Tuesday 29 April 2014

मानव अंगों का निर्माण

प्रयोगशाला में मानव अंग उगाने पर मुकुल व्यास की टिप्पणी


लंदन के रॉयल फ्री हॉस्पिटल के वैज्ञानिक स्टेम कोशिकाओं से नाक, कान और रक्त धमनियों का निर्माण कर रहे हैं। अमेरिका और दुनिया के दूसरे देशों की प्रयोगशालाओं में भी मानव अंग निर्मित किए जा रहे हैं। ब्रिटेन में निर्मित मानव अंगों को कुछ मरीजों में प्रत्यारोपित भी किया जा चुका है। इनमें रक्त धमनियां और श्वासनलियां शामिल हैं। रिसर्चरों का कहना है कि आने वाले समय में वे विविध किस्म के मानव अंगों के प्रत्यारोपण में समर्थ हो जाएंगे। इन अंगों में दुनिया की पहली नाक भी शामिल है जिसे आंशिक रूप से स्टेम कोशिकाओं से निर्मित किया गया है। ब्रिटेन में मानव अंगों के निर्माण के लिए चल रही रिसर्च का नेतृत्व यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के प्रो. एलेक्जेंडर सैफालियन कर रहे हैं। उनका कहना है कि प्रयोगशाला में अंगों का निर्माण एक केक बनाने जैसा ही है। फर्क सिर्फ इतना है कि हम एक अलग किस्म के ओवन का इस्तेमाल करते हैं। पिछले साल सैफालियन और उनकी टीम ने एक ऐसे व्यक्ति के लिए नाक निर्मित की थी जिसने कैंसर के कारण अपनी असली नाक गंवा दी थी। वैज्ञानिकों ने उस व्यक्ति की वसा से निकाली गई स्टेम कोशिकाओं को नाक के सांचे में रखा। इसके पश्चात इस सांचे को व्यक्ति की भुजा में प्रत्यारोपित कर दिया गया ताकि नाक के चारों तरफ त्वचा उग जाए।
प्रो. सैफालियन इस नाक को उस व्यक्ति के चेहरे पर लगाने के लिए अधिकारियों की अनुमति का इंतजार कर रहे हैं। यदि सब कुछ ठीक ठाक रहा तो व्यक्ति की भुजा से नाक निकाल कर उसके चेहरे में प्रत्यारोपित कर दी जाएगी। सैफालियन को पूरा भरोसा है कि दूसरी नाक वास्तविक नाक की तरह ही काम करेगी। दूसरी खास बात यह है कि नई नाक व्यक्ति की असली नाक से काफी कुछ मिलती-जुलती है। इस व्यक्ति की असली नाक कुछ टेढ़ी थी। उसने रिसर्चरों से आग्रह किया था कि उसकी दूसरी नाक को भी असली नाक की तरह टेढ़ा रखा जाए। रिसर्चरों ने उसकी मूल नाक पर आधारित कांच के सांचे में नई नाक उगानी शुरू की। प्रो. सैफालियन का इरादा अब प्रयोगशाला में पूरा चेहरा निर्मित करने का है। इस विधि से दुर्घटना के शिकार लोगों को फायदा होगा। अंगों के सांचे बनाने के लिए प्रयुक्त होने वाले पोलिमर का पेटेंट करा लिया गया है। प्रो. सैफालियन ने प्रयोगशाला में निर्मित रक्त धमनियों और श्वास नालियों के पेटेंट के लिए भी आवेदन किया है। उनकी टीम दूसरे अंग भी निर्मित करने की कोशिश कर रही है जिनमें हृदय की धमनियां और कान शामिल हैं। कान के बगैर जन्में लोगों में प्रयोगशाला में बने कान लगाने के लिए इस साल भारत और ब्रिटेन में परीक्षण शुरू करने का भी कार्यक्रम है। प्लास्टिक सर्जन डॉ. मिशैली ग्रिफिन का कहना है कि कान बनाना थोड़ा मुश्किल काम है। डॉ. ग्रिफिन दर्जनों कानों और नाकों का निर्माण कर चुकी हैं। स्वीडन में गोटेनबर्ग यूनिवर्सिटी की प्रत्यारोपण विशेषज्ञ सुचित्र सुमित्रन होल्गरसन का खयाल है कि जैव इंजीनियरिंग से तैयार अंग शीघ्र ही प्रयोगावस्था से निकल कर बाजार में आ जाएंगे। उन्होंने कुछ मरीजों में कृत्रिम रक्त धमनियां प्रत्यारोपित की हैं और 2016 तक वह बड़े पैमाने पर इस तरह के प्रत्यारोपण करना चाहती हैं, लेकिन इसके लिए अधिकारियों से अनुमति लेनी पड़ेगी। वह खुद इस बात को मानती हैं कि डॉक्टरों को इस तरह के प्रत्यारोपण के दूसरे प्रभावों, खास कर कैंसर के जोखिम पर भी गौर करना पड़ेगा। प्रो. सैफालियन का अनुमान है कि प्रयोगशाला में मानव अंग निर्मित करने के लिए 2005 से चल रही रिसर्च पर अभी तक 1.6 करोड़ डॉलर खर्च हो चुके हैं, लेकिन आने वाले समय में लैब में निर्मित अंग बहुत सस्ते हो जाएंगे।
प्रो. सैफालियन और उनके सहयोगियों के दावों के बावजूद प्रयोगशाला में कृत्रिम अंगों का निर्माण आसान नहीं है। किंग्स कॉलेज लंदन की स्टेम कोशिका विशेषज्ञ आइलीन जेंटलमैन का मानना है कि वैज्ञानिकों को गुर्दे, फेफड़े और जिगर जैसे जटिल अंगों के निर्माण से पहले नाक और कान जैसे अंगों को पूरी तरह से कार्य सक्षम बनाना पड़ेगा।

