Friday 30 November 2012

विश्व एड्स दिवस पर विशेष


क्या एड्स का इलाज संभव है?
शशांक द्विवेदी 
आज विश्व एड्स दिवस है। एड्स एक खतरनाक बीमारी है जो इंसान को जीते जी मार देती है। असुरक्षित यौन संबंधों, दोषपूर्ण रक्त बदलने या अन्य कारकों से होने वाला यह रोग आज अपने भयानक रुप में पहुंच चुका है। पिछले दिनों अमेरिका की राजधानी वाशिंगटन डीसी में संम्पन्न हुए 19वें  अंतरराष्ट्रीय एड्स सम्मेलन में बहस का मुख्य मुद्दा एड्स के इलाज पर केंद्रित था । क्योंकि यह एक ऐसी बीमारी मानी जाती है, जिससे संक्रमित होने के बाद मृत्यु सुनिश्चित है। एचआइवी एड्स के बारे में पहली बार 1981 में पता चला था, तबसे लगभग 3 करोड़ लोगों की इस बीमारी से मौत हो चुकी है। पिछले साल ही पूरी दुनिया में इससे लगभग 17 लाख लोगों की मौत हुई। हालांकि, यह आंकड़ा साल 2005 के 23 लाख की अपेक्षा कम है। ऐसी उम्मीद की जा रही है कि आने वाले समय में यह संख्या और भी कम हो सकती है। लेकिन, अभी संख्या कम होने से समाधान नहीं हो जाता। यही वजह है कि कुछ लोग एंटी रेट्रोवायरल (एआरवी) से आगे की बात कर रहे हैं। हालांकि, अभी तक एचआइवी एड्स की इलाज का कोई कारगर तरीका नहीं निकल सका है, जिससे यह बीमारी पूरी तरह ठीक हो।
फिलहाल, एड्स को रोकने के लिए एंटी रेट्रोवायरल का ही इस्तेमाल किया जाता है। इसे रेट्रो वायरस, मुख्यतौर पर एचआइवी के संक्रमण से बचाव के लिए विकसित किया गया है। जब इस तरह की कई दवाइयों को एक साथ मिला दिया जाता है, तो यह उस सक्रिय एंटी रेट्रोवायरस थेरेपी या एचएएआरटी कहलाता है। पहली बार अमेरिकी स्वास्थ्य संस्था ने एड्स के रोगियों को इस दवा के इस्तेमाल का सुझाव दिया था। एंटी रेट्रोवायरल दवाइयों के भी विभित्र प्रकार है, जो एचआइवी के विभित्र स्टेज के लिए इस्तेमाल होते हैं। अब अमेरिका वैज्ञानिकों का कहना है कि उन्होंने एड्स फैलाने वाले एचआइवी वायरस के संभावित इलाज की ओर पहला कदम उठाया है। एचआइवी वायरस कई सालों तक मरीज के शरीर में बिना कोई हरकत किये पड़ा रहता है जिससे इसका इलाज करने में मुश्किलें आती हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक, कैंसर के खिलाफ इस्तेमाल होने वाली दवा (वोरीनोस्टैट) के इस्तेमाल से इस सुस्त प.डे वायरस को बाहर निकाला जाता है। इन वैज्ञानिकों ने आठ मामलों में इस वायरस पर हमला कर उसे सामान्य एंटी-रेट्रोवायरल दवाओं से खत्म कर दिया। लेकिन वैज्ञानिकों की इस टीम का कहना है कि दुनिया में एचआइवी से ग्रस्त तीन करोड़ लोगों के इलाज के लिए कारगर दवा को विकसित करने के लिए कई सालों तक शोध करने की जरूरत पड़ सकती है।
एचआईवी यानी ह्यूमन इम्यूनोडिफीशिएंसी वायरस. मानव की रोग प्रतिरोधक शक्ति को कम करने वाला यह विषाणु एक रेट्रोवायरस है जो मानव की रोग प्रतिरोधक प्रणाली की कोशिकाओं (मुख्यतः सीडी 4 पॉजिटिव टी) को संक्रमित कर उनके काम करने की क्षमता को नष्ट या क्षतिग्रस्त कर देता है।
यह विषाणु मुख्यतः शरीर को बाहरी रोगों से सुरक्षा प्रदान करने वाले रक्त में मौजूद टी कोशिकाओं (सेल्स) व मस्तिष्क की कोशिकाओं को प्रभावित करता है और धीरे-धीरे उन्हें नष्ट करता रहता है. कुछ वर्षाे बाद (6 से 10 वर्ष) यह स्थिति हो जाती है कि शरीर आम रोगों के कीटाणुओं से अपना बचाव नहीं कर पाता और तरह-तरह के संक्रमण (इन्फेक्शन) से ग्रसित होने लगता है, इस अवस्था को एड्स कहते हैं।
