Saturday 22 September 2012

स्वदेशी मंगलयान

भारत के मंगल अभियान पर विशेष 
सौवां मिशन पूरा करने के बाद भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने अगले वर्ष नवंबर में मंगल मिशन, मंगलयान छोड़ने की तैयारी शुरू कर दी है। यह मिशन पूरी तरह से स्वदेशी होगा। इस परियोजना पर करीब 450 करोड़ रुपए खर्च होंगे। यान के साथ 24 किलो का पेलोड भेजा जाएगा। इनमें कैमरे और सेंसर जैसे उपकरण शामिल हैं, जो मंगल के वायुमंडल और उसकी दूसरी विशिष्टताओं का अध्ययन करेंगे। मंगलयान को लाल ग्रह के निकट पहुंचने में आठ महीने लगेंगे। मंगल की कक्षा में स्थापित होने के बाद यान मंगल के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियां हमें भेजेगा। मंगलयान का मुख्य फोकस संभावित जीवन, ग्रह की उत्पत्ति, भौगोलिक संरचनाओं और जलवायु आदि पर रहेगा। यान यह पता लगाने की भी कोशिश करेगा कि क्या लाल ग्रह के मौजूदा वातावरण में जीवन पनप सकता है। मंगल की परिक्रमा करते हुए ग्रह से उसकी न्यूनतम दूरी 500 किलोमीटर और अधिकतम दूरी 80000 किलोमीटर रहेगी। यदि किसी कारणवश इस यान को अगले साल नवंबर में रवाना नहीं किया जा सका तो हमें मंगलयान की यात्रा के लिए अनुकूल दूरी का इंतजार करना पड़ेगा। दूसरा अवसर 2016 में ही मिल पाएगा। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान केंद्र (इसरो) के पूर्व अध्यक्ष प्रो. यू. आर. राव मंगलयान परियोजना के साथ सक्रिय रूप से जुड़े हैं।ं उनके नेतृत्व में गठित समिति ने मंगलयान द्वारा किए जाने वाले प्रयोगों का चयन किया है। प्रो. राव के अनुसार उनकी टीम ने मंगल के लिए कुछ नायाब किस्म के प्रयोग चुने हैं। एक प्रयोग के जरिए मंगलयान लाल ग्रह के मीथेन रहस्य को सुलझाने की कोशिश करेगा। मंगल के वायुमंडल में मीथेन गैस की मौजूदगी के संकेत मिले हैं। मंगलयान पता लगाने की कोशिश करेगा कि मंगल पर मीथेन उत्सर्जन का श्चोत क्या है। मंगल आज भले ही एक निष्प्राण लाल रेगिस्तान जैसा नजर आता हो, उसके बारे में कई सवाल आज भी अनुत्तरित हैं। हमारे सौरमंडल में अभी सिर्फ पृथ्वी पर जीवन है। शुक्र ग्रह पृथ्वी के बहुत नजदीक हैं, लेकिन वहां की परिस्थितियां जीवन के लिए एकदम प्रतिकूल हैं। मंगल भी पृथ्वी के बेहद करीब है, लेकिन उसका वायुमंडल बहुत पतला है, जिसमें ऑक्सीजन की मात्रा बहुत कम है। वहां कुछ चुंबकीय पदार्थ भी मौजूद हैं, लेकिन ग्रह का चुंबकीय क्षेत्र नहीं है। मंगaयान-2 की तैयारी कर रहे हैं। इस यान को 2014 में छोड़ने की योजना है। इस मिशन में एक परिक्रमा करने वाले आर्बिटर के अलावा एक रोबोटिक लैंडर और एक रोवर को शामिल किया जाएगा। लैंडर और रोवर चंद्रमा की सतह पर उतरने के बाद दक्षिणी ध्रुव के आसपास पानी और अन्य पदार्थो की खोजबीन करेंगे। रोवर अपनी एक रोबोटिक भुजा और दो उपकरणों के जरिए चंद्रमा की सतह की रासायनिक संरचना की जांच करेगी। यह चंद्र गाड़ी लैंडर के उतरने की जगह से एक किलोमीटर के दायरे में सतह पर भ्रमण करेगी। आर्बिटर और रोवर का निर्माण इसरो द्वारा किया जा रहा है, जबकि लैंडर का विकास रूस में हो रहा है। चंद्रयान-2 प्रोजेक्ट पर भारत को रूस के फैसले का इंतजार है। रूस ने चीन के साथ अपने संयुक्त अंतर-ग्रहीय मिशन के विफल होने के बाद ऐसे मिशनों की समीक्षा करने का फैसला किया है। इससे चंद्रयान-2 को भेजने में देरी हो सकती है। 

चीन की नई मिसाइल

पिछले दिनों न्यूयार्क टाइम्स ने अमेरिका के सैन्य एवं खुफिया अधिकारियों के हवाले से यह खबर प्रकाशित की कि चीन ने नई पीढ़ी की अंतरमहाद्वीपीय मिसाइल का विकास कर लिया है। इसे पनडुब्बी से लांच किया जा सकता है और यह मिसाइल कम से कम दस परमाणु हथियार ले जाने में भी सक्षम है। डोंगफोंग-41 के नाम से जानी जाने वाली यह इंटर कांटिनेंटल बैलिस्टिक मिसाइल (आइसीबीएम) को चलंत लांचिंग प्रणाली से दागा जा सकेगा। इस तकनीक के कारण इस मिसाइल को लांच करने से पहले इसका पता लगाकर नष्ट करना एक कठिन कार्य होगा। इस तरह चीन ने मिसाइल सुरक्षा प्रणाली से निपटने की ताकत मजबूत कर ली है। डोंगफोंग-41 मिसाइल 12000 से 14000 किलोमीटर की लंबी दूरी तक मार कर सकती है। अमेरिकी सैन्य एवं खुफिया अधिकारियों की इस नई रिपोर्ट के मुताबिक चीन के पास तकरीबन 55 से 65 आइसीबीएम श्रेणी की मिसाइलें हैं। अमेरिकी रक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि चीन पनडुब्बी से लांच की जाने वाली इस मिसाइल का प्रयोग अमेरिका की मिसाइल सुरक्षा प्रणाली से निपटने के लिए कर सकता है। चीन की इस मिसाइल की जद में भारत व अमेरिका के कई शहर आते हैं। उल्लेखनीय है कि चीन की पश्चिमी सीमा से न्यूयॉर्क की दूरी 6945 मील तथा पूर्वी सीमा से सिएटल की दूरी 4349 मील है। रिपोर्ट में यह भी उल्लेख है कि चीन ऐसी दो पनडुब्बियों को तैनात करने की योजना पर कार्य कर रहा है जिन पर 12 मिसाइलें तैनात की जाएंगी। चीन अपने पहले विमान वाहक पोत के समुद्री परीक्षण व अत्याधुनिक किस्म के लड़ाकू विमान जे-20 की उड़ान परीक्षण के बाद अपनी मिसाइलों की आधुनिकीकरण प्रक्रिया में लग गया है। चीन की डोंग फोंग-3 ए मिसाइल 2000 किलोग्राम थर्मो न्यूक्लियर आयुध के साथ लगभग 2800 किलोमीटर की दूरी तक मार करने में सक्षम है। इसमें तरल ईंधन का प्रयोग किया गया है। यह एक चरण वाली मिसाइल है। इसी श्रेणी की दो चरण व तरल ईंधन वाली डोंग फोंग-4 ए मिसाइल 5000 किलोमीटर तक मार कर सकती है। यह मिसाइल भी अपने साथ 2000 किलोग्राम थर्मो न्यूक्लियर वारहेड ले जा सकती है। इसी तरह डोंग फोंग-5 ए में भी तरल ईंधन का प्रयोग किया गया है। यह भी दो चरण वाली मिसाइल है, लेकिन यह 2000 किलोग्राम के थर्मो न्यूक्लियर वारहेड के साथ 10,000 किलोमीटर की दूरी तक की संहारक क्षमता रखती है। चीन के पास 11,500 किलोमीटर तक मार करने वाली मिसाइल डोंग फोंग-31 ए है जो दक्षिण एशिया क्षेत्र में कहीं भी निशाना साध सकती है। इसी तरह डोंग फोंग-31 मिसाइल 1000 किलोग्राम की परमाणु आयुध सामग्री के साथ 10000 किलोमीटर तक की संहारक क्षमता रखती है। चीन ने भारतीय सीमा पर परमाणु क्षमता से लैस डी.एफ.-21 मिसाइल को तैनात कर रखा है। इसकी मारक क्षमता 1700 से 3000 किलोमीटर है। मतलब यह है कि भारत के प्रमुख शहर कोलकाता, डिब्रूगढ़, नई दिल्ली व चंडीगढ़ आदि इसकी मारक जद में होंगे। यह 600 किलोग्राम वजन का परमाणु विस्फोटक ले जाने में सक्षम है जो किसी भी शहर के विध्वंस के लिए काफी है। चीन ने नई मिसाइल प्रणाली एसएएम की तैनाती कर दी है जो ऊंचे और बेहद नीची उड़ान भरने वाले लक्ष्यों को भेदने में सक्षम है। इस प्रणाली को रेड फ्लैग-16 नाम दिया गया है। चीन युद्धपोत रोधी मिसाइलों को प्रशांत महासागर में तैनात कर रहा है। यह डोंग फोंग-21डी मिसाइल का परिवर्धित रूप है। इनकी मारक क्षमता 20,000 किलोमीटर की दूरी तक है। चीन ने 12 जनवरी, 2010 को हवा में ही मिसाइल मार गिराने का सफल परीक्षण किया था। इससे पहले यह तकनीक केवल अमेरिका व रूस के पास ही थी। जनवरी 2007 में चीन ने सैटेलाइट निरोधक मिसाइल प्रणाली का सफल परीक्षण किया था। चीन की इस ताकत को देखते हुए अमेरिका व भारत को अपनी तैयारी में ढील नहीं देना चाहिए।  चीन की बढ़ती सैन्य ताकत पर डॉ. लक्ष्मी शंकर यादव की टिप्पणी (लेखक सैन्य विज्ञान विषय के प्राध्यापक हैं)

