Tuesday 19 February 2013

हायर स्टडीज के लिए विदेश क्यों नहीं जा रहे भारतीय


मधुरेन्द्र सिन्हा॥
नब्बे के दशक में जब इकोनॉमिक रिफॉर्म्स शुरू हुए तो भारतीयों ने एक बात जान ली कि अगर अपनी बढ़त बनानी है तो हायर एजुकेशन में पहल करनी होगी। इसका ही नतीजा था कि यहां से लाखों की तादाद में स्टूडेंट्स विदेशों में पढ़ने जाने लगे और तेजी से बढ़ती इकोनॉमी को जबर्दस्त सपोर्ट मिला। दरअसल मॉडर्न बिज़नेस को चलाने के लिए जो टैलेंट चाहिए वह किसी कारखाने में नहीं पैदा होता, बल्कि एमआईटी, स्टैनफर्ड, हावर्ड, ऑक्सफर्ड और कैंब्रिज से आता है। ये वो इंस्टीट्यूशन हैं जो साधारण टैलेंट को भी आकाश की बुलंदियों तक पहुंचाने की ताकत रखते हैं। अमेरिकी नेतृत्व ने इस रहस्य को सौ साल पहले जान लिया था। इसका ही नतीजा है कि 15.8 खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था वाला अमेरिका दुनिया का सबसे अमीर देश ही नहीं है, हायर एजुकेशन के मामले में भी नंबर वन है। दुनिया की सबसे बड़ी 321 खोजों में से 121 अमेरिका में हुईं और दुनिया के टॉप 45 एजुकेशनल इंस्टीट्यूट्स में से 30 अमेरिका में हैं।

यहां भी भारत-चीन
इस सदी की शुरूआत में हमारे स्टूडेंट्स की पूरी फौज अमेरिका, इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया वगैरह पहुंचने लगी। 2001-02 से 2008-09 के बीच भारतीय छात्रों ने अमेरिका में नंबर वन जगह बना ली। इसके पहले यह तमगा चीन के पास था। यही बात इंग्लैंड में हुई और वहां भी भारतीय स्टूडेंट्स नंबर वन रहे। दुनिया की सबसे बड़ी इकोनॉमी बनने में जुटे चीन ने शुरू से ही इस बात को समझ लिया था कि आगे बढ़ना है तो हायर एजुकेशन का सहारा लेना होगा, जो अमेरिका-इंग्लैंड में ही मिल सकती है। उसने अपने यहां से बड़ी तादाद में छात्रों को विदेश जाकर पढ़ने के लिए प्रेरित किया। वहां भी भारत-चीन प्रतिद्वंद्विता देखने को मिली, लेकिन चीन ने अब फिर से यहां बाजी मार ली है। आंकड़े बताते हैं कि 2009 में अमेरिका जाने वाले भारतीय स्टूडेंट्स की तादाद एक लाख से भी ज्यादा हो गई थी लेकिन उसके बाद से यह लगातार गिरती जा रही है, जबकि चीन से आने वालों की तादाद में भारी बढ़ोतरी हो रही है।

अच्छी नौकरियों का लोचा

आखिर हुआ क्या जो विदेशों में हायर एजुकेशन के लिए जाने वाले भारतीय स्टूडेंट्स की तादाद घटने लगी? उत्कृष्ट ज्ञान पाने का एक बड़ा मौका हम आखिर क्यों गंवा रहे हैं? इन सवालों का हल ढूंढ़ना ही होगा क्योंकि हायर एजुकेशन में पकड़ बनाकर ही भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी इकोनॉमी बन सकता है। इसका सबसे बड़ा कारण तो यह है कि दुनिया के टॉप इंस्टीट्यूशनों में पढ़ने की फीस इतनी ज्यादा है कि बहुत कम लोग इस बारे में सोच सकते हैं। स्टैनफर्ड जैसे बिजनेस मैनेजमेंट इंस्टीट्यूशनों में तो फीस ही डेढ़ करोड़ रुपए तक होती है। अब सवाल है कि इतनी ज्यादा फीस देने के बाद क्या ऐसा कोई नौकरी मिलेगी जिससे यह रकम चुकाई जा सके? अमेरिका में आई मंदी के बाद वहां बढि़या नौकरियों के ऑफर आने कम हो गए। अगर जॉब मार्केट में जान न हो तो पढ़ाई किस काम की?

