Tuesday 31 July 2012

कैसे दूर होगा बिजली संकट?


बिजली संकट पर विशेष 
देश में बिजली संकट लगाताार गहराता जा रहा है। देश अभी नार्दर्न ग्रिड फेल होने के संकट से पूरी तरह उबर नहीं पाया था कि अब  नार्दर्न के साथ-साथ ईस्टर्न ग्रिड भी फेल हो गया  है। इस संकट के चलते देश के 18  राज्यों में पावर सप्लाई ठप पड़ गई । उत्तर भारत के अलावा आज बिहार, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, असम, के अलावा कई राज्यों को बिजली के संकठ का सामना करना पड़ रहा है। पूर्वोत्तर में कई जगह 250 ट्रेनें फंसी हैं तो दिल्ली के पास करीब 150 ट्रेनों के फंसे होने की खबर है। दिल्ली में मेट्रो सेवा पूरी तरह से ठप पड़ गई है। ट्रेनें पटरियों पर खड़ी रह गई हैं। लोगों को खासा परेशानी का सामना करना पड़ रहा है
पूरे उत्तर भारत में एक साथ बिजली आपूर्ति के बंद होने से साफ है कि कोई बहुत बड़ी समस्या है। यह समस्या बहुत हद तक बिजली की माग व आपूर्ति को लेकर है। देश के आधे से ज्यादा राज्यों में वर्तमान बिजली संकट की मुख्य वजह राज्यों द्वारा तय सीमा से ज्यादा बिजली उपयोग करने को लेकर है जिसकी वजह से ग्रिड फेल हो गए . इस स्थिति से निकलने का एक ही रास्ता है कि पूरे बिजली क्षेत्र में जबरदस्त सुधार की प्रक्रिया शुरू की जाए। सरकार अगर चाहती है कि भविष्य में इस तरह की घटना दोबारा न हो तो उसे दो काम तुरंत करने चाहिए। पहला, बिजली प्लाटों को कोयले की आपूर्ति सुनिश्चित करवाए। दूसरा, राज्यों के बिजली वितरण निकायों को सुधारे। विशेषज्ञों का कहना है कि देश के आधे हिस्से में एक साथ बिजली कटौती होने से काफी नकारात्मक संदेश जाएगा। यह न सिर्फ पावर क्षेत्र में निवेश करने की योजना बना रही कंपनियों को डरा सकता है, बल्कि अन्य उद्योगों में पैसा लगाने वाले उद्यमी दोबारा सोचने पर मजबूर हो सकते हैं। खास तौर पर सरकार अभी 12वीं पंचवर्षीय योजना के लिए बिजली परियोजनाओं को अंतिम रूप देने में लगी है। इस योजना में पहले 85 हजार मेगावाट बिजली क्षमता जोड़ने का लक्ष्य रखा गया था। अब आर्थिक विकास दर के घटने की संभावना को देखते हुए सरकार बिजली उत्पादन के संभावित लक्ष्य को भी कम करने पर विचार कर रही है। इस बारे में अगले महीने फैसला होगा। यह तो पहले ही साफ हो गया है कि 12वीं योजना में गैस आधारित बिजली प्लाट नहीं लगेंगे। इसी वजह से गैस आधारित बिजली प्लाटों का भविष्य अनिश्चित दिख रहा है .कोयले की अनिश्चितता से अल्ट्रा मेगा पावर प्रोजेक्ट भी लटके है .देश के कई राज्य बिजली क्षेत्र में सुधार को आगे बढ़ाने में सुस्ती दिखा रहे है साथ में कई राज्यों में  के बिजली वितरण निकायों की स्थिति बदहाल है .इन सबके साथ ही नीतिगत अस्पष्टता से बैंक प्राइवेट पावर प्लांट  को कर्ज देने में आनाकानी करते है जिससे इन योजनाओं पर असर पड़ता है ।
भारत में 22 हजार मेगावाट बिजली इसलिए नहीं बन पा रही है, क्योंकि उसके लिए पर्याप्त मात्रा में ईधन नहीं है। वहीं, देश के अधिकाश हिस्से बिजली की भारी कमी से दो चार हैं। पूरा बिजली क्षेत्र जबरदस्त संकट से गुजर रहा है। नई बिजली परियोजनाओं को कोयला लिंकेज नहीं मिल रहे हैं। जिन बिजली प्लाट को लिंकेज मिले भी है उन्हें पर्याप्त कोयला नहीं मिल रहा है। हालात इतने बिगड़ गए हैं कि प्रधानमंत्री कार्यालय [पीएमओ] के हस्तक्षेप के बावजूद स्थिति नहीं सुधर रही।
ऊर्जा मंत्री के अनुसार राज्यों द्वारा बिजली की अत्यधिक खपत के चलते यह संकट खड़ा हुआ है। फिक्की के अनुसार कोयला आपूर्ति में बाधा नहीं दूर की गई तो देश की बिजली इकाइयों के सामने बंदी का संकट पैदा हो सकता है। यह जल्दी ही आने वाले बिजली संकट का संकेत है। देश के  विकास की कहानी ऊर्जा की सप्लाई और निरंतरता के आधारभूत प्रश्नों पर टिकी हुई है। ऊर्जा के बिना आर्थिक सुधार कार्यक्रमों का भी जारी रखना संभव नहीं हो सकेगा। इसलिए यह भारत के लिए सबसे बड़ा संकट है। लेकिन हमारी सरकार ने ऊर्जा के बारे में इन विभिन्न चुनौतियों को लगातार नजरअंदाज किया है। कोयले पर ध्यान, तेल सौदों की हमारी तलाश और पारंपरिक विकास के मॉडल पर हमारा जोर यह सब उसी पुरानी शैली की अर्थव्यवस्था के संकेत हैं जो नई वास्तविकताओं को नकार रही है। इसलिए अब हमें वैकल्पिक उर्जा स्रोतों पर गंभीरता से विचार करना होगा . ऊर्जा का भारी संकट देश के लिए आर्थिक रूप से विनाशकारी होगा। लेकिन हमारी सबसे बड़ी चुनौती यह है कि हमारे पास कोई रूपरेखा नहीं है। अब कोयले और तेल के मूल्यों की बढ़ती कीमतें हमारी स्थिति को चुनौती दे रही है।
देश के कई बिजलीघर कोयले के संकट का सामना कर रहे हैं। हमारे 86 बिजलीघरों में कोयले को ईंधन के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। घरेलू उत्पादन में कमी होने के कारण कोयले का आयात भी काफी बढ़ गया है, जिससे अंतरराष्ट्रीय बाजार में कोयले की कीमतें और बढ़ गई हैं। कोयले की आपूर्ति में गिरावट के कारण देश के कई इलाकों में बिजलीघर ठप होने के कगार पर पहुंच गए हैं। इस बिजली संकट के लिए कोयला मंत्रालय और ऊर्जा मंत्रालय समान रूप से जिम्मेदार हैं। हमारे बिजलीघर अपनी उत्पादन क्षमता का पूरा उपयोग नहीं करते हैं। इनमें निर्धारित क्षमता का पचास फीसदी उत्पादन भी नहीं होता है। कहीं कोयले का संकट है तो कहीं संयंत्र पुराने पड़ चुके हैं। राज्यों को जो बिजली मिलती है उसमें भी एक तिहाई से अधिक बिजली की लाइन लास के नाम पर चोरबाजारी की जाती है। बड़े-बड़े बकायेदारों के खिलाफ कार्रवाई नहीं की जाती। हमारे राजनेताओं और अधिकारियों को जहां अपनी काबलियत और कौशल को दिखाना चाहिए वहां वे नकारा साबित होते हैं। यही कारण है कि हमारी बिजली परियोजनाएं बहुत पीछे चल रही है।

विकसित भारत के लक्ष्य को बिना  बिजली के कैसे प्राप्त किया जा सकता है। जब बिजली की विकास दर 8.3 फीसदी से घटकर 3.3 फीसदी हो गई तो वर्तमान विकास की दर को बनाए रखना भी एक चुनौती ही होगी। कई राज्य सरकारों की लोकलुभावन योजनाओं से भी बिजली संकट गहराया है। किसानों और बुनकरों को मुफ्त बिजली देने की घोषणाओं से बिजली सुधार के कार्यक्रमों को झटका लगा है। बिजली क्षेत्र में सुधारों की असफलता भारत के आर्थिक उदारीकरण का सबसे बदनुमा दाग है। बिजली चोरी और सरकार की लोकलुभावन योजनाओं से राज्यों की बिजली वितरण कंपनियों का घाटा (2005-10 के बीच) 820 अरब रुपये पर पहुंच गया। बिजली पर दी जा रही सब्सिडी इसके अलावा है। इन कंपनियों के 70 फीसदी घाटे बैंकों के कर्ज से पूरे हुए हैं। राज्यों की बिजली कंपनियों व बोर्डों पर बैंकों की बकायेदारी 585 अरब रुपये की है, जिसमें 42 फीसदी कर्ज के पीछे सरकारों की गारंटी है। अर्थात अगर बिजली कंपनियां डिफाल्ट होती हैं तो प्रदेश सरकारों के पास 60 फीसदी कर्ज देने लायक संसाधन ही नहीं हैं। बिजली बोर्ड डूबे तो एक नए किस्म का वित्तीय संकट आ सकता है। सूबों को यदि बचना है तो उन्हें बिजली कंपनियों में घाटे के इन तारों को बंद करना होगा।
तरक्की की बयार ने देश की तस्वीर बदलकर रख दी है। जीवन का स्तर ऊंचा उठा है तो बिजली की मांग ने भी सुरसा की तरह मुंह फैलाया है। घर-घर में बढ़े उपकरणों ने बिजली की मांग को जिस तेजी से बढ़ाया है उससे सरकारों के हाथ-पांव फूल गए हैं। असह्यं गर्मी के इस दौर में आए दिन जाम लग रहे हैं और लोग बिजली दफ्तरों को घेर रहे हैं। कानून व्यवस्था की स्थिति गड़बड़ा रही है। रिश्वत और कमीशनखोरी के मकड़जाल में फंसी सरकारी मशीनरी खुद को लाचार पा रही है। पुरानी बिजली परियोजनाएं कभी पूरा उत्पादन कर नहीं पाईं, नई परियोजनाओं के लिए स्थितियां दूभर हैं। खतरा देश की तरक्की की रफ्तार के प्रभावित होने का है।

कहीं आँखों में ही ना रह जाये पानी !!