सवालों में तकनीकी शिक्षा

शिक्षा के व्यावसायीकरण पर शशांक द्विवेदी के विचार
दैनिक जागरण में प्रकाशित 
मैनेजमेंट और इंजीनियरिंग कॉलेजों में प्रवेश की प्रक्रिया शुरू होने के साथ ही तकनीकी शिक्षा से जुड़े तमाम फर्जी संस्थान भी सक्रिय हो जाते हैं। इस सिलसिले में आल इंडिया काउंसिल ऑफ टेक्निकल एजुकेशन यानी एआइसीटीई ने देश के 336 मैनेजमेंट और इंजीनियरिंग कॉलेजों को अवैध करार दिया है। जाहिर है इनके सर्टिफिकेट और डिग्री कहीं भी मान्य नहीं होंगे। इस सूची में उत्तर प्रदेश के 17, दिल्ली के 83, चंडीगढ़ के छह, हरियाणा के 15 हिमाचल प्रदेश का एक, पंजाब के छह तथा उत्तराखंड के दो संस्थान शामिल हैं। सबसे ज्यादा 123 कॉलेज अकेले महाराष्ट्र में हैं। यहां प्रमुख सवाल यही है कि वर्षो से ऐसे कॉलेज क्यों खुले हुए हैं और क्यों हर साल एआइसीटीई को ऐसी कार्रवाई करनी पड़ती है। दरअसल आज तकनीकी शिक्षा एक व्यवसाय बन गई है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि अब सरकार ही इसे व्यावसायिक बनाने पर तुली हुई है। विडंबना यह कि देश में तकनीकी शिक्षा के मौजूदा ढांचे को ठीक किए बिना ही विदेशी विश्वविद्यालयों को यहां आने की इजाजत दी जा रही है । मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल की मानें तो प्रत्येक उच्च शिक्षा संस्थान की मान्यता अनिवार्य बनाने के लिए इस वर्ष सरकार संसद में एक महत्वपूर्ण विधेयक लाने पर विचार कर रही है। मौजूदा शिक्षण संस्थानों को भी तीन साल के भीतर मान्यता प्राप्त करनी होगी। विधेयक में एक राष्ट्रीय प्राधिकरण के गठन का भी प्रस्ताव है जो मान्यता एजेंसियों का पंजीकरण और उन पर निगरानी रखेगी। यह विधेयक जरूरी है, लेकिन मौजूदा नियमों के अनुसार भी निजी संस्थान द्वारा संचालित कॉलेज एआइसीटीई की मान्यता के बिना प्रबंधन और तकनीकी शिक्षा नहीं दे सकते। देश में लगभग चार हजार कॉलेज इस संस्था से मान्यता लेकर विभिन्न विषयों की शिक्षा दे रहे हैं। देश में बिना मान्यता के चल रही कई संस्थाएं विदेशी विश्वविद्यालयों से मान्यता का दावा करती हैं, लेकिन देश में अभी विदेशी विश्वविद्यालयों को वैधानिक रूप से शिक्षा देने का अधिकार नहीं है। विदेशी विश्वविद्यालयों से मान्यता के संबंध में स्पष्ट कानून नहीं होने के कारण ही ऐसे इंस्टीट्यूट के संचालक कार्रवाई से बच जाते हैं। देश के अधिकांश निजी शिक्षा संस्थान बड़े व्यापारिक घरानों अथवा नेताओं और ठेकेदारों के व्यापार का एक हिस्सा हैं। जो केवल रुपया बनाना चाहते हैं। इन्होंने पूंजी के बल पर बडे़-बड़े आलीशान भवन खड़े कर रखे हैं। पर यह शैक्षणिक गुणवत्ता के मामले में फिसड्डी ही हैं। निजी क्षेत्र की संस्थाएं सस्ते वेतनमान पर किसी को भी शिक्षक बनाकर विद्यार्थियों को धोखा देने का काम कर रही हैं। इसका नतीजा शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट के रूप में सामने है। अगर यही सिलसिला चलता रहा तो आने वाले समय में हमारे समाज में घटिया दर्जे के स्नातकों की बड़ी फौज खड़ी हो जाएगी। देश में हर साल करीब साढ़े चार लाख छात्र इंजीनियरिंग करते हैं, लेकिन दिलचस्प बात यह है कि इन लाखों छात्रों में से 60 से 70 प्रतिशत छात्रों को कंपनियां काबिल नहीं मानतीं। देश में गरीबी के कारण अधिकांश माता-पिता अपने बच्चों को तकनीकी शिक्षा नहीं दिला पाते और वे पिछड़े के पिछड़े रह जाते हैं। यहां समझने वाली बात है कि तकनीकी शिक्षा की सीढ़ी वही छात्र पार कर पाते हैं जिनके अभिभावक आर्थिक रूप से सक्षम होते हैं। यहां एक बात और है जो छात्र लाखों रुपये खर्च कर किसी तरह पढ़ाई पूरी कर लेते हैं और बाद में जब वह अयोग्य बताए जाते हैं तो कहीं न कहीं हमारी शिक्षा व्यवस्था पर भी प्रश्नचिह्न खड़ा होता है। इन परिस्थितियों में अधिकतर छात्र इंजीनियरिंग की शिक्षा लेने के बाद बेरोजगारी का दंश झेलने को मजबूर होते हैं। तकनीकी और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सिर्फ विधेयक बनाने से ही कुछ नहीं होगा, बल्कि इसमें सुधार के लिए बुनियादी स्तर पर काम करना होगा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं) 
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Saturday 15 September 2012

