Tuesday 21 January 2014

पोलियो मुक्त हुआ भारत

कामयाबी के साथ जिम्मेदारी बढ़ गई
“ दो बूँद जिंदगी की “ ने एक नयी जिंदगी दी
शशांक द्विवेदी 
दो दशकों की कड़ी मेहनत और पोलियो के खिलाफ अभियान के बाद भारत को बड़ी उपलब्धि मिली है। अब भारत पूरी तरह से पोलियो मुक्त हो गया है । पोलियो अभियान की पंच लाइन “ दो बूँद जिंदगी की “ ने वास्तव में पूरे देश को एक नयी जिंदगी दी है । इस बीमारी का सफाया होना देश के लिए बहुत गौरवशाली उपलब्द्धि है । इस बीमारी को सिर्फ सरकारी प्रयास से ही नहीं हराया जा सकता था इसके लिए सभी देश वासियो और खासतौर से पोलियो ड्राप पिलाने वाले स्वयंसेवियो का अनुकरणीय योगदान रहा है । हमारे देश की साझी विरासत से ही यह संभव हो पाया है ,इस तरह के प्रयासों से हम और भी कई गंभीर बीमारियो को हरा सकते है । तीन साल में पोलियो का एक भी मामला सामने नहीं आया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) पोलियो मुक्त भारत की घोषणा करने वाला है। भारत में पोलियो का आखिरी मामला 2011 में आया था। उस समय साल भर में केवल एक ही मामला दर्ज हुआ था।  इसे देखते हुए पिछले साल डब्ल्यूएचओ ने भारत का नाम पोलियो ग्रस्त देशों की सूची से हटा दिया था। हालांकि पड़ोसी देश पाकिस्तान और अफगानिस्तान अब भी बुरी तरह इसकी चपेट में हैं। डब्ल्यूएचओ से पोलियो मुक्त प्रमाणपत्र मिलने में अभी कुछ समय लगेगा। उम्मीद की जा रही है कि कागजी कार्रवाई के बाद 11 फरवरी को भारत को पोलियो मुक्त घोषित कर दिया जाएगा।
पोलिया के खिलाफ लड़ाई में भारत को जीत हासिल हुई है । लेकिन इस जीत से जिम्मेदारी और भी ज्यादा बढ़ गई है क्योंकि जीतने से ज्यादा जीत को बनाएं रखना महत्वपूर्ण है । वास्तव में इस कामयाबी का श्रेय उन 23 लाख स्वयंसेवकों को जाता है, जिन्होंने मुश्किल परिस्थियों में दूर-दराज क्षेत्रों में जाकर बच्चों को पोलियो ड्रॉप पिलाया। इससे यह उम्मीद भी जगी है कि हम सिर्फ भारत से ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया से पोलियो को मिटा सकते हैं। लेकिन देश में इसे पूरी तरह से मिटाने के लिए टीकाकरण जारी रखना होगा और निगरानी भी बढ़ानी होगी। 
पोलियो का टीका पोलियो वायरस के लिए प्रतिरक्षा उत्पनन्नि करने और लकवा मार जाने वाले पोलियो से सुरक्षा प्रदान करने में अत्यंात प्रभावी है। पोलियो टीका पाने वाले लगभग  90 प्रतिशत या इससे अधिक व्यक्तियों  में तीनों प्रकार के पोलियो वायरस के खिलाफ सुरक्षात्मोक एंटीबॉडी दो खुराकों के बाद बन जाते हैं और कम से कम 99 प्रतिशत तीन खुराकों के बाद सुरक्षित हो जाते हैं। डॉ. एल्बसर्ट सेबिन ने 1961 में मौखिक पोलियो टीके (ओपीवी)  का विकास किया था । वर्तमान में लगभग सभी देश पोलियो उन्मूलन लक्ष्य पूरा करने के लिए ओपीवी का उपयोग करते हैं। इस टीके से व्यक्ति में हमेशा के लिए संक्रमण की रोकथाम होने के साथ अब यह व्यक्ति अन्य लोगों में पोलियो वायरस को फैलाने से भी बच जाता है। चूंकि पोलियो का वायरस मेजबान के बाहर दो सप्ताह से अधिक समय के लिए जिंदा नहीं रह सकता है अत सैद्धांतिक रूप से यह समाप्त हो जाएगा जिससे पोलियो माइलिटिस पूरी तरह से समाप्त हो जाएगा।
भारत विश्व स्वास्थ्य संगठन  से जुड़े 192 सदस्य देशों के साथ 1988 से  वैश्विक पोलियो उन्मूलन का लक्ष्य् पूरा करने के लिए वचनबद्ध रहा  है। भारत ने डब्यूएचओ वैश्विक पोलियो उन्मूलन प्रयास के परिणाम स्वरूप 1995 में पल्स  पोलियो टीकाकरण (पीपीआई) कार्यक्रम आरंभ किया था । इस कार्यक्रम के तहत 5 वर्ष से कम आयु के सभी बच्चों  को पोलियो समाप्त होने तक हर वर्ष दिसम्बर और जनवरी माह में ओरल पोलियो टीके (ओपीवी) की दो खुराकें दी जाती हैं। यह अभियान सफल सिद्ध हुआ है और भारत में पोलियो माइलिटिस की दर अब लगभग खत्म हो गयी है । देश में ग्रामीण क्षेत्रों के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन का प्रयास एक वरदान सिद्ध हुआ ।
पीपीआई की शुरुआत ओपीवी के तहत शत प्रतिशत कवरेज प्राप्त करने के उद्देश्य से की गई थी। जिसकी वजह से  पोलियो वायरस लगभग गायब हो चुका है और इससे देश की  जनता का  उच्च मनोबल बना हुआ है । वर्ष 1995 से देश में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय पोलियो वायरस को समाप्त  करने के लिए  सघन टीकाकरण और निगरानी गतिविधियों का आयोजन करता रहा है। सरकार को तकनीकी और रसद संबंधी सहायता प्रदान करने के लिए 1997में राष्ट्रीय पोलियो निगरानी परियोजना  आरंभ की गई और अब यह राज्ये सरकारों के साथ समन्वय से कार्य करती है और देश में पोलियो उन्मूलन का लक्ष्य पूरा करने के लिए भागीदारी एजेंसियों की एक बड़ी श्रृंखला इसमें संलग्न है। देश में  डब्यूएचओ के समर्थन के साथ राज्य सरकार के नेतृत्वो में यूएस सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एण्ड प्रीवेंशन , यूनिसेफ और  बिल एण्डम मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन ने पोलियो उन्मूलन में  महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । 
2009 के दौरान भारत में विश्व  के पोलियो के मामलों का उच्चहतम भार (741) था।, यहां तीन अन्ये महामारियों से पीडित देशों की संख्या से अधिक मामले थे। यह टीका बच्चों तक पहुंचाने के असाधारण उपाय अपनाने से भारत में पश्चिम बंगाल राज्य  की एक दो वर्षीय बालिका के अलावा कोई अन्य मामला नहीं देखा गया जिसे 13 जनवरी 2011 को लकवा हो गया था। आज भारत ने पोलियो के खिलाफ अपने संघर्ष में एक महत्वबपूर्ण पड़ाव प्राप्ता किया है, चूंकि अब पोलियो का अन्य कोई केन्द्र नहीं है। 
देश में 1988 से पोलियो के मामलों में 100 प्रतिशत की कमी आई है, जब महामारी से पीडित 125 देशों में इनकी संख्या 350000से कम होकर 2010 में 1349 बताई गई। 2011 में दुनिया के तीन देशों के कुछ हिस्सेै रोग से प्रभावित रहे  यह इतिहास का सबसे छोटा भौगोलिक क्षेत्र रहा और यहां पोलियो वायरस टाइप 3 के मामलों की संख्या  अब तक के अल्पतम स्तर पर बताई गई है। हालांकि पड़ोसी देश पाकिस्तान और अफगानिस्तान के साथ नाइजीरिया अब भी बुरी तरह इसकी चपेट में हैं.
वास्तव में पोलियो के खिलाफ यह असाधारण उपलब्धि लाखों टीका लगाने वालों, स्वयंसेवकों, सामाजिक प्रेरणादायी व्यीक्तियों, अभिनेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं और धार्मिक नेताओं के साथ सरकार द्वारा लगाई गई ऊर्जा, समर्पण और कठोर प्रयास का परिणाम है। वास्तव में अगर लक्ष्य स्पष्ट हो और प्राथमिकताये निश्चित हो तो कोई भी मंजिल दूर नहीं होती । पोलियो जैसी भयंकर बीमारी से देश  को मुक्ति मिलने जा रही है, तो यह समाज के सभी वर्गों की कोशिशों का ही नतीजा है। 
लेकिन इस कामयाबी से जिम्मेदारी और भी ज्यादा बढ़ गयी है क्योंकि दुनिया के  कुछ  देशों में पोलियो  अभी खत्म  नहीं किया जा सका है, अभी  ऐसे केवल तीन देश ही बचे हैं, जहां पोलियो वायरस मूल रूप से पनपा है। इनमें नाइजीरिया, पाकिस्तान और अफगानिस्तान शामिल हैं। इन देशों से पोलियो के वायरस का फिर भारत पहुंचने का खतरा है। इसलिए अभी इस पर ध्यान देने की जरूरत है । अब जरुरत है इस कामयाबी को बनाये रखने कि जिससे पोलियो हमारे देश में सदा सर्वदा के लिए समाप्त हो जाये ।