दुश्मन मिसाइलों को मार गिराने की क्षमता

शशांक द्विवेदी 
इंटरसेप्टर मिसाइल देश के लिए के लिए बड़ी कामयाबी
द्विस्तरीय बैलेस्टिक मिसाइल रक्षा तंत्र के विकास में बड़ी कामयाबी हासिल करते हुए दुश्मन के बैलिस्टिक मिसाइल को हवा में ही ध्वस्त करने के लिए भारत ने सुपरसोनिक इंटरसेप्टर मिसाइल का सफल परीक्षण किया। भारत ने पहली बार पृथ्वी डिफेंस व्हिकल (पीडीवी) की सहायता से इस मिसाइल द्वारा लक्ष्य को मार गिराया। इससे पृथ्वी की कक्षा से बाहर ही लक्ष्य को भेदा जा सकेगा। 
भारत के लिए यह मिसाइल रक्षा कवच बहुत  जरूरी हो गया था क्योंकि चीन और पाकिस्तान लगातार अपने मिसाइल कार्यक्रमों को बढ़ावा दे रहें है । चीन के पास बैलेस्टिक मिसाइलों का अम्बार लगा हुआ है ऐसे में अपनी सुरक्षा के लिए यह जरूरी हो गया था कि दुश्मन की मिसाइल को हवा में ही नष्ट करने का सिस्टम विकसित किया जाए । 1962 के युद्ध में हम चीन से हार चुके हैं और पाकिस्तान से तो दो बार सीधी जंग हो चुकी है। लेकिन, अब यदि जंग की आशंका बनती है तो युद्ध पहले की अपेक्षा बिल्कुल दूसरे ढंग से लड़ा जायेगा। इसमें परमाणु बमों से लैस मिसाइलों का भी इस्तेमाल किया जा सकता है। जिस तरह आजकल परमाणु हथियारों और मिसाइलों के आतंकवादियों के हाथों में पड़ने की आशंका जतायी जा रही है, उससे भी चिंतित होना स्वाभाविक है। अमेरिका, रूस,इस्राइल जैसे देशों के पास ये तकनीक हैं। लेकिन यदि भारत पर इस तरह के हमले होते हैं तो ऐसी स्थिति में हमारे पास बचने का उपाय नहीं रहता । नतीजतन, इन सभी पहलुओं को देखते हुए भी भारत का एंटी मिसाइल सिस्टम से लैस होना बहुत जरूरी था ।  आज महानगरों की घनी आबादी को देखते हुए इस तरह का एंटी मिसाइल सिस्टम हमारी सख्त जरूरत बन चुका है । इस मिसाइल कवच के विकसित होने से हमारे ऊर्जा स्रोतों मसलन, तेल के कुएं और न्यूक्लियर प्रतिष्ठानों की सुरक्षा सुनिश्चिलत की जा सकेगी ।
भारत पृथ्वी डिफेंस व्हिकल  (पीडीवी) की सहायता से पृथ्वी के वायुमंडल से ऊपर करीब 120 किलोमीटर तक के लक्ष्य को भेद सकता है। इस मिशन के लिए विशेष रूप से बनाए गए पीडीवी इंटरसेप्टर व द्विस्तरीय मोटरयुक्त लक्ष्य से इसका परीक्षण किया गया। जहां बंगाल की खाड़ी में जहाज से छोड़े गए छद्म लक्ष्य को सफलतापूर्वक मार गिराया गया। इसकी मारक क्षमता करीब दो हजार किलोमीटर की दूरी तक है। रडार आधारित इस प्रणाली में लक्ष्य को खोजने का कार्य उससे मिलने वाले डाटा से किया जाता है। पृथ्वी के वातावरण से मिसाइल के बाहर जाते ही हीट शील्ड निकलती है और इंफ्रारेड सीकर खुल जाता है, जिससे लक्ष्य को निशाने पर लिया जाता है। एंटी मिसाइल सिस्टम में संवेदनशील राडार की सबसे ज्यादा अहमियत है। ऐसे राडार बहुत पहले ही वायुमंडल में आये बदलाव को भांप कर आ रही मिसाइलों की पोजिशन ट्रेस कर लेते हैं। पोजिशन लोकेट होते ही गाइडेंस सिस्टम एक्टिव हो जाता है और आ रही मिसाइल की तरफ इंटरसेप्टिव मिसाइल दाग दी जाती है। इस मिसाइल का काम दुश्मन की मिसाइल को सुरक्षित ऊंचाई पर ही हवा में नष्ट करना होता है। इसे ट्रेस कर, पलटवार करने की प्रक्रिया में महज कुछ सेकेंड का ही अंतर होता है। मिसाइल कवच के बारे में पहली बार अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के समय में अधिक जिक्र हुआ। रीगन ने शीतयुद्ध के समय में स्ट्रेटेजिक डिफेंस इनिशियेटिव (एसडीआइ) प्रस्तावित किया. यह एक अंतरिक्ष आधारित हथियार प्रणाली थी,जिसके सहारे इंटरकांटीनेंटल बैलिस्टिक मिसाइल (आइसीबीएम) को अंतरिक्ष में मार गिराने की बात की गयी थी। लेजर लाइट से लैस इस हथियार को मीडिया ने स्टार वार का नाम दिया था।
कोई मिसाइल या रॉकेट अपने लक्ष्य को निशाना बनाये, उसके पहले ही उसे मार गिराने का विचार सबसे पहले द्वितीय विश्वकयुद्ध के दौरान आया। र्जमन वी-1 और र्जमन वी-2 प्रोग्राम इसी तरह के थे। हालांकि, ब्रिटिश सैनिकों के पास भी यह क्षमता थी और द्वितीय विश्व्युद्ध के दौरान उन्होंने दुश्मन देशों के कई ऐसे मिशन को नाकाम किया। बैलिस्टिक मिसाइल के इतिहास में र्जमन वी-2 को पहला वास्तविक बैलिस्टिक मिसाइल माना जाता है। इसे एयरक्राफ्ट या अन्य किसी युद्धक सामग्री से नष्ट करना असंभव था। इसे देखकर द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमेरिकी सेना ने र्जमन तकनीक की मदद से एंटी मिसाइल तकनीक पर काम करना शुरू किया। लेकिन व्यापक सफलता 1957 में सोवियत संघ द्वारा इंटर कांटीनेंटल बैलिस्टिक मिसाइल विकसित करने के बाद ही मिली। दुनिया के कई देशों द्वारा मिसाइल परीक्षण करने के कारण इनसे बचाव की जरूरत सभी को महसूस होने लगी है । यही कारण है कि विकसित देश अब मिसाइल सुरक्षा कवच विकसित करने पर अधिक ध्यान दे रहे हैं । अभी फिलहाल यह सिस्टम दुनिया के चुनिंदा देशों के पास ही है । एंटी बैलिस्टिक मिसाइल सिस्टम फिलहाल अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस, यूनाइटेड किंगडम, जापान और इजराइल के पास ही है । अब भारत भी इन देशों की श्रेणी में आ गया है, जिसके पास एंटी बैलिस्टिक मिसाइल सिस्टम है. हालांकि, हर देशके पास इससे संबंधित अलग-अलग तकनीक हैं । मसलन, अमेरिका और रूस के पास इंटर कांटीनेंटल बैलिस्टिक मिसाइल को भी मार गिराने की तकनीक है, जबकि अन्य देशों के पास अभी यह तकनीक नहीं है ।
भारत के एंटी मिसाइल विकास कार्यक्रम में इस्राइल का अहम योगदान है जिसके ग्रीनपाइन रेडार की बदौलत अडवांस्ड एयर डिफेंस (एएडी) मिसाइल प्रणाली के अब तक आठ परीक्षण किए गए हैं। चीन और पाकिस्तान के अलावा अब आतंकवादी संगठनों से मिसाइल हमलों के खतरों को देखते हुए मिसाइल रोधी प्रणाली की जरूरत पैदा हुई है। हाल ही में हमास और इजराइल के बीच लड़ाई के दौरान इजराइल की ऐसी ही रक्षा प्रणाली ऑयरन डोम काफी कारगर साबित हुई थी। ऑयरन डोम ने गाजा पट्टी से इजराइल पर दागे गए 300 से अधिक रॉकेटों को हवा में ही नष्ट कर दिया भविष्य में यदि भारत पर इस तरह का कोई मिसाइल या रॉकेट हमला होता है तो हमारी अपनी बनाई हुई यह प्रणाली अहम साबित होगी।
भारतीय रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन(डीआरडीओ) 2016 तक पांच हजार किमी मारक क्षमता वाली मिसाइलों से बचाने की क्षमता वाला मिसाइल रक्षा कवच (मिसाइल डिफेंस शील्ड) बना लेगा । डीआरडीओ प्रमुख के अनुसार बैलिस्टिक मिसाइल रक्षा कवच अब परिपक्व है और इसका पहला चरण पूरी तरह तैयार है। इसकी खासियत है कि इसे बहुत कम समय में तैनात किया जा सकता हैं। पहले चरण के तहत यह कवच देश में दो जगहों पर तैनात किया जा सकता है, जहां आधारभूत ढांचा उपलब्ध हो।देश को दुश्मनों से सुरक्षित करने के लिए इंटरसेप्टर मिसाइल का सफल परीक्षण देश के लिए बड़ी सफलता है। 