एचआइवी वायरस को खत्म करने के शोध में जुटे शोधकर्ताओं का कहना है कि एचआइवी का इलाज दशकों से शोधकर्ताओं को परेशान करता रहा है । दरअसल, एचआइवी हमारे जींस में जुड़ जाता है और कैंसर कोशिका जैसी प्रतिरक्षा प्रणाली यानी इम्यून सिस्टम से छिपा रहता है और इसका इलाज नहीं हो पाता है। उसके बाद जब एचआइवी वायरस सक्रिय नहीं होता तो अब तक उपलब्ध कोई भी इलाज इसके खिलाफ काम नहीं कर पाता। लेकिन जब यह सक्रिय होता है तो इस पर नियंत्रण ही नहीं हो पाता है। यह पहला मौका है जब हम सुस्त प.डे एचआइवी वायरस पर ही नियंत्रण पाने की ओर कदम उठा पायेंगे, जिससे इलाज का रास्ता खुलेगा।
30 सालों की लंबी लड़ाई के बाद पिछले दिनों अमेरिका ने एड्स की इस दवा त्रुवदा को मंजूरी दी। यह दवा एड्स को पनपने नहीं देती। वैज्ञानिकों का कहना है कि इसके इस्तेमाल से एड्स से बचाव हर हाल में किया जा सकता है। यह दवा उन हालातों में कारगर है, जहां व्यक्ति को एड्स होने का खतरा रहता है। सबसे बड़ी बात कि यह एड्स के लिए बनी पहली ऐसी दवा है जो उन लोगों को भी दी जा सकती है जो एड्स जैसी जानलेवा बीमारी से बचाव चाहते हैं, यानी जिन्हें एड्स नहीं है।
एड्स हो जाने के बाद इससे छुटकारा पाने की दुनिया में अभी कोई दवा नहीं बन पायी है। अभी तक जो भी दवाएं बनी हैं, वे सिर्फ बीमारी की रफ्तार कम करती हैं, उसे खत्म नहीं करतीं एचआइवी के लक्षणों का इलाज तो हो सकता है, लेकिन इस इलाज से भी यह बीमारी पूरी तरह खत्म नहीं होती है। एजेडटी, एजीकोथाइमीडीन, जाइडोव्यूजडीन, ड्राइडानोसीन स्टाव्यूडीन जैसी कुछ दवाइयां हैं, जो इसके प्रभाव के रफ्तार को कम करती हैं। लेकिन, ये इतनी महंगी हैं कि आम आदमी की पहुंच से बाहर हैं। अगर हम सिर्फ एजेडटी दवा की ही बात करें तो यदि एचआइवी से संक्रमित व्यक्ति इसका एक साल तक सेवन करता है, तो उसे साल भर के कोर्स के लिए एक से डेढ. लाखरुपये तक देना होगा। इन दवाओं के अलावा न्यूमोसिस्टीस कारनाई, साइटोमेगालो वायरस माइकोबैक्टीरियम, टोसोप्लाज्मा दवा उपलब्ध है। अब इम्यूनोमोडुलेटर प्रक्रिया का भी इस्तेमाल किया जाने लगा है। साथ ही, चिकित्सा वैज्ञानिक एड्स के वैक्सीन को विकसित करने पर काम कर रहे हैं। हालांकि, यह अभी प्रयोग के दौर से गुजर रहा है और इसे बाजार में आने में कई वर्ष लग जाएंगे। यह वैक्सीन भी इतना सस्ता नहीं होगा कि यह सभी के पहुंच में हो।
पूरी दुनिया में सभी स्थानीय सरकारें एचआईवी एड्स से बचे रहने के बारे में जागरूकता अभियान छेड़े हुए हैं। सभी सरकारें, स्वयंसेवी संस्थाए, सामाजिक कार्यकर्ता और स्वयंसेवक आम लोगों को यह बताने में अपनी पूरी ताकत लगा रहे हैं कि यह बीमारी छुआछूत से नहीं फैलती और इससे पीड़ितों के साथ सद्भावना से पेश आना चाहिए। लेकिन इसके ठीक उलट लोग एड्स से पीड़ित व्यक्ति को घृणा से देखते हैं और उससे दूरी बना लेते हैं। एचआईवी से संक्रमित व्यक्ति का राज खुलने पर उसके माथे पर कलंक का टीका लग जाता है। यह कलंक इस बीमारी से भी बड़ा होता है और पीड़ित को घोर निराशा का जीवन जीते हुए अपने मूलभूत अधिकारों और मौत के अंतिम क्षण तक एक अच्छी जिंदगी जीने से वंचित होना पड़ता है। बीमारी से दूरी, बीमार से नहीं दि कोलीशन फॉर इलिमिनेसन ऑफ एड्स रिलेटेड स्टिग्मा (सीईएएस) का कहना है कि अब वक्त आ गया है कि हम सभी एचआईवी एड्स को कलंक के रूप में प्रचारित करने की अपनी सोच और आचरण में बदलाव लाने के लिए चर्चा सत्र शुरू करें। हमें एचआईवी एड्स से जुडी हर चर्चा, प्रतिबंधात्मक उपाय और शोध का कार्य करते रहने के दौरान इससे जुड़े कलंक को खत्म करने के मुद्दे को भी शामिल करना चाहिए।