पिछले दिनों “सत्यमेव जयते” कार्यक्रम  में जब अभिनेता आमिर खान ने जल संरक्षण का मुद्दा उठाया तो लगा कि अगर हमने अभी भी पानी की बर्बादी नहीं रोकी और इसे संरक्षित करने की दिशा में ठोस कदम नहीं उठाया तो वह दिन दूर नहीं जब देश के अंदर ही पानी को लेकर दंगे फसाद और बड़ी लड़ाईया शुरू हो जायेंगी । हम विकास की जिस बेहोशी में जी रहें है उसनें  आज हमारी जमीन को बंजर बना दिया , अधिकांश नदियों ,तालाबों ,झील ,पोखरों का अस्तित्व मिट गया । गंगा ,यमुना जैसी जीवन दायिनी नदियों को हम नालों में तब्दील कर रहें है । शहरों में कंक्रीट के जंगलों के बीच हम इतने बेसुध हो गए है कि हमें भविष्य के खतरे की आहट ही नहीं सुनाई पड़ रही है । वास्तव में जल ही जीवन का आधार है ,जल के बिना जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती .
 धरातल पर तीन चैथाई पानी होने के बाद भी पीने योग्य पानी एक सीमित मात्रा में ही है। उस सीमित मात्रा के पानी का इंसान ने अंधाधुध दोहन किया है। नदी, तालाबों और झरनों को पहले ही हम कैमिकल की भेंट चढ़ा चुके हैं, जो बचा खुचा है उसे अब हम अपनी अमानत समझ कर अंधाधुंध खर्च कर रहे हैं। जबकि भारतीय नारी पीने के पानी के लिए रोज ही औसतन चार मील पैदल चलती है। 
भारत में विश्व की लगभग 16 प्रतिशत आबादी निवास करती है। लेकिन, उसके लिए मात्र 3  प्रतिशत पानी ही उपलब्य है। विकास के शुरुआती चरण में पानी का अधिकतर इस्तेमाल सिंचाई के लिए होता था। लेकिन, समय के साथ स्थिति बदलती गयी और पानी के नये क्षेत्र-औद्योगिक व घरेलू-महत्वपूर्ण होते गये। भारत में जल संबंधी मौजूदा समस्याओं से निपटने में वर्षाजल को भी एक सशक्त साधन समझा जाए। पानी के गंभीर संकट को देखते हुए पानी की उत्पादकता बढ़ाने की जरूरत है। चूंकि एक टन अनाज उत्पादन में 1000 टन पानी की जरूरत होती है और पानी का 70 फीसदी हिस्सा सिंचाई में खर्च होता है, इसलिए पानी की उत्पादकता बढ़ाने के लिए जरूरी है कि सिंचाई का कौशल बढ़ाया जाए। यानी कम पानी से अधिकाधिक सिंचाई की जाए। अभी होता यह है कि बांधों से नहरों के माध्यम से पानी छोड़ा जाता है, जो किसानों के खेतों तक पहुंचता है। जल परियोजनाओं के आंकड़े बताते हैं कि छोड़ा गया पानी शत-प्रतिशत खेतों तक नहीं पहुंचता। कुछ पानी रास्ते में भाप बनकर उड़ जाता है, कुछ जमीन में रिस जाता है और कुछ बर्बाद हो जाता है। 
पानी का महत्व भारत के लिए कितना है यह हम इसी बात से जान सकते हैं कि हमारी भाषा में पानी के कितने अधिक मुहावरे हैं। अगर हम इसी तरह कथित विकास के कारण अपने जल संसाधनों को नष्ट करते रहें तो  वह दिन दूर नहीं, जब सारा पानी हमारी आँखों के सामने से बह जाएगा और हम कुछ नहीं कर पाएँगे। पानी के बारे में एक नहीं, कई चैंकाने वाले तथ्य हैं। विश्व में और विशेष रुप से भारत में पानी किस प्रकार नष्ट होता है इस विषय में जो तथ्य सामने आए हैं उस पर जागरूकता से ध्यान देकर हम पानी के अपव्यय को रोक सकते हैं। अनेक तथ्य ऐसे हैं जो हमें आने वाले खतरे से तो सावधान करते ही हैं, दूसरों से प्रेरणा लेने के लिए प्रोत्साहित करते हैं और पानी के महत्व व इसके अनजाने स्रोतों की जानकारी भी देते हैं।दिल्ली, मुंबई और चेन्नई जैसे महानगरों में पाइप लाइनों के वॉल्व की खराबी के कारण रोज 17 से 44 प्रतिशत पानी बेकार बह जाता है। इजराइल में औसतन मात्र 10 सेंटी मीटर वर्षा होती है, इस वर्षा से वह इतना अनाज पैदा कर लेता है कि वह उसका निर्यात कर सकता है। दूसरी ओर भारत में औसतन 50 सेंटी मीटर से भी अधिक वर्षा होने के बावजूद अनाज की कमी बनी रहती है। ध्यान देने की बात यह है कि यदि ब्रश करते समय नल खुला रह गया है, तो पाँच मिनट में करीब 25 से 30 लीटर पानी बरबाद होता है।जबकि  विश्व में प्रति 10 व्यक्तियों में से 2 व्यक्तियों को पीने का शुद्ध पानी नहीं मिल पाता है। नदियाँ पानी का सबसे बड़ा स्रोत हैं। जहाँ एक ओर नदियों में बढ़ते प्रदूषण रोकने के लिए विशेषज्ञ उपाय खोज रहे हं। वहीं कल कारखानों से बहते हुए रसायन उन्हें भारी मात्रा में दूषित कर रहे हैं। ऐसी अवस्था में जब तक कानून में सख्ती नहीं बरती जाती, अधिक से अधिक लोगों को दूषित पानी पीने का समय आ सकता है। जल नीति के विश्लेषक सैंड्रा पोस्टल और एमी वाइकर्स ने पाया कि बर्बादी का एक बड़ा कारण यह है कि पानी बहुत सस्ता और आसानी से सुलभ है। कई देशों में सरकारी सब्सिडी के कारण पानी की कीमत बेहद कम है। इससे लोगों को लगता है कि पानी बहुतायत में उपलब्ध है, जबकि हकीकत उलटी है।
समय आ गया है जब हम वर्षा का पानी अधिक से अधिक बचाने की कोशिश करें। बारिश की एक-एक बूँद कीमती है। इन्हें सहेजना बहुत ही आवश्यक है। यदि अभी पानी नहीं सहेजा गया, तो संभव है पानी केवल हमारी आँखों में ही बच पाएगा। पहले कहा गया था कि हमारा देश वह देश है जिसकी गोदी में हजारों नदियाँ खेलती थी, आज वे नदियाँ हजारों में से केवल सैकड़ों में ही बची हैं। कहाँ गई वे नदियाँ, कोई नहीं बता सकता। नदियों की बात छोड़ दो, हमारे गाँव-मोहल्लों से तालाब आज गायब हो गए हैं, इनके रख-रखाव और संरक्षण के विषय में बहुत कम कार्य किया गया है।
ऐसा नहीं है कि पानी की समस्या से हम जीत नहीं सकते। अगर सही ढ़ंग से पानी का सरंक्षण किया जाए और जितना हो सके पानी को बर्बाद करने से रोका जाए तो इस समस्या का समाधान बेहद आसान हो जाएगा। लेकिन इसके लिए जरुरत है जागरुकता की। एक ऐसी जागरुकता की जिसमें छोटे से छोटे बच्चे से लेकर बड़े बूढ़े भी पानी को बचाना अपना धर्म समझें। प्रकृति के खजाने से हम जितना पानी लेते हैं, उसे वापस भी हमें ही लौटाना है। हम स्वयं पानी का निर्माण नहीं कर सकते अतः प्राकृतिक संसाधनों को दूषित न होने दें और पानी को व्यर्थ न गँवाएँ यह प्रण लेना बहुत आवश्यक है।
पानी का संकट
पानी के संकट पर बॉलीवुड अभिनेता आमिर खान पिछले दिनों छोटे परदे पर अपने मशहूर कार्यक्रम सत्यमेव जयते पर बात करते दिखे. भारत के विभित्र इलाकों में पानी की कमी के बारे में जानकारी देने के बाद वह दर्शकों में शामिल एक लड़की से सवाल करते हैं, हमारे दैनिक इस्तेमाल के लिए पानी कहां से आता है? जवाब बेहद ही आश्‍चर्यजनक था. उसने बेहद ही मासूमियत से जवाब दिया पानी नल से आता है. इसके बाद शो पर मौजूद सभी लोग हंस प.डे, लेकिन लोगों की यह हंसी पलक झपकते ही बंद हो गयी, क्योंकि उसके बाद कार्यक्रम में पानी के संकट से जूझ रहे लोगों की जो दुर्दशा दिखायी गयी, उससे सभी हैरान थे. महाराष्ट्र से लेकर दिल्ली और देशके विभित्र हिस्सों में तेजी से घटते जल स्रोत के आंक.डे दिखाने के बाद माहौल उस वक्त गमगीन हो गया, जब आमिर ने यह बताया किया कि पानी के लिए संघर्ष में ही 14 वर्षीय सुनील की हत्या कर दी गयी. पानी के लिए झड़प और हत्या का यह कोई पहला मामला नहीं है. 

पानी के लिए जंग इस कदर बढ.ती जा रही है कि साल 2010 में इंदौर की 18 वर्षीय पूनम यादव को उसके पड़ोसी ने सिर्फ इसलिए चाकू घोंपकर मार डाला, क्योंकि उसने अपने घर के नल से पानी देने से मना कर दिया था. इन उदाहरणों से अंदाजा लगाया जा सकता है कि पानी की चुनौती किस तरह बढ.ती जा रही है. और इस साल कमजोर मॉनसून ने भारत के जलाशयों में पानी कम होने के खतरे की घंटी पहले ही बजा दी है. ऐसा सूखा साल 2009 में देखा गया था. कमजोर मॉनसून का असर फसलों पर तो पड़ना निश्‍चित है. इससे पीने के पानी का संकट भी सामने आने लगा है. यह एक संकटपूर्ण स्थिति है, क्योंकि इस बार भी मॉनसून देशके एक-तिहाई हिस्से में ही सामान्य रहा है. इस मौसम में 22 फीसदी बारिश में कमी देखी गयी, लेकिन कृषि के लिहाज से महत्वपूर्ण उत्तर और उत्तर-पश्‍चिम भारत में वर्षा सामान्य से 40 पीसदी तक कम हुई. भारत के 84 महत्वपूर्ण जलाशय सिर्फ 19 फीसदी तक ही भर पाये. यह पिछले साल की अपेक्षा 41 फीसदी कम है. देश के जलाशयों की यही स्थिति 2009 में हुई थी, जब भारत ने पिछले कई वर्षों का सबसे भयंकर सूख्रा देखा. इसका नकारात्मक प्रभाव कृषि पर पड़ना निश्‍चित है. यह प्रभाव सिर्फ खरीफ हर नहीं रबी फसलों पर भी प.डेगा, क्योंकि उसकी सिंचाई के लिए जलाशयों में पानी ही नहीं होगा. गौरतलब है कि धरती के 70 फीसदी हिस्से पर पानी होने के बाद भी उसका सिर्फ एक फीसदी हिस्सा ही इंसानी हक में है. नतीजतन स्थिति यह है कि जलस्रोत तेजी से सूख रहे हैं. भारत ही नहीं, समूचे एशिया में यही स्थिति है, क्योंकि इस महाद्वीप में दुनिया की 60 फीसदी आबादी महज 36 फीसदी जल संसाधनों पर निर्भर है. बाकी सभी महाद्वीपों में जल संसाधनों के मुकाबले आबादी का अनुपात कहीं कम है.

