Thursday 31 January 2013

पनडुब्बी से मार करेगी परमाणु मिसाइल

 धरती और आकाश के बाद अब भारत समंदर से परमाणु हमला करने में सक्षम पांच विशिष्ट देशों के क्लब में शामिल हो गया है। मध्यम दूरी की के-15 बैलिस्टिक मिसाइल का रविवार को भारत ने सफल परीक्षण किया। इस मिसाइल को जल्द ही स्वदेश में विकसित परमाणु पनडुब्बी अरिहंत में लगाया जाएगा। बंगाल की खाड़ी में यह परीक्षण पानी के भीतर से दोपहर करीब 1 बजकर 40 मिनट पर किया गया। रक्षा मंत्री एके एंटनी ने मिसाइल की कामयाबी पर डीआरडीओ को बधाई दी है। सूत्रों के मुताबिक इस मिसाइल का इससे पहले विभिन्न नामों से 10 बार परीक्षण किया जा चुका है और रविवार को इसका अंतिम परीक्षण किया गया। 11वां परीक्षण सफल होते ही भारत ने पहली बार इस मिसाइल के बारे में दुनिया को बताया। भारत से पहले अमेरिका, फ्रांस, रूस और चीन के पास ही इस तरह की मिसाइल दागने में सक्षम थे। रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) के प्रमुख वीके सारस्वत ने बताया कि के-15 मिसाइल ने परीक्षण के सभी मानकों को पूरा किया है। उनके मुताबिक मध्यम दूरी की यह मिसाइल पंद्रह सौ किमी तक मार करने में सक्षम है। मध्यम दूरी की मिसाइलें 600 किमी से 2000 किमी तक मार करने में सक्षम मानी जाती हैं। सारस्वत ने बताया कि इस परीक्षण के बाद अब के-15 मिसाइल को विकास की प्रक्रिया से गुजर रही स्वदेशी पनडुब्बी आइएनएस अरिहंत में लगाया जाएगा। यह मिसाइल डीआरडीओ के उस अभियान का एक हिस्सा है, जिसके तहत भारत के सुरक्षाबलों के लिए पानी के अंदर से मार करने वाले मिसाइलों का विकास किया जा रहा है। इस मिसाइल को बीओ5 के नाम से भी जाना जाता है। इसके विकास की जिम्मेदारी डीआरडीओ के हैदराबाद स्थित रक्षा अनुसंधान व विकास प्रयोगशाला को सौंपी गई थी। सुरक्षा मामलों के विशेषज्ञ कोमोडोर (सेवानिवृत्त) उदय भास्कर ने डीआरडीओ की इस सफलता को महत्वपूर्ण बताया है। उन्होंने कहा कि पनडुब्बी आधारित मिसाइल तकनीक में दक्षता हासिल करना एक उल्लेखनीय उपलब्धि है। इससे सेना की मारक क्षमता में नई धार आएगी। एक अन्य रक्षा विशेषज्ञ देबा मोहंती के मुताबिक के-15 मिसाइल के सफल परीक्षण से भारत ने वैश्विक सैन्य क्षमता के क्षेत्र में लंबी छलांग लगाई है। डीआरडीओ पानी के अंदर से मार करने वाले दो और मिसाइलों का विकास करने में जुटा है। इनमें ब्रह्मोस भी शामिल है। भारत ने पिछले वर्ष 19 अप्रैल को पांच हजार किमी से ज्यादा दूरी तक मार करने में सक्षम अग्नि-5 मिसाइल का सफल परीक्षण किया था।

डीएनए में सूचना संकलन

सूचना संग्रहण की नई तकनीक
डीएनए अथवा डिआक्सीराइबोन्यूक्लिक एसिड में हमारे जीवन का ब्लूप्रिंट होता है। पृथ्वी पर ज्ञात समस्त जीव-जंतुओं और पेड़-पौधों के लिए आनुवंशिक निर्देश इसी रसायन में दर्ज होते हैं। इस रसायन में सूचनाओं को संभाल कर रखने की अनोखी क्षमता है और वैज्ञानिक पिछले काफी समय से यह पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि क्या हम डेटा संकलन के लिए इस क्षमता का उपयोग कर सकते हैं। अब ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि डिजिटल डेटा को डीएनए में संभाल कर रखा जा सकता है। कैम्बि्रज के निकट यूरोपियन बायो इंफोर्मेटिक्स इंस्टीटयूट के वैज्ञानिकों ने कृत्रिम रूप से तैयार किए गए जीवन के मॉलिक्यूल के हिस्सों में शेक्सपीयर की कविताएं, मार्टिन लूथर के मशहूर भाषण के अंश, एक वैज्ञानिक पेपर और एक फोटो को संग्रहीत किया। उन्होंने संकलित सूचना को 100 प्रतिशत की शुद्धता के साथ सफलतापूर्वक पढ़ कर भी दिखा दिया। वैज्ञानिकों का दावा है कि डीएनए में बड़ी मात्रा में संकलित जानकारी को हजारों वर्ष तक सुरक्षित रखा जा सकता है। फिलहाल सूचना भंडारण के लिए कृत्रिम रूप से डीएनए का मॉलिक्यूल तैयार करना बहुत महंगा है। मसलन एक मेगाबाइट सूचना के भंडारण का खर्च अभी 12,400 डॉलर है और इस सूचना को दोबारा पढ़ने पर 220 डॉलर और खर्च करने पड़ेंगे। लेकिन वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि आने वाले दशकों में कृत्रिम डीएनए की लागत कम हो जाएगी और चुंबकीय टेपों की तुलना में डेटा संकेतबद्ध करना ज्यादा किफायती होगा। सरकारी और ऐतिहासिक रिकॉर्ड लंबे समय तक डीएनए के गुच्छे में संग्रहीत किए जा सकते हैं। ब्रिटिश टीम के प्रोजेक्ट लीडर निक गोल्डमैन का कहना है कि डीएनए लंबे समय तक स्थिर रहता है। हजारों वर्ष पुराने नमूनों में डीएनए ठीकठाक हालत में पाया गया है। यदि ये नमूने बर्फ में जमे हुए हैं तो वे और ज्यादा समय तक सही सलामत रहेंगे। मसलन मैमथ (लुप्त ऊनी हाथी) के नमूने हजारों वर्ष बीत जाने के बावजूद सुरक्षित हैं। डीएनए का सबसे बड़ा गुण यह है कि इसमें बहुत बड़े पैमाने पर डेटा का संकलन किया जा सकता है और भंडारण के लिए बिजली की जरूरत भी नहीं पड़ती। डीएनए का भंडारण घनत्व करीब 2.2 प्रतिशत पेटाबाइट्स प्रति ग्राम है। एक पेटाबाइट में 1048576 गीगाबाइट्स होते हैं। डीएनए की भंडारण क्षमता इस वक्त इस्तेमाल में आ रहे समस्त भंडारण माध्यमों से कई हजार गुना अधिक है। सैद्धांतिक तौर पर हाई डेफिनेशन वीडियो के 10 करोड़ घंटों को डीएनए से भरे एक कप में स्टोर किया जा सकता है। बहुत सी जानकारियां ऐसी होती हैं, जिनकी हर रोज जरूरत नहीं पड़ती, लेकिन फिर भी उन्हें संभाल कर रखना पड़ता है। ऐसे काम के लिए डीएनए भंडारण एक आदर्श विकल्प हो सकता है। हार्ड डिस्क-ड्राइव और चुंबकीय टैप जैसे मौजूदा भंडारण डिवाइसों की लगातार रखरखाव की जरूरत पड़ती है लेकिन डीएनए लाइब्रेरी के लिए ऐसी कोई कसरत नहीं करनी पड़ेगी। रिसर्चरों ने डेटा को डीएनए में संकेतबद्ध करने के लिए आनुवंश्हिक कोड के पांच अक्षरों ए, सी, जी और टी का इस्तेमाल शून्य और एक के रूप में किया है, जो डिजिटल सूचना के बाइट्स होते हैं। रिसर्चरों की इस तकनीक का ब्यौरा नेचर पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के आनुवांशिक वैज्ञानिक, प्रोफेसर जार्ज चर्च के नेतृत्व में वैज्ञानिकों की टीम ने पिछले साल डीएनए की अद्भुत भंडारण क्षमता को प्रदर्शित करने के लिए एक पूरी पुस्तक ही डीएनए में संग्रहीत कर दी थी। इस पुस्तक में 11 तस्वीरों और एक कंप्यूटर प्रोग्राम सहित 53,000 शब्द हैं।मुकुल व्यास 

कुछ भूलने नहीं देगी यह बेवसाइट

आ जकल की भागमभाग भरी जिंदगी में लोग इतने व्यस्त हो गये हैं कि वे कभी-कभी छोटी-सी-छोटी बात से लेकर महत्वपूर्ण बातें तक भूल जाते हैं. नतीजतन, उन्हें कई प्रकार की मुश्किलों का सामना करना पड.ता है. लेकिन, अब ऐसे लोगों को चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है. ऐसे लोगों के लिए ही एक ऐसी वेबसाइट विकसित की गयी है, जो उन्हें हर बात याद दिलायेगी. इसका नाम है-डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यूडॉट इजीरिमाइंटरफॉरयूडॉटकॉम. यह एक रिमाइंडिग सर्विस प्रदान कराने वाली वेबसाइट है. अमेरिका और यूरोप में इस तरह की कई वेबसाइट्स हैं, लेकिन भारत में यह अपनी तरह की पहली वेबसाइट है. यह वेबसाइट आपको दवायी लेने से लेकर किसी भी तरह के होमवर्क, असाइनमेंट आदि की भी याद दिलायेगी. भारत में फिलहाल इसके 4000 के आसपास यूर्जस हैं और वेब जानकारों के मुताबिक आनेवाले समय में इसका इस्तेमाल काफी तेजी से बढ. सकता है. यूर्जस 365 रुपये वार्षिक शुल्क देकर अनलिमटेड रिमाइंडर फीड कर सकते हैं, जिसे साइट द्वारा वक्त-वक्त पर कायरें की सूची के हिसाब से एसएमएस और इ-मेल के जरिये यूर्जस को याद दिलाया जाता है. इस तरह, यह वेबसाइट आपकी रोजर्मरा की जिंदगी में अहम भूमिका निभा सकती है.