एड्स के नाम पर कारोबार


शशांक द्विवेदी 
पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूएनएड्स की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक हमारे देश में पिछले एक दशक में एचआईवी संक्रमण के नए मामलों में 56 प्रतिशत की कमी आई है। जिस तरह से एड्स के आंकड़ों के मामले में पिछले कुछ वर्षों में कुछ गैरसरकारी संगठनों ने विदेशी फंडिंग हासिल करने के लिए एड्स संक्रमित लोगों के आंकड़े बढ़ा-चढ़ाकर पेश किए, उसे देखते हुए किसी भी आंकड़े पर सहज विश्वास करना मुश्किल लगता है। लेकिन चूंकि यह आंकड़ा संयुक्त राष्ट्र की संस्था द्वारा जारी किया गया है, इसलिए इस पर विश्वास किया जा सकता है। कुछ लोग के लिए एड्स जानलेवा बीमारी हो सकती है लेकिन ज्यादातर लोग इसके नाम पर अपनी जेबे भर रहे है । नेता और अधिकारियो को एड्स के नाम पर विदेशो में धूमने से फुर्सत नही है । वही ज्यादातर गैर सरकारी संगठन चांदी काट रहे है। सरकार को तो यह तक पता नहीं कि एड्स नियंत्रण के काम पर कौन -सा संगठन कितना पैसा कहा खर्च कर रहा है 
         कुछ वर्ष पूर्व भाजपा नेता मुरली मनोहर जोशी ने संसद में बयान दिया था । उन्होने कहा ‘इन अवर कंट्री पीपल आर नाँट लिविंग विद एड्स , दे आर लिविंग आँन एड्स ‘अर्थात हमारे देश में लोग एड्स के साथ नहीं जी रहे हैं , बल्कि एड्स से अपनी रोजी-रोटी कमा रहें हैं । वाकई, आज देश एड्स माफिया के चंगुल में है । एड्स के नाम पर पैसे की बरसात हो रही है । विभिन्न इंटरनेशनल एजेंसीज एड्स के नाम पर अपनी सोच भी हम पर थोप रही है । दरअसल एच आई वी - एड्स के क्षेत्र में मिल रही विदेशी सहायता ने तमाम गैर सरकारी संगठनों को इस ओर आकर्षित किया है । नतीजन जो एन0 जी0 ओ0 पहले से समाज सेवा के लिए काम करते थे, वे अब खुद अपनी ‘सेवा’ के लिए एन0 जी0 ओ0 खोल रहे हैं । एड्स प्रोजेक्ट्स की बदंरबाट ने एच आई वी -एड्स का जमकर दुष्प्रचार किया है । एड्स के उपचार के लिए दवाओं और कंडोम के इत्तेमाल पर भी वैज्ञानिक एकमत नहीं हैं । सारे प्रयोग यहां होने से भारत दुनिया की लेबोरेटरी बन रहा है । देश में एड्स विशेषज्ञों का अभाव है साथ ही डाक्टर और पैरा मेडिकल स्टाफ भी इसको लेकर कई भ्रांतियां पाले हुए है । 
आज पूरी दुनिया में एच.आई.वी. और एड्स को लेकर जिस तरह का भय व्याप्त है और इसकी रोकथाम व उन्मूलन के लिए जिस तरह के जोरदार अभियान चलाये जा रहे हैं , उससे कैंसर, हार्टडिजीज, टी.बी. और डायबिटीज जैसी खतरनाक बीमारियां लगातार उपेक्षित हो रही हैं । और बेलगाम होकर लोगों पर अपना जानलेवा कहर बरपा रहीं है । पूरी दुनिया के आॅकडों की माने तो हर साल 


एड्स से मरने वालों की संख्या जहाँ हजारेां में होती है, वहीं दूसरी घातक बीमारियों की चपेट में आकर लाखों लोग अकाल ही मौत के मुंह में समा जाते हैं ।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार अगर हृदय रोग, कैंसर, मधुमेह और क्षय-रोग से बचने के लिए लोगों को जागरूक या इनके उन्मूलन के लिए कारगर उपाय नहीं किये गये तो अगले दस वर्षो ं में इन बीमारियेां से लगभग पौने चार करोड लोगों की मौत हो सकती है । इन बीमारियों की तुलना में एड्स से मरने वालों की संख्या काफी कम है । हमारे देश में 1987 से लेकर अब एड्स से मरने वालों की संख्या जहाॅ सिर्फ 12 हजार थी वहीं पिछले ही पिछलें ही वर्ष में केवल टी.