Friday 28 February 2014

राष्ट्रीय विज्ञान दिवस पर विशेष-शोध में पिछडता देश

शशांक द्विवेदी 
 वैज्ञानिक शोध और आविष्कार का माहौल बनाना होगा
राजस्थान पत्रिका 
इस दुनियाँ और सम्पूर्ण मानव सभ्यता को आधुनिक बनाने में विज्ञान का बहुत ज्यादा योगदान है । सच कहें तो मानव सभ्यता का विकास विज्ञान के बिना संभव ही नहीं था । आज हम जो  सुविधाजनक जीवन जी रहें है वह सब कुछ इसी की देन है । कुछ अपवादों को छोड़ दे तो मानवता के कल्याण के विज्ञान का अमूल्य योगदान है । उन्नत वैज्ञानिक सोच हमें प्रगतिशील और प्रबुद्ध समाज के रूप में उभरने के लिए प्रेरित करती है । विज्ञान के बिना कुछ भी संभव नहीं है। जीवन के हर पहलू में अब इसका समावेश हो चुका है। विज्ञान से होने वाले लाभों के प्रति समाज में जागरूकता लाने और वैज्ञानिक सोच पैदा करने के उद्देश्य से हर साल 28 फरवरी को भारत में राष्ट्रीय विज्ञान दिवस मनाया जाता है।  प्रकाश प्रकीर्णन के अध्ययन के परिणाम से  28 फरवरी, 1928 को एक उत्कृष्ट खोज हुई जो दुनिया भर में रमन प्रभाव के नाम से विख्यात हुई। जिसकी मदद से कणों की आणविक और परमाणविक संरचना का पता लगाया जा सकता है । इस खोज के लिए डॉ . चन्द्रशेखर वेंकटरमन को वर्ष 1930 में भौतिकी के लिए नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ। उनकी इसी ऐतिहासिक खोज के कारण ही भारत में प्रतिवर्ष 28 फरवरी को राष्ट्रीय विज्ञान दिवस के रूप में मनाया जाता है।
रमन प्रभाव भौतिक और रासायनिक दोनों ही क्षेत्रों में यह अत्यंत महत्वपूर्ण है । रमन प्रभाव की खोज ने आइन्सटाइन के उस सिद्धांत को भी प्रमाणित कर दिया जिसमें उन्होंने कहा था कि प्रकाश में तरंग के साथ ही अणुओं के गुण भी कुछ हद तक पाए जाते हैं.इससे पहले न्यूटन ने बताया था कि प्रकाश सिर्फ एक तरंग है और उसमें अणुओं के गुण नहीं पाए जाते । आइन्सटाइन ने इससे विपरीत सिद्धांत दिया और रमन प्रभाव से वह साबित हुआ ।
लेकिन आज हम भारत को विज्ञान और अनुसंधान के क्षेत्र में कहाँ पाते है कम से कम वहाँ तो नहीं जहाँ इसे होना चाहिए । दुनिया के कई छोटे देश तक वैज्ञानिक शोध के मामले में हमसे आगे निकल चुके हैं। आज देश में प्रति 10 लाख भारतीयों पर मात्र 112 व्यक्ति ही वैज्ञानिक शोध में लगे हुए हैं। रमन इफेक्ट की खोज के बाद भी हम उस पर और आगे शोध नहीं कर पाये और रमन स्कैनर का विकास दूसरे देशों ने किया । यह हमारी नाकामी नहीं तो और क्या है। जबकि रमन प्रभाव रसायनों की आणविक संरचना के अध्ययन में एक प्रभावी साधन है। इसका वैज्ञानिक अनुसंधान की अन्य शाखाओं, जैसे औषधि विज्ञान, जीव विज्ञान, भौतिक विज्ञान, खगोल विज्ञान तथा दूरसंचार के क्षेत्र में भी बहुत महत्त्व है। पिछले कई सालों से देश  में एक भी ऐसा विज्ञानिक नहीं हुआ जिसे पूरी दुनियाँ उसकी अनोखी देन के कारण पहचाने । किसी भारतीय नागरिक को नोबेल भी 84 साल पहले मिला था (सीवी रमन, 1930 भौतिकी)। तब से हम भारतीय मूल के विदेशी नागरिकों द्वारा अर्जित नोबेल पर ही खुशी मनाते आए हैं। आज हम भारत को विज्ञान और अनुसंधान के क्षेत्र में कहाँ पाते है कम से कम वहाँ तो नहीं जहाँ इसे होना चाहिए । दुनिया के कई छोटे देश तक वैज्ञानिक शोध के मामले में हमसे आगे निकल चुके हैं। 
एक रिपोर्ट के अनुसार वैश्विक स्तर पर शोधपत्रों के प्रकाशन के मामले में भी भारत , चीन और अमेरिका से काफी पीछे है। अमेरिका में हर वर्ष भारत से दस गुना ज्यादा और चीन में सात गुना ज्यादा शोध पत्र प्रकाशित होते हैं और ब्राजील में भी हमसे तीन गुना अधिक शोध पत्र प्रकाशित होते हैं। शोध पत्रों के प्रकाशन में वैश्विक स्तर पर हमारी हिस्सेदारी महज 2.11 प्रतिशत है ।
हिंदुस्तान 
आजादी के बाद भी आज तक ऐसा कोई बुनियादी ढांचा विकसित नहीं हो पाया जिससे देश में बड़े पैमाने पर अनुसंधान को प्रोत्साहित किया जा सके । पिछले दिनों ही जम्मू में 101 वे विज्ञान कांग्रेस समारोह सरकारी रस्म अदायगी का एक और सम्मेलन बन कर रह गया । विज्ञान ,शोध और नवप्रवर्तन के लिए कहीं भी कोई संजीदगी नहीं दिखी । मै खुद इस सम्मेलन में आमंत्रित वक्ता के रूप में शामिल था और ये देखकर बहुत निराशा हुई कि  केंद्र और राज्य सरकार के नुमाइंदों द्वारा कोई नई बात नहीं कही गयी । विज्ञान कांग्रेस में प्रधानमंत्री “विज्ञान “ पर कम और “कांग्रेस “ के एजेंडे पर ज्यादा बोले मसलन सरकार ने इतने आईआईटी ,आईआईएम खोले ,विज्ञान का बजट बढ़ाने के साथ कुछ और योजनाओं की भी घोषणा हुई लेकिन उनका क्रियान्वयन कब और कैसे होगा उसकी कोई रुपरेखा उन्होंने नहीं बताई । प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने पिछले सालों की तरह एक बार फिर विज्ञान के लिए बजट में जीडीपी का दो प्रतिशत खर्च करने की वकालत की । जबकि इसके पहले भी वो विज्ञान कांग्रेस के समारोह में यही बात कह चुके है लेकिन इसका क्रियान्वयन आज तक नहीं हुआ । यहाँ तक कि पिछले दिनों संसद में पेश अंतरिम बजट में भी शोध और अनुसंधान के लिए वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने सिर्फ 200 करोड़ आवंटित किये है । पिछले 10 साल से विज्ञान कांग्रेस समारोह का उद्घाटन डॉ मनमोहन सिंह ही कर रहें है और देश को ,विज्ञान को उनसे बहुत उम्मीदे थी लेकिन फिर भी इन दस सालों में सिवाय वायदों और घोषणाओं के इस देश को कुछ नहीं मिला । डॉ मनमोहन सिंह जो खुद एक अर्थशास्त्री और शिक्षाशास्त्री है अगर विज्ञान के लिए कुछ नहीं कर पायें तो इसकी उम्मीद किससे की जाए । सैम प्रित्रोदा के नेतृत्व में नेशनल इनोवेशन कौंसिल ने भी पिछले सालों में कुछ बुनियादी सुधार नहीं किया । कहने का मतलब साफ है विज्ञान पर अधिकांश सरकारी समारोह सिर्फ रस्म आदायगी के तौर पर होता है । 
हमारे देश में विज्ञान और अनुसंधान पर चर्चा तभी होती है जब कोई नेता ,मंत्री या प्रधानमंत्री उसकी बदहाली पर बोलते है। विज्ञान कांग्रेस में प्रधानमंत्री ने कहा था हमारे समाज में साइंस को जो मुकाम मिलना चाहिए था, वह नहीं मिल पाया है। लेकिन इसके लिए जिम्मेदार कौन है ?देश में वैज्ञानिक अनुसंधान और शोधो की दशा अत्यंत दयनीय है । विज्ञान की बदहाली पर रोना कोई नयी बात नहीं है यह क्रम कई सालों से लगातार चला आ रहा है लेकिन वास्तविक धरातल पर आज तक ठोस और सार्थक क्रियान्वयन नहीं हो पाया है  । हां यह जरूर हो रहा है कि सरकार अपनी नाकामी छिपाने के लिए अब इस क्षेत्र को भी पूरी तरह से निजी क्षेत्र और बाजार के हवाले करने जा रही है जहाँ मुनाफाखोरी ही एकमात्र सिद्धांत है । ऐसी स्थति में आप विज्ञान और शोध  में कितने गुणात्मक सुधार की उम्मीद कर सकते है । देश में ज्यादातर यूनिवर्सिटीज के अंदरूनी हालात ऐसे हो गए हैं कि वहां शोध के लिए स्पेस काफी कम रह गया है। शोध के साथ ही पढ़ाई के मामले में भी काफी कुछ किए जाने की जरूरत है, ताकि यूनिवर्सिटी सिर्फ डिग्री बांटने वाली दुकानें न बनकर रह जाएं।
लोकमत 
देश के अधिकांश युवा अनुसंधान कार्यक्रमों से जुड़ने की बजाय या तो आईटी क्षेत्र में चले जाते हैं या फिर मैनेजमेंट को अपना भविष्य बना लेते हैं। इन क्षेत्रों में उन्हें भारी भरकम पैकेज मिल रहा है तथा सामाजिक प्रतिष्ठा भी। जबकि विज्ञान विषयों में पीएचडी करने के बाद बेरोजगारी का दंश झेलना पड़ता है । आर्थिक तंगी के साथ दृसाथ शोध और अनुसंधान में आगे अवसर न होने की वजह से युवा अवसाद में आने लगते है । आज जरुरत है विज्ञान के विषय में गंभीरता से एक राष्ट्रीय नीति बनाने की और उस पर संजीदगी से अमल करने की सिर्फ बातें करने और घोषणाओं से कुछ हासिल नहीं होने वाला । 
देश में वैज्ञानिक शोध और आविष्कार का माहौल बनाना होगा। संचार माध्यमों के साथ-साथ वैज्ञानिकों की भी जिम्मेदारी है कि वो विज्ञान को लोगों तक पहुंचाने में सहयोग करें। इंटरनेट और डिजीटल क्रांति के जरिए क्षेत्रीय भाषाओं में विज्ञान को और प्रभावी बनाया जा सकता है। देश में  विज्ञान संचार  के उन्नयन के लिये उसे व्यवहारिक और रोजगार परक भी बनाना होगा । इसके लिये हमें हर स्तर पर सकारात्मक और सार्थक कदम उठाने होंगे । विज्ञान के क्षेत्र में अब समस्याओं को ध्यान में रखकर ठोस और बुनियादी समाधान करने का है । तभी भारत एक वैज्ञानिक शक्ति संपन्न राष्ट्र के रूप में उभरेगा।

