Monday 29 April 2013

भारत के मंगल अभियान पर विशेष प्रस्तुति :चार भागों में


मंगल अभियान पर शशांक द्विवेदी की इस  विशेष प्रस्तुति में लेख को चार भागों में बाटा गया है 
पहला भाग :भारत का मंगल अभियान
दूसरा भाग : मंगल गृह एक झलक
तीसरा भाग : नासा का मार्स रोवर क्यूरियोसिटी अभियान
चौथा भाग : मंगल के लिए  पूर्व में भेजे गये अभियान


पहला भाग :भारत का मंगल अभियान

इसरों की ऊँची उड़ान
नासा के मिशन मंगल के बाद अब भारत ने भी मंगल पर पहुंचने की कवायद शुरू कर दी है। पिछले दिनों केंद्रीय कैबिनेट ने भारत के मिशन मार्स के तहत नवंबर  2013 में मंगल ग्रह पर उपग्रह भेजने को मंजूरी दे दी है। अंतरिक्ष में उपग्रह प्रक्षेपण का  सौवां मिशन पूरा करने के बाद भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने इस वर्ष नवंबर में मंगल मिशन, मंगलयान छोड़ने की तैयारी शुरू कर दी है। यह मिशन पूरी तरह से स्वदेशी होगा। इस परियोजना पर करीब 450 करोड़ रुपए खर्च होंगे। कई शोधों से यह साबित हो चुका है कि  मंगल ग्रह ने धरती पर जीवन के क्रमिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है इसलिए यह अभियान देश के लिए बेहद महत्वपूर्ण है ।
यान के साथ 15 किलो का पेलोड भेजा जाएगा। इनमें कैमरे और सेंसर जैसे उपकरण शामिल हैं, जो मंगल के वायुमंडल और उसकी दूसरी विशिष्टताओं का अध्ययन करेंगे। मंगलयान को लाल ग्रह के निकट पहुंचने में आठ महीने लगेंगे। मंगल की कक्षा में स्थापित होने के बाद यान मंगल के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियां हमें भेजेगा। मंगलयान का मुख्य फोकस संभावित जीवन, ग्रह की उत्पत्ति, भौगोलिक संरचनाओं और जलवायु आदि पर रहेगा। यान यह पता लगाने की भी कोशिश करेगा कि क्या लाल ग्रह के मौजूदा वातावरण में जीवन पनप सकता है। मंगल की परिक्रमा करते हुए ग्रह से उसकी न्यूनतम दूरी 500 किलोमीटर और अधिकतम दूरी 8000 किलोमीटर रहेगी। यदि किसी कारणवश इस यान को इस साल नवंबर में रवाना नहीं किया जा सका तो हमें मंगलयान की यात्रा के लिए अनुकूल दूरी का इंतजार करना पड़ेगा। दूसरा अवसर 2016 में ही मिल पाएगा। इसरो के पूर्व अध्यक्ष प्रो. यू. आर. राव  के नेतृत्व में गठित समिति ने मंगलयान द्वारा किए जाने वाले प्रयोगों का चयन किया है। प्रो. राव के अनुसार उनकी टीम ने मंगल के लिए कुछ नायाब किस्म के प्रयोग चुने हैं। एक प्रयोग के जरिए मंगलयान लाल ग्रह के मीथेन रहस्य को सुलझाने की कोशिश करेगा। क्योंकि मंगल के वायुमंडल में मीथेन गैस की मौजूदगी के संकेत मिले हैं। मंगलयान पता लगाने की कोशिश करेगा कि मंगल पर मीथेन उत्सर्जन का स्रोत क्या है। मंगल आज भले ही एक निष्प्राण लाल रेगिस्तान जैसा नजर आता हो, लेकिन उसके बारे में कई सवाल आज भी अनुत्तरित हैं। हमारे सौरमंडल में अभी सिर्फ पृथ्वी पर जीवन है। शुक्र ग्रह पृथ्वी के बहुत नजदीक हैं, लेकिन वहां की परिस्थितियां जीवन के लिए एकदम प्रतिकूल हैं। मंगल भी पृथ्वी के बेहद करीब है, लेकिन उसका वायुमंडल बहुत पतला है, जिसमें ऑक्सीजन की मात्रा बहुत कम है। वहां कुछ चुंबकीय पदार्थ भी मौजूद हैं, लेकिन ग्रह का चुंबकीय क्षेत्र नहीं है। सब कुछ योजनानुसार चलता है तो मंगल तक अपने बूते पर यान भेजने वाला भारत रूस व अमेरिका के बाद विश्व का तीसरा राष्ट्र हो जाएगा। केवल एक अन्तरिक्ष यान भेज कर चन्द्रमा पर जल खोजकर भारत ने जो करिश्मा किया उसे देखते हुए भारत के मंगल अभियान को लेकर देश के भीतर व बाहर दोनों जगह उत्साह का मौहाल है।मंगलयान भारत की पूर्ण स्वेदेशी योजना है। मंगलयान की उड़ान यह सिद्ध करेगी कि भारत 5 करोड़ से 40 करोड़ किलोमीटर लम्बी तथा 300दिन तक चलने वाली अन्तरिक्ष यात्राओं को कुशलता से नियंत्रित कर सकता है।                                    
यान कैसे काम करेगा
भारत का मंगलयान मंगल पर उतरेगा नहीं अपितु उसकी की सतह से 500 से 80000 किलोमीटर दूर रहते हुए परिक्रमा करेगा। भारतीय अन्तरिक्ष अनुसंधान संस्थान का विश्वस्त राकेट पीएसएलवी एक्स एल मंगलयान को लेकर श्री हरिकोटा से उड़ान भरेगा। पीएसएलवी मंगलयान को अन्तरिक्ष में पृथ्वी की कक्षा में स्थापित कर देगा। इसके बाद मंगलयान के छः इंजिन चालू होकर इसे पृथ्वी की उत्केन्द्री कक्षा में ऊपर उठा देंगे। तब मंगलयान 600 से 215000किलोमीटर दूर रहते हुए पृथ्वी की परिक्रमा करने लगेगा। इसके बाद एक बार यान के इंजिन फिर चालू किए जाएगें जो मंगलयान को पृथ्वी के कक्ष से निकाल कर उसे सूर्य लक्ष्यी पथ पर मंगल की ओर अन्तरग्रही यात्रा पर भेज देगें। यदि सब कुछ योजनानुरूप चला तो मंगलयान सितम्बर 2014 में मंगल की परिक्रमा में पहुँच जाएगा।
मंगलयान मंगलग्रह परिक्रमा करते हुए ग्रह की जलवायु ,आन्तरिक बनावट, वहां जीवन की उपस्थिति, ग्रह की उत्पति, विकास आदि के विषय में बहुत सी जानकारी जुटा कर पृथ्वी पर भेजेगा। वैज्ञानिक जानकारी को जुटाने हेतु मंगलयान पर कैमरा, मिथेन संवेदक, उष्मा संवेदी अवरक्त वर्ण विश्लेषक, परमाणुविक हाइड्रोजन संवेदक, वायु विश्लेषक आदि पांच प्रकार के उपकरण लगाए जा रहे हैं। इन उपकरणों का वजन लगभग 15 किलोग्राम के लगभग होगा। मेथेन की उत्पत्ति जैविक है या रसायनिक यह सूचना मंगल पर जीवन की उपस्थिति का पता लगाने में सहायक होगी। मंगलयान में ऊर्जा की आपूर्ती हेतु 760 वॉट विद्युत उत्पादन करने वाले सौर पेनेल लगे होगें।
इस अभियान में 15 किलो के पांच एक्सपेरिमेंटल पेलोड्स भेजे जाएंगे। मंगल के लिए जो मिथेन सेंसर भेजा जाएगा उसका वजन 3.59   किलो होगा। यह सेंसर मंगल के पूरे डिस्क को छह मिनट के अंदर स्कैन करने में सक्षम है। दूसरा उपकरण थर्मल इंफ्रारेड स्पेक्टोमीटर है। इसका वजन चार किलो होगा। यह मंगल की सतह को मैप करेगा। एक और उपकरण मार्स कलर कैमरा है जिसका वजन 1.4  किलो है। इसके अलावा लेमैन-अल्फा फोटोमीटर का वजन 1.5  किलो है। यह मंगल के वातावरण में अटॉमिक हाइड्रोजन का पता लगाएगा।
इससे पहले के मंगल अभियानों में भी इस ग्रह के वायुमंडल में मिथेन का पता चला था, लेकिन इस खोज की पुष्टि की जानी अभी बाकी है। ऐसा माना जाता है कि कुछ तरह के जीवाणु अपनी पाचन प्रक्रिया के तहत मिथेन गैस मुक्त करते हैं।  अगर भारत का मंगल अभियान समय पर शुरू हो जाता है तो इससे वह उन खास पांच देशों की लिस्ट अमेरिका, रूस, यूरोप, चीन और जापान में आ जाएगा जो इस तरह के मिशन को अंजाम दे चुके हैं।
मंगल पर उत्सुकता
लाल ग्रह यानी मंगल पर जीवन की संभावनाओं को लेकर वैज्ञानिकों ही नहीं, आम आदमी की भी उत्सुकता लंबे अरसे से रही है । इस जिज्ञासा के जवाब को तलाशने के लिए कई अभियान मंगल ग्रह पर भेजे भी गये । इसका मुख्य काम यह पता करना है कि क्या कभी मंगल ग्रह पर जीवन था । मंगलयान ग्रह की मिट्टी के नमूनों को इकट्ठा कर यह पता लगायेगा कि क्या कभी मंगल पर जीवन था या नहीं? इस अभियान का उद्देश्य यह पता लगाना है कि वहां सूक्ष्म जीवों के जीवन के लिए स्थितियां हैं या नहीं और अतीत में क्या कभी यहां जीवन रहा है।
आधे प्रयास ही सफल
मंगल पर भेजे गए 43 मिशन में से लगभग आधे ही सफल हुए हैं। ये मिशन अमरीका, रूस, फ्रांस, चीन और  कुछ दूसरे यूरोपीय देशों ने भेजे थे। पिछले साल चीन का पहला मंगल मिशन, जिसे यिंगह्यो-1 का नाम दिया गया था, नाकाम हो गया था।  चीन ने युंगहुओ यान के द्वारा अपना मंगल अभियान प्रारम्भ किया था। रूस की मदद से अन्तरिक्ष में भेजा गया चीन का यह यान पृथ्वी के वायु मण्डल में पुनः प्रवेश कर जल कर नष्ट हो गया था।  जापान का प्रयास भी असफल रहा था। जापानी अन्तरिक्ष यान नोजामी के विद्युत परिपथ में खराबी उत्पन्न होजाने के कारण यह खतरा उत्पन्न हो गया था कि वह मंगल की सतह पर गिर कर उसे प्रदूषित कर सकता था। अतः नोजोमी को मंगल की कक्षा में स्थापित करने का प्रयास छोड़ कर उसे मंगल से परे धकेल दिया गया था। यूरोपीय संघ का यान मार्स एक्सप्रेस रूस के राकेट से भेजा गया था। पृथ्वी से बाहर ग्रहों के बीच किसी यान को भेजने का भारत का यह पहला अवसर होगा। यदि भारत अपने मंगलयान को सुरक्षित मंगल की कक्षा में पहुँचा कर उसे ठीक से नियंत्रित रख लेता है तो भी यह एक बड़ी उपलब्धि होगी। ऐसा करने वाला भारत एशिया का पहला व विश्व का पाँचवाँ राष्ट्र होगा।
 