बी. व कैंसर से 6 लाख से अधिक लोगों की मृत्यु हो गयी । परन्तु सरकारी और गैरसरकारी दोनों स्तरों पर सिर्फ एच.आई.वी. और एड्स की रोकथाम के लिए गम्भीरता है और इसी के लिए अति सक्रिय कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं । भारत में विभिन्न रोगों से होने वाली मृत्य  के दस सबसे प्रमुख कारणों में एचआईवी-एड्स नहीं है। लेकिन, केंद्र सरकार के स्वास्थ्य बजट का सबसे बड़ा हिस्सा एचआईवी-एड्स में चला जाता है। एड्स को लेकर विदेशी सहायता एजेंसियों के उत्साह के कई कारण हो सकते हैं, लेकिन भारत जैसे गरीब देश में इस समय डायरिया, टीबी और मलेरिया जैसी बीमारियों पर नियंत्रण पाने की ज्यादा जरूरत है, जिसे हर साल लाखों लोग मरते हैं। स्वास्थ्य नीतियों और बजट आवंटन करते समय यह ध्यान रखना होगा कि हर साल  लाखों लोग कैसर और टीबी से मरते है ।
अभी भी केंद्र सरकार एड्स नियंत्रण पर हर साल करोड़ रुपये का बजट तय कर रही है।उदाहरण के तौर पर एड्स पर वर्तमान सत्र 2012-13 में एड्स पर बजट 1700 करोड़ रुपये का है ।  केंद्रीय  राज्य सरकार का बजट अलग होता है। विदेशी अनुदान भी अतिरिक्त है। ध्यान देने वाली बात यह है कि एड्स के मामलों में साल दर साल कमी आ रही है लेकिन सरकारी बजट लगातार बढ़ रहा है । जबकि कैसर ,टीबी जैसी  अन्य जानलेवा बीमारियों का बजट इस अनुपात में काफी कम कम है । 
एड्स को लेकर पूरी दुनिया में जितना शोर मचाया जा रहा है । उतने तो इसके मरीज भी नहीं है फिर भी आज दुनिया भर के स्वास्थ्य के एजेंडे में एड्स मुख्य मुद्दा बना हुआ है । और इसकी रोकथाम के लिए करांेडों डालर की धनराशि को पानी की तरह बहाया जा रहा है यही नहीं अब तो अधिकांश गैरसरकारी संगठन भी जन सेवा के अन्य कार्यक्रमों को छोड़कर एड्स नियत्रंण अभियानों को चलाने में 

रूचि दिखा रहे है। क्योंकि इसके लिए उनको आसानी से अनुदान मिल जाता है और इससे नाम और पैसा आराम से कमाया जा सकता है । कुछ वैज्ञानिकों का तो यह भी मानना है कि एच.आई.वी. -एड्स 
के हौवे की आड़ में कंडोम बनाने वाली कम्पनियाँ भारी मुनाफा कमाने के लिए ही इन अभियानों को हवा दे रही हैं । तभी तो एड्स से बचाव के लिए सुरक्षित यौन संबंधों की सलाह तो खूब दी जाती है, पर संयम रखने या व्यभिचार न करने की बात बिल्कुल नहीं की जाती है । यानि कि खूब यौनाचार करो पर कंडोम के साथ । 
पर कहने का मतलब यह नहीं है कि एड्स की भयावहता के खिलाफ लोगों केा जागरूक न किया जाए । एच.आई.वी.-एड्स वाकई एक गंभीर बीमारी है और इसकी रोकथाम के लिए जन-जागरण अभियान जरूर चलाया जाना चाहिए, पर अन्य जानलेवा बीमारियों की कीमत पर कतई नहीं । विश्व स्वास्थ्य संगठन का मानना है कि थोड़े से प्रयासों एवं प्रयत्नों से ही हार्ट-डिजीज, डायबिटीज, डेंगू और कैंसर से होने वाली मौतों में 50से 60 प्रतिशत तक की कमी हो सकती है । 
भारत में एच.आई.वी.-एड्स के क्षेत्र में काम कर रही बिल गेट्स की संस्था ‘ दि इडिंया एड्स इनीशिएटिव आँफ बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउडेशन’ के अनुसार अभी भी भारत में, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में सेक्स, कण्डोम, एड्स के बारे में बात करने पर आज भी लोग काफी हिचकिचाहट महसूस करते हैं । यहाँ तक कि इस सम्बन्ध में टेलीविजन पर अगर कोई विज्ञापन भी प्रसारित हेाता है तो देखने वाले चैनल बदल देते हैं । फिर प्रश्न उठता है कि एड्स निवारण के नाम पर जो करोड़ो का फंड आता हे वो जाता कहाॅं है ? क्योंकि न तो इसके ज्यााद मरीज हैं, और जो मरीज हैं भी उन्हें भी सुनिश्चित दवा और सहायता उपलब्ध नहीं कराई जाती । वित्तीय अनियमितता अपने चरम पर है । एड्स नियत्रंण कार्यक्रम सिर्फ नोट कमाने का जरिया बनकर रह गये है वहीं एड्स की कीमत पर अन्य बीमारियों के लिए सरकार समुचित फंड और सुविधायें उपलब्ध नहीं करा पा रही है । 

