Saturday 30 June 2012

अखबारों में फरवरी 2012 में प्रकाशित मेरे लेख

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भारतीय शोध


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माइक्रोसाफ्ट ऑफिस वर्ल्‍ड में कट-कॉपी-पेस्‍ट का विकल्प बनाने वाले ने कभी यह नहीं सोचा होगा कि यह नुसखा शिक्षा के क्षेत्र में एक नई इबारत लिखेगा। न केवल शोधपत्रों में इसका बहुतायत से उपयोग होगा, बल्कि शिक्षा क्षेत्र के धुरंधर भी धड़ल्ले से इसका उपयोग करते दिखाई देंगे।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने विश्‍वविद्यालयों में प्रोफेसरों, एसोसिएट प्रोफेसरों और असिस्‍टेंट प्रोफेसरों की शैक्षणिक और व्‍यावहारिक समझ को परखने के लिए एक इंडेक्‍स का निर्माण किया है, जिसे एकेडमिक परफॉर्मेंस इंडेक्‍स (एपीआई) कहते हैं। इसमें प्रोफेसरों, एसोसिएट प्रोफेसरों और असिस्‍टेंट प्रोफेसरों द्वारा की जाने वाली विभिन्‍न गतिविधियों के लिए अंक निर्धारित हैं। इसके मुताबिक जिसे ज्‍यादा अंक मिलेगा, वह उतना बड़ा महारथी होगा। यूजीसी ने एपीआई का निर्माण इसलिए किया था, ताकि हमारे देश के विश्वविद्यालयों में शोध का स्‍तर सुधरे। प्रोफेसर कहलाने वाले अध्यापक खुद को विशेषज्ञ बनाएं और क्लास के स्तर पर ही नहीं, बाहरी स्तर पर भी खुद को दक्ष बनाएं।
पर वस्तुतः हो इसका उलटा रहा है। शैक्षणिक धुरंधरों के बीच नंबर बढ़ाने की एक होड़-सी लग गई है, हर कोई लेखक बन रहा है, हर कोई शोधकर्ता बन रहा है। रेफरीड, आईएसबीएन और आईएसएसएन नंबर वाले जर्नल्स की फौज कुकुरमुत्तों की तरह पनप रही है। इनमें शोधपत्र प्रकाशित करवाने के लिए बोली लगने लगी है, जो जितना ज्‍यादा पैसा देगा, उसका शोधपत्र छपेगा, चाहे वह निम्न स्‍तर का ही क्‍यों न हो।
विश्‍वविद्यालयों में एसोसिएट प्रोफेसर या प्रोफेसर बनने का मानदंड भी एपीआई अंक हो गया। यहां तक कि तरक्‍की के लिए भी इसे ही आधार बनाया जाने लगा। यही वजह है कि हमारे देश में सामाजिक शोध की स्थिति आशाजनक प्रतीत नहीं होती। गुणवत्तापरक शोध के लिहाज से एपीआई जैसी प्रक्रिया महज एक दुर्भाग्‍य जैसी नजर आ रही है।
इसका एक और दुष्‍परिणाम यह हुआ कि देश में राष्‍ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों की बाढ़-सी आ गई। इसके चलते पिछले चार महीनों में चार राज्यों - दिल्‍ली, उत्तराखंड, मध्‍य प्रदेश, उत्तर प्रदेश में सामाजिक शोध से जुड़े पांच अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में मुझे भी भागीदारी का मौका मिला। इन संगोष्ठियों में एक हजार से अधिक शोधपत्र पढ़े गए। इनमें हिस्सा लेने वालों शोधकर्ताओं और शोध पत्रों की संख्‍या देखकर किसी को भी आश्चर्य हो सकता है। शोधकर्ताओं और शोधपत्रों की इतनी बड़ी संख्या के बारे में जिज्ञासा जताने पर एक साथी शोधकर्ता ने बताया कि यह एपीआई का जमाना है, जिसमें हर किसी को ज्‍यादा नंबर लाना है। हद तो तब हो गई, जब एक संगोष्‍ठी में एक प्रोफेसर साहब ने 11 शोध पत्रों में अपना नाम जोड़ दिया और वह खुद कई एकेडमिक सत्रों के अध्‍यक्ष भी रहे। इन संगोष्ठियों में पढ़े गए शोधपत्रों का स्‍तर देखने पर लगा कि हमारे देश में शोध अब तेजी से पतन की ओर अग्रसर है। संगोष्ठियां सर्टिफिकेट बांटने की दुकानों की तरह सजने लगी हैं। शोधकर्ता अब अध्ययन और अनुसंधान के सहारे नहीं, बल्कि कट-कॉपी-पेस्‍ट तकनीक का उपयोग कर खुद को प्रतिभाशाली दिखाने कोशिश करने लगे हैं।स्थिति यह है कि उच्‍च शिक्षा में सुधार की दृष्टि से बनाया गया एपीआई अपने मूल उद्देश्‍यों से भटक गई है। पहले से ही बदहाल उच्च शिक्षा और शोध की स्थिति सुधारने में एपीआई मर्ज की दवा बनने के बजाय इसे और भी गहरा रही है। ऐसे में जरूरी है कि यूजीसी इसका शीघ्र ही तोड़ खोजने की कोशिश करे, अन्यथा ज्यादातर भारतीय शोधकर्ता कट-कॉपी-पेस्‍ट का पुरोधा बन बैठेगा। फिर तो शैक्षणिक जगत में स्थिति और भी भयावह एवं अराजक बन जाएगी। उच्च शिक्षा में सुधार और शोध की स्तरीयता के लिए बनाया गया एपीआई अपने उद्देश्यों से ही भटक गया है, जो इस मर्ज को बढ़ा ही रहा है।(लेखक -आदित्य शुक्ला )

गूगल ने बनाया कृत्रिम दिमाग

सर्च इंजन कंपनी गूगल ने तकनीक की दुनिया में एक और चमत्कार करते हुए कृत्रिम दिगाम बनाया है। अपनी खुद की सोच समझ रखने वाला यह मशीनी दिमाग १६ हजार कंप्यूटर प्रोसेसरों और एक अरब से भी अधिक कनेक्शनों के दम पर बना है। गूगल के मालिक लैरी पेज, सर्गेई ब्रिन और एरिक स्किमिड ने बताया कि उनकी टीम के अगुवा जेफ डीन ने इस आर्टीफिशियल ब्रेन में यू-ट्यूब के एक करोड़ वीडियो डाले हैं। उसे इस तरह से तैयार किया है कि वह इन जानकारियों के बलबूते खुद ही चीजों को जाने और सीखे। चौंकाने वाली बात यह है कि इस आर्टीफिशियल ब्रेन ने इन सभी वीडियो की पड़ताल के बाद खुद ही सबसे पहले अपना ध्यान बिल्लियों पर लगाया है। हालाँकि आर्टीफिशियल ब्रेन को प्रशिक्षण के दौरान कभी भी बिल्ली के बारे में कुछ नहीं बताया गया। टीम ने इस नेटवर्क को बीस हजार श्रेणियों की वस्तुओं को सही रूप में पहचानने के लिए तैयार किया।

Friday 29 June 2012

प्रकाश की गति से तेज कुछ नहीं

आइंस्टीन ने सौ साल पहले कहा था कि प्रकाश की गति से तेज कुछ नहीं हो सकता है. पिछले साल सर्न के वैज्ञानिकों ने इस पर सवाल उठाया था और कहा था कि न्यूट्रीनो तेज हो सकते हैं. लेकिन साइंस डेली के अनुसार रोम की प्रयोगशाला में किये गये शोध के आधार पर कहा गया हैकि कई परीक्षणों के बाद यहां के वैज्ञानिकों ने मान लिया है कि आइंस्टीन सही थे. एटम यानी परमाणु से भी छोटे इस कण पर स्विट्जरलैंड की मशहूर सेर्न प्रयोगशाला में प्रयोग किए गये थे. इटली की ग्रैन सासो ने पिछले साल सितंबर में यह दावा किया था कि गति के मामले में प्रकाश को भी मात देने वाला कोई कण पा लिया गया है. कई वैज्ञानिकों ने सेर्न के उस प्रयोग के बाद से ही उस पर उंगली उठानी शुरू कर दी थी. क्योंकि उससे आइंस्टीन का बुनियादी सिद्धांत गलत साबित हो रहा था. साल 1905 में आइंस्टीन ने सापेक्षता का सिद्धांत दिया था, जिसमें कहा गया था कि इस ब्रह्मांड में कोई भी वस्तु प्रकाश की गति से तेज नहीं चल सकती. अगर यह सिद्धांत गलत साबित हो जाता, तो आधुनिक भौतिकी के दर्जनों सिद्धांत खारिज हो जाते, क्योंकि वे उसी बुनियाद पर तैयार हुए हैं. इसके अलावा विज्ञान की हजारों किताबों को दोबारा लिखना पड़ता. अपने प्रयोगों में सेर्न के वैज्ञानिकों ने एक-एक कर सात न्यूट्रीनो को छोड़ा और देखा कि उनकी रफ्तार लगभग प्रकाश की गति के बराबर ही है. सेर्न के वैज्ञानिक ब्रह्मांड की उत्पत्ति के बारे में जानने के लिए यह प्रयोग कर रहे हैं कि वे इस रहस्य से पर्दा उठाना चाहते हैं कि आखिर पृथ्वी और इसका वातावरण कैसा बना.

