Monday 31 December 2012

भारतीय शिक्षा व्यवस्था पर विशेष


एक नई क्रांति की दहलीज पर खड़ी है भारतीय शिक्षा

गोविंद सिंह॥
वर्ष 2012 में भारतीय शिक्षा का फलक विस्तृत हुआ है, लेकिन उसकी गुणवत्ता में कोई सुधार नहीं दिखाई देता। देश में विश्वविद्यालयों की संख्या 450 से बढ़ कर 612 हो गई है। कालेजों की संख्या भी 33 हजार को पार कर गई है। लेकिन विश्व स्तर पर हुए सर्वे में इस साल एक भी भारतीय विश्वविद्यालय या संस्थान 200 के भीतर जगह नहीं बना पाया। हाल तक 2-4 संस्थान इसमें जगह बना लेते थे। संयुक्त राष्ट्र की विश्व शिक्षा सूची में शामिल कुल 181 देशों में भारत का स्थान 150वें करीब है। एक और अंतरराष्ट्रीय संस्था आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओईसीडी) ने कहा है कि 2015 तक भारत में स्नातकों की संख्या अमेरिका से ज्यादा हो जाएगी और चीन के बाद वह दूसरे नंबर पर आ जाएगा। हमारी आबादी चीन के बाद सबसे ज्यादा है तो हमारे ग्रेजुएट भी ज्यादा होंगे। लेकिन इसी संस्था का सर्वे आगे कहता है कि गुणवत्ता के लिहाज से हम 73 देशों में 72वें स्थान पर हैं।
खाली पदों का चक्रव्यूह मैकिन्से का हाल का एक अध्ययन कहता है कि भारत के 10 कला स्नातकों और चार इंजीनियरिंग स्नातकों में से एक-एक ही नौकरी के लायक हैं। ऐसी 'निर्गुण' शिक्षा का क्या फायदा? जहां तक विस्तार का सवाल है, वह तो होना ही है। आज भी हमारे देश में स्कूलों में दाखिले का अनुपात 78 प्रतिशत ही है। उच्च शिक्षा तक पहुंचते-पहुंचते यह 13 प्रतिशत रह जाता है। अमेरिका का उच्च शिक्षा में दाखिले का अनुपात ही 83 फीसदी है। इससे जाहिर होता है कि गुणवत्ता तो दूर, हम अभी दाखिले के स्तर पर ही बहुत पीछे हैं। हमारी सरकारों की प्राथमिकता सूची में शिक्षा कहीं है ही नहीं। केंद्र में तो फिर भी शिक्षा की बात करने वाले मिल जाते हैं, राज्यों की राजनीति का तो मिजाज ही बदल गया है। वहां शिक्षा का कभी कोई जिक्र तक नहीं करता। देश में 13 लाख स्कूली अध्यापकों के पद खाली हैं। कॉलेजों, विश्वविद्यालयों में 40 फीसदी पद रिक्त हैं। सर्व शिक्षा अभियान जैसे महत्वाकांक्षी कार्यक्रम में भी सात लाख अध्यापकों का टोटा है।
एजुकेशनल इमर्जेंसी उच्च शिक्षा संस्थानों की गुणवत्ता का मूल्यांकन करने वाली संस्था नैक का कहना है कि 90 फीसदी कालेज और 70 फीसदी विश्वविद्यालय औसत दर्जे से नीचे हैं। व्यावसायिक संस्थानों का नियमन करने वाली संस्था एआईसीटीई के मुताबिक़ 90 प्रतिशत कालेज उसके मानकों का पालन नहीं करते। इसीलिए हमारे नोबेल अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन कहते हैं कि भारतीय शिक्षा व्यवस्था आपात स्थिति में है। ज्ञान आयोग के अध्यक्ष सैम पित्रोदा को कहना पड़ता है कि हमारे विश्वविद्यालय 19वीं सदी के माइंड सेट में जी रहे हैं। अमर्त्य सेन को विश्वविख्यात नालंदा विश्वविद्यालय को पुनर्जीवित करने के लिए कुलाधिपति बनाया गया। इस बात को पांच साल होने को आए, लेकिन इस साल भी वह शुरू नहीं हो पाया। यहां की लाल फीताशाही से वे आजिज आ चुके हैं। मनमोहन सरकार के पिछले कार्यकाल में उच्च शिक्षा में विदेशी विश्वविद्यालयों के प्रवेश का बड़ा शोर था। लेकिन विदेशी विश्वविद्यालय विधेयक इस साल भी पास नहीं हो पाया। असल बात यह है कि यहां आने में किसी महत्वपूर्ण विश्वविद्यालय की दिलचस्पी भी नहीं रह गई है।