आने वाले एक दशक में उद्योगों के लिए पानी की जरूरत 23 फीसदी के आसपास होगी. तब खेती के लिए पानी के हिस्से में कटौती करने की जरूरत प.डेगी, क्योंकि तेजी से बढ. रहे शहरीकरण के चलते गांवों के मुकाबले शहरों को पानी की दरकार कहीं ज्यादा होगी. एक अनुमान के मुताबिक, 2025 तक देश की 55 फीसदी आबादी शहरों में बसेगी, मतलब पानी की बर्बादी अभी से कहीं ज्यादा होगी. सबसे ज्यादा चिंता की बात यह है कि देश में उपलब्ध जल संसाधनों के उपयोग में सालाना 5-10 प्रतिशत ही बढ.ोतरी हो सकी है, जबकि मौसमी बदलाव के चलते इससे दोगुनी मात्रा में जल संरचनाएं नष्ट हो रही हैं. 

खराब मॉनसून के कारण समस्या 

मौसमी बदलाव के कारण मॉनसून के दौरान कम वर्षा से सूखे की स्थिति उत्पत्र होती है. गौरतलब है कि सूखा पड़ना कोई आश्‍चर्यजनक घटनाक्रम नहीं, बल्कि एक सामान्य घटना है जो जलवायु का एक गुण है. सूखा किसी भी जलवायु क्षेत्र में पड़ सकता है. यह कई तरह का होता है. मसलन मेट्रोलॉजिकल (जलवायविक), कृषि, और हाइड्रोलॉजिकल. जलवायविक सूखा तब पड़ता है जब औसत से कम वर्षा की अवधि काफी लंबी हो जाती है. यही जलवायविक सूखा अन्य कई प्रकार के सूखे की वजह बनता है. एक अन्य प्रकार का सूखा कृषि संबंधित कृषि. इससे फसल चक्र प्रभावित होता है. 

हाइड्रोलॉजिकल सूखा : यह पानी के संकट की बड़ी वजह बनता है. जब जलस्तर, झीलों और जलाशयों के पानी का स्तर औसत से कम हो जाता है, तो हाइड्रोलॉजिकल सूखा कहलाता है. इसका असर धीरे-धीरे पड़ता है, क्योंकि इसमें पानी के भंडारण वाले स्रोत शामिल होते हैं. इनका इस्तेमाल तो होता रहता है, लेकिन पानी की आपूर्ति फिर से नहीं हो पाती. इस तरह का सूखा भी सामान्य से कम वर्षा के कारण होता है. इस तरह देखा जा सकता है कि मॉनसून के दौरान सामान्य से कम वर्षा का प्रभाव सिर्फ कृषि ही नहीं, देश के जलाशयों और भू-जल स्तर पर भी पड़ता है. ये वही जलाशय हैं जहां से देश के विभित्र हिस्सों में पीने के पानी की आपूर्ति होती है. कम वर्षा से होने से जलाशयों के पानी सूखने से जलस्तर काफी नीचे चला जाता है. इससे पानी के लिए अधिक खुदाई करने पड़ती है. लेकिन, एक वक्त के बाद वह जलस्तर इतना कम हो जाता है कि उस क्षेत्र में पानी भू-जल भी समाप्त हो जाता है. 

उत्तर प्रदेश का बुंदेलखंड इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. पश्‍चिमी उत्तर प्रदेश और पंजाब के अधिकांश हिस्सों की यही स्थिति है. अब हरियाणा के गुड़गांव जैसे शहरों की भी स्थिति कुछ ऐसी हो रही है. बहुराष्ट्रीय कंपनियों और चमचमाती इमारतों वाले इस शहर का भविष्य पानी की वजह से संकट में दिखता नजर आ रहा है. अमेरिका के मैनहटन के नाम से मशहूर इस शहर की 70 प्रतिशत आबादी भू-जल पर निर्भर है. लेकिन, जानकारों के मुताबिक अगले पांच साल में यहां जमीन के नीचे का पानी पूरी तरह सूख जायेगा. 

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसइ) का कहना है कि इस शहर की आबादी 2021 में करीब चार लाख यानी दोगुनी हो जायेगी. ऐसे में इतनी बड़ी आबादी के लिए पीने का पानी ही नहीं रह पायेगा. आज ही स्थिति ऐसी है कि लोग पानी की जरूरत को पूरा करने के लिए जगह-जगह गैरकानूनी तौर पर बोरवेल खोद रहे हैं.

पूरी दुनिया है त्रस्त

आज पानी की यह समस्या सिर्फ भारत में ही नहीं है. पूरी दुनिया पानी के संकट का सामना कर रही है. दुनिया के कई हिस्सों में सतह जल (सरफेस वाटर) इतना अधिक प्रदूषित हो चुका है कि उसका किसी भी काम में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है. एक आंक.डे के मुताबिक, चीन का 80 फीसदी और भारत का 75 फीसदी सतह जल इतना अधिक प्रदूषित है कि वह पीने योग्य नहीं है. यहां तक कि इनका इस्तेमाल नहाने या मछली पालन तक के लिए भी नहीं किया जा सकता है. यही कहानी अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के अधिकांश देशों की है. आज हम जमीन के अंदर का पानी निकालने के लिए शक्तिशाली तकनीकों का उपयोग कर रहे हैं. 

हालिया वैज्ञानिक रिपोर्ट में कहा गया है कि एशिया में लाखों अवैध बोरवेल के कारण जमीन के अंदर का पानी पूरी तरह सूख चुका है. इसके अलावा शहरीकरण भी पानी की समस्या की बड़ी वजह बन कर सामने आया है. कंक्रीटों से बने शहरों में हर तरफ ईंट और सीमेंट से बनी सतहें वर्षा के दिनों में भी पानी का अवशोषण करने में असफल होती है. इससे भू-जल की आपूर्ति नहीं हो पाती. इस तरह पानी का संकट मानव सभ्यता के सामने सबसे बड़ी चुनौती के तौर पर उभर रही है.
दुनिया की आधी से अधिक नदियां (लगभग 500) बहुत ही बुरी तरह से प्रदूषित हो चुकी हैं या प्रदूषण के कारण विलुप्ति की कगार पर हैं.

त्नअफ्रीका और एशिया में महिलाओं को पानी लाने के लिए औसतन छह किलोमीटर दूरी तय करनी पड़ती है.

विकासशील देशों में हर साल लगभग 22 लाख लोग स्वच्छ पानी न मिलने के कारण होने वाली बीमारियों के कारण मौत के मुंह में समा जाते हैं. इनमें अधिकांश संख्या बाों की है. 

ऐसा अनुमान है कि पूरी दुनिया में 2025 तक 5.3 अरब लोग , यानी लगभग दो-तिहाई आबादी पानी की कमी की चुनौतियों का सामना करने वाले हैं.

पृथ्वी की सतह पर 71 फीसदी पानी है. लेकिन, सिर्फ 2.5 फीसदी ही लवणयुक्त पानी है. 

पृथ्वी पर उपलब्ध जल का 0.08 प्रतिशत पानी ही मानवों के इस्तेमाल के लायक है.

कृषि  के लिए हम 70 फीसदी पानी का उपयोग करते हैं, लेकिन 2020 तक हमें 17 फीसदी और अधिक पानी की आवश्यकता होगी.
 पानी से होनेवाले रोगों और गंदगी से1.1 अरब लोग वैश्‍विक तौर पर स्वच्छ पेय जल की पहुंच से बाहर हैं.05 में से एक व्यक्ति की स्वच्छ पेय जल तक पहुंच नहीं है.250 अरब घन मीटर तक पानी भंडारण की क्षमता है भारत की.

अंतरराष्ट्रीय एड्स सम्मेलन-क्या एड्स का इलाज संभव है?

दुनिया में कई ऐसी बीमारियां हैं, जिनके इलाज के लिए अभी तक कोई कारगर दवा विकसित नहीं की जा सकी है. इन्हीं बीमारियों में से एक है, एचआइवी/एड्स. इसके बारे में सबसे पहले 1981 में पता चला था. लेकिन, तब से लेकर अभी तक न तो कोई कारगर दवा विकसित की जा सकी है और न ही कोई वैक्सीन. पिछले दिनों 22 से 27 जुलाई के बीच वाशिंगटन में 19वें अंतरराष्ट्रीय एड्स सम्मेलन के दौरान इस मुद्दे पर चर्चा की गयी. इस दौरान एड्स के इलाज के लिए नयी दवाओं और एड्स को रोकने संबंधी कुछ पहलू भी सामने आये. इससे रोकथाम और इलाज की उम्मीद बढ.ी है. एड्स क्या है, कैसे फैलता है और कैसे संभव हो सकेगा इसका इलाज? इन्हीं मुद्दों पर पर विशेष प्रस्तुति 
क्या एड्स का इलाज संभव है? 22 से 27 जुलाई के बीच जब अमेरिका की राजधानी वाशिंगटन डीसी में 19वां अंतरराष्ट्रीय एड्स सम्मेलन चल रहा था, तो यही सवाल बहस के केंद्र में था. यह एक ऐसी बीमारी है, जिससे संक्रमित होने के बाद मृत्यु सुनिश्‍चित है. एचआइवी एड्स के बारे में पहली बार 1981 में पता चला था, तबसे लगभग 3 करोड़ लोगों की इस बीमारी से मौत हो चुकी है. पिछले साल ही पूरी दुनिया में इससे लगभग 17 लाखलोगों की मौत हुई. हालांकि, यह आंकड़ा साल 2005 के 23 लाख की अपेक्षा कम है. ऐसी उम्मीद की जा रही है कि आने वाले समय में यह संख्या और भी कम हो सकती है. लेकिन, अभी संख्या कम होने से समाधान नहीं हो जाता. यही वजह है कि कुछ लोग एंटी रेट्रोवायरल (एआरवी) से आगे की बात कर रहे हैं. हालांकि, अभी तक एचआइवी/एड्स की इलाज का कोई कारगर तरीका नहीं निकल सका है, जिससे यह बीमारी पूरी तरह ठीक हो.

फैलता संक्रमण
विश्‍व स्वास्थ्य संगठन और यूनिसेफ के आंकड़ों के मुताबिक, साल 2010 में लगभग 27 लाख लोग एचआइवी वायरस से संक्रमित हुए. इनमें तीन लाख नब्बे हजार बो थे. इन बाों में अधिकांश बो जन्म से ही इस वायरस से संक्रमित पाये गये, क्योंकि उनकी मां में इसके वायरस पहले से मौजूद थे. 
गौरतलब है कि हर साल इस संक्रमण और बीमारी की वजह से लगभग 18 लाख लोगों की मौत होती है.
सब सहारा में भयावह स्थिति
दुनियाभर में सब सहारा अफ्रीका में एड्स को मरीजों की संख्या सबसे अधिक है. यह इलाका एचआइवी संक्रमण से सर्वाधिक प्रभावित है. इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सब सहारा अफ्रीका में पूरी दुनिया की कुल 12 फीसदी आबादी रहती है, लेकिन 68 फीसदी के आसपास लोग एचआइवी से संक्रमित हैं. इनमें भी सर्वाधिक संख्या महिलाओं की है. यहां एचाइवी से संक्रमित महिलाओं की संख्या कुल आबादी का 59 फीसदी है. 
भारत और एड्स
कुछ साल पहले तक भारत में एचआईवी से संक्रमित लोगों की संख्या लगभग 57 लाख थी, लेकिन हाल के दिनों में इस आंक.डे में कमी आयी है और अब यह 20 लाख के आसपास है. भारत में 1986 में पहली बार एड्स के मामले का पता चलते ही स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने राष्ट्रीय एड्स समिति का गठन किया था. 1992 में भारत का पहला राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण कार्यक्रम शुरू किया गया था और राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन (नाको) कार्यक्रम को लागू करने के लिए गठित किया गया था.