Monday 28 January 2013

गरीबों को क्यों नहीं मिलते साइंस के फायदे

कुमार विजय॥
 लगातार बदलती दुनिया में अपने आपको बचाए रखने के लिए आविष्कार का मंत्र याद रखना बहुत जरूरी है। लेकिन इसके साथ ही साथ ही इस बात पर भी नजर रखी जानी चाहिए कि देश-दुनिया के बेहतरीन दिमागों द्वारा जो आविष्कार या रिसर्च किए जाते हैं, उनका लाभ समाज के हर हिस्से तक पहुंच पा रहा है या नहीं। हकीकत यही है कि विज्ञान के आविष्कारों का लाभ समाज के निचले तबकों तक नहीं पहुंच पाता है, या पहुंचता भी है तो इतनी देर से कि उनके लिए इसका ज्यादा मतलब नहीं बचता। ऐसा होने की मुख्य वजह यह है कि रिसर्च में मुनाफे और बाजार को अधिक महत्व दिया जाता है, इंसान को नहीं।

सिर्फ मुनाफे की फिक्र
दुनिया में पुरुषों का गंजापन दूर करने की दवा विकसित करने के लिए जितना खर्च किया जाता है, वह मलेरिया की दवा विकसित करने पर होने वाले खर्च से 10 गुना ज्यादा है। विज्ञान के चमत्कारों को देखते हुए यह भी कम आश्चर्यजनक नहीं है कि मलेरिया आज भी मानव समाज के सामने एक जानलेवा रोग बनकर खड़ा है। इससे निपटने के लिए एक सदी से भी ज्यादा समय से प्रयास हो रहे हैं, लेकिन सफलता आज तक नहीं मिल सकी है। आज भी दुनिया भर में मलेरिया से हर साल 10 लाख बच्चों की मौत हो जाती है। गंजेपन और मलेरिया की रिसर्च के खर्चों के बीच नजर आने वाले विरोधाभास की कुंजी यहां है कि गंजापन दूर करने की दवा के साथ बहुत बड़ा मुनाफा जुड़ा है जबकि मलेरिया के साथ सिर्फ लोगों की जिंदगी-मौत का सवाल जुड़ा है, मुनाफे की कोई खास गुंजाइश इसमें नहीं है।
नैपकिन की जगह सूखे पत्ते
विश्व स्वास्थ्य संगठन की इस स्वीकृति के बावजूद कि हर बच्चे को हैपेटाइटिस बी का वैक्सीन लगना चाहिए, विकासशील देशों के लिए यह काम एक सपने जैसा ही है। कारण? इसकी कीमत प्रति डोज 2.3 डॉलर है, जो विकासशील देशों के लोगों की पहुंच से बाहर है। ध्यान रहे, हैपेटाइटिस बी के कारण इन देशों में 1 से 2 फीसदी लोगों की मौत हो जाती है। समय से इसका टीका न लगने पर बाद में लिवर खराब होने की संभावना भी बढ़ जाती है। औरतों के बुनियादी स्वास्थ्य से जुड़े हुए क्षेत्रों में भी सस्ते अविष्कार की जरूरत है। मासिक धर्म (पीरियड्स) के समय उपयोग करने के लिए सस्ते सैनिटरी नैपकिन हर स्त्री को उपलब्ध होने चाहिए, लेकिन भारत के ग्रामीण समाज में ज्यादातर औरतें आज भी पीरियड्स के दौरान पुराने कपड़ों, अखबार, यहां तक कि सूखे पत्तों का उपयोग करती हैं।

नतीजा यह होता है कि जननांगों का संक्रमण उनके लिए आम बीमारी बन जाता है। इसके कारण बच्चा पैदा होने के दौरान मुश्किलें पेश आती हैं। औरतों के स्वास्थ्य से जुड़ा हुआ यह एक अहम सवाल है लेकिन इस ओर गंभीरता के साथ ध्यान नहीं दिया जाता। बाजार में उपलब्ध नैपकिन की कीमत इतनी ज्यादा होती है कि समाज की गरीब औरतें उसे खरीदने में असमर्थ होती है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए अरुणाचलम मुरुगनाथम ने, जिसे केवल 10वीं तक की ही शिक्षा मिली थी, अपनी चार साल के मेहनत के बाद नैपकिन बनाने की ऐसी मशीन तैयार की, जिसे बिजली और पैडल, दोनों से चलाया जा सकता है। इस मशीन के जरिये बनाया गया नैपकिन 12 रुपए में 8 की दर पर उपलब्ध है। मुरुगनाथम ने इस मशीन को पेटेंट कराने से मना किया है।

इसी तरह गुजरात के मनसुख भाई प्रजापति ने मिट्टी से एक ऐसा रेफ्रिजरेटर बनाया है, जिसमें सब्जी जैसे खाद्य पदार्थ 6 दिन तक सुरक्षित रह सकते हैं। आम आदमी के लिए कोई आविष्कार करते समय इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि आज भी हमारे समाज का एक बहुत बड़ा तबका आधुनिक विकास और तकनीक की परिधि से बाहर है। चीन में ऐसा नहीं है क्योंकि वहां ऐसी बहुत सारी कंपनियां हैं जो तकनीकी रूप से ऐसे अविष्कार या रिसर्च करती हैं, जिससे कम कीमत पर लोगों को सुविधाएं हासिल हो सकें। यही कारण है कि कम कीमतों के सामान के मामले में चीन दुनिया का अग्रणी देश है।

हमारे अविष्कारों का लक्ष्य यह होना चाहिए हमारे देश का एक बहुत बड़ा तबका, जो जिंदगी की बुनियादी जरूरतों से महरूम है, उसे रोटी, कपड़ा, मकान और मोबाइल मिल सके। पृथ्वी पर संसाधनों और श्रम की कोई कमी नहीं है। यहां आविष्कार इस बात के लिए होने चाहिए कि पानी, ऊर्जा और कुदरती संसाधनों का अधिक से अधिक उपयोग हो सके। भारत सरकार के द्वारा भी जुलाई 2012 में एक अरब डॉलर का इनोवेशन फंड प्रारंभ किया जा रहा है। सैम पित्रोदा को इसका नेतृत्व करने के लिए कहा गया है। इस फंड का निवेश वैसे इनोवेशन में किया जाएगा जो लोगों को सस्ती सेवा और उत्पाद उपलब्ध करा सके और जिसका उपयोग गरीब लोगों का जीवन स्तर ऊपर उठाने में किया जा सके।

आम लोगों के काम आए
पित्रोदा ने मीडिया में कहा है- 'हमें ऐसे लोगों को पैसा मुहैया कराना चाहिए जिनके पास आइडिया तो है लेकिन सीड कैपिटल नहीं है'। इस फंड का नाम इंडिया इनक्लूसिव इनोवेशन फंड है और इसका निवेश खासकर कृषि, पानी, ऊर्जा और स्वास्थ्य सेवा में किया जाएगा। यहां यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि भारत सरकार द्वारा गरीबों को आज भी काफी सब्सिडी दी जाती है, लेकिन सरकार के खुद के आकलन में भी इसका नतीजा बहुत बेहतर नहीं है। अगर हमारे समाज के बहुत बड़े निचले तबके तक आधुनिक तकनीक और आविष्कार का लाभ नहीं पहुंचा तो समाज में असमानता की खाई ओर चौड़ी होगी। सस्ते और सुविधाजनक आविष्कार भविष्य में इस खाई को पाटने के लिए एक कारगर हथियार की भूमिका निभा सकते हैं।
 

Wednesday 23 January 2013

क्या रिसर्च का नया रास्ता खुल पाएगा

संजय वर्मा॥
अमेरिका से बराबरी का सपना देखते समय हम भूल जाते हैं कि हमारे पिछड़ेपन का एक बड़ा कारण साइंस के क्षेत्र में विकसित देशों से पीछे होना है। विकसित देशों में वैज्ञानिक प्रगति के मामले में अभूतपूर्व रूप से एक समानता दिखाई पड़ती है। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, रूस आदि सभी देशों में उच्च कोटि के वैज्ञानिक शोध होते हैं। भावी अनुसंधानों और महत्वपूर्ण वैज्ञानिक पड़ावों की रूपरेखा वहां काफी स्पष्ट है। यही वजह है कि भारत जैसे विकासशील देश के प्रतिभावान वैज्ञानिक वहां जाकर पढ़ाई करने और करियर बनाने का सपना देखते हैं। इसकी पुष्टि अमेरिका के नेशनल ब्यूरो ऑफ इकनॉमिक रिसर्च द्वारा हाल में कराए गए एक सर्वे से भी होती है। सर्वे का आकलन है कि आप्रवासी साइंटिस्टों के मामले में स्विट्जरलैंड सबसे अव्वल मुल्क है। इसी तरह अमेरिका आज भी पढ़ाई करने के लिए विदेशों से आने वाले छात्रों का सबसे पसंदीदा देश है। जाहिर है कि इन देशों में स्टडी और रिसर्च का कितना बेहतरीन माहौल है।
बाहर जाते वैज्ञानिक
इसी सर्वे के मुताबिक भारत ऐसा मुल्क है जहां के 40 फीसदी रिसर्चर देसी जमीन पर कुछ नया खोजने के बजाय अपनी रिसर्च के लिए अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया आदि का रुख कर लेते हैं। एक बार यहां से रिसर्च के लिए बाहर गए, तो लौटने की जहमत कम ही उठाते हैं। क्या विडंबना है कि दुनिया की एक सबसे तेज बढ़ती इकॉनमी अपने ही रिसर्चरों को रोक नहीं पा रही है। नेशनल जवाहरलाल नेहरू साइंस फेलोशिप्स जैसी नई स्कीम के तहत 55 लाख का सालाना पैकेज देकर आप बुला लीजिए विदेश में बसे हिंदुस्तानी साइंटिस्टों को, पर सवाल यह है कि देसी रिसर्चरों की सुध भला कौन लेगा? क्या इसका यह मतलब निकाला जाए कि पहले काबिल रिसर्चरों को ब्रिटेन-अमेरिका हो आने दिया जाए, फिर उन्हें भारी-भरकम पैकेज का न्यौता देकर यहां गेस्ट लेक्चर देने के लिए बुलाया जाएगा। वैसे साइंस कांग्रेस के 100 वें सालाना जलसे में सरकार ने तय किया है कि वह विदेशों में रिसर्च कर रहे आला भारतीय वैज्ञानिकों को भारत में आकर काम करने के लिए प्रोत्साहित करेगी। इसके लिए विशेष योजना तैयार की जा रही है।
कायम है अंधेरा
रिसर्च के लेवल पर अपने देश में अभी भी कैसा अंधेरा छाया हुआ है, इसकी बानगी एक तथ्य से मिल सकती है। वर्ष 2011 में देश के कॉलेजों से एक करोड़ 46 लाख 17 हजार स्टूडेंट ग्रेजुएट होकर निकले। इनमें से महज 12 फीसदी ने पोस्ट ग्रेजुएट डिग्री के लिए अपनी पढ़ाई जारी रखी जबकि एक फीसदी से कम ने शोध की दिशा में अपने कदम बढ़ाए। ऐसा नहीं है कि हमारे युवाओं में रिसर्च को लेकर दिलचस्पी बिल्कुल खत्म हो गई हो। वे रिसर्च करते हैं, बाकायदा करते हैं, पर देश में नहीं, विदेश जाकर। 2011 में भारत से हायर एजूकेशन के लिए सिर्फ अमेरिका पहुंचे भारतीय स्टूडेंट्स की संख्या 1,03,895 थी। यह आंकड़ा अमेरिका की हायर एजूकेशन पॉपुलेशन की 14 फीसदी है। बेशक, अमेरिकी इस आंकड़े पर खुश हो सकते हैं क्योंकि इससे उनकी इकॉनमी को जबर्दस्त फायदा मिल रहा है।

