Thursday 24 October 2013

न्यू रिसर्च-पेड. की पत्तियों में सोने के कण!



भारत में सपने में दिखे सोने की खोज के लिए हो रही खुदाई में अब तक एक रत्ती सोना न मिला हो, लेकिन पेंड़ो  का ऐसा दावा गलत नहीं होता. खास पेड.ों की पत्तियां जमीन में दबे सोने या दूसरे खनिजों का सटीक सुराग देती हैं. कॉमनवेल्थ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च ऑर्गनाइजेशन के वैज्ञानिकों ने लंबे वक्त तक पश्‍चिमी ऑस्ट्रेलिया के एक इलाके का अध्ययन किया. कंगारुओं के लिए मशहूर इस इलाके से 18वीं शताब्दी के अंत में खूब सोना निकाला गया था. वैज्ञानिकों की टीम ने इस इलाके के 500 पेंड़ो  पर शोध किया. भू-रसायन विज्ञानी मेल लिनटेर्न कहते हैं कि रिसर्च टीम को उस इलाके के यूकेलिप्टस के पेंड़ो  की पत्तियों में सोने के कण मिले हैं. लिनटेर्न के मुताबिक, ‘यूकेलिप्टस हाइड्रॉलिक पम्प की तरह काम करता है, इसकी जडे. जमीन में बहुत ही गहराई तक जाती हैं और ऐसा पानी खींच लेती हैं जिसमें सोना भी है.’ पानी के साथ आये स्वर्ण कण शाखाओं के जरिये पत्तियों तक पहुंचते हैं. लिनटेर्न कहते हैं, ‘शायद सोना पेड. पौधों के लिए जहरीला होता है, इसी कारण यूकेलिप्टस का पेड. सोने की वजह से बीमार होनेवाली पत्तियां गिरा देता है.’ रिसर्च पेपर कॉमनवेल्थ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च ऑर्गनाइजेशन की पत्रिका नेचर कम्युनिकेशन में छपा है. (स्रोत : डीडब्ल्यू वर्ल्ड)

