Saturday 23 March 2013

आज अर्थ हावर पर विशेष -भावी पीढ़ी के “उजाले “ के लिए


अर्थ आवर यानी  दुनिया में पृथ्वी को बचाने की एक छोटी सी कोशिश जिसमे लगभग 100  देश और 6000  शहर जुड़ चुके हैं । 2007 में ऑस्ट्रेलिया के सिडनी शहर से अर्थ आवर की शुरुआत हुई। कुछ लोगों को ख्याल आया कि कम से कम 1 घंटे के लिए ही हम ऊर्जा की बेतहाशा खपत पर लगाम लगाएं। कुछ लोगों की यह कोशिश आज पूरे विश्व में एक सकारात्मक अभियान का हिस्सा है । पहली बार  2007 में  22 लाख घरों और उद्योगों ने एक घंटे के लिए अपनी लाइटें बंद कर दीं। जब हम  घरों की बत्ती बुझाते हैं तो हम समाज और दुनिया को बेहतर बनानेके आन्दोलन का अहम हिस्सा बन जाते हैं।
वल्र्ड वाइड फंड फॉर नेचर (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) द्वारा शुरू किए गए अर्थ आवर अभियान में दुनिया के 5 करोड़ से ज्यादा लोग पर्यावरण के प्रति चिंता जाहिर करते हुए एक घंटे के लिए इसका हिस्सा बन रहें है । एक शहर से शुरू हुई इस अनोखी पहल में आज दुनिया के सैकड़ों शहर शामिल होंगे । एक घंटे के लिए ये शहर इस उम्मीद में अंधेरे में डूब जाते हैं कि आने वाली पीढ़ियों को उर्जा संकट और ग्लोबल वार्मिंग का कहर न झेलना पड़े ।
क्या  हम उर्जा बचत में विश्वास रखते हैं ? या इसे महज एक नारा समझ कर नजरअंदाज कर देते हैं ? हम में से अधिकांश का सोचना है कि यह हमारी नहीं ,सरकार की जरूरत है। बिजली की कमी हो रही है तो इसकी देखभाल बिजली बोर्ड करेगा ,हम क्यों  करें ? कार्यालय से बाहर जाते समय वातानुकूलक यंत्र, पंखे, ट्यूबलाइट, संगणक यंत्र इत्यादि चालू रहते हैं ,तो हमें इससे क्या मतलब ? बिल हमें थोड़े ना भरना है। या हम में से कई सोचते है कि हमारे अकेले के बचत करने से क्या होने वाला है ? देश को विकसित राष्ट्र बनाने के लिए हमें उर्जा बचत के महत्व को समझना होगा । यदि उर्जा का उपयोग सोच समझ कर नहीं किया गया तो इसका भंडार जल्द ही समाप्त  हो सकता है। आज हम बचत करेंगे तो ही भविष्यं सुविधाजनक रह पाएगा। उर्जा बचत के उपायों को शीघ्रतापूर्वक और सख्ती से अमल में लाए जाने की जरूरत है ।   
वैश्वीकरण के दौर में आज हमारी जीवन शैली में तेजी से बदलाव हो रहे हैं । यह बदलाव हम इस रूप में भी देख सकते हैं कि जो काम दिन के उजाले में सरलता से हो सकते हैं उन्हें भी हम देर रात तक अतिरिक्त प्रकाश व्यवस्था करके करते हैं। हमारी दिनचर्या दिन प्रतिदिन अधिकाधिक ऊर्जा की मांग करती जा रही है।  विकास का जो माडल हम अपनाते जा रहे हैं उस दृष्टि से अगली प्रत्येक पंचवर्षीय योजना में हमें ऊर्जा उत्पादन को लगभग दुगना करते जाना होगा । हमारी ऊर्जा खपत बढ़ती जा रही है। इस प्रकार ऊर्जा की मांग व पूर्ति में जो अंतर है वह कभी  कम होगा ऐसा संभव प्रतीत नहीं होता .
  एक अनुमान के अनुसार उर्जा संरक्षण उपायों से देशभर में 25,000 मेगावाट बिजली की बचत की जा सकती है। उर्जा संरक्षण के लिये सरकार बचत लैंप योजना, स्टार रेटिंग कार्यक्रम, इमारतों को उर्जा दक्ष बनाने जैसे कई कार्यक्रम चला रही है। पिछले दिनों सरकार ने उर्जा क्षमता विस्तार के राष्ट्रीय मिशन को मंजूरी दी है। गौरतलब है कि जलवायु परिवर्तन को लेकर जारी वैश्विक चिंता के बीच भारत ने 2020 तक कार्बन उत्सर्जन में 2005 के स्तर से 20 से 25 फ़ीसद कमी लाने की प्रतिबद्धता जतायी है। इसी कड़ी में उर्जा संरक्षण उपायों पर जोर दिया जा रहा है। बिजली की कमी से जूझ रहे भारत गणराज्य में अब बिजली की बचत के लिए केंद्र सरकार संजीदा हो रही  है। पिछले  दिनों केंद्रीय नवीन एवं नवीनीकरण उर्जा मंत्रालय ने देश के हर राज्य को कहा है कि सरकारी कार्यालय में जल्द ही सोलर सिस्टम लगाकर बिजली की बचत सुनिश्चित की जाए। नवीनीकरण उर्जा विकास विभाग के माध्यम से राज्यों में कराए जाने वाले इस काम के लिए केंद्र सरकार द्वारा तीस से नब्बे फीसदी तक का अनुदान दिया जाएगा । इस योजना के तहत देश के हर प्रदेश में सरकारी कार्यालयों में जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय सोलर मिशन के तहत सोलर सिस्टम लगाया जाएगा। इस सिस्टम से सूर्य की रोशनी से दिन रात कार्यालय रोशन रह सकेंगे। मंत्रालय का उद्देश्य बिजली की कमी से जूझते देश को इससे निजात दिलाना है। पिछले दिनों देश में यात्री कारों पर उर्जा बचत के मानक लागू करने के विषय में उद्योग के साथ सहमति बन गयी है और सरकार कारों पर स्टार रेटिंग की व्यवस्था लागू करने की घोषणा कर चुकी है । स्टार रेटिंग के तहत वाहनों पर लगे स्टार के निशान से उसमें उर्जा बचत की क्षमता का अंदाज लगाया जा सकेगा । बीईई का स्टार रेटिंग कार्यक्रम उर्जा बचाने का एक प्रमुख कार्यक्रम है ।
उर्जा की उत्पत्ति ,उपलब्ध उर्जा का संरक्षण तथा उर्जा को सही दिशा देना जरूरी है उर्जा को बचाने के लिए हमेशा छोटे कदमो की जरूरत होती है जिनके असर बडे होते है जैसे एक पैसा बचाने का अर्थ है एक पैसा कमाना ।
पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधन निश्चित हैं। आज प्रकृति के मिट्टी, पत्थर, पानी, खनिज, धातु को भौतिक सुख साधनों में बदलकर उससे विकसित होने का सपना देखा जा रहा है, जिससे अंधाधुंध ऊर्जा खपत बढ़ रही है। इस कथित विकास में इस बात की अनदेखी हो रही है कि प्रकृति में पदार्थ की मात्रा निश्चित है, जो बढ़ाई नहीं जा सकती। फिर भी पदार्थ का रूप बदलकर, सुख साधनों में परिवर्तन करके, खपत बढ़ाकर विकास का रंगीन सपना देखा जा रहा है। इस विकास के चलते संसाधनों का संकट, प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग, पानी की कमी , उर्जा की व्यापक कमी आदि मुश्किलें सिर पर मंडरा रही हैं।
सिर्फ सरकारी प्रयासों से उर्जा संरक्षण की दिशा में बड़ा परिवर्तन नहीं होगा । इसके लिए हम सबको व्यक्तिगत तौर पर भी जिम्मेदार बनना होगा तभी हम अपने देश का ,समाज का और अपनी आगे आने वाली पीढियों का भला कर पायेगे । बचत चाहे छोटे स्तर पर क्यों न हो , जरूर कारगर होगी क्योंकि बूंद-बूंद से ही सागर भरता है। आज हम संभल कर उर्जा के साधनों का इस्तेनमाल करेंगे तो ही इनके भंडार भविष्य तक रह पाएंगे। कोशिश जमीन स्तर से की जाए तो आकाश छूने में समय नहीं लगेगा । बशर्ते देश का प्रत्येक नागरिक इस दिशा में जागरूक हो तथा हर संभव उर्जा बचत करें तथा औरों को भी इसका महत्व  बताएं। अपने परिवेश में बिजली ,पेट्रोल ,गैस,उर्जा की बचत करने का एक महान संकल्प लेकर एक नव चिंतन को क्रियान्वित करने की शुभ शुरूआत करे। क्योकि उर्जा संरक्षण ,बिजली का मितव्ययी उपयोग समय का तकाजा है जिसे हमें स्वीकार करना ही होगा ।


Wednesday 20 March 2013

इसरो की ऊँची उड़ान - भारत के मंगल अभियान पर मेरा विशेष लेख ..

आज के प्रभातखबर में भारत के मंगल अभियान पर मेरा विशेष लेख ..
for nicely read pls click on given link

पृथ्वी से पहले मंगल पर जीवन?