हमारी प्रयोगशालाओं में फंडिंग की कमी के चलते नाममात्र की सहूलियतें मिलती हैं। कॉलेजों और लैब्स में ऐसे खुले दिमागों की भी भारी कमी है जो उन्हें लीक से हटकर कुछ नया करने को प्रेरित कर सके। भारत के शोध संस्थानों और विश्वविद्यालयों को योग्य शिक्षकों, वैज्ञानिक संगठनों में अच्छे वैज्ञानिकों छात्रों की कमी बनी हुई है। एक बार सरकार लोकसभा में खुद स्वीकार कर चुकी है कि बेंगलुरू स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएस) में स्वीकृत पदों के मुकाबले आधे से कम वैज्ञानिक शिक्षक हैं। राष्ट्रीय प्रौद्योगिक संस्थानों (एनआईटी) और भारतीय प्रौद्योगिक संस्थान (आईआईटी) में भी कुछ ऐसी ही स्थिति बनी हुई है। इसरो और डीआरडीओ जैसे महत्वपूर्ण अनुसंधान संगठनों में भी वैज्ञानिकों की कमी बनी रहती है।

इन खामियों के नतीजे स्पष्ट हैं। रिसर्च प्रोडक्टिविटी के मामले में भारत में एक हजार की आबादी पर 7.8 साइंटिस्ट हैं, जबकि कनाडा में यह प्रतिशत 180.66, साउथ कोरिया में 53.13 और अमेरिका में 21.15 है। नई रिसर्चों का यह अकाल पेटेंटों के मामले में हमारी स्थिति कमजोर बना रहा है। वर्ष 2010 में भारत में पेटेंट के लिए जो 36,812 अर्जियां दाखिल की गईं, उनमें से सिर्फ 7044 आवेदन देसी संस्थाओं से आए थे। शेष सारे विदेशों से आए थे। देसी 7044 आवेदनों में महज 1725 को मंजूरी मिलना साबित करता है कि इनोवेशन के मामले में उनका स्तर कैसा था। यही वजह है कि हमारी प्रयोगशालाओं में जो कुछ हो रहा है, वह इंडस्ट्री तक नहीं पहुंच रहा है। उसमें ऐसा कोई नयापन नहीं है जो इंडस्ट्री उसे अपनाने को प्रेरित हो। बहरहाल, साइंस कांग्रेस के हवाले से अब नई साइंस, टेक्नोलॉजी एंड इनोवेशन (एसटीआई) पॉलिसी को लागू करके विज्ञान में निराशाजनक माहौल को बदलने का दावा किया जा रहा है।
ब्रेन-ड्रेन पर रोक
उम्मीद करें कि अगले एक दशक में खास तौर से 2020 तक उस पॉलिसी के नतीजे मिलने शुरू हो जाएंगे। उम्मीद करें कि साइंस की बदौलत हमारा मकसद सिर्फ चंद्रयान भेजना या मंगल यात्रा का सपना साकार करना नहीं होगा, बल्कि इंडस्ट्री को छोटे-छोटे आविष्कारों का फायदा दिलाना, इंटरनेट कैसे गांव-देहात तक पहुंचे और बेहद कम कीमत में उसकी सेवाएं लोगों को मिले- यह सब हमारे अजेंडे पर रहेगा। मुफ्त की जो तेज धूप देश के चारों कोनों में बिखरी हुई है, सौर पैनलों के जरिए उससे हर अंधेरे का मुकाबला करने लायक रोशनी पैदा करने वाले आविष्कारों को अमल में लाना इस नई साइंस पॉलिसी का मकसद होना चाहिए। सबसे अहम बात यह कि कक्षाओं में विज्ञान के फॉर्म्युले रटाकर परीक्षा में पास कराने की भेड़चाल प्रवृत्ति से जितना जल्दी हो सके, देश को छुटकारा दिलाया जाए। वैज्ञानिकों का ब्रेन-ड्रेन, ब्रेन-गेन में बदला जाए और नई खोजों को हर लेवल पर प्रोत्साहन मिले। देखना है कि नई साइंस पॉलिसी इन मुद्दों पर गौर कर पाती है या नहीं।(ref-nbt.in) 
  

Saturday 19 January 2013

असर’ से उपजती चिंताएं

स्वयंसेवी संस्था ‘प्रथम’ हर साल एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट(असर) जारी करती है. पिछले कुछ वर्षों से इस रिपोर्ट ने योजना आयोग का भी ध्यान खींचा है और शिक्षाविदों का भी. ‘असर’ की रिपोर्ट देश की प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता के विषय में सजग करती है. रिपोर्ट न सिर्फ हमें यह बताती है कि देश में कितने बच्चे स्कूल से बाहर हैं, या फिर लड.कियों का नामांकन लड.कों की तुलना में कितना बढ.ा-घटा है, बल्कि यह भी बताती है कि सरकारी स्कूलों में पढ.नेवाले बच्चे पढ.ाई-लिखाई की बुनियादी चीजों, मसलन भाषा पढ.ने और गणित की योग्यता में प्रगति कर रहे हैं या नहीं. ‘असर’ के मुताबिक शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के बाद से स्कूली सुविधाओं में इजाफा तो हुआ है, लेकिन इनसे बच्चों की योग्यता बढ.ी हो, ऐसा नहीं लगता. स्कूलों में नामांकन प्रतिशत बढ. गया है, पेयजल और शौचालय की सुविधाएं हो गयी हैं, लेकिन पढ.ाई की हालत यह है कि पांचवीं में पढ.नेवाले आधे से ज्यादा बच्चे भाषा सीखने या गणित की योग्यता के मामले में वहां भी नहीं पहुंच पाये हैं, जहां दूसरी क्लास के बच्चे को पहुंचना होता है. इसी तरह तीसरी में पढ. रहे तीस फीसदी बच्चे ही ऐसे हैं, जो पहली कक्षा की किताबें पढ.-समझ सकते हैं, जबकि 2008 में ऐसे बच्चों की तादाद 50 फीसदी से ज्यादा थी. अगर शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के बाद प्राथमिक स्कूलों में बच्चों की योग्यता बढ.ने के बजाय घटी है, तो दोष किसे दिया जाये? क्या इस बात को कि इस कानून ने बच्चों को पास-फेल करने की पद्धति को नकार कर सालाना परीक्षाओं को गैर-जरूरी बना दिया? नहीं, शिक्षा का अधिकार कानून क्रांतिकारी कहा जायेगा, क्योंकि उसमें पहली बार स्वीकार किया गया कि पास-फेल, यानी दंड और पुरस्कार देने की पद्धति पर टिकी शिक्षा व्यवस्था बच्चों के मानस में हीनता की ग्रंथियां तैयार करती हैं. कानून का जोर पढ.ाई की तोतारटंत पद्धति को बदल कर उसे ऐसा बनाने पर था, जिसमें बच्चे के भीतर सर्जनात्मक और जिज्ञासु व्यक्तित्व का विकास हो. अगर ऐसा नहीं हो रहा, तो दोष कानून में देखने की जगह उसके अमल में खोजना चाहिए. स्कूलों में शिक्षकों की भारी कमी, शिक्षकों से लिये जा रहे शिक्षणेत्तर काम, उनका पर्याप्त प्रशिक्षित न होना और उन्हें औने-पौने मानदेय पर रखना जैसी कई बातें देश में प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट के लिए जिम्मेवार हैं. शिक्षकों की अवमानना पर टिकी शिक्षा-व्यवस्था से अच्छे परिणाम की उम्मीद करना बालू से तेल निकालने जैसा है- ‘असर’ की रिपोर्ट के बाद इस दिशा में भी सोचा जाना चाहिए.

