Monday 26 August 2013

बढ़ेगी तोपखाने की ताकत

डॉ. लक्ष्मी शंकर यादव
भारतीय सेना के तोपखाने की ताकत बढ़ने का समय नजदीक आ गया है। अमेरिका अपनी तोपें भारत को बेचने के लिए तैयार है। दो अगस्त, 2013 को अमेरिकी रक्षा मंत्रालय ने होवित्जर किस्म की 145 तोपें भारत को बेचने के बारे में अमेरिकी संसद को सूचित किया है। अमेरिकी रक्षा मंत्रालय द्वारा कहा गया है कि भारत सरकार ने हल्के वजन वाली लेजर इनर्शियल आर्टिलरी प्वाइंटिंग सिस्टम ‘एलआइएनएपीएस’
वाली 145, एम-777 होवित्जर तोपों की खरीद एवं उनकी मरम्मत के लिए आवश्यक कलपुजरे, प्रशिक्षण के उपकरण एवं रखरखाव आदि के लिए अनुरोध किया है। इन तोपों की अनुमानित लागत साढ़े 88 करोड़ डॉलर है। एम-777 होवित्जर तोपों का सबसे पहले अफगानिस्तान युद्ध में प्रयोग किया गया। वहां इनके बेहतर परिणाम सामने आए। वर्तमान में अमेरिकी सेनाओं के अलावा इन तोपों का इस्तेमाल ऑस्ट्रेलिया और कनाडाई सेना द्वारा किया जा रहा है। सऊदी अरब ने भी इन तोपों की खरीद के लिए आर्डर दे रखा है। अमेरिका की रक्षा सुरक्षा सहयोग एजेंसी ‘डीएससीए’
द्वारा जारी एक बयान में कहा गया है कि यह प्रस्तावित बिक्री भारत-अमेरिका के बीच रणनीतिक संबंधों को मजबूत बनाने में मदद करेगी। यह बिक्री दक्षिण एशिया में अमेरिका के एक ऐसे सहयोगी देश (भारत) की सुरक्षा व्यवस्था को सुधारने में सहायता करेगी जो अपने यहां की राजनीतिक स्थिरता, शांति एवं आर्थिक प्रगति के प्रति समर्पित रहा है। रक्षा सुरक्षा सहयोग एजेंसी के अनुसार भारत अपने सैन्यबलों के आधुनिकीकरण और कठिन यौद्धिक परिस्थितियों में विशेष अभियान चलाने के लिए इन तोपों का इस्तेमाल करना चाहता है। तोपों की बिक्री के क्रियान्वयन के लिए अमेरिकी सरकार और अनुबंधकर्ता प्रतिनिधियों के आठ सदस्यीय दल को भारत की वार्षिक यात्रा की जरूरत होगी। यह दल दो साल तक भारत में तकनीकी सहयोग, प्रशिक्षण और परीक्षण के लिए रहेगा। भारतीय सेना एवं रक्षा मंत्रालय ने तोपखाने की ताकत बढ़ाने के लिए 11 मई, 2012 को अमेरिका से लगभग 3000 करोड़ रुपये की लागत से 145 अल्ट्रा लाइट हॉवित्जर तोपें खरीदने का फैसला किया था। रक्षा मंत्री एके एंटनी की अध्यक्षता में हुई सैन्य अधिग्रहण परिषद ‘डीएसी’
की बैठक में विदेशी सैन्य खरीद ‘एफएमएस’ मार्ग से 145 एम-777 हॉवित्जर तोपों तथा अन्य कई रक्षा उपकरणों की खरीद को हरी झंडी देने का निर्णय लिया गया था। इससे पहले इन तोपों को खरीदने की सिफारिश रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन के प्रमुख वीके सारस्वत की अध्यक्षता वाली उच्चस्तरीय समिति ने की थी। सैन्य अधिग्रहण परिषद की स्वीकृति के बाद इसे रक्षा मंत्रालय व संसद की सुरक्षा मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति ‘सीसीएस’ के पास मंजूरी के लिए भेजा गया। इनसे मंजूरी हासिल होने के बाद तोपों की खरीद का अंतिम निर्णय हुआ। एम-777 हॉवित्जर तोपें अमेरिका के बीएई सिस्टम द्वारा निर्मित हैं और भारत की जरूरतों के हिसाब से भरोसेमंद एवं अत्यंत उपयोगी हैं। इन तोपों को सरलता के साथ हवाई जहाज के द्वारा इधर-उधर लाया व ले जाया जा सकता है। इस कारण इन्हें पर्वतीय क्षेत्रों में भी तेजी से तैनात किया जा सकेगा। ये काफी अत्याधुनिक किस्म की तोपें हैं। भारतीय सेना की योजना के मुताबिक इन हॉवित्जर तोपों को लद्दाख तथा अरुणाचल प्रदेश के अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों में तैनात किया जाएगा। इनकी तैनाती के बाद ऊंचाई पर स्थित चौकियां युद्ध के लिए अधिक सक्षम हो जाएंगी। उत्तरी मोर्चे पर यही चौकियां युद्ध का मुख्य मैदान होंगी। इस तरह भारत की तोपखाना ताकत अत्यंत बढ़ जाएगी। इस तरह तकरीबन 27 वर्षो बाद हॉवित्जर तोपों की खरीद हो रही है। विदित हो कि वर्ष 1986 में बोफोर्स तोप सौदे के विवाद के बाद सेना के तोपखाना भंडार को किसी प्रकार की नई तोपें प्राप्त नहीं हुई हैं। उस समय बोफोर्स तोप सौदे में दलाली को लेकर बड़ा विवाद हुआ था। इस विलंब से सेना की तैयारियों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा था और भारतीय सेना का तोपखाना पूरी दनिया में इस्तेमाल हो रही आधुनिकतम तोपों से वंचित था। अब सेना 1970 के दशक वाली तोपों को हटाकर आधुनिक तकनीक वाली तोपों से लैस हो जाएगी। सेना पिछले लगभग 17 वर्षो से 155 मिलीमीटर और 52 कैलिबर की खींच कर ले जाई जा सकने वाली 400 तोपें, 145 बेहद हल्की तोपें तथा पहियों वाली खुद चलने में सक्षम 140 तोपें खरीदने की कोशिश कर रही थी। अब इनके प्राप्त होने की उम्मीद बढ़ गई है। चूंकि तोपों की खरीद में विलंब हो रहा था इसलिए देश में बोफोर्स जैसी 100 तोपें निर्मित करवाने का फैसला फरवरी 2012 में लिया गया था। सेना ने 155 मिमी की 100 तोपें खरीदने का आदेश आयुध कारखाना बोर्ड को जारी कर दिया है और इन तोपों के निर्माण को एक निश्चित समय में पूरा करने को कहा गया है। विदित हो कि जब बोफोर्स तोपों की खरीद की गई थी तभी से इनके उत्पादन की तकनीक भारत में आ गई थी। रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता हासिल करने का एक बड़ा कदम था। इन स्वदेशी तोपों का विकास जबलपुर के तोप कारखाने में किया जाएगा। इसके बाद इनका निर्माण कोलकाता स्थित कारखाने में किया जाएगा। सैन्य अधिग्रहण परिषद की इस मंजूरी के साथ ही तकरीबन 7000 करोड़ रुपये से अधिक की खरीद परियोजनाओं को स्वीकृति प्रदान कर दी गई थी। इसमें एल- 70 हवाई रक्षा तोपों के लिए 65 से अधिक की संख्या में रडारों की खरीद की मंजूरी भी है। इस सौदे में लगभग 3000 करोड़ रुपये की लागत आने की उम्मीद है। अन्य जिन परियोजनाओं को हरी झंडी प्रदान की गई है उनमें 300 करोड़ रुपये से अधिक की लागत के सिमुलेटर खरीदे जाएंगे जिनका उपयोग टी-90 टैंकों में किया जाएगा। तोपों की तरह टैंकों की निगहबानी बढ़ाने की तैयारी की जा रही है। सेना की पश्चिमी कमान में स्थानीय स्तर पर ऐसी तकनीक विकसित कर ली गई है जिससे टैंकों पर लगे विजुअल वीडियो डिस्प्ले ‘वीवीडी’ की जगह एलसीडी स्क्रीन लगाई जाएगी। सेना की इलेक्ट्रॉनिक एंड मैकेनिकल इंजीनियर कोर के इंजीनियरों ने पुरानी रुस की वीवीडी की जगह नई एलसीडी स्क्रीन लगाने में कामयाबी हासिल कर ली है। इस नई तकनीक से सेना रात में दुश्मनों की हरकतों पर नजर रख सकेगी। दूसरे, रूस से मंगाई जाने वाली 25 से 30 लाख की वीवीडी की जगह पांच हजार रुपये में यह एलसीडी उपलब्ध होगी। नई एलसीडी को रूस से खरीदे गए टी-90 टैंकों पर लगाया जाएगा। इससे सेना को एक नई ताकत मिल गई है क्योंकि इससे टैंको की मारक क्षमता में बढ़ोत्तरी होगी।