दूसरा भाग : मंगल गृह एक झलक
 
पृथ्वी से लाल रंग के दिखाई देने वाले ग्रह पर अब सभी की निगाहें टिकी हैं। आखिर मंगल की सच्चाई क्या है? ऐसे कई सारे सवाल हैं, जिनके जवाब तलाशने के लिए  भारत इसी साल नवंबर में अपना मंगल अभियान शुरू कर रहा है । हमारे अपने जीवन में भी मंगल ग्रह को लेकर अनगिनत कहानियां जुड़ी हैं। लेकिन कुछ खास तथ्य इस गुलाबी ग्रह का कौतूहल बढ़ा देते हैं। आइए डालते हैं मंगल की कुछ विशेषताओं पर एक नजर
मंगल के दो चंद्रमा
मंगल सौरमंडल में सूर्य से चैथा ग्रह है। पृथ्वी से लाल दिखाई देने की वजह से ही इसको लाल ग्रह का नाम दिया गया। मंगल के दो चंद्रमा, फोबोस और डिमोज हैं। माना जाता है कि यह यह 5261 यूरेका के समान एक क्षुद्रग्रह हैं जो मंगल के गुरुत्व के कारण यहां फंस गए हैं। मंगल को पृथ्वी से नंगी आंखों से देखा जा सकता है।
पृथ्वी से मंगल की तुलना
मंगल पृथ्वी के व्यास का लगभग आधा है। यह पृथ्वी से कम घना है, इसके पास पृथ्वी का 15 फीसद आयतन और 11 फीसद द्रव्यमान है। इसका सतही क्षेत्रफल, पृथ्वी की कुल शुष्क भूमि से केवल थोड़ा ही कम है। हालाकि मंगल, बुध से बड़ा और अधिक भारी है पर बुध की सघनता भी ज्यादा है। फलस्वरूप दोनों ग्रहों का सतही गुरुत्वीय खिंचाव लगभग एक समान है। मंगल ग्रह की सतह का लाल-नारंगी रंग लोहे के आक्साइड के कारण है जिसे हैमेटाईट या जंग के रूप में पहचाना जाता है।
मंगल पर पानी की उम्मीद
मंगल पर 1965 में भेजे गए मेरिनर 4 यान की उड़ान से पहले तक यह माना जाता था कि ग्रह की सतह पर तरल अवस्था मे जल हो सकता है। यह हल्के और गहरे रंग के धब्बों की आवर्तिक सूचनाओं पर आधारित था। दूर से देखने में यहां पर विशालकाय नदियां और नाले दिखाई देते हैं। सौर मंडल के सभी ग्रहों में हमारी पृथ्वी के अलावा, मंगल ग्रह पर जीवन और पानी होने की संभावना सबसे अधिक है। पूर्ववर्ती अभियानों द्वारा जुटाए गए भूवैज्ञानिक सबूत इस ओर इशारा करते हैं कि मंगल ग्रह पर कभी बडे पैमाने में पानी मौजूद था। ऐसे भी संकेत हैं कि हाल के वर्षो में यहां छोटे गर्म पानी के फव्वारे भी निकले हैं।
मंगल पर मौजूद सौरमंडल का सबसे बड़ा पर्वत
सौरमंडल के ग्रह दो तरह के होते हैं स्थलीय ग्रह जिनमें जमीन होती है और गैसीय ग्रह जिनमें अधिकतर गैस ही गैस है। पृथ्वी की तरह, मंगल भी एक स्थलीय धरातल वाला ग्रह है। इसकी सतह देखने पर ऐसा लगता है मानो यहां पर भी चंद्रमा और पृथ्वी की ही तरह ज्वालामुखियों, घाटियों, रेगिस्तान और धु्रवीय बर्फीली चोटियां हों। हमारे सौरमंडल का सबसे अधिक ऊंचा पर्वत, ओलंपस मोंस मंगल पर ही स्थित है। साथ ही विशालतम कैन्यन वैलेस मैरीनेरिस भी यहीं पर स्थित है। अपनी भौगोलिक विशेषताओं के अलावा, मंगल का घूर्णन काल और मौसमी चक्र पृथ्वी के ही समान है।
थोलेईटिक बेसाल्ट से बनी सतह
मंगल एक स्थलीय ग्रह है जो सिलिकॉन और ऑक्सीजन युक्त खनिज, धातु और अन्य तत्वों से बना है जो आम तौर पर उपरी चट्टान बनाते हैं। मंगल ग्रह की सतह मुख्यत थोलेईटिक बेसाल्ट की बनी है। हालाकि यह हिस्से प्रारूपिक बेसाल्ट से अधिक सिलिका-संपन्न हैं और पृथ्वी पर मौजूद एंडेसिटीक चट्टानों या सिलिका ग्लास के समान हैं। मंगल की अधिकतर सतह लौह आक्साइड धूल के बारीक कणों से गहराई तक ढकी हुई है। मंगल की मिट्टी में मैग्नीशियम, सोडियम, पोटेशियम और क्लोराइड जैसे तत्व शामिल हैं। यह तत्व पृथ्वी पर भी मिट्टी में पाए जाते हैं जो पौधों के विकास के लिए आवश्यक हैं।
मंगल पर मौजूद लोहा-मैग्नेशियम
सिलिकान और आक्सीजन के अलावा, मंगल की सतह में बहुतायत में पाए जाने वाले तत्व लोहा, मैग्नेशियम, एल्युमिनियम, कैल्सियम और पोटेशियम है। 125 कि.मी. की अधिकतम मोटाई के साथ, ग्रह की सतह की औसत मोटाई लगभग 50 किमी. है। सौर प्रणाली में अपनी स्थिति की वजह से मंगल की कई विशेष रासायनिक विशेषताएं हैं। क्लोरीन, फास्फोरस और सल्फर, मंगल ग्रह पर पृथ्वी की तुलना में अधिक आम पाए जाते हैं।
मंगल की संघात घाटी
मंगल के उत्तरी गोलार्द्ध में एक भारी संघात घाटी है, जो 10600किमी. गुणा 8500 किमी. में फैली है। यह चंद्रमा की दक्षिण ध्रुव-ऐटकेन घाटी से चार गुना बड़ी है जो अब तक की खोजी गई सबसे बड़ी संघात घाटी है। लगभग चार अरब वर्ष पहले मंगल ग्रह पर प्लूटो आकार का एक पिंड भी टकराया था। यह घटना, मंगल का अर्धगोलार्द्ध विरोधाभास, का कारण मानी जाती है, जिसने सपाट बोरेलिस घाटी रची जो कि ग्रह का 40 फीसद हिस्सा समाविष्ट करती है।