Saturday 18 January 2014

कैसे रुके ई-मेल पर विदेशी पहरेदारी

नवभारत टाइम्स | Jan 18, 2014


शशांक द्विवेदी
पिछले दिनों चुनाव आयोग ने वोटर रजिस्ट्रेशन के लिए गूगल के साथ एक करार किया था, जिसके तहत गूगल को आगामी लोकसभा चुनाव से पहले वोटरों का ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन करने, मतदाताओं के सवालों पर चुनाव आयोग की वेबसाइट मैनेज करने, मैप के जरिये पोल बूथ ढूंढने और अन्य सुविधाएं मुहैया कराने की जिम्मेदारी दी जानी थी। साइबर सुरक्षा विशेषज्ञों और प्रमुख राजनीतिक दलों ने इस करार पर गंभीर सवाल उठाये थे। हाल ही में अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए के पूर्व कर्मचारी एडवर्ड स्नोडेन के खुलासों की रोशनी में इस करार को सुरक्षा के लिहाज से घातक बताया गया था।
इस विवाद के बाद चुनाव आयोग ने अपने फैसले की समीक्षा करते हुए करार रद्द कर दिया। लेकिन, सवाल यह है कि आखिर ऐसा करार किया ही क्यों गया था? दुनिया भर में भारत सॉफ्टवेयर सुपर पावर के तौर पर जाना जाता है और यहां चुनाव आयोग द्वारा किसी भारतीय कंपनी की जगह गूगल जैसी विदेशी कंपनी को चुनना हैरान करने वाला था। इस करार के बाद गूगल के पास रजिस्टर्ड भारतीय वोटर्स का पूरा डेटाबेस होता, जबकि दुनिया भर के लोगों की जासूसी के लिए अमेरिकी खुफिया एजेंसी एनएसए के साथ गूगल की साठ-गांठ की बात सामने आ चुकी है।
दुनिया में इंटरनेट प्रणाली पर काफी हद तक अभी भी अमेरिका का नियंत्रण है और अधिकांश बड़ी इंटरनेट कंपनियां अमेरिकी हैं। सभी के सर्वर वहीं हैं और वे वहां के कानूनों से संचालित होती हैं। इसलिए सबसे बड़ा सवाल भारत सहित दूसरे देशों के सामने यह है कि वे साइबर दुनिया में अपनी निजता को कैसे बचाते हैं। यह सवाल निजता और साइबर सुरक्षा के साथ-साथ राष्ट्रीय सुरक्षा से भी जुड़ा है।इन्हीं चिंताओं को ध्यान में रखते हुए बीते साल भारत सरकार ने राष्ट्रीय साइबर सुरक्षा नीति-2013 जारी की थी। इसका मुख्य मकसद देश में ऐसा साइबर सिक्यॉरिटी सिस्टम तैयार करना है जो साइबर हमलों को रोकने में सक्षम हो। अब इसी दिशा में आगे बढ़ते हुए केंद्र सरकार नई ई-मेल नीति भी बना रही है। यह ई-मेल पॉलिसी पब्लिक रेकॉर्ड ऐक्ट के तहत बनाई जा रही है। इससे सरकारी डेटा भारत से बाहर के किसी सर्वर पर नहीं जा पाएगा।