अभी तक महज छह विदेशी विश्वविद्यालय थोड़ी-बहुत हिस्सेदारी के साथ भारत में हैं। हार्वर्ड ने मुंबई में भारतीय उद्यम में एक कोर्स चलाने की घोषणा की थी लेकिन अभी तक उसका खाका सामने नहीं आया है। शिक्षा के क्षेत्र में विदेशी निवेश का लक्ष्य 30 फीसदी है, लेकिन अभी तक यह सिर्फ 15 प्रतिशत पर अटका हुआ है। दो लाख से अधिक विद्यार्थी हर साल पढ़ने के लिए विदेश चले जाते हैं और हर साल सात अरब डॉलर पानी में बहा देते हैं। उन्हें अपने देश के किसी विश्वविद्यालय पर भरोसा क्यों नहीं होता? यहां कालेज की दहलीज पर पैर रखने वाले छात्रों की सालाना तादाद साढ़े चार करोड़ है। ज्ञान आयोग कहता है कि 2020 तक 800 विश्वविद्यालय और होने चाहिए। क्योंकि तभी हम उच्च शिक्षा में 30 फीसदी दाखिले तक पहुच पाएंगे। यह अकेले सरकार के वश की बात नहीं है। जो स्वदेशी निजी विश्वविद्यालय खुल रहे हैं, उनका स्तर बहुत नीचे है, और विदेशी विश्वविद्यालय दृश्य से गायब हैं। यानी 2012 में भी हमारी शिक्षा का परिदृश्य कोई ऐसा संकेत नहीं दे गया, जिससे हम कह सकें कि अब हम बाकी दुनिया के साथ कदम मिलाकर चल सकते हैं। हम तो आज थाईलैंड, सिंगापुर, हॉन्गकॉन्ग, कोरिया से भी बहुत पीछे हैं। आखिर ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है कि हम बातें बड़ी-बड़ी करते हैं, लेकिन उन्हें धरातल पर उतारने में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं होती।
डिजिटल रेवॉल्यूशन फिर भी कुछ चीजें हैं जो आशा जगाती हैं। जाते-जाते यह साल आकाश टैबलेट का सुधरा हुआ संस्करण दे गया, जो छात्रों को 1800 रुपए का पडे़गा। इससे शिक्षा के क्षेत्र में एक डिजिटल क्रांति आने की उम्मीद है। राष्ट्रीय शिक्षा मिशन के तहत देश के 25 हजार कॉलेजों और 419 विश्वविद्यालयों को सूचना प्रौद्योगिकी के जरिये आपस में जोड़ने की शुरुआत हो चुकी है। आपस में जुड़कर ये संस्थान पढ़ाई की सामग्री साझा कर सकते हैं। भारतीय शिक्षा में अभी तक आईसीटी का खास इस्तेमाल नहीं हो पाया है। लेकिन यदि यह हो गया तो दूसरे और तीसरे दर्जे के शहरों के विद्यार्थी इससे बहुत लाभान्वित हो सकेंगे। नए वर्ष में एक बात यह अच्छी हो रही है कि तमाम इंजीनियरिंग व प्रौद्योगिकी संस्थानों की एक ही प्रवेश परीक्षा होने जा रही है, जिसमें 12 वीं के अंकों का भी महत्व रहेगा। इससे कोचिंग संस्थानों का दबदबा शायद कुछ कम हो। सुप्रीम कोर्ट की हरी झंडी मिल जाने के बाद शिक्षा के अधिकार को भी अब शायद पूरी तरह लागू किया जा सके। नए आर्थिक माहौल में हमारी शिक्षा व्यवस्था भी नई उड़ान भरना चाहती है। इसके लिए निजीकरण जरूरी है, लेकिन ध्यान रखना होगा कि निजी संस्थान कहीं डिग्री बांटने की दुकान बन कर न रह जाएं।