Sunday 25 August 2013

टीवी सिग्नलों से ऊर्जा की खोज

उर्जा के नए स्रोत 
कभी-कभी ऐसा होता है कि मोबाइल पर बात करते हुए बैटरी खत्म हो जाती है और आप उसे चार्ज करने की स्थिति में नहीं होते। वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के रिसर्चरों ने इस समस्या के समाधान के लिए एम्बियंट बैकस्कैटर टेक्नोलॉजी का विकास किया है। इस नई संचार टेक्नोलॉजी की मदद से वायरलैस उपकरण बैटरी के बगैर एक दूसरे के साथ संवाद कर सकते हैं। यह टेक्नोलॉजी उपकरणों में आपसी संवाद कायम करने के लिए टीवी और सेलुलर ट्रांसमिशन का सहारा लेती है। एम्बियंट बैकस्कैटर की तकनीक के प्रदर्शन के लिए यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने क्रेडिट कार्ड के आकार के बैटरी रहित उपकरण चुने जिन पर एंटिना लगे हुए थे। जब इन उपकरणों को कुछ दूरी पर रखा गया तो वे एक-दूसरे को संदेश भेजने लगे। दरअसल, इन उपकरणों ने हवा से ऊर्जा प्राप्त की थी। हवा में कई तरह के ट्रांसमिशन मौजूद रहते हैं जिनमे रेडियो तरंगें,वाईफाई और मोबाइल नेटवर्क शामिल हैं। एम्बियंट बैकस्कैटर टेक्नोलॉजी इन विभिन्न ट्रांसमिशनों का उपयोग करती है। प्रोटोटाइप उपकरण एंटिना की मदद से इन संकेतों को बीच में ही पकड़ कर एकदूसरे को परावर्तित करते रहते हैं।
वाशिंगटन यूनिवर्सिटी में कंप्यूटर साइंस के असिस्टेंट प्रोफेसर और इस अध्ययन के प्रमुख रिसर्चर श्याम गोगाकोटा का कहना है कि हम अपने इर्दगिर्द मौजूद वायरलैस सिग्नलों का इस्तेमाल संचार के माध्यम के अलावा ऊर्जा के स्नेत के रूप में भी कर सकते हैं। नई टेक्नोलोजी के विविध उपयोग हो सकते हैं। इनमे शरीर पर धारण योग्य अथवा वियरेबल कंप्यूटर, स्मार्ट होम और सेंसर नेटवर्क शामिल हैं। रोजमर्रा में काम में आने वाली वस्तुएं बैटरी रहित टैग के जरिए एकदूसरे से संवाद कर सकती हैं। मसलन, कोई भी व्यक्ति इस टेक्नोलॉजी की मदद से फटाफट अपनी चाबियों का गुच्छा या खोया हुआ पर्स खोज सकता है। रिसर्चरों को उम्मीद है कि नई टेक्नोलोजी से वस्तुओं को इंटरनेट जोड़ने में मदद मिलेगी। घर के माहौल को इंटरनेट जोड़ने का विचार काफी समय से चल रहा है, लेकिन इसमें अभी खास प्रगति नहीं हो पाई है क्योंकि प्रत्येक उपकरण के लिए उसका ऊर्जा स्नेत जुटाना थोड़ा मुश्किल काम है। रिसर्चरों के मुताबिक एकदूसरे से संवाद करने वाले संवेदी उपकरण पुल की संरचना में निर्मित किए जा सकते हैं। यदि कंक्रीट और स्टील के ढांचे में कोई गड़बड़ी या दरार नजर आती है तो संवेदी उपकरण तुरंत अलर्ट भेज देंगे। इस तरह दूसरे इंफ्रास्ट्रक्चर में टूट-फूट और अन्य गड़बड़ियों की पहचान करने में नई तकनीक बहुत उपयोगी हो सकती है। इन संरचनाओं में इस टेक्नोलोजी को बहुत कम लागत पर समाहित किया जा सकता है। इस टेक्नोलोजी का अन्य उपयोग सेंसर समाहित क्रेडिट कार्ड के रूप में हो सकता है। इस कार्ड का प्रयोग वायरलैस भुगतान के लिए किया जा सकता है। रिसर्चरों द्वारा आजमाए गए प्रोटोटाइप उपकरण घर के अंदर आधा मीटर की दूरी और घर के बाहर .8 मीटर की दूरी पर एक किलोबिट प्रति सेकेंड की रफ्तार से डेटा भेजने में सफल रहे। यह रफ्तार टेक्स्ट मैसेज भेजने के लिए काफी थी। इन उपकरणों का नेटवर्क पूरी तरह से काम करता रहा हालांकि सिग्नलों का निकटवर्ती स्नेत 10 किलोमीटर दूर था।

रिसर्चरों का कहना है कि इस तकनीक का उपयोग स्मार्टफोन जैसे उपकरणों में भी किया जा सकता है जो पूरी तरह से बैटरी पर निर्भर हैं। इन उपकरणों में नई टेक्नोलॉजी को कुछ इस तरह से समाहित किया जा सकता है कि इनकी बैटरियां खत्म होने के बाद भी ये उपकरण किसी टीवी सिग्नल से ऊर्जा प्राप्त कर टेक्स्ट मैसेज भेजने के काबिल बने रहेंगे। भवनों और कपड़ों के अंदर निर्मित सेंसरों का एक ऐसा नेटवर्क कायम किया जा सकता है जो ऊर्जा का साझा उपयोग करेगा। प्रत्येक उपकरण के लिए अलग से ऊर्जा उत्पन्न करने की जरूरत नहीं पड़ेगी।