Monday 24 February 2014

वायु प्रदूषण पर विशेष -सांस घोंटने वाली सरकारी रियायत

डॉ. विशेष गुप्ता
अभी हाल ही में वायु प्रदूषण से जुड़ी अमेरिका की येल यूनिवर्सिटी की रिपोर्ट ‘एनवायरमेंटल परफॉरमेंस इंडेक्स’ (ईपीआई)-2014 आई है। इस रिपोर्ट में 178 देशों के बीच भारत का स्थान पिछले साल के मुकाबले 32 अंक गिरकर 155 पर आ गया है । दरअसल, यह गिरावट वायु प्रदूषण के मामले में भारत की गंभीर स्थिति को बयान करती है। ध्यान रहे कि ईपीआई ने स्वास्थ्य पर प्रभाव, वायु प्रदूषण, पेयजल, स्वच्छता, जल संसाधन, कृषि, जंगल, जैव विविधता, जलवायु परिवर्तन तथा ऊर्जा जैसे बिंदुओं को आधार बनाकर भारत के तुलनात्मक संदर्भ में निष्कर्ष निकाले हैं। रिपोर्ट खुलासा करती है कि भारत वायु प्रदूषण के मुद्दे पर ‘ब्रिक्स’ यानी ब्राजील, रूस, चीन और दक्षिण अफ्रीका के साथ ही अपने पड़ोसी पाकिस्तान, नेपाल और श्रीलंका तक से पीछे रह गया है। परंतु यूपीए की केंद्र सरकार ने वर्ष 2014-15 का जो अंतरिम बजट पे किया है उसमें वायु प्रदूषण को लेकर भारत की बदतर स्थिति को अनदेखा किया गया है। उल्टे बजट में दी गई रियायतों से कार उद्योग के और अधिक फलने- फूलने के आसार बढ़ गए हैं। हालांकि वित्त मंत्री स्वीकारते हैं कि इस रियायत से देश को 300- 400 करोड़ रुपयों के राजस्व की हानि होगी, परंतु दूसरी ओर वे मंदी के दौर से गुजर रहे कार उद्योग को बढ़ावा देने के लिए इस रियायत को जरूरी बता रहे हैं। आंकड़े बताते हैं कि कारों के निर्माण के मामले में भारत दुनिया का छठा सबसे बड़ा देश है। यहां सालाना 39 लाख कारों का निर्माण होता है। यहां का आटो उद्योग आजकल चीन तक को मात दे रहा है। कहने की जरूरत नहीं कि अंतरिम बजट में वाहन उद्योग को दी गई रियायतों के बाद लाखों कारों के एक बार फिर से सड़क पर आने की संभावनाएं प्रबल हो गई हैं। इसके बाद ध्वनि प्रदूषण के स्तर में तो शर्तिया इजाफा होगा ही, साथ ही हवा में जहर की मात्रा भी जरूर बढ़ेगी। इस बाबत सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेन्ट (सीएसई) से जुड़ी एक और रिपोर्ट गौरतलब है जो साफ तौर पर कहती है कि अब वायु प्रदूषण बड़े शहरों के साथ-साथ छोटे नगरों को भी अपनी चपेट में ले रहा है। रिपोर्ट यह भी संकेत करती है कि हालांकि ग्वालियर, इलाहाबाद, गाजियाबाद व लुधियाना जैसे शहर महानगरों की श्रेणी में नहीं आते, फिर भी यहां वायु प्रदूषण का स्तर लगातार बढ़ता जा रहा है। सीएसई ने बीजिंग एनवायरमेंट प्रोटेक्शन ब्यूरो, दिल्ली प्रदूषण नियंतण्रसमिति तथा केंद्रीय प्रदूषण नियंतण्रबोर्ड के पिछले चार-पांच महीनों के आंकड़ों का अध्ययन करके बताया कि दिल्लीवासी इस समय बेहद खतरनाक वायु के बीच सांस ले रहे हैं। दिल्ली में बेंजीन तथा कार्बनमोनोक्साइड जैसे घातक रसायनों की मात्रा मानक के स्तर से दस गुना तक बढ़ गइ है। दरअसल, इसके लिए सड़कों पर लगातार वाहनों की बढ़ती तादाद सबसे अधिक जिम्मेदार है। कई यूरोपीय देशों में कारों की बिक्री तथा उनके नियंत्रित प्रयोग के नियम लागू हैं। परंतु भारत में निजी वाहनों का प्रयोग सीमित करने तथा सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को कारगर बनाने के सभी सरकारी व गैरसरकारी प्रयास बहुत कमजोर दिखाई देते हैं। चीन को भले ही हम अपना निकट प्रतिस्पर्धी मानते रहें, परंतु वहां वाहनों से होने वाले प्रदूषण को रोकने का अच्छा उदाहरण हमारे सामने है। चीन ने अपने यहां पिछले सालों में हर वर्ष बेची जाने वाली गाड़ियों की संख्या 2.40 लाख निर्धारित कर दी थी। इस साल उसने यह संख्या घटाकर 1.50 लाख कर दी है। वहां पब्लिक ट्रांसपोर्ट को बड़े पैमाने पर गुणवत्ता के साथ विस्तार दिया गया है। इसके साथ-साथ वहां वायु की गुणवत्ता को मापने तथा स्वास्थ्य से जुड़े चेतावनी तंत्र को भी बहुत मजबूत बनाया गया है। दूसरी तरफ अकेले दिल्ली की स्थिति यह है कि यहां डेढ़ हजार नए वाहन रोजाना सड़कों पर आ जाते हैं। साथ ही भारत में वाहन खरीदने के कर्ज पर ब्याज दरों में भारी कमी का लालच भी मौजूद है। बजट में कार उद्योग को रियायत मिलने के बाद तो देश में कारों का काफिला और लंबा होने के आसार हैं। यहां कारों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि से वायु प्रदूषण के साथ-साथ पार्किग की भी समस्या अधिक गंभीर हो सकती है। अध्ययन बताते हैं कि बीजिंग और दिल्ली में वायु प्रदूषण