मुकुल व्यास ॥
प्राचीन मंगल में
परिस्थितियां जीवन के लिए सहायक थीं। आज बेजान सा दिखने वाला लाल ग्रह तब माध्यमिक रूप से गर्म था और वहां पानी भी मौजूद था। मंगल पर सक्रिय नासा के क्यूरिऑसिटी रोवर ने पता लगाया है कि अतीत में वहां की स्थितियां जीवाणुओं के पनपने योग्य थीं। क्यूरिऑसिटी की इस खोज के बाद वैज्ञानिक इस संभावना पर गंभीरतापूर्वक विचार करने लगे हैं कि मंगल पर जीवन की उत्पत्ति शायद पृथ्वी से पहले ही हो गई थी। हो सकता है, पृथ्वी पर जीवन का बीजारोपण मंगल से आए जीवाणुओं ने ही किया हो। कुछ जीवाणु विषम परिस्थितियों में जिंदा रह सकते है और अंतरिक्ष में लंबी यात्रा झेल सकते हैं। क्या पता कभी किसी क्षुद्रग्रह (एस्टेरॉयड) के प्रहार के बाद मंगल से छिटकी चट्टानें जीवाणुओं को लेकर पृथ्वी पर पहुंच गई हों।

अभी यह स्पष्ट नहीं है कि मंगल पर कितने समय पहले जीवन के अनुकूल परिस्थितियां मौजूद थीं। लेकिन समय गणना के लिए इसकी तुलना पृथ्वी से की जा सकती है, जहां करीब 3.8 अरब वर्ष पहले जीवन पहली बार प्रकट हुआ था। क्यूरिऑसिटी के प्रमुख वैज्ञानिक जॉन ग्रोटजिंगर के अनुसार मंगल पर 3 अरब वर्ष से भी काफी पहले परिस्थितियां जीवन के लिए सहायक थीं। क्यूरिऑसिटी की वैज्ञानिक टीम का ताजा निष्कर्ष मंगल की चट्टान के भीतरी भाग से लिए गए नमूने के अध्ययन पर आधारित है। जोन क्लेन नामक यह चट्टान करीब तीन अरब साल पुरानी है और अतीत में पानी सोख चुकी है। गत फरवरी में क्यूरिऑसिटी ने अपने उपकरण से इस चट्टान में 6.4 सेंटीमीटर का छेद करके वहां से कुछ नमूने निकाले थे। इतनी गहरी खुदाई अभी तक मंगल पर गए किसी और रोबोट यान ने नहीं की थी।

क्यूरिऑसिटी के विश्लेषण से पता चलता है कि यह क्षेत्र पानी से तरबतर था। इसके अलावा क्यूरिऑसिटी के वैज्ञानिकों ने चट्टान में सल्फर, नाइट्रोजन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, फास्फोरस और कार्बन की पहचान की है। जीवन के लिए ये तत्व आवश्यक माने जाते हैं। उन्होंने सल्फेट्स और सल्फाइड्स का भी पता लगाया है, जिनका इस्तेमाल जीवाणुओं द्वारा भोजन के रूप में किया जा सकता है। डॉ. ग्रोटजिंगर का कहना है कि ये खनिज बैटरियों की तरह हैं और ये जीवन के लिए ऊर्जा स्रोत की तरह काम कर सकते हैं। उनका यह भी मानना है कि इस क्षेत्र में बहने वाला पानी पीने योग्य था।
क्यूरिऑसिटी के पास इस समय ऐसा कोई उपकरण नहीं है, जो मंगल पर जीवन के चिन्ह खोज सके। लेकिन वह कार्बन और हाइड्रोजन से बने कुछ कार्बनिक मॉलिक्यूल्स (अणु समूहों) की पहचान कर सकता हैं। सिर्फ कार्बनिक मॉलिक्यूल्स की मौजूदगी से ही जीवन की पुष्टि नहीं की जा सकती क्योंकि कई अजैविक रासायनिक प्रतिक्रियाओं से भी कार्बनिक मॉलिक्यूल्स उत्पन्न हो सकते हैं। दूसरी तरफ हम यह भी जानते हैं कि जीवन निर्माण के लिए कार्बनिक मॉलिक्यूल्स का होना जरूरी है। फिलहाल क्यूरिऑसिटी के वैज्ञानिक यह नहीं कह रहे हैं कि चट्टान में कार्बनिक मॉलिक्यूल्स मौजूद हैं। लेकिन वे इसकी संभावना से इनकार भी नहीं कर रहे हैं। क्यूरिऑसिटी के पास अपना प्राथमिक मिशन पूरा करने के लिए अभी 17 महीने बाकी हैं और वैज्ञानिकों को कुछ और रोचक जानकारियां मिलने की उम्मीद है।

पहले भेजे गए नासा के दो रोवरों, स्पिरिट और अपॉरच्युनिटी ने मंगल की सतह पर तरल जल की मौजूदगी के पक्के सबूत जुटाए थे। लेकिन यह ग्रह की ऐसी जगहों पर था, जहां अम्ल और लवण की मात्रा बहुत ज्यादा थी। इस तरह के हालात जीवाणुओं के लिए कठोर होते हैं। क्यूरिऑसिटी के उपकरणों ने कुछ साधारण किस्म के कार्बनिक पदार्थ अवश्य खोजे हैं। रिसर्चर यह पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि ये रसायन मंगल की चट्टानों से निकले हैं या वे पृथ्वी से मंगल पर पहुंचे प्रदूषण की देन हैं। चट्टान के पाउडर को गर्म करने के दौरान रासायनिक क्रियाओं से भी इस तरह के कार्बनिक पदार्थ उत्पन्न हो सकते हैं। कार्बनिक मॉलिक्यूल्स के बारे में किसी ठोस नतीजे पर पहुंचने से पहले वैज्ञानिक पूरी तरह से आश्वस्त होना चाहते हैं। फिर भी नासा के वैज्ञानिक क्यूरिऑसिटी के ताजा विश्लेषण से उपजी संभावनाओं को लेकर बेहद रोमांचित हैं।

मंगल की सतह आज ठंडी और शुष्क है। उसे अंतरिक्ष से रेडिएशन का प्रहार भी झेलना पड़ता है। लेकिन ग्रहों का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों का कहना है कि तीन अरब वर्ष से भी पहले मंगल अपने यौवन काल में जीवन के लिए ज्यादा अनुकूल स्थान था। वहां के मौसम में गर्माहट थी और वायुमंडल काफी घना था। उसकी सतह पर पानी बहता था। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि अतीत में मंगल पर जीवन अंकुरित हुआ था तो मुमकिन है कि उसका कोई रूप वहां सतह के नीचे आज भी पनप रहा हो। करीब तीन अरब वर्ष पहले मंगल के हालात बदल गए थे। वह अपने अधिकांश वायुमंडल को संभाल नहीं पाया। ग्रह का भीतरी भाग ठंडा हो गया और सतह पर मौजूद ज्वालामुखियों ने फटना बंद कर दिया। उसका पानी जम गया या अंतरिक्ष में उड़ गया। इसके परिणामस्वरूप मंगल ठंडा और शुष्क हो गया।

क्यूरिऑसिटी रोवर पिछले साल मंगल के गेल नामक क्रेटर में उतरा था और वह तभी से इस क्षेत्र में चहलकदमी कर रहा है। रोवर का मुख्य लक्ष्य क्रेटर के बीच करीब पांच किलोमीटर ऊंचे पहाड़, माउंट शार्प तक पहुंचना है। परिक्रमारत यानों के पर्यवेक्षण के आधार पर वैज्ञानिकों ने इस पहाड़ पर चिकनी मिट्टी का पता लगाया था। अब वैज्ञानिकों ने पहाड़ तक पहुंचने से पहले ही चिकनी मिट्टी का पता लगा लिया है और अब वे इसके नमूनों में कार्बनिक पदार्थों की खोज पर ज्यादा ध्यान केंद्रित करेंगे। नासा के मंगल अन्वेषण कार्यक्रम से जुड़े प्रमुख वैज्ञानिक माइकल मेयर का कहना है कि मंगल ने गेल क्रेटर की चट्टानों में अपनी आत्मकथा लिख दी है, हमने अभी इसके पन्ने उलटने ही शुरू किए हैं।

मंगल की गुत्थियों को सुलझाने में काफी वक्त लगेगा। फिलहाल नासा के इंजीनियर क्यूरोऑसिटी के कंप्यूटर में आई खराबी को दूर करने की कोशिश कर रहे हैं। कंप्यूटर की मेमरी का कुछ हिस्सा करप्ट हो गया है। इंजीनियर फिलहाल यह जानने में जुटे हैं कि क्या कंप्यूटर के री-स्टार्ट होने पर यह खराबी दूर हो जाएगी, या स्थायी रूप से बनी रहेगी। दूसरी समस्या यह है कि अप्रैल के अधिकांश दिनों में सूरज के मंगल और पृथ्वी के बीच में रहने से रोवर के साथ संवाद मुश्किल हो जाएगा। अगले कुछ दिनों में सीमित स्तर पर वैज्ञानिक कार्य शुरू हो सकता है, लेकिन चट्टानों की ड्रिलिंग के लिए मई तक इंतजार करना पड़ेगा। 

ऊर्जा का जबर्दस्त सोत बनेगी जलती बर्फ

 
स्वामीनाथन एस अंकलेसरिया अय्यर ।।
तेल और गैस के भारी आयात ने भारत का व्यापार घाटा बहुत बढ़ा दिया है। यह चीज देश की तेज आर्थिक वृद्धि की राह में रोड़ा बन रही है। लेकिन पिछले हफ्ते जापान ऑयल गैस एंड मेटल्स नैशनल कॉरपोरेशन (जेओजीएमईसी) की एक तकनीकी उपलब्धि हमारे लिए अंधेरे में आशा की किरण बनकर आई है। वे लोग समुद तल पर जमा मीथेन हाइड्रेट के भंडार से प्राकृतिक गैस निकालने में कामयाब रहे। इस चीज को आम बोलचाल में फायर आइस या जलती बर्फ भी कहते हैं, क्योंकि यह चीज सफेद ठोस क्रिस्टलाइन रूप में पाई जाती है और ज्वलनशील होती है। भारत के पास संसार के सबसे बड़े मीथेन हाइड्रेट भंडार हैं। तकनीकी प्रगति के जरिये अगर इसके दोहन का कोई सस्ता और सुरक्षित तरीका निकाला जा सका तो देश के लिए यह बहुत बड़ा वरदान साबित होगा।