Friday 23 August 2013

वैज्ञानिक अनुसंधान पर उदासीनता

भारत सरकार (प्रकाशन विभाग ) की "योजना" मैगज़ीन के फरवरी 2013 अंक में  मेरा लेख 
शशांक द्विवेदी 
कोलकाता में 100वें विज्ञान  कांग्रेस समारोह में देश के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने देश के वैज्ञानिकों से विज्ञान के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार पाने की दिशा में काम करने का आह्वान किया है। राष्ट्रपति का आह्वान एक सकारात्मक सन्देश है लेकिन देश में विज्ञान का मौजूदा बुनियादी ढाँचा ही बेहद कमजोर है । पिछले कई सालो से हर बार भारतीय विज्ञान कांग्रेस के अधिवेशन में सरकार के जिम्मेदार लोगों के  द्वारा इस तरह की बातें ,घोषणाएँ , आह्वान किया जाता रहा है लेकिन लेकिन बाद में वास्तविक धरातल पर वह क्रियान्वित नहीं हो पाता । यह सब हर बार सिर्फ रस्मी तौर पर ही होता आया है । जबकि यथार्थ के धरातल पर देश में वैज्ञानिक अनुसंधान और शोधो की दशा अत्यंत दयनीय है । अगर ध्यान से देखे तो तकनीक के मामले में हम सिर्फ पश्चिम की नकल करते है । आजादी के बाद भी आज तक ऐसा कोई बुनियादी ढांचा विकसित नहीं हो पाया जिससे देश में बड़े पैमाने पर अनुसंधान को प्रोत्साहित किया जा सके । इस बात का प्रमाण हमें अपने समाज में मिल जायेगा जहाँ अधिकाशं युवा शोध और अनुसंधान के क्षेत्र में नहीं जाना चाहते,अगर वो जाना भी चाहते है तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों में जहाँ उनको ऊँचा पैकेज मिलता है।.विदेशी कम्पनियों इस तरह से आपने लाभ के लिए युवाओं के दिमाग का इस्तेमाल करती  है . आज देश में यही तो हो रहा है कोई भी युवा आईआईटी, आईआईऍम में सिर्फ इसलिए जाना चाहता है जिससे उसको मोटा पैकेज मिले ,वो बड़ी कंपनियों में जा सके । सरकार के लिए ये सबसे बड़ा सवाल है कि इन संस्थानों से निकलने वाले अधिकांश ग्रेजुएट क्यों अनुसंधान और शोध की तरफ आकर्षित नहीं होते । जाहिर सी बात  इसकी सबसे बड़ी वजह आर्थिक सुरक्षा है,जो सरकार उपलब्ध करा नहीं सकती ।
देश में पढ़े हजारों उच्च शिक्षित काबिल वैज्ञानिक आज अपनी सेवाए विदेशो में दे रहे है ,उनके लिए जी जान से काम कर रहे है । ऐसा नहीं है कि इन लोगो को अपने देश से ,समाज से प्यार नहीं है बल्कि ये वो लोग है जिनको हमारा देश ,यहाँ की सरकारी मशीनरी लगभग नकार चुकि होती है । इन होनहार लोगो को सरकार अनुसंधान के लिए बुनियादी सुविधाए और आर्थिक सुरक्षा प्रदान करने में हमेशा नाकाम रहती है । डॉ हरगोविंद खुराना जैसे वैज्ञानिक को भी इस देश ने भुला दिया जिन्होंने विश्व को जीन के क्षेत्र में नयी दिशा दी । उनके जैसे व्यक्ति को भी हम अपने देश में काम नहीं दे सके ऐसे कई उदाहरण है जिन्होंने भारत के बाहर अपनी योग्यता और क्षमता का लोहा पूरे विश्व को मनवाया । ऐसे लोगो के युगांतकारी कामो के बाद ,प्रसिद्धि के बाद हम कहते है ये भारतीय मूल के है । लेकिन सच बात तो यह है कि अब उनकी सेवाए दूसरे देश ले रहे है ।
कभी दुनिया भर में होने वाले शोध कार्य में भारत का नौ फीसद योगदान था जो आज घटकर महज 2.3 फीसद रह गया है। सृजन के क्षेत्र में हमारी बढ़ती दरिद्रता का आलम क्या है इस पर भी एक नजर डालें। देश में इस्तेमाल की जाने वाली तकनीक (टेक्नोलॉजी) को लें तो तकरीबन पूरी टेक्नोलॉजी आयातित है। इनमें 50 फीसद तो बिना किसी बदलाव के ज्यों की त्यों इस्तेमाल होती है और 45 फीसद थोड़ा-बहुत हेर-फेर के साथ इस्तेमाल होती है। इस तरह विकसित तकनीक के लिए हमारी निर्भरता आयात पर है। कहा तो जा रहा है कि देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं है लेकिन ये प्रतिभा क्या केवल विदेशों में नौकरी या मजदूरी करने वाली हैं? दूसरे पहलू से भी इस बढ़ती दरिद्रता को देखने की जरूरत है। देश की जनसंख्या का मात्र 10 फीसद हिस्सा ही उच्च शिक्षा ले पाता है। इसके विपरीत जापान में 70 प्रतिशत, यूरोप में 50 कनाडा और अमेरिका में 80 फीसद लोग उच्च शिक्षा लेते हैं।
अमेरिका बुनियादी विज्ञान विषयों की प्रगति का पूरा ध्यान रखता है। उसकी नीति है कि वैज्ञानिक मजदूर तो वह भारत से लेगा, पर विज्ञान और टेक्नोलॉजी के ज्ञान पर कड़ा नियत्रंण रखेगा। चीन में भी शिक्षा का व्यावसायीकरण हुआ है, पर बुनियादी विज्ञान और टेक्नोलॉजी की प्रगति का उसने पूरा ध्यान रखा है। भारत को चीन से शिक्षा लेनी चाहिए। ‘वल्र्ड क्लास’ बनने के लिए बुनियादी विज्ञान का विकास जरूरी है।
दुनिया के कई छोटे देश तक वैज्ञानिक शोध के मामले में हमसे आगे निकल चुके हैं। सन् 1930 में सी. वी. रमन को उनकी खोज के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया, लेकिन रमन स्कैनर का विकास किया दूसरे देशों ने। यह हमारी नाकामी नहीं तो और क्या है. आज देश में प्रति 10 लाख भारतीयों पर मात्र 112 व्यक्ति ही वैज्ञानिक शोध में लगे हुए हैं।
परमाणु शक्ति संपन्न होने और अंतरिक्ष में उपस्थिति दर्ज करा चुकने के बावजूद विज्ञान के क्षेत्र में हम अन्य देशों की तुलना में पीछे ही हैं। वैज्ञानिकों-इंजीनियरों की संख्या के अनुसार भारत का विश्व में तीसरा स्थान है, लेकिन वैज्ञानिक साहित्य में पश्चिमी वैज्ञानिकों के कार्य है, इसमें किसी भी भारतीय का नाम नहीं है। हमारे देश में आज कोई रामन, खुराना क्यों नहीं है ? इतने सारे वैज्ञानिक संस्थानों में लगे हुए ढेरों वैज्ञानिक किस ऊहापोह में हैं। वे कुछ करते हैं, उसे मान्यता नहीं मिलती या वे कुछ कर ही नहीं रहे हैं? क्या हमारे देश में वैज्ञानिक प्रगति के लिए उपयुक्त वातावरण नहीं है? दरअसल, सात-आठ दशक पहले तो ऐसा नहीं था। ब्रिटिश राज्य में मुशकिलें मुशकिलें कम नहीं थी, परिस्थितियां एकदम प्रतिकूल थीं। इसके बावजूद भारत ने रामानुजम, जगदीश चंद्र बोस, चंद्र शेखर वेंकट रामन, मेघनाद साहा, सत्येंद्र नाथ बोस जैसे वैज्ञानिक पैदा किए। इन वैज्ञानिकों ने भारत में ही काम करके दुनिया में भारत का गौरव बढ़ाया। लेकिन आजादी के बाद हम एक भी अंतरराष्ट्रीय स्तर का वैज्ञानिक देश में पैदा नहीं कर सके? इस बारे में क्या कभी हमने सोचा है? दुनिया में अब वैज्ञानिक और तकनीकी ज्ञान आर्थिक स्त्रोत के उपकरण बन गए हैं। किसी भी देश की वैज्ञानिक और तकनीकी क्षमता उसकी आर्थिक प्रगति का पैमाना बन चुकी है।
दुनिया के ज्यादातर विकसित देश वैज्ञानिक शोध को बढ़ावा देने के लिए अपने रिसर्च फंड का 30 प्रतिशत तक यूनिवर्सिटीज को देते हैं, मगर अपने देश में यह प्रतिशत सिर्फ छह है। उस पर ज्यादातर यूनिवर्सिटीज के अंदरूनी हालात ऐसे हो गए हैं कि वहां शोध के लिए स्पेस काफी कम रह गया है। शोध के साथ ही पढ़ाई के मामले में भी काफी कुछ किए जाने की जरूरत है, ताकि यूनिवर्सिटी सिर्फ डिग्री बांटने वाली दुकानें न बनकर रह जाएं। देश में अकादमिक शोध करने-कराने की एक बड़ी जिम्मेदारी विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यानी यूजीसी पर है। यूजीसी देश में उच्च शिक्षा के मापदंड तय करने के साथ ही विश्वविद्यालयों, कॉलेजों और अन्य संस्थाओं को शिक्षा और शोध के लिए अनुदान भी उपलब्ध कराता है। शोध के नियमों को भी तय करता है और शोध के लिए जरूरी सहायता भी देता है। इसलिए देश में इस समय जैसे भी शोध हो रहे हैं, एक तरह से उसकी जिम्मेदारी यूजीसी की बनती है।  लेकिन भारत के विश्वविद्यालयों और उच्च शैक्षणिक संस्थानों में गंभीर शोध संस्कृति का पूरी तरह से अभाव है। भारत में वैसे भी उच्च शिक्षा में आने वाले छात्रों की संख्या बहुत कम है। यूजीसी की उच्च शिक्षा पर आधारित एक रिपोर्ट के मुताबिक 86 प्रतिशत छात्र स्नातक की पढ़ाई करते हैं और इसमें से केवल 12 प्रतिशत परास्नातक या पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी कर पाते हैं। शोध का हाल तो और भी बुरा है। उच्च शिक्षा पाने वालों में से केवल एक प्रतिशत छात्र ही शोध करते हैं। दिसंबर 2011 तक भारत में करीब 81 हजार छात्र और केवल 56 हजार छात्राएं शोध से जुड़े हैं। बहरहाल किन विषयों पर शोध हो रहा है और समाज के लिए उसकी क्या उपयोगिता है, इसका मूल्यांकन करने वाला कोई नहीं है। इसके उलट यूजीसी के कई सारे ऐसे प्रावधान हैं, जो गंभीर शोधपरक संस्कृति के विकास में रुकावट डालते हैं।
भारत आर्यभट्ट, कणाद, ब्रह्मभट्ट, रामानुजन, भास्कर, जगदीश चंद्र बोस ,सी वी रमण जैसे वैज्ञानिको का देश है। अगर हमने अपनी समृद्ध वैज्ञानिक परंपरा को पूरी शिद्दत और ईमानदारी के साथ आगे बढ़ाया होता तो विज्ञान के क्षेत्र में भारत दुनिया के शीर्ष पर होता। ऐसा नहीं है कि हमने उपलब्धियां हासिल नहीं की हैं, लेकिन हमारी योग्यता और क्षमता के लिहाज से हम इस मोर्चे पर अब भी काफी पीछे हैं। 
सरकार ने भारत को 2020 तक दुनिया की पांच सबसे बड़ी वैज्ञानिक शक्तियों में शामिल करने का लक्ष्य रखा गया है। लेकिन वर्तमान नीतियों और सरकारी लालफीताशाही के इस दौर में इस लक्ष्य को पाना बहुत मुश्किल लग रहा है । देश में वैज्ञानिक शोध और आविष्कार का माहौल बनाना होगा। िवज्ञान को आम आदमी से जोड़ना होगा । विज्ञान के क्षेत्र में अब समस्याओं को ध्यान में रखकर ठोस और बुनियादी समाधान करने का है । तभी भारत एक वैज्ञानिक शक्ति संपन्न राष्ट्र के रूप में उभरेगा।(YOJANA ,Feb2013 ISSUE)

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आश्चर्य: ग्लोबल वार्मिंग से जल स्तर में कमी

ग्लोबल वार्मिंग समेत अन्य कई वजहों से समुद्र का जल स्तर बढ. रहा है. लेकिन शायद आपको यह जान कर आश्चर्य होगा कि ऑस्ट्रेलिया और उसके आसपास के इलाकों में वातावरण की बदली हुई परिस्थितियों के चलते पिछले वर्षों समुद्र के वैश्विइक जल स्तर में कुछ कमी आयी थी. जी हां, वर्ष 2010-11 के दौरान ऑस्ट्रेलिया की भौगोलिक परिस्थितियों में बदलाव आने से वर्षा जल समेत बहते पानी के अन्य स्त्रोतों से समुद्र में जानेवाला पानी कम मात्रा में वहां तक पहुंच रहे थे. बढ.ते वैश्विमक तापमान और बर्फ के पिघलने के बावजूद लंबे समय से समुद्री जल स्तर में हो रही वृद्धि में 2010-11 में अस्थायी तौर पर विराम लगा. ‘साइंस डेली’ की एक खबर में बताया गया है कि ऑस्ट्रेलिया में पिछले वर्ष समुद्री इलाकों में बारिश की मात्रा में बढ.ोतरी होने से अब जल स्तर में वृद्धि हुई है. नेशनल सेंटर फॉर एटमॉसफेरिक रिसर्च (एनसीएआर) द्वारा किये गये नये रिसर्च में दर्शाया गया है कि हिंद महासागर और प्रशांत महासागर की भौगोलिक प्रवृत्तियों में भी बदलाव देखा गया है. इस रिसर्च के प्रमुख और एनसीएआर के वैज्ञानिक जॉन फेसुलो के मुताबिक, यह इस बात का बेहतरीन उदाहरण है कि धरती पर मौसम का चक्र कितना जटिल है. उन्होंने आश्च र्य जताते हुए कहा है कि आखिरकार एक छोटा सा महादेश किस तरह से पूरी दुनिया के समुद्री स्तर को प्रभावित कर सकता है. बताया गया है कि पिछले दशकों में समुद्री जल स्तर में सालाना तीन मिलीमीटर की बढ.ोतरी हुई है, जबकि वर्ष 2010-11 के 18 महीनों में समुद्री जल स्तर तकरीबन सात मिलीमीटर तक कम हुआ था.