इंजीनियर्स डे पर अखबारों में प्रकाशित मेरे लेख

नई दिशा की जरूरत
शशांक द्विवेदी
दैनिक जागरण,जनसंदेशटाइम्स और हरिभूमि में प्रकाशित
हरिभूमि 
देश में इंजीनियरिंग को नई सोच और दिशा देने वाले महान इंजीनियर भारत रत्न मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया की जयंती 15 सितंबर को देश में इंजीनियर्स डे (अभियंता दिवस) के रूप में मनाया जाता है। मैसूर राज्य (वर्तमान कर्नाटक) के निर्माण में अहम भूमिका निभाने वाले विश्वेश्वरैया अपने समय के सबसे प्रतिभाशाली इंजीनियर थे, जिन्होंने बांध और सिंचाई व्यवस्था के लिए नए तरीकों का ईजाद किया। उन्होंने आधुनिक भारत में नवीनतम तकनीक पर आधारित बांध बनाए और पनबिजली परियोजनाओं के लिए जमीन तैयार की। विश्वेश्वरैया ने कावेरी नदी पर उस समय एशिया का सबसे बड़ा जलाशय बनाया और बाढ़ बचाव प्रणाली विकसित कर हैदराबाद पर मंडराते बाढ़ के खतरे को खत्म किया। करीब 100 साल पहले जब साधन और तकनीक इतने विकसित नहीं थे, विश्वेश्वरैया ने आम आदमी की समस्याएं सुलझाने के लिए इंजीनियरिंग में कई तरह के इनोवेशन किए। असल में इंजीनियर वह नहीं है जो सिर्फ मशीनों के साथ काम करे, बल्कि वह है जो किसी भी क्षेत्र में अपने मौलिक विचारों और तकनीक से मानवता की भलाई के लिए काम करे। विश्वेश्वरैया को 1912 में मैसूर राच्य के राजा ने अपना दीवान नियुक्तकिया और 1918 तक इस पद पर रहते हुए उन्होंने सैकड़ों स्कूल, सिंचाई की बेहतर सुविधा और अस्पताल बनवाने जैसे अनेक विकासोन्मुखी कार्य किए। उनके नाम पर पूरे भारत खासकर कर्नाटक में कई शिक्षण संस्थान हैं। विश्वेश्वरैया को सर एमवी और आधुनिक मैसूर का पितामह भी कहा जाता है। 15 सितंबर, 1861 को कर्नाटक के कोलार जिले के चक्कबल्लारपुर तलुका के मुद्देनभल्ली गांव में उनका जन्म हुआ। गांव से प्रारंभिक शिक्षा पूरी कर उच्च शिक्षा के लिए वह बेंगलूर आए, लेकिन आर्थिक तंगी के चलते विपरीत परिस्थतियों का सामना करना पड़ा। फिर भी वह लक्ष्य से भटके नहीं। देश और समाज के निर्माण में एक इंजीनियर की रचनात्मक भूमिका कैसी होनी चाहिए यह उनसे सीखा जा सकता है। विश्वेश्वरैया न केवल एक कुशल इंजीनियर थे, बल्कि देश के सर्वश्रेष्ठ योजना शिल्पी, शिक्षाविद् और अर्थशास्त्री भी थे। तत्कालीन सोवियत संघ द्वारा वर्ष 1928 में तैयार पंचवर्षीय योजना से भी आठ वर्ष पहले 1920 में अपनी पुस्तक रिकंस्ट्रक्टिंग इंडिया में उन्होंने भारत में पंचवर्षीय योजना की परिकल्पना प्रस्तुत कर दी थी। 1935 में उनकी एक पुस्तक प्लान्ड इकोनॉमी फॉर इंडिया देश के विकास की योजनाओं के लिहाज से महत्वपूर्ण थी। 98 वर्ष की उम्र में भी उन्होंने प्लानिंग पर एक पुस्तक लिखी। बेंगलूर स्थित हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स की स्थापना में भी उनकी अहम भूमिका रही। अगर हम एक विकसित देश बनने की इच्छा रखते हैं तो आंतरिक और बाहरी चुनौतियों से निपटने के लिए हमें दूरगामी रणनीति बनानी पड़ेगी। देश की जरूरतों को पूरा करने के लिए भारतीय उद्योग के कौशल संसाधनों और प्रतिभाओं का बेहतर उपयोग करना जरूरी है। इसमें मध्यम और लघु उद्योगों की प्रौद्योगिकी के आधुनिकीकरण की अहम भूमिका हो सकती है। सर विश्वेश्वरैया ने देश के भावी इंजीनियरों को संदेश दिया था कि मानवता की भलाई को ध्यान में रखते हुए राष्ट्र निर्माण में अपना पूर्ण सहयोग दें। अपने कार्य और समय के प्रति लगन, निष्ठा और प्रतिबद्धता उनकी सबसे बड़ी विशेषताएं थीं। आजादी के समय हमारा इंजीनियरिंग और प्रौद्योगिकी ढांचा न तो विकसित देशों जैसा मजबूत था और न ही संगठित। बावजूद इसके प्रौद्योगिकी क्षेत्र में हमने कम समय में बड़ी उपलब्धियां हासिल कीं। हमारा प्रयास रहा है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के जरिए आर्थिक-सामाजिक परिवर्तन भी लाया जाए, जिससे देश के जीवन स्तर में संरचनात्मक सुधार हो सके। इस उद्देश्य को हासिल करने में हम कुछ हद तक सफल भी रहें हैं, लेकिन इंजीनियरिंग और प्रौद्योगिकी को आम जनमानस से पूरी तरह से जोड़ नहीं पाए हैं। आज देश को विश्वेश्वरैया जैसे इंजीनियरों की जरूरत है, जो देश को नई दिशा दे सकें। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं) इंजीनियर्स डे पर शशांक द्विवेदी के विचार
जनसंदेश टाइम्स
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Friday 14 September 2012

इसरो द्वारा भारतीय-फ्रांसीसी उपग्रह 'सरल' का प्रक्षेपण दिसंबर में


भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के प्रमुख के राधाकृष्णन ने बुधवार को कहा कि इस साल 12 दिसंबर को श्रीहरिकोटा में प्रक्षेपण यान पीएसएलवी सी-20 की मदद से ​भारतीय-फ्रांसीसी उपग्रह सरल को प्रक्षेपित किया जाएगा। उन्होंने बेंगलुरु स्पेस एक्सपो 2012 में कहा कि श्रीहरिकोटा में करीब 25 दिन में प्रक्षेपण यान पीएसएलवी सी-20 को रवाना होने के लिए तैयार किया जाएगा और उपग्रह को 12 दिसंबर 2012 को प्रक्षेपित किया जाएगा। प्रक्षेपण तारीख 12.12.12 होगी। 

राधाकृष्णन ने कहा कि यूरोपीय अंतरिक्ष संघ एरियानेस्पेस 22 सितंबर को देर रात ढाई बजे (भारतीय समयानुसार) फ्रेंच गुइयाना में कोउरोउ से भारतीय संचार उपग्रह जीएसएटी 10 का प्रक्षेपण करेगा। इसरो के अधिकारियों ने कहा कि फ्रेंच अंतरिक्ष एजेंसी सीएनईएस के अंतरिक्ष उपकरण एर्गोस और एल्टिका के साथ वाला सरल छोटा उपग्रह मिशन है जिसकी मदद से महासागर की स्थितियों और जलवायु को लेकर अध्ययन किया जाएगा। इस उपग्रह का निर्माण इसरो ने किया है और वह प्रक्षेपण का भी पूरा ध्यान रखेगा।

Thursday 13 September 2012

आकाश -कुसुम बना आकाश टैबलेट

आज के अमर उजाला कॉम्पैक्ट में आकाश टैबलेट पर मेरा विशेष लेख ,कहाँ गया आकाश टैबलेट ,कब मिलेगा आकाश टैबलेट .युवाओं से जुड़े सबसे बड़े प्रोजेक्ट का एक साल बाद क्या हुआ ..


अमर उजाला कॉम्पैक्ट
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इंटरनेट की दुनिया में हिंदी

हिन्दी दिवस पर विशेष 
पीयूष पांडे 
आज की दुनिया में इंटरनेट का दखल किस तरह से बढ. गया है, यह बात किसी से छिपी नहीं है. अक्सर यह कहा जाता है कि वर्तमान दुनिया सूचना महामार्ग पर स्थित है. लेकिन इस सूचना महामार्ग पर हिंदी के निशां अभी इतने गहरे नहीं हुए हैं कि उसके सहारे इस पूरी दुनिया को नापा जा सके. हालांकि, बीतते वक्त के साथ इंटरनेट की दुनिया से हिंदी की दोस्ती लगातार बढ.ती जा रही है, लेकिन अभी भी यह अंगरेजी तो क्या, चीनी भाषा के मुकाबले भी इंटरनेट पर अपनी मजबूत स्थिति दर्ज करा पाने में नाकाम रही है. इंटरनेट की दुनिया में हिंदी के हाल की पड़ताल करता यह आलेख..
इंटरनेट की दुनिया में हिंदी के विकास की बड़ी कहानी की शुरुआत बीते साल हो गयी थी, जब इंटरनेट पर डोमेन नाम देने के लिए जिम्मेदार अंतरराष्ट्रीय संस्था इंटरनेट कॉरपोरेशन फॉर असाइंड नेम्स एंड नंबर यानी आइसीएएनएन ने भारत सरकार की सात क्षेत्रीय भाषाओं में वेब पते लिखे जाने से जु.डे आवेदन को मंजूरी दे थी. इसी साल जून में आइसीएएनएन ने उच्च स्तरीय डोमेन नामों के लिए हुए आवेदनों की सूची जारी की तो इसमें देवनागरी लिपि के तीन नाम भी शामिल थे. यूं दुनिया की अलग-अलग भाषाओं में कुल 1930 आवेदन हुए, लेकिन देवनागरी में सिर्फ तीन आवेदनों का होना हैरान करता है, लेकिन यह नयी शुरुआत है. इस शुरुआत को वेब पतों पर अंगरेजी के प्रभुत्व खत्म होने की शुरुआत भी कहा जा सकता है. उम्मीद जतायी जा रही कि 2013 के शुरुआती महीनों में इंटरनेट पर देवनागरी में वेब पते लिखने की शुरुआत हो जायेगी. यह अपने आप में एक ब.डे बदलाव की ओर उठाया गया पहला कदम होगा. और मानें न मानें यह इंटरनेट की दुनिया में ब.डे बदलाव को जन्म देगा.