भारतीय करेंसी का गिरना भी बड़ा कारण रहा। रुपया अमेरिकी डॉलर की तुलना में लगातार नीचे आया है।डॉलर देखते-देखते 45 से 55 रुपए तक जा पहुंचा जिससे हजारों स्टूडेंट्स का बजट बिगड़ गया और उन्होंने बाहरजाना स्थगित कर दिया। विदेशों में पढ़ने के लिए बैंक जो लोन देते हैं, वह इतना नहीं होता कि उसके बूते विदेशोंमें पढ़ाई की जा सके। और अगर बड़ी रकम का इंतजाम हो भी गया तो उसे चुकाया कैसे जाए, यह प्रश्न मुंह बाएखड़ा रहता है। इसलिए बहुत से लोग किसी तरह का जोखिम नहीं उठाना चाहते। इसके अलावा भारतीय स्टूडेंट्सज्यादातर साइंस, इंजीनियरिंग या फिर मैथमेटिक्स की पढ़ाई करते हैं, जिसमें भारत में मोटी सैलरी की गुंजाइशनहीं रहती। इसके विपरीत चीनी स्टूडेंट्स ज्यादा से ज्यादा बिजनेस मैनेजमेंट की पढ़ाई करते हैं।
एक और कारण यह रहा कि भारतीय स्टूडेंट्स अमेरिका के बड़े और बहुत नामी इंस्टीट्यूट में पढ़ने के इच्छुक रहतेहैं जबकि वहां बड़ी तादाद में अच्छे लेकिन कम नामी इंस्टीट्यूट भी हैं जहां पढ़ना लाभदायक होगा। उनकीजानकारी कम होने के कारण वहां भारतीय स्टूडेंट्स कम जाते हैं। हाल के वर्षों में अमेरिका ने वीजा के नियम कड़ेकर दिए थे, जिससे भारतीयों के सामने बाधा खड़ी हो गई। शुक्र है कि अमेरिकी सरकार अब इन्हें फिर से आसानबनाने जा रही है। वीजा के सख्त नए नियमों के कारणभारतीय स्टूडेंट्स के इंग्लैंड पढ़ने जाने में भी भारी कमीआई है। 2011-12 की तुलना में वहां पढ़ने वाले स्टूडेंट्स की तादाद 25 प्रतिशत कम हो गई है। इसके अलावाब्रिटेन के मैनेजमेंट, इंजीनियरिंग वगैरह का यहां खास महत्व नहीं है। भारतीय स्टूडेंट्स वहां साइंस, मेडिसिन,इकनॉमिक्स, इंग्लिश वगैरह की पढ़ाई के लिए जा रहे हैं लेकिन बाकी कोर्स में उनकी रुचि घट गई है। कठोरनियमों के चलते वहां पढ़कर नौकरी पा लेना भी मुश्किल है।

हमसे ज्यादा उनका नुकसान

ऑस्ट्रेलिया एक समय भारतीय स्टूडेंट्स का प्रिय डेस्टिनेशन हो गया था और वहां वे बड़ी तादाद में वे जा रहे थेलेकिन रेसिज्म और हिंसा ने उन्हें वहां से दूर कर दिया। फिर ऑस्ट्रेलियन डॉलर भी काफी महंगा हो गया।भारतीयों की भीड़ के कारण वीजा नियम भी कड़े बना दिए गए जिससे उनकी दिलचस्पी घट गई। सबसे बड़ीबात यह थी कि पार्ट टाइम जॉब करके पढ़ाई करना संभव नहीं था। हालत यह है कि अभी हर साल दस हजारस्टूडेंट्स भी ऑस्ट्रेलिया पढ़ने नहीं जाते। भारतीय स्टूडेंट्स के इन देशों में कम जाने का खामियाजा इन देशों कोभी भुगतना पड़ रहा है। हायर एजुकेशन इनकी कमाई का बड़ा जरिया है और इसमें बहुत कमी आई है। अकेलेऑस्ट्रेलिया को लगभग एक अरब डॉलर का सालाना नुकसान उठाना पड़ रहा है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था में हायरएजुकेशन का बड़ा योगदान है और उससे उसे हर साल 22 अरब डॉलर की प्राप्ति होती है। इसमें अब कम आनेलगी है। 