Thursday 22 August 2013

सिंधुरक्षक हादसा : रक्षा तैयारियों के लिए बड़ा झटका

शशांक द्विवेदी 
पिछले दिनों नौसेना की आईएनएस अरिहंत और आईएनएस विक्रांत की उपलब्धियों के साथ सिंधुरक्षक पनडुब्बी के साथ हुआ हादसा हमारी रक्षा तैयारियों के लिए बहुत बड़ा झटका है। 
मुंबई के कोलाबा में लाइन गेट नेवल डॉकयार्ड में भारतीय नौसेना की ‘पनडुब्बी सिंधुरक्षक’ में भीषण आग की घटना ने बड़े सवाल खड़े कर दिये हैं। हादसे के बाद से पनडुब्बी  पर तैनात 18 नौसैनिक लापता हो गये । अभी तक ७  नौसैनिको  की मौत की पुष्टि हुए है लेकिन  माना जा रहा है कि इन सभी की मौत हो गई है। रक्षा मंत्री एके एंटनी ने भी नौसैनिकों के शहीद होने की आशंका जताई है। ये भीषण आग १३ अगस्त की  रात करीब 12 बजे लगी। चश्मदीदों ने आग से पहले धमाके की आवाजें सुनी। आग ने एक दूसरी पनडुब्बी को भी चपेट में ले लिया। डेढ़ घंटे की मेहनत के बाद आग पर काबू पाया गया, लेकिन सबसे अहम बात ये है कि पनडुब्बीढ में आखिरकार आग कैसे लगी। 
बैटरी चार्जिंग के दौरान धमाका 
विशेषज्ञों के अनुसार  पनडुब्बी में ये धमाका बैटरी चार्जिंग के दौरान हुआ। बताया जा रहा है कि बीती रात पनडुब्बी मुंबई के डॉकयार्ड पर खड़ी थी और बैटरी चार्ज की जा रही थी, तभी किन्हीं वजहों से बैटरी में आग लग गई और देखते ही देखते आग तेजी से बढ़ी और बाद में पनडुब्बी में जोरदार धमाका हुआ। धमाके की लपटें दूर तक देखी गईं। नौसेना ने मामले की जांच के लिए बोर्ड ऑफ इनक्वायरी के आदेश दे दिए हैं।
टारपीडो से लीक हुआ ऑक्सी्जन 
सिंधुरक्षक पनडुब्बी फिलहाल इस्तेमाल में थी और इसमें  टारपीडो और मिसाइल तैनात थे। टारपीडो में ऑक्सीजन भरा होता है जो कि तेजी से आग पकड़ता है। टारपीडो रूम से सटे बैटरी कंपार्टमेंट था जिसमें हाइड्रोजन मौजूद था। आशंका जताई जा रही है कि किसी दुर्घटना के चलते ऑक्सीजन लीक हुआ और हाइड्रोजन से जा मिला। दोनों गैसों के रिएक्शन से आग लग गई, जिसने खतरनाक रुख अख्तियार कर लिया और पनडुब्बी में जोरदार धमाका हुआ। चूंकि टारपीडो और बैटरी कंपार्टमेंट पनडुब्बी के अगले हिस्से में होता है, इसलिए उसका अगला हिस्सा धमाके के बाद बुरी तरह क्षतिग्रस्त हुआ है। पनडुब्बी का पिछला हिस्सा अभी भी काफी हद तक सुरक्षित बताया जा रहा है।
2010 में भी हुआ था हादसा
2010 में भी सिंधुरक्षक हादसे का शिकार हो चुकी है। उस समय इसमें लगी आग में इलेक्ट्रिकल टेक्नीशियन की मौत हो गई थी। हादसे के बाद भारतीय नौसेना की इस डीजल इलेक्ट्रिक पनडुब्बी सिंधुरक्षक को मरम्मत के लिए अगस्त 2010 में रूस भेजा गया। सिंधुरक्षक की मरम्मत रूस के ज्वेज्दोचका पोत कारखाने में हुई थी। मरम्मत के दौरान पनडुब्बी में क्लब एस क्रूज मिसाइल और 10 भारतीय और विदेश निर्मित प्रणालियां जोड़ी गई थीं। इसके अलावा जहाज की सैन्य क्षमता और सुरक्षा बढ़ाने के लिए पनडुब्बी को ठंडा रखने वाली प्रणाली को उन्नत किया गया था। इसके लिए भारत सरकार ने 490 करोड़ रुपये खर्च किए थे। करीब 2 साल तक मरम्मत का काम चला और इसी साल अप्रैल में सिंधुरक्षक वापस भारत लौटी थी। 
सिन्धुरक्षक पनडुब्बी के बारे में ?
रूस ने 1995 में निर्मित पनडुब्बी (आईएनएस सिंधुरक्षक) को दिसंबर 1997 में भारत को सौंपा था। एक साथ 52 नौसैनिकों की क्षमता वाले सिंधुरक्षक में 19 नॉट्स (35 किलोमीटर प्रति घंटा) की रफ्तार और समुद्र में 300 मीटर की गहराई तक जाने की क्षमता है  । आईएनएस सिन्धुरक्षक, सिन्धुरक्षक श्रेणी की पनडुब्बी थी जिसका मुख्य रूप से इस्तेमाल प्रतिरक्षा या युद्धक परिस्थितियों में किया जा सकता था। सिंधुरक्षक पनडुब्बी की कई खासियतें हैं। भारत की सुरक्षा को मजबूती देने वाली सिंधुरक्षक दुश्मनों को थर्राने का दम रखती है। यह एक डीजल इलेक्ट्रिक पनडुब्बी है।  इस पनडुब्बी का वजन 23 हजार टन है और लंबाई 238 फीट।  इसमें चालक दल के 52 सदस्य सवार हो सकते हैं जो 45 दिन तक लगातार इसमें रह सकते हैं।  इसमें जमीनी हमले की क्षमता है। 300 मीटर गहराई तक गोता लगानेवाली इस  पनडुब्बियों से तारपीडो मिसाइलें दागी जा सकती हैं। रेडियो संचार प्रणाली के अलावा इसमें सभी आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल हुआ है।
हादसों से सबक 
हादसे की वजह चाहे कुछ भी हो लेकिन इतना तय है कि आईएनएस सिंधुरक्षक में सबकुछ ठीक नहीं था। पिछले हादसों से सबक नहीं सीखा गया जिसका नतीजा एक बड़े हादसे के रूप में सामने है। सवाल ये है कि क्या ये लापरवाही है, और अगर ये लापरवाही है तो जिम्मेदार कौन है?इस दुर्घटना के बाद रुस के काम की गुणवत्ता पर  भी कई सवाल खड़े हो गए हैं| जिसकी समीक्षा होना बेहद जरूरी है .
इस हादसे में अट्ठारह नौसैनिकों का बलिदान होना जितना दुखद है, उतनी ही चिंता समुद्र में सुरक्षा तैयारियों के अभियान पर लगे झटके ने भी बढ़ा दी है। पनडुब्बियों के मामले में हम काफी पीछे चल रहे हैं। सिंधुरक्षक के नुकसान के बाद हमारे पास जो पनडुब्बियां बची हैं, वे भी बहुत पुरानी हैं और वे एक के बाद एक नौसेना के बेड़े से हटती जा रही हैं। इस कारण हमारे साढ़े सात हजार किलोमीटर लंबे समुद्र तट की रक्षा सवालों के घेरे में आती जा रही है। भारत को अपने जल क्षेत्र में कम से कम 25 से 30 सबमरीन की जरूरत है, लेकिन अभी 14 से ही काम चलाया जा रहा है। बाकी बची 13 पनडुब्बियां भी पुरानी हो चुकी हैं। इसलिए उन्हें लेकर हमेशा आशंका बनी रहती है। हाल यह है कि सिंधुरक्षक को जिस कीमत पर खरीदा गया था, उसको अपग्रेड करने में उससे ज्यादा पैसा लगा।
हमारे पास एक भी एयर इंडिपेंडेंट प्रोपल्सन सिस्टम वाली पनडुब्बी नहीं है, जिसमें एक लंबे अरसे तक समुद्र के अंदर मौजूद बने रहने की क्षमता होती है। पुरानी तकनीक के कारण हमारी पनडुब्बियों को थोड़े-थोड़े समय के अंतराल में पानी से बाहर निकलना पड़ता है। पनडुब्बियों के निर्माण में स्वदेशीकरण का मामला भी अत्यंत पिछड़ा हुआ है। ठीक इसी प्रकार पनडुब्बियों की मरम्मत के मामले में भी हम आत्म-निर्भर नहीं बन पाए हैं और इसके लिए विदेशों से मदत लेना हमारी मजबूरी है। इस हादसे का सबक यह है कि हम नौसेना को मजबूत बनाने के लिए हमें  पनडुब्बी मामलों में पूर्ण रूप से आत्म निर्भर होना पड़ेगा ,पनडुब्बियों का निर्माण कार्य अब युद्धस्तर पर शुरू करके  इनकी डिजाइन, सुरक्षा के उपाय और रख-रखाव पर पूर्ण निगरानी रखना पड़ेगा । 