Tuesday 22 April 2014

हम अकालों की तरफ बढ़ रहे हैं

NBT

शशांक द्विवेदी 
(नवभारतटाइम्स (NBT) के संपादकीय पेज पर 22/04/2014 को प्रकाशित 
जलवायु परिवर्तन पर नजर रखने वाले संयुक्त राष्ट्र के अंतर सरकारी पैनल (आईपीसीसी) की पिछले दिनों जारी नई रिपोर्ट ने दुनिया भर में खतरे की घंटी बजा दी है। 'जलवायु परिवर्तन 2014: प्रभाव, अनुकूलन और जोखिम' शीर्षक इस रिपोर्ट के अनुसार यों तो जलवायु परिवर्तन का प्रभाव पहले ही सभी महाद्वीपों और महासागरों में फैल चुका है, लेकिन इसके कारण एशिया को बाढ़, गर्मी, सूखा तथा पेयजल से संबंधित गंभीर समस्याएं झेलनी पड़ सकती हैं। 
कृषि की प्रधानता वाले भारत जैसे देश के लिए यह काफी खतरनाक हो सकता है। जलवायु परिवर्तन की वजह से दक्षिण एशिया में गेहूं की पैदावार पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। वैश्विक खाद्य उत्पादन धीरे-धीरे घट रहा है। एशिया में तटीय और शहरी इलाकों में बाढ़ के चलते बुनियादी ढांचे, आजीविका और बस्तियों को काफी नुकसान हो सकता है। ऐसे में मुंबई, कोलकाता, ढाका जैसे शहरों पर खतरे की आशंका बढ़ सकती है। लोग ज्यादा, खाना कम क्लाइमेट चेंज दुनिया में खाद्यान्नों की पैदावार और आर्थिक समृद्धि को जिस तरह प्रभावित कर रहा है, उससे आने वाले समय में जरूरी चीजें इतनी महंगी हो जाएंगी कि विभिन्न देशों के बीच युद्ध जैसे हालात पैदा हो सकते हैं। यह खतरा उन देशों में ज्यादा होगा जहां कृषि आधारित अर्थव्यवस्था है। पर्यावरण का सवाल जब तक 'तापमान में बढ़ोतरी से मानवता के भविष्य पर खतरा' जैसे अमूर्त रूपों तक सीमित रहा, तब तक विकासशील देशों का इसकी ओर ध्यान नहीं गया। परंतु अब जलवायु चक्र का सीधा असर खाद्यान्न उत्पादन पर पड़ रहा है। किसान तय नहीं कर पा रहे कि कब बुवाई करें और कब फसल काटें। तापमान में बढ़ोतरी जारी रही तो आने वाले 15 सालों में खाद्य उत्पादन 40 प्रतिशत तक घट जाएगा। इससे पूरे विश्व में खाद्यान्नों की भारी कमी हो जाएगी। ऐसी स्थिति वर्ल्ड वार से कम खतरनाक नहीं होगी। एक नई अमेरिकी स्टडी में दावा किया गया है कि तापमान में एक डिग्री तक का इजाफा साल 2030 तक अफ्रीकी सिविल वार के रिस्क को 55 प्रतिशत तक बढ़ा सकता है। 