इलाज की मौजूदा व्यवस्था


फिलहाल, एचआइवी/एड्स को रोकने के लिए एंटी रेट्रोवायरल का ही इस्तेमाल किया जाता है. इसे रेट्रो वायरस, मुख्यतौर पर एचआइवी के संक्रमण से बचाव के लिए विकसित किया गया है. जब इस तरह की कई दवाइयों को एक साथ मिला दिया जाता है, तो यह उा सक्रिय एंटी रेट्रोवायरस थेरेपी या एचएएआरटी कहलाता है. पहली बार अमेरिकी स्वास्थ्य संस्था ने एड्स के रोगियों को इस दवा के इस्तेमाल का सुझाव दिया था. एंटी रेट्रोवायरल दवाइयों के भी विभित्र प्रकार है, जो एचआइवी के विभित्र स्टेज के लिए इस्तेमाल होते हैं. अब अमेरिका वैज्ञानिकों का कहना है कि उन्होंने एड्स फैलाने वाले एचआइवी वायरस के संभावित इलाज की ओर पहला कदम उठाया है. एचआइवी वायरस कई सालों तक मरीज के शरीर में बिना कोई हरकत किये पड़ा रहता है जिससे इसका इलाज करने में मुश्किलें आती हैं. वैज्ञानिकों के मुताबिक, कैंसर के खिलाफ इस्तेमाल होने वाली दवा (वोरीनोस्टैट) के इस्तेमाल से इस सुस्त प.डे वायरस को बाहर निकाला जाता है. इन वैज्ञानिकों ने आठ मामलों में इस वायरस पर हमला कर उसे सामान्य एंटी-रेट्रोवायरल दवाओं से खत्म कर दिया. लेकिन वैज्ञानिकों की इस टीम का कहना है कि दुनिया में एचआइवी से ग्रस्त तीन करोड़ लोगों के इलाज के लिए कारगर दवा को विकसित करने के लिए कई सालों तक शोध करने की जरूरत पड़ सकती है.

इम्यून सिस्टम से छिपा रहता है इसका वायरस

एचआइवी वायरस को खत्म करने के शोध में जुटे शोधकर्ताओं का कहना है कि एचआइवी का इलाज दशकों से शोधकर्ताओं को परेशान करता रहा है. दरअसल, एचआइवी हमारे जींस में जुड़ जाता है और कैंसर कोशिका जैसी प्रतिरक्षा प्रणाली यानी इम्यून सिस्टम से छिपा रहता है और इसका इलाज नहीं हो पाता है. उसके बाद जब एचआइवी वायरस सक्रिय नहीं होता तो अब तक उपलब्ध कोई भी इलाज इसके खिलाफ काम नहीं कर पाता. लेकिन जब यह सक्रिय होता है तो इस पर नियंत्रण ही नहीं हो पाता है. यह पहला मौका है जब हम सुस्त प.डे एचआइवी वायरस पर ही नियंत्रण पाने की ओर कदम उठा पायेंगे, जिससे इलाज का रास्ता खुलेगा. 

त्रुवदा को मिली मंजूरी 

30 सालों की लंबी लड़ाई के बाद पिछले दिनों अमेरिका ने एड्स की इस दवा त्रुवदा को मंजूरी दी. यह दवा एड्स को पनपने नहीं देती. वैज्ञानिकों का कहना है कि इसके इस्तेमाल से एड्स से बचाव हर हाल में किया जा सकता है. यह दवा उन हालातों में कारगर है, जहां व्यक्ति को एड्स होने का खतरा रहता है. सबसे बड़ी बात कि यह एड्स के लिए बनी पहली ऐसी दवा है जो उन लोगों को भी दी जा सकती है जो एड्स जैसी जानलेवा बीमारी से बचाव चाहते हैं, यानी जिन्हें एड्स नहीं है.
एचआइवी और एड्स का मतलब
एचआइवी का मतलब है, ह्यूमन इम्यूनो डेफिशिएंसी वाइरस (मानव की रोग प्रतिरक्षा शक्ति को कम करने वाला विषाणु). एचआइवी एक रेट्रो वायरस है, जो मानव रोग प्रतिरक्षा प्रणाली की कोशिकाओं को संक्रमित करता है. इस विषाणु से संक्रमित होने पर रोग प्रतिरक्षा प्रणाली धीरे-धीरे कमजोर होती जाती है, जिससे रोग प्रतिरक्षा की कमी हो जाती है. रोग प्रतिरक्षा प्रणाली में कमी तब मानी जाती है जब हामरे अंदर दूसरी बीमारियों से लड़ने की क्षमता कम होने लगती है. 

एड्स : एड्स यानी एक्वायर्ड इम्यूनो डेफिएिसएंसी सिंड्रॉम. एचआइवी वायरस के संक्रमण के कारण एड्स होता है.
कैसे फैलती है यह बीमारी
एचआइवी संक्रमित व्यक्ति के साथ असुरक्षित यौन संबंधों के कारण. त्नएचआइवी संक्रमित सिरींज और सूइयों के इस्तेमाल से. 
त्नएचआइवी संक्रमित रक्त चढ.ाने से.
आंकड़ों की जुबानी
पूरी  दुनिया में एचआइवी संक्रमित मरीजों की संख्या करोड़ के आसपास है. त्नभारत में एड्स मरीजों की संख्या लगभग 23.90 लाख तक है. इसमें लगभग 9.3 लाख महिलाएं और लगभग 3.5 प्रतिशत संख्या बाों की है.

क्या हैं इसके लक्षण 
एचआइवी से संक्रमित अधिकांश लोगों को यह मालूम नहीं होता कि वे इससे संक्रमित हो चुके हैं. इसकी वजह यह है कि शुरुआती संक्रमण के तुरंत बाद इसका कोई लक्षण नहीं दिखता है. हालांकि, कुछ लोगों को गिलटी वाले बुखार जैसी बीमारी होती है, जो सेरोकंवर्जन के समय हो सकती है. सेरोकंवर्जन का मतलब होता है एचआइवी के एंटीबॉडीज का बनना. यह असर संक्रमण के 6 सप्ताह से 3 महीने के बीच होता है. इस तरह एचआइवी संक्रमण का कोई आरंभिक लक्षण नहीं होता, लेकिन एचआइवी संक्रमित व्यक्ति अत्यधिक संक्रामक हो सकता है. एचआइवी के जांच से ही पता चलता है कि कोई व्यक्ति इससे संक्रमित है.
अभी तक कौन-सी दवाएं हैं उपलब्ध
एड्स हो जाने के बाद इससे छुटकारा पाने की दुनिया में अभी कोई दवा नहीं बन पायी है. अभी तक जो भी दवाएं बनी हैं, वे सिर्फ बीमारी की रफ्तार कम करती हैं, उसे खत्म नहीं करतीं. एचआइवी के लक्षणों का इलाज तो हो सकता है, लेकिन इस इलाज से भी यह बीमारी पूरी तरह खत्म नहीं होती है. एजेडटी, एजीकोथाइमीडीन, जाइडोव्यूजडीन, ड्राइडानोसीन स्टाव्यूडीन जैसी कुछ दवाइयां हैं, जो इसके प्रभाव के रफ्तार को कम करती हैं. लेकिन, ये इतनी महंगी हैं कि आम आदमी की पहुंच से बाहर हैं. अगर हम सिर्फ एजेडटी दवा की ही बात करें तो यदि एचआइवी से संक्रमित व्यक्ति इसका एक साल तक सेवन करता है, तो उसे साल भर के कोर्स के लिए एक से डेढ. लाखरुपये तक देना होगा. इन दवाओं के अलावा न्यूमोसिस्टीस कारनाई, साइटोमेगालो वायरस माइकोबैक्टीरियम, टोसोप्लाज्मा दवा उपलब्ध है. अब इम्यूनोमोडुलेटर प्रक्रिया का भी इस्तेमाल किया जाने लगा है. साथ ही, चिकित्सा वैज्ञानिक एड्स के वैक्सीन को विकसित करने पर काम कर रहे हैं. हालांकि, यह अभी प्रयोग के दौर से गुजर रहा है और इसे बाजार में आने में कई वर्ष लग जाएंगे. यह वैक्सीन भी इतना सस्ता नहीं होगा कि यह सभी के पहुंच में हो.
42 फीसदी महिलाएं वैश्‍विक तौर पर इस वायरस से संक्रमित हैं.1992 में भारत का पहला राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण कार्यक्रम शुरू हुआ था.85 फीसदी एचआइवी संक्रमण असुरक्षित यौन संबंधों के कारण होता है.1981 में पहली बार एड्स नामक बीमारी की पहचान की गयी थी.

