Wednesday 26 March 2014

चिप याद रखेगी सब कुछ..

 मुकुल व्यास
आज से पांच-दस साल बाद किसी विकसित देश में जन्म लेने वाले बच्चे को एक अनोखा टैटू मिल सकता है। यह टैटू एक इलेक्ट्रॉनिक चिप के रूप में होगा। डाक टिकट से भी छोटी इस चिप को संभवतः सीने में प्रत्यारोपित किया जाएगा। यह चिप बच्चे के शरीर की हर गतिविधि, उसके सोने की अवधि, उसके सांस लेने की दर, उसके शरीर के तापमान और उसके पोषण की स्थिति पर नजर रखेगी। चिप द्वारा एकत्र किए गए सारे आंकड़े मोबाइल फोनों या टैब्लेटों को भेज दिए जाएंगे जहां ऐप्स के जरिए अभिभावकों और डॉक्टरों को तत्काल बच्चे के स्वास्थ्य के बारे में सभी महत्वपूर्ण जानकारियां मिल जाएंगी। युनिवर्सिटी ऑफ सदर्न कैलिफोर्निया में कार्डियोवैस्कुलर मेडिसिन डिविजन की प्रमुख लेजली सैक्सन का कहना है कि इस तरह की चिपों से सिर्फ बच्चों को ही फायदा नहीं होगा। भविष्य में खिलाड़ियों और सैनिकों सहित हर व्यक्ति को इसका लाभ मिलेगा। मरीज अपने व्यक्तिगत सेंसरों द्वारा एकत्र आंकड़ों की मदद से अपनी बीमारियों से बेहतर ढंग से निपट सकेंगे।
कुछ समय पहले टैक्सस में एक इंटरेक्टिव कॉन्फ्रेंस में सैक्सन ने बताया कि सेंसरों द्वारा एकत्र आंकड़ों का भंडार दवा कंपनियों और दूसरी बायोमेडिकल कंपनियों के लिए बहुमूल्य साबित होगा। हो सकता है भविष्य में ये कंपनियां आपसे आंकड़े प्राप्त करने के लिए आपको अच्छा-खासा भुगतान भी करें। इस तरह के व्यक्तिगत आंकड़ों के दुरुपयोग का खतरा हो सकता है और खुद सैक्सन भी इस बात को मानती हैं। आंकड़ों के दुरुपयोग को रोकने और लोगों की प्राइवेसी के अधिकार को सुरक्षित करने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई निगरानी व्यवस्था भी कायम करनी पड़ेगी। लेकिन इस तरह की चीजों से भयभीत होने के बजाय हमें इनका सकारात्मक पक्ष देखना चाहिए। दरअसल इन स्मार्ट मशीनों से हमें अपने शरीर को ज्यादा बेहतर ढंग से समझने में मदद मिलेगी।

कुछ विकसित देशों में शरीर से बायोमीट्रिक डेटा प्राप्त करने का प्रचलन शुरू भी हो चुका है। सैक्सन के मुताबिक करीब 27 प्रतिशत अमेरिकी बायोमीट्रिक डेटा नापने के लिए किसी न किसी डिवाइस का प्रयोग कर रहे हैं। लोगों द्वारा प्रयुक्त किए जा रहे उपकरणों में एक रिस्टबैंड शामिल है जो शारीरिक गतिविधि और निद्रा के समय को रिकॉर्ड करता है। इस तरह के डिवाइस आगे चल कर ज्यादा उन्नत सेंसरों में तब्दील होंगे। जाहिर है इनसे मनुष्य और मशीन के बीच एक नया रिश्ता बनेगा, उनमें एक नया इंटरफेस बनेगा। इस तरह के सेंसर शरीर के भीतर प्रत्यारोपित किए जा सकेंगे और उनकी नेटवर्किंग की जा सकेगी। भविष्य में आपके शरीर के भीतर के सेंसरों को आपकी स्मार्ट कार के साथ जोड़ा जा सकेगा। इससे ड्राइविंग का मजा बढ़ जाएगा। सैक्सन का कहना है कि इस तरह के सेंसर आपको रोड रेज या पत्नी से झगड़ा करने से भी रोकेंगे।
पश्चिमी बाजारों में शीघ्र ही ऐसे इंजेस्टिबल सेंसर आने वाले हैं, जिन्हें गोली के साथ निगला जा सकेगा। ये सेंसर यह देखेंगे कि मरीज ने अपनी दवा की खुराक निर्धारित मात्रा में ली है या नहीं। वे यह भी देखेंगे कि दवा की खुराक लेने के बाद शरीर के अंदर किस तरह की प्रतिक्रिया होती है। इससे डॉकटरों को दवा की सही मात्रा निर्धारित करने में मदद मिलेगी। सैक्सन का कहना है कि करीब 30 से 50 प्रतिशत मरीज डॉक्टरों द्वारा निर्धरित खुराक समुचित मात्रा में नहीं लेते। एक अमेरिकी दवा कंपनी द्वारा विकसित किए गए इंजेस्टिबल सेंसर को एफडीए की अनुमति मिल गई है। इस सेंसर का इस्तेमाल हृदय रोग से संबंधित एक ड्रग के साथ किया जाएगा।