अखबारों में सितम्बर 2011 को प्रकाशित मेरे लेख

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Thursday 28 June 2012

मानव मस्तिष्क में सेंध लगाने की तैयारी


मानव मस्तिष्क हमेशा से उलझी गुत्थी रही है. वैज्ञानिक इसे जितना सुलझाने की कोशिश करते हैं, उतना ही और उलझ जाते हैं. तभी तो वैज्ञानिक इसके कार्य करने के तरीके को पूरी तरह बताने में आज भी हिचकिचाते हैं. हां, हाल के दिनों में कुछ सफल प्रयोग हुए हैं, जिसके आधार पर वैज्ञानिक इसकी कार्यप्रणाली का खाका दुनिया के सामने प्रस्तुत करने का दावा कर रहे हैं. हालांकि इस सफलता के बावजूद इसके कई पहलू अब भी अनसुलझे हैं. हाल ही में खबर आयी है कि वैज्ञानिकों ने ऐसा यंत्र बनाया है, जिसकी मदद से बिना बोले इनसानों की सोच का पता लगाया जा सकता है. लेकिन मस्तिष्क की संरचना का नापजोख करना आसान काम नहीं है. उसमें करीब 100 अरब स्नायु कोशिकाएं होती हैं. इन्हें हम न्यूरॉन भी कहते हैं. प्रत्येक न्यूरॉन हजारों अन्य स्नायु कोशिकाओं के साथ जुड़ा होता है. ये कनेक्शन सिनॉप्सिस कहलाते हैं. इनकी संख्या खरबों में होती है. स्नायु सर्किट कैसे काम करता है, यह जानने के लिए सबसे पहले वैज्ञानिकों को पता होना चाहिए कि प्रत्येक न्यूरॉन का विशिष्ट कार्य क्या है और वह मस्तिष्क की किन कोशिकाओं के साथ जुड़ा है. यदि वैज्ञानिक कुछ खास काम करने वाले न्यूरॉन के बीच कनेक्शनों का नक्शा तैयार करने का कोई तरीका खोज लेते हैं, तो ही इसके आधार पर मस्तिष्क का कोई कंप्यूटर मॉडल तैयार करने में सफलता मिल सकती है. फिर तो यह भी समझना संभव हो जायेगा कि मस्तिष्क का जटिल स्नायु नेटवर्क किस तरह विचारों और अनुभूतियों को जन्म देता है. लेकिन तब तक मानव मस्तिष्क की जटिल संरचना की गुत्थी उलझी रहेगी, क्योंकि छोटी सी जगह में ही एक-दूसरे से जु.डे 50 से 100 अरब न्यूरॉन संदेशों को इलेक्ट्रोकेमिकल प्रक्रिया के जरिये एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाते हैं. अर्थात् शरीर में मौजूद रसायन, जैसे आवेशित सोडियम, पोटैशियम और क्लोराइड आयन कोशिका के बीच संपर्क सूत्र स्थापित करते हैं और ये इलेक्ट्रिकल करेंट पैदा करते हैं, जिसके आधार मस्तिष्क में सूचनाओं का संचार होता है. लेकिन मस्तिष्क द्बारा लिया गया निर्णय किसी एक न्यूरॉन की सक्रियता से संबंधित नहीं होता है. मस्तिष्क में बड़ी संख्या में मौजूद न्यूरॉन के समूहों के सक्रिय होने के बाद ही मस्तिष्क किसी निर्णय पर पहुंचता है. एक न्यूरॉन की इसमें भूमिका नहीं होती. वैज्ञानिकों के सामने सैकड़ों न्यूरॉन की गतिविधियों को रिकॉर्ड करने और उन आंकड़ों को प्रस्तुत करने कोई कारगर यंत्र नहीं था. हालांकि अब आइब्रेननाम का यंत्र बनाने में वैज्ञानिकों को सफलता मिली है, लेकिन यह कितना सफल होगा यह तो वक्त ही बतायेगा.

वैज्ञानिक कहते हैं कि हमारे मस्तिष्क द्बारा किये गये एक कार्य में सैकड़ों न्यूरॉन की भागीदारी होती है. उसमें से एक की भूमिका का पता लगाना बहुत ही दुष्कर कार्य है. लेकिन वैज्ञानिकों ने इसके के लिए दो तरीकों डिकोडिंग और सूचना सिद्धांत का प्रयोग किया है. डिकोडिंग मुख्य रूप से किसी निर्णय के कारणों को जानने में मदद करता है. डिकोडिंग का अध्ययन न्यूरॉन्स की गतिविधि के आधार पर होता है. वहीं सूचना सिद्घांत से पता चलता हैकि उस दौरान न्यूरॉन ने कितनी सूचनाओं को एक से दूसरे तक पहुंचाया. ये दोनों तरीके वैज्ञानिकों को मस्तिष्क के किसी क्षण में निर्णय लेने की प्रक्रिया को जानने में मदद करते हैं. डिकोडिंग के आधार पर दिमाग की गतिविधि का पता लगाया जा सकता है, मसलन, मस्तिष्क कैसे किसी घटना के बारे में सोचता है, लेकिन इसके लिए इलेक्ट्रॉनिक तकनीक की जरूरत होगी. इसके बाद ही किसी इनसान के दिमाग में आने वाले विचारों को पढ.ा जा सकता है. वैज्ञानिकों का मानना है कि इस यंत्र को न्यूरॉन से संबंद्ध कर उसकी गतिविधि को जाना जा सकता है.

मस्तिष्क के कामकाज को कुछ इस तरह से भी समझा जा सकता है. धरती पर जितने भी मोबाइल फोन और कनेक्शन मौजूद हैं, उन सबसे होने वाले संदेशों के आदान-प्रदान पर नजर रखना कितना कठिन होगा. लेकिन यह एक मानव मस्तिष्क की गतिविधि पर नजर रखने से ज्यादा कठिन नहीं है. हालांकि मस्तिष्क में एक न्यूरॉन से दूसरे न्यूरॉन तक संदेशों को पहुंचाने की जिम्मेवारी कुछ रसायनों की होती है. इस प्रक्रिया में रसायन एक न्यूरान से दूसरे न्यूरॉन तक पहुंचता है और अपने साथ संदेशों को भी ले जाता है. फिर उस संदेश से जुड़ी तंत्रिका संक्रिय हो जाती है. लेकिन प्रत्येक संदेश के लिए अलग-अलग रसायन जिम्मेवार होते हैं. इन रसायनों को ट्रांसमीटर कह सकते हैं. वैसे इन्हें एपीनफरीन, नोरेपीनेफरीन या डोपमाइन कहा जाता है. एक मस्तिष्क एक कंप्यूटर से कई गुना ज्यादा सूचनाओं को स्टोर कर सकता है. जिस प्रकार से एक ऑकेस्ट्रा में कई यंत्रों के मेल से संगीत बजता है और सभी यंत्र एक-दूसरे से जु.डे होते हैं, वैसे ही मस्तिष्क में कई विभाग होते हैं और सभी अलग-अलग होते हुए भी मिल कर कार्य करते हैं और मस्तिष्क की संपूर्ण गतिविधियों का संचलन करते हैं. इस प्रकार हमारा शरीर नियंत्रित होता है.

मस्तिष्क में सभी सूचनाएं स्पाइनल कोर्ड के जरिये प्रवेश करती हैं. अर्थात् यह मस्तिष्क का मुख्य आधार है. इसमें कोई भी क्षति मस्तिष्क को प्रभावित करती है. इसके जरिये ही विभित्र सूचनाएं जैसे- गरम, ठंडा, दर्द आदि मस्तिष्क तक पहुंचती हैं. फिर हमारा मस्तिष्क न्यूरॉन के जरिये विभित्र अंगों को निर्देश भेजता है. इस तरह संदेश हमारे मस्तिष्क से बाहर निकलते हैं. यदि शरीर से स्पाइनल कोर्ड को निकाल दिया जाये, तो हम पंगु हो जाएंगे. हमें किसी चीज को छूने से गर्म, ठंड, यहां तक कि दर्द आदि का भी एहसास नहीं होगा. लेकिन देखने और सुनने की सूचनाएं स्पाइनल कोर्ड से होकर मस्तिष्क तक नहीं जातीं हैं. यही वजह है कि लकवाग्रस्त हो जाने के बाद भी लोग देखते और सुनते रहते हैं. इस प्रकार स्पाइनल कोर्डसे सूचनाएं सीधे मस्तिष्क के मध्यभाग में पहुंचा दी जाती हैं. यहां से वह अन्य हिस्से में जाती है. 