मंगल का इतिहास
मंगल ग्रह के भूवैज्ञानिक इतिहास को कई अवधियों में विभाजित किया जा सकता है। इनमें प्रमुख है नोएचियन काल। यह आज से 4.5  अरब वर्ष पूर्व से लेकर 3.5   अरब वर्ष पूर्व तक की एक अवधि है। इस दौरान मंगल ग्रह के सबसे पुरानी सतहों का गठन हुआ था। हेस्पेरियन काल 3.5   अरब वर्ष पूर्व से लेकर 2.9  - 3.3  अरब वर्ष पूर्व तक की अवधि है। इस काल में व्यापक लावा मैदानों का गठन हुआ। अमेजोनियन काल, 2.9  - 3.3  अरब वर्ष पूर्व से वर्तमान तक की अवधि है। अमेजोनियन क्षेत्रों के कुछ उल्का संघात क्रेटर है। सौरमंडल का सबसे बड़ा पर्वत ओलंपस मोन्स इसी अवधि के दौरान बना था।

तीसरा भाग : नासा का मार्स रोवर क्यूरियोसिटी अभियान
 
 पिछले दिनों मंगल पर जीवन की तलाश में अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा का सबसे हाई टेक मार्स रोवर क्यूरियोसिटी लाल ग्रह की सतह पर सफलतापूर्वक उतर गया । यह पूरी दुनियाँ के लिए एक ऐतिहासिक और गौरवशाली क्षण था  ,क्योंकि 5.7  करोड़ किलोमीटर के सफर के बाद मंगल ग्रह पर इंसान के सबसे बड़े प्रयोग का पहला चरण कामयाब  हुआ हुआ ।  अब क्यूरियोसिटी से मंगल के बारें में सटीक जानकारी मिल रही है । वैज्ञानिकों ने  नौ साल की कड़ी मेहनत के बाद क्युरिऑसिटी रोवर को मंगल यात्रा पर भेजने के लिए तैयार किया था । जिस  पर करीब 2.5  अरब डॉलर का खर्च आया ।
अंतरिक्ष यान क्यूरियोसिटी रोवर कई मायनों में बेहद खास है । ये न सिर्फ नासा की ओर से बनाया गया अबतक का सबसे भारी और बड़ा अंतरिक्ष यान है बल्कि नासा के दस सबसे विशिष्ट और तकनीक संपन्न अंतरिक्ष उपकरणों को लेकर गया है । पहली बार वैज्ञानिकों की मदद के बिना किसी अंतरिक्ष यान की स्वाचालित लैंडिंगहुई । अंतरिक्ष विज्ञान के इतिहास में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ । . क्यूरियोसिटी अपने साथ ऐसे उपकरणों को ले गया है, जिससे वह चट्टानों और मिट्टी के नमूनों की जांच वहीं कर सकता है । पहले के मिशन पर भेजे गये यानों में इस तरह की कोई सुविधा नहीं थी । इसमें दो रोबोटिक हाथ लगे हैं, जो विभित्र उपकरणों को संचालित करने के काम आते हैं । इसी से यह मंगल ग्रह की सतह की खुदाई करेगा और मिट्टी को विश्लेषण के लिए यान के दूसरे उपकरण के पास भेज देगा । इसमें प्लूटोनियम बैट्री है, जिससे इसे दस साल से भी ज्यादा समय तक लगातार ऊर्जा मिलती रहेगी ।
वैज्ञानिक को अब इस बात का पता लगाना है कि मार्स का उत्तरी गोलार्ध सतही और नीचे क्यों हैकहा जाता है कि कभी इस सतह पर पानी बहने के कारण ऐसा हुआ होगा। जबकि दक्षिणी गोलार्ध काफी उबड़-खाबड़ और पथरीला क्यों है? मार्स का दक्षिणी गोलार्ध उत्तरी गोलार्ध से करीब 4.8  किलोमीटर ऊंचा है । मार्स पर मिथेन की खोजमार्स एक्सपे्रस स्पेसक्रॉफ्टने 2003 में की थी। दरअसल, मिथेन सिंपल ऑर्गेनिक मोलेक्यूल है, जो सड़े हुए पदार्थ से पैदा होती है। मार्स के वातावरण में मिथेन गैस पिछले 300 सालों से ही है। अब सवाल यह है कि मार्स के वातावरण में मिथेन कहां से आया? ‘
क्यूरियोसिटी के सामने गेल कार्टर पर चढ़ने की चुनौती है । गेल कार्टर मध्य मंगल की एक चट्टान है । इसकी जांच करने के लिए क्यूरियोसिटी को पांच किलोमीटर की चढ़ाई करनी होगी. अब तक की रिसर्च से लगता है कि मंगल की चट्टानों में पानी का अंश मौजूद है । क्यूरियोसिटी के भीतर ही एक प्रयोगशाला है । रोवर पता लगा सकेगा कि क्या मंगल पर एककोशिकीय जीवन फूटा था या इसकी संभावनाएं हैं ।
क्यूरियोसिटी रोवर  की इस सफलता से दुनिया को बहुत उम्मीदें है  । इसके  जिनके जरिए ग्रह की चट्टानों, मिट्टी और वायुमंडल का विश्लेषण किया जा सकता है। जिससे  दुनियाँ को  मंगल के अतीत के बारे महत्वपूर्ण जानकारी  मिल सकती  हैं साथ में  यह पता चल सकता है कि अतीत में मंगल पर कितना पानी था, क्यां वहां की परिस्थितियां जीवन के अनुकूल थीं और ऐसे क्या कारण थे, जिनकी वजह से यह ग्रह आज एक बंजर लाल रेगिस्तान में तब्दील हो गया। मंगल की नई विज्ञान प्रयोगशाला ग्रह पर भेजे गए पिछले मिशनों से प्राप्त अनुभवों पर आधारित है। नए मिशन में उन तकनीकों को शामिल किया गया है, जो आगे चल कर मंगल से नमूने लाने में मदद करेगी और अंतत वहां मनुष्य के मिशन को सुगम बनाएगी।
 