सैक्सन का मानना है कि युवाओं, खासकर बच्चों में इस तरह के सेंसरों का प्रयोग विकासशील देशों में काफी उपयोगी साबित हो सकता है, जहां बीमारियां फैलने का खतरा ज्यादा रहता है। इन चिपों से काफी मदद मिल सकती है। इन सेंसरों के जरिए विकासशील देशों में कुपोषण और जन स्वास्थ्य की दूसरी समस्याओं को बेहतर ढंग से समझने और उनका उपाय खोजने में भी मदद मिल सकती है।

Saturday 22 March 2014

जीने के लिए जरूरी है जल संरक्षण

विश्व जल दिवस पर विशेष
शशांक द्विवेदी 

LOKMAT
विश्व जल दिवस यानी पानी के वास्तविक मूल्य को समझने का दिन ,पानी बचाने के संकल्प का दिन। पानी के महत्व को जानने का दिन और जल संरक्षण के विषय में समय रहते सचेत होने का दिन। आँकड़े बताते हैं कि विश्व के 1 .6 अरब लोगों को पीने का शुद्ध पानी नही मिल रहा है। पानी की इसी जंग को खत्म करने और इसके प्रभाव को कम करने के लिए संयुक्त राष्ट्र ने 1992 के अपने अधिवेशन में 22 मार्च को विश्व जल दिवस के रुप में मनाने का निश्चय किया। विश्व जल दिवस की अंतरराष्ट्रीय पहल रियो डि जेनेरियो में 1992 में आयोजित पर्यावरण तथा विकास का संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में की गई। जिस पर सर्वप्रथम 1993 को पहली बार 22 मार्च के दिन पूरे विश्व में जल दिवस के मौके पर जल के संरक्षण और रखरखाव पर जागरुकता फैलाने का कार्य किया गया। पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र ने चेतावनी दी है कि विश्व के अनेक हिस्सों में पानी की भारी समस्या है और इसकी बर्बादी नहीं रोकी गई तो स्थिति और विकराल हो जाएगी क्योंकि भोजन की मांग और जलवायु परिवर्तन की समस्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है।
प्रकृति जीवनदायी संपदा जल हमें एक चक्र के रूप में प्रदान करती है, हम भी इस चक्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। चक्र को गतिमान रखना हमारी जि़म्मेदारी है, चक्र के थमने का अर्थ है, हमारे जीवन का थम जाना। प्रकृति के ख़ज़ाने से हम जितना पानी लेते हैं, उसे वापस भी हमें ही लौटाना है। हम स्वयं पानी का निर्माण नहीं कर सकते अतः प्राकृतिक संसाधनों को दूषित न होने दें और पानी को व्यर्थ न गँवाएँ यह प्रण लेना आज के दिन बहुत आवश्यक है।
धरातल पर तीन चैथाई पानी होने के बाद भी पीने योग्य पानी एक सीमित मात्रा में ही है। उस सीमित मात्रा के पानी का इंसान ने अंधाधुध दोहन किया है। नदी, तालाबों और झरनों को पहले ही हम कैमिकल की भेंट चढ़ा चुके हैं, जो बचा खुचा है उसे अब हम अपनी अमानत समझ कर अंधाधुंध खर्च कर रहे हैं।
संसार इस समय जहां अधिक टिकाऊ भविष्य के निर्माण में व्यस्त हैं वहीं पानी, खाद्य तथा ऊर्जा की पारस्परिक निर्भरता की चुनौतियों का सामना हमें करना पड़ रहा है। जल के बिना न तो हमारी प्रतिष्ठा बनती है और न गरीबी से हम छुटकारा पा सकते हैं। फिर भी शुद्ध पानी तक पहुंच और सैनिटेशन यानी साफ-सफाई, संबंधी सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य तक पहुंचने में बहुतेरे देश अभी पीछे हैं।एक पीढ़ी से कुछ अधिक समय में दुनिया की आबादी के 60 प्रतिशत लोग कस्बों और शहरों में रहने लगेंगे और इसमें सबसे अधिक बढ़ोतरी विकासशील देशों में शहरों के अंदर उभरी मलिन बस्तियों तथा झोपड़-पट्टियों के रूप में होगी।
भारत में शहरीकरण के कारण अधिक सक्षम जल प्रबंधन तथा समुन्नत पेय जल और सैनिटेशन की जरूरत पड़ेगी। क्योंकि शहरों में अक्सर समस्याएं विकराल रूप धारण कर लेती हैं, और इस समय तो समस्याओं का हल निकालने में हमारी क्षमताएं बहुत कमजोर पड़ रही हैं।