कह सकते हैं कि हमारा मस्तिष्क वृक्ष की तरह है, जिसकी कई शखाएं होती हैं, लेकिन जिसकी जड़ एक होती है. हमारे मस्तिष्क का रंग ग्रे होता है. इसीलिए इसे ग्रे भाग भी कहा जाता है. सर में दायां और बांया दो मस्तिष्क होता है. दोनों अलग-अलग कार्य करते हैं. दायां भाग दृश्य संबंधी कार्य करता है और इसके कारण हम सूचनाओं को समग्रता में देखने में सक्षम होते हैं. अर्थात् यह बिखरी चीजों को समूह में जोड़ता है. वहीं बायां भाग तार्किकता से संबंधित होता है. यह सूचनाओं का वेिषण करता है. उसके बारे में सोचता-विचारता है. अर्थात् दायां भाग देखता है और बायां भाग उसके बारे में बताता है, यानी संदेश प्रसारित करता है.(साभार -प्रभातखबर )

Wednesday 27 June 2012

अखबारों में अक्टूबर 2011 को प्रकाशित मेरे लेख

राष्ट्रीय सहारा 

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राष्ट्रीय सहारा 


अमर उजाला 

नवभारतटाइम्स

हरिभूमि 



प्रभातखबर 

पर्यावरण संरक्षण और पूंजीवाद साथ साथ नहीं


शशांक द्विवेदी 
आज से ठीक 20 साल पहले वर्ष 1992 में  पृथ्वी के अस्तित्व पर मंडरा रहे संकट और जीवों के सतत् विकास की  चिंताओं से निपटने के लिए साझी रणनीति बनाने के उद्देश्य  से दुनियाभर के नेता ब्राजील के शहर रियो डि जेनेरियो में अर्थ समिट यानी पृथ्वी सम्मेलन में एकत्र हुए थे.
इस सम्मलेन  में जमा हुए पूरी दुनिया के नेता पृथ्वी के अधिक सुरक्षित भविष्य के लिए एक महत्वाकांक्षी योजना पर सहमत हुए थे। इस सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्याओं को लेकर गहरी चिंता जतायी गयी थी और इनसे लड़ने के लिए मिलकर प्रयास करने का संकल्प लिया गया था. इसमें वे जबर्दस्त आर्थिक विकास और बढ़ती जनसंख्या की आवश्यकताओं के साथ हमारी धरती के सबसे मूल्यवान संसाधनों जमीन, हवा और पानी के संरक्षण का संतुलन बनाना चाहते थे। इस बात को लेकर सभी  सहमत थे कि इसका एक ही रास्ता है - पुराना आर्थिक मॉडल तोड़कर नया मॉडल खोजा जाए। उन्होंने इसे टिकाऊ विकास का नाम दिया था। दो दशक बाद हम फिर भविष्य के मोड़ पर खड़े हैं। मानवता के सामने आज भी वही चुनौतियां हैं, बस उनका आकार बड़ा हो गया है। 172 देशों के प्रप्रतिनिधियों ने संयुक्त राष्ट्र द्वारा पर्यावरण और विकास के मुद्दों पर आयोजित इस वैश्वि2क सम्मेलन में शिरकत की थी. बीस साल बाद यह संकल्प पूरा होता नहीं दिखाई देता. एक बार फिर दुनिया के शीर्ष नेताओं ने  रियो डि जेनेरियो में पृथ्वी सम्मेलन में भाग लिया . 20 से 22 जून तक आयोजित होने वाले इस सम्मेलने को ही रियो+20 का नाम दिया गया .
1992 के पृथ्वी सम्मेलन में दुनिया के नेता हमारी पृथ्वी को भविष्य के लिए अधिक सुरक्षित बनाने के लिए एक महत्वाकांक्षी योजना पर सहमत हुए थे. इस सम्मेलन में यूएनएफसीसीसी- यूनाइटेड नेशन फ्रेमवर्क कंवेंशन ऑन क्लाइमेटिक चेंज पर सहमति बनी. पर्यावरण को बचाने के लिए क्योटो प्रोटोकॉल भी इसी सम्मेलन का परिणाम था.

प्रति व्यक्ति वैश्विक आर्थिक वृद्धि दुनिया की जनसंख्या के साथ मिलकर पृथ्वी की नाजुक पारिस्थिति पर अभूतपूर्व दबाव डाल रही है। हम यह मानने लगे हैं कि सब कुछ जलाकर और खपाकर हम संपन्नता के रास्ते पर नहीं बढ़ते रह सकते। इसके बावजूद हमने उस सहज समाधान को अपनाया नहीं है। टिकाऊ विकास का यह अकेला रास्ता आज भी उतना ही अपरिहार्य है, जितना 20 वर्ष पहले था।
पहले रियो सम्मेलन के दो दशक पूरे हो चुके हैं, लेकिन आज भी दुनिया उन्हीं सवालों से जूझ रही है, जो उस वक्त हमारे सामने थे. बल्कि स्थितियां और गंभीर ही हुई हैं. इस बीच दुनिया की आबादी बढ.कर सात अरब हो गयी है. ग्लोबल तापमान में वृद्धि का सिलसिला जारी है. आबादी बढ.ने से प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ.ा है और प्राकृतिक संसाधनों के स्रोत सीमित होने के कारण भविष्य को लेकर चिंताएं बढ.ी हैं. इसके बावजूद हमने अंधाधुंध विकास की जगह वैकल्पिक समाधान को नहीं अपनाया है. टिकाऊ विकास की चुनौती आज भी हमारे सामने बनी हुई है. इस चुनौती से निपटने के लिए साल के शुरू में जीरो ड्राफ्ट की घोषणा की गयी.

"भविष्य जैसा हम चाहते हैं" के मसौदे पर बहस

रियो+20 और यूएनसीएसडी (यूनाइटेड नेशंस कांफ्रेंस ऑन सस्टेनेबल डेवलपमेंट) सम्मेलन के वार्ता मसौदे को जीरो ड्राफ्ट कहा गया है. इसका शीर्षक है- भविष्य जो हम चाहते हैं. नवंबर 2011 में सदस्य देशों, संयुक्त राष्ट्र, अंतरराष्ट्रीय एनजीओ और पर्यवेक्षक संगठनों की मदद से इस मसौदे को तैयार किया गया था. इसे 11 जनवरी 2012 को सार्वजनिक किया गया. अब अंतिम मसौदे को इस बैठक में अपनाया जायेगा.
इस ड्राफ्ट को पांच वर्गों  में बांटा गया है- प्रस्तावनाएं, राजनीतिक प्रतिबद्धता का नवीकरण, सतत विकास के संदर्भ में हरित अर्थव्यवस्था और गरीबी उन्मूलन, सतत विकास के लिए संस्थागत ढांचा और पालन और कार्यवाही के लिए रूपरेखा.

लेकिन कुछ विशेषज्ञों के अनुसार इस मसौदे में जिन विषयों को चुना गया है, वह संकट के सही कारणों को नहीं बतलाते. नतीजतन, उन्हें दूर करना काफी मुश्किल है. इसमें हरित अर्थव्यवस्था और गरीबी उन्मूलन पर स्पष्ट सोच दिखाई नहीं पड़ती है.

जीरो ड्राफ्ट के सार को देखने से लगता है कि प्रकृति और विकास के बीच सामंजस्य को केंद्र में रखते हुए यह दस्तावेज तैयार नहीं किया गया है, बल्कि आर्थिक विकास ही हमारी प्राथमिकता बनी हुई है. इस मसौदें में कार्बन उत्सर्जन और जंगलों के विनाश पर स्पष्ट तौर पर कुछ नहीं कहा गया है. जिससे कुछ  देशों ने इसकी आलोचना भी की  है क्योंकि लेकिन ब्राजील सरकार के अनुसार  सभी 153 देशों ने मोटे तौर पर मसौदे को सहमति दे दी है.



जी-77 देशों की मांग

जी-77 विकासशील देशों का एक समूह है. शुरू में इसके 77 संस्थापक देश थे, लेकिन अब इसके सदस्यों की संख्या 132 तक हो चुकी है. इन देशों का मानना है कि विकसित देशों द्वारा पहले किये गये वादों और प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिए दबाव डाला जाना चाहिए, जबकि विकसित देश इसके प्रति उदासीन नजर आते हैं. जी-77 गरीबी उन्मूलन व सामाजिक विकास के क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संस्थागत ढांचों में मूलभूत बदलाव भी चाहता है, ताकि विकासशील देशों का मजबूत प्रप्रतिनिधित्व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो सके. विकसित देश व्यापक स्तर पर नये सिरे से इस बदलाव के पक्ष में नहीं हैं.