भारत में फिलहाल आठ करोड़ लोग इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं. दूरसंचार मंत्रालय की मानें तो 2015 तक यह आंकड़ा बढ.कर करीब 25 करोड़ तक पहुंच जायेगा. अब इंटरनेट का दायरा महानगरों और छोटे शहरों से निकलकर गांव-कस्बों तक पहुंच रहा है. सरकार की महात्वाकांक्षी ब्रॉडबैंड परियोजना अपने लक्ष्य में सफल रही तो इंटरनेट का विस्तार देखने लायक हो सकता है. दूसरी तरफ एक आंकड़ा यह भी है कि भारत की लगभग नब्बे फीसदी आबादी को अंगरेजी नहीं आती. यानी देश की बड़ी आबादी इंटरनेट से तभी जु.डेगी जब वह अपनी भाषा में इंटरनेट का इस्तेमाल कर सके.

अभी तक देश में इंटरनेट से दूरी की वजह सीमित पहुंच और बुनियादी सुविधाओं के साथ अंगरेजी ज्ञान की आवश्यकता भी रही है. इंटरनेट का मतलब अधिकांश लोगों के लिए आज भी वेब सर्फिंग और ई-मेल चेकिंगसे अधिक नहीं है. लेकिन, नेट से परिचय की इस शुरुआत के मूल में ही अंगरेजी जानने की दरकार होती है. देवनागरी में वेब पते स्थिति को बदल सकते हैं, क्योंकि इंटरनेट की दुनिया में प्रवेश इंटरनेट पतों से ही होता है.

हिंदी में वेबसाइट्स और ब्लॉग ने इंटरनेट की दुनिया में अपना परचम लहराया है और आज एक लाख से ज्यादा ब्लॉग हिंदी भाषा में हैं. यह अलग बात है कि सक्रिय ब्लॉग की संख्या कम है, लेकिन हिंदी भाषा में नियमित रूप से ब्लॉग और वेबसाइट्स का बनना हिंदी के विस्तार की कहानी कहता है. निश्‍चित तौर पर इस मोरचे पर काफी काम किये जाने की जरूरत है. सवाल हिंदी में सॉफ्टवेयर और कंप्यूटर पर हिंदी के सहारे काम करने की सुगमता को लेकर है. यूनीकोड ने कंप्यूटर पर हिंदी के लिए शानदार काम किया है. बेशक, इसके आने के बाद हिंदी और कंप्यूटर की दोस्ती मजबूत हुई है. लेकिन, कई तरह के की-बोर्ड को लेकर अभी भी भ्रम की स्थिति कायम है. आज भी हिंदी में एक सर्वमान्य की-बोर्ड नहीं है. की-बोर्ड में एकरूपता का न होना भी बड़ी समस्या है. इस चुनौती को साध लिया जाये, तो यह बड़ी छलांग होगी. कंप्यूटर में कमांड भी अभी तक हिंदी में नहीं दी जा सकतीं. हिंदी में खास ब्राउजर नहीं हैं. इपिकनाम का एक ब्राउजर चंद दिनों पहले आया भी था, लेकिन उसे भारत में ही लोकप्रियता नहीं मिल पायी. इन चुनौतियों से निपटा जा सके तो अंगरेजी न जानने वाले व्यक्ति के लिए भी कंप्यूटर पर काम करना आसान हो जायेगा. 

ब्लॉगर और लेखक अविनाश वाचस्पति हिंदी को अंगरेजी के हौवे से आजाद कराने की बात करते हैं. अविनाश कहते हैं, सोशल मीडिया हिंदी को लेकर जागरूकता फैलाने और हिंदी प्रेमियों के लिए एक मंच के तौर पर काम कर सकता है. लेकिन, देश का बड़ा ग्रामीण इलाका अभी इस रोशनी से दूर है. ग्रामीण इलाकों में बिजली की अनुपलब्धता भी सुरसा की तरह मुंह बाये खड़ी है. लेकिन, सवाल इस समस्या का हल निकालने का है, जिसमें अभी तक हमारी सरकारें नाकाम रही हैं.

इंटरनेट की गति को लेकर भी भारत अभी काफी पिछड़ा हुआ है. गूगल का एक जीबी प्रति सेकेंड के हिसाब से इंटरनेट सेवाएं मुहैया कराने का काम शुरू हो चुका है. कोरिया में इंटरनेट की गति सात एमबी प्रति सेकेंड है, वहीं भारत में औसत स्पीड अभी भी एक एमबी प्रति सेकेंड के आसपास ही बनी हुई है. सोशल मीडिया एक उम्मीद तो जगाता है, लेकिन यहां भी हिंदी में न तो कायदे के एप्लीकेशन हैं और न ही इनबिल्ट हिंदी की-बोर्ड़ जानकारी का अभाव भी एक बड़ी वजह है, जिसके चलते सोशल मीडिया की क्षमता का पूरा दोहन नहीं हो पा रहा है.

कुछ समय पहले ऑस्ट्रेलियाई सरकार की ओर से कहा गया था कि भारत भेजे जाने वाले राजनयिकों के लिए हिंदी जानना जरूरी नहीं है. उनका ऐसा कहने के पीछे तर्क यह था कि भारत में सारा काम अंगरेजी में हो जाता है. हालांकि चीन, जापान, इंडोनेशिया, ईरान आदि देशों में जाने वाले राजनयिकों के लिए वहां की भाषा आना जरूरी बताया गया था. यह वाकया वैश्‍विक स्तर पर हिंदी के प्रति हमारे स्वयं के बतर्ताव की बानगी भर है. हम खुद हिंदी के प्रति कितने गंभीर है और दुनिया हमें किस नजरिए से देखती है यह बात उसकी नुमाइंदगी ही करती है.

सवाल हमारे अपने बर्ताव को लेकर भी है. भारत सूचना क्रांति का अगुवा देश है. हमारे देश में सॉफ्टवेयर क्षेत्र की अग्रणी कंपनियां और जानकार हैं, लेकिन हिंदी को लेकर उनकी बेरुखी भी साफ नजर आती है. बेशक, हिंदी इंटरनेट की दुनिया में अपनी जगह मजबूत करती जा रही है, लेकिन अभी यहां भी उसे अभी लंबा रास्ता तय करना है. इंटरनेट के शुरुआती वक्त से ही इस पर अंगरेजी का दबदबा था. एक आंक.डे के अनुसार उस समय नेट पर अंग्रेजी 95 फीसदी से भी अधिक थी, चीनी कहीं नहीं. लेकिन, अब इंटरनेट पर चीनी भाषा का तेजी से विस्तार हो रहा है. 

अभिव्यक्ति पर अंकुश के तमाम आरोपों के बीच इंटरनेट की दुनिया में चीनी भाषा अपनी गहरी पैठ बनाती जा रही है. चीन का सबसे बड़ा सर्च इंजन बायडू उनकी अपनी भाषा में है. वहां की टॉप तीन सोशल नेटवर्किं ग साइट चीनी भाषा में हैं. अंतरजाल की इस दुनिया में चीनी भाषा की मौजूदगी पैंतीस फीसदी से भी ऊपर जा पहुंची है (विश्‍व की आबादी में चीनी भाषी आबादी का अनुपात करीब बाईस फीसदी है). 