Thursday 22 November 2012

उम्मीदों का नया “आकाश”


आकाश-2 टैबलेट पर विशेष 
लंबे इंतजार और तमाम विवादों के बाद आखिरकार दुनियाँ का सबसे सस्ता आकाश टैबलेट पीसी के नयें संस्करण आकाश 2 को पिछले दिनों  देश के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने विज्ञान भवन में एक कार्यक्रम में लॉन्च किया।  आकाश का मुख्य संस्करण पिछले साल अक्टूबर में मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा आकाश लॉन्च किया गया था । देश के युवाओं के लिए महत्वपूर्ण यह प्रोजेक्ट  तभी से विवादों और लालफीताशाही से घिर गया था । आकाश के मुख्य संस्करण में कुछ शिकायतों के बाद सरकार ने अब इसका उन्नत वर्जन आकाश 2 लॉन्च किया है । इसमें ज्यादातर शिकायतें कम बैटरी लाइफ और स्लो प्रोसेसर की थी । नए संस्करण में एंड्रायड-4 है। इसमें एक गीगाहट्र्ज का प्रोसेसर तथा चार घंटे तक चलने वाली बैटरी है। 
भारत के साथ साथ पूरे विश्व की निगाहे अब आकाश पर टिक गई है। आकाश-2 टैबलेट को इसी महीने 28 नवंबर को संयुक्त राष्ट्र में भी प्रदर्शित किया जाएगा । देश में आकाश टैबलेट की जबरदस्त माँग को देखकर लग रहा है कि  युवाओं में इसे लेकर काफी उत्साह और उत्तेजना का माहौल है । देश में कंप्यूटर शिक्षा के क्षेत्र में ये एक तकनीकी क्रांति के सफल या असफल  होने के पहले की उत्तेजना है, क्योकि इस क्रांति के सूत्रधार देश के गांव ,कसबे और शहरों सभी से जुड़े है । हर आम और खास में इसे पाने और देखने की ललक है। भारत में आकाश के माध्यम से शिक्षा के क्षेत्र में यह क्रांति सफल हो पायेगी या नहीं। यह तो भविष्य बतायेगा लेकिन यह तो तय है कि इस प्रोजेक्ट में काफी संभावनाएं है ।
लेकिन यह इस देश का दुर्भाग्य है कि सरकार लोगो को सपने तो दिखाती है लेकिन उनको पूरा करने की दिशा में ठीक ढंग से काम नहीं होता ।आकाश परियोजना के शुरू होते ही इस पर सवाल उठने लगे थे लेकिन सरकार ने उस समय इन बातो को अनसुना कर दिया था। अगर उसी  समय आकाश की कमियों को अपग्रेड कर दिया गया होता तो आज नए आकाश 2 को लाँच करने की नौबत नही आती। अब मानव संसाधन विकास मंत्री कह रहें है कि आकाश की भारी मांग को पूरा करने के लिए इसको बनाने में कई निर्माताओं को लगाया जायेगा और इसमें सुधार कर इसे लगातार अपग्रेड किया जायेगा ।
आकाश के मुख्य संस्करण में जो कमियाँ थी वो आकाश 2 में दूर करने का प्रयास किया गया है । मसलन  आकाश-2 का प्रोसेसर काफी तेज है और इसमें यू-टयूब से वीडियो डाउनलोड करने के साथ एंड्रॉयाड एप्लीकेशन की भी सुविधा है। इससे छात्रों को काफी सहूलियत होगी। आकाश-1 का टच पैनल इलेक्ट्रानिक   प्रतिरोधक प्रकृति का है जबकि आकाश-2 में मल्टी टच पैनल है। आकाश के प्रथम प्रारूप का प्रोसेसर 366 से 512  मेगाहर्टज का था जबकि आकाश-2 का प्रोसेसर 1 गीगाहर्टज का है। देश के सुदूर क्षेत्रों में प्रौद्योगिकी के जरिये उच्च शिक्षा को जोड़ने की कवायद के तहत सरकार ने आकाश परियोजना शुरू की थी। आकाश-1 की मेमोरी 2 जीबी है जबकि आकाश-2 की मेमोरी 4 जीबी क्षमता की है। आकाश के पहले प्रारूप का ऑपरेटिंग सिस्टम एंड्रॉयड 2.2 दर्जे का है जबकि आकाश-2 का ऑपरेटिंग सिस्टम एंड्रॉयड 4.03 दर्जे का है। आकाश-1 में कोई सेंसर नहीं है जबकि आकाश-2 में जी सेंसर जोड़ा गया है। आकाश-1 की बैटरी 2100 एमएएच क्षमता की है जबकि आकाश-2 की बैटरी की क्षमता 3000 एमएएच है। आकाश के पहले प्रारूप में कोई कैमरा नहीं है जबकि आकाश-2 में  वीजीए कैमरा और  वाईफाई कनेक्शन की सुविधा है।