भारत  की स्थिति
भारत में इस समय लगभग 9,26,197 महिलाएं और 1,469,245 पुरुष एचआइवी पॉजिटिव से संक्रमित हैं. दिल्ली  की बात की जाये, तो देश की राजधानी में लगभग 34,216 एड्स के मरीज हैं यानी कुल आबादी का 0.21 फीसदी.पिछले दशक की अपेक्षा 56 फीसदी की कमी आयी है.(source-prabhatkhabar)

Monday 30 July 2012

तकनीकी शिक्षा -ताक पर गुणवत्ता

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उच्च शिक्षा -असल सुधार की जरुरत

उच्च शिक्षा की बिगड़ती सेहत




सुबोध अग्निहोत्री
करीब पांच साल पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उच्‍च शिक्षा के हालात पर चिंता जताते हुए कहा था कि देश में दो-तिहाई से ज्‍यादा विश्‍वविद्यालयों और 90 फीसदी से अधिक डिगरी कॉलेजों में शिक्षा का स्‍तर औसत से काफी कम है। इसके लिए जहां उन्‍होंने गुणवत्ता के मानकों पर चोट की थी, वहीं इस बात को भी रेखांकित किया था कि हमारे विश्‍वविद्यालयों द्वारा अपनाई जाने वाली चयन प्रक्रिया में खोट है, और यहां तक कि मनमानी और भ्रष्‍टाचार के अलावा जातिवाद और सांप्रदायिकता के समीकरण भी हावी रहते हैं।

आज पांच साल बाद भी स्थिति में कोई खास बदलाव दिखाई नहीं दे रहा। बेशक उच्‍च शिक्षा के मानदंडों के लिहाज से हम पूरी दुनिया में अमेरिका के बाद नंबर दो पर जाने जाते हैं। लेकिन इसकी लगातार नीचे जाती गुणवत्ता ने चिंतकों के माथे पर बल ला दिए हैं। दरअसल, उच्च शिक्षा की बदहाली की कई वजहें हैं। कहीं शिक्षकों के चयन में पारदर्शिता नहीं है, तो कोई न्यूनतम स्तर को छू पाने में नाकाम है। आरक्षण को भी उच्‍च शिक्षा की बिगड़ती दशा के लिए जिम्‍मेदार माना जाए, तो गलत नहीं होगा।

उच्च शिक्षा को संचालित करने के लिए विश्‍वविद्यालय अनुदान आयोग है, जिसने 12 ऐसे स्‍वायत्तशासी संस्‍थान खड़े किए हैं, जो उच्च शिक्षा पर नजर रखते हैं। देश में अब तक 42 केंद्रीय विश्‍वविद्यालय, 275 राज्‍य विश्‍वविद्यालय, 130 डीम्‍ड विश्‍वविद्यालय, 90 निजी विश्‍वविद्यालय, पांच राज्‍य स्‍तरीय संस्‍थान और 33 राष्‍ट्रीय महत्‍व के संस्‍थान कार्य कर रहे हैं। इसके अलावा सरकारी डिगरी कॉलेजों की संख्‍या भी 16 हजार पहुंच चुकी है, जिसमें निजी डिगरी कॉलेजों के अलावा 1,800 महिला कॉलेज शामिल हैं। दूरस्‍थ और मुक्‍त विश्‍वविद्यालयों ने भी उच्‍च शिक्षा के क्षेत्र में नई क्रांति का सूत्रपात किया है। इसे संचालित करने के लिए दूरस्‍थ शिक्षा परिषद् है तथा इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय के पूरी दुनिया में 35 लाख से अधिक छात्र हैं। कुछ को छोड़कर ज्‍यादातर राज्‍यों में मुक्‍त विश्‍वविद्यालय भी चल रहे हैं। लेकिन इन सबसे इतर शैक्षिक मापदंडों का केवल छिछले तरीके से ही पालन किया जा रहा है।

खासकर उत्तर भारत पर नजर डालें, तो यहां उच्च शिक्षा की वह गति नहीं बन पाई, जो वास्‍तव में होनी चाहिए। इसे सुधारने-संवारने के लिए बनाई गई दर्जनों कमेटियों की रिपोर्टें धूल फांक रही हैं। इन्‍हें लागू कराने में किसी सरकार की दिलचस्‍पी नहीं दिखती। हां, निजी विश्वविद्यालय खोलकर उच्‍च शिक्षा में पलीता लगाने का काम सरकारें जरूर कर रही हैं। चमक-दमक वाले इन संस्‍थानों पर लक्ष्‍मी तो खूब बरस रही है, पर सरस्वती की सेहत बिगड़ रही है। इन संस्थानों ने उच्‍च शिक्षा में एक नई फांस गले में डाल दी है, जो न निगलते बन रही है, न ही उगलते।

फैकल्‍टी का चयन भी एक बड़ा मसला है। बीते दिनों लखनऊ के एक आरटीआई कार्यकर्ता की अरजी से यह तसवीर साफ हुई कि देश के 24 केंद्रीय विश्‍वविद्यालयों में अनुसूचित जातियों-जनजातियों के आधे से जे्‍यादा पद रिक्‍त हैं। पता यह चला कि भरती के दौरान उच्‍च मानकों पर अभ्‍यर्थी खरे ही नहीं उतरे। विषय विशेषज्ञ के तौर पर मंजे अभ्‍यर्थियों का साक्षात्‍कार में न आ पाने के कारण भी समस्‍या लगातार गहराती जा रही है। अभी तक उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्‍मू-कश्‍मीर में 50 फीसदी से कुछ ज्‍यादा प्रोफेसर, रीडर (एशोसिएट प्रोफेसर) और असिस्‍टेंट प्रोफेसर के पद रिक्‍त हैं।

हिंदीभाषी राज्‍यों में उत्तर प्रदेश और बिहार को जहां कई केंद्रीय विश्‍वविद्यालयों का तोहफा मिला, वहीं उत्तराखंड को अभी यह सम्‍मान नहीं मिल पाया है। केवल गढ़वाल विश्वविद्यालय के भरोसे पर ही पूरा राज्‍य टिका है। आईआईटी, रूड़की की अपनी साख है, लेकिन वह पहाड़ में न होकर मैदान में है तथा तकनीकी शिक्षा का अहम केंद्र है। जाहिर है, उत्तर भारत के इन राज्‍यों में उच्‍च शिक्षा के हालात पर मंथन कर बुनियादी ढांचे को और मजबूत करना होगा, नहीं तो लगातार कामचलाऊ शिक्षा देकर हम 'बेरोजगारों की फौज' खड़ी करते जाएंगे और सरकारों को बेरोजगारी भत्ता बांटने का मौका देते रहेंगे।

Wednesday 25 July 2012

नैनो मेडिसन से कैंसर का उपचार


उपलब्धि 
हैदराबाद के आनुवंशिकी अनुसंधानकर्ता डॉ. राव पानेनी ने वर्षों की मेहनत के उपरांत कैंसर से जूझ रहे करोड़ों लोगों में जीने की उम्मीद जगाई है। ऐसे लोगों के लिए अच्छी खबर है कि डॉ. राव ने अमेरिकी वैज्ञानिकों के सहयोग से ऐसी तकनीक खोजने में सफलता हासिल की है जो नैनो मेडिसन के जरिये कैंसर के ऊतकों का उपचार करती है।
वास्तव में यह नैनो तकनीक कई मायनों में कैंसर के उपचार हेतु रामबाण औषधि सिद्ध हो सकती है। इसके अंतर्गत ऐसी तकनीक विकसित की गई है जिसमें केवल कैंसरग्रस्त ऊतकों का उपचार किया जाता है। लेकिन इसका प्रभाव स्वस्थ ऊतकों पर नहीं पड़ता। यानी उपचार के साइड-इफेक्ट कम होते हैं या बिल्कुल नहीं होते। इसमें दवा का लक्ष्य सीधे कैंसर प्रभावित शरीर पर ही होता है। डॉ. राव और उनकी टीम की मंशा है कि पहले इस तकनीक का उपयोग प्रॉस्टेट गं्रथि के कैंसर से जूझ रहे लोगों के उपचार में किया जाये। इसके उपरांत अन्य तरीके के कैंसरों के उपचार में इस तकनीक का उपयोग किया जा सकेगा।
निश्चित रूप से डॉ. राव की इस खोज की सफलता से भारत गौरवान्वित हुआ है। उनकी इस नयी तकनीक की खोज से उम्मीद जगी है कि कैंसर के भयावह रोग पर बेहतर ढंग से काबू पाया जा सकेगा। वर्तमान में डॉ. राव केयर स्ट्रीम हेल्थ संस्थान, संयुक्त राज्य अमेरिका में मुख्य वैज्ञानिक तथा सीनियर प्रिंसिपल इनवेस्टिगेटर के रूप में कार्यरत हैं।
पिछले ही महीने कैंसर उपचार की इस तकनीक को पेटेंट कराने हेतु डॉ. राव ने आवेदन किया था जिसे पेटेंट कराने की अनुमति मिल गई है। उनके इस पेटेंट को हाई कैपीसिटी नान-वायरल वेक्टर्सÓ का नाम दिया गया है। इसमें दी गई दवा कैंसरग्रस्त सूक्ष्म अवयवों पर प्रभावी होगी। इससे दवा के कारगर होने की संभावना अधिक हो गई है। अब तक उपचार के लिए दिये जाने वाले रेडिएशन की मात्रा अब  कम की जा सकेगी जो इस उपचार में पडऩे वाले नकारात्मक प्रभाव को कम करेगी। इससे उपचार के स्थान को सीमित क्षेत्र में केंद्रित किया जा सकेगा जिसके अंतर्गत ट्यूमर पर नज़र रखते हुए कैंसर के ऊतकों पर प्रभावी इलाज संभव हो सकेगा।
डॉ. राव एवं उनकी टीम ग्रास नलिका के कैंसर के उपचार पर भी अनुसंधान कर रही है। इस तकनीक के जरिये प्रारंभिक अवस्था के ट्यूमर का पता लगाकर उसका उपचार भी किया जाता है जिसके लक्षण सामान्य तौर पर नज़र नहीं आते। लेकिन कालांतर में इस ट्यूमर का आकार इतना बड़ा हो जाता है कि यह ग्रास नलिका को अवरुद्ध कर देता है जिससे खाना निगलने में दिक्कत होने लगती है। उनका मानना है कि कैंसर का उपचार इस बात पर निर्भर करता है कि कैंसर किस अवस्था में है तथा रोगी का स्वास्थ्य किस तरह का है? यानी कैंसर का प्रारंभिक अवस्था में पता लगने तथा रोगी के शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता अच्छी होने की स्थिति में कैंसर लाइलाज नहीं रहता। यदि कैंसर सीमित स्थान तक है और ग्रास नलिका तक नहीं पहुंचा है तो सामान्य तौर पर सर्जरी के जरिये उसका उपचार किया जा सकता है। लेकिन यदि यह अन्य अंगों को अपनी चपेट में ले लेता है तो मरीज का उपचार कीमोथैरेपी के जरिये ही किया जाता है। इसके लिए अन्य रेडिएशन का प्रयोग कैंसर के फैलाव को रोकने के लिए किया जाता है।
निश्चित रूप से डॉ. राव और उनकी टीम ने कैंसर के उपचार के लिए जो पद्धति विकसित की है, वह कैंसर के उपचार की दिशा में एक मील का पत्थर साबित हो सकती है। आज कैंसर का दानव जिस तरह मानवता को निगलने को तैयार बैठा है, अब उसकी चुनौती का मुकाबला किसी हद तक संभव हो पायेगा। उनके अनुसार इस नैनो टेक्नोलॉजी के जरिये कैंसर-रोधक दवाइयों को कैंसरग्रस्त अंग तक सीधे प्रभावी बनाया जा सकता है। यानी कैंसरग्रस्त ऊतकों का खात्मा स्वस्थ ऊतकों को नुकसान पहुंचाये बिना ही किया जा सकता है।
डॉ. राव और उनकी टीम उन कारणों पर प्रकाश डालती है जो कैंसर के कारण बन सकते हैं। उनका मानना है कि यदि लोग सचेत रहें और परहेज बरतें तो कैंसर के खतरे को टाला जा सकता है। लोगों को धूम्रपान से बचना चाहिए एवं अन्य तम्बाकू उत्पादों से परहेज करना चाहिए। शराब का उपयोग भी सीमित मात्रा में किया जाना चाहिए। अपने भोजन में अधिक मात्रा में ताजा फलों और सब्जियों का उपयोग करना चाहिए। इसका उपयोग मांस व डेयरी उत्पादों के मुकाबले अधिक होना चाहिए। प्रयास हो कि साबुत अनाज का उपयोग हो सके। इसके साथ ही जरूरी है कि वजन को नियंत्रित करने के लिए कर्मशील रहें।(हरिहर स्वरुप )