Friday 15 February 2013

आज सबसे करीब से गुजरेगा खतरा

मुकुल व्यास 
२०१२ डी-ए १४ से हमें कोई खतरा नहीं है। यह पृथ्वी को नहीं छुएगा और निकट भविष्य में भी इसके पृथ्वी से टकराने की कोई संभावना नहीं है। हालांकि यह एस्टेरॉयड दूरसंचार उपग्रहों की कक्षा के अंदर उड़ान भरते किसी उपग्रह से जरूर टकरा सकता है। इससे पहले कभी कोई एस्टेरॉयड पृथ्वी के इतने करीब आते नहीं देखा गया है।  अंतरिक्ष से एक और एस्टेरॉयड (क्षुद्रग्रह) आज हमारी पृथ्वी के नजदीक पहुंचने वाला है। करीब ५० मीटर चौड़े और १३०००० टन वजनी इस एस्टेरॉयड की रफ्तार २८००० किलोमीटर प्रति घंटा है। यह एस्टेरॉयड आज पृथ्वी के बगल से गुजरेगा। अंतरिक्ष शिलाएं अक्सर पृथ्वी के नजदीक आ जाती हैं और इसमें कोई नई बात नहीं है, लेकिन इस बार चौंकाने वाली बात यह है कि पृथ्वी से इसकी दूरी मात्र २७६८० किलोमीटर होगी। ब्रह्मांड के विराट फैलाव से तुलना करें तो कह सकते हैं कि यह महज इंचभर का फासला है। एक तरह से देखें तो यह एस्टेरॉयड हमारे भू-समकालिक संचार उपग्रहों से भी ज्यादा हमारे करीब आ जाएगा, जो करीब ३६००० किलोमीटर ऊंची कक्षा में तैनात हैं।

२०१२ डी-ए १४ नामक इस एस्टेरॉयड का पता पिछले साल ही चला था। खगोल वैज्ञानिकों ने इसे "नियर अर्थ ऑब्जेक्ट" माना है, क्योंकि उसकी कक्षा किसी बिंदु पर पृथ्वी के लिए खतरा बन सकती है। नासा का नियर अर्थ ऑब्जेक्ट प्रोग्राम ऑफिस ऐसे एस्टेरॉयड के मार्ग पर निगरानी रखता है। नासा के पर्यवेक्षणों के आधार पर खगोल वैज्ञानिकों ने आश्वस्त किया है कि २०१२ डी-ए १४ से हमें कोई खतरा नहीं है। यह पृथ्वी को नहीं छुएगा और निकट भविष्य में भी इसके पृथ्वी से टकराने की कोई आशंका नहीं है। हालांकि कुछ वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि यह एस्टेरॉयड दूरसंचार उपग्रहों की कक्षा के अंदर उड़ान भरते किसी उपग्रह से टकरा सकता है। पृथ्वी के ऊपर स्थित कक्षा में १०० से अधिक दूरसंचार और मौसम उपग्रह तैनात हैं। वैज्ञानिकों ने इससे पहले कभी इतने बड़े एस्टेरॉयड को पृथ्वी के इतने करीब आते नहीं देखा है।

कई एस्टेरॉयड पहले भी पृथ्वी के बहुत करीब से गुजरे थे, लेकिन ये आकार में छोटे थे। २०१२ डी-ए १४ जैसे एस्टेरॉयड हर चालीस साल बाद पृथ्वी के बगल से गुजरते हैं और हर १२०० साल बाद पृथ्वी से टकराते हैं। खगोल वैज्ञानिकों ने अभी तक पृथ्वी के निकट ९००० से ज्यादा एस्टेरॉयड की पहचान की है। समझा जाता है कि करीब दस लाख या उससे ज्यादा अंतरिक्ष शिलाएं पृथ्वी के इर्दगिर्द मंडरा रही हैं। यदि २०१२ डी-ए १४ पृथ्वी से टकराता तो बड़ी तबाही मचा सकता था। विचलित करने वाली बात यह है कि पृथ्वी के अगल-बगल से एस्टेरॉयड्स के गुजरने की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। पिछले दिसंबर में ही एक एस्टेरॉयड पृथ्वी के बहुत करीब आ गया था। सबसे ज्यादा चिंता की बात यह है कि हमारे ग्रह के नजदीक आने से सिर्फ दो दिन पहले ही खगोल वैज्ञानिकों को इसका पता चला था। २०१२ एक्स-ई ५४ नामक यह एस्टेरॉयड पृथ्वी से २२६००० किलोमीटर दूर से गुजरा था। एपोफिस नामक एक अन्य बड़े एस्टेरॉयड के १३ अप्रैल २०२९ को पृथ्वी के करीब ३६००० किलोमीटर दूर से गुजरने की भविष्यवाणी की गई है। ३०० मीटर चौड़े इस एस्टेरॉयड की खोज २००४ में हुई थी। वैज्ञानिकों के मुताबिक इस एस्टेरॉयड के भी पृथ्वी से सीधे टकराने की कोई आशंका नहीं है, लेकिन यह वर्ष २०३८ में पुनः पृथ्वी के लिए खतरा बन सकता है। एस्टेरॉयड्स की पहचान और उनका सूचीकरण बेहद जरूरी है, क्योंकि कुछ आवारा चट्टानी शिलाएं आकार में बहुत बड़ी हैं। अतीत में हमारा ग्रह एस्टेरॉयड्स के विनाशकारी प्रभाव झेल चुका है और ऐसे प्रहार भविष्य में भी हो सकते हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक एस्टेरॉयड के आकार को देखकर यह तय किया जा सकता है कि खतरा कितना गंभीर है।