Friday 18 October 2013

विलक्षण प्रतिभा के धनी थे डॉ. सुब्रह्मण्यम् चंद्रशेखर

नोबेल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिक डॉ सुब्रह्मण्याम चंद्रशेखर की जयंती पर विशेष 
खगोल भौतिकी को नई दिशा दी 
न्यूट्रॉन तारे और ब्लैक होल के अस्तित्व बताया
देश में ब्रेन.ड्रेन के सबसे बड़े उदहारण
अपनी खोजों से न्यूट्रॉन तारे और ब्लैक होल के अस्तित्व का पता लगाकर नोबेल पुरस्कार विजेता प्रख्यात खगोल भौतिकीविद भारतीय मूल के वैज्ञानिक डॉ सुब्रह्मण्याम चंद्रशेखर ने पूरे विश्व को एक नई दिशा दी थी  । उनके शोध से ही ब्लैक होल के अस्तित्व की धारणा कायम हुई जिसे समकालीन खगोल विज्ञान की रीढ़ प्रस्थापना माना जाता है। महान वैज्ञानिक डॉ चंद्रशेखर  का जन्म 19 अक्तूबर, 1910 को लाहौर (तब के अविभाजित भारत और अब के पाकिस्तान में) में हुआ था। भौतिक शास्त्र पर उनके अध्ययन के लिए उन्हें विलियम ए. फाउलर के साथ संयुक्त रूप से सन् 1983 में भौतिकी का नोबेल पुरस्कार मिला ।
उनकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा मद्रास में हुई। 18 वर्ष की आयु में चंद्रशेखर का पहला शोध पत्र इंडियन जर्नल आफ फिजिक्स में प्रकाशित हुआ। मद्रास के प्रेसीडेंसी कॉलेज से स्नातक की उपाधि लेने तक उनके कई शोध पत्र प्रकाशित हो चुके थे। उनमें से एक प्रोसीडिंग्स ऑफ द रॉयल सोसाइटी में प्रकाशित हुआ था, जो इतनी कम उम्र वाले व्यक्ति के लिए गौरव की बात ।
दैनिक जागरण 
24 वर्ष की अल्पायु में सन् 1934 में ही उन्होंने तारे के गिरने और लुप्त होने की अपनी वैज्ञानिक जिज्ञासा सुलझा ली थी। कुछ ही समय बाद यानी 11 जनवरी, 1935 को लंदन की रॉयल एस्ट्रोनॉमिकल सोसाइटी की एक बैठक में उन्होंने अपना मौलिक शोध पत्र भी प्रस्तुत कर दिया था कि सफेद बौने तारे यानी व्हाइट ड्वार्फ तारे एक निश्चित द्रव्यमान यानी डेफिनेट मास प्राप्त करने के बाद अपने भार में और वृद्धि नहीं कर सकते। अंतत वे ब्लैक होल बन जाते हैं। उन्होंने बताया कि जिन तारों का द्रव्यमान आज सूर्य से 1.4 गुना होगा, वे अंतत सिकुड़ कर बहुत भारी हो जाएंगे। ऑक्सफोर्ड में उनके गुरु सर आर्थर एडिंगटन ने उनके इस शोध को प्रथम दृष्टि में स्वीकार नहीं किया और उनकी खिल्ली उड़ाई। पर वे हार मानने वाले नहीं थे। वे पुन शोध साधना में जुट गए और आखिरकार, इस दिशा में विश्व भर में किए जा रहे शोधों के फलस्वरूप उनकी खोज के ठीक पचास साल बाद 1983 में उनके सिद्धांत को मान्यता मिली। परिणामत भौतिकी के क्षेत्र में वर्ष 1983 का नोबेल पुरस्कार उन्हें तथा डॉ. विलियम फाऊलर को संयुक्त रूप से प्रदान किया गया।
27 वर्ष की आयु में ही चंद्रशेखर की खगोल भौतिकीविद के रूप में अच्छी धाक जम चुकी थी। खगोल भौतिकी के क्षेत्र में डॉ. चंद्रशेखर, चंद्रशेखर सीमा यानी चंद्रशेखर लिमिट के लिए बहुत प्रसिद्ध हैं। चंद्रशेखर ने पूर्णत गणितीय गणनाओं और समीकरणों के आधार पर चंद्रशेखर सीमा का विवेचन किया था और सभी खगोल वैज्ञानिकों ने पाया कि सभी श्वेत वामन तारों का द्रव्यमान चंद्रशेखर द्वारा निर्धारित सीमा में ही सीमित रहता है।
सन् 1935 के आरंभ में ही उन्होंने ब्लैक होल के बनने पर भी अपने मत प्रकट किए थे, लेकिन कुछ खगोल वैज्ञानिक उनके मत स्वीकारने को तैयार नहीं थे। यद्यपि अपनी खोजों के लिये डॉ. चंद्रशेखर को भारत में सम्मान तो बहुत मिला, पर 1930 में अपने अध्ययन के लिये भारत छोड़ने के बाद वे बाहर के ही होकर रह गए और लगनपूर्वक अपने अनुसंधान कार्य में जुट गए। चंद्रशेखर ने खगोल विज्ञान के क्षेत्र में तारों के वायुमंडल को समझने में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया और यह भी बताया कि एक आकाश गंगा में तारों में पदार्थ और गति का वितरण कैसे होता है। रोटेटिंग प्लूइड मास तथा आकाश के नीलेपन पर किया गया उनका शोध कार्य भी प्रसिद्ध है। डॉ. चंद्रशेखर विद्यार्थियों के प्रति भी समर्पित थे। 1957 में उनके दो विद्यार्थियों त्सुंग दाओ ली तथा चेन निंग येंग को भौतिकी के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
अपने अंतिम साक्षात्कार में उन्होंने कहा था, यद्यपि मैं नास्तिक हिंदू हूं पर तार्किक दृष्टि से जब देखता हूं, तो यह पाता हूं कि मानव की सबसे बड़ी और अद्भुत खोज ईश्वर है। अनेक पुरस्कारों और पदकों से सम्मानित डॉ. चंद्रशेखर का जीवन उपलब्धियों से भरपूर रहा। वे लगभग 20 वर्ष तक एस्ट्रोफिजिकल जर्नल के संपादक भी रहे। डॉ. चंद्रशेखर नोबेल पुरस्कार प्राप्त प्रथम भारतीय तथा एशियाई वैज्ञानिक सुप्रसिद्ध सर चंद्रशेखर वेंकट रामन के भतीजे थे। 
सन् 1969 में जब उन्हें भारत सरकार की ओर से पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया, तब तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने उन्हें पुरस्कार देते हुए कहा था, यह बड़े दुख की बात है कि हम चंद्रशेखर को अपने देश में नहीं रख सके। पर मैं आज भी नहीं कह सकती कि यदि वे भारत में रहते तो इतना बड़ा काम कर पाते।
कल्पतरु एक्सप्रेस 
लेकिन सच बात तो यह है कि चंद्रशेखर को भारत में ही रह कर शोध करने के लिए वो आधारभूत सुविधाएँ ही नहीं दी गई जिसकी वजह उन्हें भारत छोड़ कर जाना पड़ा । सरकारी स्तर  पर भी इस अद्भुत व्यक्ति को कोई सहायता नहीं दी गई । वे देश में ब्रेन.ड्रेन के सबसे बड़े उदहारण है  । अक्सर भारत से जाने वाला औसत विद्वान भी अमेरिका और यूरोप में जाकर प्रसिद्धि पाने लगता है। निश्चित ही हमारी व्यवस्था में ऐसा कोई दोष है, जिस कारण यहां योग्यता का सही मूल्यांकन नहीं होता। दरअसल, हम योग्यता को नहीं, बल्कि निष्ठा को महत्व देते हैं। योग्यता की बलि देने में जाति, संप्रदाय, भाई-भतीजावाद, विश्वविद्यालयों की गुटबाजी और सरकारी हस्तक्षेप की भूमिका रहती है।  लेकिन हमने भी उनकी उपेक्षा की ये बात देश को स्वीकार करनी ही पड़ेगी । कभी हमने यह खुलकर नहीं जताया कि वह भारतीय मूल के हैं और भारत में उनका स्वागत है। इससे बड़ी हमारी बदकिस्मती क्या हो सकती है कि हमने अपने देश के अंदर एक बड़े विद्वान को जगह नहीं दी और अपने खाते का एक नोबेल सम्मान भी खो दिया। लेकिन यह डॉ. चंद्रशेखर की खुशकिस्मती थी कि उन्हें उस जगह जाने का मौका मिला, जहां शोध और प्रयोगों के लिए काफी अवसर थे। डॉ. चंद्रशेखर की प्रतिभा का अमेरिका ने जो इस्तेमाल किया, उसे हम ब्रेन ड्रेन कहते हैं।
डॉ. चंद्रशेखर सेवानिवृत्त होने के बाद भी जीवन-पर्यंत अपने अनुसंधान कार्य में जुटे रहे। बीसवीं सदी के विश्व-विख्यात वैज्ञानिक तथा महान खगोल वैज्ञानिक डॉ. सुब्रह्मण्यम् चंद्रशेखर का 22 अगस्त, 1995 को 84 वर्ष की आयु में दिल का दौरा पड़ने से शिकागो में निधन हो गया। इस घटना से खगोल जगत ने एक युगांतकारी खगोल वैज्ञानिक खो दिया। यूं तो डॉ. चंद्रशेखर ने काफी लंबा तथा पर्याप्त जीवन जिया पर उनकी मृत्यु से भारत को अवश्य धक्का लगा है क्योंकि आज जब हमारे देश में जायंट मीटर वेव रेडियो टेलिस्कोप की स्थापना हो चुकी है, तब इस क्षेत्र में नवीनतम खोजें करने वाला वह वैज्ञानिक चल बसा जिसका उद्देश्य था भारत में भी अमेरिका जैसी संस्था सेटी (पृथ्वीतर नक्षत्र लोक में बौद्धिक जीवों की खोज) का गठन। आज जब डॉ. चंद्रशेखर हमारे बीच नहीं हैं, उनकी विलक्षण उपलब्धियों की धरोहर हमारे पास है जो भावी पीढ़ियों के खगोल वैज्ञानिकों के लिए प्रेरणा स्रोत बनी रहेगी।
दैनिक जागरण में आज 19/10/2013 को प्रकाशित
article link
http://epaper.jagran.com/epaperimages/19102013/delhi/18ned-pg8-0.pdf
http://epaper.jagran.com/ePaperArticle/19-oct-2013-edition-National-page_8-2240-100695680-262.html
http://www.kalptaruexpress.com/Details.aspx?id=29424&boxid=15114178