जिन लोगों के घरों या नजदीक के किसी स्थान में पानी का नल उपलब्ध नहीं है ऐसे शहरी बाशिंदों की संख्या विश्व परिद्रश्य में पिछले दस वर्षों के दौरान लगभग ग्यारह करोड़ चालीस लाख तक पहुंच गई है, और साफ-सफाई की सुविधाओं से वंचित लोगों की तादाद तेरह करोड़ 40 लाख बतायी जाती है। बीस प्रतिशत की इस बढ़ोतरी का हानिकारक असर लोगों के स्वास्थ्य और आर्थिक उत्पादकता पर पड़ा हैः लोग बीमार होने के कारण काम नहीं कर सकते।
भारत में विश्व की लगभग 16 प्रतिशत आबादी निवास करती है। लेकिन, उसके लिए मात्र 4 प्रतिशत पानी ही उपलब्य है। विकास के शुरुआती चरण में पानी का अधिकतर इस्तेमाल सिंचाई के लिए होता था। लेकिन, समय के साथ स्थिति बदलती गयी और पानी के नये क्षेत्र-औद्योगिक व घरेलू-महत्वपूर्ण होते गये। भारत में जल संबंधी मौजूदा समस्याओं से निपटने में वर्षाजल को भी एक सशक्त साधन समझा जाए। पानी के गंभीर संकट को देखते हुए पानी की उत्पादकता बढ़ाने की जरूरत है। चूंकि एक टन अनाज उत्पादन में 1000 टन पानी की जरूरत होती है और पानी का 70 फीसदी हिस्सा सिंचाई में खर्च होता है, इसलिए पानी की उत्पादकता बढ़ाने के लिए जरूरी है कि सिंचाई का कौशल बढ़ाया जाए। यानी कम पानी से अधिकाधिक सिंचाई की जाए। अभी होता यह है कि बांधों से नहरों के माध्यम से पानी छोड़ा जाता है, जो किसानों के खेतों तक पहुंचता है। जल परियोजनाओं के आंकड़े बताते हैं कि छोड़ा गया पानी शत-प्रतिशत खेतों तक नहीं पहुंचता। कुछ पानी रास्ते में भाप बनकर उड़ जाता है, कुछ जमीन में रिस जाता है और कुछ बर्बाद हो जाता है।
पानी का महत्व भारत के लिए कितना है यह हम इसी बात से जान सकते हैं कि हमारी भाषा में पानी के कितने अधिक मुहावरे हैं।अगर हम इसी तरह कथित विकास के कारण अपने जल संसाधनों को नष्ट करते रहें तो  वह दिन दूर नहीं, जब सारा पानी हमारी आँखों के सामने से बह जाएगा और हम कुछ नहीं कर पाएँगे।
जल नीति के विश्लेषक सैंड्रा पोस्टल और एमी वाइकर्स ने पाया कि बर्बादी का एक बड़ा कारण यह है कि पानी बहुत सस्ता और आसानी से सुलभ है। कई देशों में सरकारी सब्सिडी के कारण पानी की कीमत बेहद कम है। इससे लोगों को लगता है कि पानी बहुतायत में उपलब्ध है, जबकि हकीकत उलटी है।
इस निराशाजनक परिदृश्य में कुछ उदाहरण उम्मीद जगाने वाले हैं। पहला उदाहरण चेन्नई का है, जहां अनिवार्य जल संचय के लिए एक सुस्थापित प्रणाली काम कर रही है। दूसरा उदाहरण कर्नाटक के हुबली-धारवाड़ में विश्व बैंक द्वारा समर्थित सफल योजना का है। यहां बेहतर ढांचागत संरचना, प्रभावी आपूर्ति तंत्र और वसूली के जरिए वाजिब कीमत पर 24 घंटे पानी की आपूर्ति की जा रही है।
समय आ गया है जब हम वर्षा का पानी अधिक से अधिक बचाने की कोशिश करें। बारिश की एक-एक बूँद कीमती है। इन्हें सहेजना बहुत ही आवश्यक है। यदि अभी पानी नहीं सहेजा गया, तो संभव है पानी केवल हमारी आँखों में ही बच पाएगा। पहले कहा गया था कि हमारा देश वह देश है जिसकी गोदी में हज़ारों नदियाँ खेलती थी, आज वे नदियाँ हज़ारों में से केवल सैकड़ों में ही बची हैं। कहाँ गई वे नदियाँ, कोई नहीं बता सकता। नदियों की बात छोड़ दो, हमारे गाँव-मोहल्लों से तालाब आज गायब हो गए हैं, इनके रख-रखाव और संरक्षण के विषय में बहुत कम कार्य किया गया है।
ऐसा नहीं है कि पानी की समस्या से हम जीत नहीं सकते। अगर सही ढ़ंग से पानी का सरंक्षण किया जाए और जितना हो सके पानी को बर्बाद करने से रोका जाए तो इस समस्या का समाधान बेहद आसान हो जाएगा। लेकिन इसके लिए जरुरत है जागरुकता की। एक ऐसी जागरुकता की जिसमें छोटे से छोटे बच्चे से लेकर बड़े बूढ़े भी पानी को बचाना अपना धर्म समझें।