चौथा भाग : मंगल के लिए  पूर्व में भेजे गये अभियान
मंगल के लिए पूर्व में दर्जनों अंतरिक्ष यान, जिसमें ऑर्बिटर, लैंडर और रोवर शामिल है, ग्रह के सतह, जलवायु और भूविज्ञान के अध्ययन के लिए सोवियत संघ, संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोप और जापान द्वारा भेजे गए है ।
नासा के मार्स ओडिसी यान ने 2001 में मंगल की कक्षा में प्रवेश किया । ओडिसी के गामा रे स्पेक्ट्रोमीटर ने मंगल के उपरी मीटर में महत्वपूर्ण मात्रा की हाइड्रोजन का पता लगाया । ऐसा लगता है कि यह हाइड्रोजन, जल बर्फ के विशाल भंडार में निहित है ।
यूरोपीय अंतरिक्ष अभिकरण का अभियान, मार्स एक्सप्रेस, 2003 में मंगल पर पहुंचा । इसने बीगल 2 लैंडर को ढोया, जो अवतरण के दौरान विफल रहा और फरवरी 2004 में इसे लापता घोषित किया गया। 2004 की शुरुआत में प्लेनेटरी फूरियर स्पेक्ट्रोमीटर टीम ने घोषणा की कि इस यान ने मंगल के वायुमंडल में मीथेन का पता लगाया था । जनवरी 2004 में, नासा के जुड़वा मंगल अन्वेषण रोवर, स्पिरिट ( एम.इ.आर.-ए ) और ओपोर्च्युनिटी ( एम.इ.आर.-बी ) मंगल की धरती पर उतरे । दोनों को अपने सभी लक्ष्यों से अधिक मिला । अनेकों अति महत्वपूर्ण वैज्ञानिक तथ्यों के बीच यह एक निर्णायक सबूत रहे है कि दोनों अवतरण स्थलों पर पूर्व में कुछ समय के लिए तरल पानी मौजूद था । मंगल के धूल बवंडर और हवाई तूफानों ने कई अवसरों पर दोनों रोवरों के सौर पैनलों को साफ किया है, और इस प्रकार उनके जीवन काल में वृद्धि हुई है । स्पिरिट रोवर ( एम.इ.आर.-ए ) 2010 तक सक्रिय रहा था, जब तक कि इसने आंकड़े भेजना बंद नहीं कर दिया ।
10 मार्च, 2006 को नासा का मंगल टोही परिक्रमा यान (एमआरओ), एक दो-वर्षीय विज्ञान सर्वेक्षण चलाने के लिए कक्षा में पहुंचा । इस यान ने आगामी लैंडर अभियान के लिए उपयुक्त अवतरण स्थलों को खोजने के लिए मंगल के इलाकों और मौसम का मानचित्रण शुरू किया । 3  मार्च, 2008 को वैज्ञानिकों ने बताया, एमआरओ ने ग्रह के उत्तरी ध्रुव के पास एक सक्रिय हिमस्खलन श्रृंखला की पहली छवि बिगाड़ दी ।
मंगल की ओर रवाना सभी अंतरिक्ष यानों में लगभग आधे ही सफल हुए है । कुछ अभियान पूरा होने या यहाँ तक कि अपने अभियान के शुरुआत के पहले ही किसी ना किसी तरीके से विफल हो गए । अभियान विफलता के लिए आमतौर पर तकनीकी समस्याओं को जिम्मेदार माना जाता है, और योजनाकार प्रौद्योगिकी और अभियान लक्ष्यों का संतुलन करते है । 1995 के बाद से विफलताओं में शामिल है  मार्स 96 ( 1996 ), मार्स क्लाइमेट ऑर्बिटर ( 1999 ),मार्स पोलार लैंडर ( 199 ), डीप स्पेस 2 ( 1999), नोजोमी ( 2003 ), और फोबोस-ग्रंट ( 2011 ) ।

Saturday 27 April 2013

दोबारा चलते-फिरते दिखेंगे लुप्त हुए जीव

मुकुल व्यास
वैज्ञानिक कुछ समय से उन जीव-जंतुओं को पुनर्जीवित करने की कोशिश कर रहे हैं,जो एक जमाने पहले पृथ्वी से लुप्त हो चुके हैं। उनकी कोशिश का यह अर्थ नहीं है कि जुरासिक पार्क जैसी कोई चीज हमारे सामने आने वाली है। हॉलिवुड की इस चर्चित साइंस फिक्शन फिल्म में वैज्ञानिकों को सैकड़ों डायनोसोर प्रजातियों को पुनर्जीवित करते हुए दिखाया गया था। करोड़ों साल पहले लुप्त हो चुके डायनोसोरों को फिर से पैदा करना एक नामुमकिन सी बात है। लेकिन मैमथ (हाथी का करीबी, लेकिन उसके दोगुने कद वाला रिश्तेदार) और उड़ न पाने वाला भारी पक्षी डोडो कुछ ऐसे विलुप्त जीव है, जिन्हें वैज्ञानिक क्लोनिंग तकनीक के जरिए पुनर्जीवित करना चाहते हैं।

इस दिशा में उन्हें कुछ कामयाबी भी मिल रही है। पिछले दिनों ऑस्ट्रेलियाई वैज्ञानिकों ने क्लोनिंग तकनीक से एक अनोखे मेंढक का भ्रूण उत्पन्न कर दिया, जो 1983 में लुप्त हो गया था। यह मेंढक ऑस्ट्रेलिया में क्वींसलैंड के घने जंगलों में पाया जाता था। इसकी खासियत यह थी कि इसकी मादा अपने अंडे निगलने के बाद मुंह से अपनी संतानों को जन्म देती थी। प्राकृतिक आवास के विनाश और एक संक्रामक बीमारी ने इस अजीबोगरीब जीव की जाति ही नष्ट कर दी थी। वैज्ञानिकों ने लेजारस प्रोजेक्ट के तहत अपने प्रयोग में मेंढक की 'मृत' कोशिका के नाभिक को इससे मिलती-जुलती प्रजाति के ताजा अंडे में प्रत्यारोपित कर दिया। इसके लिए उन्होंने मेंढक के नमूनों का इस्तेमाल किया, जिन्हें पिछले 40 साल से एक डीप फ्रीजर में संभाल कर रखा गया था। इस प्रक्रिया में उत्पन्न कुछ अंडे विभाजित हो कर प्रारंभिक भ्रूण में तब्दील हो गए। ये भ्रूण कुछ दिन तक ही जिंदा रह पाए, लेकिन आनुवंशिक परीक्षणों से इस बात की पुष्टि हो गई कि विभाजित कोशिकाओं में विलुप्त मेंढक की जीन सामग्री मौजूद है।