से निपटने के लिए एक साथ काम शुरू किया गया था, परंतु हैरत की बात है कि बीजिंग अपने वायु प्रदूषण को कम करने में कामयाब हो गया लेकिन दिल्ली के हालात सुधरने के बजाए और बिगड़ते जा रहे हैं। अब सरकार द्वारा ऑटो उद्योग को दी गई कर रियायतों के बाद स्थिति के और गंभीर होने का खतरा है। ऐसा नहीं है कि देश में वायु प्रदूषण को कम करने के प्रयास नहीं किए गए। डेढ़ दशक पहले दिल्ली के साथ-साथ अन्य महानगरों में सीसा-रहित डीजल और पेट्रोल के साथ सीएनजी की बिक्री भी शुरू की गई थी। परंतु यहाँ पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम को बेहतर बनाने तथा उसका विस्तार करने के बजाए डीजल व पेट्रोल चालित वाहनों को खुली छूट दे दी गई। रिपोर्ट से जुड़े तथ्य यह भी बताते हैं कि सबसे अधिक वायु प्रदूषण डीजल से चलने वाली गाड़ियां ही फैलाती हैं। रिपोर्ट यह भी खुलासा करती है कि ठंडे मौसम में लगातार धुंध की जो स्थिति बनती है, उसका कारण बड़ी मात्रा में गाड़ियों से लगातार निकलने वाला धुआं ही है। येल विविद्यालय की रिपोर्ट तो यहां तक कहती है कि गाड़ियों के इस धुएं से निकलने वाले कण मनुष्य के रक्त और फेफड़ों में जाकर कैंसर की बड़ी वजह बनते हैं। सच यह है कि आज भारत में सांस, खासकर दमा अथवा अस्थमा से मरने वालों की संख्या सबसे अधिक है। शायद यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में वायु प्रदूषण पर काबू करने के लिए डीजल चालित कारों पर अधिक कर लगाने के लिए केंद्र और दिल्ली सरकार से जवाब तलब किया है। कोर्ट को दी गई अर्जी में साफ कहा गया है कि डीजल कारों की बढ़ती संख्या के कारण प्रदूषण में वृद्वि की वजह से हर साल तकरीबन तीन हजार बच्चों की मौत हो जाती है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में पर्यावरण प्रदूषण प्राधिकरण की ताजा रिपोर्ट में तो डीजल कारों पर 30 फीसद अधिभार लगाने तथा निजी कारों के पंजीकरण शुल्क में भारी वृद्वि करने के निर्देश दिए गए हैं। परंतु सरकार अपने चुनावी स्वार्थो के सामने इन रपटों का सच नकारने पर तुली है। बढ़ते वाहनों वाहनों की भीड़ जहां एक ओर नगरों-महानगरों में जाम व पार्किग की समस्या को बढ़ा रही है, वही दूसरी ओर इन गाड़ियों के धुएं से निकलने वाले बेंजीन और कार्बन मोनोक्साइड जैसे घातक रसायन लोगों के रक्त प्रवाह और स्नायु तंत्र पर काफी बुरा प्रभाव डाल रहे हैं। इससे लोगों की कार्यक्षमता लगातार कम होती जा रही है। वाहनों की तेज चाल हर साल सड़क दुर्घटनाओं में एक लाख से अधिक लोगों की जिंदगी लील जाती है। पेट्रोलियम मंत्रालय भी मानता है कि देश में तकरीबन बारह हजार करोड़ की सब्सिडी निजी कारों की भेंट चढ़ जाती है। यह सच है कि ऑटो उद्योग देश की जीडीपी में छह फीसद का योगदान करता है, परंतु गौरतलब बात यह है कि लोगों में निजी वाहन की ललक ऑटो उद्योग की सेहत को भले ही ठीक रखें, परंतु इससे देश की सेहत शर्तिया तौर पर बिगड़ रही है। सरकार में अंतरिम बजट में जिस तरह ऑटो उद्योग को रियायतें दी हैं उससे निश्चित ही शहरी नियोजन और परिवहन नीति के बीच का तालमेल खराब होगा। हालांकि सचाई यह भी है कि लोगों में निजी वाहन की चाहत तभी बढ़ती है जब सार्वजनिक परिवहन से उनका भरोसा लगातार टूटता है। इससे किसी को ऐतराज नहीं कि ऑटो उद्योग को रियायत मिले, परंतु ऐसी रियायतें देश की वायु प्रदूषण जैसी ज्वलंत और जानलेवा समस्या की कीमत पर नहीं दी जानी चाहिए। हालिया जरूरत इस बात की है कि देश में सार्वजनिक परिवहन पर लोगों का भरोसा कायम हो। इसके लिए जरूरी यह भी है कि आटो इंडस्ट्री को सीधे रियायतों की बजाए सार्वजनिक परिवहन के साधनों की संख्या में पर्याप्त बढ़ोत्तरी हो। इसके साथ-साथ उसका संचालन इको फ्रेंडली हो तथा उसकी गुणवत्ता में भी विस्तार हो। तभी लोगों में निजी वाहन खरीदने की आक्रामक प्रवृत्ति को हतोत्साहित करके हवा में घुलने वाले जहर की बढ़ती गंभीरता को कम किया जा सकता है । यह सच है कि ऑटो उद्योग देश की जीडीपी में छह फीसद का योगदान करता है, परंतु गौरतलब बात यह है कि लोगों में निजी वाहन की ललक ऑटो उद्योग की सेहत को भले ही ठीक रखें, परंतु इससे देश की सेहत शर्तिया तौर पर बिगड़ रही है इस पर किसी को ऐतराज नहीं कि ऑटो उद्योग को रियायत मिले, परंतु ऐसी रियायतें देश की वायु प्रदूषण जैसी ज्वलंत और जानलेवा समस्या की कीमत पर नहीं दी जानी चाहिए