Thursday 17 October 2013

शेल गैस पर विशेष


शेल गैस तथा उसके उत्पादन के पर्यावरणीय पहलुओं को लेकर विवाद थमने का नाम नहीं ले रहे हैं. इस प्रकार के ऊर्जा संसाधन के विकास के प्रति यूरोप का दृष्टिकोण अत्यन्त ही संदिग्ध है. लेकिन अमेरिका में शेल गैस का उत्पादन शेल तेल की तरह ही काफी पहले से औद्योगिक मात्रा में किया जा रहा है.
नए 'शेल हाइड्रोकार्बनोंके उत्पादन की संभावित मात्रा की सटीक गणना नहीं की जा सकती है. अमेरिका अभी तक यह गणना नहीं कर सका है कि वहाँ इन हाइड्रोकार्बनों का अब तक कितना उत्पादन हो चुका है. लेकिन यह बात साफ़ है कि वहाँ हुए उत्पादन की मात्रा दुनिया के बाजार पर प्रभाव डालने के लिये पर्याप्त है.
इन सब परिवर्तनों का असर उस क्षेत्र पर कैसा पड़ेगा, जो अभी तक विश्व में हाइड्रोकार्बनों का सर्वप्रमुख भण्डार बना हुआ था, यानी मध्य पूर्व और फारस की खाड़ी के देशों पर? क्या इसके कारण इन क्षेत्रों का आर्थिक एवं राजनीतिक महत्त्व घट जाएगा?
यह प्रक्रिया शुरू हो चुकी है, ऐसा हमारे समीक्षक येवगेनी येर्मलाएव का मानना है:
शेल गैस का उत्पादन शुरू करने के बादसे अमेरिका ने मध्य पूर्व से तरलीकृत प्राकृतिक गैस का आयात कम कर दिया है. उदाहरण के तौर पर, कतार से. फलस्वरूप कतार को यूरोपीय बाजारों का रुख करना पड़ा और उन बाजारों में यूरोपीय शर्तों पर काम करने के लिये खुद को तैयार करना पड़ा. शेल तेल भी धीरे-धीरे एक महत्वपूर्ण कारक बनता जा रहा है. वैश्विक मांग में उल्लेखनीय वृद्धि की आशा न करते हुए सऊदी अरब ने अगले 30 वर्षों के लिये अपने तेल उद्योग की क्षमता में वृद्धि न करने की घोषणा की है. यह पूर्वानुमान मुख्यतः अमेरिका में शेल तेल के उत्पादन की वृद्धि को ध्यान में रख कर किये गए हैं.
यदि संक्षेप में कहा जाए तो शेल क्रांति के नाम से जानी जाने वाली प्रक्रिया से मध्यपूर्व अछूता नहीं रह सका है. बेशक, परंपरागत स्रोतों से उत्पादित तेल और गैस के उपभोक्ता पूरी तरह से उनका उपयोग बंद नहीं करेंगे. फिर भी इन स्रोतों के महत्त्व में आती कमी अभी से देखी जा सकती है.
हाल के दशकों में पश्चिम की मध्यपूर्व नीति मुख्य रूप से कीमती हाइड्रोकार्बन के भंडारों पर निरंकुश प्रभाव प्राप्त करने की रही है. इसके लिये पश्चिम इस क्षेत्र के कुलीन राजनीतिक वर्ग पर कड़ा नियंत्रण लगाने के प्रयास करता रहता है. इन कठोर उपायों में अब थोड़ी कमी आने की संभावना है. हालांकि स्वतंत्रता के यह नए आयाम क्षेत्र के लिए कुछ नए जोखिम भी पैदा कर सकते हैं. क्या इस बदलते परिवेश में क्षेत्र के राष्ट्रों, उदाहरण के तौर पर सऊदी अरब या कतार की राजनीतिक स्थिरता को बनाए रखने में पश्चिम वास्तव में रुचि रखेगा?
हमारे कार्यक्रम के विश्लेषक विक्टर नादेइन रायेव्स्की का इस विषय पर दृष्टिकोण बिलकुल अलग है. वह बताते हैं:
अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों की मध्य पूर्व नीति पर शेल क्रांति के क्रांतिकारी परिवर्तन पड़ने की उम्मीद नहीं करनी चाहिए. शेल क्रांति होने की सूरत में इन देशों की मध्यपूर्व के तेल और गैस पर निर्भरता कम हो जाएगी. लेकिन इस क्षेत्र के प्रति उनकी सामरिक दिलचस्पी यथापूर्व बनी रहेगी.
अमेरिका द्वारा मध्यपूर्व तेल और गैस के आयात में कमी के कारण एशिया में उनका निर्यात बढ़ गया है. चीन, भारत और एशिया के अन्य राष्ट्रों द्वारा मध्यपूर्व से तेल और गैस का आयात अमेरिका की शेल क्रान्ति के पहले ही बढ़ गया था. एशिया धीरे-धीरे पश्चिम की विश्व-कार्यशालाहोने की जगह लेता जा रहा है. लेकिन पश्चिम फिर भी दुनिया की प्रमुख राजनीतिक और सैन्य शक्ति बना हुआ है. अमेरिका किसी भी हाल में एशिया को दुनिया का नेतृत्त्व करने की पताका सौंपना नहीं चाहेगा और इस कारण वह मध्यपूर्व और फारस की खाड़ी पर अपना नियंत्रण बनाए रखना चाहेगा.
यह अभी स्पष्ट नहीं है कि इन इलाकों से तेल का निर्यात कहाँ होगा, पश्चिम के देशों को या पूर्व के. किसी भी हाल में पश्चिम इन अत्यन्त महत्वपूर्ण इलाकों में अपना प्रभाव बनाए रखना चाहेगा. हो सकता है अमेरिका कभी इस इलाके से निकल जाए जैसा कि कभी ब्रिटेन ने किया था. लेकिन अभी यह इलाका अमेरिका के लिये बहुत अहम है और वह इसपर अपना प्रभुत्व किसी भी कीमत पर बनाए रखेगा. इसके लिये वह दूसरों की मदद भी लेगा, जो लगता है कि उसने लेनी शुरू कर दी है.

Wednesday 16 October 2013

अब स्टार वार्स जैसी लाइटसेबर संभव

मुकुल व्यास।।

आपने फिल्म स्टार वार्स में जेडी योद्धा को लेजर की तलवार (लाइटसेबर) भांजते हुए देखा होगा। अब वैज्ञानिकों ने इस साइंस फिक्शन फिल्म की कल्पना को हकीकत में बदल दिया है, हालांकि उन्हें यह सफलता महज संयोग से मिली है। अमेरिका में हार्वर्ड युनिवर्सिटी की एक टीम ने प्रकाश कणों (फोटोन )को कुछ इस तरह से जोड़ा कि वे एक मॉलिक्यूल (अणु समूह) में तब्दील हो गए। इस मॉलिक्यूल ने जेडी की लाइटसेबर की तरह बर्ताव करना शुरू कर दिया। हार्वर्ड और एमआईटी के वैज्ञानिक दरअसल फोटोन के गुणों का अध्ययन कर रहे थे। फोटोन प्रकाश का बुनियादी कण है। यह विद्युत चुंबकीय विकिरण के अन्य सभी रूपों का भी बुनियादी हिस्सा है। इसी अध्ययन के दौरान वैज्ञानिक जुड़े हुए प्रकाश कणों का मॉलिक्यूल बनाने में सफल हो गए। उनके लिए यह कुछ विचित्र सी बात थी क्योंकि यह फोटोन के बारे में प्रचलित धारणा के एकदम विपरीत था। अभी तक यही माना जाता था कि फोटोन द्रव्यमान(मास) रहित होने के कारण एक-दूसरे के साथ इंटरएक्ट नहीं करते।