शोध और अनुसंधान से जुडी खास ख़बरें


मानव मस्तिष्क से तुलना नहीं

आप घर से बाहर निकलते हैं और अचानक आपको लगता है कुछ भूल रहे हैं. कुछ समय बाद उसे पॉकेट और इधर-उधर खोजने लगते हैं. फिर आप जो चीज खोज रहे होते हैं, बिल्कुल उसी तरह की कोई हमशक्ल चीज मिलती है और आप उसे लेकर चल देते हैं. लेकिन, क्या आप जानते हैं कि जिस काम को करने में आपको कुछ सेकेंड का वक्त लगा, वह काम कंप्यूटर दशकों तक विकास और जटिल गणनाओं को सुलझाने के बाद भी नहीं कर सकता है. दरअसल, वैज्ञानिकों का कहना है कि आज भले ही कंप्यूटर को मानव मस्तिष्क से काफी तेज बनाने की कोशिश की जा रही है. लेकिन, कंप्यूटर के साथ मानव मस्तिष्क की तुलना नहीं की जा सकती. हम दैनिक जीवन में अकसर छोटी-छोटी बातों को भूल जाते हैं और इस तरह उसकी समस्या का समाधान करते हैं. वैज्ञानिकों का कहना है कि हमारे मस्तिष्क का बहुत बड़ा हिस्सा चीजों को देखने पर केंद्रित होता है. इसके बाद, मस्तिष्क का बाकी भाग अन्य कायरें में लगता है. दरअसल, एकस्टीन और उनकी टीम यह जानना चाहती थी कि हमारा मस्तिष्क किसी वस्तु को अपना लक्ष्य कैसे बनाता है. उन्होंने अपने शोध में जानना चाहा कि कैसे हम चीजों को खोजते हैं. हमें कैसे पता चलता है कि हमें वह चीज मिल गयी है, जिसे हम खोज रहे थे. उन्हें उनका जवाब डोरसल फ्रंटोपार्सियल नेटवर्क से मिला. यह मस्तिष्क का ऐसा क्षेत्र है जो किसी भी व्यक्ति के सिर के शीर्ष हिस्से तक सूचना पहुंचाता है. यह आंखों के हाव-भाव और ध्यान से भी संबंधित है. जब कोई चीज हम खोजने लगते हैं, तो यह क्षेत्र सक्रिय हो जाता है और उसके मिलने के बाद यह सूचना पहुंचाता है, जिससे हमें पता चलता है कि जो हम खोज रहे थे वह चीज मिल गयी है.
हमारी पृथ्वी क्यों है शुष्क?
पृथ्वी पर विशाल महासागर, लंबी-लंबी नदियां हैं. इसके दक्षिणी और उत्तरी ध्रुव पर ब.डे-ब.डे ग्लेशियर हैं. ऐसे में यह कभी नहीं लगता है पृथ्वी पर पानी की कोई कमी है. इसके बावजूद अंतरिक्ष वैज्ञानिक पृथ्वी पर पानी की कमी से आश्‍चर्यचकित रहे हैं. उनके मुताबिक, स्टैंडर्ड मॉडल यह बतलाता है कि किस तरह सौर मंडल का निर्माण हुआ. सौर मंडल चक्करदार पहिया की तरह गैसों और सूर्य के चारों ओर के धूलकणों से बना होगा. इससे पता चलता है कि अरबों वर्ष पहले हमारा ग्रह पानी की दुनिया थी. यह संभवत: सौर क्षेत्र में बर्फीले पदाथरें से बना होगा. उस क्षेत्र में जहां तापमान काफी सर्द रहा होगा. इस तरह, उनका आकलन है कि पृथ्वी पानीयुक्त पदाथरें से बना होगा. लेकिन, इन तथ्यों की अपेक्षा हमारी पृथ्वी शुष्क क्यों है? कॉमन अक्रीश्न-डिस्क मॉडल के नये विश्लेषण से पता चलता है कि किस तरह सारे ग्रहों के बनने में सूर्य के चारों ओर जमा मलबे ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. संभवत: इन्हीं मलबों की वजह से पृथ्वी में शुष्कता आयी होगी. रेबेका मार्टिन और मारियो लिविओ की अगुवाई वाली टीम ने अपने अध्ययन में पाया कि हमारा ग्रह चट्टानी मलबे वाले क्षेत्र (जिसे स्नो-लाइन के अंदर भी कहते हैं) में बना होगा. हमारे सौर मंडल में स्नो-लाइन फिलहाल धूमकेतु क्षेत्र में पड़ता है. यह क्षेत्र मंगल और बृहस्पति ग्रह के बीच का क्षेत्र है. इस सीमा के बाद सूर्य की रोशनी इतनी कमजोर होती है कि उससे बर्फीले मलबे नहीं पिघल सकते. इस तरह पृथ्वी इन बर्फीले मलबे वाले क्षेत्र में बनी, जिससे यह अपेक्षाकृत शुष्क है.
आकाशगंगा व ब्लैक होल में संबंध
ब्र ह्मांड में कई आकाशगंगाएं अपने केंद्र के काफी छोटी जगह में व्यापक मात्रा में आणविक गैसों को रखती हैं. यही, उा घनत्व वाली आणविक गैसें कई तारों की जन्म स्थली होती हैं. इससे भी अधिक, यह आकाशगंगाओं की केंद्रीय गतिविधियों से जुड़ी होती हैं. इस कारण आकाशगंगाओं के केंद्र में भौतिकीय अवस्था और रासायनिक गुणों का पता लगाना बहुत ही महत्वपूर्ण है. ऑब्र्जवेशन डाटा प्राप्त करने के लिए मिल्की-वे आकाशगंगा के केंद्र का अध्ययन करना सबसे अच्छा तरीका है. गौरतलब है कि हमारा सौर मंडल मिल्की-वे आकाशगंगा में ही पड़ता है. इस अध्ययन के दौरान शोध टीम ने 0.87 तरंग-दैध्र्य पर उत्सर्जन रेखा को देखा. इस दौरान उन्होंने पाया कि मिल्की-वे आकाशगंगा के केंद्र से कार्बन-मोनोक्साइड के अणु निकल रहे हैं. इसके बाद, शोध दल ने इस ऑब्र्जवेशन डाटा की तुलना उत्सर्जन रेखा से प्राप्त किये गये ऑब्जर्वेशन डाटा से की. इस आधार पर उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि आणविक गैसें अधिक गर्म और घनी अवस्था में मिल्की-वे के केंद्र में चार गुच्छों में संकेंद्रित होती हैं. ये चार गुच्छे काफी तेज गति, लगभग 100 किलोमीटर प्रति सेकेंड की रफ्तार से घूम रही हैं. शोधकर्ताओं का कहना है कि इन चारों में से एक सैजिटेरियस ए* मिल्की-वे आकाशगंगा के केंद्र में है. बाकी तीन गैस गुच्छे (गैस क्लप्स) एक पदार्थ हैं, जिन्हें पहली बार खोजा गया है. ऐसा माना जाता है कि सैजिटेरियस ए* विशालकाय ब्लैक-होल का स्थान है, जिसका द्रव्यमान सूर्य के द्रव्यमान से लगभग 40 लाख गुना अधिक है. यह अनुमान लगाया जा सकता है कि गैस-क्लप सैजिटेरियस ए* डिस्क की आकार की तरह है. यह बहुत ही विशाल है, लेकिन इस ब्लैक-होल की खोज अभी तक नहीं की जा सकी थी.
ल्यूकेमिया कोशिका में म्यूटेशन
डायग्नोसिस के दौरान ल्यूकेमिया (ब्लड कैंसर) कोशिका में सैकड़ों म्यूटेशन यानी बदलाव होते हैं. लेकिन, इनमें से सभी बदलाव अचानक ही होते हैं. सबसे बड़ी बात यह कि इस म्यूटेशन का कैंसर से कुछ लेना-देना नहीं होता है. वाशिंगटन विश्‍वविद्यालय स्कूल ऑफ मेडिसिन के वैज्ञानिकों ने अपने नये शोध में पाया कि सामान्यत: रक्त में स्टेम कोशिकाएं नये स्वरूप में बदल जाती हैं. हालांकि, उनके शोध में बताया गया है कि एक सामान्य रक्त कोशिका बनाने के लिए दो या तीन जेनेटिक बदलाव की जरूरत होती है. शोध करने वाले वरिष्ठ वैज्ञानिक रिचर्ड के विल्सन का मानना है कि अब उनके पास इस बात की पुख्ता जानकारी है कि किस तरह एक्यूट ल्यूकेमिया विकसित होती है. कोशिकाओं में सैकड़ों का बदलाव का होना महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि रोगियों में कुछ बदलाव से ही सामान्य कोशिकाएं एक कैंसर कोशिका में बदल जाती है. इन कोशिकाओं का पता लगाना सबसे महत्वपूर्ण है, ताकि कैंसर के इलाज को सफल बनाया जा सके. अब इसके लिए वैज्ञानिक यह पता लगा रहे हैं कि रक्त में स्वस्थ स्टेम सेल में किस तरह म्यूटेशन होता है. गौरतलब है कि प्रत्येक व्यक्ति के बोन मैरो (अस्थि मज्जा) में 10,000 रक्त कोशिकाएं होती हैं और शोधकर्ताओं ने पाया कि प्रत्येक स्टेम कोशिकाएं एक साल में लगभग 10 बार म्यूटेट यानी स्वरूप बदलती हैं. इस तरह किसी 50 वर्षीय व्यक्ति की रक्त कोशिका में यह म्यूटेशन 500 बार होगा. इसके बावजूद उनका कहना है कि हमारे शोध में यह कहीं नहीं मिला कि इन बदलावों से किसी अन्य तरह के कैंसर हो सकते हैं.



