्रता में कमी आती है।
इनका ज्यादा इस्तेमाल वह युवा वर्ग कर रहा है, जो इस तकनीक का प्रथम उपभोक्ता बन रहा है। उसे ही इस तकनीक के इस्तेमाल के मानक भी गढ़ने हैं। मोबाइल ऐप हमारे जीवन को व्यापक रूप से प्रभावित कर उसे आसान बना रहे हैं, लेकिन इन पर बढ़ती निर्भरता हमारी कई कुदरती क्षमताएं भी हमसे छीन सकती है। चैटिंग ऐप (चैप) के अधिक इस्तेमाल से लिखित शब्दों पर हमारी निर्भरता बढ़ जाती है, जिससे मौखिक संचार में शारीरिक भाव भंगिमा के बीच संतुलन के बिगड़ने का खतरा रहता है। भारत जैसे देश में, जहां हम तकनीक का सिर्फ अंधानुकरण कर रहे हैं, वहां इस लत के बारे में जागरूकता की भारी कमी है और ऐसे केंद्रों का भी अभाव है, जो लोगों को इससे उबरने में मदद करे। तकनीक हमेशा अच्छी होती है, पर उसका इस्तेमाल कौन और कैसे कर रहा है, इस बात से उसकी सफलता या असफलता मापी जाती है। इससे पहले कि हम किसी मोबाइल ऐप के लती हो जाएं, अपने आप पर थोड़ा नियंत्रण भी जरूरी है।(साभार -हिंदुस्तान )