वॉट्सएप खरीदने के लिए क्यों मजबूर हुए जुकरबर्ग

शशांक द्विवेदी 
सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट फेसबुक टेक गैजेट की दुनिया का सबसे बड़ा सौदा करते हुए 19 अरब अमेरिकी डॉलर (करीब 1182 अरब रुपए) में मोबाइल मैसेजिंग सर्विस वॉट्सएप को खरीदने जा रही है। सोशल नेटवर्किंग टेक गैजेट की दुनियाँ में इतनी बड़ी डील गूगल,  माइक्रोसॉफ्ट और एपल ने भी आज तक नहीं की।
आखिर वॉट्सएप में ऐसी क्या खासियत है जो जुकरबर्ग इतनी बड़ी डील कर रहें है । इस बात को समझने के लिए वॉट्सएप को ठेक से समझना पड़ेगा । वॉट्सएप स्मार्टफोन मोबाइल मैसेजिंग सर्विस है। वॉट्सएप के जरिए टेक्स्ट मैसेज, इमेज, वीडियो और ऑडियो मीडिया मैसेज भेजे जाते हैं। गूगल एंड्राएड, ब्लैकबेरी ओएस, एपल आईओएस, नोकिया आशा फोन के चुनिंदा प्लेटफॉर्म और माइक्रोसॉफ्ट विंडोज जैसे ऑपरेटिंग सिस्टम पर काम करने वाले स्मार्टफोन पर वॉट्सएप डाउनलोड किया जा सकता है।  वॉट्सएप के प्लेटफॉर्म पर रोजाना एक अरब से ज्यादा मैसेज भेजे या रिसीव किए जाते हैं। वॉट्सएप की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगता है कि दुनिया में 24 करोड़ लोग ट्विटर पर एक्टिव हैं जबकि वॉट्सएप पर यह संख्या 45 करोड़ है। वाट्सएप के जरिए टेक्स्ट मैसेज, इमेज, वीडियो और ऑडियो भेजने की सहूलियत के चलते यह तेजी से पॉपुलर हुआ। वॉट्सएप पेड मोबाइस मैसेजिंग सर्विस है। मतलब इसके इस्तेमाल के एवज में आपको एक तय रकम चुकानी होती है। भारत में इस सर्विस के लिए आप रजिस्टर करते हैं तो पहले महीने यह मुफ्त उपलब्ध है और दूसरे महीने से 15 रुपए महीने के हिसाब से रकम अदा कर आप इस सर्विस का मजा ले सकते हैं। इस सर्विस ने टेलीकॉम कंपनियों के एसएमएस मार्केट को बुरी तरह से प्रभावित करना शुरू कर दिया है। 
वॉट्सएप फेसबुक से इस मायने में अलग हैं कि मैसेजिंग एप पर आप अपने करीबियों और दोस्तों से उनके मोबाइल नंबर के जरिए सीधे तौर पर बातचीत कर पाते हैं। असल जिंदगी में आप जिन लोगों के दोस्त हैं या जिन्हें जानते हैं उनसे प्राइवेट बातचीत का मौका देते हैं। बजाय इसके आप फेसबुक जैसे प्लेटफॉर्म पर उन लोगों से परोक्ष रूप से संवाद करते हैं, जिन्हें आप बमुश्किल जानते हैं। वॉट्सएप के सीईओ जन कूम के अनुसार वॉट्सएप में यह कूव्वत है कि वह लोगों को जोड़े रखता है। पांच साल पहले हमने वॉट्सएप को बहुत ही साधारण सोच के साथ शुरू किया था। वह सोच थी-एक ऐसा कूल प्रॉडक्ट बनाने की जिसका इस्तेमाल दुनिया भर में लोग हर रोज करें। इसके अलावा हमारे लिए कुछ भी अहम नहीं था। वॉट्सएप की विशेषता है कि वह ग्राहकों के पते, उनके लिंग या उनकी उम्र तक दर्ज नहीं करती है। 