गैस का भंडार
जेओजीएमईसी का कहना है कि 2016 तक वह इस स्त्रोत से वाणिज्यिक पैमाने पर गैस का उत्पादन शुरू कर सकता है। इस बीच चीन और अमेरिका ने भी फायर आइस की खोज और इसके प्रायोगिक उत्कर्षण को लेकर बड़े कार्यक्रम बनाए हैं। अफसोस की बात है कि भारत इस तस्वीर में कहीं नहीं है। दुनिया में इस चीज की कुल मात्रा के बारे में स्थिति स्पष्ट नहीं है। यह मात्रा 28 हजार खरब से लेकर 80 अरब खरब घन मीटर गैस के समतुल्य आंकी जाती है। संसार में मौजूद कुल 4400 खरब घन मीटर पारंपरिक गैस की तुलना में यह मात्रा कई गुना ज्यादा है। यह बात और है कि हाइड्रेट भंडारों के एक छोटे हिस्से का ही इस्तेमाल गैस उत्पादन में किया जा सकेगा।
जलती बर्फ का राज
मीथेन हाइड्रेट प्राकृतिक गैस और पानी का मिश्रण है। गहरे समुद्र तल पर पाई जाने वाली निम्न ताप और उच्च दाब की विशेष स्थितियों में यह ठोस रूप धारण कर लेता है। कनाडा और रूस के स्थायी रूप से जमे रहने वाले उत्तरी समुद्रतटीय इलाकों में यह जमीन पर भी पाया जाता है। इन जगहों से निकाले जाने के बाद इसे गरम करके या कम दबाव की स्थिति में लाकर (जेओजीएमईसी ने यही तकनीक अपनाई थी) इससे प्राकृतिक गैस निकाली जा सकती है। एक लीटर ठोस हाइड्रेट से 165 लीटर गैस प्राप्त होती है। यह जानकारी काफी पहले से है कि भारत के पास मीथेन हाइड्रेट के बहुत बड़े भंडार हैं। अपने यहां इसकी मात्रा का अनुमान 18,900 खरब घन मीटर का लगाया गया है। भारत और अमेरिका के एक संयुक्त वैज्ञानिक अभियान के तहत 2006 में चार इलाकों की खोजबीन की गई। ये थे- केरल-कोंकण बेसिन, कृष्णा गोदावरी बेसिन, महानदी बेसिन और अंडमान द्वीप समूह के आसपास के समुद्री इलाके। इनमें कृष्णा गोदावरी बेसिन हाइड्रेट के मामले में संसार का सबसे समृद्ध और सबसे बड़ा इलाका साबित हुआ। अंडमान क्षेत्र में समुद तल से 600 मीटर नीचे ज्वालामुखी की राख में हाइड्रेट के सबसे सघन भंडार पाए गए। महानदी बेसिन में भी हाइड्रेट्स का पता लगा।

बहरहाल, आगे का रास्ता आर्थिक और पर्यावरणीय चुनौतियों से होकर गुजरता है। हाइड्रेट से गैस निकालने का किफायती तरीका अभी तक कोई नहीं खोज पाया है। उद्योग जगत का मोटा अनुमान है कि इस पर प्रारंभिक लागत 30 डॉलर प्रति एमएमबीटीयू (मिलियन मीट्रिक ब्रिटिश थर्मल यूनिट) आएगी, जो एशिया में इसके हाजिर भाव का दोगुना और अमेरिका में इसकी घरेलू कीमत का नौगुना है। जेओजीएमईसी को उम्मीद है कि नई तकनीक और बड़े पैमाने के उत्पादन के क्रम में इस पर आने वाली लागत घटाई जा सकेगी। लेकिन पर्यावरण की चुनौतियां फिर भी अपनी जगह कायम रहेंगी। गैस निकालने के लिए चाहे हाइड्रेट को गरम करने का तरीका अपनाया जाए, या इसे कम दाब की स्थिति में ले जाने का, या फिर ये दोनों तरीके एक साथ अपनाए जाएं, लेकिन हर हाल में गैस की काफी बड़ी मात्रा रिसकर वायुमंडल में जाएगी और इसका असर पर्यावरण पर पड़ेगा। कार्बन डाई ऑक्साइड की तुलना में प्राकृतिक गैस 15-20 गुना गर्मी रोकती है। पर्यावरण से जुड़ी इन आशंकाओं के चलते कई देशों ने अपने यहां शेल गैस का उत्पादन ठप कर दिया है और हाइड्रेट से गैस निकालने के तो पर्यावरणवादी बिल्कुल ही खिलाफ हैं। लेकिन शेल गैस के रिसाव को रोकना ज्यादा कठिन नहीं है। कौन जाने आगे हाइड्रेट गैस के मामले में भी ऐसा हो सके।

काफी पहले, सन 2006 में मुकेश अंबानी ने गैस हाइड्रेट्स के बारे में एक राष्ट्रीय नीति बनाने को कहा था, लेकिन आज तक दिशा में कुछ किया नहीं जा सका है। अमेरिका, जापान और चीन में हाइड्रेट्स पर काफी शोध चल रहे हैं लेकिन भारत में इस पर न के बराबर ही काम हो पाया है। राष्ट्रीय गैस हाइड्रेट कार्यक्रम के तहत पहला इसके भंडार खोजने के लिए पहला समुदी अभियान भी 2006 में चला था। दूसरे अभियान की तब से अब तक बात ही चल रही है। कुछ लोग इस उम्मीद में हैं कि अमेरिका और जापान जब गैस निकालने की तकनीक विकसित कर लेंगे तो हम इसे सीधे उनसे ही खरीद लेंगे। लेकिन यह उम्मीद बेमानी है। भारत के बड़े सबसे बड़े हाइड्रेट भंडार, जिनमें कृष्णा गोदावरी बेसिन भी शामिल है, समुदी चट्टानों की दरारों में हैं, जबकि जापान और अमेरिका में ये बलुआ पत्थरों में पाए जाते हैं। जाहिर है, अमेरिका और जापान की उत्कर्षण तकनीकें बिना सुधार के हमारे यहां काम नहीं आने वाली। अपनी तकनीकी क्षमता हमें खुद ही विकसित करनी होगी।

गलत प्राथमिकताएं
भारत के हाइड्रोकार्बन महानिदेशालय ने काफी पहले एक राष्ट्रीय गैस हाइड्रेट शोध व विकास केंद्र स्थापित करने की गुजारिश की थी। इसे सरकारी निकाय न बनाया जाए। निजी क्षेत्र की तेल व गैस कंपनियों को भी इसमें शामिल किया जाना चाहिए। इसके साथ ही भारतीय समुद्री क्षेत्र में हाइड्रेट भंडारों की और ज्यादा खोज और पुष्टि के लिए जापान और अमेरिका के साथ कुछ और साझा अभियान भी चलाए जाने चाहिए। अभी तो ड्रिलिंग के जरिये निकाले गए हाइड्रेट्स के नमूनों को जांच के लिए विदेशी प्रयोगशालाओं में भेजा जा रहा है। यह दयनीय स्थिति हमारी गलत प्राथमिकताओं की ओर इशारा करती है, और हर हाल में इसे बदलना ही होगा।

Friday 8 March 2013

ऊर्जा जरूरतों के लिए शेल गैस विकल्प !!