इस प्रोजेक्ट से जुड़े प्रमुख वैज्ञानिक और न्यू साउथ वेल्स यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर माइक आर्चर ने बताया कि हमने मृत कोशिकाओं को सक्रिय करके उन्हें जीवित कोशिकाओं में बदल दिया और इस प्रक्रिया में विलुप्त मेंढक के जीनोम (जीन समूह) को पुनर्जीवित कर दिया। विलुप्त मेंढक की ताजा कोशिकाओं का इस्तेमाल भविष्य में नए क्लोनिंग प्रयोगों के लिए किया जाएगा। इस प्रोजेक्ट पर काम कर रहे वैज्ञानिकों का मानना है कि उनके प्रयोग ने लुप्त जीव-जंतुओं को पुनर्जीवित करने का रास्ता खोल दिया है। उनका ख्याल है कि इस तकनीक से मारीशस के विलुप्त पक्षी डोडो, साइबेरिया के मैमथ और न्यूजीलैंड के विशाल मोआ पक्षी को फिर से पैदा करना संभव है। प्रो. आर्चर कहना है कि विलुप्त जंतुओं के पुनर्जीवन में अड़चनें सिर्फ तकनीकी हैं, इसके लिए जैविक तौर पर कोई रुकावट नहीं है। इस तकनीक का उपयोग ऐसे जीव-जंतुओं के संरक्षण के लिए भी किया जा सकता है, जिनके लुप्त होने का खतरा है।

प्रो. आर्चर ने पिछले दिनों वॉशिंगटन में एक सम्मेलन के दौरान पहली बार अपने लेजारस प्रोजेक्ट के बारे में सार्वजनिक रूप से चर्चा की। नेशनल ज्योग्रैफिक सोसाइटी द्वारा आयोजित इस सम्मेलन में दुनिया के विभिन्न कोनों से आए रिसर्चरों ने विलुप्त जीव-जंतुओं और पौधों को फिर से जीवित करने के उपायों पर विचार किया और इस संबंध में अब तक की प्रगति का जायजा लिया। आर्चर ने सम्मेलन को बताया कि उनका इरादा अब ऑस्ट्रेलिया के विलुप्त तस्मानियाई बाघ को क्लोनिंग के जरिये पुनर्जीवित करने का है।

विलुप्त जीवों को पुनर्जीवित करने की कोशिश में सबसे दिलचस्प मामला मैमथ का है। वैज्ञानिकों का कहना है कि हाथी का यह नजदीकी रिश्तेदार 20 साल के अंदर साइबेरिया के घास के मैदानों में फिर से चहलकदमी करता हुआ दिख सकता है। दुनिया भर के वैज्ञानिकों की कई टीमें उत्तरी रूस से मिले मैमथ जीवाश्मों के डीएनए के विश्लेषण से उसका जीन मैप बनाने की कोशिश कर रही हैं। रूस और दक्षिण कोरिया के वैज्ञानिकों ने मैमथ का जीवित नमूना तैयार करने के लिए एक बड़ा प्रोजेक्ट शुरू किया है। इस प्रोजेक्ट के लिए वे मैमथ कोशिका के नाभिक और एशियाई हाथी के अंडाणु का इस्तेमाल करेंगे। यह बहुत ही चुनौतीपूर्ण लक्ष्य है क्योंकि हाथी से अंडाणु हासिल करने में अभी तक किसी को भी सफलता नहीं मिली है। जापानी वैज्ञानिक पांच साल के अंदर मैमथ का क्लोन तैयार करने का सपना देख रहे हैं।

हावर्ड यूनिवर्सिटी के आनुवंशिक वैज्ञानिक जार्ज चर्च का कहना है कि करीब 4000 वर्ष पहले विलुप्त हो जाने के बावजूद साइबेरिया की बर्फीली जमीन में सुरक्षित मैमथ जीवाश्मों से डीएनए निकालना संभव है। चर्च के मुताबिक मैमथ के सही-सही जीन नक्शे के आधार पर एशियाई हाथी के जीन-नक्शे को संशोधित किया जाएगा। संशोधित जीन नक्शे का मैमथ के जीन नक्शे से पूरी तरह मिलान होने पर एशियाई हाथी के अंडाणु को निषेचित करके एक भ्रूण तैयार किया जाएगा। यह एक लंबी और कठिन प्रक्रिया है। इस विधि से जन्म लेने वाला जीव मैमथ जैसा हो सकता है, लेकिन वह मैमथ की हूबहू कॉपी नहीं होगा।

विलुप्त प्रजातियों के डीएनए के लिए बर्फ में सुरक्षित जीवाश्मों को सबसे अच्छा स्रोत माना जाता है। साइबेरिया के परमाफ्रॉस्ट (स्थायी रूप से जमी हुई जमीन) में मैमथ के कई जीवाश्म मिले हैं, जो काफी अच्छी हालत में हैं। लेकिन रिसर्च के लिए उपयोगी डीएनए का बर्फ में संरक्षण अनिवार्य नहीं है। रिसर्चरों ने संग्रहालयों में रखे विलुप्त जीवों के नमूनों से भी जीन सामग्री जुटा ली है। मसलन, हावर्ड के आनुवंशिक वैज्ञानिकों ने एक संग्रहालय में रखे एक विलुप्त कबूतर, पैसेंजर पिजन के 100 साल पुराने नमूने के डीएनए से उसका जीन नक्शा तैयार कर लिया है। अब वे इस नक्शे के आधार पर पैसेंजर पिजन को पुनर्जीवित करने की कोशिश कर रहे हैं। पैसेंजर पिजन के विशिष्ट जीनों को एक सामान्य कबूतर में समाहित करके वे पैसेंजर पिजन जैसा पक्षी पैदा करने की कोशिश करेंगे। कुछ साल पहले रिसर्चरों के एक अन्य दल ने तस्मानियाई बाघ के 100 साल पुराने नमूने से डीएनए अलग कर लिया था।

कुछ विशेषज्ञों ने विलुप्त जीवों को फिर से जिंदा करने के प्रयोगों के औचित्य पर सवाल उठाए हैं। अमेरिका की ड्यूक यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर स्टुअर्ट पिम का कहना है कि बहुत सी प्रजातियां कुदरती आवास के असुरक्षित होने के कारण पृथ्वी से ओझल हो गई थीं। ऐसी प्रजातियों को पुनर्जीवित करके हम उनका क्या करेंगे, और आखिर उन्हें बसाएंगे कहां?

Friday 26 April 2013

गणित के सिरमौर -रामानुजन की पुण्यतिथि पर दैनिक जागरण में लेख

शशांक द्विवेदी 
Dainik Jagran
आज के दैनिक जागरण में मेरा विशेष लेख
आज गणित के क्षेत्र में विलक्षण प्रतिभा के धनी रामानुजन की पुण्यतिथि है .उन पर लेख लिखने से पहले मैंने उनके बारें में बहुत ज्यादा पढ़ा ,पढकर मै हैरान रह गया रामानुजन के जीवन चरित्र से हमारी शिक्षा व्यवस्था का खोखलापन  उजागर होता है। 13 वर्ष की अल्पायु में रामानुजन् ने अपनी गणितीय विश्लेण की असाधारण प्रतिभा से अपने सम्पर्क के लोगों को चमत्कृत कर दिया मगर भारतीय शिक्षा व्यवस्था ने उन्हें असफल घोषित कर बाहर का रास्ता दिखा दिया था। वास्तव में हमारी शिक्षा व्यवस्था में विलक्षण बालकों के लिए कोई स्थान नहीं है। १२ वी की परीक्षा में गणित के अलावा वो सभी विषय में फेल हो गये थे .बिना डिग्री लिए ही रामानुजन् को औपचारिक अध्ययन छोड़ना पड़ा। अपने अध्ययन के बल पर रामानुजन् कभी भी डिग्री प्राप्त नहीं कर सके। लेकिन उनके कार्यों और योग्यता को देखते हुए ब्रिटेन ने उन्हें बी ए की मानद उपाधि दी और बाद में उन्हें पी एच डी की भी उपाधि दी । यहाँ पर एक सवाल उठता है कि क्या यह भारत में संभव था या है क्योंकि हमारी शिक्षा व्यवस्था ने तो रामानुजन को हर तरह से नकार ही दिया था । .वो तो सिर्फ अपनी विलक्षण प्रतिभा और प्रो हार्डी जैसे मित्रों की वजह से ही विश्व पटल पर आ पायें ।
देश एक बार फिर से गणित के क्षेत्र में दुनियाँ का सिरमौर बने इसके लिए युवा अथक प्रयास करें सिर्फ यही रामानुजन को सच्ची श्रद्धांजलि होगी । 
For nicely read pls click on given link
http://epaper.jagran.com/epaperimages/26042013/delhi/25ned-pg8-0.pdf