रिसर्चरों के मुताबिक निकट भविष्य में इनसे हमारे ग्रह को कोई खतरा नहीं है, लेकिन छोटे खगोलीय पिंडों के बारे में कोई भी भविष्यवाणी करना मुश्किल है। वैज्ञानिकों को छोटे एस्टेरॉयड्स से बहुत चिंता हो रही है। एक किलोमीटर से कम चौड़े एस्टेरॉयड्स का पता लगाना मुश्किल होता है। बहुत कम समय पहले ही इनकी जानकारी मिल पाती है। नासा के वाइस स्पेस टेलीस्कोप के आकलन के मुताबिक करीब ४७०० एस्टेरॉयड करीब १०० मीटर चौड़े हैं। ये अपनी कक्षाओं में विचरण करते हुए खतरनाक ढंग से पृथ्वी के करीब आ जाते हैं। रिसर्चरों ने इनमें से करीब ३० प्रतिशत पिंडों को देखा है। यदि इस आकार का पिंड पृथ्वी से टकराता है तो किसी देश का एक पूरा राज्य तबाह हो सकता है।

पृथ्वी के नजदीक मंडराने वाली कुछ चट्टानी शिलाएं ४० मीटर चौड़ी हैं और हमें इनमें से सिर्फ एक प्रतिशत के बारे में ही जानकारी मिली है। ऐसी शिलाएं स्थानीय पैमाने पर भारी तबाही मचा सकती हैं। तुंगुस्का की घटना इसका एक उदाहरण है। १९०८ में साइबेरिया में पोद्कमेन्नाया तुंगुस्का नदी पर एक ४० मीटर चौड़ी या उससे भी छोटी शिला का विस्फोट हुआ था, जिससे २००० वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला जंगल धराशायी हो गया था। इस तरह की विनाशकारी टक्करें हमारे ग्रह के जीवन की एक कड़वी हकीकत हैं। विश्व की अर्थव्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने व समाज को नुकसान पहुंचाने की क्षमता रखने वाले एस्टेरॉयड औसतन हर २०० या ३०० साल बाद पृथ्वी पर प्रहार करते हैं। करीब ६.५ करोड़ वर्ष पहले एस्टेरॉयड के विनाशकारी प्रहार से पृथ्वी से डायनोसौरों का सफाया हो गया था। ऐसा हादसा मानव जाति के साथ न हो, इसके लिए हमें अभी से सजग रहना पड़ेगा। मानव जाति के अस्तित्व को सुनिश्चित करने के लिए हमारे पास समुचित टेक्नोलोजी और ज्ञान है। लगभग १४ वर्ष पहले बनी हॉलीवुड की मशहूर डिजास्टर फिल्म "आर्मागेडोन" में एक विशाल एस्टेरॉयड को पृथ्वी की ओर बढ़ते दिखाया गया था। पृथ्वी को महाविनाश से बचाने के लिए इस एस्टेरॉयड को परमाणु विस्फोट के जरिए नष्ट करना जरूरी था और इस काम के लिए फिल्म के मुख्य पात्रों के पास सिर्फ १८ दिन का समय बचा था। अब वैज्ञानिक भी मानने लगे हैं कि पृथ्वी को एस्टेरॉयड्स के प्रहार से बचाने के लिए दुनिया को तत्काल आर्मागेडोन जैसे उपायों के बारे में सोचना पड़ेगा। 