Tuesday 20 August 2013

नौसेना पर अखबारों(डीएनए,दैनिक भास्कर आदि ) में मेरे लेख

सिन्धुरक्षक हादसा -सुरक्षा मानकों की अनदेखी भयावह

मत्स्येन्द्र प्रभाकर
तेरह अगस्त की रात मुम्बई के निकट कोलाबा के नेवल डॉकयार्ड में भीषण विस्फोट के साथ हुए अग्निकांड में ˜सिन्धुरक्षक पनडुब्बी का सागर में समा जाना सामान्य दुर्घटना नहीं है। यह 1971 के बाद भारतीय नौसेना के इतिहास की सबसे बड़ी घटना है और शान्तिकाल में नौसेना के लिए सर्वाधिक भीषण आपदा। निकट भविष्य में इसकी भरपाई के आसार नहीं दिख रहे हैं क्योंकि हमारी लंबी सरहदों के सन्दर्भ में सिन्धुरक्षक  लाने के प्रस्तावों पर बहुत फौलादी राजनीतिक इरादा दिखाया भी गया तो अगली पनडुब्बी हासिल करने के लिए कम से कम 2021-22 तक इंतजार करना पड़ेगा। उल्लेख जरूरी है कि भारतीय नौसैनिक बेड़े के लिए और छह पनडुब्बियों की खरीद का फैसला छह साल पहले लिया गया था और पिछले तीन सालों से इसके लिए टेंडर जारी करने पर कवायद भी हुई लेकिन मामला अब तक लटका हुआ है। मुमकिन है कि भारतीय नौसेना की शान में इस ताजा चोट के बाद सरकार की नींद खुल जाए। सिन्धुरक्षक हादसे की तुलना अन्य आपदाओं से नहीं की जा सकती। बेशक इससे नौसेना को तगड़ा झटका लगा है जिसमें भारत को अपने तीन अधिकारियों समेत 18 नौसैनिकों की जान गंवानी पड़ी है और अरबों रु पयों की क्षति हुई है पर इससे अधिक चिंतनीय यह है कि अपने वर्ग की नौवीं इस पनडुब्बी पर भारत की 7,517 किलोमीटर लम्बी सामुद्रिक सीमा की रक्षा की जिम्मेदारी थी। यह उन दस पनडुब्बियों में प्रमुख थी जिन्हें 1996 से 2000 के बीच भारतीय नौसेना में शामिल किया गया था। 2003 टन की ˜किलो श्रेणी की पनडुब्बी ˜आईएनएस सिन्धुरक्षक का निर्माण रूस में हुआ था।1997 में 24 दिसम्बर को नौसेना में शामिल किये जाने के पहले भारत को इसकी कीमत के रूप में 115 मिलियन डॉलर (तबके हिसाब से 400 करोड़ रु पये) रूस को चुकाने पड़े थे। यह राशि मौजूदा मूल्य पर सात अरब रु पये से अधिक बैठती है। इसे 2010-12 के दौरान इसकी कीमत से भी ज्यादा लागत 156 मिलियन डॉलर (मौजूदा मूल्य पर करीब 9.67 अरब रु पये) देकर रूस में ही नवीनीकृत (मॉडिफाइ) कराया गया था। यह बात अलग है कि अपग्रेड करने वाले रूसी शिपयार्ड ने इसे अत्याधुनिक हथियारों (अल्ट्रा मॉडर्न वेपन्स) से लैस किया था। दरअसल, ओवरहालिंग के नाम पर इसकी जरूरत तब इसलिए आ पड़ी थी कि 2010 की फरवरी में भी इसके बैटरी कम्पार्टमेंट में आग लग गयी थी। तब इसमें एक नौसैनिक की जान गयी थी। लिहाजा उसी साल अगस्त में सिन्धुरक्षक को रूस भेजना पड़ा जिसने जून 2012 में इसे उपलब्ध कराया और करीब चार महीने पहले 29 अप्रैल को दोबारा यह नौसेना में शामिल की गयी थी। ˜सिन्धुरक्षक का हादसा हमारी रक्षा नीति और सुरक्षा प्रबन्धों समेत समूची इंतजामिया के लिए गम्भीर चिन्ता का विषय होना चाहिए। कारण, भारतीय नौसेना में पिछले पांच सालों में यह चौथी दुर्घटना है। खुद इसी पनडुब्बी में हुए 2010 के हादसे के पहले 2009 में किलो श्रेणी (नाटो के द्वारा रूस निर्मिंत डीजल-विद्युत चालित पनडुब्बियों को दिया गया एक नाम) का एक अन्य युद्धपोत आईएनएस सिन्धुघोष एक व्यायसायिक जहाज से टकरा गया था। उस हादसे की वजह आज तक जाहिर नहीं हुई। इसके बाद ‘आईएनएस विद्यागिरि एक मर्चेंट शिप से टकराने के बाद लगभग नष्ट ही हो गया। गनीमत यह रही कि प्रमुख युद्धपोत के इस हादसे में किसी की जान नहीं गयी।सिन्धुरक्षक  त्रासदी के पीछे कारण क्या रहा, इस बारे में जांच समिति के निष्कर्ष से ही असल तौर पर कुछ पता चल सकेगा. सम्भव है कि सिन्धुरक्षक  तरह की घटनाओं में कारणों का .खुलासा न करने के पीछे कुछ पेशेवराना दिक्कतें हों. फिर भी उनके कारणों के उभर कर न आने से कोई दबाव नहीं बन पाता जिससे हालात और खतरनाक बनते जाते हैं. कहने की आवश्यकता नहीं कि लोकतंत्र को सुरक्षित रखने के साथ परिष्कृत करने के लिए आज हर क्षेत्र में जन दबाव जरूरी हो गया है. इसलिए सवाल उठाना लाजिमी हो जाता है कि जांच-पड़ताल पर पर्दा आखिर क्यों डाला जाता है? सिन्धुरक्षक हादसे की जांच- पड़ताल की दिशा और नतीजे पर संशय के बादल पहले दिन से ही मंडराने लगे हैं. ईमानदार छवि के रक्षामंत्री ए.के. एंटनी ने गत बुधवार को मुम्बई पहुंचकर जहां पनडुब्बी में किसी तोड़फोड़ की आशंका से इनकार किया, वहीं नौसेना प्रमुख एडमिरल डी.के. जोशी ने कहा कि दुर्घटना के पीछे किसी साज़िश की आशंका को खारिज़ नहीं किया जा सकता. बोर्ड ऑफ़ इनक्वायरी इस घटना की हर कोण से जांच कर रहा है.
बहरहाल, पनडुब्बी को बनाने वाले रूस के उप प्रधानमन्त्री दिमित्री रोगाजिन का कहना है कि इस दुर्घटना की वजह सुरक्षा की अनदेखी हो सकती है। दिमित्री रोगाजिन ने पनडुब्बी में लगाये गये किसी खास उपस्कर पर घटना की कोई जिम्मेदारी डालने से तौबा की है। मुमकिन है कि इसके पीछे रूस की मंशा कुछ और हो। क्योंकि नवीनीकरण करने के साथ उसने सिन्धुरक्षक की बाबत अगले साल तक की वारंटी दी है। भारतीय रक्षा सचिव आरके माथुर इसी हफ्ते भारत-रूस रक्षा सहयोग पर बातचीत के लिए रूस जाने वाले हैं। इस दौरान पनडुब्बी हादसे पर उनकी रूसी अधिकारियों से भी र्चचा होगी मगर इससे क्या इनकार किया जा सकता है कि सुरक्षा-संरक्षा में कमी भी सिन्धुरक्षक के भयंकर हादसे की एक अहम वजह हो सकती है। इसके संकेत इस आधार पर खोजे जा सकते हैं कि भारतीय नौसैनिक इस पनडुब्बी में बैटरी के इलाके में काम कर रहे थे। उसे काफी खतरनाक माना जाता है और उस समय सुरक्षा नियमों में जरा सी चूक भीषण आपदा की वजह बन सकती है। नौसेना समेत सेना के सभी अंगों में अस्त्र-शस्त्र और साधनों के नियमित परीक्षण-प्रशिक्षण-परिचालन समेत उसके समस्त साधनों के रखरखाव पर सतर्कता बेहद जरूरी है। भारतीय सेना अब पारंपरिक नहीं रही। वह अत्याधुनिक सेना का रूप ले चुकी है और दुनिया की सशक्त तथा विशालतम सेनाओं में शुमार है। हाल में पहली पूर्णत: स्वदेश निर्मिंत परमाणु पनडुब्बी ˜अरिहन्त का नाभिकीय रिएक्टर चालू करने की घोषणा के साथ भारत इस क्षमता वाले देशों- (अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन) में शामिल हो इस क्लब का छठा सदस्य हो गया है। इस बीच चीन और पाकिस्तान हमारी सरहद पर अपनी हरकतों से तनाव बढ़ा रहे हैं। अत: यह बहुत ही चुनौतीपूर्ण वक्त है। भारत क्योंकि नाभिकीय अस्त्र सम्पन्न देश है, इसलिए हमारे सुरक्षा प्रबन्धों में कोई चूक भयावह हो सकती है। स्थलीय ठिकानों से भिन्न सामुद्रिक क्षेत्र में मानकों की अनदेखी व सतर्कता में कमी और चूक जल-थल-नभ सब जगह खतरनाक हो सकती है। ध्यान रखना होगा कि भारत आज दुनिया के हर छठवें व्यक्ति का स्थायी आवास बन चुका है। इस रूप में हमारी जिम्मेदारियां बहुत बढ़ गयी हैं।