Saturday 22 December 2012

गंगा संरक्षण पर आईआईटी की पहल

अरुण तिवारी
 यूंतो गंगा संरक्षण का यह सन्नाटा दौर है। कहीं कोई बवाल न हो, इस डर से सरकार ने गंगा पर बनी अंतरमंत्रालयी समिति की रिपोर्ट को कुंभ तक के लिए टाल दिया है। ताज्जुब है कि इसका आभास होने के बावजूद 17 जून, 2012 को दिल्ली के जंतर-मंतर पर साधु-संतों के दिखाये दम ने चुप्पी साध ली है! उत्तराखंड की पनबिजली परियोजनाओं पर सवाल उठाते-उठाते जनता-नेता जैसे थक चुके हैं। राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण को लेकर विशेषज्ञ सदस्य खुद उठाये सवालों के जवाब नहीं मांग रहे हैं लेकिन इस सन्नाटे के दौर में आईआईटी ने उम्मीद की छोटी सी खिड़की खोली है। यदि निर्मल-अविरल गंगा चाहिए, तो जरूरी होगा सभी की राय का सम्मान और साझेदारी का ऐलान। आईआईटी, कानपुर ने दिल्ली में त्रिदिवसीय चर्चा आयोजित कर यही संदेश देने की कोशिश की। उसने ऐसे कई सुझावों से सहमति भी जताई है, लंबे समय से गंगा आंदोलनकारी जिनकी मांग करते रहे हैं जैसे जीरो डिस्चार्ज, प्रकृति के लिए ताजा जल और नदियों की जीवंत पण्राली छेड़े बगैर पनबिजली निर्माण, कार्यक्रम से पहले नीति, नदी सुरक्षा के लिए कानून, नदियों की जीवंत पण्राली को ‘नैचुरल पर्सन’ का दर्जा, उपयोगी नवाचारों को मान्यता और जननिगरानी आदि। उद्घाटन सत्र के दौरान देशी गंगा प्रेमियों से ज्यादा विदेशी निवेशकों व तकनीकी विशेषज्ञों की मौजूदगी को लेकर शंका व सवाल उठाये जा सकते हैं। योजना सरकार को स्वीकार्य होगी-नहीं होगी, लागू होगी-नहीं होगी, इस पर भी सवाल हो सकते हैं; लेकिन यदि आयोजित चर्चा को सच मानें, तो गंगा योजना को लेकर आईआईटी ने खुले दिमाग का परिचय दिया है। उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन पर्यावरणीय प्रबंधन योजना-2020 तैयार करने का संयुक्त जिम्मा देश के सात प्रमुख आईआईटी संस्थानों के पास है। आईआईटी, कानपुर और इसके अकादमिक प्रतिनिधि डॉ. विनोद तारे की भूमिका योजना निर्माण कार्य में संयोजक की है। सभी की राय का सम्मान करने का निर्णय खासतौर पर डॉ विनोद तारे की निजी सोच व प्रयासों का परिणाम है। गंगा कार्य योजना के योजनाकारों व क्रियान्वयन के कर्णधारों ने यही नहीं किया था। कालांतर में गंगा कार्य योजना के फेल होने का यह सबसे बड़ा कारण बना। उन्होंने इस सच को छिपाने की भी कोशिश नहीं की कि सरकारी अमले के पास भारत के जल संसाधन की वस्तुस्थिति की ताजा और समग्र जानकारी आज भी उपलब्ध नहीं है। डॉ तारे ने योजना से पहले उसका नीति दस्तावेज, सफल क्रियान्वयन सुनिश्चित करने के लिए कानून और नवाचारों को भी जरूरी माना। सब जानते हैं कि नदी पूर्णत: प्राकृतिक व संपूर्ण जीवंत पण्राली है। इसे ‘नैचुरल पर्सन’ के संवैधानिक दर्जे की मांग हाल में जलबिरादरी के मेरठ सम्मेलन में उठी थी। डॉ. तारे ने इससे सहमति जताई कि नदियों के अधिकार व उनके साथ हमारे व्यवहार की मर्यादा इसी दज्रे से हासिल की जा सकती है। उन्होंने कहा कि प्राकृतिक संसाधनों के सफल प्रबंधन के बगैर किसी भी राष्ट्र का सतत-स्वावलंबी आर्थिक विकास संभव नहीं। अत: सुनिश्चित करना होगा कि नदी पण्राली को नुकसान पहुंचाये बगैर पनबिजली निर्माण हो।