दुनिया जिस तरह विकास की दौड़ में अंधी हो रही है, उसे देखकर तो यही लगता है कि आज नहीं तो कल ग्लोबल वार्मिंग मानव सभ्यता के लिए भारी संकट पैदा करने वाली है। प्राकृतिक आपदाएं हमें बार-बार चेतावनी दे रही हैं। लोगों को इस कथित विकास की बेहोशी से जगाने के लिए ही अमेरिकी सीनेटर जेराल्ड नेल्सन द्वारा 22 अप्रैल 1970 से धरती को बचाने की मुहिम पृथ्वी दिवस के रूप में शुरू की गई थी। लेकिन, अभी यह दिवस सिर्फ रस्मी आयोजनों तक सिमट कर रह गया है। 

दुनिया भर में पर्यावरण संरक्षण को लेकर काफी बातें, सम्मेलन, सेमिनार आदि हो रहे हैं। लेकिन, इनके निष्कर्षों पर अमल की सूरत बनती दिखाई नहीं देती। केंद्रीय पर्यावरणमंत्री ने 3 साल पहले सभी वाहनों में फ्यूल एफिशंसी स्टैंडर्ड, मॉडल ग्रीन बिल्डिंग कोड और इंडस्ट्रीज के लिए एनर्जी एफिशंसी सर्टिफिकेट आवश्यक करने के लिए ऊर्जा संरक्षण कानून में संशोधन, देश के सभी कोयला आधारित ताप बिजलीघरों में 50 प्रतिशत प्रदूषण रहित कोयले का प्रयोग, वन क्षेत्र संरक्षण के लिए कठोर कदम आदि बातों का जिक्र किया था। परंतु वास्तविकता के धरातल पर इनमें से एक भी पहलू पर ठीक ढंग से काम नहीं हुआ है। हम अपने लक्ष्य से अभी बहुत दूर है। हालांकि यह मुद्दा 2009 में घोषित नैशनल एक्शन प्लान के 8 मिशनों में से एक है। 

पर्यावरण संबंधी मुद्दों पर सरकार ने अभी तक कोई गंभीर प्रयास नहीं किया। असल में पर्यावरण सरंक्षण का मुद्दा पार्टियों के राजनीतिक अजेंडे में ही नहीं है। देश में लोकसभा के चुनाव चल रहे हैं, लेकिन अधिकांश राजनीतिक दलों ने अपने घोषणापत्र में ऐसे किसी भी मुद्दे को जगह देना जरूरी नहीं समझा। 

जलवायु परिवर्तन पलायन की बड़ी वजह भी बनने जा रहा है। इंटरनेशनल ऑर्गनाइजेशन फॉर माइग्रेशन ने अनुमान लगाया है कि सन 2050 तक तकरीबन 20 करोड़ लोगों का पलायन जलवायु परिवर्तन की वजह से होगा जबकि उस समय तक दुनिया की आबादी बढ़ कर 9 अरब तक पहुंच जाने का अनुमान है। 

कितना महंगा विकास पर्यावरण असंतुलन के लिए जनसंख्या वृद्धि उतनी जिम्मेदार नहीं है जितनी उपभोगवादी संस्कृति। यही संस्कृति हर कीमत पर विकास वाली मनोवृत्ति बनाती है। क्या सिर्फ औद्योगिक उत्पादन में बढ़ोतरी कर देने को विकास माना जा सकता है? खासकर तब जब एक बड़ी आबादी को अपनी जिंदगी बीमारी और पलायन में गुजारनी पड़े? आखिर ऐसे विकास का क्या मतलब जो विनाश को आमंत्रित करता हो? ऐसे विकास को क्या कहें जिसकी वजह से संपूर्ण मानवता का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाए? 

वास्तव में पर्यावरण संरक्षण ऐसा ही है जैसे विपरीत परिस्थितियों में भी अपने जीवन की रक्षा करने का संकल्प। सरकार और समाज के स्तर पर लोगों को पर्यावरण के मुद्दे पर गंभीर होना होगा, नहीं तो सबको प्रकृति का कहर झेलने के लिए तैयार रहना होगा। इसलिए आज और अभी हम संकल्प लें कि पृथ्वी को संरक्षण देने के लिए जो कुछ भी हम कर सकेंगे, वह करेंगे और अपने परिवेश में इस बारे में जागरूकता भी फैलाएंगे।
Article link