हार्वर्ड के वैज्ञानिकों का कहना है कि फोटोन को मॉलिक्यूल में बदलने की क्षमता निश्चित रूप से विज्ञान की सीमाओं को और आगे ले जाएगी। हार्वर्ड में फिजिक्स के प्रफेसर मिखाइल लुकिन के अनुसार उनकी टीम एक ऐसा माध्यम बनाने में कामयाब हो गई जहां प्रकाश कण इस तरह एक दूसरे के साथ इंटरएक्ट करने लगते हैं मानो उनके पास द्रव्यमान हो। इस तरह के इंटरएक्शन के बाद वे मॉलिक्यूल के रूप में जुड़ने लगे। लुकिन ने कहा कि इस उपलब्धि की तुलना साइंस फिक्शन की लाइटसेबर से करना उचित नहीं होगा। उन्होंने कहा कि फोटोन इंटरएक्ट करते हुए एक-दूसरे को धक्का देते हुए एक-दूसरे को मोड़ देते हैं। इन मॉलिक्यूल्स में देखी जाने वाली प्रक्रिया के पीछे जो फिजिक्स है वह ठीक वैसी ही है जिसे हम फिल्मों में देखते हैं। वैज्ञानिकों ने फोटोन को एक-दूसरे के साथ इंटरएक्ट करवाने के लिए रुबिडियम धातु के अणुओं को एक वैक्यूम चेम्बर में ठंडा किया। तापमान को इतना ठंडा रखा गया कि कण हलचल न कर सकें। जब फोटोन के दो अणुओं को रुबिडियम के अणुओं पर दागा गया तो वे उम्मीद के मुताबिक उसमें से नहीं गुजरे बल्कि दूसरे छोर से एक मॉलिक्यूल के रूप में बाहर आ गए।

नई खोज रोमांचक जरूर है लेकिन अभी वैज्ञानिक इसके भावी उपयोग के बारे में स्पष्ट तौर पर कुछ नहीं कह सकते। कुछ लोग नए किस्म के हथियारों में इसके इस्तेमाल की कल्पना कर सकते हैं लेकिन क्वांटम कंप्यूटिंग में फोटोन के मॉलिक्यूल्स के उपयोग की संभावना अधिक है क्योंकि यह टेक्नोलॉजी क्वांटम इन्फॉरमेशन के आदान-प्रदान के लिए फोटोन पर निर्भर है। क्वांटम कंप्यूटर बनाने के लिए रिसर्चरों को पहले एक ऐसा सिस्टम बनाना पड़ेगा जो क्वांटम इन्फॉरमेशन को संजो कर रख सके और क्वांटम लोजिक से उसकी प्रोसेसिंग कर सके। लेकिन क्वांटम सिस्टम तभी काम कर सकते हैं जब फोटोन एक-दूसरे के साथ इंटरएक्ट करें। अब हार्वर्ड के वैज्ञानिकों ने यह दिखा दिया है कि ऐसा करना संभव है लेकिन उपयोगी और व्यावहारिक क्वांटम स्विच बनाने से पहले वैज्ञानिकों को उसकी परफॉरमेन्स में सुधार करना पड़ेगा। लुकिन के अनुसार नई खोज का उपयोग एक दिन प्रकाश से क्रिस्टलों जैसी जटिल थ्री-डाइमेंशनल (त्रिआयामी) संरचनाएं बनाने के लिए भी हो सकता है। उनका कहना है कि यह पदार्थ की नई अवस्था है। फोटोन के मॉलिक्यूल्स के गुणों का गहन अध्ययन करते हुए ही हमें इसकी भावी एप्लीकेशन के बारे में पता चलेगा। यदि आप जेडी योद्धा की तरह लाइटसेबर घुमाने का सपना देख रहे हैं तो भूल जाइए। फिलहाल वैज्ञानिक ऐसी कोई करिश्माई चीज आपके हाथों में थमाने के मूड में नहीं हैं। 