Monday 19 August 2013

सेल ने बनाया दुनिया का सबसे ताकतवर स्टील

भारत ने नौसेना के स्वदेश निर्मित पहले विमानवाहक पोत आईएनएस विक्रांत के निर्माण के लिये जरूरी खूबियों वाला इस्पात बनाने के बाद अब परमाणु पनडुब्बियों के निर्माण के लिये जरूरी दुनिया का सबसे ताकतवर स्टील विकसित कर लिया है. ये इस्पात तैयार किया है. भारतीय इस्पात प्राधिकरण (सेल) ने और इसका फार्मूला ईजाद किया है. रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन की इकाई रक्षा धातु अनुसंधान प्रयोगशाला हैदराबाद ने.
हालांकि इस स्टील के बारे में सेल और नौसेना आधिकारिक रूप से कुछ भी बोलने को तैयार नहीं है, लेकिन सूत्रों के अनुसार पनडुब्बी के निर्माण के लिये जरूरी स्टील विकास एवं परीक्षण के लगभग के सभी चरणों को पार करके प्रमाणन हासिल करने की प्रक्रिया में है. भारत ने इस डीएमआर 292 स्टील के लिये पेटेंट अधिकार हासिल करने के लिये आवेदन दाखिल किया है. सूत्रों के अनुसार ये दुनिया का सबसे ताकतवर इस्पात होगा, जो परमाणु पनडुब्बी, सैन्य एवं असैन्य परमाणु संयंत्रों में भी इस्तेमाल हो सकेगा.
एक बार औपचारिक प्रमाणन हासिल करने के बाद देश सैन्य इस्पात के लिये घोषित तौर पर पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर हो जायेगा. राउरकेला इस्पात संयंत्र के स्पेशल स्टील प्लांट में डीएमआर 292 ए को अंतिम रूप दिया जा रहा है. इसी जगह भारत के प्रथम स्वदेश निर्मित विमानवाहक पोत आई एन एस विक्रांत के लिये डीएमआर 249 , डीएमआर 249 बी और डीएमआर 249 , जेड 25, किस्मों की 20 मिलीमीटर मोटी प्लेटों को अंतिम रूप दिया गया है. इससे पतली प्लेटें भिलाई संयंत्र में तैयार की गई हैं. सेल के अधिकारी डीएमआर 249 श्रेणी के बारे में बताते हैं कि यह स्टील आम स्टील से बहुत अलग है. यह जितना कठोर है उतना ही लचीला भी. यह शून्य से 60 डिग्री सेल्शियस कम तापमान पर भी 80 जूल की ताकत का प्रहार सह सकता है.
जबकि आम स्टील इस तापमान पर मामूली से झटके में ही शीशे की तरह बिखर जाता है. लेकिन यह इतना लचीला भी है कि 180 अंश तक बिना कोई चटक पड़े, मोड़ा भी जा सकता है. इस इस्पात की खासियत के बारे में धातुविज्ञानियों ने बताया कि इसमें मैगनीज, कार्बन और सल्फर की मात्रा कम करके निकल की मात्रा बढ़ाई गई तथा नियोबियम, वेनेडियम, मोलिब्डेनम, क्रोमिनयम जैसे तत्व मिलाये गये तथा फिर उसकी प्लेट तैयार करके हीट ट्रीटमेंट किया गया, जिसमें प्लेट को 950 डिग्री सेंटीग्रेड पर रक्ततप्त करके पानी और तेल में ठण्डा किया जाता है और फिर हल्का गर्म करके टैम्परिंग की जाती है. इससे धातु के वांछित गुण प्राप्त हो गये. नौसेना के अधिकारियों के मुताबिक इसका वजन कम होने से विमानवाहक पोत में ज्यादा से ज्यादा हथियार एवं रणनीतिक उपकरण लगाये जा सकते हैं.
सेल के इंजीनियरों, रक्षा वैज्ञानिकों और नौसेना के अधिकारियों के मुताबिक भारत करीब 15 साल के अंदर उन चंद देशों में शामिल हो गया है, जो स्टील के मामले में आत्मनिर्भर हैं. अमेरिका, रूस और नाटो के कुछ देशों के पास ही इस तरह की तकनीक और उत्पादन क्षमता है. लेकिन रूस को छोड़ कर कोई अन्य देश भारत को निर्यात नहीं करता था. रूस भी स्टील या उसकी प्रौद्योगिकी देने की बजाय युद्धपोत का सौदा करने का ज्यादा इच्छुक था. वर्ष 1999 में डीआरडीओ ने सेल से यह स्टील बनाने का प्रस्ताव किया तो सेल सहर्ष तैयार हो गया और 2002 में तैयार करके दिखा दिया. सेल के अधिकारियों के मुताबिक इस फार्मूले पर स्टील का निर्माण हैवी इंजीनियरिंग कारपोरेशन रांची, दुर्गापुर इस्पात संयंत्र स्थित एलॉय स्टील प्लांट और राउरकेला के स्पेशल स्टील प्लांट में किया गया. भिलाई इस्पात संयंत्र में 20 मिलीमीटर से पतली प्लेट तैयार की गई है.
नौसेना के कोचीन शिपयार्ड को विमानवाहक पोत बनाने के लिये 2004-05 में डीएमआर 249 ए की आपूर्ति शुरू हुई. विमानवाहक पोत के डेक पर विमानों की लैण्डिंग और टेक ऑफ से होने वाले झटकों को सहन करने के लिये डीएमआर 249 बी का विकास किया गया. प्लेट की मोटाई की दिशा में दबाव झेलने की क्षमता के लिये डीएमआर 249 , जेड25, स्टील का विकास किया गया. सेल के अध्यक्ष चंद्रशेखर वर्मा का कहना है कि यह नौसेना के लिये राहत और आत्मनिर्भरता की बात तो है ही लेकिन सेल और देश के लिये एक बहुत बड़े राष्ट्रीय गौरव की बात है. वर्मा ने बताया कि 37500 टन वजनी इस विमानवाहक पोत के लिये 28 हजार टन से ज्यादा लोहे की जरूरत थी, जिसमें करीब करीब पूरा स्टील सेल ने दिया है. इसके अलावा अन्य शिपयार्डों को मिला लिया जाये तो नौसेना को 40 हजार टन से ज्यादा डीएमआर 249 श्रेणी के सैन्य इस्पात की आपूर्ति की जा चुकी है.
वर्मा के मुताबिक राउरकेला के स्पेशल प्लेट प्लांट की क्षमता पांच गुनी की जा रही है. वहां 4.3 मीटर चौड़ी प्लेट तैयार करने के लिये एक नयी प्लेट मिल भी बन कर तैयार हो गई है. राउरकेला संयंत्र की क्षमता दोगुनी बढायी जा रही है. नौसेना के वास्तु निदेशालय के प्रमुख निदेशक कोमोडोर ए के दत्ता. डी आरडीओ के चीफ कंट्रोलर जी मलकोंडैय्या ने सेल की इस उपलब्धि को देश के लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि बताते हुए कहा कि इससे देश में नौसैनिक बेड़े की कमी पूरी करने के लिये युद्धपोत निर्माण को बल मिलेगा और नौसेना को समुद्र में रणनीतिक बढ़त हासिल होगी.