रियो+20 में भारत की भूमिका 

विश्वक स्तर पर होने वाले सबसे ब.डे सम्मेलन में भारत का प्रप्रतिनिधित्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने किया .इस  सम्मेलन का आधार 20 साल पहले का रियो घोषणा पत्र है. उसी आधार पर जलवायु परिवर्तन आदि विषयों पर चर्चा होनी है, लेकिन अब विकसित देशउन सभी नियमों को हटाना चाहते हैं, जो उनके खिलाफ जाते हैं. भारत इस मुद्दे पर विकासशील देशों के समूह जी-77 के साथ है.

असली बात यह है कि अमेरिका सहित कई विकसित देश चाहते हैं कि विकासशील देश अपने उद्योग-धंधों की रफ्तार कम करें और कार्बन उत्सर्जन के स्तर को तेजी से नीचे लेकर आएं। लेकिन विकसित देश न तो आर्थिक सहयोग देने को तैयार हैं और न ही तकनीकी सहयोग। कहने का मतलब विकासशील देश कितना एकतरफा सहयोग करें। जबकि यह विश्व समुदाय की जिम्मेदारी है कि वह इस ढांचे को इस प्रकार व्यावहारिक रूप दे जिससे हर देश  पर्यावरण संरक्षण के साथ साथ अपनी राष्ट्रीय प्राथमिकताओं और परिस्थिति के अनुरूप प्रगति कर सके। वास्तव में वैश्विक स्तर पर समस्याओं को सुलझाने के लिए जिम्मेदारी में समान रूप से बंटवारा होना चाहिए। सम्मेलन के फाइनल मसौदा बयान से स्पष्ट होता है कि विकसित देश गरीब अर्थव्यवस्थाओं के स्थायी विकास की खातिर वित्तपोषण के बारे में कोई आंकड़े तय करने में नाकाम रहे हैं। जबकि हमें मौजूदा दौर में आने वाले खर्च तथा भविष्य की पीढ़ियों को होने वाले फायदे के बीच संतुलन की कल्पना करनी होगी।

भारत हरित अर्थव्यवस्थाग्रीन इकोनॉमी का पक्षधर है, जो इस सम्मेलन का लक्ष्य भी है, लेकिन वह चाहता है कि इसमें विकासशील और विकसित दोनों देशों की भूमिका अनुपातिक हो. इसके अलावा भारत चाहता है कि पहले रियो सम्मेलन के दौरान तय किये गये सभी वादों को पूरा करने की दिशा में भी ठोस कदम उठाये जायें. भारत सीबीडीआर यानी कॉमन, बट डिफरेंशिएटेड रेसपांसिबिलिटी का भी सर्मथन करता है. यह स्थायी विकास का महत्वपूर्ण हिस्सा है, दो 1992 के रियो पृथ्वी सम्मेलन के संदर्भ में अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण कानून के तौर पर सामने आया था.
रियो+20 से कितनी है उम्मीद
रियो 1992 के बाद से पर्यावरण को लेकर राष्ट्रीय व क्षेत्रीय स्तर पर तो काम में प्रगति हुई है, किंतु जब ये देश वैश्रि्वक स्तर पर विमर्श करते हैं तो अविश्वास उभर कर सामने आ जाता है। पर्यावरण के मुद्दों पर इसलिए मतभिन्नता है, क्योंकि धनी देश सबके लिए विकास की वचनबद्धता से मुकर गए हैं। अब वे नई व्यवस्था बनाने के लिए फिर से नई पहल करना चाहते हैं, किंतु इन हरकतों से हमारी पृथ्वी नहीं बचेगी। कटु सच्चाई यह है कि जब तक विश्व अपने गहरे मतभेदों को नहीं सुलझा लेता तब तक वैश्रि्वक कार्रवाई कमजोर और बेमानी सिद्ध होगी।

विकसित देश खुद को पर्यावरण अभियान के मिशनरी बताते हैं और अन्य सभी को विश्वासघाती। सवाल यह है कि वैश्रि्वक स्तर पर पर्यावरण बचाने के लिए और क्या-क्या किया जा सकता है? असलियत यह है कि वैश्रि्वक पर्यावरण से जुड़ी तमाम समस्याओं, जिनमें जलवायु परिवर्तन से लेकर स्वास्थ्य के लिए हानिकारक कचरे का निपटारा तक शामिल है, को लेकर अलग-अलग संधिया लागू हैं। सहभागिता और सहयोग के अंतरराष्ट्रीय नियमों पर समानातर प्रक्रियाओं और संस्थानों के स्तर पर गंभीर मंथन किया जाये और उससे सार्थक परिणाम निकले तो वह सभी के लिए बेहतर होगा .
1992 के पृथ्वी शिखर सम्मेलन में ही भविष्य के विकास के तरीके को लेकर तसवीर खींची गयी थी. उस सम्मेलन के लक्ष्य अभी भी अधूरे हैं. आज आपसी विवादों के समाधान की जरूरत है.
क्योटो प्रोटोकॉल अपना लक्ष्य पूरा करने में नाकाम रहा है और क्योटो से आगे का रास्ता धुंधला बना हुआ है. कोपेनहेगेन और डरबन सम्मेलनों में भी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सका. आगे की राह चुनौती भरी है. दुनिया को ऐसे वक्त शक्तिशाली नेतृत्व की जरूरत है, जो फिलहाल दिखाई नहीं देता.

वर्तमान परिवेश में आज जरुरत इस बात की है कि हम  भविष्य के लिए ऐसा नया रास्ता चुनें जो संपन्नता के आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय पहलुओं तथा मानव मात्र के कल्याण के बीच संतुलन रख सके। हमें यह बाद हमेशा याद रखना होगा कि "पृथ्वी हर आदमी की जरूरत को पूरा कर सकती है लेकिन किसी एक आदमी के लालच को नहीं."



लुप्त होती भाषाओं को बचाने की ‘गूगल’ कवायद


मानवता की सबसे बड़ी खोज संभवत: भाषा है, लेकिन बड़ी परेशानी यही है कि आज वे भाषाएं नहीं बोली जाती, जो एक जमाने में बोली जाती थीं. निश्‍चित तौर पर भाषाओं का अपना ऐतिहासिक-सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व है. लेकिन आज हजारों भाषाएं अस्तित्व के संकट से जूझ रही हैं. इंटरनेट की दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियों में एक गूगल ने मरती भाषाओं को बचाने की कोशिश के तहत 21 जून को इनडेंर्जडलैंग्वेजेसडॉटकॉम नाम की साइट शुरु की है. गूगल के इस प्रोजेक्ट को कई संस्थाओं ने सराहा है. लेकिन सवाल यही है कि क्या गूगल के नेतृत्व में आरंभ हुई यह परियोजना खत्म होती भाषाओं को नया जीवन दे पायेगी? इससे जु.डे विभित्र पहलुओं पर विशेष प्रस्तुति 
आपने ‘कोरो’ के बारे में सुना है? भारत के उत्तर पूर्वी राज्यों के पहाड़ों में बोली जाने वाली इस भाषा को अब बमुश्किल एक से चार हजार लोग बोलते हैं. ‘पोइटेविन’ भाषा को फ्रांस के मध्य भाग में रहने वाले चंद ब.डे बुजुर्ग ही बोलते हैं. ‘शोर’ भाषा को बोलने वाले रूस में दस हजार से भी कम लोग बचे हैं, जबकि आस्ट्रेलिया की ‘पुतिजारा’ भाषा को बोलने वाले तो सिर्फ चार लोग ही शेष हैं. अस्तित्व बचाने के लिए जूझ रही ऐसी भाषाओं की संख्या हजारों में है. यूनेस्को के मुताबिक दुनिया भर में 2473 भाषाएं मरने की कगार पर हैं, लेकिन गूगल की कोशिश से आरंभ हुई वेबसाइट इनडेंर्जडलैंग्वेजेसडॉटकॉम पर 3054 भाषाओं का जिक्र है. इस साइट के मुताबिक दुनिया की करीब आधी भाषाओं का अस्तित्व संकट में है और अभी बोली जाने वाली 7000 भाषाओं में 3500 मर रही हैं.

इनडेंर्जड लैंग्वेज प्रोजेक्ट 

इंटरनेट की दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियों में एक गूगल ने मरती भाषाओं को बचाने की कोशिश के तहत 21 जून को इनडेंर्जडलैंग्वेजेसडॉटकॉम नाम की साइट शुरू की है. अस्तित्व के संकट से जूझती भाषाओं को बचाने के गूगल के अभिनव प्रोजेक्ट को 29 संस्थाओं का सर्मथन है. इस प्रोजेक्ट को आरंभ करने के बाद इसकी तमाम गतिविधियों पर गूगल नजर रखेगा. लेकिन जल्द ही पूरा प्रोजेक्ट फस्र्ट पीपुल्स कल्चरल काउंसिल, द इंस्टीट्यूट ऑफ लैंग्वेज इंफॉर्मेशन एंड टेक्नोलॉजी और इस्टर्न मिशिगन यूनिवर्सिटी की देखरेख में संचालित होगा. इनडेंर्जडलैंग्वेजेसडॉटकॉम पर उन सभी 3054 भाषाओं का संक्षिप्त उल्लेख है, जिन्हें बचाने की कवायद शुरू की गयी है.