जलवायु परिवर्तन की वजह से भारत में खाद्यान संकट

संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट
पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन के लिये बने अंतर सरकारी पैनल (आईपीसीसी) की नयी रिपोर्ट ने दुनिया भर में चेतावनी की घंटी बजा दी है। इस रिपोर्ट को
जापान में जारी इस रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन का प्रभाव पहले से ही सभी महाद्वीपों और महासागरों में विस्तृत रुप ले चुका है। रिपोर्ट के अनुसार जलवायु गड़बड़ी के कारण एशिया को बाढ़, गर्मी के कारण मृत्यु, सूखा तथा पानी से संबंधित खाद्य की कमी का सामना करना पड़ सकता है। कृषि आधारित अर्थव्यवस्था वाले भारत जैसे देश जो मानसून पर ही निर्भर हैं के लिये यह काफी खतरनाक हो सकता है। रिपोर्ट के अनुसार जलवायु परिवर्तन की वजह से दक्षिण एशिया में गेंहू की पैदावार पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। वैश्विक खाद्य उत्पादन धीरे-धीरे घट रहा है। एशिया में तटीय और शहरी इलाकों में बाढ़ की वृद्धि से बुनियादी ढाँचे, आजीविका और बस्तियों को काफी नुकसान हो सकता है। ऐसे में मुंबई, कोलकाता, ढाका जैसे शहरों पर खतरे की संभावना बढ़ सकती है। जलवायु परिवर्तन से खतरे वास्तविक हैं, इस बात को आईपीसीसी कार्य समूह दो के रिपोर्ट में स्पष्ट किया गया है। जलवायु परिवर्तन 2014: प्रभाव, अनुकूलन और जोखिमशीर्षक से जारी इस रिपोर्ट में  रिपोर्ट जारी किया गया है। इस रिपोर्ट के आने के बाद अब यह स्पष्ट है कि कोयला और उच्च कार्बन उत्सर्जन से भारत के विकास और अर्थव्यवस्था पर धीरे-धीरे खराब प्रभाव पड़ेगा और देश में जीवन स्तर सुधारने में प्राप्त उपलब्धियां नकार दी जायेंगी। हाल ही में महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश में करीब 12 लाख हेक्टेयर में हुये ओला वृष्टि से गेहू, कॉटन, ज्वार, प्याज जैसे फसल खराब हो गये थे। ये घटनाएँ भी आईपीसीसी की अनियमित वर्षा पैटर्न को लेकर किए गये भविष्यवाणी की तरफ ही इशारा कर रहे हैं।
आईपीसीसी ने इससे पहले भी समग्र वर्षा में कमी तथा चरम मौसम की घटनाओं में वृद्धि की भविष्यवाणी की थी। इस रिपोर्ट में भी गेहूं के उपर खराब प्रभाव पड़ने की भविष्यवाणी की गयी है। इसलिये भारत सरकार को इस समस्या से उबरने के लिये सकारात्मक कदम उठाने होंगे।
नयी सरकार को तुरंत ही इस पर कार्रवायी करते हुये स्वच्छ ऊर्जा संक्रमण से जुड़ी योजनाओं को लाना चाहिए
आपीसीसी रिपोर्ट में पाया गया है कि जलवायु परिवर्तन आदमी की सुरक्षा के लिये खतरा है क्योंकि इससे खराब हुये भोजन-पानी का खतरा बढ़ जाता है जिससे अप्रत्यक्ष रूप से विस्थापन और हिंसक संघर्ष का जोखिम बढ़ता है।
तेल रिसाव और कोयला आधारित पावर प्लांट,सामूहिक विनाश के हथियार हैं। इनसे खतरनाक कार्बन उत्सर्जन का खतरा होता है। हमारी शांति और सुरक्षा के लिये हमें इन्हें हटा कर अक्षय ऊर्जा की तरफ कदम बढ़ाना अब हमारी जरुरत और मजबूरी दोनों बन गया है .
पिछले कुछ सालों पर्यवारण संबंधी इस तरह की रिपोर्ट और चेतावनी आने के बावजूद पर्यावरण का मुद्दा हमारे देश के राजनीतिक दलों के एजेंडे में शामिल ही नहीं है.
देश में लोकसभा के चुनाव चल रहें है लेकिन अधिकांश राजनीतिक दलों ने अपने घोषणापत्र में पर्यावरण संबंधी किसी भी मुद्दे को जगह देना जरूरी नहीं समझा .देश में हर जगह ,हर तरफ हर पार्टी विकास की बातें करती है लेकिन ऐसे विकास का क्या फायदा जो लगातार विनाश को आमंत्रित करता है .ऐसे विकास को क्या कहें जिसकी वजह से सम्पूर्ण मानवता का अस्तित्व ही खतरे में पढ़ गया हो . ग्रीनपीस इंडिया ने भारतीय नेताओं से रिपोर्ट में दिये गये चेतावनी पर ध्यान देने की मांग की है। उसने कहा है कि नयी सरकार सितंबर में संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून के साथ आयोजित जलवायु सम्मेलन में गंभीर प्रस्तावों के साथ भाग ले जो दुनिया और भारत को स्वच्छ तथा सुरक्षित ऊर्जा के लक्ष्य को प्राप्त करने में मदद करे।

कुछ ही दिनों में भारत फिर से वोट डालने वाला है और नयी सरकार भी जलवायु परिवर्तन से भारत को होने वाले जोखिम से बेखबर नहीं हो सकता है

की इस   गयी 

Monday 21 April 2014

अठारह करोड़ वर्ष पुरानी कोशिकाएं भी सुरक्षित मिलीं


मुकुल व्यास
दक्षिणी स्वीडन के स्कान क्षेत्र में मिले फर्न के पौधे के जीवाश्म ने दुनिया के वैज्ञानिक समुदाय को बेहद रोमांचित कर दिया है। रोमांचित करने वाली बात यह है कि स्वीडिश वैज्ञानिकों ने 18 करोड़ वर्ष पुराने इस जीवाश्म में कोशिकाओं के नाभिकों और क्रोमोजोम को संरक्षित अवस्था में पाया है। इस पौधे का संबंध जुरासिक काल से है। उस समय स्कान एक ऊष्ण क्षेत्र था और वहां डाइनासोरों का वर्चस्व था। वहां ज्वालामुखी भी सक्रिय थे। वैज्ञानिकों ने जीवाश्म का विस्तृत अध्ययन किया है। जांच पड़ताल से पता चला कि यह पौधा क्षय की प्रक्रिया शुरू होने से पहले ही तत्काल संरक्षित हो गया था। वैज्ञानिकों का कहना है कि ज्वालामुखी से निकले लावा ने इस पौधे को दफन कर दिया था। स्वीडिश भूगर्भशास्त्री विवि वाज्दा के मुताबिक संरक्षण इतनी तेजी से हुआ कि कुछ कोशिकाएं कोशिका विभाजन के विभिन्न चरणों में ही संरक्षित हो गईं। पौधे की अचानक मौत की वजह से कोशिकाओं के संवेदनशील हिस्से भी संरक्षित हो गए। रिसर्चरों को इस पौधे में कोशिका के नाभिक, कोशिका की झिल्लियां और क्रोमोसोम सही सलामत मिले हैं। जीवाश्मों के भीतर इस तरह की संरचनाओं का मिलना बहुत दुर्लभ होता है। मुमकिन है कि लावा के प्रवाह में और भी कई चीजें दफन हो गई हों।