इसके तहत वह सरकारी विभागों में जीमेल और याहू जैसी ईमेल सेवाओं के इस्तेमाल पर पाबंदी लगा सकती है। सरकार अपने सभी विभागों में ईमेल संवाद के लिए आधिकारिक वेबसाइट एनआइसी का इस्तेमाल करने की सोच रही है। यह नीति लगभग तैयार हो चुकी है और विभाग इसके क्रियान्वयन के लिए अन्य मंत्रालयों से बातचीत कर रहा है। इस नीति के बाद बड़ी संख्या में सरकार के संवेदनशील आंकड़ों को सुरक्षित रखा जा सकेगा। भारत सहित कई एशियाई देशों का सारा कामकाज गूगल, याहू जैसी वेबसाइट्स के जरिए होता है। इसलिए यहां की सरकारें संकट में घिर गई हैं। भारत चाहता है कि याहू, गूगल जैसी अमेरिकी कंपनियां भारत के साथ अहम जानकारियों को साझा करें। भारत में फोन और इंटरनेट की केंद्रीय मॉनिटरिंग की प्रणाली हाल में ही शुरू हुई है।
सुरक्षा मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति से मंजूरी के जरिए खुफिया एजेंसियों को फोन टैपिंग, ई मेल स्नूपिंग, वेब सर्च और सोशल नेटवर्क पर सीधी नजर रखने के अधिकार मिले हैं। मगर, इस पर अमल में दिक्कत है। गूगल, फेसबुक, माइक्रोसॉफ्ट आदि को नई मॉनिटरिंग नीति के तहत लाना और उनके सर्वर में दखल देना भारतीय एजेंसियों के लिए काफी मुश्किल साबित हो रहा है। ये कंपनियां अपने सर्वर देश से बाहर होने और विदेशी कानूनों के तहत संचालित होने का तर्क देती हैं। ऐसे में सरकारी डेटा बाहर भेजा जा सकता है, जो पब्लिक रेकॉर्ड ऐक्ट का उल्लंघन है।

देश के रक्षा और विज्ञान शोध संस्थानों तथा दूतावासों पर साइबर जासूसी का आतंक मंडरा रहा है। दुनिया के सबसे बड़े साइबर जासूसी रैकेट के खतरे से जूझ रहे इन संस्थानों को बेहद संवेदनशील जानकारियों और आंकड़ों के चोरी होने का डर है। साइबर संसार में जासूसी करने के लिए अमेरिका ने पूरे विश्व में लगभग 150 जगहों पर 700 सर्वर्स लगा रखे हैं। ब्रिटिश अखबार गार्जियन के मुताबिक इन सर्वर्स में से एक भारत में भी लगाया गया है। दिल्ली के नजदीक किसी स्थान पर इसके लगे होने की आशंका जताई गई है।

देश में साइबर सुरक्षा में मैन पावर की बहुत कमी है। साइबर सुरक्षा के आंकड़ों के अनुसार चीन में साइबर सुरक्षा के काम में सवा लाख विशेषज्ञ तैनात हैं। अमेरिका में यह संख्या 91 हजार से ऊपर है। रूस में भी लगभग साढ़े सात हजार माहिर लोग इस काम में लगे हुए हैं। अपने यहां यह संख्या सिर्फ 5560 है। फिलहाल स्थिति चिंताजनक है और तत्काल ऐक्शन की जरूरत है। इसमें दो राय नहीं कि सरकार की नई ई- मेल नीति सही दिशा में उठाया गया कदम है। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या यह काफी है? वक्त का तकाजा है कि सरकार इस संवेदनशील मसले पर गंभीरता से गौर करे। सभी सवालों और चुनौतियों के जवाब उसी गंभीरता से निकलेंगे।
(लेखक विज्ञानपीडिया.कॉम के संपादक हैं) 