Wednesday 19 March 2014

पृथ्वी की गहराई में समुद्र

पृथ्वी के गर्भ में पानी के स्रोत की खोज पर विशेष 
 प्रसिद्ध फ्रांसीसी विज्ञान कथाकार जूल्स वर्न ने डेढ़ सौ साल पहले अपने एक उपन्यास में पृथ्वी की सतह के नीचे एक विशाल समुद्र की मौजूदगी की कल्पना की थी। अब वैज्ञानिकों का कहना है कि सतह के नीचे सचमुच पानी बड़ी मात्र में मौजूद है। कनाडा की अल्बर्टा यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर ग्राहम पियरसन के नेतृत्व में वैज्ञानिकों की एक अंतरराष्ट्रीय टीम ने इस बात के प्रमाण भी जुटा लिए हैं। टीम ने पृथ्वी की गहराई से मिले रिंगवुड़ाइट नामक खनिज के नमूने का विश्लेषण करके पता लगाया है कि यह खनिज पानी से भरपूर है। समझा जाता है कि पृथ्वी की सतह से 410 से 660 किलोमीटर नीचे उच्च दबाव की स्थितियों में यह खनिज पाया जाता है। ऑस्ट्रेलिया के भूवैज्ञानिक टेड रिंगवुड ने पृथ्वी के भीतरी भाग में इस खनिज की उपस्थिति की कल्पना की थी। इसी वजह से यह खनिज रिंगवुडाइट के रूप में जाना जाता है। उन्होंने कहा था कि अत्यधिक दबाव और तापमान में एक खास तरह के खनिज का निर्माण तय है। वैज्ञानिकों ने उल्कापिंडों में इस खनिज के नमूने खोजे थे, लेकिन अभी तक पृथ्वी से इसका कोई नमूना नहीं मिला था क्योंकि इतनी गहराई पर जा कर नमूने एकत्र करना मुश्किल है।
रिंगवुड़ाइट की खोज भी महज संयोग से हुई है। दरअसल यह खनिज एक बदसूरत से भूरे हीरे में मौजूद था, जिसे 2008 में कुछ खनिकों ने ब्राजील के माटो ग्रोसो क्षेत्र में एक नदी तेल से खोजा था। यह हीरा ज्वालामुखी की चट्टान के साथ पृथ्वी की सतह के ऊपर आया था। रिसर्चरों ने शोध के लिए यह हीरा खरीद लिया। पियरसन ने बताया कि रिसर्चर तीन मिलीमीटर चौड़े इस हीरे में कोई दूसरा खनिज खोज रहे थे। यह वैज्ञानिकों की खुशकिस्मती थी कि उन्हें अचानक इस नमूने में रिंगवुड़ाइट मिल गया। यह खनिज इतना छोटा होता है कि इसे कोरी आंखों से नहीं देखा जा सकता। हीरे के भीतर रिंगवुड़ाइट को खोजने का श्रेय पियरशन के स्नातक छात्र जॉन मैक्नील को है। उसने 2009 में इस नमूने में रिंगवुड़ाइट की खोज की थी, लेकिन इस खनिज की वैज्ञानिक रूप से पुष्टि करने में कई वर्ष लग गए। इंफ्रारेड स्पेक्ट्रोग्राफी और एक्स रे के जरिए उसका विस्तृत विश्लेषण किया गया। अल्बर्टा यूनिवर्सिटी में पियरसन की भू-रसायन प्रयोगशाला में इस खनिज की पानी की मात्र नापी गई। यह प्रयोगशाला केनेडा के विश्व प्रसिद्ध सेंटर फॉर आइसोटोपिक माइक्रोएनिलिसिस का एक हिस्सा है।
आभूषणों में प्रयुक्त होने वाले ज्यादातर हीरे पृथ्वी की सतह से करीब 150 किलोमीटर की गहराई पर मिलते हैं। करीब 500 किलोमीटर नीचे पृथ्वी की भीतरी परत के आसपास पाए जाने वाले हीरे सुपर डीप डायमंड कहलाते हैं। भीतरी परत को मैंटल भी कहा जाता है। मैंटल के दो हिस्से होते हैं। इन दो हिस्सों के बीच वाली जगह को ट्रांजिशन जोन कहते हैं। इसी जोन में अत्यधिक दबाव की कारण सुपर डीप डायमंड बनते हैं। ये हीरे देखने में बहुत ही बदसूरत होते हैं और इनमें नाइट्रोजन की मात्र बहुत कम होती है। इन हीरों और उनमे मौजूद जलयुक्त खनिजों के अध्ययन के बगैर वैज्ञानिक पृथ्वी के भीतरी हिस्से की वास्तविक संरचना की पुष्टि नहीं कर सकते। वैज्ञानिक समुदाय कई दशकों से यह अटकल लगा रहा था कि पृथ्वी के भीतरी हिस्से में रिंगवुड़ाइट बड़ी मात्र में मौजूद है लेकिन इस बात को निर्विवाद रूप से साबित करने के लिए अभी तक किसी को भी यह खनिज खोजने में सफलता नहीं मिली थी।
खनिज पर किए गए परीक्षणों से पता चलता है कि इसके कुल वजन में करीब 1.5 प्रतिशत पानी है। पियरसन के मुताबिक यह मात्र सुनने में ज्यादा नहीं लगती लेकिन यदि हम पृथ्वी के भीतरी हिस्से में मौजूद रिंगवुड़ाइट की विशाल मात्र की गणना करें तो उनमें पानी की मात्र पृथ्वी के सारे समुद्रों में मौजूद पानी से ज्यादा बैठेगी। अभी यह कहना मुश्किल है कि यह पानी किस रूप में मौजूद है। यह पानी खनिजों में कैद हो सकता है। यह भी मुमकिन है कि भीतरी हिस्से में स्थानीय जलाशयों के रूप में यह पानी मौजूद हो।(मुकुल व्यास )