Wednesday 24 April 2013

गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन् आयंगर पर विशेष

विज्ञान आस्था को नहीं स्वीकारता मगर भारत माँ के यशस्वी पुत्र गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन् ने आस्था से प्राप्त उपलब्धियों के बल पर ही सम्पूर्ण विश्व को चमकृत किया  हैं। श्रीनिवास रामानुजन के अनुभव से हमारी शिक्षा व्यवस्था का खोखलापन भी उजागर होता है। 13 वर्ष की अल्पायु में रामानुजन् ने अपनी गणितीय विश्लेण की असाधारण प्रतिभा से अपने सम्पर्क के लोगों को चमत्कृत कर दिया मगर शिक्षा व्यवस्था ने उन्हें असफल घोषित कर बाहर का रास्ता दिखा दिया था। स्पष्ट है कि  शिक्षा व्यवस्था में विलक्षण बालकों के लिए कोई स्थान नहीं है। रामानुजन् की पारिवारिक पृष्ठभूमि गणित की नहीं थी। परिवार में कोई उनका मददगार भी नहीं था ऐसे में अपनी क्षमता को दुनिया के सामने लाने हेतु रामानुजन् को अत्यधिक परिश्रम करना पड़ा था।
साधारण प्रारम्भिक जीवन
         श्रीनिवास रामानुजन् का जन्म 22 दिसम्बर 1887 को तत्कालीन मद्रास प्रान्त में हुआ था। इनका जन्म स्थान तंजोर जिले के कुम्भकोनम नगर के पास इरोद नामक गाँव है। इनके पिता के.श्रीनिवास आयंगर एक निर्धन ब्राह्मण थे तथा कपड़े की दुकान पर मुनीम का कार्य करते थे। के.श्रीनिवास का विवाह होने के बहुत समय बाद तक उनके कोई संतान नहीं हुई थी। तब श्रीनिवास आयंगर के श्वसुर ने नामगिरी देवी से सन्तान के लिए मनौती मांगी। इसके बाद रामानुजन् का जन्म हुआ। रामानुजन् के जन्म के बाद इनकी माँ ने तीन संतानों को जन्म दिया था। तीनों संतानों में से कोई भी अगले जन्म दिन तक जीवित नहीं रह पाई थी। रामानुजन् के पिता को दुकान के कार्य से बहुत कम समय मिल पाता था। रामानुजन् के लालन-पालन की समस्त जिम्मेदारी इनकी माँ कोमल अमल ने संभाल रखी थी। धार्मिक विचारों वाली कोमल अमल मन्दिर में भजन गाया करती थी। अतः रामानुजन का बचपन मंदिर परिसर के पवित्र वातावरण में बीता। रामानुजन ने, बचपन के संस्कारों पूजा-पाठ,खान-पान आदि को, जीवन भर निभाया। आज कुछ लोग रामानुजन् के संस्कारों को उनकी संकीर्णता बताकर,उसे इनकी छोटी उम्र में मृत्यु के लिए जिम्मेदार बता रहे हैं। इसे उचित नहीं कहा जा सकता।                                               
                रामानुजन् का बचपन कठिन परिस्थितियों में गुजरा। दो वर्ष की उम्र में रामानुजन्, तंजार जिले में महामारी के रूप में फैली, घातक चेचक की चपेट में आगए थे। दैवीय कृपा से रामानुजन् बच गए। पिता की निर्धनता के कारण रामानुजन् को कभी नाना के घर  तो कभी पिता के घर पर रहना पड़ता था। इस कारण इनके स्कूल भी बदलते रहते थे। प्रारम्भिक शिक्षा तमिल माध्यम के स्थानीय विद्यालय में ही हुई। बाद में नाना ने इन्हें मद्रास के एक माध्यमिक विद्यालय में भर्ती कराया। मद्रास में विद्यालय जाना रामानुजन् को अच्छा नहीं लगता था। रामानुजन् नियमित रूप से विद्यालय भेजने के लिए इनके नाना ने एक सिपाही को लगा रखा था। छः माह बाद ही रामानुजन् नाना के घर मद्रास से पुनः कुम्बाकोनम लौट गए। इसके बाद भी रामानुजन् प्राथमिक कक्षा की परीक्षा में जिले भर में प्रथम रहे।
                 गणित से रामानुजन् का औपचारिक परिचय माध्यमिक विद्यालय में भर्ती के बाद हुआ। 11 वर्ष की उम्र में रामानुजन् नेमकान में किराए रहने वाले, दो महाविद्यालयी विद्यार्थियों के साथ उनके गणित के प्रश्न हल करने लगे थे। गणित के प्रति रामानुजन का रुझान देख, इन्हें उच्च त्रिकोणमिति पर एस.एल.लोनी द्वारा लिखित पुस्तक करने को दी गई। 13 वर्ष में रामानुजन् ने उस पुस्तक की सभी समस्याओं को हल कर दिया था। रामानुजन् ने गणित की पुस्तक के प्रश्न हल करने में महारत हासिल करने के साथ ही अपने स्तर पर भी कई प्रमेय सिद्ध कर दिखाए थे। इस दौरान विभिन्न गणित प्रतियोगिताओं के अनेक पुरस्कार एवं प्रशंसापत्र रामानुजन को मिलते रहे। रामानुजन की प्रसिद्धि का लाभ इनके विद्यालय को भी मिला। उस समय रामानुजन के विद्यालय में 1200 विद्यार्थी एवं 35 शिक्षक होगए थे।
             हाई स्कूल परीक्षा में रामानुजन् ने गणित का प्रश्नपत्र, निर्धारित समय से, आधे समय में ही हल कर लिया था। गणित में अनन्त श्रेढ़ी के प्रति इनका अधिक लगाव था। 16 वर्ष की उम्र में जार्ज कर द्वारा लिखी गई पुस्तक "ए सिनोप्सिस ऑफ एलिमेन्टरी रिजल्टस् इन प्योर एण्ड एप्लाइड मेथेमेटिक्स" ने रामानुजन् को पूर्णरूप से गणित की दुनियां में पहुँचा दिया। पुस्तक में संग्रहित 5000 प्रमेयों के साथ बरनॉली संख्या, यूलर स्थिरांक आदि की गणनाएं कर रामानुजन अपने साथियों को चमकृत करने लगे थे। रामानुजन के प्रधानाध्यापक ने उन्हें गणित के रंगनाथन पुरस्कार से सम्मानित किया। प्रधानाध्यापक ने रामानुजन् की मेधा की सराहना करने के साथ ही परीक्षा में पूर्णाकों से भी अधिक अंक पाने की सम्भावना भी प्रकट की और कुम्बाकोनम के राजकीय महाविद्यालय में अध्ययन करने हेतु छात्रवृति की अग्रिम स्वीकृत भी कर दी थी।
                                                                    बुरे दिनों की शुरुआत
                                                       चारों ओर से प्राप्त प्रशंसा रामानुजन् को रास नहीं आई। इन्टर का परीक्षा परिणाम आया तो रामानुजन् ने गणित में बहुत अच्छे अंक पाए मगर अन्य विषयों में असफल रहे थे। पूर्व में स्वीकृत छात्रवृति कोई काम नहीं आई। निराश हो रामानुजन् घर छोड़ भाग गए। बाद में मद्रास के एक महाविघालय में प्रवेश लिया। यहाँ भी गणित को छोड़ कर अन्य विषयों में रामानुजन् की उपलब्घि निराशजनक ही रही थी। अगले वर्ष फिर प्रयास किया मगर असफल ही रहे। अतः बिना डिग्री लिए ही रामानुजन् को औपचारिक अध्ययन छोड़ना पड़ा। अपने अध्ययन के बल पर रामानुजन् कभी भी डिग्री प्राप्त नहीं कर सके।