वास्तव में इतने कम मूल्य में आकाश को एक अच्छा उपकरण माना जा सकता है। लिहाजा आगे आकाश जैसे और इनोवेशन की गुंजाइश बनी रहेगी। यह उपयोगी उपकरण हो सकता है, खासकर ई-बुक रीडिंग जैसी इंटरनेट रहित एप्लीकेशन के लिए। आनेवाले दिनों में आइपैड का कांसेप्ट हमारे आदतों को बदल सकता है। मसलन कागज के अखबार पढ़ने की जगह लोग इस पर ही देश-दुनिया की खबरें पढ़ा करेंगे।
यह महगें आईपैड का मुकाबला नहीं तो कर सकता लेकिन डिजिटल क्रांति से महरूम लोगों खास कर युवा पीढ़ी के लिए अहम साबित हो सकता है। वास्तव में आकाश टेबलेट लाने का मुख्य मकसद कंप्यूटिंग और इंटरनेट एक्सेस के लिए प्राइस बैरियर को तोडना है। इतने कम दाम में इतनी सारी चीजें समाहित करना कोई आसान काम नहीं है। अगर इस परियोजना के संचालक देश भर से उभरने वाली विशाल मांग को पूरा कर पाते हैं और यह परियोजना जमीनी स्तर पर सही ढंग से लागू की जाती है तो आने वाले वर्षो में कंप्यूटर शिक्षा और साक्षरता दोनों ही मोर्चो पर बड़ी उपलब्धियां अर्जित की जा सकती हैं इस साल के अंत तक उम्मीद है कि आकाश-2 एक लाख छात्रों को सब्सिडी दर पर 1132 रुपए में उपलब्ध कराया जाएगा, जबकि इसका बाजार मूल्य 2999 रुपए होगा। सरकार और आकाश बनाने वाली कंपनी डेटाविंड के बीच विवाद के बाद अब आकाश का पहला माँडल  बनाने वाली कंपनी डाटाविंड इस प्रोजेक्ट से  जुड़ी नहीं रहेगी और सरकार आकाश टैबलेट कंप्यूटर के विकास के लिये आईआईटी, सी-डैक तथा आईटीआई की सेवा ले रही है । मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अनुसार दुनिया का सबसे सस्ता टैबलेट कंप्यूटर पूरी तरह स्वदेशी है और इसका उन्नत संस्करण मौजूदा कीमत 2276 पर ही उपलब्ध होगा।
वास्तव में आकाश एक सस्ता टैबलेट ही नहीं है बल्कि यह इस बात की मिसाल भी बन सकता है कि भारत इस तकनीक का उपयोग कर देश के 22 करोड़ छात्रों को गरीबी से पार पाने व कमजोर शिक्षा का सामना करने का तकनीकी हथियार मुहैया कराने में सक्षम है। आकाश दरअसल भारत के लिए उपलब्धि है तो यह पश्चिमी देशों के लिए चुनौती भी है कि आखिरकार भारत ने इसे कैसे संभव कर दिखाया। आकाश के बारे में कई अनुपम आशाएं भी हैं। इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्रों का व्यक्तिगत और शैक्षणिक रिकॉर्ड आकाश टैबलेट के जरिए रखा जाएगा। इसके लिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय इंजीनियरिंग कॉलेजों को आकाश टैबलेट देगा।  इसका जिम्मा मंत्रालय ने आईआईटी मुंबई को सौंपा है। इसी को लेकर मंत्रालय ने पिछले दिनों देश के 245 इंजीनियरिंग कालेजों में  एक साथ  दो दिवसीय कार्यशाला आकाश  शिक्षा के लिए शुरू किया था । वास्तव में यह एक सकारात्मक प्रयास है जिससे इस परियोजना को व्यवहारिक तरीके से  शुरू करने में मदत मिलेगी ।