Thursday 13 March 2014

तीस हजार साल पुराने वायरस की खोज पर विशेष

 एक प्राचीन वायरस 
रूस और फ्रांस के वैज्ञानिकों ने साइबेरिया की बर्फीली जमीन से एक विशाल वायरस खोजा है। यह वायरस संक्रामक है और करीब 30,000 वर्ष पुराना है। इतना पुराना वायरस मिलना एक असामान्य सी बात है। वैज्ञानिकों ने चेताया है कि ग्लोबल वार्मिग के प्रभावों से बर्फीली जमीन से दूसरे वायरस और जीवाणु भी बाहर आ सकते हैं जो बीमारियां फैला सकते हैं। प्रयोगशाला में किए गए परीक्षणों से पता चलता है कि साइबेरिया से मिला वायरस एक कोशिका वाले जीव, अमीबा को संक्रमित कर सकता है, लेकिन यह बहुकोशिका जीवों और मनुष्यों को संक्रमित नहीं कर सकता। पिथोवायरस नामक यह जीवाणु वायरस की अब तक ज्ञात किस्मों से एकदम भिन्न है। यह इतना बड़ा है कि इसे ऑप्टिकल माइक्रोस्कोप से भी देखा जा सकता है। रूसी विज्ञान अकादमी और फ्रांसीसी वैज्ञानिक अनुसंधान केंद्र के शोधकर्ताओं ने बताया कि यह वायरस सतह से 30 मीटर नीचे दबा हुआ था। उनका अनुमान है कि यह वायरस कम से कम 30,000 वर्षो से बर्फ में कैद था, लेकिन प्रयोगशाला में जीवित अमीबा के संपर्क में आने के बाद यह वायरस पुनर्जीवित हो गया।
फ्रांसीसी वैज्ञानिकों के मुताबिक इस अध्ययन से यह सिद्ध होता है कि वायरस बर्फीली जमीन के नीचे हजारों वर्ष तक सही सलामत रह सकते हैं। यह खोज सार्वजनिक स्वास्थ्य की दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण है। जलवायु परिवर्तनों के बाद विश्व में तापमान वृद्धि निश्चित है। तापमान वृद्धि से ध्रुवीय क्षेत्रों में बर्फ के पिघलने से इन क्षेत्रों में खनिजों और तेल-गैस के दोहन के नए अवसर भी उत्पन्न होंगे, लेकिन बर्फ पिघलने या डिलिंग की वजह से सुप्त जीवाणु फिर से प्रकट हो कर जनता के स्वास्थ्य के लिए खतरा बन सकते हैं। इनमें चेचक जैसे वायरस भी हो सकते हैं जिनका दुनिया से उन्मूलन हो चुका है। चेचक वायरस के विस्तार की प्रक्रिया पिथोवायरस जैसी है। फ्रांसीसी वैज्ञानिक डॉ. शंटल एबरगेल का कहना है कि आर्कटिक की बर्फीली सतहों के नीचे कई तरह के वायरस हो सकते है जो खनन कार्यो या जलवायु परिवर्तनों से फिर सक्रिय हो सकते हैं। यह संभव है कि ये वायरस अमीबा के अलावा दूसरे जीवों को संक्रमित करने में सक्षम हों। यहां दबे हुए जीवाणुओं का पता लगाने के लिए वैज्ञानिकों को बर्फीली सतहों के नमूनों में मौजूद डीएनए का विस्तृत अध्ययन करना चाहिए। अभी कोई नही जानता कि बर्फीली जमीन के नीचे क्या छुपा हुआ है? अत: ध्रुवीय क्षेत्रों में प्राकृतिक संसाधनों का दोहन बहुत ही सावधानी के साथ करना पड़ेगा। इस बीच, एक अन्य अध्ययन में वैज्ञानिकों ने ग्लोबल वार्मिग के प्रभावों से उष्ण प्रदेशों के पहाड़ी क्षेत्रों में मलेरिया के मामलों में बढ़ोतरी की चेतावनी दी है। उन्होंने दक्षिण अमेरिका और अफ्रीका के पहाड़ी क्षेत्रों में पिछले दो दशकों के दौरान हुए मलेरिया के मामलों का विस्तृत विश्लेषण किया है। उनका निष्कर्ष है कि जब-जब तापमान बढ़ता है, पहाड़ी इलाकों में मलेरिया के मामले भी बढ़ते हैं। वैज्ञानिकों के बीच कई वर्षो से यह बहस चल रही थी कि क्या तापमान वृद्धि से उन ऊंचे इलाकों में भी मलेरिया पहुंच सकता है जो अभी तक इस बीमारी से बचे हुए थे। लंदन स्कूल ऑफ हाइजिन एंड ट्रॉपिकल मेडिसिन के रिसर्चर मेनो बूमा का कहना है कि हमने अपनी शोध से यह सिद्ध किया है कि मलेरिया का ऊपरी इलाकों में जाना सचमुच तापमान पर निर्भर है। इस बात को साबित करना बहुत मुश्किल था।
हर साल करीब 30 करोड़ लोग मलेरिया की चपेट में आते है। यह बीमारी एक कोशिका वाले जीवाणु प्लास्मोडियम की वजह से उत्पन्न होती है। मच्छर के काटने से प्लास्मोडियम मनुष्य के शरीर में पहुंचता है। तापमान वृद्धि से ये जीव उन क्षेत्रों में भी पनप सकते है जो पारंपरिक रूप से अभी तक मलेरिया से मुक्त रहे हैं। डॉ. बूमा के अनुसार उष्ण प्रदेशों में लाखों लोग ऊंचे स्थलों पर रहते है। ऐतिहासिक तौर पर ये इलाके बीमारियों से दूर रहे हैं।मुकुल व्यास