Monday 14 October 2013

गॉड पार्टिकल, नोबेल के बाद

चंद्रभूषण।।

पिछले साल जुलाई में गॉड पार्टिकल खोज लिए जाने का इतना हल्ला मचा और अब इसकी स्थापना देने वाले हिग्स और एंग्लर्ट को नोबेल दे दिया गया है। उस समय इस बारे में कई विद्वत्तापूर्ण वैज्ञानिक, दार्शनिक और आध्यात्मिक लेख पढ़ने को मिले थे। लेकिन कम ही लोगों के पल्ले पड़ा कि यह क्या चीज है और दुनिया की बारीकियां समझने में इससे क्या मदद मिलने वाली है। स्थिति आज भी बहुत स्पष्ट नहीं है- सिवाय इसके कि खोज सौ टंच सही थी। नोबेल समिति की तरफ से जारी प्राइज साइटेशन में वही बातें दोहराई गई हैं। वही दृष्टांत कि बर्फबारी के इलाके में स्केट्स पहनने वाला सर्र से निकल जाता है, बूट पहनने वाले के लिए आगे बढ़ना मुश्किल होता है, जबकि चिड़िया को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि इलाके में कितनी बर्फ पड़ी है। इस दृष्टांत में हिग्स फील्ड की उपमा बर्फबारी वाले इलाके से दी जाती है, जिससे गुजरकर अलग-अलग मूल कण अलग-अलग द्रव्यमान हासिल करते हैं।
आम आदमी के लिए क्वांटम मेकेनिक्स से जुड़ी बातों को समझने की एक सीमा है। भौतकीविद इसके लिए जिन दृष्टांतों का इस्तेमाल करते हैं उनसे बातें साफ होने के बजाय अक्सर और उलझ जाती हैं। छठीं-सातवीं क्लास में बच्चों को विज्ञान का एक बुनियादी नियम पढ़ाया जाता है कि पदार्थ को बिल्कुल जड़ से न तो बनाया जा सकता है और न नष्ट किया जा सकता है। सिर्फ उसकी शक्ल और गुणधर्म बदलते रहते हैं। थोड़ा उम्रदार होने पर उनके सामने आइंस्टाइन के बहुचर्चित समीकरण E=mc2 का जिक्र आता है, जो पदार्थ के ऊर्जा में बदलने का समीकरण है और जिसके जरिये एटम बम से लेकर सितारों तक की ऊर्जा का आकलन किया जाता है। यहां भी पदार्थ सिर्फ शक्ल बदलता है, न बनता है न नष्ट होता है। लेकिन गॉड पार्टिकल के मामले में स्थिति दूसरी है।
पदार्थ या मैटर की जो भी परिभाषा दी जाती है, उसमें द्रव्यमान या मास एक बुनियादी तत्व होता है। आपका वजन धरती पर 72 किलो है तो चांद पर 12 किलो निकलेगा। लेकिन जहां तक सवाल आपके द्रव्यमान का है तो ब्रह्मांड के आखिरी छोर तक यह ज्यों का त्यों रहेगा। हिग्स बोसॉन को गॉड पार्टिकल जैसा अवैज्ञानिक नाम इसलिए दिया गया क्योंकि इसकी धारणा ही ऐसी थी कि यह मासलेस चीजों को मास देता है। पदार्थ के सूक्ष्मतम रूप को मूल कण या फंडामेंटल पार्टिकल्स कहते हैं। इनमें से कुछ में द्रव्यमान होता है, कुछ में नहीं होता। मसलन, रोशनी की सबसे छोटी इकाई फोटॉन मासलेस है, जबकि बिजली की सबसे छोटी इकाई इलेक्ट्रॉन में मास होता है। ऐसा बुनियादी फर्क प्रकृति दो मूल कणों के बीच क्यों करती है, इस गुत्थी को सुलझाने की कोशिश में ही हिग्स फील्ड की धारणा सामने आई थी।
एक सर्वव्यापी अदृश्य फील्ड, जो कुछ कणों को द्रव्यमान देती है, कुछ को नहीं देती। जैसे चुंबकीय क्षेत्र लोहे की छीलन को एक खास पैटर्न में बिखेरता है, जबकि लकड़ी की छीलन को ज्यों का त्यों छोड़ देता है। हिग्स कण, जिसे नोबल लॉरिएट ल्योन एम. लीडरमान ने 1993 में आई अपनी किताब में गॉड पार्टिकल का बिकाऊ नाम दिया, इसी हिग्स फील्ड का प्रतिनिधि रूप है। जैसे समुद्र की प्रतिनिधि उसकी लहर हुआ करती है। लेकिन यह क्या गड़बड़झाला है? हमारे इर्दगिर्द की सारी चीजें- चाहे वह खिड़की से आ रही रोशनी में नाचता धूल का एक कण हो, या पेड़ पर गाता हुआ एक पंछी, या हजारों प्रकाश वर्ष दूर कोई ब्लैक होल जो पृथ्वी का खरबों गुना भारी होने के बावजूद किसी को दिखता नहीं- अपने होने की सबसे जरूरी शर्त, अपना द्रव्यमान एक ऐसी चीज से हासिल करती हैं, जिसे हम अब तक जानते भी नहीं थे? ध्यान रहे, खुद हिग्स भी अपनी प्रस्थापना को ऐसा कोई अकाट्य सत्य मानकर नहीं चल रहे थे। वे तो अब से पचास साल पहले सिर्फ आधुनिक भौतिकी की एक सैद्धांतिक गुत्थी सुलझाने में जुटे थे। अपनी बात कहने का कोई प्रायोगिक आधार उनके पास नहीं था। गुत्थी वही कि क्वांटम मेकेनिक्स में पदार्थ के बाकी गुणों का हिसाब था, लेकिन द्रव्यमान के लिए कोई गुंजाइश नहीं निकल रही थी। अलग-अलग ढंग से इस समस्या पर काम कर रहे कुल छह वैज्ञानिकों ने राय दी कि ऊर्जा के बहुत ऊंचे स्तर पर कोई ऐसी फील्ड काम करती होगी, जिसने इलेक्ट्रॉन, क्वार्क, और डब्लू व जेड बोसॉन को मास दिया, जबकि ग्लूऑन और फोटॉन को मासलेस छोड़ दिया।

यहां वे ऊर्जा के इतने ऊंचे स्तर की बात कर रहे थे, जो अभी सृष्टि में कहीं नहीं है। ब्रह्मांड के जन्मकाल, बिग बैंग के कुछ सेकंड बाद की बात, जिससे काफी निचले स्तर की ऊर्जा यूरोप में 9 अरब डॉलर लगाकर बनाई गई दुनिया की सबसे बड़ी मशीन से पिछले साल जून में पैदा की गई, और जहां पहली बार हिग्स बोसॉन का अंदाजा देने वाला कुछ घटित हुआ। पिछले सौ वर्षों में संसार की सबसे बुनियादी सचाइयां भौतिकी से ही निकल रही हैं। आइंस्टाइन की थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी जैसी ही सोच की धुरी बदलने वाली भूमिका आने वाले दिनों में हिग्स पार्टिकल निभा सकता है, इसका एहतराम नोबेल समिति की ओर से कर दिया गया है। धीरज के साथ इसके बाकी रहस्य खुलने का इंतजार करें।(नवभारतटाइम्स से साभार )