इसके लिए क्या उचित व मान्य तकनीक हो सकती है? योजना इस पर काम करेगी। उन्होंने योजना के सफल क्रियान्वयन के लिए व्यापक व विकेन्द्रित जननिगरानी को भी उपयोगी माना। माना गया कि उद्योगों, होटलों व ऐसे अन्य व्यावसायिक उपक्रमों व रिहायशी क्षेत्रों से निकलने वाले शोधित- अशोधित मल-अवजल को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष किसी रूप में गंगा और उसकी सहायक धाराओं और प्राकृतिक नालों में डालना पूरी तरह प्रतिबंधित हो। यह मांग पहली बार गंगा ज्ञान आयोग अनुशंसा रिपोर्ट-2008 के जरिए सरकार के सामने रखी गई थी। गंगा संरक्षण के काम से जुड़े अधिकारी व तकनीकी लोग इसकी व्यावहारिकता पर सवाल उठाते रहे। सुखद है कि गंगा योजना ने ‘जीरो डिस्चार्ज’ हासिल करने को अपना लक्ष्य बनाया है। हालांकि प्रस्तावित लक्ष्य को औद्योगिक अवजल के अलावा एक लाख से अधिक आबादी यानी ए-श्रेणी शहरों के सीवेज तक सीमित रखा गया है, बावजूद इसके ‘जीरो डिस्चार्ज’ को लक्ष्य बनाना सकारात्मक संकेत है। सवाल है, तो सिर्फ यही कि ‘जीरो डिस्चार्ज’ लक्ष्य प्राप्ति की अवधि 25 से 30 साल रखी गई है और अनुमानित खर्च है सौ बिलियन डॉलर यानी पांच लाख करोड़ रुपये। इसके तौर-तरीके, व्यावहारिकता व संभावित दुष्प्रभावों की अभी से जांच जरूरी होगी। अवैज्ञानिक सिंचाई को अनुशासित कर नदी प्रवाह बनाये रखने वाला बहुत सारा भूजल तथा नहरों के जरिए पहुंचा सतही जल बचाया जा सकता है। रासायानिक उर्वरकों का प्रयोग प्रदूषण व पानी का खपत दोनों बढ़ाता है। कीटनाशकों का जहर बांटने का काम है ही। इन समस्याओं से निजात के लिए फसल चक्र में बदलाव करना होगा। मिश्रित खेती को प्राथमिकता देनी होगी। सिक्किम ने जैविक कृषि राज्य बनने की दिशा में प्रयास शुरू कर दिए हैं। पूरे देश की कृषि को ही जैविक कृषि की ओर मोङ़ना होगा, तभी हमारा खान-पान-स्वास्थ्य, मिट्टी-पानी-नदियां यानी पूरी कुदरत रासायनिक उर्वरकों के जहर से बच सकती है। योजना इससे भी इत्तेफाक रखती है कि ताजा पानी प्रकृति के लिए हो और उद्योग, ऊर्जा, कृकृषि, निर्माण जैसी विकास की आवश्यकताओं के लिए ‘वेस्ट वाटर’ यानी अवजल का इस्तेमाल हो। योजनाकारों ने औद्योगिक- व्यावसायिक-बागवानी प्रयोग के लिए जलापूर्ति की लागत के बराबर वसूली का प्रस्ताव रखा है। नीतिगत तौर पर यह तय करने व व्यावहारिक तौर पर लागू करने से ही मल व अवजल का शोधन तथा पुन: उपयोग सुनिश्चित होगा। उक्त नीतिगत उपायों को ‘नेशनल गंगा रिवर बेसिन एन्वायरन्मेंट मैनेजमेंट प्लान’ में जगह देकर आईआईटी संस्थानों ने नायाब पहल की है। लेकिन योजना लक्ष्य से भटके नहीं और सरकार सकारात्मक बिंदु लागू करे, कंपनियां लूटकर न ले जाने पायें; जन-जन को इसके लिए जागते रहना होगा।(ref-sahara)