Sunday 18 August 2013

जी-मेल पर निजता

पीयूष पाण्डेय 
क्या दुनिया की सबसे बड़ी ईमेल सेवा जी-मेल पर आपकी निजता का ध्यान नहीं रखा जा रहा है? दरअसल, अमेरिकी कंज्यूमर वाचडॉग ने एक मुकदमे के दौरान गूगल के बयान को आधार बनाते हुए यह दावा किया है। इस मामले में गूगल पर आरोप लगाया गया था कि गूगल गैर-कानूनी तरीके से लोगों के निजी मेल खोलता, पढ़ता और उसका कंटेंट संग्रहित करता है। इस मुकदमें में दावा किया गया था कि करोड़ों लोगों की जानकारी से बाहर, नियमित तौर पर गूगल ने कई साल से लोगों के निजी संदेशों को जानबूझकर एवं दक्षतापूर्वक पढ़ने की अपनी लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन किया है। गूगल ने इस मामले को खारिज करने की अपील करते हुए कहा ईमेल के सभी यूजर्स को पूरी तरह यह विश्वास करना चाहिए कि उनके मेल ऑटोमेटेड प्रोसेसिंग से गुजरते हैं, लेकिन गूगल ने यह भी कह दिया कि जिस तरह अपने किसी कारोबारी साथी को खत लिखते हुए लेखक को हैरान नहीं होना चाहिए कि उसका खत कारोबारी साथी के सहायक भी पढ़ सकते हैं, उसी तरह जो लोग वेब मेल उपयोग में लाते हैं, उन्हें इस बात से हैरान नहीं होना चाहिए कि उनका मेल प्राप्तकर्ता के इलेक्ट्रानिक कम्यूनिकेशंस सर्विस प्रोवाइडर द्वारा प्रोसेस किया जाए। इस जवाब का सीधा मतलब भले कुछ न निकाला जाए, लेकिन कंज्यूमर वाचडॉग का कहना है कि अगर आप अपनी निजता को लेकर चिंतित हैं तो इसका इस्तेमाल बंद कीजिए। निश्चित रुप से यह महत्वपूर्ण सवाल है कि क्या जी-मेल पर हमारे संदेश सुरक्षित नहीं है। 42 करोड़ से ज्यादा लोग आज जी-मेल का इस्तेमाल करते हैं और जी-मेल पर अपनी जिंदगी के कई पहलू संग्रहित हैं। बीते साल मार्च में गूगल ने नई प्राइवेसी पॉलिसी लागू की थी, तब भी बवाल मचा था। इस नीति पर अमल के बाद गूगल की सेवाओं का उपयोग करने वाले हर शख्स की सारी जानकारी भी एक ही जगह सहेज कर रखी जा रही है। गूगल की निजता नीति में साफ -साफ कहा गया है कि वह उपयोक्ताओं की जानकारी को किसी भी सूरत में तीसरी कंपनी को नहीं बेचेगी। पॉलिसी में यह भी कहा गया है कि उपयोक्ता गूगल से स्वयं के बारे में एकत्रित जानकारियों को डिलीट करने के लिए कह सकते हैं, लेकिन नई निजता नीति के ज्यादातर बिंदु अस्पष्ट हैं। मसलन नई निजता नीति में कहा गया है कि आप खुद से संबंधित जानकारी हटाने के लिए गूगल से आग्रह कर सकते हैं, लेकिन वाणिज्यिक या कानूनी उद्देश्यों के तहत गूगल ऐसा करने से इन्कार कर सकता है। परेशानी यह है कि इस परिभाषा के तहत लगभग हर आग्रह को ठुकराया जा सकता है। वैसे, सचाई यही है कि आप जिस भी वेबसाइट को सर्फ करते हैं, वह आपके डाटा एकत्र करती है। आप भले यह जानकारी जानबूझकर न दें, लेकिन वेबसाइट के पीछे की तकनीक कुछ खास तरह की सामग्री जुटा लेती है। मसलन, आप कहां हैं? आप किस ब्राउजर का इस्तेमाल कर रहे हैं? किस ऑपरेटिंग सिस्टम का इस्तेमाल करते हैं और आपने वेबसाइट पर क्या देखा-पढ़ा आदि। अब जी-मेल के संदेशों पर स्कैनर की बात ने नया बवाल खड़ा कर दिया है। सवाल है कि क्या इस खुलासे से यूजर्स जी-मेल का इस्तेमाल बंद कर देंगे? जी-मेल न केवल एक नि:शुल्क ईमेल सेवा है, बल्कि तकनीकी रूप से सबसे बेहतरीन भी। दरअसल, गूगल का मूलमंत्र रहा है डोंट बी डेविल यानी राक्षस मत बनो, लेकिन विस्तार की महत्वाकांक्षाओं के बीच गूगल की हर कवायद आशंका खड़े करती है। ताजा बवाल भी इसी का हिस्सा है। वैसे, इंटरनेट उपयोक्ताओं की वैयक्तिक जानकारियां जुटाने के मामले में गूगल कोई इकलौती कंपनी नहीं है। फेसबुक समेत कई कंपनियां इसी र्ढे पर हैं। हाल में अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी द्वारा नौ बड़ी इंटरनेट कंपनियों के डाटा पर निगरानी रखने का खुलासा हुआ था और इसक बाद से सभी कंपनियों पर भारी दबाव है कि वे अपना-अपना रुख साफ करें, लेकिन जी-मेल द्वारा डाटा इकट्ठा करने संबंधी खुलासे के बाद गूगल की मुश्किल और बढ़ गई है।

अंतरिक्ष में कलपुर्जो के निर्माण की योजना

मुकुल व्यास
 भविष्य में ऐसे 3डी प्रिंटर बन जाएंगे जो अंतरिक्ष में ही रॉकेट इंजिनों और अंतरिक्षयानों का निर्माण करने में सक्षम होंगे। इस दिशा में कोशिश शुरू भी हो गई है। नासा के इंजीनियर एक ऐसे 3डी प्रिंटर का परीक्षण कर रहे हैं जो निम्न गुरुत्वाकर्षण की स्थिति में प्लास्टिक की वस्तुएं निर्मित कर सकता है। बहुचर्चित साइंस फिक्शन सीरियल स्टार ट्रेक के रेप्लीकेटर में कुछ ऐसी ही टेक्नोलॉजी दर्शाई गई थी। नासा अगले साल जून में इस प्रिंटर को अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर भेजने की तैयारी कर रहा है। अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी के इंजीनियरों को उम्मीद है कि इससे भविष्य में और अधिक उन्नत 3डी प्रिंटरों के निर्माण का आधार तैयार हो जाएगा जो अंतरिक्ष में हर तरह की जरूरत का सामान निर्मित कर सकेंगे। 3डी प्रिंटर को अंतरिक्ष में रवाना करने से पहले उसमें उन सारे कलपुर्जो और हिस्सों के ब्ल्यूप्रिंट लोड किए जाएंगे जो बदले जाने के लायक हैं। कुछ अन्य चीजों के बारे में पृथ्वी से ही निर्देश भेजे जा सकते हैं। 3डी प्रिंटर का एक बड़ा फायदा यह भी होगा कि अंतरिक्षयात्री अपने सम्मुख आने वाली समस्या से निपटने के लिए अपनी जरूरत के हिसाब से कलपुर्जो का निर्माण कर सकेंगे। इस सिस्टम से पृथ्वी से अंतरिक्ष स्टेशन पर भेजे जाने वाले एवजी कलपुर्जो की मात्र में कमी आएगी। इससे आपात स्थिति में अंतरिक्षयात्रियों को जल्दी से जल्दी अंतरिक्ष स्टेशन पर पहुंचाने में भी मदद मिलेगी।
1970 में एपोलो-13 के अंतरिक्षयात्रियों को अपने यान में ऑक्सीजन टैंक में विस्फोट के बाद अपने यान के कार्बन डायोक्साइड फिल्टर की मरम्मत करनी पड़ी थी। लेकिन मरम्मत के लिए उन्हें डक्ट टेप और प्लास्टिक की थैली जैसी चीजों से ही काम चलना पड़ा था। अभी हाल ही में इटली के अंतरिक्षयात्री लुका पर्मिटानो के हेल्मेट में वेंटिलेशन सिस्टन से पानी घुस गया था जिसकी वजह से उसे अंतरिक्ष में चहलकदमी की योजना त्यागनी पड़ी थी। इस गड़बड़ी को दूर करने के लिए नासा को आवश्यक सप्लाई के साथ मरम्मत का सामान भी भेजना पड़ा था। भविष्य में इस तरह की समस्याओं से निपटने के लिए अंतरिक्षयात्री अपने स्टेशन पर ही जरूरी उपकरणों की प्रिंटिंग कर सकेंगे। नासा के मार्शल स्पेस फ्लाइट सेंटर में 3डी प्रिंटिंग पर रिसर्च चल रही है। रिसर्च टीम के प्रमुख निकी वर्कहाइस्नर का कहना है कि हम सूक्ष्म गुरुत्वाकर्षण में 3डी प्रिंटिंग को आजमाना चाहते हैं और अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन में इसका इस्तेमाल करना चाहते हैं। कई बार कलपुर्जे टूट-फूट जाते हैं या गुम हो जाते हैं। उन्हें बदलने के लिए बहुत से अतिरिक्त कलपुर्जे भेजने पड़ते हैं। नई टेक्नोलॉजी से इन हिस्सों को आवश्यकतानुसार अंतरिक्ष में ही निर्मित करना संभव है। इस टेक्नोलॉजी के बारे में अभी कोई खुलासा नहीं किया गया है, लेकिन समझा जाता है कि इसमें प्लास्टिक के पेस्ट का उपयोग किया जाता है। पिछले कुछ दिनों से इस प्रिंटर का शून्य गुरुत्वाकर्षण की स्थिति में परीक्षण चल रहा है। नासा ने एक वीडियो जारी करके इस प्रिंटर की कार्यप्रणाली दर्शाई है।

नासा ने एक अन्य प्रोजेक्ट के तहत पिछले महीने एक ऐसे रॉकेट इंजिन का परीक्षण किया जिसका निर्माण 3डी प्रिंटिंग से तैयार किये गए हिस्सों से किया गया था। रॉकेट इंजेक्टर के निर्माण के लिए धातु के पावडर को गलाने और उसे एक त्रिआयामी संचरना में बदलने के लिए लेजर तरंगों का प्रयोग किया गया था। नासा का मानना है कि 3डी प्रिंटिंग से धरती पर और अंतरिक्ष में कलपुर्जो, इंजिन के पार्ट्स और यहां तक कि पूरे अंतरिक्षयान को प्रिंट करके उत्पादन समय और उत्पादन लागत में भारी कमी की जा सकती है। इससे अंतरिक्ष के समस्त भावी मिशनों मे बहुत मदद मिल सकती है।

वैज्ञानिक प्रगति कि ओर अग्रसर भारत

प्रमोद जोशी 
भारत ने अपने नेवीगेशन सैटेलाइट का प्रक्षेपण करके विज्ञान और तकनीक के मामले में जितना लम्बा कदम रखा है उतना हमने महसूस नहीं किया। इस नेटवर्क को पूरा करने के लिए अभी छह और सैटेलाइट भेजे जाएंगे। यह काम 2015 तक पूरा होगा। हम स्पेस साइंस की बिग लीग में शामिल हो चुके हैं। अमेरिका, रूस, यूरोपीय यूनियन और चीन के साथ। जापान का क्वाज़ी ज़ेनिट सिस्टम भी इस साल पूरी तरह स्थापित हो जाएगा। ग्लोबल पोज़ीशनिंग सिस्टम का इस्तेमाल हवाई और समुद्री यात्राओं के अलावा सुदूर इलाकों से सम्पर्क रखने में होता है। काफी ज़रूरत सेना को होती है। खासतौर से मिसाइल प्रणालियों के वास्ते।  