Thursday 9 January 2014

जलती बर्फ बनेगी ऊर्जा का जबर्दस्त स्त्रोत

जापान की नई पहल के बाद समुद्र तल में पाए जाने वाले गैस हाइड्रेट्स में दुनिया की दिलचस्पी बढ़ गई है
तेल और गैस के भारी आयात ने भारत का व्यापार घाटा बहुत बढ़ा दिया है। यह चीज देश की तेज आर्थिक वृद्धि की राह में रोड़ा बन रही है। लेकिन पिछले हफ्ते जापान ऑयल गैस एंड मेंटल्स नेशनल कॉरपोरेशन (जेओजीएमईसी) की एक तकनीकी उपलब्धि हमारे लिए अंधेरे में आशा की किरण लेकर आई है। वे लोग समुद्र तल पर जमा मीथेन हाइड्रेट के भंडार से प्राकृतिक गैस निकालने में कामयाब रहे। इस चीज को आम बोलचाल में फायर आइस या जलती बर्फ भी कहते हैं, क्योंकि यह चीज सफेद ठोस क्रिस्टलाइन रूप में पाई जाती है और ज्वलनशील होती है। भारत के पास संसार के सबसे बड़े मीथेन हाइड्रेट भंडार हैं। तकनीकी प्रगति के जरिए अगर इसके दोहन का कोई सस्ता और सुरक्षित तरीका निकाला जा सका तो देश के लिए बहुत बड़ा वरदान साबित होगा।
गैस का भंडार
जेओजीएमईसी का कहना है कि 2016 तक वह इस स्त्रोत से वाणिज्यिक पैमाने पर गैस का उत्पादन शुरू कर सकता है। इस बीच चीन और अमेरिका ने भी फायर आइस की खोज और इसके प्रायोगिक उत्कर्षण को लेकर बड़े कार्यक्रम बनाए हैं। अफसोस की बात यह है कि भारत इस तस्वीर में कहीं नहीं है।
दुनिया में इस चीज की कुल मात्रा के बारे में स्थिति दुनिया में इस चीज की कुल मात्रा के बारे में स्थिति स्पष्ट नहीं है। यह मात्रा 28 हजार खरब से लेकर 80 अरब खरब घन मीटर गैस के समतुल्य आंकी जाती है। संसार में मौजूद कुल 4400 खरब घन मीटर पारंपरिक गैस की तुलना में यह मात्रा कई गुना ज्यादा है। यह बात और है कि हाइड्रेट भंडारों के एक छोटे हिस्से का ही इस्तेमाल गैस उत्पादन में किया जा सकेगा।
जलती बर्फ का राज
मीथेन हाइड्रेट प्राकृतिक गैस और पानी का मिश्रण है। गहरे समुद्र तल पर पाई जाने वाली निम्न ताप और उच्च दाब की विशेष स्थितियों में यह ठोस रूप धारण कर लेता है। कनाडा और रूस के स्थायी रूप से जमे रहने वाले उत्तरी समुद्रतटीय इलाकों में यह जमीन पर भी पाया जाता है। इन जगहों से निकाले जाने के बाद इसे गरम करके या कम दबाव की स्थिति में लाकर (जेओजीएमईसी ने यही तकनीक अपनाई थी) इससे प्राकृतिक गैस निकाली जा सकती है। एक लीटर ठोस हाइड्रेट से 165 लीटर गैस प्राप्त होती है। यह जानकारी काफी पहले से है कि भारत के पास मीथेन हाइड्रेट के बहुत बड़े भंडार हैं। अपने यहां इसकी मात्रा का अनुमान 18,900 खरब घन मीटर का लगाया गया है। भारत और अमेरिका के एक संयुक्त वैज्ञानिक अभियान के तहत 2006 में चार इलाकों की खोजबीन की गई। ये थे- केरल-कोंकण बेसिन, कृष्णा गोदावरी बेसिन, महानदी बेसिन और अंडमान द्वीप समूह के आसपास के समुद्री इलाके। इनमें कृष्णा गोदावरी बेसिन हाइड्रेट के मामले में संसार का सबसे समृद्ध और सबसे बड़ा इलाका साबित हुआ। अंडमान क्षेत्र में समुद तल से 600 मीटर नीचे ज्वालामुखी की राख में हाइड्रेट के सबसे सघन भंडार पाए गए। महानदी बेसिन में भी हाइड्रेट्स का पता लगा।
बहरहाल, आगे का रास्ता आर्थिक और पर्यावरणीय चुनौतियों से होकर गुजरता है। हाइड्रेट से गैस निकालने का किफायती तरीका अभी तक कोई नहीं खोज पाया है। उद्योग जगत का मोटा अनुमान है कि इस पर प्रारंभिक लागत 30 डॉलर प्रति एमएमबीटीयू (मिलियन मीट्रिक ब्रिटिश थर्मल यूनिट) आएगी, जो एशिया में इसके हाजिर भाव का दोगुना और अमेरिका में इसकी घरेलू कीमत का नौगुना है। जेओजीएमईसी को उम्मीद है कि नई तकनीक और बड़े पैमाने के उत्पादन के क्रम में इस पर आने वाली लागत घटाई जा सकेगी। लेकिन पर्यावरण की चुनौतियां फिर भी अपनी जगह कायम रहेंगी। गैस निकालने के लिए चाहे हाइड्रेट को गरम करने का तरीका अपनाया जाए, या इसे कम दाब की स्थिति में ले जाने का, या फिर ये दोनों तरीके एक साथ अपनाए जाएं, लेकिन हर हाल में गैस की काफी बड़ी मात्रा रिसकर वायुमंडल में जाएगी और इसका असर पर्यावरण पर पड़ेगा। कार्बन डाई ऑक्साइड की तुलना में प्राकृतिक गैस 15-20 गुना गर्मी रोकती है। पर्यावरण से जुड़ी इन आशंकाओं के चलते कई देशों ने अपने यहां शेल गैस का उत्पादन ठप कर दिया है और हाइड्रेट से गैस निकालने के तो पर्यावरणवादी बिल्कुल ही खिलाफ हैं। लेकिन शेल गैस के रिसाव को रोकना ज्यादा कठिन नहीं है। कौन जाने आगे हाइड्रेट गैस के मामले में भी ऐसा हो सके।
काफी पहले, सन 2006 में मुकेश अंबानी ने गैस हाइड्रेट्स के बारे में एक राष्ट्रीय नीति बनाने को कहा था, लेकिन आज तक दिशा में कुछ किया नहीं जा सका है। अमेरिका, जापान और चीन में हाइड्रेट्स पर काफी शोध चल रहे हैं लेकिन भारत में इस पर न के बराबर ही काम हो पाया है। राष्ट्रीय गैस हाइड्रेट कार्यक्रम के तहत पहला इसके भंडार खोजने के लिए पहला समुदी अभियान भी 2006 में चला था। दूसरे अभियान की तब से अब तक बात ही चल रही है। कुछ लोग इस उम्मीद में हैं कि अमेरिका और जापान जब गैस निकालने की तकनीक विकसित कर लेंगे तो हम इसे सीधे उनसे ही खरीद लेंगे। लेकिन यह उम्मीद बेमानी है। भारत के बड़े सबसे बड़े हाइड्रेट भंडार, जिनमें कृष्णा गोदावरी बेसिन भी शामिल है, समुदी चट्टानों की दरारों में हैं, जबकि जापान और अमेरिका में ये बलुआ पत्थरों में पाए जाते हैं। जाहिर है, अमेरिका और जापान की उत्कर्षण तकनीकें बिना सुधार के हमारे यहां काम नहीं आने वाली। अपनी तकनीकी क्षमता हमें खुद ही विकसित करनी होगी।
गलत प्राथमिकताएं
भारत के हाइड्रोकार्बन महानिदेशालय ने काफी पहले एक राष्ट्रीय गैस हाइड्रेट शोध व विकास केंद्र स्थापित करने की गुजारिश की थी। इसे सरकारी निकाय न बनाया जाए। निजी क्षेत्र की तेल व गैस कंपनियों को भी इसमें शामिल किया जाना चाहिए। इसके साथ ही भारतीय समुद्री क्षेत्र में हाइड्रेट भंडारों की और ज्यादा खोज और पुष्टि के लिए जापान और अमेरिका के साथ कुछ और साझा अभियान भी चलाए जाने चाहिए। अभी तो ड्रिलिंग के जरिये निकाले गए हाइड्रेट्स के नमूनों को जांच के लिए विदेशी प्रयोगशालाओं में भेजा जा रहा है। यह दयनीय स्थिति हमारी गलत प्राथमिकताओं की ओर इशारा करती है, और हर हाल में इसे बदलना ही होगा। स्वामीनाथन एस अंकलेसरिया अय्यर