भारत सरकार की ओर से इस दिशा में प्रयास होने चाहिए. इस संबंध में सक्रिय होना होगा. हिंदी में बात करने और काम करने को हेय दृष्टि से देखा जाता है, क्योंकि इसका आर्थिक पहलू बहुत कमजोर है. इस संबंध में भी खामियों को पहचान कर भी दूर किए जाने की जरूरत है. मोबाइल फोन पर भी इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की तादाद बढ.ती जा रही है, लेकिन यहां भी हिंदी कम ही नजर आती है. कुछ अपवादों को छोड़ दें तो अधिकतर अंतरराष्ट्रीय मोबाइल फोन निर्माता फोन को हिंदी में काम करने लायक बनाने को लेकर गंभीर नजर नहीं आते. इन मोबाइल फोनों में अंगरेजी के अलावा पुर्तगाली, रूसी और चीनी जैसी कई भाषाएं पहले से ही लोड होती हैं, लेकिन हिंदी यहां भी नजर नहीं आती. पाणिनी एक एप्लीकेशन है, जिसके जरिए एंड्रॉयड व अन्य कुछ मोबाइल फोन पर हिंदी की-बोर्ड इस्तेमाल किया जा सकता है. लेकिन, इसकी भी कुछ व्यवहारिक दिक्कतें हैं. वहीं दूसरी ओर जागरूकता का अभाव भी बड़ी वजह है कि मोबाइल फोन पर हिंदी नजर नहीं आती. न तो मोबाइल पर हिंदी में एप्लीकेशन हैं और न ही लोगों में हिंदी को लेकर उत्सुकता. कंपनियां तब तक ऐसा नहीं करेंगी, जब तक उन्हें इसमें बाजार नजर नहीं आएगा. हालांकि, निराश होने की जरूरत नहीं है. जानकारों का आकलन है कि करीब 70 फीसदी आबादी अपनी मातृभाषा में कंटेट पढ.ना चाहती है और ऐसे में हिंदी इंटरनेट पर तरक्की के नये आयाम छू सकती है. लेकिन, समस्या हिंदी में बेहतरीन कटेंट की कमी को लेकर भी है. आज भी इंटरनेट पर हिंदी में उच्च स्तरीय कटेंट अंगरेजी के मुकाबले बेहद कम है और इस दिशा में और काम किये जाने की जरूरत है.

हिंदी प्रेमी सेलेब्रिटी इंटरनेट पर हिंदी की स्थिति बेहतर बनाने में बड़ा योगदान दे सकते हैं. दिक्कत यही है कि अभी तक ऐसा दिखा नहीं है. अमिताभ बच्चन, प्रियंका चोपड़ा और शाहरुख खान जैसे सेलेब्रिटी के माइक्रोब्लॉगिंग साइट ट्विटर पर लाखों फॉलोअर्स हैं और उनका एक संदेश बार-बार री-ट्वीट होते हुए करोड़ों लोगों तक पहुंचता है. हिंदी सिनेमा के इन दिग्गजों का हिंदी के प्रचार-प्रसार में बड़ी भूमिका हो सकती है, लेकिन अभी तक इनकी तरफ से कोई ऐसी पहल नहीं दिखी.
2003 में हिंदी का पहला ब्लॉग बना. आज इंटरनेट पर हिंदी ब्लॉग्स की संख्या एक लाख से भी अधिक है, जिसमें 15 से 20 हजार सक्रिय और 5 से 6 हजार ब्लॉग्स अतिसक्रिय की श्रेणी में आते हैं.14 सितंबर 2011 को हिंदी दिवस के दिन माइक्रोब्लॉगिंग सोशल वेबसाइट ट्विटर को हिंदी भाषा में जारी किया गया था.32 फीसदी प्रयोक्ता भारत में हिंदी भाषा इस्तेमाल करते हैं इंटरनेट पर. इंटरनेट पर हिंदी प्रयोक्ताओं का स्थान अंगरेजी के बाद दूसरा है.15 डोमेन नाम इंटरनेट के लिए भारत की ओर से जून 2012 तक आवेदन किये गये. इनमें से तीन डोमेन नाम देवनागरी लिपि के थे.

Monday 10 September 2012

इसरो की ऐतिहासिक सफलता


अंतरिक्ष के क्षेत्र में इतिहास रचते हुए भारत ने आज अपने सौवें अंतरिक्ष मिशन को सफलतापूर्वक अंजाम दिया और पीएसएलवी सी21 के माध्यम से दो विदेशी उपग्रहों को उनकी कक्षा में स्थापित किया।
चेन्नई से करीब 110 किलोमीटर दूर स्थित सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से पीएसएलवी सी 21 सुबह नौ बज कर 53 मिनट पर रवाना हुआ। यह पूरी तरह वाणिज्यिक उड़ान थी और पीएसएलवी अपने साथ कोई भारतीय उपग्रह नहीं ले गया था। उसके साथ गए दो उपग्रह फ्रांस तथा जापान के थे। प्रक्षेपण के 18 मिनट बाद 44 मीटर लंबे पीएसएलवी सी21 ने फ्रांसीसी एसपीओटी 6 को और जापान के माइक्रो उपग्रह प्रोइटेरेस को उनकी कक्षा में स्थापित कर दिया। अंतरिक्ष के मलबे की टक्कर से बचने के लिए 51 घंटे की उल्टी गिनती के बाद प्रक्षेपण में दो मिनट का विलंब किया गया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने यहां सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र के मिशन नियंत्रण कक्ष से प्रक्षेपण का सिलसिलेवार पूरा घटनाक्रम देखा।
इस सफलता से प्रसन्न इसरो प्रमुख के राधाकृष्णन ने आज संवाददाताओं से कहा कि सफल मिशन के साथ ही एजेंसी ने 62 उपग्रह, एक स्पेस रिकवरी मॉड्यूल और 37 रॉकेटों का प्रक्षेपण कर लिया तथा इनकी कुल संख्या 100 होती है। प्रत्येक भारतीय रॉकेट के प्रक्षेपण को और प्रत्येक भारतीय उपग्रह को कक्षा में स्थापित किए जाने को एक-एक मिशन माना जाता है।
पोलर सैटेलाइट लॉन्च वेहिकल (पीएसएलवी) सुबह नौ बज कर 53 मिनट पर तेज आवाज के साथ फ्रांसीसी उपग्रह को लेकर अपनी 22 वींं उड़ान पर रवाना हुआ। कुल 712 किलोग्राम वजन वाला यह फ्रांसीसी उपग्रह भारत द्वारा किसी विदेशी ग्राहक के लिए प्रक्षेपित सर्वाधिक वजन वाला उपग्रह है। जापानी माइक्रो अंतरिक्ष यान का वजन 15 किग्रा है।  उल्लेखनीय है कि इसरो ने 19 अप्रैल 1975 में स्वदेश निर्मित उपग्रह आर्यभट्टके प्रक्षेपण के साथ अपने अंतरिक्ष सफर की शुरूआत की थी।भारत के सौवें अंतरिक्ष मिशन को शानदार सफलता करार देते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आज कहा कि यह भारतीय अंतरिक्ष उद्योग की वाणिज्यिक प्रतिस्पर्धा की श्रेष्ठता का गवाह है।
मिशन नियंत्रण केंद्र से सिंह ने आज पीएसएलवी-सी21 को अपने साथ दो विदेशी उपग्रहों को लेकर जाते देखा। उन्होंने कहा इसरो के सौवें मिशन के साथ ही आज का प्रक्षेपण हमारे देश की अंतरिक्ष क्षमताओं के लिए मील का एक पत्थर है।  ‘भारतीय प्रक्षेपक वाहन से इन उपग्रहों का प्रक्षेपण भारतीय अंतरिक्ष उद्योग की उत्कृष्टता का गवाह है और यह देश के नवोन्मेष तथा कौशल को समर्पित है।
उन्होंने फ्रांस के ईएडीएस एस्ट्रियम और जापान के ओसाका इन्स्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी को बधाई दी जिनके उपग्रह क्रमश: एसपीओटी 6 तथा प्रोइटेरेस को इसरो के पीएसएलवी ने अपनी अपनी कक्षा में सफलतापूर्वक स्थापित किया।  सफल मिशन के तत्काल बाद सिंह ने वैज्ञानिकों को हाथ मिला कर बधाई दी। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) और रूसी अंतरिक्ष एजेंसी रोस्कॉसमॉस के चंद्रमा के लिए संयुक्त मानव रहित इसरो अभियान चंद्रयान-2 मिशन रूस के नीतिगत निर्णय की प्रतीक्षा में अटक गया है। इसरो के अध्यक्ष के.राधाकृष्णन ने भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी के 100 वां अंतरिक्ष मिशन पूरा होने के अवसर पर आज एक संवाददाता सम्मेलन में बताया कि चीन के साथ साझा मिशन विफल हो जाने के मद्देनजर रूस अपने अंतरग्रही मिशनों की समीक्षा कर रहा है। इस कारण भारत के साथ उसके संयुक्त चंद्रयान-2 मिशन को लेकर निर्णय भी अटका हुआ है।  इस समय रूस चीन के साथ संयुक्त मिशन की विफलता के बाद अंतरग्रही मिशनों की समीक्षा कर रहा है। रूस ने कहा है कि वे समीक्षा पूरी करने के बाद इस संबंध में नीतिगत निर्णय लेंगे और फिर भारत से संपर्क करेंगें। चंद्रयान-2 मिशन 2014 में प्रस्तावित हैं तथा इसे भू-समकालिक उपग्रह प्रक्षेपण यान (जीएसएलवी) एम के 2 से प्रक्षेपित किया जाएगा। इसकी तैयारियां जोरों पर हैं। डा राधाकृष्णन ने चीन के साथ अंतरिक्ष में किसी तरह की प्रतिस्पर्धा होने की बात से इनकार करते हुए  कहा कि उसके मंगल मिशन का उद्देश्य वैज्ञानिक समुदाय के तौर पर और अधिक मूल्यवान चीजें सीखना है।