गरीब होनहारों से दूर होती उच्च शिक्षा

गोविंद सिंह, प्रोफेसर, उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (आईआईटी) के बाद भारतीय प्रबंध संस्थानों (आईआईएम) ने भी अपनी फीस बढ़ाने की घोषणा कर दी है। जहां प्रौद्योगिकी संस्थानों ने वार्षिक फीस 50 हजार से 90 हजार कर दी हैं, वहीं प्रबंध संस्थानों ने अपनी फीस साल 2009 की तुलना में तीन गुनी अधिक कर दी है। और यह तब है, जब कि ये संस्थान सरकारी हैं। यह सब इसलिए है, क्योंकि सरकार इन संस्थानों पर लगातार यह दबाव डाल रही है कि वे अपने संसाधन स्वयं जुटाएं। इस तरह देश के इन श्रेष्ठ और अभिजात्य संस्थानों के दरवाजे आम आदमी के लिए लगभग बंद हो गए हैं। गरीब की तो बात ही छोड़िए, आम मध्यवर्गीय भी इतनी रकम आखिर लाएं, तो लाएं कहां से? कहने को आप कह सकते हैं कि बैंक से ऋण ले लीजिए, लेकिन ऋण की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि आम आदमी उनके पास तक फटकना नहीं चाहता। साथ ही ऋण का भुगतान भी आसान नहीं है। एक जमाना था, जब देश में छह प्रौद्योगिकी संस्थान और तीन प्रबंध संस्थान थे। उनका अपना रुतबा था। दुनिया के श्रेष्ठ शिक्षण संस्थानों में उनकी गिनती होती थी। देश भर से अत्यंत मेधावी छात्र इनमें दाखिला लेते थे। दाखिले की पहली और अंतिम शर्त मेधावी होना ही हुआ करती थी। फीस की कोई दीवार इन विद्यार्थियों को रोक नहीं पाती थी। और दुनिया भर के श्रेष्ठ प्रतिष्ठानों के दरवाजे इन विद्यार्थियों के लिए खुले रहते थे। इस तरह, भारत के शैक्षिक परिदृश्य में प्रौद्योगिकी और प्रबंध संस्थानों का अपना महत्व था।
मारे पास दुनिया को दिखाने के लिए इनके अलावा था ही क्या? इसी से इनकी ब्रांड वैल्यू बनी। 1991 के बाद आई नई आर्थिक आंधी ने इसी ब्रांड वैल्यू को भुनाया। सरकार के नीति-निर्धारकों के लिए इससे अच्छा मौका और क्या हो सकता था? लिहाजा उन्होंने सोचा कि इन्हें इतना महंगा कर दो कि आम आदमी इनके दरवाजे तक ही नहीं पहुंच पाए। आज इन संस्थानों में कौन दाखिला ले पाता है? ताजा नतीजे बताते हैं कि सबसे ज्यादा छात्र आइआईटी से निकले हुए हैं। वे ही टॉपर हैं। उसके बाद उन छात्रों का नंबर आता है, जो इसके लिए जमकर तैयारी करते हैं, यानी कोचिंग लेते हैं। और इस तैयारी में वे खूब पैसा बहाते हैं। यदि किसी तरह आप वहां तक पहुंच भी गए, तो बढ़ी हुई फीस आपको बाहर का दरवाजा दिखा देती है। यानी यदि आप गरीब हैं, तो आपका आईआईएम में पहुंच पाना काफी मुश्किल है। फिर सरकार ने इनकी ब्रांड वैल्यू को देखते हुए इनकी संख्या बढ़ाकर 13 कर दी और आईआईटी की संख्या 16 कर दी है। इन सबको शिक्षा के बाजार में अभी अपनी उपस्थिति दर्ज करनी है। अपना लोहा मनवाना है।
सवाल उठता है कि आखिर फीस बढ़ाने का क्या औचित्य है? इसके पीछे सबसे बड़ा तर्क यही दिया जाता है कि संस्थानों की ब्रांड वैल्यू बनाए रखने के लिए उनके खर्चे बहुत बढ़ गए हैं, लिहाजा ये खर्चे फीस के जरिये ही उगाहे जा सकते हैं। फिर सरकार भी लगातार अपने हाथ पीछे खींच रही है। दुर्भाग्य यह है कि इन संस्थानों को निजी क्षेत्र के साथ मिलकर संसाधन जुटाने का अनुभव नहीं है।
विदेशों में भी फीस कम नहीं होती। अमेरिका के ज्यादातर विश्वविद्यालयों में छात्रों को पढ़ाई के साथ किसी न किसी प्रोजेक्ट में काम मिल जाता है। स्नातकोत्तर स्तर के छात्रों को कुछ नहीं, तो टीचिंग असिस्टेंसशिप मिल जाती है, जिससे वे अपना बहुत-सा खर्च निकाल लेते हैं। भारत से जाने वाले ज्यादातर मध्यवर्गीय छात्र एक सेमेस्टर की फीस का जुगाड़ करके ही वहां जाते हैं, बाकी वे वहां खुद अर्जित कर लेते हैं। लेकिन हमारे देश के विश्वविद्यालय या संस्थान अभी इस स्तर तक नहीं पहुंच पाए हैं। वे फीस लेना तो जानते हैं, लेकिन विद्यार्थी की समस्या को नहीं समझते।
ब्रांड से जुड़ा दूसरा मुद्दा है, यहां से निकलने वाले छात्रों को मिलने वाला पैकेज। चूंकि पैकेज ज्यादा होता है, इसलिए संस्थान चाहते हैं कि उन्हें भी अपना हिस्सा मिले। फिर अच्छा पैकेज दिलाने के लिए उन्हें भी कम मशक्कत नहीं करनी पड़ती। उद्योग क्षेत्र से विशेषज्ञों को बुलाना पड़ता है, नौकरी देने वालों की आवभगत करनी पड़ती है, सॉफ्ट स्किल्स सिखाने पर बहुत ध्यान दिया जाता है, औद्योगिक प्रतिष्ठानों के भ्रमण आयोजित किए जाते हैं। और सबसे बड़ी बात यह है कि प्रबंधन की शिक्षा में शो बिज यानी दिखावापन बहुत बढ़ गया है। यानी उनका खर्चा काफी बढ़ गया है, जिसे वे विद्यार्थी की जेब से निकालना जानते हैं। मुक्त मंडी की चकाचौंध में यह सब स्वाभाविक है। लेकिन हमारे नीति-नियंताओं को यह तो सोचना ही चाहिए कि इससे देश में एक नई वर्गीय खाई बन रही है। आईआईएम से निकले छात्रों को एक करोड़ से अधिक का पैकेज मिल रहा है, जबकि दूसरे-तीसरे दर्जे के संस्थानों से एमबीए किए हुए युवा दर-दर भटक रहे हैं। मैकिन्से की हालिया रिपोर्ट बताती है कि चार में से एक इंजीनियरिंग किया हुआ युवक और दस में से एक बीए पास युवक ही नौकरी के लायक है। बाकी कहां जाएंगे? वर्गीय खाई इतनी चौड़ी हो गई है कि एक ही प्रतिष्ठान में काम करने वाले दो कर्मचारियों के वेतन में सैकड़ों गुना का अंतर है। यह भी देखने की बात है कि ज्यादा पैकेज और फीस की वजह से समाज में इन पाठय़क्रमों का एक छद्म हौव्वा बन जाता है। एमबीए वालों का पैकेज बढ़ा, तो सब एमबीए की ही तरफ सभी भागने लगे। निजी क्षेत्र में इसकी अंधी दौड़ शुरू हो जाती है। यहां शिक्षा पर नहीं, शो बिज पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है। इसलिए आज यह जरूरी हो गया है कि प्रबंध शिक्षा के कुल योगदान की समीक्षा होनी चाहिए। आखिर इतने खर्च के बाद देश और समाज को इनका योगदान क्या है? किस तरह की संस्कृति वे उद्योग जगत को दे रहे हैं? क्यों इंजीनियरिंग के छात्र, जिन पर सरकार पहले ही भारी-भरकर राशि खर्च कर चुकी होती है, वे अपने क्षेत्र में न जाकर प्रबंधन में जा रहे हैं? इसकी भरपाई कैसे होगी? उनके अनुसंधान का कितना इस्तेमाल उद्योग जगत कर रहा है? इसलिए फीस नहीं गुणवत्ता बढ़ाइए। गरीब और होनहार के लिए अपने कपाट बंद मत कीजिए।(ref-hindustan)

Wednesday 16 January 2013

लद्दाख में सौर दूरबीन

दुनिया की सबसे बड़ी सौर दूरबीन परियोजना पर
भारत जम्मू-कश्मीर के लद्दाख क्षेत्र में दुनिया की सबसे बड़ी सौर दूरबीन स्थापित करेगा। नेशनल लार्ज सोलर टेलिस्कोप (एनएलएसटी) नामक इस दूरबीन का निर्माण कार्य इस साल के अंत में शुरू होने की उम्मीद है। दो मीटर के छिद्र (एपरचर) वाली इस दूरबीन की मदद से भारतीय खगोल-वैज्ञानिकों को सौर धब्बों की उत्पत्ति और उनके क्षय से जुड़ी प्रक्रिया को समझने में मदद मिलेगी। सौर दूरबीन से सूरज के अंदर चल रही मूलभूत प्रक्रियाओं पर भी गहन अनुसंधान किया जा सकेगा। इस प्रोजेक्ट पर करीब 300 करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे। इस समय अमेरिका में एराइजोना स्थित किट पीक नेशनल आब्जर्वेटरी में स्थापित मेक्मैथ-पियर्स दूरबीन दुनिया की सबसे बड़ी सौर दूरबीन है। इसका एपरचर 1.6 मीटर है। भारतीय सौर दूरबीन 2017 तक बन कर तैयार हो जाएगी। अमेरिका हवाई में चार मीटर एपरचर की दूरबीन का निर्माण कर रहा है, जिसका संचालन 2020 में शुरू होगा। तब तक लद्दाख की दूरबीन दुनिया की सबसे बड़ी दूरबीन बनी रहेगी। बेंगलूर स्थित इंडियन इंस्टीटयूट ऑफ एस्ट्रोफिजिक्स के पूर्व निदेशक एसएस हसन इस प्रोजेक्ट के चीफ इनवेस्टीगेटर हैं। कोलकाता में भारतीय विज्ञान कांग्रेस के शताब्दी अधिवेशन के दौरान डॉ. हसन ने इस प्रोजेक्ट के विभिन्न पहलुओं की विस्तार से जानकारी दी। डॉ. हसन के मुताबिक यह दूरबीन लद्दाख की पंगोंग झील के निकट हानले या मेराक गांव में स्थापित की जाएगी। पूरी तरह से तैयार होने के बाद इस दूरबीन की गिनती दुनिया की उन गिनी-चुनी सौर दूरबीनों में होने लगेगी, जहां रात-दिन खगोल-वैज्ञानिक अनुसंधान किया जाता है। इससे यूरोप और जापान के बीच देशांतर के अंतर को पाटने में भी मदद मिलेगी। डॉ. हसन का यह भी कहना है कि दूरबीन के बेहतर स्वदेशी डिजाइन और उन्नत उपकरणों की मदद से सौर गतिविधियों का ज्यादा सटीक पर्यवेक्षण संभव होगा। इससे सूरज के वायुमंडल में चुंबकीय क्षेत्रों के स्वरूप के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी मिल सकती है। बढ़ी हुई सौर गतिविधि पृथ्वी की संचार प्रणाली और बाहरी हरी अंतरिक्ष में परिक्रमा करने वाले उपग्रहों को प्रभावित कर सकती है। अत: हमारे लिए यह जानना जरूरी है कि सूरज के धब्बे किस तरह बनते हैं और किस तरह से उनका क्षय होता है। सौर धब्बों की गतिविधि बढ़ने से सूरज से सौर पवन यानी सोलर विंड के रूप में पदार्थ बाहर निकलता है। इस सौर पवन में मौजूद विद्युत आवेशित कण उपग्रहों के संचालन में विघ्न उत्पन्न कर सकते हैं और पृथ्वी के ऊपरी वायुमंडल में अणुओं के साथ क्रिया कर सकते हैं। इससे जमीनी संचार प्रणालियां छिन्न-भिन्न हो सकती हैं। पृथ्वी की निम्न कक्षा में मौजूद उपग्रहों को ज्यादा खतरा है क्योंकि बढ़ी हुई सौर गतिविधि के दौरान अतिरिक्त गर्मी के कारण पृथ्वी का ऊपरी वायुमंडल फूल जाता है। इससे उपग्रहों के क्षय की रफ्तार बढ़ जाती है। सौर गतिविधियों के अध्ययन के अलावा खगोल-वैज्ञानिक रात में इस सुविधा का इस्तेमाल सौरमंडल से बाहर दूसरे ग्रह अथवा महा-पृथ्वियां खोजने के लिए भी कर सकते हैं। सौर मंडल से बाहर पहला ग्रह 1995 में खोजा गया था। तब से अब तक 800 से अधिक ग्रह खोजे जा चुके हैं। नासा की केप्लर दूरबीन ने 2400 से अधिक संभावित बाहरी ग्रहों की पहचान की हैं, जिनमें कुछ ग्रह पृथ्वी जैसे भी हैं। इन संभावित ग्रहों की पुष्टि के लिए दूसरी वेधशालाओं द्वारा अध्ययन करना पड़ेगा। इस दिशा में लद्दाख की प्रस्तावित दूरबीन एक बड़ी भूमिका अदा कर सकती है। सौर दूरबीन का निर्माण बेंगलूर स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एस्ट्रोफिजिक्स द्वारा किया जाएगा। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन, आर्यभट रिसर्च इंस्टीटयूट ऑफ आब्जर्वेशनल साइंसेज, टाटा इंस्टीटयूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च सहित कई संस्थान दूरबीन के निर्माण में सहयोग करेंगे। यह दूरबीन उच्चस्तरीय सौर अनुसंधान के लिए एक उपयोगी मंच साबित होगी। इस सुविधा का लाभ उठाने के लिए दुनिया के कई सौर खगोल-वैज्ञानिक भारत आ सकते हैं।

Tuesday 15 January 2013

मंगल पर होगी अनिद्रा की समस्या



पृथ्वी के बाद मंगल ग्रह पर जीवन की तलाश को लेकर वैज्ञानिक प्रयोग और अनुसंधान लंबे अरसे से जारी है. इसके बावजूद अभी तक यह निश्चिकत तौर पर नहीं कहा जा सका है कि मंगल ग्रह पर जीवन मुमकिन हो सकता है. हालांकि, अगर निकट भविष्य में वैज्ञानिक मंगल पर जीवन के होने की घोषणा करते भी हैं, तो भी इंसानों का जीवन वहां इतना आसान नहीं होगा. जानकारों के मुताबिक, पृथ्वी से लगभग 4.7 करोड. मील की यात्रा करने के बाद किसी भी अंतरिक्ष यात्री के लिए सामान्य परिस्थितियों में वहां रहना असंभव है. इससे संबंधित सबसे बड.ी चुनौती अनिद्रा की होगी. गौरतलब है कि वैज्ञानिक रूस में मार्स-500 प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हैं. इस दौरान मंगल ग्रह पर जाने वाले अंतरिक्षयात्रियों को एक विशेष यान में रखा गया है, जिसका वातावरण मंगल ग्रह जैसा है. इस वातावरण में रहने वाले अंतरिक्षयात्रियों को गहन निगरानी में रखा जा रहा है. पिछले दिनों इनके स्वास्थ्य की जांच की गयी, तो पता चला कि मंगल ग्रह की यात्रा के दौरान सबसे बड.ी चुनौती अनिद्रा की होगी. पिछले दिनों नासा ने मंगल ग्रह पर क्योरिसिटी रोवर को भेजा था. अब उसकी योजना निकट भविष्य में मंगल ग्रह पर इंसानों को भेजने की है.