कार्यप्रणाली 

इस कार्यक्रम के तहत मृतप्राय भाषाओं को चार श्रेणियों में रखा गया है. जोखिम में, खतरे में, भयंकर खतरे में और पूरी तरह अनजान. गूगल का मानना है कि लुप्त होती भाषाओं को तकनीक की मदद से बचाया जा सकता है, लिहाजा वेबसाइट पर सुविधा दी गयी है कि लोग मर रही भाषाओं-बोलियों के बारे में जानकारी पाने के अलावा उनसे जुड़ी पांडुलिपियां, ऑडियो-वीडियो फाइल आदि शेयर कर सकते हैं अथवा जमा कर सकते हैं. लोगों से अपील की गयी है कि वे ऐसी भाषाओं से संबंधित कोई भी जानकारी यहां बांटें. इस साइट के माध्यम से लुप्त होती भाषाओं का संरक्षण, प्रचार और सिखाने की भरसक कोशिश है. हालांकि, उन भाषाओं की पूरी सूची साइट पर है, जो खतरे में हैं, लेकिन इनमें से कई भाषाओं से जुड़ा कोई ऑडियो-वीडियो और यहां तक कि पाठ्य भी उपलब्ध नहीं है. गूगल ने उपयोगकर्ताओं से आग्रह किया है कि वे इन भाषाओं के नमूने उपलब्ध कराने में मदद करें.

शुरुआत 

दुनिया के कई मुल्कों में अपने यहां बोली जाने वाली भाषाओं को बचाने की कवायद चल रही है. लेकिन गूगल का यह महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट इन कोशिशों को नया रंग दे सकता है. पर गूगल इस प्रोजेक्ट से जुड़ा कैसे? इंटरनेट कंपनी गूगल ने एक उदाहरण इस बाबत भी दिया है. साइट के मुताबिक ‘मियामी इलिनोइस’ भाषा 1960 के आसपास खत्म हो गयी थी. अमेरिका में इलिनोइस और मियामी के बीच रहने वाले लोग इस बोली को बोलते थे. चंद साल पहले ओकलाहोमा की मियामी जनजाति से संबंध रखने वाले डेरिल बैल्डविन ने खुद यह भाषा सीखनी शुरु की. उन्होंने तमाम पुरानी पांडुलिपियों को इसका आधार बनाया.

करत करत अभ्यास बैल्डविन इस भाषा में पारंगत होते गये और आज वह ओहायो की मियामी यूनिवर्सिटी में इस भाषा को जीवित करने में जुटे हैं. इस भाषा में उनकी कई कहानियां और ऑडियो-वीडियो प्रकाशित-प्रसारित हो चुके हैं और मियामी के बच्चे एक बार फिर मियामी इलिनोइस भाषा सीख रहे हैं. इस तरह के कुछ उदाहरणों ने गूगल को इनडेंर्जडलैंग्वेजेस प्रोजेक्ट आरंभ करने की प्रेरणा दी.

सफलता 

जानकारों के मुताबिक गूगल के इस प्रोजेक्ट की सफलता आम लोगों पर निर्भर है. उपयोगकर्ताओं द्वारा निर्मित सामग्री यदि लगातार मिलती है, तो मरती भाषाओं से संकट टल सकता है. वैसे, परियोजना के प्रबंधकों क्लारा रिवेरा रोड्रिगुएज और जेसन रिसमैन ने गूगल ब्लॉग पोस्ट पर लिखा है कि बहुत सारे लोगों ने वेबसाइट के माध्यम से सामग्रियों को साझा करना शुरू कर दिया है. लोगों ने 18वीं सदी की पांडुलिपि से लेकर आधुनिक तकनीकों जैसे वीडियो और ऑडियो के माध्यम से भी अपनी जानकारी साझा की है. आस्ट्रेलिया के एक युवक ने तो अपनी मृतप्राय भाषा में कई रॉक गीत पेश किये हैं. यह गाने काफी लोकप्रिय हो रहे हैं और इन गानों की वजह से उस भाषा से जु.डे रहे परिवारों के नव युवकों में भाषा सीखने की ललक पैदा हो रही है.

चुनौतियां 

मानवता की सबसे बड़ी खोज संभवत: भाषा है, लेकिन बड़ी परेशानी यही है कि आज वे भाषाएं नहीं बोली जाती, जो एक जमाने में बोली जाती थीं. विद्वानों को वह भाषा सीखने में बहुत दिक्कत का सामना करना पड़ता है, जिसकी विरासत का कोई वास्तविक रखवाला ही नहीं है. इनडेंर्जडलैंग्वेजेसडॉटकॉम के मुताबिक, प्रत्येक लुप्त होती भाषा के साथ मानवता अपने विशाल सांस्कृतिक विरासत को खोने का खतरा झेल रही है. भाषा के मरने के साथ इस बात की समझ भी लुप्त हो जाती है कि उस वक्त मानव आपस में कैसे एक दूसरे से जुड़ता था, संवाद करता था और जिंदगी के रहस्यों को कैसे सुलझाता था. साइंटिफिक अमेरिकन-माइंड में भाषा वैज्ञानिक डा कौरे बिंस ने लिखा है विश्‍व में 7000 भाषाएं हैं, और प्रत्येक माह दो भाषाएं मर रही हंै, और उनके साथ अनेकानेक संततियों से प्राप्त सांस्कृतिक ज्ञान तथा मानव मस्तिष्क का रहस्यमय शब्द प्रेम भी सदा के लिये लुप्त हो रहा है. लिविंग टंग्ज इंस्टिट्यूट फॉर इनडेंर्जड लैंग्वेजेज इन सैलम, ओरेगान के भाषा वैज्ञानिक डेविड हैरिसन तथा ग्रैग एंडरसन कहते हैं कि जब लोग अपने समाज की भाषा में बात करना बंद कर देते हैं, तब हमें मस्तिष्क की विभित्र विधियों में कार्य कर सकने की अद्वितीय अंतर्दृष्टियों को भी खोना पड़ता है. वह कहते हैं कि लोगों को अपनी भाषा में बात करते हुए उन्हें वास्तव में अपने इतिहास से पुन: संपर्क करते देखने में जो संतोष होता है, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता.

निश्‍चित तौर पर भाषाओं का अपना ऐतिहासिक-सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व है. लेकिन भाषाएं भी बाजार से प्रभावित होती हैं और यही वजह है कि दुनिया में चंद भाषाओं का अधिपत्य है. ऐसे में इनडेंर्जडलैंग्वेज प्रोजेक्ट के सामने बड़ी चुनौती उन भाषाओं को बचाने की है, जिन्हें बेहद कम लोग जानते-समझते हैं और जो रोजगार या व्यापार की भाषा नहीं है. आखिर ‘कोरो’ के मरने से भले एक सांस्कृतिक विरासत खत्म हो जाए पर बाजार को कोई फर्क नहीं प.डेगा.

सवाल यही है कि क्या गूगल के नेतृत्व में आरंभ हुई यह परियोजना खत्म होती भाषाओं को नया जीवन दे पायेगी? इस प्रोजेक्ट के लिए फिलहाल फंड का संकट नहीं है, लेकिन बिना आम लोगों के जु.डे इस प्रोजेक्ट की सफलता संदिग्ध है. सवाल यह भी है कि जिन मृतप्राय भाषाओं को बचाने की कवायद हो रही है, उन भाषाओं को जानने वाले इस प्रोजेक्ट से कैसे और कब जुड़ते हैं.