Friday 7 September 2012

इंजीनियरिंग की ढाई लाख सीटें खाली क्यों

शशांक द्विवेदी ॥ 
नवभारतटाइम्स में 07/09/12 को प्रकाशित
देश में इंजीनियरिंग का नया सत्र शुरू हो चुका है। इस सत्र में भी सभी राज्यों में बड़े पैमाने पर सीटें खाली रह गई है । इस बार पूरे देश में लगभग साढ़े तीन लाख से ज्यादा सीटें खाली रहीं। राजस्थान में तो 50 प्रतिशत से ज्यादा, लगभग 35 हजार सीटें खाली रह गईं । यही हाल उत्तर प्रदेश और आंध्र प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में भी है। पिछले इंजीनियरिंग सत्र में पूरे देश में ढाई लाख से ज्यादा सीटें खाली रह गई थीं। हालात ऐसे हो गए हंै कि पिछले दिनों देश के चौदह राज्यों से 143 तकनीकी शिक्षण संस्थानों को एआईसीटीई से अपने पाठ्यक्त्रम बंद करने की इजाजत मांगनी पड़ी। सीटें न भर पाने से देश के कई कॉलेजों में जीरो सेशन का खतरा पैदा हो गया है। कुछ साल पहले तक निजी तकनीकी शिक्षण संस्थान खोलने होड़ थी लेकिन अब इन्हें बंद करने की इजाजत मांगने वालों की लाइन लगी हुई है। अकेले आंध्र प्रदेश से ही 56 संस्थानों ने अपने पाठ्यक्रम बंद करने की इजाजत मांगी है।
बेकारी की मार
भारत में तकनीकी शिक्षा के हालात साल दर साल खराब होते जा रहे हैं। तकनीकी शिक्षा की यह स्थिति सीधे देश की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करेगी। इस बात पर राष्ट्रीय स्तर पर विचार-विमर्श किया जाना चाहिए कि लोगों का रुझान इंजीनियरिंग में कम क्यों हो रहा है और इतनी सीटें खाली क्यों छूट रही हैं। इंजीनियरिंग के दाखिलों में आ रही गिरावट के पीछे कुछ कारण पहली नजर में भी देखे जा सकते हैं। अपनी तकनीकी शिक्षा को हमने विस्तार तो दिया है, पर उसे व्यवहारिक और रोजगारपरक नहीं बना पाए हैं। ज्यादातर अभिभावक इंजीनियरिंग में अपने बच्चों का दाखिला इसलिए कराते हंै कि उनको डिग्री के बाद नौकरी मिले। छात्र भी इंजीनियर बनने के लिए नहीं, नौकरी पाने के लिए इंजीनियरिंग पढ़ते हैं। नौकरी की गारंटी पर ही लोगों का रुझान इस तरफ बना था लेकिन आज इंजीनियरिंग स्नातकों की एक पूरी फौज बेकार खड़ी है। लोगों में यह आम धारणा बन रही है कि जब बेरोजगार ही रहना है तो इतने पैसे खर्च करके इंजीनियरिंग क्यों करें। अधिकांश इंजीनियरिंग कालेजों में डिग्री के बाद प्लेसमेंट की गारंटी न होना मोहभंग का प्रमुख कारण है।
मंदी में भारी फीस
आर्थिक मंदी का भी प्रभाव इंजीनियरिंग के दाखिले पर पड़ा है। मंदी की वजह से बाजार में लिक्विड मनी कम हो रही है। जो अभिभावक पहले आराम से इंजीनियरिंग की फीस भर देते थे, वे अब ऐसा नहीं कर पा रहे हंै। मय के साथ इंजीनियरिंग की फीस भी पिछले पांच सालों में देश के कई हिस्सों में दो से तीन गुना तक बढ़ गई। उत्तर प्रदेश में 2001 से 2005 तक बी. टेक. की फीस 20 हजार रुपये सालाना थी, जो अभी लगभग एक लाख रुपये सालाना हो गई है। फीस वृद्धि और आर्थिक मंदी के साथ-साथ इस स्थिति के लिए कुछ हद तक कालेजों के संचालक भी जिम्मेदार हैं, जिन्होंने गुणवत्ता की ओर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया और इंजीनियरिंग कालेज खोलने को एक कमाऊ उपक्रम का हिस्सा मान लिया। अधिकांश निजी तकनीकी शिक्षा संस्थान बड़े व्यापारिक घरानों, नेताओं और ठेकेदारों के व्यापार का हिस्सा बन गए। वे इसके जरिए सिर्फ रुपया बनाना चाहते हैं। गुणवत्ता और छात्रों के प्रति जवाबदेही उनकी प्राथमिकता में नहीं है। इंजीनियरिंग के क्षेत्र में रुझान इसके चलते भी नकारात्मक हुआ है । 
इंजीनियरिंग स्नातकों में बेरोजगारी बढ़ने की मुख्य वजह इंडस्ट्री और इंस्टीट्यूट्स के बीच दूरी बढ़ना है। पिछले दिनों आईटी दिग्गज नारायणमूर्ति ने कहा था कि सूचना प्रौद्योगिकी इंडस्ट्री को प्रशिक्षित इंजिनियर नहीं मिलते। कॉलेज इंडस्ट्री की जरूरतों के हिसाब से इंजीनियर पैदा नहीं कर पा रहे हैं , जबकि इंडस्ट्रीज में कुशल मानव संसाधन की कमी है। देश के 13 राज्यों के 198 इंजीनियरिंग कॉलेजों में फाइनल ईयर के 34 हजार विद्यार्थियों पर हुए एक हालिया सर्वेक्षण के मुताबिक देश के सिर्फ 12 फीसदी इंजीनियर नौकरी करने के काबिल हैं। इस सर्वे ने भारत में उच्च शिक्षा की शर्मनाक तस्वीर पेश की है। यह आंकड़ा चिंता बढ़ाने वाला भी है , क्योंकि स्थिति सुधरने के बजाय दिनोंदिन खराब ही होती जा रही है ।
दरअसल , इंडस्ट्री की जरूरत और छात्रों के ज्ञान में कोई तालमेल ही नहीं है। इसकी मुख्य वजह यह है कि आज भी हमारे शैक्षिक कोर्स 20 साल पुराने हैं। पाठ्यक्रमों में सालोंसाल कोई बदलाव न होना उच्च शिक्षा की एक बड़ी कमी है। खासतौर पर इंजीनियरिंग में , क्योंकि इस क्षेत्र में नई - नई तकनीकें विकसित होती हैं। यही वजह है कि इंडस्ट्री के हिसाब से छात्रों को अपडेटेड थ्योरी नहीं मिल पाती। अभी छात्रों का सारा ध्यान थ्योरी रटकर परीक्षा पास करने पर होता है। घिसे - पिटे कोर्स से जो शिक्षा दी जाती है , उससे तैयार होने वाले ग्रेजुएट हर दिन बदलती तकनीकी दुनिया से तालमेल नहीं बिठा पाते। ऐसे में उन्हें डिग्री के बाद तुरंत जॉब मिलने की उम्मीद बहुत कम होती है।
सिर्फ आईआईटी की चिंता
चार साल इंजीनियरिंग करने के बाद उन्हें फिर अपना नॉलेज अपडेट करने के लिए विभिन्न प्रशिक्षण कोर्सेस में दाखिला लेना पड़ता है। तब जाकर उन्हें कंपनियों में एक प्रशिक्षु ( ट्रेनी ) के रूप में नौकरी मिल पाती है। दुर्भाग्य से देश में आम तकनीकी शिक्षा का स्तर सुधारने की कोई पहल भी नहीं हो रही है। इंजीनियरिंग कॉलेजों में इतने बड़े पैमाने पर सीटें खाली रहना बहुत बड़ा मामला है। अगर समय रहते इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो देश को इसके गंभीर परिणाम भुगतने पड़ेंगे। सरकार का सारा ध्यान आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थानों पर रहता है जबकि देश के विकास में निजी इंजीनियरिंग कालेजों का योगदान कहीं ज्यादा है। 95 प्रतिशत इंजीनियर यही कॉलेज पैदा करते है। अगर इनकी दशा खराब होगी तो इसका असर पूरे देश पर पड़ ेगा । 
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Wednesday 5 September 2012

दैनिक ट्रिब्यून - मानवता का समग्र दृष्टिकोण विकसित करे शिक्षा

आज मै जो कुछ भी हू जैसा भी हूँ ,अपने शिक्षकों की वजह से हूँ .उनके योगदान के बिना मै अपने जिंदगी की कल्पना भी नहीं कर सकता .आज शिक्षक दिवस पर उन सभी गुरुओं को सादर प्रणाम करते हुए शत शत नमन ,जिन्होंने मेरी जिंदगी इतनी सुन्दर बनाई .इस अवसर पर आज ट्रिब्यून ,डी एन ए और कल्पतरु एक्सप्रेस के सम्पादकीय पेज में प्रकाशित मेरे लेख मेरे शिक्षकों को समर्पित जिन्होंने मुझे इस काबिल बनाया कि मै कुछ लिख सकूँ ..