Wednesday 13 February 2013

शब्दों की दुनिया का डिजिटल होना

निनाद गौतम  
बीती सदी के नौंवे दशक में मनोरंजन के क्षेत्र का सबसे बड़ा कारोबार था संगीत। हर साल अरबों रुपये के कैसेट बिका करते थे, चाहे वे ऑडियो हों या वीडियो। संगीत कंपनियों का बड़ा नाम था। वर्ष 21वीं सदी के आते-आते एमपी-3 ने अपना कमाल दिखाना शुरु कर दिया। पहले टेपरिकॉर्डर में बजने वाले कैसेट में दोनों तरफ कुल मिलाकर पांच-छह गाने होते थे। कभी-कभी गानों की संख्या आठ-दस तक भी होती थी, वहीं सीडी में ये शुरु में 50-60 हो गए तो लगने लगा जैसे कितने सारे ऑडियो कैसेट एक छोटी-सी सीडी में समा गए हैं। बाद में सीडी और उन्नत हुई। उसमें 70-75 गाने आने लगे। फिर डीवीडी आई और उसमें 250-300 गाने आने लगे। फिर देखते ही देखते संगीत ऑनलाइन मुफ्त में उपलब्ध होने लगा। तमाम संगीत कंपनियां पस्त हो गईं और हथियार डाल दिए। हालांकि किताबों की दुनिया में अभी ऐसा कुछ नहीं दिख रहा है। आज भी पूरी दुनिया में किताबें सिर्फ छप रही हैं, बल्कि बिक भी रही हैं। यदि यह कहा जाए कि इंटरनेट पर किताबें उपलब्ध होने से उन पर कोई भी असर नहीं पड़ा है तो यह कहना सच से नजरें छिपाना होगा। 2010-11 में चार अरब डॉलर मूल्य की किताबें इंटरनेट के जरिये डाउनलोड की गईं या पढ़ी गईं। यह नहीं कहा जा सकता कि यह पूरी की पूरी रकम किताबों के खातों से निकाली गई, लेकिन यह तो मानना ही पड़ेगा कि इसमें एक बड़ा हिस्सा किताबों के खाते से था। नई दिल्ली में संपन्न हुआ विश्व पुस्तक मेला भी इस विस्तार का गवाह है कि किताबें कैसे धीरे-धीरे डिजिटल होती जा रही हैं। ऐसे में आशंका जताई जा सकती है कि एक-दो सदी बाद वह स्थिति आएगी कि किताबों की दुनिया भी सफों से निकलकर डिजिटल हो जाएगी। हो सकता है कि बहुत से लोग इससे सहमत हों। यह सही है कि किताब को हाथ में लेकर पढ़ने का अपना महत्व और आनंद होता है, लेकिन न्यूजवीक पत्रिका का डिजिटल होना हमारे समय की ही बात है। हो सकता है कि संगीत कारोबार की तरह किताबों का कारोबार पूरी तरह कभी सिमटे, मगर ऐसी आशंकाएं निर्मूल नहीं हैं कि किताबों की दुनिया में छाया मौजूदा डाउनलोड का साया एक एक दिन इसके अस्तित्व पर भी भारी पड़ सकता है। किताबें और संगीत की दुनिया की नियति इसलिए भी एक हो सकती है, क्योंकि संगीत की दुनिया में भी सब कुछ खत्म नहीं हुआ। आज भी अरबों रुपये का संगीत व्यवस्थित ढंग से बिकता है, लेकिन अब इस दुनिया में छोटे खिलाडि़यों के लिए कोई जगह नहीं बची। अब सिर्फ ऐसे खिलाडि़यों की जगह है, जो दूसरों से भिन्न हैं और अपनी तरह के अकेले हैं। हो सकता है आने वाले कल में किताबों की दुनिया भी इसी तरह मौलिक, विशिष्ट और खास हो जाए। सवाल है हमें इसकी चिंता क्यों करनी चाहिए। इसकी दो वजहें हैं। माना कि प्रत्यक्ष रूप से डाउनलोड की दुनिया किताब खरीदने के मुकाबले सस्ती है, उसका ढूंढ़ा जाना आसान है और भूगोल की बाधाएं भी उसके साथ नहीं जुड़ी हैं। यानी किताब लाने के लिए दुकान तक जाने का झंझट खत्म हो जाता है। बस एक क्लिक किया और किताबें सामने होती हैं, लेकिन अप्रत्यक्ष तौर पर यह सौदा महंगा है। किताबों की दुनिया सबके लिए है। वह ज्यादा स्थायी है। डिजिटल दुनिया में किताबों तक पहुंच बनाने के लिए सबसे पहले एक कंप्यूटर सेटअप होना जरूरी है। फिर तेज रफ्तार का इंटरनेट कनेक्शन और इसके