Thursday 10 January 2013

विज्ञान नीति की सीमाएं


नई विज्ञान नीति पर विशेष 

अभिषेक कुमार सिंह 

करीब एक दशक बाद देश ने नई विज्ञान नीति लागू कर दी है। इस नीति को लागू करने की औपचारिक घोषणा कोलकाता में आयोजित राष्ट्रीय विज्ञान कांग्रेस के शताब्दी समारोह में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने की। नई और 2003 में लागू की गई विज्ञान नीति में एक बड़ा अंतर है। पिछली विज्ञान नीति का मकसद विज्ञान और प्रौद्योगिकी को एक साथ लाना था। सोचा गया था कि एक तो इससे देश के वैज्ञानिक संस्थानों पर से नौकरशाही का प्रभुत्व खत्म होगा और देश के उद्योगों को इसका फायदा मिलेगा, लेकिन यह अनुभव किया गया है कि पिछली विज्ञान नीति उद्योग को विज्ञान के फायदे दिलाने में नाकाम रही। देश के विज्ञान जगत को नौकरशाही के जिन दबावों और पक्षपातवाद से निजात दिलाने का वादा पिछली विज्ञान नीति में किया गया था, उसका कोई खास असर तक देखने को नहीं मिला है।
ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी ही है कि क्या हमारा देश अगले एक दशक में विज्ञान से जुड़े वे लक्ष्य हासिल कर पाएगा, जिन्हें सामने रखकर नई विज्ञान नीति लागू की गई है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि बड़े लक्ष्य सामने रखते हुए हमारे नीति-निर्माता विज्ञान की उन बुनियादी जरूरतों को नजरअंदाज कर देते हैं, जिन्हें पूरा करना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। विज्ञान, तकनीकी और नवाचार (एसटीआइ) नाम से लागू की जा रही नई विज्ञान नीति के तहत सरकार का प्रयास देश का तेज, स्थायी और समग्र विकास करना है। साथ ही इसके लिए वैश्विक अनुभवों के आधार पर नापजोख का एक मजबूत पैमाना बनाना है ताकि हासिल किए जाने वाले लक्ष्यों की उपयोगिता आदि की समय-समय पर जांच हो सके। इस नई नीति में ज्यादा जोर नवाचार के लिए वैविध्यपूर्ण माहौल बनाने पर रहेगा जिससे कि वैज्ञानिकों को देश में रहकर नए प्रयोग, अनुसंधान और आविष्कार करने की आजादी मिल सके।


इसके तहत विज्ञान और तकनीकी विभाग देश के 35 राज्यों के विज्ञान में रुचि रखने वाले एक हजार से ज्यादा छात्रों को इंस्पायर (इनोवेशन इन साइंस परसूट फॉर इंस्पायर्ड रिसर्च) नामक कार्यक्रम में बड़े शोध के अवसर भी देगा। इंस्पायर के अंतर्गत कक्षा छह से दस में पढ़ने वाले तीन लाख से ज्यादा छात्रों को विज्ञान की जिलास्तरीय प्रदर्शनियों में अपने वैज्ञानिक समझबूझ दर्शाने का मौका देने की भी योजना है। इस योजना का उद्देश्य छात्रों में विज्ञान को एक कैरियर के रूप में अपनाने के लिए प्रेरित करना है। इंस्पायर के तहत पंजीकृत कक्षा 12 के छात्रों में से सर्वश्रेष्ठ प्रर्दशन करने वाले एक प्रतिशत छात्रों को स्नातक स्तर की कक्षाओं में सालाना 80 हजार रुपये की छात्रवृत्ति देने की भी योजना है। निश्चय ही ये पहलकदमियां हमारे देश में विज्ञान के क्षेत्र में लंबे अरसे से कायम सूखा खत्म करने में मददगार साबित हो सकती हैं।
अभी हमारे देश में विज्ञान के क्षेत्र में सबसे बड़ी समस्या यही है कि उसमें रोजगार के विकल्प अनाकर्षक हो गए हंी और प्रतिभावान छात्रों व वैज्ञानिकों को अपनी योग्यता के अनुरूप न तो सुविधाएं मिलती हैं और न ही माहौल। असल में मौजूदा चुनौतियों के मद्देनजर हमारे देश को विज्ञान में और ज्यादा निवेश करने तथा उन क्षेत्रों में पूरी ताकत से कार्य आरंभ करने की जरूरत है जिनका कोई ठोस लाभ भारत जैसे विकासशील देश को निकट भविष्य में मिल सकता है। जिस सौर ऊर्जा में असीम संभावनाएं भारत जैसे गर्म मुल्क में हैं, उसके दोहन के लिए गुजरात से बाहर कोई बड़ा सोलर पावर प्लांट लाने की योजना नहीं है। जबकि इस तरह के इंतजामों से बहुत कम कीमत में लंबे समय तक ऊर्जा मिलने का प्रबंध हो सकता है। इसी तरह बाढ़ और सूखे की स्थायी समस्या के निदान के लिए नदी जोड़ परियोजना (रिवर लिंक प्रोजेक्ट) को कागजों से निकाल कर हकीकत में साकार करने का कोई प्रयास नहीं हो रहा है। भारत की इन मौलिक समस्याओं के समाधान में विज्ञान काफी मदद कर सकता है, लेकिन ऐसे समाधान के ठोस प्रारूप दुर्भाग्य से हमारी विज्ञान नीतियों का हिस्सा नहीं बन पाते हैं।

Wednesday 9 January 2013

आकाशगंगा में अरबों ग्रह

ग्रहों संबंधी नई खोजों पर विशेष
मुकुल व्यास
हमारी आकाशगंगा में कम से कम 100 अरब ग्रह हैं। अमेरिका में कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (कैल्टेक) के खगोल-वैज्ञानिकों ने केप्लर-32 के इर्दगिर्द घूमने वाले ग्रहों का विश्लेषण करने के बाद यह अनुमान लगाया है। ये ग्रह आकाशगंगा में ग्रहों की बहुसंख्या का प्रतिनिधित्व करते हैं और इनको आधार मान कर हम यह अध्ययन कर सकते हैं कि अधिकांश ग्रह कैसे निर्मित होते हैं। केप्लर-32 के आसपास पांच ग्रह हैं। इस ग्रह प्रणाली की खोज केप्लर अंतरिक्ष दूरबीन ने की है। कैल्टेक के प्रमुख वैज्ञानिक जोनाथन स्विफ्ट का कहना है कि ये ग्रह जिस तारे का चक्कर काट रहे हैं उसे एम-ड्वार्फ कहा जाता है। हमारी आकाशगंगा में करीब दो-तिहाई तारे इसी किस्म के हैं। एम-ड्वार्फ सिस्टम हमारे सौरमंडल से बहुत भिन्न है। एम-ड्वार्फ तारा हमारे सूरज से छोटा और अपेक्षाकृत ठंडा है। मसलन केप्लर-32 का द्रव्यमान सूरज का आधा है। उसका अ‌र्द्धव्यास भी आधा है। तारे की चमक में होने वाले परिवर्तनों को देखने के बाद वैज्ञानिकों इस तारे के ग्रहों की विशेषताओं का पता लगाया। सभी ग्रहों की भांति केप्लर-32 के ग्रहों का निर्माण भी धूल और गैस की डिस्क से हुआ था। यह पहला अवसर है जब खगोल-वैज्ञानिकों ने एम-ड्वार्फ सिस्टम का अध्ययन करके आकशगंगा में ग्रहों की आबादी का अंदाजा लगाया है। खगोल वैज्ञानिकों ने 1995 में पहली बार एक सूरज जैसे तारे के इर्दगिर्द एक ग्रह का पता लगाया था। तब से लेकर अब तक उन्होंने सौरमंडल से बाहर 800 से अधिक ग्रह खोज लिए हैं। इनके अलावा बहुत से खगोलीय पिंड ऐसे हैं, जो ग्रह का दर्ज मिलने के इंतजार में हैं। बाहरी ग्रहों में कुछ ग्रह पृथ्वी के आकार के भी मिले हैं। लेकिन इनमें अभी तक ऐसा कोई ग्रह नहीं मिला है, जिसे सही मायने में पृथ्वी का जुड़वां या हमशक्ल कहा जा सके। अमेरिका के प्युटोरिको विश्वविद्यालय की ग्रह पर्यावास प्रयोगशाला के प्रमुख वैज्ञानिक एबेल मेंडेज को उम्मीद है कि पृथ्वी की असली जुड़वां का पता इसी वर्ष लग जाएगा। नासा की केप्लर दूरबीन ने 2300 संभावित ग्रहों का पता लगाया है। इनमें से अभी तक सिर्फ 100 ग्रहों की ही पुष्टि हो पाई है, लेकिन वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि संभावित ग्रहों में से कम से कम 80 प्रतिशत ग्रहों की पुष्टि हो जाएगी। खगोल वैज्ञानिकों द्वारा खोजा गया पहला बाहरी ग्रह अपने सूरज के निकट होने के कारण बेहद गरम था और आकार में बृहस्पति के बराबर था। धीरे-धीरे उन्नत तकनीकें उपलब्ध होने के बाद छोटे और दूरवर्ती ग्रहों का पता चला। अभी कुछ दिन पहले ही खगोल-वैज्ञानिकों ने हमारे सौरमंडल से बाहर टॉव सेटी नामक तारे के इर्दगिर्द पांच ग्रहों का पता लगाया है। टॉव सेटी पृथ्वी से 12 प्रकाश वर्ष दूर है। यह इकलौता तारा है और चमक तथा तापमान की दृष्टि से यह हमारे सूर्य के समकक्ष है। खगोल-वैज्ञानिकों का अनुमान है कि तारे का चक्कर लगाने वाले पांच ग्रहों में एक ग्रह तारे के जीवन-अनुकूल क्षेत्र में हो सकता है। खगोल-वैज्ञानिकों ने जिन छोटे बाहरी ग्रहों का पता लगाया हैं, उनमें मेंडेज की सूची के मुताबिक संभावित जीवन-अनुकूल ग्रहों की संख्या नौ पहुंच चुकी है, लेकिन इनमें से कोई ग्रह सच्चे अर्थो में पृथ्वी का हमशक्ल नहीं है। पृथ्वी के आकार के जो गिने-चुने ग्रह मिले हैं, वे अपने तारे के बहुत करीब हैं। अत: वहां की परिस्थितियां जीवन के अनुकूल नहीं है। मेंडेज और केप्लर टीम से जुड़े वैज्ञानिक जैफ मार्सी को पूरा भरोसा है कि सही आकार और सही परिस्थितियों वाले ग्रह की खोज इसी साल हो सकती है। दोनों वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि यह युगांतरकारी खोज केप्लर दूरबीन द्वारा की जाएगी, जो तारों के आगे से ग्रहों के गुजरने पर फीकी पड़ने वाली चमक को बारीकी से नोट करती है। दूसरी पृथ्वी खोजने की होड़ मे हा‌र्प्स उपकरण भी शामिल है। यह उपकरण चिली स्थित यूरोपीय दक्षिणी वेधशाला में लगा हुआ है। 