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शिक्षक दिवस पर डीएनए में मेरा लेख

डी एन ए 
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मूल्यों की शिक्षा कौन देगा ?



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अनास्था के दौर में शिक्षक का सम्मान


हरिवंश चतुर्वेदी, निदेशक, बिमटेक
पिछले 50 वर्षों से हम पांच सितंबर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाते आ रहे हैं। यह सिलसिला साल 1962 में शुरू हुआ था, जब सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारतीय गणराज्य के दूसरे राष्ट्रपति बने थे। आज शिक्षक दिवस एक रस्म-अदायगी भर रह गया। इस दिन स्कूलों में गुरु महिमा के गीत गाए जाते हैं और महामहिम राष्ट्रपति के हाथों कुछ शिक्षकों को पुरस्कार दिलाकर भारत सरकार भी अपना फर्ज निभा लेती है।

उत्सवधर्मी देश में शिक्षक दिवस को महज एक औपचारिकता बना  दिया गया है। यह कोई नहीं सोचता कि शिक्षक होने के क्या मायने और सरोकार होते हैं। क्या भारतीय समाज शिक्षकों को अब उतना सम्मान देता है, जितना किसी आईएएस, आईपीएस, इंजीनियर, डॉक्टर, वकील, पत्रकार और बैंक अधिकारी को दिया जाता है? शिक्षकों के वेतन-भत्ते बेहतर होने के बावजूद प्रतिभाशाली विद्यार्थी शिक्षक क्यों नहीं बनना चाहते? शिक्षक के पेशे में आज कोई आकर्षण क्यों नहीं देखा जाता? कभी शिक्षकों की पूजा होती थी, उनसे प्रेरणा ली जाती थी, पर आज हम क्रिकेट और फिल्म जगत के स्टार, धन कुबेरों से ज्यादा प्रभावित होते हैं।

शिक्षकों के बारे में समाज की धारणा पिछले 50 वर्षों में कैसे बदल गई, यह हमारे साहित्य और फिल्मों में शिक्षक पात्रों के चरित्र-चित्रण में देखा जा सकता है। 20वीं सदी के लेखकों यथा प्रेमचंद, शरत चंद्र, बंकिम चंद्र, रवीन्द्रनाथ टैगोर आदि ने अपनी रचनाओं में शिक्षकों को बहुत सकारात्मक रूप में चित्रित किया। भारतीय फिल्में भी आजादी से पहले और बाद में शिक्षकों को राष्ट्र निर्माता और एक आदर्श नायक के रूप में दिखाती रहीं। फिल्म गंगा-जमुना में जब अभिनेता अभि भट्टाचार्य इंसाफ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चल के  गाना स्कूली बच्चों के साथ गाते हैं, तो यह संदेश देते हैं कि शिक्षक भारतीय समाज के लिए एक जिम्मेदार भावी पीढ़ी तैयार करते हैं।

हाल की फिल्मों में शिक्षक एक हास्यास्पद चरित्र भर रह गया है। इन फिल्मों के शिक्षक एक सनकी, जिद्दी और तानाशाह के रूप में कहानी में आते हैं और विद्यार्थी वर्ग की मानसिकता से बिल्कुल कटे होते हैं। बॉलीवुड फिल्मों थ्री इडियटस और मुन्नाभाई एमबीबीएस में प्रिंसिपल को जिस रूप में पेश किया गया है, निश्चित रूप में वह एक नकारात्मक चरित्र है।

पिछलें 50 वर्षों में भारतीय समाज ज्ञान, विद्या, समानता, चरित्र निर्माण, भाईचारा, सद्भाव और सामाजिक प्रतिबद्धता जैसे मूल्यों के प्रति अपनी निष्ठा लगातार खोता गया है। इसके विपरीत धनलिप्सा, चालाकी, अवसरवादिता जैसे नकारात्मक मूल्य हमारे समाज पर हावी होते चले गए। इस दौर में शिक्षकों की पेशागत प्रतिबद्धताओं और योग्यताओं में भी लगातार क्षरण होते देखा गया। आजादी के बाद के प्रारंभिक दशकों में शिक्षकों की कार्यदशाएं और वेतन-भत्ते अन्य पेशों की तुलना में कम थे। नतीजतन पूरे देश में प्राथमिक, स्कूली और कॉलेज-यूनिवर्सिटी के शिक्षकों की यूनियनों ने उन्हें लामबंद करके लगातार आंदोलन किए।

शिक्षकों को राजनीतिक दलों ने विधानमंडलों और संसद के लिए भी नामित किए। इस राजनीतिकरण ने जहां उन्हें आर्थिक लाभ पहुंचाए, वहीं उन्हें शिक्षा के उन्नयन से लगातार विमुख किया। क्या हमारे राष्ट्रीय व प्रादेशिक शिक्षक संघ शिक्षकों की उदासीनता के लिए उत्तरदायी नहीं हैं? पिछले तीन दशक में चौथे वेतन आयोग से लेकर छठे वेतन आयोग की सिफारिशों के लागू होने से सरकारी कर्मचारियों की तरह शिक्षकों के वेतनमानों में भी लगातार वृद्धि हुई। 1977 में डिग्री कॉलेज के एक लेक्चरर को करीब एक हजार रुपये मासिक वेतन मिलता था, जो छठे वेतन आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद लगभग 35,000 रुपये तक पहुंच गया है, यानी कि 35 वर्षों में 35 गुना। भारतीय समाज में शिक्षकों की प्रतिष्ठा लगातार कम होने का कारण शिक्षकों का आर्थिक स्तर बढ़ने के साथ-साथ हिसाबदेयता और पेशागत प्रतिबद्घता में कमी होना भी है।

प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक, सभी जगह शिक्षकों का विद्यार्थियों से अलगाव बढ़ता जा रहा है। सरकारी स्कूलों, राज्य विश्वविद्यालयों व अनुदानित डिग्री कॉलेजों में शिक्षकों के कार्य दिवस कम होते जा रहे हैं। उत्तर भारत के कई राज्यों में डिग्री कॉलेजों और विश्वविद्यालय परिसरों में 100 दिन भी पढ़ाई नहीं होती। इसके लिए शिक्षकों से ज्यादा जिम्मेदारी कुलपतियों, प्राचार्यों और विभागाध्यक्षों की है, जो सख्ती बरतने का खतरा नहीं उठाते और दोषी शिक्षकों व विद्यार्थियों से जवाब-तलब नहीं करते। ग्रामीण भारत के  प्राइमरी स्कूलों व माध्यमिक विद्यालयों में हालत गंभीर है, क्योंकि अधिकांश शिक्षक शहरों व कस्बों में रहते हैं तथा पढ़ाई-लिखाई से उदासीन हैं।

यह सच है कि सभी शिक्षक अपनी जिम्मेदारी से नहीं भागते। शिक्षकों के एक बड़े वर्ग की दिलचस्पी सचमुच पढ़ाने-लिखाने में रहती है। हमारे देश में उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों की तादाद अभी हाल में 1.4 करोड़ बताई गई है। इन विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए जरूरी समुचित संसाधनों की कमी है। कक्षाएं, प्रयोगशालाएं, लाइब्रेरी, हॉस्टल, खेल आदि की सुविधाएं पर्याप्त और अच्छी क्वालिटी की नहीं हैं। देश के किसी भी कालेज या यूनिवर्सिटी कैम्पस में अगर आप जाएं, तो युवा विद्यार्थियों का अक्सर हुजूम दिखाई देगा। आम तौर पर इसका कारण कक्षाएं न लगना होता है। लेकिन इस भीड़भाड़ का एक मुख्य कारण युवा आबादी में हो रही बेतहाशा वृद्धि के साथ-साथ उच्च शिक्षा का समुचित विस्तार न होना भी है।