Tuesday 24 July 2012

सुरक्षा मोरचे पर नई चुनौतियां


शशांक द्विवेदी
अमर उजाला कॉम्पैक्ट लेख 
आधुनिक युग में सुरक्षा के मोरचे पर उभरी नई किस्म की चुनौतियों के मद्देनजर हमें नए सिरे से रक्षा कार्यक्रमों की समीक्षा की जरूरत है।
हाल ही में ब्रिटेन के पूर्व संचार निदेशक एलिस्टर कैंपबेल ने अपनी डायरी में यह खुलासा किया कि पाकिस्तान के एक सैन्य जनरल ने उनसे कहा था कि इसलामाबाद आठ सेकेंड में भारत पर परमाणु हमला करने में सक्षम है और उसके पास ऐसी तकनीक है कि भारत उसकी किसी भी मिसाइल प्रणाली को नष्ट नहीं कर पाएगा। जाहिर है, आधुनिक युग में ऐसी नई सुरक्षा चुनौतियों पर हमें और भी सचेत रहना होगा और उच्च स्तर की तकनीक भी विकसित करनी होगी ।
भले ही हमारा सुरक्षा कार्यक्रम चीन और पाकिस्तान के हमलों की स्थिति में आत्म-रक्षात्मक कवच को मजबूत करने पर आधारित है, लेकिन उपग्रहों का सैन्य इस्तेमाल किए जाने, हमारे उपग्रहों को मिसाइलों से नष्ट किए जाने, मिसाइलों को उसके मार्ग में ही ध्वस्त किए जाने जैसी आशंकाओं को हम नजरंदाज नहीं कर सकते, क्योंकि पड़ोसी चीन के पास मिसाइल रोधी तकनीक है। परमाणु हथियारों और उन्हें ले जाने वाली भरोसेमंद प्रणाली की मौजूदगी हमें हमलावर को हतोत्साहित करने की क्षमता तो प्रदान करती है, लेकिन दूसरे किस्म के हमलों की आशंका से मुक्त नहीं करती। जैसे, हमारे संचार तंत्र को नष्ट किए जाने की आशंका। ऐसी स्थितियों में अस्थायी उपग्रहों को स्थापित करने की क्षमता बहुमूल्य सिद्ध हो सकती है। थोड़ा फेरबदल करके उसे आक्रामक मिसाइलों को नष्ट करने वाली मिसाइल में भी बदला जा सकता है। इतना ही नहीं, हम हमलावर राष्ट्र के सैन्य उपग्रहों को निशाना बनाने की स्थिति में आ सकते हैं और उपग्रहों पर भी परमाणु संपन्न मिसाइलें तैनात कर सकते हैं। युद्ध में आक्रमण ही बचाव की सर्वश्रेष्ठ रणनीति है। यदि हमें अपनी सुरक्षा तैयारियों को हमलावर राष्ट्र को हतोत्साहित करने तक ही सीमित रखना है, तब भी अंतरिक्षीय चुनौतियों को परास्त करने के लिए एक भरोसेमंद प्रणाली का विकास जरूरी है। इसके लिए हमें अपनी अंतरिक्ष सुरक्षा और सैन्य-अंतरिक्ष नीति को असरदार और व्यापक बनाना होगा।
इंस्टीट्यूट ऑफ डिफेंस रिसर्च ऐंड एनालिसिस की स्पेस सिक्योरिटी रिपोर्टकहती है कि बदलती सामरिक परिस्थितियों और चीन के अंतरिक्ष क्षेत्र में अपने दायरे बढ़ाने के जबरदस्त प्रयास के बावजूद भारत की सैन्य तैयारियां मुख्य रूप से जमीन पर ही केंद्रित हैं। भारत की मौजूदा अंतरिक्ष नीति मुख्य रूप से नागरिक उद्देश्यों के लिए संचालित है और अंतरिक्ष से जुड़ा सैन्य कार्यक्रम काफी छोटा है। जबकि चीन अंतरिक्ष के क्षेत्र में लगातार प्रयोग कर रहा है। इसी के तहत वर्ष 2007 में उसने अपने ही उपग्रह को निशाना बनाते हुए उसे मार गिराया था। चीन के परीक्षण से साबित हो गया कि हमें अंतरिक्ष परिसंपत्तियों की सुरक्षा नीति को व्यापक बनाने की जरूरत है। इसमें सैन्य संकाय को भी शामिल किया जाना चाहिए।
अंतरिक्ष सुरक्षा पर मैक्सवेल एयरफोर्स बेस के स्कूल ऑफ एडवांस एयर ऐंड स्पेस स्टडीज के प्रोफेसर जान बी शेल्डन ने एक लेख में कहा कि वाणिज्य और शासन व्यवस्था से लेकर राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए अधिक से अधिक देशों के उपग्रह पर निर्भर होने के कारण अंतरिक्ष को युद्ध के दायरे से बाहर नहीं रखा जा सकता है। अगर कोई देश उपग्रह के माध्यम से युद्ध का सटीक संचालन करता है, तो यह कैसे संभव है कि अंतरिक्ष युद्ध के दायरे से बाहर रहे। कई विशेषज्ञों का मानना है कि अमेरिका का स्टार वारकार्यक्रम इसी सोच का हिस्सा था। चीन आज इसी नीत पर काम कर रहा है।
सुरक्षा विशेषज्ञों के अनुसार जमीन, साइबर दुनिया एवं अंतरिक्ष के क्षेत्र में चीन का बढ़ता दखल चिंता का विषय है। वह आर्थिक, प्रौद्योगिकी एवं सैन्य क्षेत्र में लगातार अपनी क्षमता बढ़ा रहा है और पाकिस्तान को भी सैन्य प्रौद्योगिकी मुहैया करा रहा है। इसलिए हमें नए सिरे से अपने रक्षा कार्यक्रमों की समीक्षा करने की जरूरत है।(अमर उजाला कॉम्पैक्ट में २४/०७/२०१२ को प्रकाशित )
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Saturday 21 July 2012

चीन और भारत -तकनीकी शिक्षा

२ 1वीं स‌दी ज्ञान की स‌दी होगी,इसमें शायद ही कोई अलग राय रखता हो. ज्ञान की इस स‌दी में यह बेहद अहम है कि हम अपनी शिक्षा प्रणाली और ज्ञान के ढांचे में योजनाबद्ध परिवर्तन लाएं ताकि भविष्य की चुनौतियों का स‌ामना करने के लिए ऎसी शिक्षा प्रणाली विकसित हो जिससे नवीनता और उद्यमिता को 


दरअस‌ल भारत में उच्चतर शिक्षा का मौजूदा स्तर बहुत उम्मीद जगाने वाला नहीं है। उच्च शिक्षा में स‌ाधारण स‌कल दाखिला अनुपात और देश में शोध की गुणवता व स्तर में आयी गिरावट हमारी शिक्षा प्रणाली में स‌ुधार की प्रक्रिया और रफ्तार पर स‌वालिया निशान लगा देती है। उच्च शिक्षा में भारत का स‌कल दाखिला अनुपात महज 11 फीसदी है, जो विकसित देशों की तुलना में काफी कम है।


हालांकि कोरिया(91 फीस‌दी स‌कल दाखिला अनुपात) और अमरीका(83 फीसदी स‌कल दाखिला अनुपात) जैसे देशों स‌े भारत की तुलना करना थोड़ी ज्यादती होगी। मगर हम अपने निकट प्रतिद्वंद्वी चीन स‌े भी शिक्षा क्षेत्र में पिछड़ गए हैं। चीन ने उच्च शिक्षा स‌े जुड़े लगभग हर मामले में हमसे बेहतर और तेजी स‌े प्रगति की है। चीन ने रिसर्च के क्षेत्र में हमसे आगे निकलने के स‌ाथ-साथ उच्चतर शिक्षा में दाखिला लेने वाले छात्रों की स‌ंख्या में हमें पीछे छोड़ दिया है। अगर हम थॉमस रायटर के विभिन्न देशों द्वारा शोध के क्षेत्र में किए गए कामों के अध्ययन पर गौर करें तो भारत की स्थिति ज्यादा डांवाडोल नजर आती है।
उनके अध्ययन के अनुसार शोध के क्षेत्र में 1988-93 के दौरान चीन की हिस्सेदारी 1.5 फीसदी थी। इसके बाद आंकड़ों के मुताबिक उसने एक बड़ी छलांग लगाकर अपनी हिस्सेदारी 1999-2008 में 6.2 फीसदी तक पहुंचा दी। वहीं भारत 1988-1993 में 2.5 फीसदी की हिस्सेदारी के साथ चीन स‌े बेहतर स्थिति में था। मगर इसके बाद भारत की रफ्तार निराशाजनक रुप स‌े धीमी हो गई। 1999-2008 में भारत ने अपनी हिस्सेदारी में मामूली इजाफा करके आंकड़ा 2.6 फीसदी तक पहुंचाया।


इससे देश में शोध की एक मजबूत पारिस्थितिकी प्रणाली का अभाव स‌ाफ झलकता है। हम स‌मय की जरुरतों के लिहाज स‌े अपनी शिक्षा प्रणाली में स‌ुधार करने व शैक्षिक स‌ंस्थानों को वैश्विक स्तर का बनाने में असफल रहे हैं। आज देश में बहुत कम स‌ंस्थान गुणवता और शोध के लिए स‌ुविधाएं उपलब्ध करवाने में स‌क्षम हैं। नतीजतन भारतीय मेदा विदेशों में मिल रहे अवसरों और स‌ुविधाओं के चलते देश स‌े पलायन कर रही है।

अभी हाल ही में अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भारतीय मेधा की तारीफ की थी। फिर कुछ लोग ऎसी प्रतिक्रियाएं भी देते दिखे गोया ओबामा ने भारतीय इंटेलिजेंसी स‌र्टिफिकेट पर जुबानी मुहर लगा कर बरसों की हमारी तपस्या के वांछित अनुदान की बकाया किश्त रिलीज कर दी हो। मगर इस आत्ममुग्धता स‌े हमारी शिक्षा प्रणाल के स‌मक्ष मुंह बाये खड़ी स‌मस्याओं का हल नहीं निकलेगा। हमें ध्यान देना होगा कि हमारी शिक्षा प्रणाली की ढांचागत खामियों के चलते भारतीय युवाओं की रुचि उच्च शिक्षा व शोध में कम हो रही है। दरअसल उच्च शिक्षा प्रणाली की बुनियादी खामियों के कारण हम शिक्षित होने और बाजार के अनुरुप कुशल होने के अंतर को नहीं पाट पा रहे हैं। इसका मतलब है कि हमारी शिक्षा प्रणाली 25 स‌ाल स‌े कम उम्र के 55 करोड़ नवयुवकों की उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी है।



हमें यह स‌मझना होगा कि गलाकाट प्रतिस्पर्धा के इस दौर में उच्च शिक्षा का उद्देश्य शिक्षित करने के स‌ाथ-साथ कुशल व काम के लिए तैयार मानवशक्ति का पुल बनाना है। मगर मौजूदा शिक्षा प्रणाली इसमें चूक गयी है। नतीजतन रोजगार खोजनेवालों के स्तर और बाजार की कौशल की जरुरतों में कोई मेल नहीं बैठता। इस कमी के चलते हम अपने शिक्षित युवाओं के स‌ामर्थ्य का पूरा-पूरा उपयोग नहीं पा रहे हैं। इसके स‌ाथ-साथ शिक्षा का लगातार महंगा होता जाना भी इसे आम तबके की पहुंच से दूर कर रहा है। हमें भारत में उच्च शिक्षा के लगातार गिरते क्रम को पलटना होगा। हमें यह पहल करनी होगी जिससे भारतीय प्रतिभाओं को देश में फलने-फूलने का वातावरण मिले और हिन्दुस्तानी दिमाग की उर्वरता का पूरा-पूरा उपयोग किया जा स‌के।