असित के. बिस्वास
ऊर्जा जरूरतों की पूर्ति के लिए शेल गैस के विकल्प को भारत के लिए सही नहीं
भारत ऊर्जा की कमी से जूझ रहा है। देश की एक चौथाई आबादी आज भी बिना बिजली के रहने को मजबूर है। 28 में से सिर्फ नौ राज्यों का ही पूरी तरह विद्युतीकरण हो पाया है। ये नौ राज्य आंध्र प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, गोवा, दिल्ली, हरियाणा, केरल, पंजाब और तमिलनाडु हैं। बावजूद इसके इन राज्यों में भी बिजली कटौती आम है। पिछले साल जुलाई में ग्रिड फेल होने से देशभर में 62 करोड़ लोगों को अंधेरे में रहना पड़ा था। मांग की सिर्फ 15 फीसद बिजली की ही आपूर्ति हो पाती है। ऊर्जा अभाव की दीर्घकालीन समस्या विकास को भी प्रभावित करती है। अगले दो दशकों तक भारत में ऊर्जा की यह खाई बनी रहेगी। अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आइईए) का अनुमान है कि 2030 तक भी बहुत से राज्यों में अबाधित बिजली आपूर्ति नहीं हो सकेगी। 2030 तक गैर-आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओईसीडी) देशों में ऊर्जा खपत 93 फीसद तक बढ़ेगी, खास तौर पर एशिया में। एशिया प्रशांत तब तक वैश्विक ऊर्जा उत्पादन में 35 फीसद का योगदान देगा, लेकिन बढ़ी हुई मांग की आपूर्ति नहीं कर सकेगा। लिहाजा, नीति-निर्धारकों को जल्द ही इसके समाधान खोजने होंगे। इसका एक समाधान शेल गैस (प्राकृतिक गैस जो पानी के भीतर क्ले मिनरलों और कीचड़ के मिश्रण से बनती है) हो सकती है। भारत सरकार आइईए के आकलन को झुठलाने के लिए शेल गैस संसाधनों के दोहन की योजना बना रही है। हालांकि इसकी नीति दिसंबर 2012 तक ही घोषित की जानी थी, लेकिन अज्ञात कारणों से इसमें देरी की जाती रही। माना जा रहा है कि अब यह नीति अंतिम चरण में है और निकट भविष्य में जारी कर दी जाएगी। एक अनुमान के मुताबिक भारत के पास 6 से 63 ट्रिलियन क्यूबिक फीट तक शेल गैस भंडार हैं। कैमबे, असम-अराकन, गोंडवाना और कावेरी में विशाल भंडारों की पुष्टि की गई है।
फिलहाल देश की ऊर्जा जरूरतें पूरी करने में 11 प्रतिशत हिस्सेदारी गैस की है। आधी ऊर्जा जरूरतें कोयले से ही पूरी होती हैं और 25 फीसद जल विद्युत से। शेल गैस की स्वीकार्यता दुनिया भर में बढ़ती जा रही है। आइईए ने तो घोषणा कर दी है कि विश्व गैस के स्वर्णिम काल में प्रवेश करने जा रहा है। अमेरिका का शेल गैस उद्योग 2005-10 के बीच 45 फीसद की दर से बढ़ा और गैस कीमतें तीस से तीन डॉलर प्रति मिलियन ब्रिटिश थर्मल यूनिट तक आ गईं। अमेरिका अब गैस आयातक से निर्यातक बन गया। शेल गैस के विशालतम भंडार वाला देश चीन भी अमेरिका की राह पर चल रहा है। 2020 तक उसने 3500 बिलियन क्यूबिक फीट सालाना शेल गैस उत्पादन का लक्ष्य रखा है। जहां तक भारत के शेल गैस पर निर्भरता का सवाल है तो इससे निकट भविष्य में हमारी ऊर्जा की खाई नहीं भरने वाली है। इसके दो कारण हैं। एक, देश में इसके भंडारों तक पहुंच बनाने के लिए तकनीकी क्षमता का अभाव है और दूसरा, भारत में शेल गैस के दोहन का मतलब होगा, देश के जल संसाधनों का विध्वंस। लिहाजा, इसके लिए पहले हमें अपनी तकनीकी दक्षता बढ़ानी है। शेल गैस दोहन की मुख्य तकनीक हाइड्रोलिक फ्रैकिंग है। उत्तरी अमेरिका की भौगोलिक परिस्थितियां इसके अनुकूल हैं और वही शेल गैस का सबसे बड़ा उत्पादक है। भारत को इसके लिए विदेशी सरकारों और निजी क्षेत्र की कंपनियों से साझेदारी करनी होगी। इसके बाद भौगोलिक परिस्थितियों को जानना होगा, जो उत्तरी अमेरिका की तुलना में कम अनुकूल हैं। हालांकि ऐसे संयुक्त प्रयास भारत करता रहा है। भारत ने शेवरोन, पायनियर नेचुरल रिसोर्सेज और कैरिजो आयल एंड गैस के साथ हाल के सालों में करार किया है। तमाम प्रयासों के बावजूद भारत अमेरिका की शेल गैस क्रांति की सफलता को समय पर नहीं दोहरा सकता। इसका मुख्य कारण भारत का दूषित जल प्रबंधन में असफल रहना है। शेल गैस दोहन में बड़ी मात्रा में पानी की जरूरत होती है, जो इस प्रक्रिया में बुरी तरह दूषित हो जाता है। विशेषज्ञों में मतभेद है कि हम इस पूरे दूषित पानी को कम खर्च पर रिसाइकल कर पाएंगे, क्योंकि अमेरिकी कंपनियों ने यह खुलासा नहीं किया कि दोहन प्रक्रिया में जमीन में कौन से रसायन डाले जाते हैं। यदि शेल गैस दोहन समुचित तरीके से नहीं किया गया तो जहरीले तत्वों के पीने योग्य जल संसाधनों में मिल जाने का खतरा बना रहेगा। ड्यूक यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन के मुताबिक शेल गैस भू-जल को गंभीर रूप से दूषित कर सकती है। पेंसिलवेनिया में शेल गैस कुएं के एक किलोमीटर के दायरे में पीने के पानी में मीथेन गैस की मात्रा 17 गुना अधिक पाई गई, जो प्राणघातक हो सकती है। विडंबना यह है कि भारत पहले ही जल प्रदूषण में विश्व का अग्रणी देश है। पवित्र गंगा में ही प्रति 100 मिलीलीटर पानी में 60,000 बैक्टीरिया हैं, जो नहाने के लिए सुरक्षित माने जाने वाले पानी से 120 गुना ज्यादा है।
 दिल्ली तक में बिना किसी शोधन के सीवेज नदियों में बहा दिया जाता है। भारत में ट्रीटमेंट प्लांट पहले ही कम हैं और जहां हैं भी वहां उनका समुचित संचालन और देखरेख नहीं हो रही है। जल शोधन के ऐसे कमजोर रिकार्ड वाले देश में शेल गैस दोहन प्रक्रिया में बनने वाले दूषित जल शोधन की उम्मीद करना बेमानी है। अमेरिका तक में पीने के पानी में जहरीले दूषित जल के मिलने की रिपोर्ट आती रही हैं। ऐसे में यदि भारत शेल गैस दोहन की तकनीकी हासिल कर भी लेता है तो दूषित जल शोधन में असफल हो जाएगा। भारत के लिए साफ पानी ऊर्जा से ज्यादा महत्वपूर्ण हो सकता है। शेल गैस को लेकर वैश्विक मान्यता अभी विकसित हो रही है। इसलिए भारत इसके दुष्प्रभावों को ध्यान में रखे बिना शेल गैस दोहन की राह पर चलता है तो यह कदम गलत साबित होगा। भारत अपनी नीति संबंधी समस्याएं तुरंत हल नहीं कर सकता। नीति सामान्य तरीके से बनाई जानी चाहिए। जैसे एक इंजीनियर किसी इमारत की शुरुआत उसकी नींव से करता है वैसे ही नीति-निर्माण भी मूल से ही शुरू करना चाहिए। इस प्रकार भारत को सबसे पहले अपने शेल गैस भंडारों के वास्तविक आकार की पुष्टि करनी होगी। यदि ये पर्याप्त हैं तो ही इस दिशा में तकनीकी दक्षता हासिल करने के लिए कदम आगे बढ़ाने चाहिए। हमारी भौगोलिक परिस्थितियां भी अमेरिका और चीन से अलग हैं। इसलिए हमें अपने अनुकूल तकनीक विकसित करनी होगी। ऊर्जा आपूर्ति के बजाय ऊर्जा की पर्याप्त उपलब्धता पर ध्यान केंद्रित करना बेहतर होगा। (लेखक सिंगापुर के ली क्वान यी स्कूल ऑफ पब्लिक पालिसी में विजिटिंग प्रोफेसर हैं) 

Wednesday 6 March 2013

कामयाबी की तरफ दूसरी हरित क्रान्ति


दूसरी हरित क्रांति -ब्रिंगिंग ग्रीन रिवोल्यूलशन इन ईस्टनर्न इंडिया (बीजीआरईआई)