महत्वपूर्ण बात यह है कि दुनिया के सबसे सस्ते टेबलेट आकाश के विकास के लिए अंतरराष्ट्रीय कंपनियां भारत से जुड़ना चाहती हैं।क्योकि आकाश ने अंतरराष्ट्रीय नेताओं और कंपनियों का ध्यान आकर्षित किया है। आइबीएम और इंटेल जैसी कंपनियां बिना इसकी कीमत बढ़ाए आकाश की क्षमता बढ़ाने के लिए भारत के साथ भागीदारी करना चाहती हैं। इतने कम दाम में इस समय बाजार में आपको इंटरनेट कनेक्टिविटी वाले सस्ते फोन भी नहीं मिलेंगे, ऐसे में इसे टचस्क्रीन और टैबलेट एक्सपीरियंस के लिए बहुत बढ़िया एंट्री लेवल प्रॉडक्ट माना जा सकता है।
देश में परियोजनाएँ तो अच्छी सोच के साथ बनाई जाती है लेकिन उनका क्रियान्वयन ठीक ढंग से नहीं हो पता। यही वजह है कि इस प्रोजेक्ट पर विवादों के साथ काफी देर भी हुई । देश में आकाश की बढती मांगो को देखते हुए आपूर्ति के साथ साथ गुणवत्ता बनाये रखना सरकार की सबसे बड़ी चुनौती है। ये आगे आने वाला वक्त ही बताएगा कि सरकार इन चुनौतियो का सामना ठीक ढंग से करती है या अन्य परियोजनाओ की तरह इसे भी सिर्फ निजी कंपनियों या कुछ संस्थाओ के भरोसे छोंड दिया जायेगा।

Saturday 10 November 2012

जैव विविधता सहेजनें की जरुरत



पिछले दिनों जैव विविधता पर हैदराबाद में संपन्न हुए संयुक्त राष्ट्र संघ के 11 वें अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के  नतीजे बहुत उत्साह जनक नहीं रहें । 19 दिनों तक चलने वाले  इस  विश्व स्तरीय सम्मलेन में  192 देशों के लगभग 12000  प्रतिनिधियों ने भाग लिया लेकिन जैव विविधता को सहेजनें के लिए किसी विशेष कार्ययोजना पर सहमति नहीं बन पायी है । जबकि जैव विविधता पर ध्यान देनें के लिए ठोस क्रियान्वयन की सख्त जरुरत है । वैश्विक प्रयासों के बावजूद 2010 में तय किए गए जैव विविधता के लक्ष्या को पूरी तरह हासिल नहीं किया जा सका।
जैसा कि हर सम्मेलन में होता है इस बार भी हुआ जल, जंगल, जमीन के संरक्षण के जितने भी अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन और कार्यक्रम होते हैं, उनमें विकासशील और विकसित देशों के बीच आर्थिक मुद्दों पर विवाद होता है । इस सम्मेलन में जैव विविधता के भविष्य के लिए 30 प्रस्तावों पर विचार हुआ । इनमें से 28 पर सभी ने अपनी मुहर लगा दी । जिन दो पर सहमति नहीं बन पाई वे दोनों जैव विविधता को आर्थिक सहायता देने से संबंधित थे । इस कांफ्रेंस में विकासशील देशों के ग्रुप -77 की मांग थी कि विकसित देश आर्थिक योगदान बढ़ाए । लेकिन विकसित देश और विशेषकर यूरोपियन यूनियन के सदस्य इसे मानने के लिए तैयार नहीं हुए । विकसित देश अधिक जिम्मेदारी उठाना नहीं चाहते और  वो चाहते है कि विकासशील देश ही जैव विविधिता दुनिया में गर्म होती जलवायु, कम होते जंगल, विलुप्त होते प्राणी, प्रदूषित होती नदियों, सभी को बचाने  का काम करें । यहाँ तक कि इन कामों के लिए वे पर्याप्त आर्थिक मदत देने के लिए भी तैयार नहीं है । इस सम्मेलन में भी विकसित और विकासशील देशों के बीच यही मतभेद रहें । जैव विविधता के लिए आधुनिक विकास और प्रकृति संरक्षण दोनों के बीच संतुलित तालमेल बैठाना बहुत जरूरी है । नहीं तो इसका खामियाजा प्रकृति को भुगतना पड़ेगा । जैवविविधता पर संकट इसका ही नतीजा है।