वॉट्सएप को खरीदने के लिए फेसबुक मजबूर हो गया था क्योंकि  किशोर और युवा यूजर की गिरती संख्या फेसबुक के लिए लंबे समय से समस्या बनी हुई है। फेसबुक के सीएफओ डेविड एबर्समैन ने पिछले साल अक्टूबर में यह एलान किया था कि कंपनी के टीनेज मार्केट सेगमेंट में गिरावट आ रही है। इस एलान से कंपनी के शेयर में हलचल पैदा हो गई थी। फेसबुक की तुलना में वॉट्सएप पर युवाओं की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है। 
जूकरबर्ग को वॉट्सएप पर विश्वास के कई प्रमुख कारण है जिनसे उन्हें लगता है ये सौदा उनके और फेसबुक दोनों के लिए भविष्व में दूरगामी सिद्ध हो सकता है। जूकरबर्ग को इस बात का विश्वास है कि बहुत जल्द वॉट्सएप से 1 अरब लोग जुड़ जाएंगे। मौजूदा 45 करोड़ यूजर के दम पर ही वॉट्सएप का ग्रोथ रेट फेसबुक, इंस्टाग्राम, स्काइप और जीमेल से कहीं अधिक है।  वॉट्सएप के हर महीने के 45 करोड़ एक्टिव यूजर में हर दिन 70 फीसदी यूजर वापस आते हैं। इस तरह का ट्रेंड बहुत कम देखने को मिलता है। जूकरबर्ग को इस बात पर गर्व है कि फेसबुक पर हर रोज 62 फीसदी लोग वापस आते हैं। लेकिन यह आंकड़ा भी वॉट्सएप के आंकड़े के आगे फीका है।  जूकरबर्ग को लगता है कि वॉट्सएप टेंसेंट, गूगल सर्च, यूट्यूबू और फेसबुक की तरह बहुत ही शानदार प्रॉडक्ट साबित होगा।   वॉट्सएप के कई यूजर को इस बात की आशंका है कि कहीं फेसबुक में मर्जर के बाद वॉट्सएप की सब्सक्रिप्शन फी न बढ़ जाए। फिलहाल इस सौदे से भारत में वॉट्सएप के करीब 3 करोड़ यूजर को डरने की जरुरत नहीं है। सौदे की घोषणा के दौरान जूकरबर्ग और कूम-दोनों ने कहा है कि उनका ध्यान पैसे कमाने से ज्यादा भविष्य में ग्रोथ पर रहेगा। यह बयान अहम है। हालांकि, फेसबुक या वॉट्सएप की ओर से दाम बढ़ाए या घटाए जाने के बारे में कुछ नहीं गया है। 
वॉट्सएप की शुरुआत 2009 में अमेरिका के ब्रायन एक्टन और उक्रेन के जन कूम ने की थी। जन कूम कंपनी के सीईओ हैं। दोनों ही पहले याहू में नौकरी करते थे। इस कंपनी में मालिकों को मिलाकर कुल 55 लोग काम करते हैं। दिलचस्प तथ्य यह है कि वॉट्सएप के सीईओ जन कूम और उनके साथी ब्रायन एक्टन को फेसबुक ने कुछ साल पहले नौकरी देने से मना कर दिया था। लेकिन अब फेसबुक ने जन कूम को फेसबुक के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर में शामिल करने का फैसला किया है। फेसबुक के सौदे से अकेले जन कूम करीब 42160 करोड़ रुपए की संपत्ति के मालिक बन जाएंगे। जन कूम ने फेसबुक के साथ सौदे के कागजों पर दस्तखत वॉट्सएप के दफ्तर में नहीं बल्कि वहां से कुछ दूरी पर मौजूद एक सफेद इमारत का चुनाव किया जो पहले नॉर्थ काउंटी सोशल सर्विस का दफ्तर था। इसी दफ्तर में कई साल पहले कूम खाने का कूपन लेने के लिए लाइन लगाते थे। जन कूम ने जिंदगी में कई उतार चढ़ाव देखे हैं। इस डील के तहत 19 अरब अमेरिकी डॉलर की रकम में 12 अरब अमेरिकी डॉलर के फेसबुक के शेयर, 4 अरब अमेरिकी डॉलर की रकम नकद और 3 अरब अमेरिकी डॉलर मूल्य के शेयर वॉट्सएप के मालिक और कर्मचारियों को डील के चार साल बाद दिए जाएंगे। 19 अरब अमेरिकी डॉलर की रकम फेसबुक के कुल बाजार कीमत की 9 फीसदी रकम के बराबर है। इस सौदे के बाद भी वॉट्सएप की सुविधा इसी ब्रैंड नेम के साथ बाजार में उपलब्ध रहेगी। सौदे की वजह से सिर्फ इसके मालिकाना हक में बदलाव होगा। 
वॉट्सएप और फेसबुक के बीच हो रही इतनी बड़ी डील के भविष्य पर कुछ विशेषज्ञ  सवाल भी उठा रहें है और उनकी चिंताए जायज भी है । विशेषज्ञों के मुताबकि, वॉट्सएप और फेसबुक के बीच सौदे की रकम बहुत बड़ी है। इससे सोशल मीडिया का गुब्बारा फूटने जैसी बातें शुरू हो सकती हैं। यह सौदा फेसबुक के लिए बहुत बड़ा जोखिम है क्योंकि सोशल मीडिया में मौसम के साथ प्रॉडक्ट बदलता रहता है। हो सकता है कि अगले साल कोई और अच्छा एप आ जाए। फेसबुक की तरफ से इतनी बड़ी रकम लगाने के पीछे कंपनी का स्नैपचैट को न खरीद पाने का मलाल भी हो सकता है। इसके अलावा यूथ फैक्टर भी अहम है।कुछ विशेषज्ञों के मुताबिक  इस सौदे से  फेसबुक का भविष्य जरुर सुरक्षित हो गया है । फेसबुक की इस रणनीति से साफ हो गया है कि अब कंपनी अलग-अलग तरह के सोशल मीडिया प्रॉपर्टी को अपने साथ जोड़े रखना चाहने वाली कंपनी बन गई है।