DNA Article on vigyan congress

भविष्य का अस्त्र

अस्त्र मिसाइल के विकास पर विशेष
डॉ. लक्ष्मी शंकर यादव
भारत ने 21दिसंबर को स्वदेसी तकनीक पर आधारित दृष्टि सीमा से अधिक की हवा से हवा में मार करने में सक्षम अस्त्र मिसाइल का सफल परीक्षण किया। इस मिसाइल का यह विकासात्मक परीक्षण था जिसे ओडिशा के बालासोर से लगभग 15 किलोमीटर दूर चांदीपुर स्थित एकीकृत परीक्षण रेंज से किया गया। अस्त्र मिसाइल हवा में उड़ने वाले अपने लक्ष्य को भेदने में सक्षम है। परीक्षण के दौरान एक मानवरहित विमान की सहायता से इस मिसाइल ने उड़ते हुए लक्ष्य पर सटीक निशाना लगाने में सफलता प्राप्त की। इस मिसाइल को सुखोई-30 एमकेआइ, मिग-29, मिराज-2000, जगुआर तथा तेजस जैसे अत्याधुनिक किस्म के लड़ाकू विमानों पर लगाए जाने की योजना है। 22 दिसंबर को इस मिसाइल का पुन: परीक्षण किया गया। रक्षा वैज्ञानिको के मुताबिक 21 दिसंबर को एक इलेक्ट्रॉनिक लक्ष्य के साथ अस्त्र मिसाइल का सफल परीक्षण किया गया था, जबकि इस दिन के परीक्षण में पायलट रहित विमान लक्ष्य को उपयोग में लाया गया। 24 दिसंबर को एक बार फिर चांदीपुर के एकीकृत परीक्षण रेंज के प्रक्षेपण स्थल-1 से जमीनी लांचर के जरिए अत्याधुनिक अस्त्र मिसाइल को छोड़ा गया। इस बार का परीक्षण कृत्रिम लक्ष्य के साथ किया गया। एकीकृत परीक्षण रेंज के निदेशक एमवीकेवी प्रसाद ने बताया कि कृत्रिम लक्ष्य के साथ किया गया यह परीक्षण मिशन के सभी उद्देश्यों पर खरा उतरा। इस परीक्षण में पायलट रहित विमान के बिना कृत्रिम लक्ष्य का इस्तेमाल किया गया। इन परीक्षणों से पहले मई 2011 में इस मिसाइल के तीन परीक्षण 20, 21 एवं 22 तारीखों में हुए थे। तब इन परीक्षणों का मुख्य उद्देश्य मोटर प्रणोदन प्रणाली के प्रदर्शन और हवाई गति का मूल्यांकन करना था। सुखोई-30 एमकेआइ लड़ाकू विमान से अस्त्र मिसाइल के परीक्षण नवंबर 2010 में पुणे के नजदीक किए गए थे। तब कुल सात परीक्षण किए गए थे। अस्त्र मिसाइल का प्रथम परीक्षण 9 मई, 2003 को किया गया था। रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) के मुताबिक एकल चरण वाली ठोस ईंधन संचालित अस्त्र मिसाइल अपनी श्रेणी में समकालीन बीवीआर मिसाइलों की तुलना में अधिक आधुनिक है। यह मिसाइल अत्याधुनिक सुपरसोनिक हवाई लक्ष्यों को नष्ट करने में सक्षम है। यह दुश्मन के विमान का पता लगाने में माहिर है। आकार और वजन के मामले में यह डीआरडीओ द्वारा विकसित की गई सबसे छोटी मिसाइल है। यह 3.8 मीटर लंबी है। इसका कुल प्रक्षेपण वजन 160 किलोग्राम एवं कुल व्यास 178 मिलीमीटर है। ठोस प्रणोदक से संचालित यह मिसाइल अपने साथ लगभग 15 किलोग्राम वजन के पारंपरिक आयुध ले जा सकती है। यह दुश्मन के किसी विमान को सामने से 80 किलोमीटर की दूरी से मार गिराने की क्षमता रखती है। पीछा करने की स्थिति में यह मिसाइल 20 किलोमीटर की दूरी से ही शत्रु के लड़ाकू विमान को ध्वस्त कर देती है। अस्त्र मिसाइल 1700 किलोमीटर प्रति घंटे की चाल से लक्ष्य पर हमला कर सकती है। यह हवा में सूक्ष्म लक्ष्य को भी निशाना बनाने और नष्ट करने में सक्षम है। यह मिसाइल ध्वनि से ज्यादा 1.2 मैक से लेकर 1.4 मैक की रफ्तार से उड़ने वाले आकाशीय लक्ष्यों को भेद सकती है। विदित हो कि एक मैक 1236 किलामीटर प्रति घंटा के समतुल्य है। इस मिसाइल को विभिन्न ऊंचाइयों से दागा जा सकता है। 15 किलोमीटर की ऊंचाई से दागे जाने पर यह 110 किलोमीटर और आठ किलोमीटर की ऊंचाई से छोड़े जाने पर 44 किलोमीटर की दूरी तक मार करती है। यह समुद्र तलीय ऊंचाई से दागे जाने पर 21 किलोमीटर की परिधि तय कर सकती है। इसके अलावा समुद्र तल पर 30 किलोमीटर की दूरी तक सटीक निशाने सहित मार करती है। इसीलिए अस्त्र को भविष्य की मिसाइल की संज्ञा दी गई है। यह अपनी श्रेणी की रूसी, अमेरिकी एवं फ्रांसीसी मिसाइलों से भी उन्नत है। (लेखक सैन्य विज्ञान विषय के प्राध्यापक हैं)

My Purvanchal Prahari Article on Vigyan Congress

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Tuesday 8 January 2013

महत्वाकांक्षी मंगल अभियान


हमारा पड़ोसी ग्रह मंगल अनेक अंतरिक्ष अभियानों के बावजूद अब भी कई रहस्यों से घिरा है। कभी यह ग्रह जीवन की संभावनाओं से भरपूर लगता था और अब भी वैज्ञानिकों को पूरा विास है कि भले ही वर्तमान में यहां जीवन न हो लेकिन कभी न कभी, किसी न किसी रूप में यहां जीवन था। अब तक हुई इस ग्रह की पड़ताल में यह बात लगभग प्रमाणित भी हो चुकी है कि कभी यहां जल और वायुमंडल था। आज मंगल को लेकर तमाम महत्वपूर्ण सवालों में से एक यह है कि आखिर यहां का वायुमंडल किन स्थितियों में नष्ट हुआ होगा!
ऐसे ही सवालों का जवाब खोजने लिए जहां अमेरिका ने पिछले साल क्यूरोसिटी नामक मार्स रोवर को सफलतापूर्वक मंगल की सतह पर उतारा, वहीं हमारा देश भी इस ‘लाल ग्रह’ से जुड़े अनेक रहस्यों से पर्दा हटाने के लिए इस सालनवम्बर में मंगल अभियान शुरू करने जा रहा है। इसके लिए ‘इसरो’मानवरहित मंगलयान मंगलग्रह पर भेजने की तैयारी में जोर-शोर से जुटा है। श्रीहरिकोटा से लांच किया जाने वाला देश का पहला ‘मंगलयान’ पीएसएलवी रॉकेट से छोड़ा जाएगा। इस महत्वाकांक्षी अभियान को लेकर जहां देश उत्साहित है, वहीं मंगल की जानकारी जुटाने के लिए भेजे जाने वाले प्रायोगिक उपकरणों (पेलोड) में कमी करने से इस ग्रह की खोज की व्यापकता में किंचित कमी आ सकती है। जितने खोजी उपकरण पहले भेजे जाने थे, उसमें कमी करने का मतलब है, जांच- पड़ताल के दायरे में कमी। पहले यह पेलोड 25 किलोग्राम निर्धारित था, जो अब यह 15 किलोग्राम होगा। पेलोड कम करने की वजह क्या हो सकती है, इसे तो इसरो से जुड़े वैज्ञानिक ही बता सकते हैं लेकिन इसकी एक वजह इस अभियान को जल्दी अंजाम देना भी हो सकता है। दरअसल, पहले इस साल जहां चंद्रयान 1 के बाद चंद्रयान 2 को चांद पर भेजा जाना था, वहीं इसके बदले वैज्ञानिक मंगलयान को मंगल ग्रह भेज रहे हैं। इस जल्दबाजी की वजह यह भी है कि यदि इस साल यह अभियान लांच नहीं किया गया तो वर्ष 2018 में ही इसे अंजाम दिया जा सकेगा। 470 करोड़ रुपये का यह मिशन जहां 299 दिनों की 5.5 से 40 करोड़ किलोमीटर की यात्रा करने वाले अंतरिक्षयान निर्माण की भारतीय क्षमता का परिचायक होगा, वहीं टोही यान में मौजूद पांच उपकरण मंगल के वायुमंडल, उसकी सतह पर दर्ज जल की मौजूदगी के प्रमाण और अन्य जानकारियां जुटाएंगे। इस मिशन से हमारा देश अमेरिका, रूस, यूरोप, चीन और जापान के उस विशिष्ट क्लब में शामिल हो जाएगा जो अब तक मानवरहित मंगल अभियान में कामयाब रहे हैं। फिलहाल, महत्व पेलोड कम करने का नहीं, अभियान के सफल होने का है। देश का गौरव इससे जुड़ा है।