कल्पना करें कि 2025 तक उच्च शिक्षा में विद्यार्थियों की संख्या जब मौजूदा 1.4 करोड़ से बढ़कर 5.5 करोड़ हो जाएगी, तो क्या हाल होगा? विश्व के अन्य विकसित व विकासशील देशों की तुलना में हमारे पास कम शिक्षक उपलब्ध हैं। यूनेस्को के अनुसार, प्रति दस लाख आबादी पर भारत में 578 डिग्री शिक्षक हैं, जबकि उत्तरी अमेरिका में 3612, पूर्वी एशिया में 3205, चीन में 1199, लैटिन अमेरिका में 1608 और अरब देशों में 730 शिक्षक हैं।

दरअसल, हमारी शिक्षा से जुड़ी समस्याएं जितनी विराट हैं, उनका पुख्ता समाधान सरकार, शिक्षक और समाज के संयुक्त और दीर्घकालीन प्रयासों से ही संभव है। समाज और सरकार के अलावा शिक्षकों में भी आत्मालोचना की बड़ी जरूरत है। उन्हें नई शिक्षण पद्धतियों, सूचना प्रौद्योगिकी एवं 21वीं सदी के शिक्षाशास्त्र से प्रशिक्षित और सुसज्जित करने की जरूरत है। 1949 में जब सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारत के राजदूत के रूप में सोवियत रूस के राष्ट्राध्यक्ष जोसेफ स्टालिन से मिलने पहुंचे, तो स्टालिन खड़े हो गए और उन्हें कुरसी पर बैठाया। स्टालिन ने कहा कि मेरे लिए आप एक शिक्षक हैं, जो राजदूत से बड़ा होता है। क्या हमारे शिक्षकों को आने वाले दशकों में इतना मान-सम्मान मिल पाएगा?

Tuesday 4 September 2012

चीन में उच्च शिक्षा की समस्याएं

अनिल आजाद पांडेय
टेक ग्रेजुएट्स का टोटा चीन के युवा यहां के एजुकेशन सिस्टम से नाखुश हैं और वे अक्सर पश्चिमी देशों से अपनी तुलना करते हैं। युवाओं की शिकायत में सच्चाई भी है। अगर व्यावसायिक शिक्षा की बात करें तो चीन में तकनीशियनों की कमी महसूस की जा रही है। जिस तेजी से चीन विकास कर रहा है, उसके साथ शैक्षिक जगत तालमेल नहीं बिठा पा रहा है। विशेषज्ञों का कहना है कि चीन को बड़ी संख्या में पास होकर आ रहे ग्रेजुएट्स के बजाय तकनीकी ज्ञान रखने वाले युवाओं की जरूरत है। वैसे, पिछले कुछ वर्र्षो से चीन में उच्च शिक्षा पर विशेष फोकस रखा गया है, जिसके चलते ग्रेजुएट्स की संख्या में काफी इजाफा हुआ है। ऐसे में अधिकतर छात्र कॉलेज जाना चाहते हैं, पर वे वोकेशनल स्कूलों की तरफ आकर्षित नहीं होते। चीन में कई विश्वविद्यालय सैद्धांतिक ज्ञान पर जोर देते हैं, लेकिन छात्रों को उपयोगी कौशल सिखाने के लिए कुछ खास नहीं किया जा रहा। ऐसे में ये छात्र भी तकनीकी क्षेत्र में नौकरी के बजाय व्हाइट कॉलर जॉब करने की ख्वाहिश रखते हैं और ब्लू कॉलर जॉब के बारे में सोचते तक नहीं। हाल ही में मध्य चीन के हनान प्रांत की राजधानी चंगचो में आयोजित एक जॉब फेयर में 70 हजार यूनिवर्सिटी ग्रेजुएट्स में से 15 हजार ही नौकरी हासिल कर पाए, जबकि सीटें 90 हजार थीं। कई छात्रों ने तकनीकी क्षेत्र से जुड़ी अच्छे वेतन वाली नौकरी करने में भी रुचि नहीं दिखाई, उनका ध्यान कम वेतन वाले व्हाइट कॉलर जॉब्स पर था। तकनीकी क्षेत्र में शुरुआती मासिक वेतन 25 हजार रुपये है, जबकि विश्वविद्यालयों से ग्रेजुएट छात्रों का लगभग 15 हजार रुपये। बता दें कि चीन में युवाओं के लिए उनकी योग्यता के हिसाब से नौकरी हासिल करना मुश्किल होता जा रहा है। इस साल विश्वविद्यालयों से और 2 लाख छात्र ग्रेजुएट हो जाएंगे। यह कहना गलत नहीं होगा कि ऐसे में वे अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा वगैरह जाने की कोशिश करते हैं। कारण कि चीन की तुलना में उन्हें दूसरे देशों की राह आसान नजर आती है। वोकेशनल स्किल डवलपमेंट के निदेशक ताउ ह्वेइ कहते हैं कि एजुकेशन सिस्टम को अर्थव्यवस्था के विकास के साथ श्रम बाजार की मांग से मेल खाना चाहिए। वहीं, दूसरे अधिकारियों के मुताबिक वर्तमान शिक्षा तंत्र से श्रम संसाधनों की बर्बादी हो रही है। ऐसे में युवाओं को तकनीकी क्षेत्र की ओर आकर्षित करने के लिए विशेष जोर देना होगा। इसके लिए अधिक अनुकूल नीतियां तैयार करने के अलावा छात्रों को प्रोत्साहित करने की जरूरत है, ताकि वे तकनीकी काम को अपने करियर के तौर पर अपना सकें। वैसे सरकार इस बाबत चिंतित है और उसने वोकेशनल स्कूलों के विकास पर ध्यान देने के लिए अधिक वित्तीय मदद करने का ऐलान किया है। शिक्षा मंत्रालय ने 2015 तक मॉडर्न वोकेशनल एजुकेशन सिस्टम स्थापित करने का लक्ष्य निर्धारित किया है। करोड़ों का पेट केयर उद्योग चीन में लोगों की आर्थिक स्थिति मजबूत होने के अनुपात में ही पेट्स का चलन भी बढ़ रहा है। आप सुबह-शाम पाक या सड़क पर घूमने निकल जाइए, ये पशु प्रेमी महंगे और विदेशी नस्ल के कुत्तों को टहलाते हुए दिख जाते हैं। डॉग लवर्स की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है, वे न केवल इनके साथ समय बिताते हैं, बल्कि उनकी सेहत का भी खास खयाल रखते हैं। अब तो पेट केयर ने उद्योग का रूप ले लिया है। इस साल के अंत तक चीन का पेट केयर बाजार 1.2 अरब डॉलर तक पहुंचने का अनुमान है। अनुमान है कि 2017 तक इस उद्योग में 64 फीसद तक की बढ़ोतरी होगी। बीजिंग में एक पशु अस्पताल के निदेशक कहते हैं कि चीन में तमाम घरों में पेट्स परिवार के सदस्य की तरह रहते हैं। वर्ष 2000 के बाद चीन में पेट्स रखने वालों की संख्या 35 प्रतिशत बढ़ी है, जबकि 2007 के बाद इसमें 46 फीसद का उछाल आया है। एक कंपनी के मुताबिक अभी चीन के 3.3 करोड़ घरों में एक पेट जरूर है। अमीर परिवार इन पर खर्च भी काफी करते हैं। मिसाल के तौर पर दक्षिण चीन के शंचन शहर में एक कारोबारी चाव चंग हर महीने 20 हजार रुपये से ज्यादा अपने एक घोड़े की केयर पर खर्च करते हैं। इसके अलावा लगभग 5000 रुपये उसके विशेष भोजन के लिए भी तय हैं। घोड़े की देखभाल के लिए रखे व्यक्ति को 14 हजार रुपये माहवार मिलता है। हालांकि उन्होंने दो बिल्लियां भी पाली हुई हैं और उन पर भी हर महीने करीब 40 हजार रुपये का खर्च आता है। दूसरे अमीर भी ऐसा कर रहे हैं। (लेखक चाइना रेडियो, बीजिंग से जुड़े हैं)

Monday 3 September 2012

मई 2012 में प्रकाशित मेरे लेख

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