Tuesday 18 February 2014

उच्च शिक्षा का गिरता स्तर

एक समय था जब शिक्षा के क्षेत्र में भारतीय उप महाद्वीप का दुनियाभर में परचम लहराता था। नालंदा और तक्षशिला जैसे दो उच्च शिक्षा के केन्द्र उत्कृष्ट शिक्षण के चुनिंदा प्रतीकों में से थे। एक तरह से वे दुनिया के पहले अन्तरराष्ट्रीय शिक्षण संस्थान थे। किंतु इतिहास परिवर्तनशील होता है। कालांतर में भारतीय उच्च शिक्षा की उत्कृष्टता सिर्फ याद रखने की चीज रह गई। मुगलों, और फिर अंग्रेजों के शासन में शिक्षा के लिहाज से वैसा कुछ उल्लेखनीय नहीं रहा। हां, बीसवीं सदी में कुछ शिक्षण संस्थान जरूर बने, लेकिन तब वे वैश्विक नहीं माने जा सकते थे।
स्वाधीनता के बाद उच्च तकनीकी शिक्षा की अपरिहार्यता को ध्यान में रखते हुए भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों की परिकल्पना की गई एवं उनकी बुनियाद रखते वक्त ही यह तय किया गया कि ये संस्थान विश्वस्तरीय हों। ऐसा हुआ भी। तब से लेकर आज तक उच्च तकनीकी शिक्षा के उत्कृष्ट केन्द्रों के रूप में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान अपना विशिष्ट स्थान बनाये हुए हैं। लेकिन पता नहीं क्यों, संप्रग सरकार के 2004 में सत्ता में आने के बाद से लगातार इन उत्कृष्ट शिक्षण केन्द्रों के साथ कुछ ऐसे प्रयोगों का प्रयास हो रहा है जो किसी भी सूरत में बहुत सुखद परिणाम देते नहीं दिखाई देते।
गरिमा से छेड़छाड़ क्यों?
अपनी किंचित कमियों के बावजूद भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों की अपनी एक गरिमा है। भारत के कुछ गिने-चुने वैश्विक प्रतीकों में आई.आई.टी. भी है। फिर क्यों उन स्थापित संस्थानों के साथ छेड़छाड़ की जा रही है? बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के साथ भी इस सरकार ने जो किया है वह सर्वथा निंदनीय है। विश्वविद्यालय से आईटी विभाग को अलग करके वहां संप्रग सरकार ने अपनी अपरिपक्व सोच का ही प्रदर्शन किया है।
इसी तरह की सोच वाली यह सरकार मानती है कि आईआईटी की प्रवेश प्रक्रिया में कुछ दोष है। शायद यह एक प्रकार से अभिजात्य वर्ग के पक्ष में झुकी हुई है और बारहवीं के परीक्षा परिणाम पर ज्यादा केन्द्रित नहीं है। क्या सचमुच ऐसा है? नहीं, यह इस सरकार की अपनी सोच है और कोई सर्वेक्षण या शोध ऐसा नहीं दिखाता है। जहां तक अभिजात्य वर्ग के प्रति झुकाव का प्रश्न है तो यह साबित करने के लिए बिहार के सुपर 30 का प्रयोग ही काफी है। बारहवीं की पढ़ाई का जहां तक प्रश्न है तो उसके लिए भी पर्याप्त आंकड़ा और तथ्यों की आवश्यकता है। रहा सवाल संयुक्त प्रवेश परीक्षा के क्लिष्ट होने का तो इसमें दोष क्या है? आईआईटी को स्थापित ही तकनीकी शिक्षण के उत्कृष्ट केन्द्र के रूप में किया गया था। स्वाभाविक है कि जो उन संस्थानों में प्रवेश के लिए सर्वथा उपयुक्त हो वही चयनित हो। तभी इन की उत्कृष्टता बनी रहेगी। इसके अलावा राष्ट्रीय स्तर पर जो अन्य अभियांत्रिकी पाठ्यक्रमों के लिए प्रवेश परीक्षाएं होती हैं उनके द्वारा चयनित छात्रों और आईआईटी के लिए आयोजित संयुक्त प्रवेश परीक्षा द्वारा चयनित छात्रों में जो फर्क है वह स्पष्ट तौर पर साबित करता है कि दोनों परीक्षाओं में बुनियादी अंतर है।
एक और प्रस्ताव पर भी चर्चा करनी चाहिए जो बारहवीं की परीक्षा के परिणामों को पचास फीसदी मान देने की वकालत करता है। इस प्रस्ताव में दो खामियां हैं। पहली तो यह कि प्रतियोगी परीक्षाओं में ऐसा करना तर्कपूर्ण नहीं है। दूसरे, देश भर में बारहवीं की परीक्षा के बीसियों बोर्ड हैं जो राज्य या राष्ट्रीय स्तर पर संचालित हैं। हर बोर्ड का स्तर अलग है, मूल्यांकन पद्धति अलग है। गुणवत्ता के लिहाज से इनमें भिन्नता होनी स्वाभाविक है। तो आखिर यह कैसे निर्धारित होगा कि दो भिन्न बोर्डों से उत्तीर्ण विद्यार्थी एक ही स्तर के होंगे? ये ऐसे प्रश्न हैं जिनका उत्तर ढूंढना आसान नहीं है।
संस्थानों की स्वायत्तता
दरअसल शिक्षा का जहां तक प्रश्न है तो शायद ही कोई ऐसा विकसित देश होगा जहां शिक्षा के क्षेत्र में इतनी ज्यादा असमानता होगी। हमारे देश में शिक्षा राज्य का विषय है और इसलिए उसमें राज्यों के अपने अधिकार हैं। उनको ध्यान में रखकर ही शिक्षा के क्षेत्र में परिवर्तन करना श्रेयस्कर रहेगा। एक धारणा यह भी है कि शिक्षा के क्षेत्र में जितना ज्यादा प्रयोग हमारे देश में हुआ है उतना शायद ही कहीं हुआ हो। उसी का परिणाम है कि कुछ एक राष्ट्रीय संस्थानों को छोड़कर बाकी सभी संस्थानों की उत्कृष्टता पर प्रश्नचिन्ह लगा है।
नीति वही जो सुखद हो