आइआइटी की सालाना फीस में 80 फीसद की वृद्धि

उच्च शिक्षा की बढ़ती चुनौतियों के बीच भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (आइआइटी) की सालाना फीस में 80 फीसद की वृद्धि हो गई है। शैक्षिक सत्र 2013 से आइआइटी में ग्रेजुएट स्तर पर दाखिला लेने वाले छात्रों को सालाना 50 के बजाय 90 हजार रुपये फीस भरनी होगी। छात्रों-अभिभावकों पर बोझ बढ़ाने वाले इस कड़े कदम के साथ ही इन हाई प्रोफाइल संस्थानों की जवाबदेही भी तय करने को हर पांच साल में उनकी समीक्षा का भी निर्णय लिया गया है। मानव संसाधन विकास मंत्री डा. एमएम पल्लम राजू ने सोमवार को यहां काउंसिल की बैठक के बाद पत्रकारों को यह जानकारी दी। उन्होंने कहा, फीस में समय-समय पर बदलाव भी होगा। ज्ञात हो, इससे पहले 2008-09 में आइआइटी की 25 हजार सालाना फीस को 50 हजार रुपये किया गया था। राजू ने कहा, मौजूदा दौर में आइआइटी को भी आत्मनिर्भर होना जरूरी है। अभी छात्रों की सालाना फीस व अन्य संसाधनों से खर्चो की सिर्फ 20 फीसद ही भरपाई हो पाती है। जबकि, भारतीय प्रबंध संस्थान (आइआइएम) अपने खर्चों के लिए काफी हद तक बेहतर संसाधन जुटाने में सक्षम हैं। एक सवाल के जवाब में कहा,आइआइटी की बढ़ी हुई फीस का असर करीब 50 फीसद उन छात्रों पर पड़ेगा, जो उसका भुगतान करने में सक्षम हैं। एससी, एसटी छात्रों से अभी भी ट्यूशन फीस नहीं ली जाती। हॉस्टल, भोजन व किताबें भी मुफ्त दी जाती हैं। आइआइटी में 4.5 लाख रुपये सालाना से कम पारिवारिक आय वाले छात्रों को शत-प्रतिशत स्कॉलरशिप की व्यवस्था की गई है। ऐसे छात्रों की संख्या कुल छात्रों का 25 फीसद है। आइआइटी काउंसिल ने इसके साथ ही काकोदकर कमेटी की उस सिफारिश पर भी मुहर लगा दी है, जिसमें आइआइटी के कामकाज की समीक्षा की बात कही गई थी। राजू ने कहा,समीक्षा का तौर-तरीका विश्वस्तरीय संस्थानों की समीक्षा जैसा होगा। समीक्षा कमेटी में प्रख्यात शिक्षाविद् व उद्योग जगत के प्रतिनिधि शामिल होंगे। आइआइटी की जवाबदेही व पारदर्शिता के मद्देनजर समीक्षा की पहल जल्द से जल्द होगी। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (आइआइटी) के दाखिलों में लड़कों की तुलना में लड़कियों की कम दाखिला दर को देखते हुए उनकी संख्या बढ़ाने की कवायद शुरू हो गए हैं। संकेत है कि लड़कियों के मामले में जरूरी अंकों के नियम शिथिल किए जा सकते हैं। उच्च शिक्षा सचिव अशोक ठाकुर ने कहा कि लड़कियों की संख्या बढ़ाने के लिए आइआइटी का संयुक्त दाखिला बोर्ड (जैब) जरूरी अंकों के मामलें में उन्हें छूट दे सकता है। विभिन्न आइआइटी में हर साल बड़ी संख्या में सीटें खाली रह जाने के सवाल पर मंत्रालय के संयुक्त सचिव ने कहा कि सरकार इस पर काम कर रही है। यही वजह है कि 2011 में जहां 700 सीटें खाली रह गई थीं, 2012 में घटकर वह 300 ही रह गईं। इन निर्णयों पर भी आइआइटी काउंसिल की मंजूरी मौजूदा 3000 पीएचडी सीटों को 2020 तक 10 हजार करने का लक्ष्य। 
सरल होंगे पीएचडी में दाखिले के नियम 
इंजीनियरिंग कॉलेजों में पढ़ाने वाले और इंडस्ट्री में कार्यरत लोगों के लिए सभी आइआइटी में पीएचडी कार्यक्रम शुरू होगा। फैकल्टी की कमी दूर करने के लिए आइआइटी व एनआइटी एक साझा ट्रेनी टीचर अवार्ड शुरू करेंगे। ट्रेनी टीचर अवार्ड योजना के तहत एनआइटी समेत सभी केंद्रीय तकनीकी संस्थानों (एआइसीटीई या यूजीसी से मान्यता प्राप्त संस्थानों) के टॉप 15 स्नातकों को ट्रेनी टीचर बनाने के साथ उन्हें पार्ट टाइम एम.टेक करने और पीएचडी करने का मौका मिलेगा। 
एआइसीटीई और यूजीसी से मान्यता प्राप्त गैर केंद्रीय संस्थानों के भी टॉप 15 प्रतिशत छात्रों को भी यह मौका मिल सकेगा, बशर्ते व गैट अंकों के साथ पात्रता पूरी करते हों। 
अमेरिका व यूरोप की तर्ज पर हर आइआइटी ग्रीन आफिस बनाएगा, जिसमें ग्रीन आडिट, ग्रीन टेक्नोलॉजी से जुड़े पाठ्यक्रम आदि पर फोकस किया जाएगा।

Monday 7 January 2013

भावी भारत और विज्ञान

निरंकार सिंह 
कोलकाता में हुए भारतीय विज्ञान कांग्रेस के 100वें अधिवेशन में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नई विज्ञान और प्रोद्यौगिकी नीति की घोषणा के साथ ही वैज्ञानिकों से देश की सामाजिक समस्याओं के समाधान की अपील भी की है। उन्होंने वैज्ञानिकों से कृषि, आवास, ऊर्जा, पर्यावरण और सस्ती स्वास्थ्य सेवा, पानी, सुरक्षा आदि के क्षेत्रों से जुड़ी समस्याओं का समाधान खोजने को कहा है। नीतियों को लेकर अभी तक का अनुभव तो यही रहा है कि कोई भी नीति बना देना तो आसान है, उस पर अमल मुश्किल होता है। इस दृष्टि से देखा जाए तो प्रधानमंत्री के पास कोई कार्य योजना नहीं है। पं. जवाहर लाल नेहरू और होमी जहांगीर भाभा ने कहा था कि गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी को हम विज्ञान और तकनीक की मदद से हटा सकते हैं। इस कल्पना को साकार करने के लिए उन्होंने कई ठोस कदम उठाए। वैज्ञानिक और तकनीकी अनुसंधान के लिए हमारे पास आज मजबूत आधारभूत ढांचा है, लेकिन दुनिया को बताने लायक हमारे पास शायद ही कोई उपलब्धि हो? सूई से लेकर पेन तक तमाम आविष्कार विदेशियों की ही देन हैं। शायद भारत के राजनेता वह माहौल तैयार नहीं कर सके, जिसमें हमारे देश के युवाओं में नई-नई खोजें करने का साम‌र्थ्य पैदा हो सके। देश के आर्थिक विकास से तकनीक और विज्ञान का बहुत गहरा संबंध है, लेकिन तकनीकी विकास के लिए हम अभी तक ऐसी कोई ठोस नीति तैयार नहीं कर सकें हैं, जिससे बुनियादी समस्याएं हल हो सकें। वास्तव में आर्थिक विकास में विज्ञान और तकनीक की ताकत को अभी तक न तो हमारे राजनेता समझ पाए हैं और न उद्योगपति एवं आम जनता। हम विदेशों से भी सीख नहीं लेते हैं। उदाहरण के लिए जापान को ही लीजिए। परमाणु बमों के हमले से पूरी तरह नष्ट देश आज विश्व के सात शक्तिशाली देशों में गिना जा रहा है। पिछली शताब्दी के छठे दशक तक जापान विज्ञान एवं तकनीक के क्षेत्र में बहुत पिछड़ा था और विदेशों पर निर्भर था। उसने फैसला किया कि वह खुद तकनीक विकसित करेगा। बीस वर्ष की कड़ी मेहनत से वह विश्व में तकनीक का अगुआ बन गया और आर्थिक शक्तियों में गिना जाने लगा। जापान ने यह समृद्धि अपनी तकनीक के निर्यात से अर्जित की। सुनामी जैसी आपदाओं के बाद भी वह तेजी से दौड़ने लगा। इसी तरह दक्षिण कोरिया 1950 में गरीब देश माना जाता था। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान उस पर जापान का अधिकार था। तभी उसका विभाजन हुआ। इन सब आपदाओं के बावजूद कुछ ही वर्र्षो में दक्षिण कोरिया ने इतनी उन्नति की कि अब उसकी गिनती दुनिया के अग्रणी देशों में होती है। स्टील, पोत, कार और इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद निर्यात कर वह संपन्न हुआ। ऐसा ही एक छोटा-सा देश है इजरायल। रेगिस्तान में पानी और भोजन की अपनी तत्कालिक जरूरतें पूरी करने के बाद वह रुका नहीं। इजरायली वैज्ञानिकों ने न केवल अपने देश का विकास किया, बल्कि अमेरिका में वे उच्च पदों पर है। देशहित में वे अमेरिकी नीति को प्रभावित करते है। लगभग आठ लाख की आबादी वाला छोटा-सा देश फिनलैंड भी अपनी तकनीकी साम‌र्थ्य को किसी से कम नही आंकता है। वह कागज और दूरसंचार के क्षेत्र में अग्रणी माना जाता है। मोबाइल फोन निर्माता नोकिया फिनलैंड की ही कंपनी है। नोकिया का सालाना बजट भारत सरकार के कुल बजट के तीन चौथाई से भी ज्यादा है। इससे तकनीकी विकास की ताकत का अंदाजा लगा जा सकता है। जापान ने विज्ञान को सियासी जरूरतों के अनुसार ढालने में असाधारण सूझ-बूझ दिखाई। जापान की ही तरह सोवियत संघ और अब रूस ने भी शासन और उद्योग की एकात्मता को आधार बनाया। उसने भी जापान की तरह वैज्ञानिक शिक्षा के लिए मातृ भाषा को आधार बनाया। पुराने दकियानूसी समाज के स्थान पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले नए समाज की स्थापना पर जोर दिया गया। शिक्षा उत्पादन की जरूरतों के हिसाब से दी जाने लगी। कॉलेजों में पढ़ाई, डिजाइन तथा निर्माण तीनों तरह के काम होने लगे। जापान और रूस के अनुभवों का फायदा चीन ने उठाया। चीनी इस बात में भी विश्वास करते हैं कि आधुनिक तकनीक को जल्दी अपना लेना चाहिए। जब तक नई तकनीक न अपना ली जाए पुरानी को प्रोत्साहन देते रहना चाहिए। आकार और आबादी के साथ-साथ ऐतिहासिक दृष्टि से भी चीन और भारत में कई समानताएं हैं, लेकिन पांच दशकों में चीन ने भारत ही नहीं अमेरिकी बाजार भी अपने सामानों से भर दिए। यह सब विज्ञान और तकनीक से ही संभव हुआ, लेकिन हम किसी भी क्षेत्र में किसी मौलिक तकनीक का विकास नहीं कर पाए तो हमें इसके मूल कारणों का विश्लेषण करना चाहिए और उसके अनुसार अपनी नीतियां बना उन पर अमल करना चाहिए। हमारे तमाम विश्वविद्यालय, इंजीनियरिंग और तकनीकी संस्थान, राष्ट्रीय प्रयोगशालाएं राजनीति का अखाड़ा बन गई हैं। इनमें इतना भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार है कि मुश्किल से किसी प्रतिभावान वैज्ञानिक या शिक्षक को प्रवेश मिल पाता है। इसीलिए हमारे तमाम प्रतिभावान छात्र मौका मिलते ही विदेश चले जाते हैं। नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री और मोरार जी देसाई के बाद देश को कोई ऐसा सक्षम प्रधानमंत्री नहीं मिला जो विज्ञान और तकनीक के शोध के विकास का माहौल बनाने के लिए प्रेरित करता। 2003 में राजग सरकार ने नई विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी नीति की घोषणा की थी, लेकिन पिछले 10 सालों में संप्रग सरकार इस क्षेत्र के भावी कार्यक्रमों की रूपरेखा तैयार करने और नई पहलों को दिशा देने में कोई भूमिका नहीं निभा सकी। इस नीति में वैज्ञानिक विकास से लेकर प्राकृतिक आपदा प्रबंधन के लिए नई तकनीकों के विकास और बौद्धिक संपदा सृजन तक की रूपरेखा बनाई गई थी, लेकिन इस नीति का कोई लक्ष्य हासिल न हो सका। ऐसा नहीं है कि हमारे सभी वैज्ञानिक संस्थान निकम्मे और नाकारा हैं। जिस किसी क्षेत्र में लक्ष्य निर्धारित किए गए और विज्ञानिकों को मौका मिला वहां उन्होंने सफलताएं भी हासिल की। भूमिगत परमाणु विस्फोट, मिसाइल और अंतरिक्ष के क्षेत्र में हमारी कुछ उपलब्धियां भी हैं, लेकिन हमारे समकालीन आजाद हुए देशों के मुकाबले हमारी उपलब्धियां बहुत कम हैं। खासकर देश के आर्थिक विकास में तकनीक और विज्ञान का वह योगदान नहीं है जो होना चाहिए था। जापान, चीन, दक्षिण कोरिया आदि देश जिस प्रकार कार्य योजनाएं बनाकर निर्माण का कार्य करते हैं, उसी प्रकार भारत भी विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में स्पष्ट लक्ष्य निर्धारित कर सफलता प्राप्त कर सकता है। लगभग सवा अरब की आबादी वाले इस राष्ट्र की प्रगति उसकी जनता के चिंतन पर निर्भर होती है जो अपने राजनेताओं को सही दिशा में चलने के लिए बाध्य कर सकती है। देश धीरे-धीरे जाग रहा है। देश की जनशक्ति को ही देश की ताकत बनना होगा।