Thursday 20 December 2012

निश्चिंत रहें, कल भी दुनिया आज जैसी ही रहेगी

शशांक द्विवेदी॥ 
Today my  Lead article in NBT (Navbharattimes) 
क्या 21 दिसंबर 2012 को, यानी कल दुनिया खत्म हो जाएगी? एक बार फिर से यह सवाल पूरी दुनिया में बहस का मुद्दा बन गया है। तारीख नजदीक आने के साथ ही भविष्यवाणियों, अनुमानों और दावों का नया दौर चल पड़ा है। इस बहस को दो तर्कों के आधार पर हवा दी जा रही है, जिनमें एक है माया सभ्यता (ईसा पूर्व 300-900) का कैलेंडर, और दूसरा माइकल द नास्त्रेदमस (1503-1566 ई.) की भविष्यवाणी। 

माया सभ्यता मैक्सिको, पश्चिमी होंडुरास और अल सल्वाडोर के आदिवासी इलाकों में चली आ रही पुरानी सभ्यता है। हजारों साल पहले बनाए गए इस सभ्यता के कैलेंडर में 21 दिसंबर 2012 के आगे किसी तारीख का कोई जिक्र नहीं है। इस वजह से माना जा रहा था कि इस दिन पूरी दुनिया समाप्त हो जाएगी। माया कैलेंडर की एक व्याख्या के मुताबिक 21 दिसंबर 2012 में एक ग्रह पृथ्वी से टकराएगा, जिससे सारी धरती खत्म हो जाएगी। 
क्या है माया कैलेंडर 
यह कैलेंडर इतना सटीक है कि आज के सुपर कंप्यूटर भी इसकी गणनाओं में सिर्फ 0.06 प्रतिशत तक का ही फर्क निकाल सके हैं। प्राचीन माया सभ्यता के काल में गणित और खगोल के क्षेत्र उल्लेखनीय विकास हुआ। अपने ज्ञान के आधार पर माया लोगों ने एक कैलेंडर बनाया था। इसी तरह चर्चित भविष्यवक्ता नास्त्रेदमस ने भी 2012 में धरती के खत्म होने की भविष्यवाणी की थी, हालांकि नास्त्रेदमस की किसी भी बात का कोई भी अर्थ लगाया जा सकता है। 

जर्मनी के वैज्ञानिक रोसी ओडोनील और विली नेल्सन ने 21 दिसंबर 2012 को एक्स ग्रह की पृथ्वी से टक्कर की बात कहकर पृथ्वी के विनाश की अफवाहों को और हवा दे दी। कुछ दिन पहले एक एस्टरॉयड पृथ्वी के करीब से गुजरा था। यह पृथ्वी से टकराता तो मानव जाति का विनाश हो सकता था। हालांकि वैज्ञानिकों का मानना है कि ब्रह्मांड के अरबों-खरबों आकाशीय पिंडों में कुछ के पृथ्वी से टकराने की आशंका भी रहती है, लेकिन यह मान लेना कि वे पृथ्वी से टकरा जाएंगे और पृथ्वी का विनाश हो जाएगा, सही नहीं कहा जा सकता। 

प्लैनेट एक्स या निबिरू 
ज्यादातर वैज्ञानिक मानते हैं कि पृथ्वी पर प्रलय अर्थात जीवन का विनाश सिर्फ सूर्य, उल्कापिंड या फिर सुपर वॉल्कैनो (महा ज्वालामुखी) ही कर सकते हैं। हालांकि कुछ वैज्ञानिक कहते हैं कि सुपर वॉल्कैनो पृथ्वी से संपूर्ण जीवन का विनाश करने में सक्षम नहीं हैं क्योंकि ज्वालामुखी चाहे कितना भी बड़ा हो, वह अधिकतम 70 फीसदी पृथ्वी को ही नुकसान पहुंचा सकता है। जहां तक सवाल उल्कापिंड का है तो अभी तक खगोलशास्त्रियों को पृथ्वी की घूर्णन कक्षा में ऐसा कोई उल्कापिंड नहीं दिखा है, जो पृथ्वी को प्रलय के मुहाने पर ला दे। नासा इस बात को सिरे से खारिज करता है कि धरती से प्लैनेट एक्स या निबिरू की टक्कर से दुनिया नष्ट हो जाएगी। नासा इस बात को एक कोरी बकवास से ज्यादा कुछ नहीं मानता। उसके अनुसार इस तरह के किसी ग्रह का अस्तित्व ही नहीं है। 