Tuesday 8 October 2013

कोशिकाओं के ट्रांसपोर्ट सिस्टम पर रिसर्च के लिए नोबेल पुरस्कार

चिकित्सा जगत में एक नए युग की शुरुआत
शशांक द्विवेदी 
कोशिकाओं के ट्रांसपोर्ट सिस्टम पर शोध 
दबंग दुनियाँ 
पिछले दिनों मानव शरीर की सबसे छोटी इकाई कोशिकाओं (सेल्स) के ट्रांसपोर्ट सिस्टम के प्रबंधन को विस्तार पूर्वक बताने और इस विषय में गए उल्लेखनीय शोध  के लिए जेम्स रौथमैन और रैंडी सैकमैन की अमेरिकी जोड़ी और जर्मनी में जन्मे साइंटिस्ट थॉमस सुडौफ को चिकित्सा के क्षेत्र में साल 2013 के  नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया । अमेरिकी विश्वविद्यालयों में कार्यरत ये तीनों वैज्ञानिक 12.5 लाख डॉलर (करीब 7.5 करोड़ रुपये) का पुरस्कार साझा करेंगे।
इन तीनों वैज्ञानिकों ने सेल्स के प्रमुख ट्रांसपोर्ट सिस्टम वेसिकल ट्रैफिक के मैकेनिजम को समझाया है। इन्होने बताया कि हर कोशिका मॉल्यीक्यूल्स प्रोड्यूस करती है। कोशिकाओं द्वारा तैयार मॉल्यीक्यूल्स छोटे-छोटे पैकेजों में शरीर में ट्रांसपोर्ट होते हैं, जिन्हें वेसिकल्स कहते हैं। ये पैकेज सही जगह पर सही वक्त पर किस तरह डिलीवर होते हैं, इसी मैकेनिजम का पता इन तीनों वैज्ञानिकों ने लगाया है। उदाहरण के तौर पर कोशिकाओं द्वारा इंसुलीन तैयार करने के बाद जब इसे ब्लड में रिलीज किया जाता है तो एक नर्व सेल से दूसरे नर्व सेल को केमिकल सिग्नल्स भेजे जाते हैं। इसी प्रक्रिया को समझने में इन वैज्ञानिकों ने मदद की है। इन वैज्ञानिकों की इस खोज से कई न्यूरोलॉजिकल बीमारियों के अलावा डायबीटीज जैसी बीमारियों के खिलाफ चल रहे अनुसंधान कार्य में भी मदद मिलेगी।
जर्मन वैज्ञानिक थॉमस सुडौफ की दिलचस्पी थी कि दिमाग में जो कोशिकाएं होती हैं, वे आपस में बातें कैसे करती हैं। और सब मिलकर इन बातों का एक साझा मतलब कैसे निकालते हैं। अमेरिकन वैज्ञानिक जेम्स रौथमैन ने पता लगाया की  शरीर की बेसिक इकाई कोशिका अपना ट्रांसपोर्ट सिस्टम कैसे चलाती हैं। और इस ट्रांसपोर्ट सिस्टम के मुख्य तत्व कौन से हैं।  जबकि अमेरिकन वैज्ञानिक  रैंडी सैकमैन ने पता लगाया कि कोशिकाएं अपने ट्रांसपोर्ट सिस्टम को संगठित ढंग से चलाने के लिए क्या तौर तरीके अपनाती हैं।
सुडौफ, रैंडी और रॉथमैन ने मिलकर काम किया. इसके शोध के लिए यीस्ट के मॉडल को अपनाया गया । यीस्ट एक किस्म की फफूंद होती है, जिसका इस्तेमाल एक केमिकल प्रोसेस फरमेनटेशन में होता है । फफूंद किसी भी नए विकास का सूक्ष्य अध्ययन माना जा सकता है। शराब को तैयार करने के लिए मूल तत्व वस्तुओं को सड़ाकर उसमें फफूंद पैदा करने के बाद ही शराब निर्मित की जा सकती है। तीनों वैज्ञानिकों ने फफूंद के सेल्स का लगातार सूक्ष्म और गहनता से अध्ययन किया और उससे जो निष्कर्ष मिलें हैं उसके बाद यह माना जा सकता है कि हम लाखों वर्ष पुराने लुप्त ज्ञान को प्राप्त करने की स्थिति में आ गए हैं।
कोशिका सजीवों के शरीर की रचनात्मक और क्रियात्मक इकाई है और प्राय स्वत जनन की सामर्थ्य रखती है। यह विभिन्न पदार्थों का वह छोटे-से-छोटा संगठित रुप है जिसमें वे सभी क्रियाएँ होती हैं जिन्हें सामूहिक रूप से हम जीवन कहतें हैं। जिस तरह किसी भवन के निर्माण के लिए ईटों का प्रयोग किया जाता है। उसी तरह से सजीव जगत के सभी जीव-जन्तु कोशिकाओं से बने होते हैं भवन में इंटों की  सरंचना काफी सरल होती है लेकिन किसी भी जीव में कोशिकाओं की सरंचना अधिक जटिल होती है। मनुष्य तथा दूसरे बड़े जीव जन्तुओं का शरीर कई खरबों कोशिकाओं से मिलकर बना होता हैद्य कोशिका जीवन का आधार है दुसरे शब्दों में कहे तो हर कोशिका जीवन देने में सक्षम है। आज कोशिका विज्ञान , स्टेम सेल की वजह से पूरे विश्व में चिकित्सा के क्षेत्र में क्रांति आ गयी है .इसकी मदत से तमाम असाध्य रोगों का इलाज होने के साथ साथ अंगों का प्रत्यारोपण भी हो रहा है ।कोशिका के विभिन्न पहलुओं पर शोध लगातार चल रहा है जिससे मानव सभ्यता में बड़े बदलाव के आसार है ।
दैनिक जागरण 
स्टेम सेल के बाद कोशिकाओं के विकास, उनके बीच संवाद तथा जीवन को लेकर काफी रिसर्च हुई है। इस रिसर्च के बाद चिकित्सा जगत में काफी परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं। स्टेम सेल के माध्यम से कोशिकाओं के पुनर्निर्माण का कार्य प्रायोगिक तौर पर सारे विश्व में बड़े पैमाने पर हुआ। इसके सकारात्मक परिणाम भी चिकित्सकों तथा मरीजों को प्राप्त हुए हैं। इस बार इन तीनों वैज्ञानिकों ने संयुक्त रूप से कोशिकाओं के विकास तथा शरीर में उनके परिवहन को लेकर गहन अध्ययन किया इसमें वह सफल रहे, जिससे चिकित्सा जगत में एक नए युग की शुरुआत हो गई है। कुछ समय पहले ही ये साबित हो गया था कि कैसे एक मच्योर सेल यानी एक परिपक्व कोशिका महज त्वचा, मस्तिष्क या शरीर के किसी अंग विशेष के लिए ही काम नहीं करती, बल्कि इसे फिर से स्टेम सेल की तरह समर्थ बनाया जा सकता है। इससे यह शरीर के किसी दूसरे हिस्से में भी काम आ सकता है। इन तीनों वैज्ञानिकों की खोज ने पूरी दुनियाँ को बताया कि कोशिकाएं आपस में किस तरह से संवाद करती हैं और इस शानदार काम के लिए ही इन वैज्ञानिकों को फिजियोलॉजी की फील्ड में नोबेल प्राइज दिया गया है । नए स्टेम सेल के बनने का तरीका सामने लाने और मच्योर सेल को फिर उसी रूप में वापस ले आने से चिकित्सा के क्षेत्र में जबर्दस्त बदलाव आया है।लेकिन अब कोशिकाओं के परिवहन के विषय में नई जानकारी और शोध आने से चिकित्सा के क्षेत्र में पूरी दुनियाँ को बहुत फायदा होगा ।

नोबेल पाने वाले इन तीनों वैज्ञानिकों ने कोशिकाओं के अंदर संचरण के एकदम सही समय और सही स्थान पर संपन्न होने के लिए उत्तरदायी आणविक सिद्धांत का पता लगा लिया है और मानव कोशिकाओं में प्रमुख संचरण प्रणाली को विनियमित करने वाले उपकरण को विकसित करने में भी अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है । कोशिकाओं के परिवर्तन प्रणाली तथा उनकी गतिविधियों का उपयोग अब एक सेल से दूसरे सेल को नियंत्रित करने के लिए भी किया जा सकेगा। 1970 में पहली बार इस खोज का प्रारंभिक परिणाम सामने आया था। 40 वर्षों के निरंतर शोध के बाद अब यह कहा जा सकता है कि वर्तमान शोध डॉक्टरों, वैज्ञानिकों ने अब सेल से जुड़े रहस्यों तक पहुंचने की सफलता जगत में मनचाहे सेल्स का निर्माण कर उनसे शारीरिक संरचना से जुड़ी सभी चीजों का निर्माण, आकार, प्रकार तथा बीमारियों से निपटने में हमारा चिकित्सा जगत सक्षम होगा। वास्तव में कोशिकाओं के जन्म से लेकर उनके आचार-विचार तथा परिवहन का अध्ययन कर निष्कर्षो को एक स्तर तक ले जाने वाले वैज्ञानिकों ने एक बड़ा काम किया है इससे चिकित्सा जगत में एक नए युग की शुरुआत होगी ।
article link