शशांक द्विवेदी 
कृषि बजट में 22 फीसदी की वृद्धि
बढ़ती आबादी के साथ खाद्यान्न की तेज होती मांग  और कृषि उत्पादन में 4 फीसदी का इजाफा हासिल करने का  दबाव सरकार पर है। इसी  वजह से इस बार के केंद्रीय बजट में कृषि क्षेत्र को तवज्जो देने की कोशिश की गयी है .कृषि मंत्रालय को इस बार 22 फीसदी की बढ़त के साथ 27049 करोड़ रुपये दिए गए हैं। इसमें 3415 करोड़ रुपये की राशि कृषि अनुसंधान के लिए होगी। पूर्वी भारत में हरित क्रांति की कामयाबी को देखते हुए वित्त मंत्री पी .चिदंबरम ने इस योजना के लिए इस बार एक हजार करोड़ रुपये का इंतजाम किया है। पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में विभिन्न तरह की फसलों को बढ़ावा देने के लिए 500 करोड़ रुपये का अतिरिक्त आवंटन किया गया है।
हरित क्रांति
देश की खाद्यान्न उत्पादकता को बढ़ाने  के उद्देश्य से सरकार ने दो साल पहले पूर्वी भारत  में  ब्रिंगिंग ग्रीन रिवोल्यू शन इन ईस्ट र्न इंडिया (बीजीआरईआई) कार्यक्रम शुरू किया था । यह कार्यक्रम सात राज्यों्- असम, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तदर प्रदेश और छत्तीकसगढ़ में चलाया जा रहा है। वर्ष 2010-2011 में लागू होने के बाद से ही इस कार्यक्रम की बदौलत क्षेत्र में धान और गेहूं की पैदावार के अच्छे नतीजे सामने आए हैं ।
देश में हरित क्रांति की शुरुआत वर्ष 1966-67 में हुई थी. इसकी शुरुआत दो चरणों में की गई थी, पहला चरण 1966-67 से 1995-96 और दुसरे चरण में ब्रिंगिंग ग्रीन रिवोल्यूवशन इन ईस्टीर्न इंडिया (बीजीआरईआई) कार्यक्रम 2010-2011  में शुरू किया गया । .हरित क्रांति से अभिप्राय देश के सिंचित और असिंचित कृषि क्षेत्रों में ज्यादा उपज वाले संकर और बौने बीजों के इस्तेमाल के जरिये तेजी से कृषि उत्पादन में बढ़ोतरी करना है । हरित क्रांति की विशेषताओं में अधिक उपज देने वाली किस्में, उन्नत बीज, रासायनिक खाद, गहन कृषि जिला कार्यक्रम, लघु सिंचाई, कृषि शिक्षा, पौध संरक्षण, फसल चक्र, भू-संरक्षण और ऋण आदि के लिए किसानों को बैंकों की सुविधाएं मुहैया कराना शामिल है । रबी, खरीफ और जायद की फसलों पर हरित क्रांति का अच्छा असर देखने को मिला है । किसानों को थोड़े पैसे ज्यादा खर्च करने के बाद अच्छी आमदनी हासिल होने लगी. हरित क्रांति के चलते हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडू की उत्पादकता में जबरदस्त वृद्धि हुई । साठ के दशक में हरियाणा और पंजाब में गेहूं के उत्पादन में 40 से 50 फीसदी तक बढ़ोतरी दर्ज की गई थी . ।
दूसरी हरित क्रांति लाने के कार्यक्रम के ठोस नतीजे सामने आये हैं और पूर्वी भारत में 2011-12  के खरीफ सत्र में 70 लाख टन अतिरिक्त धान का उत्पादन हुआ है। बिहार, पश्चिम बंगाल, उडीसा, असम, छत्तीसगढ, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश में धान का इतना अधिक उत्पादन हुआ कि यह देश के कुल धान उत्पादन के आधे से भी अधिक है। कृषि सचिव ने चालू वर्ष का दूसरे अग्रिम फसल उत्पादन का अनुमान जारी करते हुए कहा कि इस वर्ष गेहूं उत्पादन 8 करोड़ 83 लाख टन और चावल का 10 करोड़ 27 लाख टन से अधिक उत्पादन होने का अनुमान है। पिछले वर्ष चावल 9 करोड़ 59 लाख और गेहूं 8 करोड़ 38 लाख टन था।
ब्रिंगिंग ग्रीन रिवोल्यूहशन इन ईस्टर्न इंडिया
भारत का पूर्वी क्षेत्र देश के धान उत्पादन में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने को तैयार है। पूर्वी भारत में धान की फसल प्रणालियों की उत्पाुदकता को सीमित करने वाले अवरोधों को दूर करने के लिए बीजीआरईआई कार्यक्रम बहुत लाभप्रद रहा है। वर्ष 2010-2011 में लागू होने के बाद से ही इस कार्यक्रम की बदौलत क्षेत्र में धान और गेहूं की पैदावार के उल्लेखनीय नतीजे सामने आए हैं। इस कार्यक्रम के तहत बिहार और झारखंड में धान की पैदावार में भारी वृद्धि हुई है। धान और गेहूं की रिकॉर्ड पैदावार के लिए क्षेत्र के किसानों तक तकनीक और पद्धतियां पहुंचाने के लिए राज्य सरकारों ने सकारात्मक प्रयास किये है। इस परियोजना के तहत पूर्वी क्षेत्र का चयन उसके प्रचुर जल संसाधनों का लाभ उठाने के लिए किया गया है, जो खाद्यान्नों  की उपज बढ़ाने के लिए आवश्याक हैं। पूर्वी क्षेत्र की मुख्य  समस्या जल की उपलब्धता नहीं, बल्कि उसका प्रबंधन है। इसका आधार यह है कि जल के प्रचुर भंडार के साथ फसल की उत्पादकता बढ़ाना तभी सम्भव होगा, जब बेहतर कृषि पद्धतियां अपनाई जाएं, अच्छी गुणवत्ता वाले बीज डाले जाएं तथा खाद और उर्वरक जैसे पदार्थों का इस्तेंमाल समझदारी से किया जाए। जहां एक ओर, साठ के दशक में हरित क्रांति के दौरान पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तार प्रदेश फले-फूले, वहीं इन तीनों राज्यों में क्षमता से अधिक दोहण की वजह से जल संसाधन की दृष्टि से स्थिति खराब हुई है। यह बात देश के कृषि सम्बंधी योजनाकारों के लिए बेहद चिंता का विषय है।
भारत को अपनी बढ़ती जनसंख्या का पेट भरने के लिए खाद्यान्न  उत्पादन को बढ़ावा देने की जरूरत है। प्रत्येक भारतीय की चिंता का विषय बन चुकी खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने का एकमात्र तरीका यही है कि घरेलू तौर पर पर्याप्त खाद्यान्न उगाए जाएं। पूर्वी क्षेत्र में नई हरित क्रांति शुरू करने की क्षमता है। बीजीआरईआई को केंद्र और राज्योंु की सरकारों द्वारा दी जा रही प्राथमिकता की वजह से दुसरी हरित क्रांति की सफलता निश्चित है । इसलिए, अनेक गतिविधियां शुरू की गई हैं जिनमें गेहूं और धान की तकनीकों का प्रखंड स्तर पर सामूहिक प्रणाली में प्रदर्शन करना, संसाधन संरक्षण तकनीक को बढ़ावा देना (गेहूं के तहत शून्य जुताई), जल प्रबंधन के लिए परिसम्पत्ति निर्माण गतिविधियां को अंजाम देना (कम गहरे नलकूपों  कुओं बोरवेल की खुदाई, पम्प सेटों का वितरण), खेती के औजारों के इस्तेेमाल और जरूरत पर आधारित विशिष्ट गतिविधियों को बढ़ावा देना आदि शामिल हैं।   धान की संकर तकनीके अपनाने, श्रृंखलाबद्ध रोपाई, एसआरआई, सूक्ष्म पोषक तत्व, आदि कुछ ऐसी कामयाब बाते हैं, जो इस क्षेत्र में राज्य प्रशासनों द्वारा की गई कड़ी मेहनत से सामने आई हैं। लेकिन उत्पादन में स्थायित्व लाने के लिए इस क्षेत्र के प्रचुर संसाधनों का इस्तेमाल करना होगा। उपज की प्रौद्योगिकियों को बढ़ावा देने के लिए प्रभावशाली विपणन प्रबंध, खरीद प्रक्रिया, बिजली सिंचाई, गतिविधियों की श्रृंखला और ग्रामीण संरचना और ऋण आपूर्ति के लिए संस्थासगत विकास तथा नवीन पद्धतियों को विस्तार से लागू करना, ताकि वे बड़ी संख्या  में छोटे और सीमांत किसानों की उन तक पहुंच सम्भव हो सके। इसके अलावा, किसानों को अपनी उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलना चाहिए और उसके लिए किसानों ग्रेडिंग मानकों के बारे में जागरूक बनाया जाना चाहिए।
राष्ट्रीय प्राथमिकता के रूप में चिन्हित
12वीं पंचवर्षीय योजना के दृष्टिकोण पत्र में योजना आयोग ने इसे राष्ट्रीय प्राथमिकता के रूप में चिन्हित किया है ताकि हरित क्रांति को पूर्वी क्षेत्र के सभी कम उत्पादकता वाले क्षेत्रों, जहां प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की अच्छी संभावना है, में विस्तारित किया जाए ताकि खाद्य सुरक्षा एवं कृषि सततता को प्राप्त किया जा सके।
अब देश के समक्ष दूसरी हरित क्रान्ति के प्रमुख तीन लक्ष्य होने चाहिए जिनमें खाद्यान आत्मनिर्भरता, उचित बफर स्टाक तथा अनाज का बड़े पैमाने पर विदेश को निर्यात है। इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए कृषि के क्षेत्र में वैज्ञानिक दृष्टि से काम करना होगा। आधुनिक तकनीकों का उपयोग तथा कृषि उत्पादों का मूल्य सवर्ध्दन करना पड़ेगा। लगभग सभी विकसित देशों में प्रति हेक्टेयर अन्न का उत्पादन भारत के सापेक्ष 2) से 3 गुना है अतरू इन्ही तकनीकों का इस्तेमाल कर भारत में भी अन्न का उत्पादन इसी अनुपात में किया जा सकता है।
निजी निवेश की जरूरत
संसद में पेश 2012-13 की आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि बढ़ती आबादी को भोजन उपलब्ध कराने के लिए खाद्यान्न उत्पादन में बढ़ोतरी की सख्त आवश्यकता है। इसके लिए कृषि उत्पादन में बढ़ोतरी तथा बुनियादी ढांचा क्षेत्र में निजी निवेश की जरूरत है. आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि 12वीं पंचवर्षीय योजना में कृषि क्षेत्र की विकास दर के तय लक्ष्य 4 फीसदी को हासिल करने के लिए खेती में तत्काल सुधार की आवश्यकता है। 11वीं पंचवर्षीय योजना (2007-12) के दौरान कृषि क्षेत्र की दर 3.6 फीसदी रही जो 4 प्रतिशत के तय लक्ष्य से कम रही है। हालांकि यह नौवीं तथा 10वीं योजना में क्रमश: 2.5 प्रतिशत तथा 2.4 प्रतिशत की तुलना में अधिक है।
कृषि क्षेत्र में पिछले कुछ साल में व्यापक सुधार हुआ है लेकिन इसके बावजूद देश ऐसी जगह पर है जहां कृषि के क्षेत्र में सतत वृद्धि के लिए दक्षता और उत्पादकता बढ़ाने को लेकर और सुधार की तत्काल जरूरत है। इसमें कहा गया है कि बाजार की महत्वपूर्ण भूमिका देखते हुए स्थिर नीतियों, बुनियादी ढांचा में निजी निवेश बढ़ाये जाने की आवश्यकता है। साथ ही, सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) आवंटन में सुधार, खाद्यान्न की कीमतें तथा भंडारण प्रबंधन में सुधार तथा प्रत्याशित व्यापार नीति अपनाये जाने की आवश्यकता है।  कृषि क्षेत्र में सुधार के लिए बेहतर शोध एवं विकास, ऋण तथा बीजों की आपूर्ति के साथ ही कौशल विकास की दिशा में सुधार की सख्त आवश्यकता है।
देश के समक्ष बढ़ती आबादी को भोजन उपलब्ध कराना एक बड़ी चुनौती है। इसको देखते हुए कृषि क्षेत्र की बाधाओं तथा चुनौतियों को दूर करने की जरूरत है ताकि कृषक समुदाय को और उपज के लिए प्रेरित किया जा सके। 12वीं पंचवर्षीय योजना में कृषि क्षेत्र के लिए 4 प्रतिशत वृद्धि दर के लक्ष्य को हासिल करने के लिए अभी से सख्त कदम उठाने की आवश्यकता है।