Wednesday 12 March 2014

पीएचडी के मामले में भारत की स्तिथि

उच्च शिक्षा का आलम यह है कि छात्रों के पीएचडी करने के मामले में भारत चीन और अमेरिका से काफी पीछे है। शोध पत्रों और पेटेंट के मामले में भी भारत इन देशों से बहुत पीछे है।
भारत की तुलना में अमेरिका में 5 गुना अधिक छात्र पीएचडी करते है, जबकि चीन में सात गुना अधिक छात्र पीएचडी करते है। भारत में करीब 400 विश्वविद्यालय एवं डीम्ड विश्वविद्यालय हैं, लेकिन यहां हर साल पांच हजार छात्र ही पीएचडी करते हैं, जबकि अमेरिका में प्रतिवर्ष 25 हजार तथा चीन में प्रतिवर्ष 35 हजार छात्र पीएचडी करते हैं। संसद की प्राक्कलन समिति ने पिछले दिनों लोकसभा में प्रस्तुत अपनी 17वीं रिपोर्ट में देश में उच्च शिक्षा की हालत पर गहरी चिंता व्यक्त की है।
सांसद सी गुप्पुसामी की अध्यक्षता की समिति ने विश्वविद्यालयों में वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए सरकार ने एम एम शर्मा समिति की सिफारिशों को लागू करने के लिए 250 करोड़ रुपए की राशि को अपर्याप्त बताया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि समिति विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा वित्त पोषित विश्वविद्यालयों में अनुसंधान की गुणवत्ता और मात्रा के अपर्याप्त स्तर को देखकर चिंतित है। केवल पीएचडी के मामले में ही नहीं बल्कि शोध पत्रों तथा पेटेंट के मामले में भी हम अन्य देशों की तुलना में काफी पीछे है। वर्ष 2005 में भारत के पास 648 पेटेंट थे, जबकि चीन के पास 2452 तथा अमेरिका के पास 4511 और जापान के पास 25145 पेटेंट थे। अनुसंधान पत्रों के प्रकाशन में विश्व में भारत का हिस्सा मात्र 2.5 प्रतिशत है जबकि अमेरिका विश्व अनुसंधान पत्रों को 32 प्रतिशत प्रकाशित करता है।
समिति ने यह भी कहा है कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के विश्वविद्यालयों में अनुसंधान कार्य को बढ़ावा देने के लिए टीचरों की गुणवत्ता बढ़ाने, अनुसंधान परियोजनाओं, अनुसंधान पुरस्कार, कनिष्ठ फेलोशिप देने आदि के कार्यक्रम शुरू होने के बाद भी अपेक्षित परिणाम सामने नहीं आए। समिति ने इस बात पर भी चिंता व्यक्त की है कि सरकार ने वैज्ञानिक अनुसंधान में सुधार के लिए एम एम शर्मा की सिफारिशों के क्रियान्वयन वास्ते मात्र 250 करोड़ रुपए निर्धारित किए हैं जो कि अपर्याप्त हैं। समिति ने कहा है कि अगले साल से यह राशि हर साल में 600 करोड़ रुपए होनी चाहिए। समिति ने यह भी कहा है कि सिफारिशों को लागू करने में प्रशासनिक विलंब के कारण लागत में आने वाली वृद्धि का भी ध्यान रखे और आवंटन राशि में उनके अनुसार वृद्धि करे।