मीठे पानी का भंडार

हो सकता है एक दिन हमें मीठे पानी के लिए समुद्र में कुएं खोदने पड़ें। वैज्ञानिकों ने ऑस्ट्रेलिया, चीन, उत्तरी अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका के तटों के पास समुद्र के नीचे स्वच्छ जल के भंडारों का पता लगाया है। ये इतने बड़े हैं कि इनसे दुनिया को जल संकट से निजात दिलाने में मदद मिल सकती है। नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक पूरी दुनिया में समुद्री तल के नीचे कई किलोमीटर तक फैले क्षेत्र में करीब पांच लाख घन किलोमीटर पानी मौजूद है। वैज्ञानिकों का कहना है कि यह पानी कम लवणता का है और इससे दुनिया के समुद्री तटों पर बसे शहरों को जल आपूर्ति की जा सकती है। ऑस्ट्रेलिया की फलाइंडर्स युनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ एनवायरनमेंट के वैज्ञानिक डॉ. विंसेंट पोस्ट का मानना है कि इस पानी की मात्रा पिछली एक सदी के दौरान जमीन से निकाले गए पानी से सौ गुना ज्यादा है।
समुद्र में इस पानी की खोज एक बड़ी खबर है क्योंकि इससे कई दशकों तक दुनिया के कुछ इलाकों में पानी की मांग को पूरा किया जा सकता है। समुद के नीचे स्वच्छ जल की मौजूदगी की बारे में भूजल वैज्ञानिकों को पहले से कुछ जानकारी थी, लेकिन उनका खयाल था कि इस तरह के जलाशय दुर्लभ हैं और कुछ खास स्थितियों में ही पाए जाते हैं। नई रिसर्च से पता चलता है कि समुदी तल के नीचे इस तरह के जलाशय बड़ी मात्रा में मौजूद हैं। समझा जाता है कि इन जलाशयों का निर्माण हजारों वर्षों के दौरान हुआ है। शुरू-शुरू में औसत समुदी स्तर आज की तुलना में बहुत नीचे था और समुदी तट दूर तक फैले हुए थे। बारिश का पानी जमीन में समा जाता था। समुद्री तटों की यह जमीन अब समुद्र के नीचे है। ऐसा पूरी दुनिया में हुआ है। करीब 20,000 वर्ष पहले जब ध्रुवीय टोपियां पिघलनी शुरू हुईं तो समुद्र का जल स्तर भी बढ़ने लगा। तब ये इलाके समुद्र में डूब गए थे। आश्चर्यजनक बात यह है कि समुद्र के खारे पानी का इन जलाशयों पर कोई असर नहीं हुआ है क्योंकि ये जलाशय मिट्टी की कई परतों से ढके हुए हैं।
डॉ.पोस्ट का कहना है कि इन समुद्री जलाशयों का स्वरूप भूजल के सामान्य भंडारों जैसा ही है, जिन पर दुनिया की बहुत कुछ आपूर्ति निर्भर है। समुद्री जलाशयों के पानी की लवणता बहुत कम है और उसे साफ पानी में बदला जा सकता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या हम इस पानी का उपयोग कर सकते हैं और क्या यह आर्थिक रूप से किफायती होगा? इस पानी को निकालने के दो तरीके हो सकते हैं। या तो हम समुद्र में खुदाई करें या फिर मुख्य भूमि से खुदाई करें। समुद में खुदाई करना बहुत महंगा पड़ सकता है। इसके लिए पहले जलाशय के स्रोत का आकलन करना पड़ेगा और समुद्र के लवण रहित पानी जैसे दूसरे जल स्रोतों की तुलना में उसकी लागत और पर्यावरण प्रभावों का अध्ययन करना पड़ेगा। डॉ.पोस्ट का मानना है कि समुद्र के खारे पानी को लवण रहित करने की सामान्य प्रक्रिया की तुलना में इस पानी को स्वच्छ जल में बदलने पर कम ऊर्जा खर्च होगी।
दुनिया में स्वच्छ जल की आपूर्ति के लिए बहुत दबाव है। तटों के आसपास नए जल स्रोत मिलने से हमारे सामने जल संकट से निपटने के नए विकल्प मिल सकते हैं लेकिन जिन देशों के पास समुद्र में स्वच्छ जल के भंडार मौजूद हैं उन्हें अपने समुद्री तल का प्रबंध बहुत ही सावधानी से करना पड़ेगा। मसलन जहां कम लवणता वाला पानी मौजूद है वहां हमें यह ध्यान में रखना पड़ेगा कि यह पानी किसी भी तरह से प्रदूषित नहीं हो पाए। वैज्ञानिकों ने चेताया है कि इन जलाशयों का प्राकृतिक नवीकरण संभव नहीं है। एक बार खत्म होने पर इनकी भरपाई नहीं हो पाएगी। समुद्री स्तर में बहुत ज्यादा गिरावट आने के बाद ही इन जलाशयों की भरपाई हो सकती है और बहुत लबे समय तक ऐसा होने वाला नहीं है।