दरअसल, गूगल का यह महात्वाकांक्षी प्रोजेक्ट सफल हुआ तो दुनिया की अद्भुत सांस्कृतिक विरासत को बचाने में उल्लेखनीय भूमिका निभा सकता है. इसमें कोई शक नहीं कि गूगल के पास फंड की कमी नहीं है, और आधुनिक तकनीक का भी कोई संकट नहीं है. सच कहा जाये तो तकनीक के भरोसे ही गूगल इस लड़ाई को जीतना चाहता है. लेकिन, एक सवाल नीयत का भी है और दूसरा वैश्‍विक सहयोग का. फिलहाल, उम्मीद की जानी चाहिए कि गूगल के नेतृत्व में यह प्रोजेक्ट कंपनी की तमाम बड़ी परियोजनाओं की तरह सफल होगा. 
पीयूष पांडे (लेखक साइबर पत्रकार हैं)

     

पीएचडी के मामले में भारत की स्तिथि


उच्च शिक्षा का आलम यह है कि छात्रों के पीएचडी करने के मामले में भारत चीन और अमेरिका से काफी पीछे है। शोध पत्रों और पेटेंट के मामले में भी भारत इन देशों से बहुत पीछे है।
भारत की तुलना में अमेरिका में 5 गुना अधिक छात्र पीएचडी करते है, जबकि चीन में सात गुना अधिक छात्र पीएचडी करते है। भारत में करीब 400 विश्वविद्यालय एवं डीम्ड विश्वविद्यालय हैं, लेकिन यहां हर साल पांच हजार छात्र ही पीएचडी करते हैं, जबकि अमेरिका में प्रतिवर्ष 25 हजार तथा चीन में प्रतिवर्ष 35 हजार छात्र पीएचडी करते हैं। संसद की प्राक्कलन समिति ने पिछले दिनों लोकसभा में प्रस्तुत अपनी 17वीं रिपोर्ट में देश में उच्च शिक्षा की हालत पर गहरी चिंता व्यक्त की है।
सांसद सी गुप्पुसामी की अध्यक्षता की समिति ने विश्वविद्यालयों में वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए सरकार ने एम एम शर्मा समिति की सिफारिशों को लागू करने के लिए 250 करोड़ रुपए की राशि को अपर्याप्त बताया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि समिति विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा वित्त पोषित विश्वविद्यालयों में अनुसंधान की गुणवत्ता और मात्रा के अपर्याप्त स्तर को देखकर चिंतित है। केवल पीएचडी के मामले में ही नहीं बल्कि शोध पत्रों तथा पेटेंट के मामले में भी हम अन्य देशों की तुलना में काफी पीछे है। वर्ष 2005 में भारत के पास 648 पेटेंट थे, जबकि चीन के पास 2452 तथा अमेरिका के पास 4511 और जापान के पास 25145 पेटेंट थे। अनुसंधान पत्रों के प्रकाशन में विश्व में भारत का हिस्सा मात्र 2.5 प्रतिशत है जबकि अमेरिका विश्व अनुसंधान पत्रों को 32 प्रतिशत प्रकाशित करता है।
समिति ने यह भी कहा है कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के विश्वविद्यालयों में अनुसंधान कार्य को बढ़ावा देने के लिए टीचरों की गुणवत्ता बढ़ाने, अनुसंधान परियोजनाओं, अनुसंधान पुरस्कार, कनिष्ठ फेलोशिप देने आदि के कार्यक्रम शुरू होने के बाद भी अपेक्षित परिणाम सामने नहीं आए। समिति ने इस बात पर भी चिंता व्यक्त की है कि सरकार ने वैज्ञानिक अनुसंधान में सुधार के लिए एम एम शर्मा की सिफारिशों के क्रियान्वयन वास्ते मात्र 250 करोड़ रुपए निर्धारित किए हैं जो कि अपर्याप्त हैं। समिति ने कहा है कि अगले साल से यह राशि हर साल में 600 करोड़ रुपए होनी चाहिए। समिति ने यह भी कहा है कि सिफारिशों को लागू करने में प्रशासनिक विलंब के कारण लागत में आने वाली वृद्धि का भी ध्यान रखे और आवंटन राशि में उनके अनुसार वृद्धि करे।
समिति ने इस बात पर भी चिंता व्यक्त की है कि वर्तमान में यूजीसी सचिवालय में कुल स्वीकृत 806 पदों में 223 पद ही रिक्त हैं यानी कुल पदों का 28 प्रतिशत रिक्त है। समिति ने कहा है कि निकट भविष्य में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भारी वृद्धि होने की संभावना है, यह देखते हुए यूजीसी अपने वर्तमान संगठनात्मक ढांचे के रहते भविष्य का कार्यभार संभालने में सक्षम नहीं है। समिति ने कहा है कि यूजीसी राज्य स्तर पर अपने कार्यो के समन्वय के लिए प्रत्येक राज्य में कार्यालय खोले और कंप्यूटरीकृत प्रणाली विकसित करे।
समिति ने सकल घरेलू उत्पाद का कम से कम 2 प्रतिशत उच्च शिक्षा पर खर्च करने की सिफारिश की है। फिलहाल सकल घरेलू उत्पाद का केवल 0.4 प्रतिशत ही उच्च शिक्षा पर खर्च किया जाता है जबकि विकसित देशों सकल घरेलू उत्पाद का 1.5 प्रतिशत उच्च शिक्षा पर खर्च किया जाता है।

फेसबुक ने बिना बताए बदले ९० करोड़ यूजर्स के आईडी


यूजर्स को बदलाव की पूर्व में नहीं दी जानकारी

सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक ने अपने ९० करोड़ यूजर्स के ईमेल एड्रेस बिना किसी पूर्व सूचना के बदल दिए हैं। यूजर्स की नई आईडी अब एट द रेट फेसबुक डॉट कॉम पर खत्म होगी। मंगलवार से शुरू हुए इस बदलाव के तहत यूजर्स का निजी ईमेल अकाउंट छुप गया है। इसका अर्थ यह हुआ कि यदि फेसबुक पर कोई आपको आपकी पर्सनल ईमेल आईडी से ढूँढता है और आपको ईमेल भेजना चाहता है तो उसे आपके ईमेल के साथ फेसबुक डॉट काम जुड़ा दिखाई देगा, जब तक कि आप खुद इसे परिवर्तित न कर दें। मतलब साफ है कि अब मैसेज फेसबुक के द्वारा आएँगे न किसी अकाउंट से। 
अप्रैल में ही कंपनी की ओर से इस बदलाव की घोषणा कर दी गई थी। फेसबुक की प्रवक्ता जिलीयन स्टीफैंकी ने कहा कि फेसबुक निजता के लिहाज से साइट की सेटिंग्स में भी व्यापक परिवर्तन करने पर विचार कर रही है। साथ ही फेसबुक अपने यूजर्स को यह सुविधा भी मुहैया कराएगी कि वह जिस ईमेल एड्रेस को फेसबुक पेज पर प्रदर्शित करना चाहते हैं वही दिखाई दे। उन्होंने कहा कि जिस वक्त कंपनी ने टाइम लाइन की शुरुआत की थी, काफी मिली-जुली प्रतिक्रियाएँ आई थीं। पर यह बदलाव सफल रहा।

Tuesday 26 June 2012

गूगल की खास विशेषता


याददाश्त के मामले में हर इंसान एक-दूसरे से अलग होता है। कुछ लोगों को ऐतिहासिक तारीखें सारे ब्यौरों के साथ याद रहती हैं, पर कई ऐसे भी होते हैं जिनके लिए रोजमर्रा की चीजें याद रखना ही एक बड़ी चुनौती है। अक्सर ऐसा होता है कि वे कोई चीज कहीं रखकर ऐसे भूल जाते हैं कि उसे खोजना लगभग नामुमकिन हो जाता है। कई दफा ऐसा भी होता है कि जिस चश्मे की खोज में सारा घर उलट-पुलट दिया हो, वह हमारी नाक पर ही मौजूद हो। जरूरी नहीं कि याददाश्त की यह कमजोरी किसी बीमारी का संकेत हो। ऐसा हमारी अत्यधिक व्यस्तता की वजह से भी हो सकता है। ऐसे में हम कई बार उन चीजों को भी ढूंढने में आसपास मौजूद लोगों की मदद लेते हैं, जिन्हें हमने काफी सहेज कर रखा होता है। 

ऐसे लोगों को यह जानकार तसल्ली होगी कि साइंटिस्टों ने उनकी समस्या का एक समाधान खोज लिया है। अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ वर्जिनिया के दो साइंटिस्टों ने एक ऐसा सिस्टम तैयार किया है जो घरेलू सामानों का हिसाब रख कर बता सकता है कि कौन सा सामान कहां रखा गया है। यह असल में गूगल जैसा एक घरेलू सर्च इंजन है जिसमें कई सेंसरों को कंप्यूटर के एक खास सॉफ्टवेयर से जोड़ा गया है। कैमरे के जरिए चीजों की मौजूदगी दर्ज करने वाला काइनेट नामक यह सिस्टम इस सिद्धांत पर काम करता है कि चीजें तभी अपनी जगह बदलती हैं जब कोई उन्हें वहां से हटाता है। इस सिस्टम को चलाने वाले सॉफ्टवेयर में वे बेसिक बातें पहले से दर्ज हैं जिनसे चीजों को ढूंढने में आसानी होती है। जैसे चाय-कॉफी का प्याला डायनिंग टेबल, पढ़ाई की मेज या किचन के सिंक में खोजना होगा, न कि बाथरूम में। 