इंटरनेट जरूरी भी और मजबूरी भी

चंद्रभूषण ॥
अगर आप सोचते हैं कि इंटरनेट आपकी जिंदगी में पूरी तरह रच-बस गया है तो यह आपकी भूल है। इसके आम जिंदगी का हिस्सा बनने की तो अभी बस शुरुआत हुई है। अभी हम इसके जरिये कुछ सूचनाएं, वीडियो वगैरह शेयर करते हैं, या थोड़ी-बहुत बातचीत कर लेते हैं। आने वाले दिनों में हमारी चीजें इंटरनेट के माध्यम से आपस में बात कर लिया करेंगी। मसलन, आप सोते रहेंगे और कमरे में चल रहे ब्लोअर को ऑफ हो जाने का हुक्म आपका तकिया देगा। या गर्मियों के मौसम में घर की तरफ बढ़ रही गाड़ी घर में पड़े फ्रिज को बोल देगी कि सबके लिए एक-एक गिलास ठंडे स्क्वाश का इंतजाम करे।

यह कोई फिक्शन नहीं है। घरेलू उपयोग के इलेक्ट्रॉनिक सामान बनाने वाली ज्यादातर कंपनियां अपने सामानों के लिए पर्टीकुलर आईपी एड्रेस वाले चिप तैयार करने में जुटी हैं। दो-तीन साल इंतजार कीजिए। फिर तो जैसे आप दिन भर ऑफिस में अपने कलीग्स से बातें करते नहीं थकते, वैसे ही आपके घर के सारे सामान आप की बॉसगिरी को दरकिनार कर आपसी गप-शप में लगे रहेंगे।
अभी दुनिया में सबसे ज्यादा इंटरनेट इस्तेमाल करने वाले चार देशों- अमेरिका, चीन, जर्मनी और ब्राजील में एक सर्वे किया गया कि अगर उनके सामने शर्त रखी जाए कि एक साल तक इंटरनेट यूज करना छोड़ें, या इसकी जगह कोई और काम छोड़ें तो क्या छोड़ने के लिए वे खुशी-खुशी तैयार हो जाएंगे। जवाब में 85 फीसदी चीनियों ने कहा कि वे शराब से तौबा कर लेंगे। ठीक इतने ही प्रतिशत अमेरिकी जीपीएस छोड़ने को और 90 फीसदी जर्मन फास्ट फूड को हाथ न लगाने पर राजी हो गए। इस मामले में चीनियों की दीवानगी का आलम यह है कि सर्वे में शामिल लोगों में 40 फीसदी ने इटंरनेट यूज के बदले में एक साल तक नहाना छोड़ने की बात कबूल की, जबकि 35 प्रतिशत चीनियों ने ब्रह्मचर्य धारण करने, यानी साल भर सेक्स से दूर रहने का व्रत लेना स्वीकार किया। भारत में इसके आकर्षण का कोई ठोस आकलन मौजूद नहीं है, हालांकि यहां भी कनेक्शन टूटने या स्पीड डाउन हो जाने पर लोगबाग भुन-भुन करते, हाथ-पैर पटकते दिखाई देते हैं।

आश्चर्य होता है कि इंटरनेट को बने सिर्फ तीस साल और इसके पब्लिक डोमेन में आए महज बीस साल हुए हैं। भारत में तो इसका चलन बमुश्किल पंद्रह साल पुराना है, क्योंकि इसके पहले कुछ गिने-चुने अखबारों और कंपनियों के दफ्तरों में इसका इस्तेमाल चुनिंदा विशेषाधिकार प्राप्त लोग ही करते थे। आज हालत यह है कि संसार की कुल आबादी के एक तिहाई लोग इंटरनेट से जुड़े हैं और यह एक ग्लोबल दिमाग की तरह काम कर रहा है।
पिछले दो सालों में हम इंटरनेट के सामाजिक और राजनीतिक पहलुओं से परिचित हुए हैं। अरब देशों की अजर-अमर समझी जाने वाली कई तानाशाहियों की ईंट से ईंट बजाकर रख देने वाला 'अरब स्प्रिंग' फेसबुक के रास्ते इंटरनेट से जुड़ा था और भारत में भ्रष्टाचार तथा यौन उत्पीड़न के विरुद्ध एक के बाद हुए विराट जनांदोलनों का उत्स भी एक हद तक इंटरनेट ही है। जूलियन असांज ने अपने विकीलीक्स के जरिये अमेरिका समेत कई हुकूमतों की नाक में दम कर दिया और महीनों तक कुछ भारतीय राजनेताओं की भी नींद हराम रखी। उनके काम का खौफ इतना ज्यादा है कि बेवजह उन्हें पिंजड़े में बंद करके रखा गया है। ऐसी जाने कितनी धमाकेदार चीजें अभी इंटरनेट के गर्भ में आराम फरमा रही हैं।

भारत में इंटरनेट के विस्तार की रफ्तार उतनी नहीं रही, जितनी होनी चाहिए। अभी हमारे यहां कुल 15 करोड़ लोग इससे जुड़े हैं, जो 55 करोड़ इंटरनेटी चीनियों के बरक्स छोटी तादाद कही जाएगी। लेकिन दुनिया में सबसे तेजी के साथ इंटरनेट से जुड़ रहे देश के रूप में हमारा एक अलग रुतबा है। भारत में इंटरनेट यूजर्स की ऐनुअल ग्रोथ रेट 41 फीसदी है। चीनी यह बूम फेज पहले ही पार कर चुके हैं, लिहाजा इस मामले में उनके आगे निकलने का कोई खतरा नहीं है। भारत में इंटरनेट का फैलाव धीमा होने की मुख्य वजह यहां लैंडलाइन बेस का छोटा होना था। निजी टेलीकॉम कंपनियों ने भी अपना लैंडलाइन नेटवर्क गांवों और छोटे कस्बों तक ले जाने में खास दिलचस्पी नहीं दिखाई। यह बाधा मोबाइल टेलीफोनी के विस्फोट के जरिये पार कर ली गई है। अभी सारा मामला वायरलेस इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर्स के विस्तार पर टिका है। उनके लिए अपना नेटवर्क फैलाना अपेक्षाकृत सस्ता सौदा है। अपनी सेवाएं अगर वे गांव-गांव तक पहुंचाते हैं तो अगले कुछ सालों में हम इंटरनेट चीन को टक्कर दे रहे होंगे।

भारत में मोबाइल इंटरनेट के विस्तार के आंकड़े अभी तक जबर्दस्त रहे हैं। मार्च 2009 में महज 41 लाख से बीसगुना बढ़कर इसके उपभोक्ता फिलहाल 8 करोड़ 71 लाख पर पहुंच गए हैं। दूरसंचार मंत्रालय का अनुमान है कि मार्च 2015 तक यह संख्या 16 करोड़ 48 लाख यानी अभी की दोगुनी हो जाएगी। शर्त सिर्फ एक है कि अच्छी डेटा स्पीड वाले फोन, टैबलेट और लैपटॉप भारत में अमीरों के खिलौने बने रहने की नियति से उबरें। सरकार और निजी क्षेत्र के सहयोग से इन्हें घर-घर पहुंचाने का प्रयास हो और इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर कंपनियों में भरोसा जगे कि इस देश में उनका धंधा बड़े शहरों से बाहर निकलने के बाद ही बढ़ेगा। इससे भी जरूरी यह है कि दूर-दराज के इलाकों में रह रहे लोगों को इंटरनेट पर खर्च किए गए अपने एक-एक पैसे की पूरी कीमत वसूल करने का मौका मिले। मसलन, लोहरदगा का कोई आदिवासी परिवार अगर अपने बुजुर्ग की हार्ट कंडीशन को लेकर घर बैठे अच्छा प्रेस्क्रिप्शन चाहता है तो उसे अपोलो या लीलावती के बेस्ट हार्ट स्पेशलिस्ट की सेवाएं इंटरनेट पर उपलब्ध हों।

आने वाला साल इंटरनेट के लिए बहुत महत्वपूर्ण होने जा रहा है। इसके प्रशासन के लिए अभी कोई अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था नहीं है। सतह के नीचे झांकें तो यह अमेरिकी हुकूमत और दो-तीन ताकतवर अमेरिकी कंपनियों के रहमोकरम पर ही चल रहा है। इस व्यवस्था को वे 'मल्टि-स्टेक होल्डर सिस्टम' के इज्जतदार नाम से बुलाते हैं और पश्चिमी यूरोप के देश उनकी हां में हां मिलाते हैं। इसके कुछ बड़े नुकसान हैं, जिसका अंदाजा पिछले साल असम के दंगों का विस्तार यू-ट्यूब पर चले एक फर्जी वीडियो के असर में मुंबई, पुणे और बेंगलुरू तक हो जाने के रूप में हमें हो चुका है। आने वाले दिनों में फैसला करना होगा कि इंटरनेट को बधिया किए बगैर इसके कंटेंट पर नजर रखने में सरकारों की क्या भूमिका हो, और इसका लागू होना सुनिश्चित कैसे किया जाए।  (ref-nbt.in)

नोबेल पुरस्कार की चाहत

my special cover story in Prabhatkhabar on 100th Vigyan Congress