दुनिया के खात्मे की भविष्यवाणियों के बीच ग्वाटेमाला के जंगलों में मिले माया कैलेंडर के एक अज्ञात संस्करणसे खुलासा हुआ है कि अगले कई अरब वर्ष तक पृथ्वी पर मानव सभ्यता के अंत का कारण बनने वाली कोई भीप्रलयकारी आपदा नहीं आएगी। शूलतुन में माया सभ्यता के एक प्राचीन शहर के खंडहर मौजूद हैं। इन खंडहरोंकी एक दीवार पर यह कैलेंडर अंकित है। लगभग आधे वर्ग मीटर आकार के इस कैलेंडर के अच्छी हालात में होनेकी बात कही जा रही है। वैज्ञानिक इसे अब तक मिला सबसे पुराना माया कैलेंडर करार दे रहे हैं। उनका दावा हैकि यह कम से कम 1200 वर्ष पुराना होगा। यह कैलेंडर पत्थर की एक दीवार में तराशा हुआ है जबकि 2012में दुनिया के अंत की भविष्यवाणी करने वाले सभी माया कैलेंडर पुरानी पांडुलिपियों में मिलते हैं जिनमें अलगअलग चित्रों के माध्यम से अलग अलग भविष्यवाणियां की गई हैं। 

दुनिया के अंत के संबंध में समय समय पर कई प्रकार की भविष्यवाणियां की जाती रही हैं। इससे पहले 21 मई, 2011 और उससे पहले जून 2006 को दुनिया के विनाश का दिन बताया जा रहा था लेकिन यह बात झूठीसाबित हो गई। माया सभ्यता की कथित भविष्यवाणी के आधार पर हॉलीवुड में कई फिल्में बन चुकी हैं। कल्पनाको घटना बना कर 13 नवंबर , 2009 को हॉलीवुड में रोनाल्ड ऐमेरिक द्वारा निर्देशित फिल्म 2012 आई ,जिसमें सौर तूफान और येलोस्टोन ज्वालामुखी के विस्फोट के कारण विश्व की सभ्यता और पृथ्वी के विनाश काचित्रण किया गया है। फिल्मी विशेषज्ञों के अनुसार 2012 में दुनिया खत्म होने की अफवाह को असल में इसफिल्म के प्रचार के लिए ही हवा दी गई थी क्योंकि करोड़ों डॉलर बजट वाली इस फिल्म का विषय और दुनियाके खात्मे की भविष्यवाणी एक दूसरे की बड़ी मदद कर सकते थे। 

अधूरा ज्ञान और अंधविश्वास 
फिल्म रिलीज होकर हिट हो गई और इसके निर्माता ने कई करोड़ डॉलर कमा भी लिए लेकिन लोगों में भयअभी तक व्याप्त है। सवाल यह है कि क्या वाकई एक फिल्म के लिए प्रचार भर के लिए किसी को पूरी दुनिया मेंअफवाह फैलाने की इजाजत दी जा सकती है प्रलय संबंधी अधूरे ज्ञान और अंधविश्वास के चलते हॉलीवुड मेंकई फिल्में बन चुकी है किताबें लिखी जा चुकी है लेकिन इनकी कुल उपलब्धि यही है कि लोगों में अकारण भयऔर कौतूहल पैदा हुआ है और सामूहिक विनाश से जुड़ी मनमानी चर्चाओं का दौर चला है। आखिर वजह क्या हैजसारी दुनिया को प्रलय से पहले प्रलय की चिंता खाए जा रही है क्या कारण है जो लोगों को भयभीत कियाजा रहा है। अभी तक के अनुभवों से तो यही लगता है कि ऐसी अफवाहों के पीछे कुछ लोगों का छिपा हुआ एजेंडाकाम करता है जिसकी आड़ में वे अपना कोई न कोई उल्लू सीधा करना चाहते हैं।
NBT ARTICLE ON 20/12/2012
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