प्रो.वाज्दा ने जीवाश्म के आसपास की चट्टानों पर जमा पराग कणों का भी अध्ययन किया है। पता चला कि इस इलाके में 18 करोड़ वर्ष पहले ज्वालामुखी का लावा फैला था। वाज्दा के अध्ययन से यह भी पता चलता है कि इस इलाके की जलवायु गर्म थी और यहां उगने वाले पेड़ पौधों में अच्छी खासी विविधता थी। फर्न का यह दुर्लभ जीवाश्म साठ के दशक में एक किसान को मिला था। उसने यह जीवाश्म स्वीडन के प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय को सौंप दिया जहां उसे लगभग भुला दिया गया। करीब चालीस साल बाद शोधकर्ताओं का ध्यान इस दुर्लभ जीवाश्म की तरफ गया। यह फर्न आधुनिक रॉयल फर्न के परिवार से संबंध रखता है। रॉयल फर्न स्वीडन के जंगलों में उगता है। इस परिवार के जीवित सदस्य और जुरासिक काल के जीवाश्म में काफी समानताएं हैं। इससे पता चलता है कि करोड़ों वर्ष बीत जाने के बाद भी इसमें कोई बड़ा परिवर्तन नहीं हुआ है। रिसर्चरों ने फर्न के जीवाश्म के कोशिका नाभिक का मिलान उसके जीवित रिश्तेदारों से करने के बाद पाया कि इस पौधे में विकास क्रम की दृष्टि से गजब की स्थिरता है।

इस बीच, ब्रिटिश आर्कटिक सर्वे और रीडिंग युनिवर्सिटी के रिसर्चरों ने अंटार्टिक बर्फ में करीब 1530 वर्षों से जमा काई(मॉस ) को फिर से जीवित कर दिया है। दोनों ध्रुवीय क्षेत्रों के जीव विज्ञान के लिए काई का विशेष महत्व है। दरससल इन इलाकों में इसी पौधे का बोलबाला है। यह पहला अध्ययन है जिसमें किसी पौधे को इतनी लंबी अवधि तक जीवित पाया गया है। काई पर्यावरण की विषमताओं को झेल सकती है लेकिन पिछले अध्ययनों में इस पौधे में 20 साल तक ही जीवित रहने की क्षमता देखी गई थी। प्राकृतिक पर्यावरण प्रणाली में काई एक खास भूमिका निभाती है। यह जानना बहुत महत्वपूर्ण है कि अंटार्टिक जैसे दुनिया के तेजी से बदलने वाले इलाकों में इस पौधे के विकास और वितरण को कौन सी चीजें नियंत्रित करती हैं। प्रो.कन्वे के अनुसार उनके प्रयोग से सिद्ध होता है कि बहु-कोशिका जीव लंबे समय तक विषम परिस्थितियों को झेल सकते हैं। रिसर्चरों ने अंटार्टिक से काई के जो नमूने एकत्र किए वे पहले ही कई दशक पुराने थे। उन्होंने इन नमूनों को प्रदूषण से मुक्त रखने के बाद सामान्य तापमान पर एक इंक्यूबेटर में रखा जहां कुछ सप्ताह के भीतर उन्होंने विकसित होना शुरू कर दिया। कार्बन डेटिंग की मदद से रिसर्चरों ने पता लगाया कि यह काई कम से कम 1530 वर्ष पुरानी है। संभव है कि जटिल संरचना वाले दूसरे जीव रूप इससे भी ज्यादा समय तक बर्फीली सतह में अपना अस्तित्व बनाए रखने में समर्थ होंगे। 

2015 से मिलने लगेगी उड़ने वाली कार!!

शशांक द्विवेदी 
आखिरकार फ्लाइंगे वाली कार आ ही गई? जैसा की साइंस फिक्शन फिल्मों में देखा जाता है ठीक उसी तरह की फ्लाइंगे वाली का सपना तकरीबन पूरा हो गया है। अगले दो साल यानी 2015 तक इस फ्लाइंग कार की बिक्री भी शुरू कर दी जाएगी। इस कार में यह भी खूबी है कि सड़क पर चलते वक्त अगर कभी ट्रैफिक जाम में फंसने की नौबत आ जाती है तो यह कार साइड से भी उड़ान भर सकती है। जानकारी के अनुसार एक लाख 90 हजार पौंड कीमत की यह फ्लाइंग कार 2015 से बाजार में बिक्री के लिए उपलब्ध हो सकती है। इसे बनाने वाले का कहना है कि इस फ्लाइंग कार का दूसरा टीएफ-एक्स मॉडल, जो कि खड़ी हुई पोजिशन में भी वर्टिकली उड़ान भर सकता है, को भी बाजार में उतार दिए जाने की योजना है।
अमेरिका में मैसाचुसेट्स के प्राइवेट जेट बनाने वाली कंपनी टैराफूजिया ने इस फ्लाइंग कार को डिजाइन किया है। यह एक सेडान कार और कुछ प्राइवेट जेट का हिस्सा है। इस फ्लाइंग कार में दो लोगों के बैठने की जगह है। इसमें चार पहिए और दो पंख है जो जरूरत के हिसाब से मुड़ जाते हैं। कार की ही तरह यह चलती है लेकिन जरूरत पड़ने पर इसमें उड़ान भी भरी जा सकती है। इस फ्लाइंग कार के टीएफ-एक्स मॉडल को उड़ान भरने के लिए रनवे की जरूरत नहीं है।
यह फ्लाइंग कार 70 मील प्रति घंटे की रफ्तार से दौड़ सकती है और हवा में इसकी स्पीड 115 मील प्रति घंटा है। इसमें 23 गैलन का फ्यूल टैंक लगा है। उड़ान भरने पर हवा में पांच गैलन फ्यूल एक घंटे में लग जाता है और सड़क पर दौड़ते हुए एक गैलन फ्यूल में 35 मील की दूरी तय की जा सकती है। सड़क पर चलते हुए यह कार आगे की पहियों पर कंट्रोल होती है। कार में सवार दोनों लोगों की सेफ्टी के लिए दो एयरबैग और हवा में जरूरत पड़ने पर पैराशूट का भी इंतजाम है जोकि दोनों सवारियों को कार सहित संभाल सकने में सक्षम है।
पिछले साल इस फ्लाइंग कार ट्रांसिशन का सफलतापूर्वक 1400 फुट की उड़ान का आठ मिनट तक परीक्षण किया गया था। इस महंगी और उड़ने वाली कार को लेने के लिए पायलट का लाइसेंस होना भी जरूरी है। साथ ही टेस्ट के साथ 20 घंटे का उड़ान का अनुभव भी जरूरी है। आने वाले समय में उम्मीद है कि इस कार से कम से कम 500 मील की दूरी भी उड़ कर तय की जा सकेगी।