- मुकुल व्यास

Monday 6 January 2014

जीएसएलवी डी- 5 का सफल प्रक्षेपण-ऐतिहासिक उपलब्धि

शशांक द्विवेदी 
इसरो ने देश में निर्मित क्रायोजेनिक इंजन के जरिये रॉकेट जीएसएलवी डी- 5 का सफल प्रक्षेपण कर अंतरिक्ष के क्षेत्र में लंबी छलांग लगाकर नया इतिहास रच दिया। आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से प्रक्षेपित 49.13 मीटर लंबा यह रॉकेट 1,982 किलोग्राम वजनी संचार उपग्रह जीसेट-14 को उसकी वांछित कक्षा में स्थापित करने में कामयाब रहा।  365 करोड़ रुपये की लागत वाले रॉकेट जीएसएलवी डी-5 के इस सफल प्रक्षेपण के साथ ही भारत विश्व का ऐसा छठा देश बन गया, जिसके पास अपना देसी क्रायोजेनिक इंजन है। अमेरिका, रूस, जापान, चीन और फ्रांस के पास पहले से ही यह तकनीक है। क्रायोजेनिक इंजन तकनीक से लैस चुनिंदा राष्ट्रों के क्लब में शामिल होने के बाद भारत को अपने उपग्रहों के प्रक्षेपण के लिए किसी अन्य देश पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा। इतना ही नहीं अब वह दूसरे देशों के उपग्रहों का प्रक्षेपण कर विदेशी मुद्रा अर्जित करने की स्थिति में भी आ गया है।
तीन नाकामियों के बाद देसी क्रायोजेनिक इंजन के साथ 414.75 टन वजनी जीएसएलवी डी-5 रॉकेट के सफल प्रक्षेपण से भारतीय वैज्ञानिकों में खुशी की लहर दौड़ गयी . प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इस उपलब्धि पर इसरो के वैज्ञानिकों को बधाई दी है।वाकई में ये एक बड़ी कामयाबी है क्योंकि  इस मिशन के लिए जैसे मानक तय किए गए थे, उस पर भारतीय क्रायोजेनिक इंजन सौ फीसद खरा उतरते हुए जीसेट-14 को सफलतापूर्वक स्थापित कर दिया । अभी तक भारत दूसरे देशों की मदत से अपने 3.5 टन के संचार उपग्रह के प्रक्षेपण के लिए 500 करोड़ की फीस चुकाया करता था । जबकि जीएसएलवी यह काम 220 करोड़ में करेगा। जीसेट-14 के प्रक्षेपण पर 145 करोड़ का खर्च आया है। क्रायोजेनिक इंजन विकसित करने में बीस वर्षो की मेहनत रंग लाई है । भारत के लिए यह ऐतिहासिक दिन है।
जीएसएलवी प्रक्षेपण की चुनौती
दैनिक जागरण 
देसी क्रायोजेनिक इंजन के माध्यम से जीएसएलवी का प्रक्षेपण इसरो के लिए 2001 से ही एक गंभीर चुनौती बना हुआ था। रविवार को जो प्रक्षेपण हुआ, वह पिछले वर्ष 19 अगस्त को ही होना तय था। लेकिन ईधन लीक होने के कारण इसके प्रक्षेपण को आखिरी समय में स्थगित कर दिया गया। रॉकेट को व्हीकल असेंबली बिल्डिंग ले जाकर इसकी कमी दुरुस्त की गई। रविवार के प्रक्षेपण के साथ जीएसएलवी की यह आठवीं उड़ान थी। इसके पूर्व के सात में से तीन मिशन में इसरो को असफलता ही हाथ लगी थी। वैसे क्रायोजेनिक इंजन के साथ जीएसएलवी का यह दूसरा ही प्रक्षेपण था। इसमें उसे कामयाबी मिली।
असल में जीएसएलवी में प्रयुक्त होने वाला  द्रव्य ईंधन इंजन में बहुत कम तापमान पर भरा जाता है, इसलिए ऐसे इंजन क्रायोजेनिक रॉकेट इंजन कहलाते हैं। इस तरह के रॉकेट इंजन में अत्यधिक ठंडी और द्रवीकृत गैसों को ईंधन और ऑक्सीकारक के रूप में प्रयोग किया जाता है। इस इंजन में हाइड्रोजन और ईंधन क्रमश ईंधन और ऑक्सीकारक का कार्य करते हैं। ठोस ईंधन की अपेक्षा यह कई गुना शक्तिशाली सिद्ध होते हैं और रॉकेट को बूस्ट देते हैं। विशेषकर लंबी दूरी और भारी रॉकेटों के लिए यह तकनीक आवश्यक होती है।
क्रायोजेनिक इंजन के थ्रस्ट में तापमान बहुत ऊंचा (2000 डिग्री सेल्सियस से अधिक) होता है। अत ऐसे में सर्वाधिक प्राथमिक कार्य अत्यंत विपरीत तापमानों पर इंजन व्यवस्था बनाए रखने की क्षमता अर्जित करना होता है। क्रायोजेनिक इंजनों में -253 डिग्री सेल्सियस से लेकर 2000 डिग्री सेल्सियस तक का उतार-चढ़ाव होता है, इसलिए थ्रस्ट चैंबरों, टर्बाइनों और ईंधन के सिलेंडरों के लिए कुछ विशेष प्रकार की मिश्र-धातु की आवश्यकता होती है।  फिलहाल भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने बहुत कम तापमान को आसानी से झेल सकने वाली मिश्रधातु विकसित कर ली है।
अन्य द्रव्य प्रणोदकों की तुलना में क्रायोजेनिक द्रव्य प्रणोदकों का प्रयोग कठिन होता है। इसकी मुख्य कठिनाई यह है कि ये बहुत जल्दी वाष्प बन जाते हैं। इन्हें अन्य द्रव प्रणोदकों की तरह रॉकेट खंडों में नहीं भरा जा सकता। क्रायोजेनिक इंजन के टरबाइन और पंप जो ईंधन और ऑक्सीकारक दोनों को दहन कक्ष में पहुंचाते हैं, को भी खास किस्म के मिश्रधातु से बनाया जाता है।, द्रव हाइड्रोजन और द्रव ऑक्सीजन को दहन कक्ष तक पहुंचाने में जरा सी भी गलती होने पर कई करोड़ रुपए की लागत से बना जीएसएलवी रॉकेट रास्ते में जल सकता है। इसके अलावा दहन के पूर्व गैसों (हाइड्रोजन और ऑक्सीजन) को सही अनुपात में मिश्रित करना, सही समय पर दहन प्रारंभ करना, उनके दबावों को नियंत्रित करना, पूरे तंत्र को गर्म होने से रोकना जरूरी है ।
जीएसएलवी ऐसा मल्टीस्टेज रॉकेट होता है जो दो टन से अधिक वजनी उपग्रह को पृथ्वी से 36000 किमी. की ऊंचाई पर भू स्थिर कक्षा में स्थापित कर देता है जो विषुवत वृत्त या भूमध्य रेखा के ऊपर होता है। ये अपना कार्य तीन चरण में पूरा करते हैं। इनके आखिरी यानी तीसरे चरण में सबसे अधिक बल की जरूरत पड़ती है। रॉकेट की यह जरूरत केवल क्रायोजेनिक इंजन ही पूरा कर सकते हैं। इसलिए बगैर क्रायोजेनिक इंजन के जीएसएलवी रॉकेट बनाया जा सकना मुश्किल होता है।  दो टन से अधिक वजनी उपग्रह ही हमारे लिए ज्यादा काम के होते हैं इसलिए दुनिया भर में छोड़े जाने वाले 50 प्रतिशत उपग्रह इसी वर्ग में आते हैं। जीएसएलवी रॉकेट इस भार वर्ग के दो तीन उपग्रहों को एक साथ अंतरिक्ष में ले जाकर 36000 किमी. की ऊंचाई पर भू-स्थिर कक्षा में स्थापित कर देता है। यही जीएसएलवी रॉकेट की प्रमुख विशेषता है।