उत्पादकता में वृद्धि
देश के पूर्वोत्तर राज्यों में कृषि उत्पादकता में बढ़ोतरी की संभावनाएं अन्य भागों की तुलना में ज्यादा हैं। इन राज्यों में खाद्यान्न उत्पादन खासकर के चावल उत्पादन में बढ़ोतरी के परिणामस्वरूप ही देश में रिकॉर्ड खाद्यान्न उत्पादन संभव हो पाया है। वर्ष 2011-12 में देश में खाद्यान्न का 25.93 करोड़ टन का रिकॉर्ड उत्पादन हुआ है। देश के खाद्यान्न उत्पादन में बढ़ोतरी का श्रेय पूर्वी भारत के राज्यों बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल को जाता है।
पूर्वोत्तर भारत में हरित क्रांति के लिए केंद्र सरकार ने वित्त वर्ष 2012-13 के बजट में 400 करोड़ रुपये की बढ़ोतरी कर कुल आवंटन 1,000 करोड़ रुपये का किया था।
इन राज्यों में प्रति हैक्टेयर उत्पादकता में और भी बढ़ोतरी की संभावनाएं है। इसीलिए चालू वित्त वर्ष 2013-14 के बजट में इस योजना हेतु आवंटन में १०००  करोड़ रुपये की बढ़ोतरी कर कुल आवंटन २०००  करोड़ रुपये कर दिया गया है
इससे प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा बिल में अतिरिक्त खाद्यान्न की आवश्यकता की पूर्ति करने में भी मदद मिलेगी। सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) और अन्य कल्याणकारी योजनाओं में इस समय सालाना करीब 550 लाख टन खाद्यान्न का आवंटन होता है जबकि खाद्य सुरक्षा बिल लागू होने के बाद 650 लाख टन से ज्यादा खाद्यान्न की आवश्यकता होगी।
कृषि मंत्रालय के अनुसार वर्ष 2011-12 के देश में खाद्यान्न का रिकॉर्ड उत्पादन 25.93 करोड़ टन का हुआ है। इस दौरान देश में गेहूं का रिकॉर्ड 948 लाख टन का उत्पादन हुआ था। इसके अलावा इस दौरान चावल का भी 10.53 करोड़ टन का बंपर उत्पादन हुआ है।
हालांकि कृषि मंत्रालय द्वारा हाल ही में जारी किए गए वर्ष 2012-13 के दूसरे खाद्यान्न उत्पादन में वर्ष 2011-12 की तुलना में 3.5 फीसदी की कमी आने का अनुमान है लेकिन तीसरे, चौथे और अंतिम अनुमान तक इसमें सुधार की संभावना है। कृषि मंत्रालय के अनुसार दूसरे अग्रिम अनुमान में वर्ष 2012-13 में खाद्यान्न उत्पादन 25.01 करोड़ टन होने का अनुमान है।
हरित क्रांति: क्या पूर्वी भारत भी पंजाब के विनाशकारी पथ पर?
उस विकास का क्या लाभ जो किसानों को आत्महत्या के लिए मजबूर होना पड़े. हमें पंजाब से सीख लेनी चाहिए जहाँ प्रथम हरित क्रांति के का कारण पंजाब जैसे राज्य की मिट्टी कि उर्वरक क्षमता खत्म हो गयी, पानी जहरीला हो गया.
दुखद यह है कि अधिकांश जगहों पर इस योजना के अंतर्गत हाइब्रिड बीजों, खाशकर चावल एवं मक्के में, एवं रसायनों का इस्तेमाल हो रहा है. नई हरित क्रांति स्वागत योग्य जरूर है क्योंकि हम पूर्वी राज्यों में हरित क्रांति के तहत निवेश कर रहे हैं परन्तु हमें कुछ महत्वपूर्ण बातों का ध्यान रखना होगा. हमें सावधानी बरतनी होगी कि नई हरित क्रांति हमारे उत्पादक संसाधन को नुकसान नहीं पहुंचाए बल्कि उनमें सुधार लाये. इस नई हरित क्रांति के फलस्वरुप अंततः किसानों को गरीब और ऋणी न बनने दिया जाए. किसी की आत्महत्या करने की बारी न आये. हमें सजग रहना होगा. हमें आखिरकार उन्नति देखनी है. हमें सिर्फ विशिष्ट पैदावार पर ही ध्यान केंद्रित नहीं करना चाहिए बल्कि किसानों की शुद्ध आय पर भी पूरा ध्यान लगाना चाहिए.

भूमि क्षरण, पानी की कमी, प्रदुषण आदि हरित क्रांति के विरासत के रूप में दिखाई दे रहे हैं. इस दौरान पंजाब के किसानो के स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल असर देखने को मिले हैं. और इन सबके विपरीत सच यह है कि जिन जगहों पर हरित क्रांति नहीं शुरू की गई वहां ज्यादा प्रभावशाली वृद्धि दिख रही है. देश का पंजाब आज कैंसर कि राजधानी बन गया है. भटिंडा से बीकानेर के लिए जो ट्रेन चलती है उसका नाम कैंसर एक्सप्रेस रखा गया है. यह सब प्रथम हरित क्रांति के कारण हुई, जिससे हमें सीख लेनी चाहिए.
.




Monday 4 March 2013

इसरो द्वारा सात उपग्रहों का सफल प्रक्षेपण


पिछले दिनों समुद्र विज्ञान से जुड़े अध्ययनों के लिए भारतीय-फ्रांसीसी उपग्रह 'सरल' के साथ आंध्रप्रदेश के श्रीहरिकोटा से इसरो ने कुल सात उपग्रहों का सफल प्रक्षेपण किया। इनमें छह लघु और सूक्ष्म विदेशी उपग्रह भी शामिल थे। पीएसएलवी ने इन्हें सफलतापूर्वक अंतरिक्ष की कक्षा में स्थापित कर दिया। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी इस ऐतिहासिक क्षण के साक्षी बने। इसरो सूत्रों ने बताया कि अंतरिक्ष में मलबे से टकराने से बचने के लिए पीएसएलवी को प्रक्षेपण के निर्धारित समय से पांच मिनट बाद प्रक्षेपित किया गया। यह किसी प्रक्षेपण अभियान का एक सामान्य एहतियाती कदम है। फ्रांसीसी अंतरिक्ष एजेंसी सीएनईएस के पेलोड्स आरगोस और अल्तिका के साथ 409 किलोग्राम वजन का उपग्रह सरल समुद्र के विभिन्न पहलुओं के अध्ययन पर केंद्रित है। इससे समुद्र की स्थिति की समझ बेहतर करने में मदद मिलेगी।
सरल के अलावा, आस्ट्रिया के दो सूक्ष्म-उपग्रह यूनीब्राइट और ब्राइट, डेनमार्क के आउसैट3 और ब्रिटेन के स्ट्रैंड के अतिरिक्त कनाडा के एक सूक्ष्म-उपग्रह नियोससैट और एक लघु-उपग्रह सैफाइर को भी पीएसएलवी से प्रक्षेपित किया गया। इस प्रक्षेपण के साथ ही पीएसएलवी ने लगातार 23 सफल प्रक्षेपणों का अपना सिलसिला पूरा किया। इस क्रम में पहला अभियान विफल रहा था। पीएसएलवी के प्रक्षेपण के करीब 18 मिनट बाद, सबसे पहले सरल को अंतरिक्ष में छोड़ा गया। इसके बाद चार मिनट के अंतराल में एक के बाद एक उपग्रह छोड़े गए। इसरो ने इससे पहले 'सरल' को पिछले साल 12 दिसंबर को प्रक्षेपित करने की योजना बनाई थी लेकिन तकनीकी कारणों से अतिरिक्त परीक्षण करने केलिए इसे टाल दिया गया।

लगातार 21 सफल प्रक्षेपण करने का रिकार्ड रखने वाले पीएसएलवी का यह 23वां मिशन है। नौवीं बार इसरो रॉकेट के "कोर एलोन" वेरियंट का इस्तेमाल कर रहा है। यदि उपग्रहों का प्रक्षेपण सफल रहता है तो इसरो द्वारा विदेशी उपग्रहों को अंतरिक्ष में स्थापित करने का आंकडा 35 हो जाएगा। इसरो ने शुल्क लेकर पीएसएलवी-सी-20 के जरिए विदेशी उपग्रहों को अंतरिक्ष में प्रक्षेपित करने का काम 1999 में शुरू किया था।

ज्ञात रहे,भारत ने 1975 में पहली बार अंतरिक्ष अभियान शुरू किया था। तब एक रूसी रॉकेट से आर्यभट्ट उपग्रह का प्रक्षेपण किया गया था। अब तक देश ने 100 अंतरिक्ष अभियान पूरे कर लिए हैं। समुद्री सतह का अध्ययन... पीएसएलवी-सी20 ने भारतीय-फ्रांसीसी एसएआरएएल उपग्रह (407 किलो) और छह अन्य विदेशी उपग्रहों का प्रक्षेपण किया।

एसएआरएएल समुद्र की सतह की ऊंचाइयों का अध्ययन करेगा और उससे प्राप्त आंकडे भारत और फ्रांस दोनों देश साझा करेंगे। पीएसएलवी-सी20 द्वारा प्रक्षेपित किए जाने वाले अन्य उपग्रहों में दो उपग्रह कनाडा के, दो आस्ट्रिया, एक ब्रिटेन और एक डेनमार्क के हैं। कनाडा के दो उपग्रहों में हैं एनईओसैट (नीयर अर्थ ऑब्जेक्ट स्पेस सर्विलांस सैटेलाइट) और सैफायर उपग्रह। एनईओसैट का विकास कनेडियन स्पेस एजेंसी ने किया है, जबकि सैफायर का विकास मैकडोनल्ड, डेटविलर एंड एसोसिएट्स (एमडीए) ने किया है। आस्ट्रिया के उपग्रहों में हैं ब्राइट और यूनीब्राइट। रॉकेट ब्रिटेन के एसटीराएनडी-1 और डेनमार्क के एएयूएसएटी उपग्रह को भी साथ ले गया है।

स्मार्टफोन संचालित सूक्ष्म उपग्रह...

एसटीराएनडी-1 (सुरे ट्रेनिंग, रिसर्च एंड नैनोसैटेलाइट डेमोंस्ट्रेटर) दुनिया का पहला स्मार्टफोन से संचालित होने वाला सूक्ष्म उपग्रह है। इस पर एंड्रॉयड ऑपरेटिंग सिस्टम वाला गूगल नेक्सस वन फोन लगाया गया है। इस फोन से कई तरह के आंक़डे जुटाए जाएंगे और यह अपने कैमरे से धरती की तस्वीरें भी लेगा।

एनईओसैट रखेगा क्षुद्रग्रहों पर नजर...