बाद जटिल सॉफ्टवेयरों की दुनिया से उलझने का माद्दा होना भी जरूरी है। कुल मिलाकर देखें तो किताबें इस पूरी कवायद के मुकाबले सस्ती पड़ती हैं। फिर किताबों के साथ स्थायीत्व की सहूलियत भी है। उन्हें कभी भी, कहीं भी पढ़ा जा सकता है, पर डाउनलोड की दुनिया को हाथ में लेकर चलने के लिए मोटी रकम की दरकार रहती है। जितने रुपये में एक टैबलेट या लैपटॉप आएगा, उतने में जाने कितनी किताबें जाएंगी। फिर भी यह नहीं कहा जा सकता है कि किताबों के इंटरनेट पर उपलब्ध होने के नुकसान ही हैं। डाउनलोड की दुनिया के अपने फायदे भी हैं। इससे दुनिया के किसी भी कोने में छपी किताब आपको बैठे-बैठे ही उपलब्ध हो जाएंगी। इसने उनकी उपलब्धता में लगने वाले समय और दूरी दोनों को किया है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि लाने-ले जाने का खर्च भी खत्म हुआ है। यदि देखें तो ये तमाम खर्च उस खर्च में शामिल हैं, जो डिजिटल दुनिया को अपनाने में होता है। यह कारोबारी उठापटक या बदलाव के लिए बड़ी चिंता की बात नहीं है। बड़ी चिंता तो बौद्धिक चोरी की है। आज डाउनलोड के जरिये जहां पाठकों को घर बैठे दुनिया के किसी भी कोने की किताब पढ़ने को मिल रही है, प्रकाशक को दुनिया भर का बाजार मिल रहा है, वहां यह चिंता पैदा हो गई है। भारत जैसे विकासशील देश में जहां आज भी तार्किक-बौद्धिक बाजार विकसित नहीं हुआ और प्रकाशकों की कार्यसंस्कृति लेखकों को गया-गुजरा समझने तक ही रुकी है, वहां आज भी लेखक की इज्जत नहीं है। प्रकाशक डाउनलोड की दुनिया के शिकार भी हैं और वे इसे शिकार का जरिया भी बना रहे हैं। बड़े पैमाने पर देश में चोरी छिपे घालमेल का नया कारोबार शुरु हो गया है। तमाम अकादमिक किताबें खासकर इंजीनियरिंग, मेडिकल जैसे तकनीकी विषयों वाली किताबें लेखक से लिखवाने या छपी हुई किताब का सशुल्क अधिकार लेने की बजाय प्रकाशक उन किताबों की उलटपलट के जरिये नई किताब छाप रहे हैं। आज अकादमिक क्षेत्र में सैकड़ों किताबें ऐसी हैं जो या तो लेखकों को बिना बताए प्रकाशित की जा चुकी हैं या बिना उन्हें कुछ लाभ दिए बिक रही हैं। ऐसा उसी बौद्धिक चोरी के कारण हो रहा है। इस तरह साफ है कि डाउनलोड की दुनिया ऐसी दुधारी तलवार है, जिसके अपने फायदे भी हैं और नुकसान भी। प्रकाशक, लेखक, बाजार सब इस दुनिया से किसी किसी रूप में प्रभावित तो जरूर हैं। आज किताबें ऑडियो फॉर्म में भी उपलब्ध हो रही हैं। ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या किताबों पर डिजिटलीकरण की गहराती छाया किसी खतरे का संकेत है? इस पर अलग-अलग मत हो सकते हैं, लेकिन एक मत यह भी है कि इस खतरे से बचा नहीं जा सकता। हां, इसे ईमानदारी से अपनी कार्ययोजना का हिस्सा बनाया जाए तो हर किसी का फायदा ही होगा। -किताबों ने अर्थव्यवस्था को नया विस्तार दिया है, बाजार को नए आयाम दिए हैं। उनकी डाउनलोडिंग के चलते दुनिया के उन कोनों तक भी बाजार के कदम पहुंच रहे हैं, जिसके बारे में पहले कभी सोचा भी नहीं जा सकता था। यदि -किताबों का सकारात्मक तरीके से फायदा उठाया जाए तो इसके फायदे नुकसान से कहीं ज्यादा हैं। इंटरनेट पर किताबों की उपलब्धता युवा पीढ़ी में पढ़ने की आदत विकसित करने में अहम भूमिका अदा कर सकती है। जहां तक बौद्धिक चोरी का सवाल है तो यह खतरा तो हर चीज के लिए है। किताबों के लिए भी, संगीत और सिनेमा के लिए भी।