GSLV-D5 rocket launch- A Big success Story

Puts India in ‘Cryo Club’
Shashank Dwivedi 
Article in Pratiyogita darpan (English) ,March 2014 Issue

GSLV-D5 rocket launched successfully with indigenous cryogenic technology
The Indian Space Research Organisation or ISRO achieved another milestone  as it successfully launched the Geo-synchronous Satellite Launch Vehicle or GSLV-D5 from the Satish Dhawan Space Centre at Sriharikota in Andhra Pradesh on 5 January 2014 .
With this, India joined the “Cryo Club”, a select group of space faring nations having the crucial cryogenic engine technology, which is necessary to carry heavy satellites. Countries which have such a capability are the US, Russia, France, Japan and China.On this occasion ISRO Chairman K Radhakrishnan said: “I am extremely happy and proud to say that Team ISRO has done it. The Indian cryogenic engine and stage performed as predicted, as expected for this mission and injected precisely the GSAT-14 communication satellite into the intended orbit.” This was an important day for science and technology and for space technology in the country. Twenty years’ efforts in realising the cryogenic engine and stage have now been fructified..toiling of 20 years.The Rs. 350-crore mission marks India's entry into the multi-billion dollar commercial launcher market on a fully indigenous large rocket. 
For over 20 years, the cryogenic technology was denied to India by Russia under pressure from the US. The launch defies that denial regime and marks the coming of age of India's indigenous space technology. Now, India seeks to attract foreign satellite launches due to its competitive cost. 
India has been paying $85-90 million (around Rs 500 crore) as launch fee to foreign space agencies for sending communication satellites weighing up to 3.5 tonnes. The successful launch of this rocket was crucial for India as this was the first step towards building rockets that can carry heavier payloads. The launch was also the first mission of the GSLV after two such rockets failed in 2010 and an August 2013 launch was aborted at the last minute following leakage of fuel from the second-stage engine.
 The GSLV is a three-stage engine rocket. The first stage is fired with solid fuel, the second with liquid fuel and the third is the cryogenic engine. GSLV-D5, launched on 5 January , is 49.13 meters tall and weighs 414.75 tonnes. Several design changes were incorporated into the rocket for a safe blast-off and design changes were also made in the lower shroud (cover), that protects the cryogenic engine during the atmospheric flight. wire tunnel of the cryogenic stage, to withstand larger forces during the flight and the revised aerodynamic characterization of the entire rocket. GSLV is capable of launching 2,000-kg-class satellites into the geosynchronous transfer orbit (GTO).

Cryogenic Engine
A cryogenic rocket engine is a rocket engine that uses a cryogenic fuel or oxidizer, that is, its fuel or oxidizer (or both) are gases liquefied and stored at very low temperatures. Notably, these engines were one of the main factors of NASA's ultimate success in reaching the Moon by the Saturn V rocket.
During World War II, when powerful rocket engines were first considered by the German, American and Soviet engineers independently, all discovered that rocket engines need high mass flow rate of both oxidizer and fuel to generate a sufficient thrust. At that time oxygen and low molecular weight hydrocarbons were used as oxidizer and fuel pair. At room temperature and pressure, both are in gaseous state. Hypothetically, if propellants had been stored as pressurized gases, the size and mass of fuel tanks themselves would severely decrease rocket efficiency. Therefore, to get the required mass flow rate, the only option was to cool the propellants down to cryogenic temperatures (below −150 °C, −238 °F), converting them to liquid form. Hence, all cryogenic rocket engines are also, by definition, either liquid-propellant rocket engines or hybrid rocket engines.
Various cryogenic fuel-oxidizer combinations have been tried, but the combination of liquid hydrogen (LH2) fuel and the liquid oxygen (LOX) oxidizer is one of the most widely used. Both components are easily and cheaply available, and when burned have one of the highest entropy releases by combustion, producing specific impulse up to 450 s (effective exhaust velocity 4.4 km/s).

Commercial Advantage
The success of GSLV-D5 signals is the beginning of a new era of commercial viability for Indian space missions. Though India had in the last two decades claimed its rightful place in the global space sector with 25 consecutive successes of its Polar Satellite Launch Vehicles (PSLVs), there remained a GSLV-shaped hole. While PSLV can carry satellites up to 2 tonnes to a low earth orbit, GSLV was needed for the launch of heavier satellites, especially of the telecommunication variety that need to be put in a 36,000km geosynchronous orbit. Sunday's launch using an indigenous cryogenic engine bridges this gap.
Antrix Corporation, the commercial arm of ISRO, which has been putting its workhorse PSLV to good use to launch satellites for other countries which find the Indian launchpad reliable and affordable, will now get a boost. Antrix chairman and managing director V S Hegde said the corporation is expecting a 15% growth in turnover as more countries were approaching Isro for commercial launches. Antrix has registered a revenue of 1,300 crore in the current fiscal.
ISRO chairman K . Radhakrishnan confirmed that Germany has approached India for the launch of an 800-kg satellite, and the UK for three satellites weighing 300kg each. "There will be at least two dedicated commercial launches this year using PSLV," said Radhakrishnan. ISRO scientists said earnings from such launches could more than double once GSLV is accepted globally as a reliable launch vehicle.
At the level of technology demonstration and outer space exploration, GSLV has come a shot in the arm for ISRO. Though we have spelled out our plans for a manned mission, we couldn't arrive at a tentative date because of the unreliability of GSLV. This success will speed up such projects. ISRO ready for a series of GSLV launches, including those for GSAT-6, GSAT-7A, GSAT-9 and Chandrayaan-2. The second moon mission will use a GSLV, after a second success of the cryogenic engine.