कनाडा का एनईओसैट धरती के आसपास मौजूद क्षुद्रग्रहों और धरती की कक्षा में घूमते अन्य उपग्रहों पर नजर रखेगा। साथ ही यह सूर्य के आसपास मौजूद अन्य छोटे उपग्रहों पर भी नजर रखेगा।

मारक-क्षमता को धार देगी नयी मिसाइल

डॉ. एल.एस. यादव
भारत का रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) अग्नि-5 मिसाइल की सफलता के बाद अब परमाणु हथियार ले जाने में सक्षम इंटर कॉन्टीनेंटल बैलेस्टिक मिसाइल (आईसीबीएम) अग्नि-6 विकसित कर रहा है। लंबी दूरी तक मार करने में सक्षम यह शक्तिशाली मिसाइल स्वदेश में विकसित की गई है। अंतर्महाद्वीपीय बैलेस्टिक मिसाइल अग्नि-6 की मारक क्षमता 6000 से 10000 किलोमीटर की दूरी तक की होगी। डीआरडीओ प्रमुख वीके सारस्वत ने गत् 8 फरवरी को जानकारी दी कि इसका डिजाइन तैयार कर लिया गया है। अब हार्डवेयर पर काम जारी है और हम इसे साकार करने के चरण में हैं। यह मल्टीपल इंडिपेंडेंटली टारगेटेबल री-एंट्री व्हीकल (एमआईआरवी) मिसाइल है। अर्थात यह एक साथ अनेक परमाणु हथियार ले जा सकेगी। इस कारण अग्नि-6 मिसाइल एक साथ एक ही समय में स्वतंत्र रूप से कई लक्ष्यों को निशाना बनाने में सक्षम होगी। इससे हमारी रक्षा ताकत कई गुना बढ़ जाएगी।
अग्नि-6 मिसाइल के विकसित हो जाने पर भारत अमेरिका व रूस सहित इस तरह की क्षमता वाले विशिष्ट क्लब में शामिल हो जाएगा। अभी तक इस श्रेणी की मिसाइलें रूस व अमेरिका के पास हैं। डीआरडीओ प्रमुख ने यह भी बताया कि उनका संगठन क्रूज मिसाइल रक्षा कार्यक्रम विकसित करनेे के लिए भी कार्य कर रहा है। इसका फायदा यह होगा कि सशस्त्र बल कम ऊंचाई पर उडऩे वाली दुश्मन की क्रूज मिसाइलों व विमानों को मार गिराएंगे। भारतीय वैज्ञानिकों का पूरा ध्यान अग्नि श्रेणी की मिसाइलों को दुश्मन की बैलेस्टिक मिसाइल रोधी प्रणालियों को भेदने में सक्षम बनाने पर लगा हुआ है। रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन इन मिसाइलों को अधिक संहारक एवं घातक बनाने के लिए ऐसे पेलोड पर काम रहा है जो एक साथ कई नाभिकीय हथियार ले जा सके। इस सफलता के बाद भारत का रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन अपनी स्वदेशी तकनीक की एक नई ऊंचाई को हासिल कर लेगा।
5000
किलोमीटर से अधिक दूरी तक मार करने अग्नि-5 मिसाइल का सफल परीक्षण पिछले वर्ष 19 अप्रैल को किया गया था। यह एक टन वजन तक के परमाणु बम गिरा सकती है। अग्नि-5 मिसाइल 17.5 मीटर लम्बी है। इसमें सात किलोमीटर लम्बी वायरिंग है। यह मिसाइल तीन स्थितियों में मार करेगी। सबसे पहले इसे रॉकेट इंजन ऊपर ले जाता है। दूसरी स्थिति में यह 150 किलोमीटर तक जाएगी। तीसरी स्टेज में यह 300 किलोमीटर तक जाती है। इसके बाद यह 800 किलोमीटर की ऊंचाई तक जाकर लक्ष्य की ओर जाती है। यह मिसाइल यदि एक बार छूट गई तो रोकी नहीं जा सकती। यह 1000 किलोग्राम से अधिक का परमाणु वारहेड ले जाने में सक्षम है। अग्नि-5 मिसाइल की आक्रामक क्षमता अत्यंत घातक है। यह मात्र 20 मिनट में 5000 किलोमीटर की दूरी तय कर लेगी और डेढ़ मीटर के लक्ष्य को भेदने में सक्षम है। यह भारत के मिसाइल तरकश में सबसे लम्बी दूरी तक मार करने वाली मिसाइल है और देश की सामरिक रणनीति में एक विशेष प्रकार का बदलाव लाएगी क्योंकि समस्त एशिया, अफ्रीका महाद्वीप व यूरोप के अधिकांश हिस्से इसकी मारक जद में होंगे।
तीन चरणों वाली यह मिसाइल देश की पहली कैमिस्टर्ड मिसाइल है। यह तीन से दस परमाणु अस्त्र ले जाने में सक्षम है और इसमें प्रत्येक अस्त्र से सैकड़ों किलोमीटर दूर अलग-अलग निशाने लगाए जा सकने की खूबी है। इस मिसाइल का वारहेड मल्टीपल है और इसमें एंटी बैलेस्टिक मिसाइल की भी क्षमता होगी। दूसरे देशों के हमले से बचाव के लिए यह मिसाइल कवच प्रणाली से लैस होगी। इसे मोबाइल लांचर, रेल मोबाइल लांचर व कनस्तर युक्त मिसाइल पैकेज से भी दागा जा सकता है। इस खूबी के कारण इसे दुश्मन के उपग्रहों की नज़रों से भी बचाया जा सकेगा। अग्नि-5 को लंाच करने के लिए स्टील का एक खास कनस्तर बनाया गया है जो 400 टन तक वजन सह सकता हैै। 50 टन भार वाली मिसाइल जब दागी जाएगी तो यह भारी दबाव को झेल सकेगी। इसके तीन खण्डों में प्रयुक्त किए जाने वाले राकेट मोटर, सॉफ्टवेयर तथा अन्य आवश्यक पुर्जे उच्च कोटि के हैं। इसकी एक यूनिट का खर्च तकरीबन 35 का खर्च आएगा। इस मिसाइल को सन् 2014 तक सेना को सौंपा जाना है।
यह पहली ऐसी सचल मिसाइल होगी जिसकी मारक जद में चीन के सभी इलाके, पूरा एशिया, अधिकांश अफ्रीका व आधा यूरोप आएंगे। भारत के पूर्वोत्तर सीमान्त से अगर इसे छोड़ा जाए तो यह चीन की उत्तरी सीमा पर स्थित हरबिन को अपनी चपेट में ले लेगी। अंडमान से छोडऩे पर यह आस्टे्रलिया तक पहुंच सकती है। यदि इसे अमृतसर से छोड़ा जाए तो स्वीडन की राजधानी को भी निशाना बनाया जा सकेगा। यह मिसाइल चीन की डोंगफोंग-31ए व अमेरिका की परशिंग मिसाइल की बराबरी वाली है। देश के विभिन्न भागों में तैनात किए जाने के बाद कमोवेश सारा संसार इसकी मारक दूरी में आ जाएगा। या यूं कहिए कि उत्तरी व दक्षिणी अमेरिका को छोड़कर दुनिया का प्रत्येक क्षेत्र इसके निशाने में होगा। अग्नि-5 मिसाइल की मारक जद में भले ही पूरा चीन आता हो लेकिन उसके विमानवाही पोत जो कि चीन से दूर प्रशान्त महासागर व अटलांटिक महासागर में तैनात हैं, वहां से भी वे भारत पर मिसाइल दाग सकते हैं। यही नहीं चीन ने अमेरिका के परमाणु ईंधन चालित विमानवाही पोतों को नष्ट करने के लिए डीएफ-21 डी नामक मिसाइल तैयार की है जो ताइवान की मदद को आने वाले अमेरिकी युद्धपोतों को नष्ट करने में सक्षम है। ये मिसाइलें भी भारत के लिए खतरा बन सकती हैं। ऐसे में भारत के लिए लम्बी दूरी तक मार करने वाली अग्नि-6 जैसी मिसाइलों का विकास अत्यन्त आवश्यक हो गया था।
भारत समन्दर से परमाणु हमला करने में सक्षम पांच देशों के विशिष्ट क्लब में शामिल हो चुका है। पनडुब्बी तक परमाणु आयुध ले जाने में सक्षम मध्यम दूरी की के-5 बैलेस्टिक मिसाइल का भारत ने गत् 27 जनवरी को सफल परीक्षण किया था। भारत द्वारा खुद तैयार की गई यह मिसाइल पनडुब्बी से भी दागी जा सकती है। इस मिसाइल के विकास की जिम्मेदारी हैदराबाद स्थित रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन की प्रयोगशाला को सौंपी गई थी। भारत से पहले अमेरिका, फ्रांस, रूस व चीन ही इस तरह की मिसाइल दागने में सक्षम थे। रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन के प्रमुख वीके सारस्वत के मुताबिक के-15 मिसाइल ने परीक्षण के सभी मानकों का पूरा किया है। मध्यम दूरी की यह मिसाइल 1500 किलोमीटर की दूरी तक मार करने में सक्षम है। परीक्षण के बाद इस मिसाइल को स्वदेशी पनडुब्बी आईएनएस अरिहन्त में लगाया जाएगा। यह मिसाइल डीआरडीओ के उस अभियान का एक हिस्सा है जिसके तहत भारत के सुरक्षा बलों के लिए पानी के अन्दर से मार करने वाली मिसाइलों का विकास किया जा रहा है। अग्नि श्रेणी व पनडुब्बी आधारित मिसाइल तकनीक में दक्षता हासिल करना एक उल्लेखनीय उपलब्धि है। इससे सशस्त्र सेनाओं की मारक क्षमता में एक नई धार आएगी।