भारत में उच्च शिक्षा प्रणाली की मौजूदा हालत चिंताजनक है और हम इसमें क्रांतिकारी परिवर्तन लाने स‌े कतरा रहे हैं। मगर भारत को वैश्विक ज्ञान की अर्थव्यवस्था में तब्दील करने के लिए हमें अपनी शिक्षा प्रणाली में द्रुतगति स‌े स‌ुधार करने होंगे। लेखक-सचिन स‌ंगर

नशा इंटरनेट का


अगर आपको लगता है कि आप इंटरनेट के नशे में फंसते जा रहे हैं तो उससे बचने के लिए बताई जा रही विधियों को अपनाएं। श्वेता तनेजा बता रही हैं कुछ नुस्खे :
दुनिया इंटरनेट के सूत्र में बंध चुकी है। यहां तक कि आज हम में से अधिकांश लोग छुट्टी के दिन भी इंटरनेट या फोन के बिना अधूरा महसूस करते हैं। सोशल मीडिया प्रोफेशनल और स्वघोषित ट्विटर नशेड़ीहरीश थोटा कहते हैं, ‘हाइकिंग के दौरान जब मैं खुद को ऑनलाइन दुनिया से दूर कर लेता हूं तो अकेला महसूस करने लगता हूं। मुझे लगता है कि यात्रा के कई अनुभव मैं मित्रों के साथ शेयर करना चाहता हूं। वैसे भी मैं अपना अधिकांश समय ऑनलाइन काम करके बिताता हूं।हरीश प्रतिदिन 8-9 घंटे सोशल नेटवर्किग साइट्स और चैटिंग में बिताते हैं और 3-4 घंटे ईमेल करने में।
अमेरिका में 2010 में यूनिवर्सिटी ऑफ मैरीलैंड के इंटरनेशनल सेंटर फॉर मीडिया एंड द पब्लिक एजेंडा ने ए डे विदाउट मीडियानामक अध्ययन किया था। अध्ययन में 200 विद्यार्थियों को 24 घंटे के लिए हरेक मीडिया के इस्तेमाल से दूर रहने को कहा गया था। उसके बाद उन्हें ब्लॉग पर अपने अनुभव लिखने को कहा गया। एक विद्यार्थी ने लिखा, ‘हालांकि दिन की शुरुआत अच्छी रही थी, लेकिन मुझे लगा कि दोपहर से मेरा मूड बदलने लगा था। मैं अकेला और कटा हुआ महसूस करने लगा। ऐसे कई फोन आए, जिनका जवाब मुझे देने की मनाही थी। दोपहर दो बजे मुझे अपनी मेल चैक करने की जरूरत बेहद महसूस होने लगी और साथ ही ऐसा क्यों हो रहा है, से जुड़े लाखों कारण भी मेरे दिमाग में घूमने लगे थे। मैं एक ऐसे व्यक्ति-सा महसूस कर रहा था, जो किसी निजर्न टापू पर फंसा हो.. मुझे अपने भीतर बेचैनी महसूस हुई, क्योंकि मैं आइपॉड और अन्य मीडिया से गहरे से जुड़ा था, शायद इसीलिए।मूलचंद अस्पताल के मनोवैज्ञानिक सलाहकार जितेंद्र नागपाल कहते हैं, ‘आज अधिकांश युवा सेलफोन या ऑनलाइन वर्ल्ड के बिना जीवन की बात सोच भी नहीं सकते। वह कनेक्टिविटी टूटने से व्याकुल महसूस करने लगते हैं, चाहे वह बैटरी कम होने के कारण हो या ऐसे क्षेत्र में होने के कारण जहां सिगनल नहीं पहुंचते या पैसे की कमी से।मनोवैज्ञानिकों ने इस स्थिति को नाम दिया है इंटरनेट एडिक्शन डिसॉर्डर (आईएडी) का। वर्ल्ड वाइड वेब का नशा एक बड़ा मुद्दा बन चुका है। अपने चारों ओर आपको ऐसे संकेत मिलेंगे : एक बेचैन सहकर्मी, जिसे लगातार ट्वीट करने की आदत है, डिनर डेट पर गया एक मित्र, जो फेसबुक पर रिफ्रैश बटन दबाता दिखता है या आपको पता चलता है कि दोपहर में जब आप ब्राउजिंग करने बैठे थे, तब से
समय ऐसा बीता कि अंधेरा घिर आया और अभी तक आपका काफी काम बाकी पड़ा है। कई बार जरूरी काम के समय व्यर्थ की ब्राउजिंग के कारण भी देर तक काम करना पड़ जाता है। सर्फिग के बाद कई लोगों के हाथों में फोन आ जाता है। तो यदि आप इस ऑनलाइन बीमारीसे निजात न पा रहे हों तो इन उपायों को अपनाएं : समय बर्बाद करने वाले कारण जानें
अनुभव बताता है कि फेसबुक पर दो मिनट का ब्रेक भी घंटों ले लेता है। हम सबकी पसंद की ऐसी वेबसाइटें हैं, जिन पर हम समय व्यर्थ करना पसंद करते हैं।
इसे आजमाएं : सेल्फ कंट्रोल (http//:visitsteve.com/made/selfcontrol) एक ऐसा सॉफ्टवेयर है, जो आपको सोशल नेटवर्किग साइट्स की आदत से निजात दिलाता है। इस सॉफ्टवेयर को लोड करें और किसी भी ऐसे डोमेन का नाम उसकी ब्लैकलिस्ट में डाल दें। इसके बाद टाइमर ऑन करके सॉफ्टवेयर को सूचित करें कि दिन में कितनी बार आप वह साइट कब इस्तेमाल करना चाहते हैं। इस्तेमाल के बाद वह आपके ब्राउजर से उस दिन के शेष समय के लिए ब्लॉक रहेगी। सैल्फकंट्रोल एप्लीकेशन को तभी इस्तेमाल करें, जब आपने मन बना लिया हो। एप्लीकेशन को डिलीट करना या कंप्यूटर रीबूट करने से वह साइट अनब्लॉक नहीं होगी।  
अनप्लग करें
कुछ समय पहले तक इंटरनेट नहीं था। लोगों के पास अपनी जरूरत की सामग्री को सर्च करने के लिए गूगल सर्च नहीं था। इसलिए हम जानते हैं कि डिस्कनेक्ट करना संभव है। माह में एक सप्ताह के लिए नेट डिस्कनेक्ट करने की कसम खाएं।
इसे आजमाएं: अपना विचार पुख्ता करने से पूर्व सब्बाथ मैनिफेस्टो (www.sabbathmanifesto.org) अपने स्मार्टफोन में इंस्टॉल करें। यह मुफ्त एप्लीकेशन शुरू में आपको तकनीक से एक दिन दूर रहने को प्रेरित करती है। फिर यह आपको ऑफलाइन रहने के समय को चुनने की छूट देती है। इसमें ट्विटर या फेसबुक के जरिए संदेश जाता है कि आप कुछ समय के लिए संपर्क में नहीं रहेंगे। यह मुफ्त एप्लीकेशन आइफोन, एंड्रॉयड और ब्लैकबेरी पर काम करती है।
डिस्ट्रैक्शन करें दूर
खाते समय किसी प्रेजेंटेशन पर काम करना दरअसल समय बचाने का एक गलत तरीका है। इसकी बजाय एक टाइम मैनेजमेंट सॉफ्टवेयर इंस्टॉल करें, जो आपको ऑनलाइन समय बचाने में सहायक हो, ताकि आप लंच ब्रेक ले सकें, सहकर्मियों के साथ बाहर जा सकें, हल्की-फुल्की गप्प कर के ताजादम होकर वापस आ सकें।
इसे आजमाएं: रेस्क्यू टाइम (www.rescuetime.com) एक वेब बेस्ड टाइम मैनेजमेंट एवं एनालैटिक्स टूल है, जो उत्पादकता बढ़ाता है। यह आपके बताए समय के दौरान उन वेबसाइटों को ब्लॉक करता है, जिन पर आपका समय व्यर्थ होता है। साथ ही आपके डेस्कटॉप पर मौजूद उन डॉक्यूमेंट्स, वेबसाइट्स या एप्लीकेशंस की ओर भी ध्यान दिलाता है, जो अधिकाधिक इस्तेमाल होते हैं। यह तीन वजर्न्स में आता है: सोलो लाइट, जो बेसिक फीचर्स मुफ्त है, सोलो प्रो, जो 275-415 रुपए प्रतिमाह का है, और टीम एडिशन, जो कंपनियों के लिए होता है, जिसकी कीमत प्रतिमाह इस्तेमालकर्ताओं से तय होती है।
ईमेल से रहें दूर
ईमेल जरूरी कार्य होता है। जब भी आप अपने मेलबॉक्स में नए ईमेल आए देखते हैं तो आप अपने जरूरी कार्य से भटकते हैं। जब जरूरी कार्य में व्यस्त हों तो इस आदत पर काबू लगाने की कोशिश करें।
इसे आजमाएं: फ्रीडम (www.macfreedom.com) एक सिम्पल प्रोडक्टिविटी एप्लीकेशन है, जो इंटरनेट को एक बार में आठ घंटे के लिए बंद कर देता है। ऑफलाइन होने पर आप अपनी रचनात्मकता का अधिक इस्तेमाल कर सकते हैं। फ्रैड स्टट्ज्मैन ने यह सॉफ्टवेयर और इसका सिस्टर-सॉफ्टवेयर एंटी-सोशल (http://anti-social.cc) बनाया था, जो सभी सोशल नेटवर्किग साइट्स को एक निश्चित समय के लिए ब्लॉक कर सकता है। सॉफ्टवेयर 15 डॉलर कीमत से एक बार के लिए डाउनलोड हो सकता है। इसका फ्री ट्रायल भी मौजूद है।
सोशल नेटवर्क को ऑटोमेट करें
सोशल नेटवर्क जैसे कि गूगल प्लस की आपकी जरूरत अपनी जगह है, परंतु इसका मतलब यह नहीं कि आप इसके लिए अपने ऑफलाइन जीवन को तिलांजलि दे दें। इंटरनेट में 160 से अधिक सोशल नेटवर्किग साइट्स हैं और उनमें से 1/10 पर भी यदि आप मौजूद हैं तो इसका असर आपकी ऑफलाइन लाइफ पर पड़ता है। एक साधारण सॉफ्टवेयर आपका सोशल नेटवर्क्स पर स्टेटस अपडेट करता है।
इसे आजमाएं: आपके एकाधिक सोशल नेटवर्क अपडेट के लिए कई फोन और डेस्कटॉप एप्लीकेशंस हैं। डिग्स्बी (www.digsby.com), ट्वीटडैक (www.tweetdeck.com), सीस्मिक (http://seesmic.com) और हूटसूट (http://hootsuite.com) इस मायने में श्रेष्ठ हैं। ये सभी लगभग एक ही तरीके से कार्य करते हैं, इसलिए अपनी पसंद का सॉफ्टवेयर चुनें। यह आपके सभी सोशल नेटवर्क को कनेक्ट करके एक ही पृष्ठ पर उनका अपडेट दिखाता है, ताकि आप परिवर्तनों को देख सकें। कमेंट के लिए एक माउस क्लिक काफी है।
 Source -www.livehindustan.com