जब सिस्टम यह तय नहीं कर पा रहा हो कि कोई चीज कहां हो सकती है, तो यह बेसिक समझ उसे उन चीजों के मिलने की संभावित जगहों के बारे में अलर्ट करेगी। यह सचमुच खुशी की बात है कि अटॉमिक एनर्जी और स्पेस रिसर्च जैसे बड़े-बड़े मोर्चे लेने के साथ साइंटिस्टों की नजर जिंदगी आसान बनाने वाले उन नुस्खों पर भी है जिन्हें घर का वैद्य जैसी कटिगरी में रखा जा सकता है। लेकिन हमें यह भी याद रखना होगा कि यह उपाय याददाश्त के मामले में भी कहीं हमें उसी तरह कमजोर न बना दे, जैसे बच्चे मैथ्स के बेसिक सवालों को हल करने के लिए कैलकुलेटर पर निर्भर हो गए हैं।

पर्यावरण संरक्षण बनाम संतुलित विकास

अमर उजाला कॉम्पैक्ट लेख 
शशांक द्विवेदी
आज से ठीक 20 साल पहले 1992 में पृथ्वी के अस्तित्व पर मंडरा रहे संकट और सतत विकास की चिंताओं से निबटने के लिए साझा रणनीति बनाने के उद्देश्य से दुनिया भर के नेता ब्राजील के रियो डि जेनेरियो में पृथ्वी सम्मेलन में एकत्र हुए थे। इस सम्मलेन पहुंचे नेता जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्याओं से निपटने के लिए एक महत्वपूर्ण योजना पर सहमत हुए थे। इस सम्मेलन में यूनाइटेड नेशन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेटिक चेंज पर सहमति बनी थी। पर्यावरण बचाने के लिए क्योटो प्रोटोकॉल भी इसी सम्मेलन का परिणाम था। सभी देश जमीन, हवा और पानी के संरक्षण में संतुलन के लिए नया मॉडल खोजने पर सहमत थे, जिसे उन्होंने टिकाऊ विकास का नाम दिया था। दो दशक बाद आज हम फिर भविष्य के उसी मोड़ पर खड़े हैं। यों कहें कि वे चुनौतियां अब काफी बड़ी हो गई हैं।
वर्तमान आर्थिक नीतियों ने विश्व जनसंख्या के साथ मिलकर पृथ्वी पर अभूतपूर्व दबाव डाला है। अब हमें समझना पड़ेगा कि प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन से हम संपन्नता के रास्ते पर आगे नहीं बढ़ सकते। टिकाऊ विकास का रास्ता आज भी उतना ही जरूरी है, जितना 20 वर्ष पहले था। इस चुनौती से निबटने के लिए साल के शुरू में जीरो ड्राफ्ट की घोषणा की गई।
रियो 20 और यूनाइटेड नेशंस कांफ्रेंस ऑन सस्टेनेबल डेवलपमेंट सम्मेलन का वार्ता मसौदा जीरो ड्राफ्ट, यानी 'भविष्य जो हम चाहते हैं' के नाम से जाना गया। इस मसौदे को पांच वर्गों में बांटा गया है- प्रस्तावनाएं, सतत विकास के संदर्भ में हरित अर्थव्यवस्था और गरीबी उन्मूलन, राजनीतिक प्रतिबद्धता का नवीकरण, सतत विकास के लिए संस्थागत ढांचा और क्रियान्वयन व कार्यवाही की रूपरेखा। इसे रियो प्लस 20 में सर्वसम्मति से अपनाया गया, पर लगता है कि पर्यावरण एवं विकास के बीच सामंजस्य का इसमें ध्यान नहीं रखा गया है। इस मसौदे में कार्बन उत्सर्जन और जंगलों के विनाश पर स्पष्ट तौर पर कुछ नहीं कहा गया है। बेशक सम्मेलन में पर्यावरण को बचाने और चुनौतियों से निबटने के लिए सहमति बनी, पर विकसित देश बराबरी का हक चाहते हैं, जो विकासशील देशों को मंजूर नहीं है। जी-77 समूह देशों का मानना है कि विकसित देशों पर पहले किए गए वायदों को पूरा करने के लिए दबाव डाला जाना चाहिए, जिसके प्रति वे उदासीन नजर आते हैं। हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने साफ कहा कि भारत इस मुद्दे पर विकासशील देशों के समूह जी-77 के साथ है।
दरअसल अमेरिका सहित कई विकसित देश चाहते हैं कि विकासशील देश अपने उद्योग-धंधों की रफ्तार कम करें और कार्बन उत्सर्जन के स्तर को तेजी से नीचे लाएं। लेकिन वे इसके लिए आर्थिक और तकनीकी सहयोग देने के लिए भी तैयार नहीं हैं। कहने का मतलब विकासशील देश एकतरफा सहयोग करें, जबकि यह विश्व समुदाय की जिम्मेदारी है कि वह पर्यावरण संरक्षण की रणनीति को ऐसा व्यावहारिक रूप दे, ताकि सभी राष्ट्र अपनी प्राथमिकताओं और परिस्थितियों के अनुरूप प्रगति कर सके। सम्मेलन के अंतिम मसौदा बयान से स्पष्ट होता है कि विकसित देश गरीब अर्थव्यवस्थाओं के स्थायी विकास की खातिर वित्तपोषण के बारे में कोई आंकड़ा तय करने में नाकाम रहे हैं।
भारत ‘हरित अर्थव्यवस्था’ पर काम करना चाहता है, जो सम्मलेन का मूल उद्देश्य है, पर इसमें विकासशील और विकसित, दोनों देशों की भूमिका अानुपातिक होनी चाहिए। आज पर्यावरण सरंक्षण पर बातें तो हो रही है, पर कोई ठोस समाधान नहीं निकल रहा। इसलिए जरूरी है कि हम भविष्य के लिए ऐसी राह चुनें, जो संपन्नता के आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय पहलुओं के बीच संतुलन बना सके।
विकसित देश चाहते हैं कि विकासशील देश अपने उद्योग-धंधों की रफ्तार कम कर दें और कार्बन उत्सर्जन के स्तर को तेजी से कम करें। (Published in Amar Ujala Compact on 26june12)
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Monday 25 June 2012

मिसाइल डिफेंस शील्ड


अग्नि-5 कांटिनेंटल बैलिस्टिक मिसाइल के सफल परीक्षण के बाद भारत दुनिया के उन चुनिंदा देशों की सूची में शामिल हो गया, जिसके पास 5,000 किलोमीटर से अधिक दूरी तक मार करने वाली मिसाइल है. इस सफलता के बाद अब वैज्ञानिकों ने ऐसा सुरक्षा कवच तैयार किया है, जिससे दो हजार किमी तक की मारक क्षमता वाली हमलावर बैलिस्टिक मिसाइल को आसमान में ही ध्वस्त किया जा सकता है. भारतीय रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) ने मिसाइल रक्षा कवच (मिसाइल डिफेंस शील्ड) विकसित कर इसका सफलतापूर्वक परीक्षण भी कर लिया है. रक्षा कवच से फिलहाल देश दो शहरों की रक्षा की जा सकती है. इस रक्षा प्रणाली को वर्ष 2016 तक पांच हजार किमी मारक क्षमता वाली मिसाइलों से बचाने की क्षमता वाला बनाने की योजना है. डीआरडीओ प्रमुख वीके सारस्वत के मुताबिक, बैलिस्टिक मिसाइल रक्षा कवच अब परिपक्व है और इसका पहला चरण पूरी तरह तैयार है. इसकी खासियत है कि इसे बहुत कम समय में तैनात किया जा सकता हैं. पहले चरण के तहत यह कवच देश में दो जगहों पर तैनात किया जा सकता है, जहां आधारभूत ढांचा उपलब्ध हो.
 
दो स्तरों पर प्रक्षेपण 

डीआरडीओ ने भारतीय मिसाइल डिफेंस शील्ड के छह सफल प्रक्षेपण किये और दो हजार किमी के लक्ष्य के लिए क्षमता का परीक्षण किया. इसका प्रक्षेपण दो स्तरों पर किया गया. हालांकि, यह पहले चरण का नतीजा था, लेकिन अब दूसरे चरण में बैलिस्टिक मिसाइलों से निबटने की इस प्रणाली को पांच हजार किमी की मारक क्षमता तक बढ़ाने की योजना है. 

बहुत खास है उपलब्धि

भारत ने नवंबर 2006 में इस प्रणाली का पहली बार परीक्षण किया था. अब यह प्रणाली हासिल करने के बाद भारत एंटी बैलिस्टिक मिसाइल प्रणाली सफलतापूर्वक विकसित करने वाले चुनिंदा देशों में शुमार हो गया है. यह क्षमता फिलहाल अमेरिका, रूस और इजराइल जैसे देशों के पास ही है. 