Thursday 3 October 2013

पर्यावरण की औद्योगिक संभावनाओं की तलाश

अनिल पी जोशी, पर्यावरणविद
दुनिया के विकास की बढ़ती गति का पीछा बिगड़ता पर्यावरण भी कर रहा है। यह भी नहीं भूलना चाहिये कि फिलहाल दुनिया का ऐसा कोई भी देश नही है जो आपदा और बिगड़ते पर्यावरण की मार न झेल रहा हो। पिछले दो वर्षों की ही जानकारी उठा ली जाए तो चाहे वे चीन हो या अमेरिका या फिर जापान सब ही ने किसी न किसी रूप में आपदाओं को झेला है। हाल ही में भारत के उत्तराखंड व अमेरिका के कोलरोडो ने अत्यधिकरूप में बाढ़ के प्रकोप को झेला है। इस सबके बावजूद हम अभी भी यह मानने को तैयार नहीं कि तमाम आपदाएं हमारी ही करतूतों का परिणाम हैं। यही वजह है कि विकास की वर्तमान शैली कभी बदलने वाली नहीं है।

इस समय हमारी सबसे बड़ी चुनौती पर्यावरण के उन विभिन्न घटको की वापसी है जिन्हें हम खो चुके हैं। इसका एक ही रास्ता दिखता है कि पारिस्थितिकी विकास को भी रोजगार का दर्जा दिया जाए। मसलन जगंल, पानी, मिट्टी, हवा को भी औद्योगिक उत्पाद की तरह ही देखें। जब मिनरल वाटर व रसायनिक खाद औद्योगिक उत्पाद हो सकते है तो प्राकृतिक घटकों के संरक्षण व उत्पादों को भी उद्योग समझने में ही हमारा भला होगा। मसलन जहां खेती नहीं होती वहां हम वन लगाकर, वनों को बनाए रखते हुए उसके उत्पादों के कारोबार को प्रोत्साहित किया जा सकता है। मनरेगा जैसी योजना पर्यावरण के हित में मील का पत्थर साबित हो सकती है।

वैसे भी मनरेगा गावों की सड़क, वन, पानी आदि की व्यवस्था में वर्तमान में भागीदारी कर रही है। इसी योजना के अंर्तगत वनीकरण जल, मिट्टी के संरक्षण आदि को लंबी अवधि के लिये जोड़ दिया जाए तो बेहतरी के आसार निश्चित रूप से बढ़ जाएंगे। इसी तरह मानसून का वो पानी जो हर साल बहकर चला जाता है उसे मनरेगा के जरिये जल खेती कर सरंक्षित किया जा सकता है। साथ ही इस जल के कारोबार का एक मॉडल भी तैयार हो सकता है। इसी तरह मिट्टी के सरक्षण आदि से भी यही किया जा सकता है और इससे रोजगार के नए तरह के अवसर भी पैदा होंगे। इसका महत्व इस तरह से भी समझा जा सकता है कि जब हम किसी वृक्ष का, जल का या मिट्टी का संरक्षण करते हैं तो एक तरह से राष्ट्र की संपत्ति का संरक्षण भी करते हैं, बल्कि उसमें वृद्धि ही करते हैं।

पर्यावरण के प्रति हमारी पिछली निष्ठुरताओं का बस अब यही एक रास्ता है। हम जब तक अपने पर्यावरण को रोजगार परक नहीं बनाएगें तब तक हमें सफलता नही मिलने वाली और कम से कम अब जब संसाधनो की कमी का आभास होने लगा है और बढ़ती बेरोजगारी भी हमें दुविधा में डाल रही है तो इन दोनो को जोड़कर हम रोजगार की नई जमीन तो बनाएंगे ही साथ ही देश के लिए नई संपदा का निर्माण भी करेंगे। आपदाओं से मुक्ति का रास्ता भी इसी से निकलेगा।