यदि शिक्षा पर अब तक के सबसे चर्चित और व्यापक दस्तावेजों में से एक, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 की चर्चा करें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि उसमें शैक्षणिक संस्थानों की स्वायत्तता पर बल दिया गया था और यह आशय था कि इससे उत्कृष्टता आएगी। उस नई शिक्षा नीति के दस्तावेज में यह माना गया था आईआईटी व अन्य राज्य व राष्ट्रीय स्तर के तकनीकी संस्थानों में व्यापक फर्क है एवं आईआईटी संस्थान उत्कृष्टता के प्रतीक हैं। इस नीति दस्तावेज में इस संस्थान के राष्ट्रीय विकास में योगदान को स्वीकारा गया था तो आईआईटी को आज एक नये नजरिये से देखने की क्या आवश्यकता है? जिस संस्थान के विद्यार्थियों का विकसित देश भी लोहा मानते हैं उसे उत्कृष्टता की एक अलग श्रेणी में न रखने की कवायद क्यों? यदि बदलाव ही चाहिए तो वह हमारे अन्य संस्थानों की उत्कृष्टता बढ़ाने की दिशा में हो। हर विद्यार्थी आईआईटी के योग्य नहीं होता और इसलिए आईआईटी का एक अलग वर्ग रहे तो ही बेहतर। अवसर की समानता का यह अर्थ नहीं कि असमान को समान बनाने का प्रयास किया जाए। प्रतियोगी परीक्षाओं के माध्यम से उस फर्क की पहचान होनी चाहिए जोकि आज तक होता आ रहा था। कहीं ऐसा तो नहीं कि नई पद्धति आईआईटी की विशिष्टता को ही कमतर कर दे? इस पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। सभी प्रश्नों के मान बराबर हों, यह तो ठीक है, लेकिन सभी उत्तरों के मान बराबर कैसे हो सकते हैं? 
पूर्व अफ्रीकी राष्ट्रपति नेल्सन मण्डेला ने एक बार कहा था कि ‘‘शिक्षा वह हथियार है जिसके माध्यम से हमदुनिया को अहिंसक ढंग से परिवर्तित कर सकते हैं’’ । उच्च शिक्षा ऊर्जा घर हैं, क्योंकि विश्वविद्यालयों का प्रमुखकार्य शोध एवं उन्नत तकनीक की खोज करना है ।
कोठारी आयोग ने यह सुझाव दिया था कि भारत को अपने सकल घरेलू उत्पाद का कम से कम 6 प्रतिशत शिक्षापर व्यय करना चाहिए । किन्तु यह हमारे लिए दुर्भाग्य ही है कि भारत सरकार आज भी शिक्षा पर अपने सकलघरेलू उत्पाद का मात्र 3.23 प्रतिशत ही व्यय कर रही है । शिक्षा पर बजट के इस 3.23 प्रतिशत की राशी के 50प्रतिशत को प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा पर व्यय किया जाता है । सवाल यह है कि उच्च एवं तकनीकी शिक्षापर सकल घरेलू उत्पाद का केवल 1.62 प्रतिशत व्यय करने पर इसका कितना विकास होगा और उच्च शिक्षा कीगुणवत्त कैसी होगी?
भारत सरकार के मानव विकास मंत्री ने यह स्पष्ट किया है कि भारत में कुल 22 करोड़ विद्यार्थी पढने जाते हैं,जिनमें से मात्र 13 प्रतिशत छात्र ही उच्च शिक्षा पाने के लिए कालेजों में दाखिला लेते हैं । यह साफ तौर परदर्शाता है कि भारत सरकार अपने शिक्षा क्षेत्र के प्रति गंभीरता का दिखावा मात्र कर रही है, जबकि वास्तव मेंइसकी सुनियोजित तरीके से अनदेखी की जा रही है । एक ओर, जहां निजी संस्थानों एवं विश्वविद्यालयों को देशमें  प्रवेश की खुली छूट की जा रही है, वहीं दूसरी ओर, सरकारी शिक्षा की गुणवत्ता का स्तर दिन-ब-दिन गिरताचला जा रहा है ।
शिक्षा के निजीकरण की नीति अपनाकर छात्रों के साथ सरेआम खिलवाड़ किया जा रहा है । आज सरकार बड़ीमुश्किल से भारत के हरेक राज्य में एक-एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय खेल पाई है, जबकी भारत की उच्च शिक्षाको 40-50 प्रतिशत दर पर ले जाने के लिए देश में लगभग 1000 विश्वविद्यालय स्थापित करने होंगे । 11वींपंचवर्षीय योजना में 350 माडल कालेज खोले जाने की घोषणा की गई थी, जिनमें अब तक केवल 19 कालेजों कीस्थापना हुई है । ये लक्ष्य कैसे प्राप्त होंगे? क्या इन संस्थानों की स्थापना हो पाएगी? इन प्रश्नों का सरकार केपास कोई उत्तर नहीं है ।
इंजीनियरिंग एवं मेडिकल के 80 प्रतिशत संस्थान दक्षिण भारत में स्थिति हैं । इनमें से अधिकांश निजी क्षेत्रों केद्वारा संचालित हैं । इनकी प्रवेश फीस ही इतनी है कि अपने बच्चों का इन कालेजों में प्रवेश कराने के लिए गरीब,निम्न मध्यम वर्ग के लोगों को अपनी जिंदगी भर की कमाई दांव पर लगानी होगी । ये संस्थान आम आदमी कोकेन्द्र में रखकर नहीं, बल्की अभिजात्य लोगों के लिए स्थापित किए गए हैं । उच्च शिक्षा की व्यावसायिकमानसिकता के कारण आम आदमी अपने को ठगा सा महसूस करता है । उच्च शिक्षा में विदेशी संस्थानों केनिवेश एवं स्थापना की नीति से आम भारतीय यह सोचने के लिए मजबूर हो गया है कि क्या हमारा देशअमेरिका, इंग्लैण्ड व अन्य यूरोपीय देशों की जरूरतों को पूरा करने का साधन बन कर रह गया है । दूसरे शब्दों मेंजिनका पेट भरा है, उन्हें सरकार और भोजन दे रही है, जो भूखे हंै, उनके लिए कोई व्यवस्था नहीं है ।
उच्च तिथा शिक्षा के क्षेत्र में भारत कितना पिछडा है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उत्कृष्टविश्वविद्यालयों की अन्तराष्ट्रीय सूची में 200वें स्थान पर भी नहीं है । इस सूची में 72 विश्वविद्यालयों के साथअमेरिका पहले क्रम पर, 29 विश्वविद्यालयों के साथ ब्रिटेन दूसरे क्रम पर, दक्षिण कोरिया तीसरे क्रम पर, चीनछठवें क्रम पर, कनाडा नौवें क्रम पर और नीदरलैंड दसवें क्रम पर है ।
आखिर भारत शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी कैसे हो सकता है जब यहां शिक्षा पर आवंटित राशि कामनवेल्थ खेलों केलिए खर्च की गई राशि के आधे से भी कम है? सबसे बड़ी समस्या यह है कि शिक्षा का रोजगार से कोई संबंध नहींहै । अनेक देशों में शिक्षा को रोजगार से जोड़ा गया है। देश एवं औद्योगिक स्ंास्थानों की मांग के अनुसार उच्चशिक्षा में कौशल का विकास किया जाता है । मगर हमारे देश के विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों से डिग्रिधारीबेरोजगारों की फौज सड़क जिन्दगी की तलाश में जीवन गंवा रही है ।