                22 वर्ष की आयु में रामानुजन् का विवाह 9 वर्ष की कन्या जानकी अमल से हुआ। प्रचलित प्रथा के कारण वयस्क होने तक पत्नी पिता के घर ही रही थी। उसी समय रामानुजन् के अण्डकोष में पानी भरने का रोग होगया। शल्य चिकित्सा ही उसका एकमात्र उपचार था। उनके निर्धन परिवार के पास आपरेशन के लिए पर्याप्त धन नहीं था। एक डाक्टर ने निशुल्क ऑपरेशन कर  रामानुजन् को कष्ट से मुक्त कराया था। ठीक होने के बाद रामानुजन् ने मित्रों के यंहा रहकर गुजारा किया। इस दौरान क्लर्क की नौकरी की तलाश में रामानुजन् मद्रास में जगह जगह भटकते रहे। रामानुजन् ने बच्चों को गणित पढ़़ाना प्रारम्भ कर दिया, जिससे कुछ आमदनी होने लगी थी। 1910 के समाप्त होने के पूर्व ही रामानुजन् फिर बीमार हो गए। उस बीमारी ने रामानुजन् को इतना भयभीत कर दिया कि वे बचने की आशा भी छोड़ चुके थे। रामानुजन् ने अपने गणितीय अनुसंधान के पत्र अपने एक मित्र आर.राधाकृष्णन अयर दे दिए। रामानुजन् को विश्वास था कि  यदि रामानुजन् की मृत्यु हो जाती है तो मित्र वे पत्र प्रोफेसर सिंगानुरुवेलुर मदालियर या मद्रास क्रिश्चिनयन कॉलेज के ब्रिटिश प्रोफेसर एडवर्ड बी रोस को सौंप देगा।
       रोग से उभरने के बाद रामानुजन् ने मित्र से अपने अनुसंधान पत्र वापस ले लिए।  रामानुजन् फ्रान्सिसी नियन्त्रित क्षेत्र विलिपुरुम जाकर इण्डियन मेथेमेटीकल सोसाइटी के संस्थापक वी रामास्वामी अयर से मिले। वी रामास्वामी अयर वहाँ राजस्व विभाग में डिप्टि कलक्टर थे। रामानुजन् चाहते थे कि उन्हे उसी विभाग में क्लर्क की नौकरी मिल जावे। रामास्वामी रामानुजन् के गणित अनुसंधान कार्य को देखकर बहुत प्रभावित हुए। रामास्वामी नहीं चाहते थे कि रामानुजन् जैसा मेधावी व्यक्ति कलर्क के रूप में जीवन बितावे। रामास्वामी ने एक प्रंशसा पत्र देकर रामानुजन् अपने गणितीय मित्रों के पास मद्रास भेज दिया।
                रामानुजन् नेलोर के जिला कलक्टर तथा इण्डियन मेथेमेटीकल सोसाइटी के सचिव रामचन्द्र राव से मिले। राव को इनके कार्य की मौलिकता पर पहले तो विश्वास नहीं हुआ मगर बाद में, विस्तार से हुई बातचीत तथा मित्र सी.वी.राजगोपालाचार्य के कहने पर, वे संतुष्ट होगए। राव ने रामानुजन् को आर्थिक सहयोग उपलब्ध कराया तथा मद्रास मे रह कर अनुसंधान कार्य जारी रखने का सुझाव दिया। वी रामास्वामी अयर के सहयोग से इनका अनुसंधान कार्य जनरल ऑफ इण्डियन मेथेमेटीकल सोसाइटी में प्रकाशित हुआ। प्रथम औपचारिक पत्र बरनूली की संख्या पर प्रकाशित किया था। जनरल के संपादक के अनुसार रामानुजन् का अनुसंधान बहुत ही मौलिक एवं मेधावी था मगर स्पष्टता की कमी के कारण अधिकांश लोग उनकी बातों को समझ ही नहीं पाते थे।
                            अच्छे दिनों की शुरुआत
              1912 में रामानुजन् को मद्रास के एकाउन्टेन्ट जनरल के कार्यालय में 20 रुपए मासिक पर क्लर्क के अस्थायी पद पर कार्य मिल गया। रामानुजन् ने मद्रास पोर्ट ट्रस्ट के एकाउटेन्ट जनरल कार्यालय में भी नौकरी का आवेदन दे दिया था। आवेदन पत्र में गणित के अनुसंधान का व्यौरा देने क साथ ही प्रेसीडेन्सी कॉलेज के प्रोफेसर ई.डब्लू.मिडलमास्ट का प्रंशसा पत्र भी लगा दिया था। इनका प्रार्थना पत्र स्वीकार कर लिया गया। रामानुजन् को 30 रुपए मासिक का स्थायी पद प्राप्त हो गया। यहाँ अधिकारी तथा सहयोगियों की सदाशयता के कारण रामानुजन अपना कार्य जल्दी से पूरा कर शेष समय में गणित के अनुसंधान करने लगे।
                  शुभचिन्तकों के सुझाव पर रामानुजन् ने अंग्रेज गणितज्ञों का ध्यान अपने अनुसंधान कार्य की ओर दिलाने का प्रयास भी प्रारम्भ किया। युनिर्वसिटी कॉलेज लन्दन के गणितज्ञ एम. सी. एम. हिल गणित के प्रति रूचि रामानुजन् की से रुची से प्रभावित तो हुए मगर रामानुजन् की कमजोर अकादमिक पृष्टभूमि व कुछ अन्य कमियों के कारण उन्हें विद्यार्थी के रूप में स्वीकार नहीं कर सके। रामानुजन् निराश नहीं हुए। पुनः नया प्रारूप तैयार कर क्रेम्बिज विश्वविद्यालय के तीन गणितज्ञों को भेजा। दो ने. बिना किसी टिप्पणी के, इनके पत्र को लौटा दिया। केवल प्रोफेसर जी.एच.हार्डी ने रामानुजन् के कार्य में रुचि दिखलाई। प्रोफेसर जी.एच.हार्डी ने अपने सहयोगी जे.ई.लिटिलवुड के साथ मिलकर रामानुजन् के कार्य की गम्भीरता से जाँच की। पहले तो उन्हें भी रामानुजन् की खोजों की सत्यता पर सन्देह हुआ था। अन्त में प्रोफेसर जी.एच.हार्डी ने रामानुजन को अद्वितीय प्रतिभा का उत्कृष्ट गणितज्ञ स्वीकार कर लिया।
                     प्रोफेसर हार्डी ने पत्र लिखकर रामानुजन को इगलैण्ड आने का आग्रह किया। प्रोफेसर हार्डी ने भारत में नियुक्त अंग्रेज अधिकारियों से संपर्क कर रामानुजन के इ्रंग्लैण्ड जाने की सभी व्यवस्थाएं भी कर दी थी। रामानुजन् अपने संस्कार वश, विदेश यात्रा के, हार्डी के निमन्त्रण को स्वीकार नहीं कर सके। आभार स्वीकृति के पत्र के साथ, कुछ ओर प्रमेय प्रोफेसर हार्डी को भेज दिए। प्रोफेसर हार्डी ने ट्रिनिटि कॉलेज के पूर्व गणितज्ञ गिल्बर्ट वाकर को रामानुजन् का कार्य दिखाया। वाकर ने रामानुजन का कार्य देखा तो वे आष्चर्यचकित रह गए। गिल्बर्ट वाकर ने रामानुजन् को पत्र लिख कुछ समय केम्ब्रिज में बिताने का अनुरोध किया। इस आग्रह को, रामानुजन् के भारतीय शुभचिन्तकों ने, गम्भीरता से लिया। परिणाम स्वरूप मद्रास विश्वविद्यालय ने दो वर्ष के लिए 75 रुपए मासिक की छात्रवृति रामानुजन् को स्वीकृत कर दी। रामानुजन् अपना अनुसंधान कार्य जनरल ऑफ इण्डियन मेथेमेटीकल सोसाइटी में प्रकाशित कराते रहे। इस दौरान चकित करने वाली एक घटना हुई। रामानुजम् ने एक पॉलिश गणितज्ञ के अनुसंधान परिणाम, मूल पत्र के प्रकाशित होने से पूर्व ही, प्रकाशित कर दिए थे। रामानुजम् ने वह कार्य अपने पूर्व अनुमानों के बल पर किया था।
           रामानुजन् के इंगलैण्ड जाने से इंकार करने की बात प्रोफेसर हार्डी को बुरी थी। वैज्ञानिक द्दष्टिकोण के कारण प्रोफेसर हार्डी ने रामानुजन को बुलाने का प्रयास त्यागा नहीं। कुछ समय बाद प्रोफेसर हार्डी का एक साथी ई.एच.नेविल भाषण के लिए मद्रास  आया। प्रोफेसर हार्डी ई.एच.नेविले से रामानुजन् से मिल कर, उन्हें इंलैण्ड आने के लिए समझाने का आग्रह किया था। नेविले का प्रयास सफल रहा। कहते है कि नामम्कल की नामगिरी देवी ने स्वप्न में, रामानुजन की मा को, रामानुजन को विदेश जाने देने का आदेश दिया था। रामानुजन की माँ ने उनके विदेष जाने का विरोध करना छोड़ दिया था। 17 मार्च  को मद्रास से प्रस्तान कर रामानुजन 14 अप्रेल 1914 को इंगलैण्उ पहुँच गए। ई.एच.नेविले कार लेकर, इंगलैण्ड के पोर्ट पर, रामानुजन का इन्तजार कर रहे थे। छः सप्ताह नेविले के घर रूकने के बाद रामानुजन  अलग मकान में रहने लगे थे।