Sunday 3 March 2013

विज्ञान पर बेतुका विलाप

अंतरिक्ष से कमाई

भारत के अंतरिक्ष अभियान पर अभिषेक कुमार सिंह की टिप्पणी
भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी इसरो ने अपने 101वें अंतरिक्ष अभियान के रूप में रॉकेट पीएसएलवी-सी20 के जरिये सात सैटेलाइट्स (उपग्रहों) को सफलतापूर्वक उनकी कक्षा में पहुंचा कर नई ऊंचाई हासिल कर ली है। अस्सी के दशक में जब भारत अंतरिक्ष में छलांग लगाने के मकसद से महत्वाकांक्षी योजनाएं बना रहा था तब विकसित देश भारत के बारे में यही कहते थे कि बैलगाड़ी पर चलने वाला देश अंतरिक्ष में पहुंचने का सपना क्यों देख रहा है। इसे महान अंतरिक्ष वैज्ञानिकों विक्रम साराभाई और सतीश धवन की सूझबूझ और तत्कालीन राजनेताओं की दूरंदेशी कहा जाएगा कि उन्होंने अंतरिक्ष के जरिये देश की गरीबी और निरक्षरता मिटाने का सपना देखा। विकसित देशों को चिंता यह थी कि भारत यदि अंतरिक्ष क्षेत्र में उनकी बराबरी पर आ गया, तो इससे न सिर्फ स्पेस में सैटेलाइट लांच करने से होने वाली उनकी भारी कमाई का Fोत बंद हो जाएगा, बल्कि रॉकेट टेक्नोलॉजी के माध्यम से भारत लंबी दूरियों तक मार करने वाली बैलिस्टिट मिसाइलें बनाने में भी सक्षम हो जाएगा। यही वजह है कि उस दौर में निर्गुट नीति पर चलने वाले भारत को स्वतंत्र विदेश नीति पर न चलने देने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत को अलग-थलग करने की कोशिशें पश्चिमी देशों ने की थीं। इन पाबंदियों से भारत का फौरी नुकसान तो हुआ, लेकिन इसका एक सुफल यह निकला कि एटमी तकनीक के मामले में भारत आत्मनिर्भर हो गया। कुछ ऐसी ही बाधाओं का योगदान भारत को स्वदेशी अंतरिक्ष कार्यक्रमों में बढ़त हासिल कराने में भी है। सत्तर और अस्सी के दशक में भारत पर जैसे दबाव थे, उनके रहते ऐसा लग रहा था कि भारत मिसाइल और अंतरिक्ष कार्यक्रमों के लिए विकसित देशों का मोहताज बनकर रह जाएगा, लेकिन 1983 में एकीकृत मिसाइल विकास कार्यक्रम का जिम्मा तब एपीजे अब्दुल कलाम को सौंपना एक दूरंदेशी फैसला साबित हुआ। हालांकि 1987 में अमेरिका के इशारे पर एमटीसीआर जैसी बाध्यकारी व्यवस्था लागू कर भारत के मिसाइल कार्यक्रम को रोकने का प्रयास किया गया। साथ ही, अमेरिका ने भारत में बने उपग्रहों को अपने रॉकेट से स्पेस में छोड़ने से भी इनकार कर दिया, लेकिन भारत ने साबित किया कि ये सारी पाबंदियां उसे आत्मनिर्भर बनाने वाली ही साबित हुईं। उल्लेखनीय है कि जो तकनीक मिसाइल बनाने में काम आती है, उसी से अंतरिक्ष में उपग्रह छोड़ने वाले रॉकेट बनते हैं। उपकरणों के निर्यात पर पाबंदी के बावजूद भारत ने पहले तो पृथ्वी की नजदीकी कक्षा में 300 किलोमीटर तक जाने वाले सैटेलाइट लांच व्हीकल- एसएलवी का विकास किया और उसके बाद संवर्धित उपग्रह प्रक्षेपण यान (एएसएलवी और पृथ्वी की कक्षा में 900 किलोमीटर ऊपर जाकर उपग्रहों को छोड़ने व स्थापित करने वाले ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान अर्थात पीएलएलवी का निर्माण करने में सफलता हासिल की। इन्हीं रॉकेटों की तकनीक पर भारत ने पृथ्वी और अग्नि मिसाइलें विकसित की हैं। चूंकि अब पूरी दुनिया में मौसम की भविष्यवाणी, दूरसंचार और टेलीविजन प्रसारण का क्षेत्र तेजी से बढ़ रहा है और ये सारी सुविधाएं उपग्रहों के माध्यम से संचालित होती हैं, लिहाजा ऐसे संचार उपग्रहों को अंतरिक्ष में स्थापित करने की मांग में तेज बढ़ोतरी हो रही है। अमेरिकी व यूरोपीय स्पेस एजेंसी के जरिए सैटेलाइट छोड़ना काफी महंगा है, ऐसे में भारतीय रॉकेट एक सस्ता विकल्प साबित हो रहे हैं। हालांकि इस क्षेत्र में चीन, रूस आदि मुल्क प्रतिस्पर्धा में हैं, लेकिन यह बाजार इतनी तेजी से बढ़ रहा है कि यह मांग उनके सहारे पूरी नहीं की जा सकती। इस मामले में उपग्रहों का सफल प्रक्षेपण भी एक मुद्दा है। इस मामले में इसरो की सफलता दर काफी उम्दा है। यही नहीं, भारत से उपग्रहों का प्रक्षेपण करवाने की लागत अन्य देशों के मुकाबले 30-35 प्रतिशत कम है। आर्थिक मंदी के मौजूदा दौर में तो विकसित देशों को इसीलिए भारत से भय लग रहा है कि कहीं स्पेस मार्केट के ज्यादातर हिस्से पर भारत का कब्जा न हो जाए।

Saturday 2 March 2013

स्वाइन फ्लू का कहर


रोहित कौशिक
यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि एक बार फिर स्वाइन फ्लू ने देश के विभिन्न हिस्सों में अपने पैर पसारने शुरू कर दिए हैं। 2010 में करीब बीस हजार लोग इस बीमारी की चपेट में आए थे। स्वाइन फ्लू सुअरों का श्वसन संबंधी रोग है जो टाइप ए इन्फ्लूएंजा वायरस एच1एन1 द्वारा होता है। यह सुअरों में गंभीर रोग उत्पन्न करता है, लेकिन इस पशु में स्वाइन फ्लू से होने वाली मत्युदर अधिक नहीं है। टाइप ए इन्फ्लूएंजा वायरस एच1एन1 सबसे पहले 1930 में एक सुअर में पाया गया था। सभी इन्फ्लूएंजा विषाणुओं की तरह स्वाइन फ्लू वायरस भी लगातार रूपांतरित होता रहता है। एविएशन इन्फ्लूएंजा तथा हयूमन इन्फ्लूएंजा वायरस के साथ-साथ स्वाइन इन्फ्लूएंजा वायरस से सुअर संक्रमित हो सकते हैं। जब विभिन्न वगरें से संबंधित इन्फ्लूएंजा वायरस सुअरों को संक्रमित करते हैं तो वायरस पुन: वर्गीकृत हो सकते हैं और स्वाइन, ह्यूमन तथा एविएशन इन्फ्लूएंजा वायरस के मिश्रण से नए वायरस पैदा हो सकते हैं। पिछले वर्षों में स्वाइन फ्लू वायरस के विभिन्न रूपांतरण हो चुके हैं। इस रोग के माध्यम से सुअरों में बुखार, अवसाद, खांसी, नाक तथा आंख से श्चाव, छींक, आंखों में लाली तथा श्वसन संबंधी रोग हो सकते हैं। एच1एन1 वायरस के अलावा एच1एन2, एच3एन2 तथा एच3एन1 वायरस भी स्वाइन फ्लू का संक्रमण करते हैं। सामान्यत: यह वायरस मनुष्य को संक्रमित नहीं करता, लेकिन कभी-कभी मनुष्यों में भी इसका संरमण पाया जाता है। सुअरों मे इस रोग का संक्रमण कम करने के लिए कुछ टीके लगाए जाते हैं, लेकिन मनुष्यों में इसकी रोकथाम के लिए कोई कारगर टीका उपलब्ध नहीं है। हालांकि साधारण इन्फ्लूएंजा के टीके एच3एन2 वायरस के संक्रमण को कम करने में मदद करते हैं, लेकिन एव1एन1 वायरस के संक्रमण में इन टीकों से अधिक फायदा नहीं होता है। इसके साथ ही मनुष्यों में स्वाइन फ्लू के संक्रमण को कम करने के लिए कुछ विषाणुरोधी दवाइयां दी जाती हैं।
 भारत के गांवों मे अनेक समितियों और ग्राम पंचायतों के सहयोग से एक वृहद स्वास्थ्य सेवा का ताना-बाना बुना गया है। भौतिक विस्तार की दृष्टि से स्वास्थ्य सेवाओं का यह ढांचा दुनिया में सबसे बड़ा माना जाता है, लेकिन प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की वास्तविकता यह है कि यहां डॉक्टर केंद्रों पर रहते ही नहीं हैं। इसके साथ ही इन केंद्रों पर आने वाली सरकारी दवाइयां भी या तो क्षेत्र के प्रभावशाली लोगो को दे दी जाती हैं या फिर उन्हें बाजार के हवाले कर दिया जाता है। अधिकांश केंद्रों पर मौजूद विभिन्न मशीनें भी ज्यादातर खराब ही रहती है। गौरतलब है कि राष्ट्रीय स्तर पर देश के मात्र छह प्रतिशत गांवों में ही पंजीकृत निजी डॉक्टर मौजूद हैं। अक्सर गांवों में मौजूद ये पंजीकृत डॉक्टर एक ढर्रे से इलाज करने के कारण ग्रामीणों की बीमारियो का पूर्ण एवं सही आकलन नहीं कर पाते। ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य संबंधी जागरूकता के प्रसार के लिए सरकारी स्तर पर अनेक कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित एवं तैनात किया जाता है, लेकिन वहां अनुकूल वातातरण न मिल पाने के कारण स्वास्थ्य संबंधी जागरूकता के प्रसार में इनकी गतिविधियां उपयोगी साबित नहीं होतीं। स्वच्छ पेयजल का अभाव, गंदगी, इधर-उधर फैला हुआ कूड़ा, घरों का सीलनयुक्त एवं हवादार न होना तथा कुपोषण जैसी अनेक स्थितियां है जो लोगों को अनेक घातक बीमारियो से ग्रस्त कर देती है। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि स्वाइल फ्लू से अनेक लोगों की मौत हो चुकी है, लेकिन सरकार ने इस बीमारी का संक्रमण रोकने हेतु अभी तक भी कोई जागरूकता अभियान शुरू नहीं किया है। अब समय आ गया है कि सरकार इस गंभीर बीमारी से निपटने के लिए कोई ठोस योजना बनाएं।