आज हम विद्यार्थियों एवं नई पीढ़ी का यह परम कर्तव्य है कि हम इस देश को इन मक्कारों से बचाएं वराष्ट्र-निर्माण में सहयोग करें । आज शिक्षित एवं कौशलयुक्त मानव शक्ति के अभाव में हमारा देश निर्जीव सापडा है, उसमें हम सभी मिलकर नए प्राण फूंकने का प्रयास करें ।

Wednesday 12 February 2014

101वाँ विज्ञान कांग्रेस -सरकारी रस्म अदायगी का एक और सम्मेलन

जम्मू में १०१ विज्ञान कांग्रेस (2-7 फरवरी )पर मेरी आँखों देखी रिपोर्ट 
शशांक द्विवेदी 
जम्मू में १०१ वे विज्ञान कांग्रेस समारोह सरकारी रस्म अदायगी का एक और सम्मेलन बन कर रह गया .जिसमें केंद्र और राज्य सरकार के नुमाइंदों द्वारा कोई नई बात नहीं कही गयी .प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने भी पिछले सालों की तरह एक बार फिर विज्ञान के लिए बजट में जीडीपी का दो प्रतिशत खर्च करने की वकालत की .जबकि इसके पहले भी वो विज्ञान कांग्रेस के समारोह में यही बात कह चुके है लेकिन इसका क्रियान्वयन आज तक नहीं हो पाया है .देश में विज्ञान और शोध के बुनियादी ढांचें में कोई खास बदलाव नहीं आया है.विज्ञान कांग्रेस में प्रधानमंत्री “विज्ञान “ पर कम और “कांग्रेस “ पर ज्यादा बोले मसलन सरकार ने इतने आई आई टी ,आई आई एम खोले ,कुछ और योजनाओं की भी घोषणा हुई लेकिन उनका क्रियान्वयन कब और कैसे होगा उसकी कोई रुपरेखा उन्होंने नहीं बताई .देश के अलग अलग हिस्सों में विज्ञान की अलख जगाने वाले विज्ञान संचारको ,विज्ञान पर लिखने वाले ,विज्ञान पर काम करने वालों के लिए सरकार के पास कोई कार्ययोजना नहीं है .नेताओं और वीआईपी की सुरक्षा के बीच सम्मेलन में आये वैज्ञानिकों और प्रतिनिधियों को भारी उपेक्षा का शिकार होना पड़ा । लगभग पूरे समारोह में जम्मू विश्वविद्यालय प्रशासन सिर्फ नेताओं और वीआईपी लोगों की आवाभगत में ही लगा रहा । यहाँ तक की सम्मेलन के पहले दिन प्रतिनिधियों का पंजीकरण भी दोपहर तीन बजे के बाद शुरू किया किया जिसकी वजह से सैकड़ो विज्ञान संचारक उद्घाटन समारोह में शिकरत ही नहीं कर पाए ,जिसके लिए वो लोग लंबी यात्रा करके जम्मू आये थे । जबकि पंजीकरण तो प्रधानमंत्री के कार्यक्रम से काफी पहले सुबह से ही शरू हो जाना चाहिए था क्योंकि देश के विभिन्न हिस्सों से लोग उस दिन भी वहाँ पहुँच रहें थे । इन लोगों को सुरक्षा के नाम पर मुख्य समारोह स्थल में घुसने ही नहीं दिया गया । विश्वविद्यालय प्रशासन की इस गंभीर गलती की वजह से सैकड़ों प्रतिनिधयों के साथ साथ कई आमंत्रित वक्ताओं को अपमानित होना पड़ा । प्रधानमंत्री के कार्यक्रम के कई घंटे बाद जब पंजीकरण शुरू हुआ तो वहाँ भी अफरातफरी का माहौल था ,सैकड़ों की संख्या में लोग लाइन में देर शाम तक लगे रहें । यहाँ भी प्रतिनिधियों और विश्वविद्यालय प्रशासन के बीच जोरदार झड़प हुई और पुलिस को हस्तक्षेप करना पड़ा । व्यवस्था पूरी तरह से चरमराई हुई थी । कई विदेशी वैज्ञानिकों को वजह से भारी परेशानी उठानी पड़ी । सम्मेलन के अधिकांश सत्र काफी देर से शुरू हुए और वहाँ पर भी श्रोताओं की भारी कमी देखी गई । चिल्ड्रेन साइंस कांग्रेस का उद्घाटन सत्र जरुर शानदार था जिसमें पूर्व राष्ट्रपति डॉ.ए. पी .जे अब्दुल कलाम ने प्रेरणादायक भाषण देते हुए सम्मेलन स्थल में सीधे सीधे बच्चों से संवाद स्थापित किया और उनके द्वारा बनायें गयें प्रोजेक्ट्स का भी अवलोकन किया .उन्होंने बच्चों के सवालों का जवाब देकर उनकी जिज्ञासा को शांत भी किया । 
सम्मेलन में राष्ट्रीय विज्ञान संचार सत्र के अंतर्गत पोस्टर प्रेजेंटेशन में आयोजकों ने कोई गंभीरता नहीं दिखाई यहाँ तक की उनका अवलोकन तक करना मुनासिब नहीं समझा गया । कार्यक्रम सिर्फ रस्म आदायगी की तरह से हो रहें थे, सम्मेलन में विज्ञान या विज्ञान संचारको के प्रति कहीं कोई संजीदगी नहीं दिखाई दी । सब कुछ एक ढर्रे पर ही चल रहा था । पूरा सम्मेलन भारी अव्यवस्था का शिकार था । शोध पत्रों के प्रस्तुतिकरण के किसी भी सत्र के बाद उसमें निष्कर्ष तक नहीं पहुँचा गया ,भविष्य में उसकी क्या रुपरेखा होगी इस पर कोई बात नहीं हुई । कुलमिलाकर करोडों रुपया खर्च करके भी इस तरह के सम्मेलन करके रस्म आदायगी के अलावा कुछ हासिल नहीं हुआ .