समिति ने इस बात पर भी चिंता व्यक्त की है कि वर्तमान में यूजीसी सचिवालय में कुल स्वीकृत 806 पदों में 223 पद ही रिक्त हैं यानी कुल पदों का 28 प्रतिशत रिक्त है। समिति ने कहा है कि निकट भविष्य में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भारी वृद्धि होने की संभावना है, यह देखते हुए यूजीसी अपने वर्तमान संगठनात्मक ढांचे के रहते भविष्य का कार्यभार संभालने में सक्षम नहीं है। समिति ने कहा है कि यूजीसी राज्य स्तर पर अपने कार्यो के समन्वय के लिए प्रत्येक राज्य में कार्यालय खोले और कंप्यूटरीकृत प्रणाली विकसित करे।
समिति ने सकल घरेलू उत्पाद का कम से कम 2 प्रतिशत उच्च शिक्षा पर खर्च करने की सिफारिश की है। फिलहाल सकल घरेलू उत्पाद का केवल 0.4 प्रतिशत ही उच्च शिक्षा पर खर्च किया जाता है जबकि विकसित देशों सकल घरेलू उत्पाद का 1.5 प्रतिशत उच्च शिक्षा पर खर्च किया जाता है।

Tuesday 11 March 2014

पर्यावरण -जीडीपी के साथ जीईपी भी नापा जाए

अनिल पी. जोशी
दुनिया में विकास का सबसे बड़ा मापदंड सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की दर को माना गया है। देशों की प्रगति का आकलन उनकी जीडीपी के आधार पर ही किया जाता है। लेकिन भारत जैसे देश में इस तथाकथित विकास सूचकांक का आम आदमी से ज्यादा लेना-देना नहीं है। यहां 85 प्रतिशत लोगों के लिए जीडीपी की घटती-बढ़ती दर सीधे कोई मायने नहीं रखती। सच तो यह है कि वर्तमान जीडीपी देश के ज्यादातर लोगों का सीधा नुकसान कर रहा है। इसको ही संपूर्ण विकास का पैमाना समझे जाने के कारण जीवन से जुड़ी मूलभूत चीजें जैसे हवा, पानी, मिट्टी के लेखे-जोखों को लगातार नकारा जा रहा है। परिणाम सामने है। आज सारी बड़ी सुविधाओं के बीच दुनिया में हवा, पानी का बहुत बड़ा संकट खड़ा हो गया है।

हवा को बनाया धंधा
विगत दो दशकों में दुनिया की बढ़ती जीडीपी की सबसे बड़ी मार पर्यावरणीय उत्पादों पर पड़ी है। इसी के परिणाम आज मौसम बदलाव, ग्लोबल वार्मिंग, सूखती नदियों, उजड़ती उपजाऊ मिट्टी के रूप में सामने आ रहे हैं। दूसरी तरफ बाजारी सभ्यता ने इस अवसर को भी नहीं छोड़ा। हममें से किसी ने कभी सोचा भी नहीं था कि बंद बोतलों में पानी बिकेगा। आज यह हजारों करोड़ का व्यापार बन गया है। और तो और आज हवा भी बिकनी शुरू हो गई है। चीन के शंघाई शहर में व्यापारियों ने शुद्ध हवा का ही कारोबार शुरू कर दिया है। जल्दी ही यह भी एक बड़े व्यापार का रूप ले लेगा क्योंकि विश्व भर में प्राणवायु के हालात ठीक नहीं हैं। इसी तरह खेतों में मिट्टी की जगह रासायनिक खादों ने ले ली और यह आज दुनिया में रसूखी धंधा है। रासायनिक खादों के उपयोग से चमत्कारिक उत्पादन अवश्य हुआ होगा, मगर इनके और साथ में रासायनिक कीटनाशकों के अत्यधिक प्रयोग ने हमारी थालियों में जहर भर दिया है।