Tuesday 1 October 2013

नवभारत टाइम्स में लेख -अब खाली सीटों की इंजीनियरिंग

नवभारत टाइम्स के संपादकीय पेज पर मेरा लेख

article link
http://epaper.navbharattimes.com/details/1164-33731906.html

क्रायोजेनिक तकनीक में आत्मनिर्भरता जरूरी


राष्ट्रीय सहारा 
शशांक द्विवेदी 
हाल में ही भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने स्वदेश निर्मित क्रायोजनिक इंजन वाले जीएसएलवी डी 5 की प्रस्तावित लांचिंग एन मौके पर रोक दी । इसरो प्रमुख  के राधा कृष्णनन के अनुसार जीएसएलवी डी 5 में ईधन रिसाव होने के कारण प्रक्षेपण फिलहाल टाल दिया गया है। 49 मीटर लंबे और 414 टन वजनी जीएसएलवी प्रक्षेपण यान के तीसरे चरण यानी देश में ही विकसित क्रायोजेनिक अपर स्टेज में प्रणोदक भरने का काम चल रहा था तभी वैज्ञानिको को रॉकेट के दूसरे चरण में ईधन रिसाव के संकेत मिले। रिसाव का संकेत मिलने के बाद इसरो अधिकारियों ने उलटी गिनती रोकने का निर्णय किया। रिसाव की समस्या जिस वक्त सामने आई उस वक्त प्रक्षेपण में सिर्फ 74 मिनट का वक्त ही बचा था। जीएसएलवी डी 5 प्रक्षेपण यान के निर्माण पर लगभग 160 करोड़ रूपए तथा उपग्रह के निर्माण पर लगभग 45 करोड़ रूपए की लागत आई है।
अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में हम लगातार प्रगति कर रहे हैं, लेकिन अभी भी हम पूरी तरह से आत्मनिर्भर नहीं हो पाए हंै। क्रायोजेनिक तकनीकी के परिपे्रक्ष्य में पूर्ण सफलता नहीं मिलने के कारण भारत इस मामलें में आत्मनिर्भर नहीं हो पाया है, जबकि प्रयोगशाला स्तर पर क्रायोजेनिक इंजन का सफलता पूर्वक परीक्षण किया जा चुका है। लेकिन स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन की सहायता से लाॅंच किए गए प्रक्षेपण यान ‘जीएसएलवी‘ की असफलता के बाद इस पर सवालिया निशान लगा हुआ है।  इससे पहले 2010 में भी भारत के दो महत्वाकांक्षी अभियान तकनीकी और संचालन संबंधी दिक्कतों के कारण असफल हो गए थे।
इसरो अध्यक्ष के अनुसार वैज्ञानिक रिसाव के कारणों का विश्लेषण करेंगे और इसके बाद ही नई तिथि की घोषणा की जाएगी। प्रक्षेपण स्थगित किए जाने के बाद रॉकेट को फिर से श्रीहरिकोटा स्थित असेम्बलिंग बिल्डिंग में ले जाया जाएगा। जहां वैज्ञानिक आंकड़ों का विश्लेषण का खामी का पता लगाकर समस्या को दूर करेंगे और दोबारा इसका इंटीग्रेशन होगा। रॉकेट को असेम्बलिंग बिल्डिंग में लाए जाने से पहले क्रायोजेनिक स्टेज, दूसरे चरण में चार एल 40 मोटर ऑन स्टांपस में भरा गया तरल प्रणोदक वापस निकाल लिया गया।  वास्तव में  अप्रैल 2010 की तरह विफलता का जोखिम लेने के बजाय बेहतर था कि प्रक्षेपण को टाल दिया जाए और खामी दूर करने के बाद नए समय पर  प्रक्षेपित किया जाए । इसरो ने तीन चरणों वाले जीएसएलवी को नए सिरे से बनाया है और इसमें लगे क्रायोजेनिक इंजन का विकास पूर्णत स्वदेशी तकनीक से किया गया है। 
भारत के लिए ये पहला मौका नहीं है कि क्रायोजेनिक इंजन से लैस जीएसएलवी के जरिए उपग्रह का प्रक्षेपण हो रहा है। इससे पहले  2010 में जीएसएलवी-एफ 06 से जीसैट-5 उपग्रह को लॉन्च किया गया था मगर वो हवा में फट गया और महज 62 सेकंड में 175 करोड़ का अभियान हवा में स्वाहा हो गया।बाद में यह बंगाल की खाड़ी की ओर गिर गया। इस अभियान में भी तकनीकी खराबी आई थी जिसकी वजह से प्रक्षेपण की तारीख बदली गई थी लेकिन यह बाद में भी यह अभियान पूर्ण रूप से विफल रह उस समय भी देश की उम्मीदों को गहरा झटका लगा था ।
इसके पीछे असली समस्या क्रायोजनिक इंजन तकनीक के मामले में भारत पूरी तरह आत्मनिर्भर न होना है । असल में जीएसएलवी में प्रयुक्त होने वाला  द्रव्य ईंधन इंजन में बहुत कम तापमान पर भरा जाता है, इसलिए ऐसे इंजन क्रायोजेनिक रॉकेट इंजन कहलाते हैं। इस तरह के रॉकेट इंजन में अत्यधिक ठंडी और द्रवीकृत गैसों को ईंधन और ऑक्सीकारक के रूप में प्रयोग किया जाता है। इस इंजन में हाइड्रोजन और ईंधन क्रमश ईंधन और ऑक्सीकारक का कार्य करते हैं। ठोस ईंधन की अपेक्षा यह कई गुना शक्तिशाली सिद्ध होते हैं और रॉकेट को बूस्ट देते हैं। विशेषकर लंबी दूरी और भारी रॉकेटों के लिए यह तकनीक आवश्यक होती है।
क्रायोजेनिक इंजन के थ्रस्ट में तापमान बहुत ऊंचा (2000 डिग्री सेल्सियस से अधिक) होता है। अत ऐसे में सर्वाधिक प्राथमिक कार्य अत्यंत विपरीत तापमानों पर इंजन व्यवस्था बनाए रखने की क्षमता अर्जित करना होता है। क्रायोजेनिक इंजनों में -253 डिग्री सेल्सियस से लेकर 2000 डिग्री सेल्सियस तक का उतार-चढ़ाव होता है, इसलिए थ्रस्ट चैंबरों, टर्बाइनों और ईंधन के सिलेंडरों के लिए कुछ विशेष प्रकार की मिश्र-धातु की आवश्यकता होती है।  फिलहाल भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने बहुत कम तापमान को आसानी से झेल सकने वाली मिश्रधातु विकसित कर ली है।
अन्य द्रव्य प्रणोदकों की तुलना में क्रायोजेनिक द्रव्य प्रणोदकों का प्रयोग कठिन होता है। इसकी मुख्य कठिनाई यह है कि ये बहुत जल्दी वाष्प बन जाते हैं। इन्हें अन्य द्रव प्रणोदकों की तरह रॉकेट खंडों में नहीं भरा जा सकता। क्रायोजेनिक इंजन के टरबाइन और पंप जो ईंधन और ऑक्सीकारक दोनों को दहन कक्ष में पहुंचाते हैं, को भी खास किस्म के मिश्रधातु से बनाया जाता है।, द्रव हाइड्रोजन और द्रव ऑक्सीजन को दहन कक्ष तक पहुंचाने में जरा सी भी गलती होने पर कई करोड़ रुपए की लागत से बना जीएसएलवी रॉकेट रास्ते में जल सकता है। इसके अलावा दहन के पूर्व गैसों (हाइड्रोजन और ऑक्सीजन) को सही अनुपात में मिश्रित करना, सही समय पर दहन प्रारंभ करना, उनके दबावों को नियंत्रित करना, पूरे तंत्र को गर्म होने से रोकना जरूरी है ।
जनसंदेश टाइम्स
जीएसएलवी ऐसा मल्टीस्टेज रॉकेट होता है जो दो टन से अधिक वजनी उपग्रह को पृथ्वी से 36000 किमी. की ऊंचाई पर भू स्थिर कक्षा में स्थापित कर देता है जो विषुवत वृत्त या भूमध्य रेखा के ऊपर होता है। ये अपना कार्य तीन चरण में पूरा करते हैं। इनके आखिरी यानी तीसरे चरण में सबसे अधिक बल की जरूरत पड़ती है। रॉकेट की यह जरूरत केवल क्रायोजेनिक इंजन ही पूरा कर सकते हैं। इसलिए बगैर क्रायोजेनिक इंजन के जीएसएलवी रॉकेट बनाया जा सकना मुश्किल होता है।  दो टन से अधिक वजनी उपग्रह ही हमारे लिए ज्यादा काम के होते हैं इसलिए दुनिया भर में छोड़े जाने वाले 50 प्रतिशत उपग्रह इसी वर्ग में आते हैं। जीएसएलवी रॉकेट इस भार वर्ग के दो तीन उपग्रहों को एक साथ अंतरिक्ष में ले जाकर 36000 किमी. की ऊंचाई पर भू-स्थिर कक्षा में स्थापित कर देता है। यही जीएसएलवी रॉकेट की प्रमुख विशेषता है।
जीएसएलवी का प्रक्षेपण इसरो के लिए बेहद अहम है क्योंकि दूर संचार उपग्रहों, मानव युक्त अंतरिक्ष अभियानों या दूसरा चंद्र मिशन जीएसएलवी के विकास के बिना संभव नहीं है। इस प्रक्षेपण में सफलता इसरो के लिए संभावनाओं के नए द्वार खोलने वाली है लेकिन अब इसके लिए देश को थोड़ा और इंतजार करना पड़ेगा।
article link