इस साल बजट अभिभाषण में राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने कहा था कि भारत इस साल अपना उपग्रह मंगल की ओर भेजेगा। केवल मंगलयान ही नहीं, चन्द्रयान-2 कार्यक्रम तैयार है। सन 2016 में पहली बार दो भारतीय अंतरिक्ष यात्री स्वदेशी यान में बैठकर पृथ्वी की परिक्रमा करेंगे। सन 2015 या 16 में हमारा आदित्य-1 प्रोब सूर्य की ओर रवाना होगा। सन 2020 तक हम चन्द्रमा पर अपना यात्री भेजना चाहते हैं। किसी चीनी यात्री के चन्द्रमा पहुँचने के पाँच साल पहले। इस बीच हमें अपने क्रायोजेनिक इंजन की सफलता का इंतजार है, जिसकी वजह से जीएसएलवी कार्यक्रम ठहरा हुआ है। देश का हाइपरसोनिक स्पेसक्राफ्ट किसी भी समय सामने आ सकता है। अगले दशक के लिए न्यूक्लियर इनर्जी का महत्वाकांक्षी कार्यक्रम तैयार है।

नए राजमार्गों और बुलेट ट्रेनों का दौर भी शुरू होने वाला है। देश के छह मार्गों पर हाईस्पीड यानी 300 किलोमीटर की गति से ज्यादा तेजी से रेलगाड़ियाँ चलाने की स्टडी चल रही है। रेल विकास निगम के अंतर्गत हाई स्पीड रेल कॉरपोरेशन के नाम से एक नई कम्पनी बनाई गई है। मौजूदा रेल नेटवर्क की स्पीड 200 किलोमीटर या उससे ऊपर करने का प्रोजेक्ट आईआईटी, खड़गपुर के रेलवे रिसर्च सेंटर को सौंपा गया है। इसकी रिपोर्ट सन 2015 तक मिलेगी। अगले दस साल में देश के ज्यादातर बड़े शहरों में मेट्रो ट्रेन चलने लगेंगी। देश की ज्ञान-आधारित संस्थाओं को जानकारी उपलब्ध कराने के लिए हाईस्पीड नेशनल नॉलेज नेटवर्क काम करने लगा है। यह सूची लम्बी है।

सारी सफलताएं अपनी जगह हैं और उत्तराखंड में आई आपदा और हमारे वैज्ञानिक अधिष्ठान की विफलता अपनी जगह है। इससे हम इंकार नहीं कर सकते कि तमाम रिमोट सेंसिंग तकनीकें पास में होने के बावजूद मई के महीने में बस्तर में और अब झारखंड में नक्सली हमले का पता हम नहीं लगा पाए। और यह भी कि नक्सली समस्या के मूल में क्या है। बहरहाल नेवीगेशन सैटेलाइट के सफल प्रक्षेपण को प्रधानमंत्री ने मील का पत्थर करार दिया है। और यह भी कहा कि देश के सामाजिक-आर्थिक विकास में अंतरिक्ष कार्यक्रम की भूमिका लगातार बढ़ रही है। प्रधानमंत्री कुछ भी कहें, विज्ञान और तकनीक हमारे सार्वजनिक विमर्श का हिस्सा नहीं है। उसे हम फैंटेसी में देखते हैं। हमारी फिल्मों का वैज्ञानिक मोटा चश्मा पहनने वाला गंजा इंसान, जो गायब करने वाली मशीन बनाता है या दुनिया को तबाह करने वाला फॉर्मूला। यह अंधविश्वास है। साइंस वह पद्धति है जो रास्ते बताती है। वह हमारे समाज में कहाँ है?

आधुनिक विज्ञान की क्रांति यूरोप में जिस दौर में हुई उसे एज ऑफ डिसकवरी कहते हैं। ज्ञान-विज्ञान आधारित इस क्रांति के साथ भी भारत का सम्पर्क एशिया के किसी दूसरे समाज के मुकाबले सबसे पहले हुआ। जगदीश चन्द्र बोसको आधुनिक भारत का पहला प्रतिष्ठित वैज्ञानिक मान सकते हैं। उन्हें भौतिकी, जीवविज्ञान, वनस्पति विज्ञान तथापुरातत्व का गहरा ज्ञान था। वे देश के पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने एक अमेरिकन पेटेंट प्राप्त किया। जगदीश चन्द्र बोसके साथ प्रफुल्ल चन्द्र राय भी हुए, जिन्होंने देश की पहली फार्मास्युटिकल कम्पनी बनाई। सन 1928 में सर सीवी रामन को जब नोबेल पुरस्कार मिला तो यूरोप और अमेरिका की सीमा पहली बार टूटी थी। सन 1945 में जब मुम्बई में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च की स्थापना हुई थी तब विचार यही था कि आधुनिक भारत विज्ञान और तकनीक के सहारे उसी तरह आगे बढ़ेगा जैसे यूरोप बढ़ा। पर ऐसा हुआ नहीं। अमेरिका और यूरोप की बात छोड़िए हम चीन से काफी पीछे चले गए हैं।

इंडियन साइंस एसोसिएशन सन 1914 से काम कर रही है। इस साल जनवरी में कोलकाता में राष्ट्रीय विज्ञान कांग्रेस के साथ इसका शताब्दि-वर्ष शुरू हुआ है। पिछले साल भुवनेश्वर में राष्ट्रीय विज्ञान कांग्रेस के उद्घाटन समारोह में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि हम विज्ञान और तकनीक में चीन से पिछड़ गए हैं। कोलकाता में राष्ट्रीय विज्ञान, तकनीक और नवोन्मेष की नई नीति की घोषणा भी की गई। इस नीति के तहत देश में इनोवेशन को बढ़ाने के तरीके खोजे जाएंगे। रिस्की आयडिया फंड बनाने की बात है। स्मॉल आयडिया, स्मॉल मनी का विचार है। कोलकाता में घोषित नीति का लक्ष्य है कि हम विज्ञान, तकनीक के विकास पर सकल घरेलू उत्पाद का दो फीसदी पैसा लगाएं। आज यह एक फीसदी भी नहीं है। हमारे मुकाबले चीन तकरीबन डेढ़ फीसदी कर्च करता है। चूंकि उसका जीडीपी हमारे मुकाबले कहीं ज्यादा है, इसलिए विज्ञान और तकनीक पर उसका खर्च हमारे खर्च के तीन गुने से भी ज्यादा है। भारत ने सन 2010 से 2020 के दशक को नवोन्मेष दशक घोषित किया है। नवोन्मेष के लिए जोखिम उठाने होते हैं, नए विचारों को बढ़ावा देना होता है। ऐसा वही समाज करता है जो भविष्य को देखता है।

हमने साइंस, टेक्नॉलजी और इनोवेशन को वह महत्व नहीं दिया जो उसे मिलना चाहिए। अमेरिकी तकनीकी शिक्षा संस्थान एमआईटी की तर्ज पर आईआईटी खड़गपुर की स्थापना करके हमने इस रास्ते पर भी सबसे पहले कदम बढ़ाए थे। पर जिस गति से इसका विस्तार होना चाहिए वह नहीं हो पाया। आज हमारे पास इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस है। सोलह आईआईटी हैं। तीस एनआईटी हैं। तीन हजार दूसरे इंजीनियरी कॉलेजों से पढ़कर करीब पाँच लाख इंजीनियर हर साल बाहर निकल रहे हैं। फिर भी नेशनल नॉलेज कमीशन के अनुसार हमें अभी 1500 नए विश्वविद्यालयों की ज़रूरत है। केवल विश्वविद्यालयों के खुलने से काम नहीं होता। शिक्षा की गुणवत्ता ज्यादा ज़रूरी है। तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि आधारभूत विज्ञान में बच्चों की दिलचस्पी घट रही है। वे कॉमर्स पढ़ना चाहते हैं। भला क्यों?

देखना होगा कि यूरोप और अमेरिका के समाज ने ऐसा क्या किया जो वे वैज्ञानिक प्रगति कर पाए। चीन ही नहीं जापान, ताइवान, हांगकांग, सिंगापुर और इस्राइल हमसे आगे हैं। अपनी समस्याओं को समझना और उनके समाधान खोजना वैज्ञानिकता है। उसी तरह जैसे दूसरे विश्वयुद्ध में पराजित जापान ने अपने पुनर्निर्माण के वक्त किया। भारत ने भी कुछ सफलताएं हासिल की हैं। हरित क्रांति, अंतरिक्ष कार्यक्रम, एटमी ऊर्जा कार्यक्रम, दुग्ध क्रांति, दूरसंचार और सॉफ्टवेयर उद्योग इनमें शामिल हैं। सफलता के बुनियादी आधार हैं आर्थिक प्रतियोगी व्यवस्था, विज्ञान, लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व, आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था, उपभोक्ता की चेतना और काम का माहौल। अमेरिकी प्रगति के पीछे है इनोवेशन। पिछले दो सौ साल में अमेरिका ने सारी दुनिया के विशेषज्ञों को अपने यहाँ बुलाया। यूरोप ने दुनिया को बड़े वैज्ञानिक दिए, पर उसके वैज्ञानिक भी अमेरिका गए। अलेक्जेंडर ग्राहम बैल, चार्ल्स स्टाइनमेट्ज़, व्लादिमिर ज्वोरीकिन, निकोला टेस्टा, अल्बर्ट आइंस्टीन और एर्निको फर्मी जैसे वैज्ञानिक अपने देश छोड़कर यहाँ आए। उस समाज ने मेरिट का सम्मान करने का रास्ता पकड़ा। दुनिया के आधे नोबेल पुरस्कार अमेरिका के पास हैं। वैज्ञानिकता पूरे समाज की विरासत होती है। सीवी रामन, रामानुजम या होमी भाभा जैसे कई नाम हमारे पास भी हैं। पर व्यक्तिगत उपलब्धियों के मुकाबले असली कसौटी पूरा समाज होता है। हम खुद को दुनिया का गुरु समझते हैं, पर हमें भी दूसरों से कुछ सीखना होगा।