Tuesday 1 April 2014

ब्रह्मांड का विस्तार

बिग बैंग सिद्धांत पर मुकुल व्यास के विचार
 करीब 13.7 अरब वर्ष पहले बिग बैंग अथवा महाविस्फोट के जरिये हमारे ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई थी। ब्रह्मांड के अस्तित्व में आते ही बहुत तेजी से उसका विस्तार हुआ। इस विस्तार से गुरुत्व तरंगें उत्पन्न हुईं जिन्हें ग्रेविटेशनल वेव्स भी कहा जाता है। इन तरंगों को हम बिग बैंग का कंपन भी कह सकते हैं। अब खगोल वैज्ञानिकों ने पहली बार गहन अंतरिक्ष में इन तरंगो की मौजूदगी का पता लगाया है। उन्होंने दक्षिणी ध्रुव में स्थापित बाइसेप-2 दूरबीन से इन तरंगों की परोक्ष तस्वीरें हासिल करने में सफलता हासिल किया है। यह दूरबीन बिग बैंग की वजह से उत्पन्न ब्रह्मांडडीय पाश्र्व विकिरण को नापने के उद्देश्य से बनाई गई हैं। इस खोज से पहली बार उन घटनाओं की पुष्टि हुई है जिनकी शुरुआत ब्रह्मांड की उत्पत्ति से हुई थी। उत्पत्ति के प्रारंभिक पल के दौरान गुरुत्व तरंगें निकली थीं। अल्बर्ट आइंस्टीन ने 1916 में अपने सापेक्षता के सिद्धांत में इन तरंगों के अस्तित्व की भविष्यवाणी की थी, लेकिन अभी तक इनका प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं मिला था। हालांकि, इन्हें नापने के लिए दुनिया में कई प्रयोग किए गए। सत्तर के दशक में खगोल वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया कि गुरुत्व किरणों अवश्य ही बिग बैंग के तुरंत बाद उत्पन्न हुई होंगी। इस अवधि में ब्रव0161ांड का तेजी से विस्तार हुआ। बाद में वह एक मटर के दाने जितने पदार्थ से फैलकर इतना बड़ा हो गया कि हमारी सबसे शक्तिशाली दूरबीनें भी उसकी अनंत गहराइयों का अंदाजा नहीं लगा सकतीं।
ब्रह्मांडडीय विस्तार की इस अवधि को कॉस्मिक इनफ्लेशन भी कहा जाता है। वैज्ञानिकों के सिद्धांत के मुताबिक ब्रह्मांड में सुगम रूप से वितरित पदार्थ से आकाशगंगा, और तारों तथा ग्रहों जैसी बड़ी-बड़ी संरचनाएं बनीं। गुरुत्व किरणों का अस्तित्व इस सिद्धांत के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। मैसाचुसेट्स स्थित हार्वर्ड स्मिथसोनियन सेंटर फॉर एस्ट्रोफिजिक्स के वैज्ञानिक जॉन कोवाक और उनके सहयोगियों ने बिग बैंग की प्रतिध्वनि के रूप में उत्पन्न माइक्रोवेव पाश्र्व विकिरण की धुंधली चमक के अंदर एक अलग किस्म के विकिरण के अनोखे पैटर्न देखे हैं। उनके मुताबिक ये पैटर्न गुरुत्व किरणों की वजह से उत्पन्न हुए हैं। डॉ. कोवाक का कहना है कि इन किरणों के संकेत खोजना ब्रव0161ांड विज्ञान का एक बहुत बड़ा लक्ष्य है। कई लोगों ने इस दिशा में बहुत काम किया है जिस वजह से वैज्ञानिक आज इस बिंदु तक पहुंच पाए हैं। धरती पर रहते हुए अंतरिक्ष में झांकने के लिए दक्षिणी ध्रुव एक आदर्श स्थान है। डॉ. कोवाक के अनुसार बिग बैंग से उत्पन्न धुंधली माइक्रोवेव के पर्यवेक्षण के लिए यह सबसे शुष्क और साफ-सुथरी जगह है। ब्रह्मांडडीय पाश्र्व विकिरण दरअसल प्रकाश का ही एक रूप है। यह प्रकाश के सारे गुणों को प्रदर्शित करता है जिनमें ध्रुवीकरण अथवा पोलराइजेशन शामिल है। पृथ्वी पर वायुमंडल सूरज की रोशनी को बिखेर देता है जिससे वह ध्रुवीकृत हो जाती है। इसी वजह से ध्रुवीकृत चश्मों से चमक या ग्लेयर कम करने में मदद मिलती है। अंतरिक्ष में अणुओं ने ब्रवडीय माइक्रोवेव पृष्ठभूमि को तितर-बितर कर दिया जिससे वह भी ध्रुवीकृत हो गई।
रिसर्च में शामिल एक अन्य वैज्ञानिक जेमी बॉक ने बताया कि उनकी टीम ने विशेष किस्म के ध्रुवीकरण की तलाश की। इस किस्म को बी मोड कहा जाता है। इसमें गुच्छेदार पैटर्न बनते हैं। यही बी मोड पैटर्न गुरुत्व किरणों का संकेत देता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि वे बी मोड विकिरण के इतने शक्तिशाली संकेत मिलने से बहुत चकित हो गए थे, क्योंकि ये संकेत खगोल वैज्ञानिकों द्वारा लगाए गए अनुमानों से कहीं ज्यादा बड़े थे। हार्वर्ड के वैज्ञानिक एवी लोएब ने इस खोज के महत्व पर प्रकाश डालते हुए बताया कि इससे हमें अपने अधिकांश बुनियादी सवालों का उत्तर खोजने में मदद मिल सकती है। नई खोज से हमें पता चलता है कि कब ब्रह्मांड का विस्तार हुआ।