देश का 23वां संचार उपग्रह है जीसेट-14
देसी क्रायोजेनिक इंजन के साथ सफलतापूर्वक प्रक्षेपित रॉकेट जीएसएलवी डी5 द्वारा वांछित कक्षा में स्थापित जीसेट-14 दरअसल भारत का 23वां भूस्थैतिक संचार उपग्रह है।
जीसैट-14 भारत के नौ ऑपरेशनल भूस्थिर उपग्रहों के समूह में शामिल होगा. इस मिशन का प्राथमिक उद्देश्य विस्तारित सी और केयू-बैंड ट्रांसपोंडरों की अंतर्कक्षा क्षमता को बढ़ाना और नये प्रयोगों के लिए मंच प्रदान करना है. यह कक्षा में पहले से ही मौजूद नौ संचार उपग्रहों के क्लब में शामिल हो जाएगा। जीसेट-14 को कक्षा में 74 डिग्री देशांतर पूर्व में इनसेट-3सी, इनसेट-4 सीआर और कल्पना-1 उपग्रहों के साथ स्थापित किया गया है। यह उपग्रह अपने साथ 12 संचार ट्रांसपांडर्स ले गया है जो इनसेट और जीसेट सिस्टम की क्षमता और बढ़ाने में मददगार होंगे।
जीएसएलवी के पूर्व अभियान
जीएसएलवी-एफ 06 ने 25 दिसंबर, 2010 को जीसैट-5पी का प्रक्षेपण किया जो असफल रहा।
जीएसएलवी-डी 3 ने 15 अप्रैल, 2010 को जीसैट-4 का प्रक्षेपण किया जो असफल रहा।
जीएसएलवी-एफ 04 ने 2 सितंबर, 2007 को इन्सेट-4 सीआर का सफल प्रक्षेपण किया गया।
जीएसएलवी-एफ02 ने 10 जुलाई, 2006 को इन्सेट-4 सी का प्रक्षेपण किया गया लेकिन यह असफल रहा।
जीएसएलवी-एफ 01 ने 20 सितंबर, 2004 को एडुसैट (जीसैट-3) का सफल प्रक्षेपण किया गया।
जीएसएलवी-डी 2 ने 8 मई, 2003 को जीसैट-2 का सफल प्रक्षेपण किया गया।
जीएसएलवी-डी 1 ने 18 अप्रैल, 2001 को जीसैट-1 का सफल प्रक्षेपण किया गया।

जीएसएलवी डी-5 मिशन के मकसद
इसरो के अनुसार जीएसएलवी डी-5 मिशन के दो मकसद रहे। पहला देसी क्रायोजेनिक इंजन का परीक्षण और दूसरा संचार उपग्रह को उसकी कक्षा में सफलतापूर्वक स्थापित करना था। दोनों ही मिशन में कामयाबी हाथ लगी। इसरो प्रमुख राधाकृष्णन के अनुसार, 'हम जीएसएलवी डी-5 के जरिये जीसेट-6,7ए और 9 का प्रक्षेपण करेंगे। हम इस रॉकेट का इस्तेमाल अपने दूसरे चंद्रयान मिशन और जीआइसेट की लांचिंग में भी करेंगे।' इसरो की इस कामयाबी पर विक्रम साराभाई स्पेस सेंटर के निदेशक एस रामाकृष्णन ने खुशी का इजहार करते हुए कहा कि 'इसरो में हम जीएसएलवी को शैतान बच्चा कहा करते थे, लेकिन आज वह नटखट बहुत ज्यादा आज्ञाकारी बालक बन गया है।'
जीएसएलवी का प्रक्षेपण इसरो के लिए बेहद अहम है क्योंकि दूर संचार उपग्रहों, मानव युक्त अंतरिक्ष अभियानों या दूसरा चंद्र मिशन जीएसएलवी के विकास के बिना संभव नहीं है। इस प्रक्षेपण में सफलता इसरो के लिए संभावनाओं के नए द्वार खोलने वाली है ..
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http://epaper.jagran.com/ePaperArticle/09-jan-2014-edition-National-page_9-5155-107859584-262.html