दो विपरीत व्यक्तित्वों का संगम

            केम्ब्रिज पहुँचते  ही रामानुजन् ने लिटिलवुड व हार्डी के साथ कार्य प्रारम्भ कर दिया था। रामानुजन् 120 प्रमेय पहले ही हार्डी को भेज चुके थे। रामानुजन् के नोट्स में और बहुत कुछ ऐसा था जिसको प्रकाश में लाया जाना शेष था। रामानुजन् के कार्य कि लिटिलवुड व हार्डी ने मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की और उनकी तुलना जेकोबी तथा यूलर जैसे विद्वानों से की। मजे की बात यह थी कि हार्डी व रामानुजन् दो विपरीत संस्कृतियों के प्रतिनिधि थे। हार्डी नास्तिक विचारों व गणितीय सोच के व्यक्ति थे तो रामानुजन् पूर्ण धार्मिक तथा अंतरात्मा की आवाज पर कार्य करन वाले थे। फिर भी 5 वर्ष तक मिलकर कार्य किया। इस दौरान हार्डी ने रामानुजन् की कमियों को भरने का पूर्ण प्रयास किया।
                 हाईली कम्पोजिट नम्बर शीर्षक के अनुसंधान कार्य के आधार पर 1916 में रामानुजन् को बी.ए. की उपाधि प्रदान की गई। प्रोफेसर हार्डी की यह सदाशयता ने रामानुजन् के जीवन की एक बड़ी कमी को दूर कर दिया। यह उपाधि वह चाबी थी जिसने आगे की सफलता के सभी द्वार खोल दिए थे। बाद में उसी उपाधि को पी.एचडी. में बदल दिया गया था। रामानुजन् के शोध प्रबन्ध का सार जनरल ऑफ लन्दन मेथेमेटीकल सोसाइटी में 50 पृष्ठ के विस्तार से छपा था। प्रोफेसर हार्डी के अनुसार तब तक किसी अन्य का ऐसा विद्वतापूर्ण पत्र उस जनरल में नहीं छपा था।  रामानुजन् को लन्दन मेथेमेटीकल सोसाईटी तथा रॉयल सोसाइटी व ट्रिनिटी कॉलेज केब्रिज का सदस्य चुना गया। उर्दासियर कुर्सेतजी के बाद रॉयल सोसाइटी के लिए चुने जाने वाले रामानुजन दूसरे भारतीय सदस्य थे।
गणितीय अनुसंधान का अत्यधिक दबाब तथा अपर्याप्त भोजन के कारण रामानुजन बीमार हो गए। रामानुजन पूर्ण शाकाहारी थे। विश्वयुद्ध के कारण सही खाद्य-सामग्री उपलब्ध नहीं हो पारही थी। टीबी का रोगी बता कर रामानुजन को सेनीटोरियम में रखा गया। 1919 में रामानुजन भारत लौट आए। भारत में रामानुजन के शुभचिन्तको ने उनका हर संभव ईलाज कराया। इस बार रामानुजन उभर नहीं सके। 26 अप्रेल 1920 को वे सदा के लिए हमसे बिछड़ गए।

               रामानुजन् ने आधुनिक विश्व के गणित  मानचित्र पर भारत को विशिष्ट स्थान दिलाया। रामानुजन् ने यह भी प्रतिपादित किया कि आस्था मेधावी व्यक्ति के जीवन में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। रामानुजन को सम्पूर्ण विश्व के गणितज्ञों का सम्मान मिला है। देश व तमिलनाडु राज्य विषेष रूप से रामानुजन को याद करता है। कई पुरस्कार तथा सम्मान उनकी याद में प्रदान किए जाते हैं। 10000 डालर का शास्त्रा रामानुजन पुरुस्कार महत्पूर्ण है। यह पुरुस्कार प्रतिवर्ष 32 वर्ष तक की उम्र के व्यक्ति को गणित में उल्लेखनीय कार्य करने हेतु दिया जाता है। यह पुरुस्कार कुम्बाकोनम में आयोजित एक समारोह में दिया जाता है। रामानुजन् कठिन परिस्थितियों में भी निरन्तर आगे बढ़ने के आदर्श के रूप में भारतीय प्रतिभाओं को प्रेरणा देते रहेंगे। श्रीनिवास रामानुजन की 125 वीं जयंती के उपलक्ष्य में वर्ष 2012 को राष्ट्रीय गणित वर्ष तथा श्रीनिवास रामानुजन के जन्म दिवस 22 दिसंबर को राष्ट्रीय गणित दिवस घोषित किया है। इन आयोजनों की सार्थकता इस बात में निहित है कि रामानुजन जैसी प्रतिभाओं को पहचान कर उन्हें उसी तरह तराशा जावे जैसे प्रोफेसर हार्डी ने रामानुजन को तराशा था। (साभार -विष्णु प्रसाद चतुर्वेदी )