समूचे विश्व में 2 लाख 40 हजार किस्म के पौधे 10 लाख 50 हजार प्रजातियों के प्राणी हैं। इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजनर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) 2000 की रिपोर्ट में कहा कि, विश्व में जीव-जंतुओं की 47677 प्रजातियों में से एक तिहाई से अधिक प्रजातियाँ यानी 15890 प्रजातियों पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है। आईयूसीएन की रेड लिस्ट के अनुसार स्तनधारियों की 21 फीसदी, उभयचरों की 30 फीसदी और पक्षियों की 12 फीसदी प्रजातियाँ विलुप्ति की कगार पर हैं। वनस्पतियों की 70 फीसदी प्रजातियों के साथ ताजा पानी में रहने वाले सरिसृपों की 37 फीसदी प्रजातियों और 1147 प्रकार की मछलियों पर भी विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है।
विश्व धरोहर को गंवाने वाले देशों की शर्मनाक सूची में भारत चीन से ठीक बाद सातवें स्थान पर है। पिछले दशक में भारत ने कम से कम पांच दुर्लभ जानवर लुप्त होते देखे हैं। इनमें इंडियन चीता, छोटे कद का गैंडा, गुलाबी सिर वाली बत्तख, जंगली उल्लू और हिमालयन बटेर शामिल हैं। ये सब इंसान के लालच और जगलों के कटाव के कारण हुआ है।
जैव विविधिता की चिंता अकेले किसी एक देश अथवा महाद्वीप की समस्या नहीं है और न ही कोई अकेला देश इस समस्या से निपटने हेतु उपाय कर सकता है। वैश्विक समुदाय को जैव विविधिता संकट के लिए जिम्मेदार माना जाता है और यह समस्या भी वैश्विक समुदाय की ही है। इसलिए सबकी नैतिक जिम्मेदारी है कि वे मिल जुलकर इस समस्या से निपटने के रास्ते तलाशें और जैव विविधिता को संरक्षित करने वाली योजनाओं को क्रियान्वित करें।  दुर्भाग्य से जैव विविधिता पर आयोजित किसी भी वैश्विक सम्मेलन और वार्ता के दौरान इसके लिए ईमानदार प्रयत्न नहीं दिखा है। वर्तमान में अपने विकास की दुहाई देकर जैव विविधिता का जिस प्रकार शोषण किया जा रहा है उसका दूरगामी दुष्परिणाम भी विकास पर ही देखने को मिलेगा। आज आवश्यकता यह है कि विकास के लिए जैव विविधिता के साथ बेहतर तालमेल बनाया जाए। आरंभ में विकास और जैव विविधिता को दो अलग -अलग अवधारणा के रूप में देखा जाता था, लेकिन बाद में यह महसूस किया गया कि विकास और जैव विविधिता को दो अलग-अलग हिस्से नहीं माना जा सकता। जैव विविधिता के संरक्षण के  बिना विकास का कोई महत्व नहीं है .
अंतरराष्ट्रीय संस्था वर्ल्ड वाइल्ड फिनिशिंग ऑर्गेनाइजेशन ने अपनी रिपोर्ट में चेतावनी दी है कि 2030 तक घने जंगलों का 60 प्रतिशत भाग नष्ट हो जाएगा। वनों के कटान से वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की कमी से कार्बन अधिशोषण ही वनस्पतियों व प्राकृतिक रूप से स्थापित जैव विविधता के लिए खतरा उत्पन्न करेगी। मौसम के मिजाज में होने वाला परिवर्तन ऐसा ही एक खतरा है। इसके परिणामस्वरूप हमारे देश के पश्चिमी घाट के जीव-जंतुओं की अनेक प्रजातियां तेजी से लुप्त हो रही हैं। एक और बात बड़े खतरे का अहसास कराती है कि एक दशक में विलुप्त प्रजातियों की संख्या पिछले एक हजार वर्ष के दौरान विलुप्त प्रजातियों की संख्या के बराबर है। जलवायु में तीव्र गति से होने वाले परिवर्तन से देश की 50 प्रतिशत जैव विविधता पर संकट है। अगर तापमान से 1.5  से 2.5  डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होती है तो 25 प्रतिशत प्रजातियां पूरी तरह समाप्त हो जाएंगी।
देश के प्राकृतिक संसाधनों का ईमानदारी से दोहन और जैव विविधता के संरक्षण के लिए सरकारी प्रयास के साथ साथ जनता की  सकारात्मक भागीदारी की जरुरत है । जनता के बीच जागरूकता फैलानी होगी, तभी इसका संरक्षण हो पायेगा । जैव विविधता के संरक्षण का सवाल पृथ्वी के अस्तित्व से जुड़ा है। इसलिए  विश्व के जीन पूल को कैसे बचाया जाए इस पर पूरी दुनियाँ को गंभीरता से विचार करते हुए ठोस निर्णय लेना होगा ।