Saturday 4 January 2014

एड्स माफिया के चंगुल में देश

शशांक द्विवेदी 
 एड्स के नाम पर घोटाला
नवभारतटाइम्स(NBT)
संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूएनएड्स की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक भारत में एड्स के संक्रमण में 57 फीसद की कमी आई है। जबकि दुनियाभर के अधिक प्रभावित लगभग 25 देशों में एचआइवी के मामलों में 50 प्रतिशत तक कमी आई है। पिछले एक दशक ं में इससे मरने वालों की संख्या में भी भारी कमी देखी गई है। जिस तरह से एड्स के आंकड़ों के मामले में पिछले वर्षों में कुछ गैरसरकारी संगठनों ने विदेशी फंडिंग हासिल करने के लिए एड्स संक्रमित लोगों के आंकड़े बढ़ा-चढ़ाकर पेश किए, उसे देखते हुए किसी भी आंकड़े पर सहज विश्वास करना मुश्किल लगता है। लेकिन यह आंकड़ा संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी किया गया है, इसलिए इस पर विश्वास किया जा सकता है। कुछ लोग के लिए एड्स जानलेवा बीमारी हो सकती है लेकिन ज्यादातर लोग इसके नाम पर अपनी जेबे भर रहे है । 
कुछ साल पहले भाजपा नेता मुरली मनोहर जोशी ने संसद में कहा था कि ‘इन अवर कंट्री पीपल आर नाँट लिविंग विद एड्स , दे आर लिविंग आँन एड्स ‘अर्थात हमारे देश में लोग एड्स के साथ नहीं जी रहे हैं , बल्कि एड्स से अपनी रोजी-रोटी कमा रहें हैं । वाकई, आज देश एड्स माफिया के चंगुल में है । एड्स के नाम पर पैसे की बरसात हो रही है । एड्स को लेकर पूरी दुनिया में जितना शोर है उतने तो इसके मरीज भी नहीं है फिर भी दुनिया भर के स्वास्थ्य के एजेंडे में एड्स मुख्य मुद्दा बना हुआ है । और इसकी रोकथाम के लिए करांेडों डालर की धनराशि को पानी की तरह बहाया जा रहा है ।यही नहीं अब तो अधिकांश गैरसरकारी संगठन भी जन सेवा के अन्य कार्यक्रमों को छोड़कर एड्स नियत्रंण अभियानों को चलाने में रूचि दिखा रहे है। क्योंकि इसके लिए उनको आसानी से अनुदान मिल जाता है और इससे नाम और पैसा आराम से कमाया जा सकता है । कुछ विशेषज्ञों के अनुसार एड्स के हौवे की आड़ में कंडोम बनाने वाली कम्पनियाँ भारी मुनाफा कमाने के लिए ही इन अभियानों को हवा दे रही हैं । तभी तो एड्स से बचाव के लिए सुरक्षित यौन संबंधों की सलाह तो खूब दी जाती है, पर संयम रखने या व्यभिचार न करने की बात बिल्कुल नहीं की जाती है । यानि कि खूब यौनाचार करो पर कंडोम के साथ । 
पिछले दिनों एड्स से बचाने के लिए बनाने गए कॉन्डम वेंडिंग मशीन योजना में भी घोटाले की बात सामने आई। सीएजी ने सरकार के कॉन्डम वेंडिंग मशीनों पर किए गए खर्च पर सवाल करते हुए स्वास्थ्य मंत्रालय और नाको की खिंचाई की है। रिपोर्ट के अनुसार  सरकार ने एड्स जैसे संक्रमित रोग की रोकथाम के लिए देश भर में 22 हजार कॉन्डम वेंडिंग मशीनों लगाने के लिए 21 करोड़ रुपये खर्च किए, लेकिन इनमें से 10 हजार मशीनें गायब हैं और करीब 1100 मशीनें काम नहीं कर रही हैं। सीएजी की रिपोर्ट के अनुसार सरकार ने इस योजना के पहले चरण की प्रगति के बारे में जाने बिना ही दूसरे चरण के लिए पैसा जारी कर दिया । इस घपलेबाजी के बाद कैग ने नैशनल एड्स कंट्रोल ऑर्गनाइजेशन पर भी  सवाल खड़े किए है। दरअसल नाको ने 2005 में देश में एड्स की रोकथाम के लिए सार्वजनिक जगहों मसलन रेलवे स्टेशनों, रेड लाइट एरिया, बस स्टैंड ,विश्वविद्यालयों के आस पास ,बैंकों और डाकघरों आदि में ऐसी मशीनें लगाने का प्रस्ताव रखा था । । केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की मंजूरी मिलने पर इस योजना को शुरू कर दिया गया था । लेकिन अब इस योजना में बड़े पैमाने पर धाँधली सामने आयी है । 
दूसरी खतरनाक बीमारियों की उपेक्षा
हिमाचल दस्तक 
आज पूरी दुनिया में एड्स को लेकर जिस तरह का भय व्याप्त है और इसकी रोकथाम व उन्मूलन के लिए जिस तरह के जोरदार अभियान चलाये जा रहे हैं , उससे कैंसर, हार्टडिजीज, टी.बी. और डायबिटीज जैसी खतरनाक बीमारियां लगातार उपेक्षित हो रही हैं । और बेलगाम होकर लोगों पर अपना जानलेवा कहर बरपा रहीं है । पूरी दुनिया के आॅकडों की माने तो हर साल एड्स से मरने वालों की संख्या जहाँ हजारेां में होती है, वहीं दूसरी घातक बीमारियों की चपेट में आकर लाखों लोग अकाल ही मौत के मुंह में समा जाते हैं ।
देश में हर साल कैंसर के 7 से 9 लाख मामले सामने आते हैं और हर साल कैंसर के कारण चार लाख मौतें होती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन मानता है कि देश में एक साल में मलेरिया 16000 से अधिक लोगों की जान ले लेता है। भारत में विभिन्न रोगों से होने वाली मृत्य  के दस सबसे प्रमुख कारणों में एड्स नहीं है। लेकिन केंद्र सरकार के स्वास्थ्य बजट का सबसे बड़ा हिस्सा इसमें चला जाता है। 
एड्स पर सरकार और दुनियाँ मेहरबान
सरकार ने अगले पांच साल के लिए तैयार किए गए राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण कार्यक्रम-4 (एनएसीपी-4) के तहत कुल 11394 करोड़ रुपये खर्च करने की योजना बनाई गई है। जिसमें विदेशी संस्थानों से  2762 करोड़ रुपये  मिलेगें । इसके साथ ही भारत और विश्व बैंक ने एड्स नियंत्रण कार्यक्रम के लिए 255 मिलियन अमरीकी डॉलर के बराबर ऋण समझौते पर हस्ताक्षर किए । पिछले दिनों दिल्ल्ली में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने विश्व बैंक से सहायता प्राप्त राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण परियोजना भी प्रारंभ की।  उनके अनुसार एचआइवी से बचाव भारत सरकार की उच्च प्रथमिकता है। आर्थिक मामलों से संबंधित कैबिनेट समिति ने राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण परियोजना को मंजूरी दे दी है। इस परियोजना पर 2550 करोड़ रुपये की राशि खर्च होगी। भारत की 99.5 प्रतिशत से अधिक आबादी अब एचआइवी से मुक्त है।  फिर भी सरकार एड्स उन्मूलन और रोकथाम के नाम पर हजारों करोड़ के कार्यक्रम चला रही है जिसमें सरकारी और गैर सरकारी संस्थाएँ बड़े पैमाने पर वित्तीय धाँधली कर रहें है ।
इस वर्ष के इकोनॉमिक सर्वे पर नजर डालें तो यह बात साफ हो जाती है कि देश में जन स्वास्थ्य के क्षेत्र में जितना पैसा खर्च किया जाना चाहिए उतना या उससे ज्यादा सिर्फ एक बीमारी के लिए खर्च किया जा रहा है।
भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में सेक्स, कण्डोम, एड्स के बारे में बात करने पर आज भी लोग काफी असहज महसूस करते हैं । इस सम्बन्ध में टीवी पर अगर कोई विज्ञापन भी प्रसारित हेाता है तो देखने वाले चैनल बदल देते हैं । फिर प्रश्न उठता है कि एड्स निवारण के नाम पर जो करोड़ो का फंड आता हे वो जाता कहाॅं है ? क्योंकि न तो इसके ज्यादा मरीज हैं, और जो मरीज हैं भी उन्हें भी सुनिश्चित दवा और सहायता उपलब्ध नहीं कराई जाती । वित्तीय अनियमितता अपने चरम पर है । एड्स नियत्रंण कार्यक्रम सिर्फ नोट कमाने का जरिया बनकर रह गये है वहीं एड्स की कीमत पर अन्य बीमारियों के लिए सरकार समुचित फंड और सुविधायें उपलब्ध नहीं करा पा रही है । 
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