कैसे करता है काम

एंटी मिसाइल सिस्टम में संवेदनशील राडार की सबसे ज्यादा अहमियत है. ऐसे राडार बहुत पहले ही वायुमंडल में आये बदलाव को भांप कर आ रही मिसाइलों की पोजिशन ट्रेस कर लेते हैं. पोजिशन लोकेट होते ही गाइडेंस सिस्टम एक्टिव हो जाता है और आ रही मिसाइल की तरफ इंटरसेप्टिव मिसाइल दाग दी जाती है. इस मिसाइल का काम दुश्मन की मिसाइल को सुरक्षित ऊंचाई पर ही हवा में नष्ट करना होता है. इसे ट्रेस कर, पलटवार करने की प्रक्रिया में महज कुछ सेकेंड का ही अंतर होता है. 
2016 तक भारत की योजना 5,000 किलोमीटर मारक क्षमता वाली मिसाइल-रोधी रक्षा प्रणाली विकसित करने की है.
2006 के नवंबर महीने में भारत ने पहली बार एंटीबैलिस्टिक मिसाइल का परीक्षण किया था.
1957 में सोवियत संघ ने इंटरकांटीनेंटल बैलिस्टिक मिसाइल को विकसित किया.

2016 तक भारत की योजना 5,000 किलोमीटर मारक क्षमता वाली मिसाइल-रोधी रक्षा
प्रणाली विकसित करने की है.2006 के नवंबर महीने में भारत ने पहली बार एंटीबैलिस्टिक मिसाइल का परीक्षण किया था.1957 में सोवियत संघ ने इंटरकांटीनेंटल बैलिस्टिक मिसाइल को विकसित किया.

कई तरह के होते हैं एंटीमिसाइल सिस्टम

एंटी मिसाइल सिस्टम को इस स्तर तक विकसित कर लिया गया है कि दुश्मन देशों की मिसाइल को कई तरह से नष्ट किया जा सकता है. 

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अपग्रेडेड अर्ली-वार्मिंग राडार (यूइडब्ल्यूआर) : यह बैलिस्टिक मिसाइल को ट्रेस और ट्रैक कर सकता है.

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एक्स-बैंड/ग्राउंड-बेस्ड राडार (एक्सबीआर) : यह परमाणु बम से लैस मिसाइल का पता लगा सकता है.

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स्पेस-बेस्ड इंफ्रारेड सिस्टम (एसबीआइआरएस) : इसे विकसित करने में अमेरिका को दस साल का वक्त लगा था. यह उपग्रह की मदद से मिसाइल का पता लगता सकता है और उसे नष्ट कर सकता है. इसके अलावा ग्राउंड-बेस्ट इंटरसेप्टर्स (जीबीआइ) राडार का भी इस प्रणाली में इस्तेमाल किया जाता है.

स्टार वार्स की संतान

मिसाइल कवच के बारे में पहली बार अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के समय में अधिक जिक्र हुआ. रीगन ने शीतयुद्ध के समय में स्ट्रेटेजिक डिफेंस इनिशियेटिव (एसडीआइ) प्रस्तावित किया. यह एक अंतरिक्ष आधारित हथियार प्रणाली थी, जिसके सहारे इंटरकांटीनेंटल बैलिस्टिक मिसाइल (आइसीबीएम) को अंतरिक्ष में मार गिराने की बात की गयी थी. लेजर लाइट से लैस इस हथियार को मीडिया ने स्टार वार का नाम दिया था.

पहला एंटीबैलेस्टिक मिसाइल सिस्टम
एंटी बैलिस्टिक मिसाइल सिस्टम (एबीएम) का पहला वास्तविक और सफल परीक्षण 1 मार्च 1961 को सोवियत संघ ने किया. पहला आइसीबीएम-एबीएम सिस्टम सोवियत ए-35 था. इसे शीतयुद्ध के दौरान अमेरिका से बढ.ते तनाव के कारण मॉस्को की रक्षा करने के मकसद से विकसित किया गया था. फिर बाद में, 1980 के दशक में इसे अपग्रेड किया गया. 

मौजूदा आइसीबीएम रक्षा-कवच
आज दुनिया के छह देशों के पास इंटर कांटीनेंटल बैलिस्टिक मिसाइल है. लेकिन, इसे इंटरसेप्ट करने यानी रोकने की तकनीक सिर्फ दो देश- अमेरिका और रूस के पास ही है. हालांकि, आइसीबीएम के अलावा अन्य मिसाइलों को भेदने के लिए एंटी बैलिस्टिक मिसाइल (एबीएम) हैं, लेकिन ये एबीएम आइसीबीएम को नहीं भेद सकता है. आइसीबीएम को भेदने की तकनीक रूस और अमेरिका को छोड़कर किसी देश के पास नहीं है. 
रूस ने सोवियत संघ के जमाने में 1971 में अपनी तकनीक विकसित की थी, जबकि अमेरिका के पास इसके लिए ग्राउंड-बेस्ड मिड कोर्स डिफेंस है. इसे पहले नेशनल मिसाइल डिफेंस के नाम से जाना जाता था. 

भारत के लिए यह कवच है जरूरी

पड़ोसी देशों- चीन और पाकिस्तान की सैन्य शक्ति से निपटना भारत की चिंताओं में शुरू से शामिल रहा है. चीन से 1962 के युद्ध में हम हार का स्वाद चख चुके हैं और पाकिस्तान से तो दो बार सीधी जंग हो चुकी है. लेकिन, अब यदि जंग की आशंका बनती है तो युद्ध पहले की अपेक्षा बिल्कुल दूसरे ढंग से लड़ा जायेगा. इसमें परमाणु बमों से लैस मिसाइलों का भी इस्तेमाल किया जा सकता है. जिस तरह आजकल परमाणु हथियारों और मिसाइलों के आतंकवादियों के हाथों में पड़ने की आशंका जतायी जा रही है, उससे भी चिंतित होना स्वाभाविक है. अमेरिका, रूस, इस्राइल जैसे देशों के पास ये तकनीक हैं. लेकिन यदि भारत पर इस तरह के हमले होते हैं तो ऐसी स्थिति में हमारे पास बचने का उपाय नहीं रहेगा. नतीजतन, इन सभी पहलुओं को देखते हुए भी भारत का एंटी मिसाइल सिस्टम से लैस होना बहुत जरूरी है. आज महानगरों की घनी आबादी को देखते हुए इस तरह का एंटी मिसाइल सिस्टम हमारी सख्त जरूरत बन चुका है. इस मिसाइल कवच के विकसित होने से हमारे ऊर्जा स्रोतों मसलन, तेल के कुएं और न्यूक्लियर प्रतिष्ठानों की सुरक्षा सुनिश्‍चित की जा सकेगी.1957 में सोवियत संघ ने इंटरकांटीनेंटल बैलिस्टिक मिसाइल को विकसित किया.

एंटीबैलिस्टिक मिसाइल का इतिहास 
कोई मिसाइल या रॉकेट अपने लक्ष्य को निशाना बनाये, उसके पहले ही उसे मार गिराने का विचार सबसे पहले द्वितीय विश्‍वयुद्ध के दौरान आया. र्जमन वी-1 और र्जमन वी-2 प्रोग्राम इसी तरह के थे. हालांकि, ब्रिटिश सैनिकों के पास भी यह क्षमता थी और द्वितीय विश्‍वयुद्ध के दौरान उन्होंने दुश्मन देशों के कई ऐसे मिशन को नाकाम किया. बैलिस्टिक मिसाइल के इतिहास में र्जमन वी-2 को पहला वास्तविक बैलिस्टिक मिसाइल माना जाता है. इसे एयरक्राफ्ट या अन्य किसी युद्धक सामग्री से नष्ट करना असंभव था. इसे देखकर द्वितीय विश्‍वयुद्ध के बाद अमेरिकी सेना ने र्जमन तकनीक की मदद से एंटी मिसाइल तकनीक पर काम करना शुरू किया. लेकिन, पहली बार अमेरिका व्यापक सफलता 1957 में सोवियत संघ द्वारा इंटर कांटीनेंटल बैलिस्टिक मिसाइल विकसित करने के बाद ही मिली.
चुनिंदा देशों के पास ही है यह सिस्टम 
दुनिया के कई देशों द्वारा मिसाइल परीक्षण करने के कारण इनसे बचाव की जरूरत सभी को महसूस होने लगी है. यही कारण है कि विकसित देशअब मिसाइल सुरक्षा कवच विकसित करने पर अधिक ध्यान दे रहे हैं. अभी फिलहाल यह सिस्टम दुनिया के चुनिंदा देशों के पास ही है. एंटी बैलिस्टिक मिसाइल सिस्टम फिलहाल अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस, यूनाइटेड किंगडम, जापान और इजराइल के पास ही है. अब भारत भी इन देशों की श्रेणी में आ गया है, जिसके पास एंटी बैलिस्टिक मिसाइल सिस्टम है. हालांकि, हर देशके पास इससे संबंधित अलग-अलग तकनीक हैं. मसलन, अमेरिका और रूस के पास इंटर कांटीनेंटल बैलिस्टिक मिसाइल को भी मार गिराने की तकनीक है, जबकि अन्य देशों के पास यह तकनीक नहीं है.