हालात की गंभीरता को देखते हुए सभी देशों ने क्योटो, कोपेनहेगन व कैनकुन में हुई अंतरराष्ट्रीय चर्चाओं में इस स्थिति पर चिंता जताई और इसकी कुछ जिम्मेदार बढ़ते जीडीपी पर भी डाली। विकसित देश विकासशील देशों के बढ़ते जीडीपी को लेकर चिंतित हैं क्योंकि इसका सीधा नाता उद्योगों से जुड़े कार्बन उर्त्सजन से है। दूसरी तरफ विकासशील देश विकसित देशों के खिलाफ लामबंदी कर अपने हिस्से का विकास तय करना चाहते हैं। पर्यावरण की आड़ में आर्थिक समृद्धि की लड़ाई लड़ी जा रही है। इस खींचतान में जीवन की अहम आवश्यकताएं जैसे हवा, पानी, मिट्टी इन अंतरराष्ट्रीय गोष्ठियों में कभी भी चर्चा का विषय नहीं बन पाई हैं। अगर जीडीपी के सापेक्ष प्राकृतिक संसाधनों को भी शुरुआती दौर में ही महत्व दे दिया जाता तो संसाधनों के संकट का प्रश्न इस रूप में खड़ा नहीं होता।

मौजूदा पर्यावरण संकट प्राकृतिक संसाधनों के प्रति हमारे गैर जिम्मेदाराना व्यवहार का परिणाम है। एक नजर अपने ही देश की नदियों पर डालें तो इन्होंने पिछले 50 वर्षों में अपना पानी लगातार खोया है। इसका सबसे बड़ा कारण नदियों के जलागम क्षेत्रों का वन-विहीन होना रहा है। दूसरी तरफ देश में पानी की बढ़ती खपत चिंता का विषय बनती जा रही है। वन जो पानी, हवा, मिट्टी के दाता हैं, अच्छी हालत में नहीं हैं। वन क्षेत्र तो घटे ही हैं, इनकी गुणवत्ता और प्रजातियों के स्वरूप में भी बदलाव आया है। ऐसे में नीतिकारों का जीडीपी को ही विकास का मापदंड मानना देश को बड़े संकट में डालना है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि पानी व मिट्टी हमारे गांवों का धन है जिससे किसान और किसानी बची है। वन की कमी से मात्र गांव की व्यवस्था ही नहीं चरमराई है, इसके घातक प्रभाव विश्व की समूची पारिस्थितिकी पर पड़े हैं।

आज हर तरह से विकास की कीमत प्रकृति को ही चुकानी पड़ रही है। संसाधनों की भरपाई के सवाल पर उतनी गंभीरता से नहीं सोचा जाता, जितना कि इसके दोहन आधारित विकास पर। ऐसे में एकमात्र विकल्प यह है कि विकास के पैमाने को संतुलित किया जाए। दूसरे शब्दों में, विकास का मापदंड सिर्फ जीडीपी न हो, इसके साथ-साथ जीईपी (सकल पर्यावरण उत्पाद) को भी विकास का एक पैमाना बनाया जाए। अगर आर्थिक विकास हुआ तो साथ में यह भी बताया जाना चाहिए कि पारिस्थितिकी को सुधारने के लिए कौन से काम किए गए। साथ ही, कथित विकास की गुणवत्ता का ब्यौरा भी सार्वजनिक किया जाना चाहिए।

बना रहे संतुलन
बढ़ते जीडीपी के साथ बढ़ता जीईपी हमें संतुलित विकास की राह पर मजबूती प्रदान करेगा। अब इस तरह की चर्चा राष्ट्रीय और संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलनों में होनी निहायत जरूरी है। सामूहिक विकास के सूचकांक किसी भी देश के वन एवं जल संरक्षण के कार्य और मिट्टी, हवा की बेहतरी की योजनाओं से तैयार होने चाहिए, क्योंकि ऐसा करके ही जीवन की आवश्यकता और विलासिता में सामंजस्य रखा जा सकता है। आर्थिकी के अलावा पारिस्थितिकी संतुलन को बनाए रखने के मापदंड तय किए जाने जरूरी हैं। सकल घरेलू उत्पाद के साथ-साथ सकल पर्यावरण उत्पाद का भी देश के विकास में समानांतर उल्लेख होना आज हम सब की आवश्यकता है।

(लेखक प्रसिद्ध पर्यावरण कार्यकर्ता हैं)