Monday 30 April 2012

आइएनएस चक्र


नौसेना की नई शक्ति
पिछले दिनों रूस में बनी परमाणु पनडुब्बी आइएनएस चक्र-2 को नौ सेना में शामिल कर लिया गया। आइएनएस चक्र को शामिल करते ही भारत परमाणु क्षमता युक्त पनडुब्बी वाला दुनिया का छठा देश बन गया है। इससे पहले यह क्षमता सिर्फ अमेरिका, रूस, फ्रांस, ब्रिटेन और चीन के पास ही थी। मूल रूप से के-152 नेरपा नाम से निर्मित अकुला-2 श्रेणी की इस पनडुब्बी को रूस से एक अरब डॉलर के सौदे पर 10 साल के लिए लीज पर लिया गया है। आइएनएस चक्र की मौजूदगी से हिंद महासागर में सामरिक स्थिरता के साथ-साथ आर्थिक हितों की सुरक्षा भी सुनिश्चित होगी। यह देश की सुरक्षा के लिए एक सकारात्मक कदम है, लेकिन यह सवाल लगातार बना हुआ है कि हमारा देश कब आत्मनिर्भर होगा। अगर हम एक विकसित देश बनने की इच्छा रखते हैं तो आंतरिक और बाहरी चुनौतियों से निपटने के लिए हमें दूरगामी रणनीति बनानी होगी, क्योंकि भारत पिछले छह दशकों में अपनी अधिकांश सुरक्षा जरूरतों की पूर्ति हथियारों को खरीदकर करता आ रहा है। जहाजों और पनडुब्बियों के आर्डरों को देखते हुए ऐसा लगता है कि इस प्रवृत्ति पर रोक लगाने के लिए मजबूत कदम नहीं उठाए गए तो भविष्य में भी आयात पर निर्भरता बनी रहेगी। चीन के पास इस समय तीन परमाणु पनडुब्बियों समेत करीब 50 से 60 पनडुब्बियां हैं, जबकि भारत के पास 12 पनडुब्बी ही हैं। देश की पहली परमाणु पनडुब्बी अरिहंत का भी वर्ष 2013 तक समुद्री परीक्षण शुरू हो पाएगा। इसी तरह फ्रांस के सहयोग से बन रही छह परंपरागत स्कार्पियन पनडुब्बियां वर्ष 2020 तक ही मिल पाएंगी। आइएनएस चक्र के मामले में भी काफी देर हुई, क्योंकि भारत ने यह पनडुब्बी किराए पर लेने के लिए वर्ष 2004 में रूस के साथ 90 करोड़ डॉलर का करार किया था। रक्षा सौदों में घोटालों और भ्रष्टाचार के मामले आने के बाद सेना के लिए हथियारों तथा अन्य साधनों की खरीद, उत्पादन और उपलब्धता में कमी आई है। रक्षा बजट में हर साल बढ़ोतरी हुई, लेकिन नौ सेना को समुचित लाभ नहीं मिल पाया, क्योंकि नौसेना के बजट का अधिकांश हिस्सा संसाधनों के इंतजाम में खर्च हो जाता है। देश की वर्तमान पनडुब्बियां बहुत पुरानी हैं जिन्हें आधुनिक बनाने की आवश्यकता है। अस्सी के दशक में जर्मनी के साथ शुरू की गई एचडीडब्ल्यू पनडुब्बी निर्माण योजना को भारत सरकार ने रद करके बहुत बड़ी गलती की थी, जबकि उस परियोजना पर करीब 15 करोड़ डॉलर खर्च किए जा चुके थे। पनडुब्बी एक ऐसा हथियार है जो दुश्मन की निगाह में आए बिना ही उनके जंगी जहाजों, विमानवाहक पोतों और जमीनी ठिकानों को तबाह कर सकता है। मिसाइल और विमान दोनों ही हमला होने की सूरत में पकड़ में आ सकते हैं, लेकिन समुद्र के अंदर रहने वाली पनडुब्बी जवाबी हमला करने में बेहद कारगर होती हैं। भारत की नौसेना अपनी समुद्री सीमा की रक्षा करने में पूरी तरह सक्षम है, लेकिन समुद्री क्षेत्र के बढ़ते हुए महत्व के मद्देनजर इसे और सशक्त बनाए जाने की जरूरत है। सुरक्षा मामलों में देश को आत्मनिर्भर बनाने में सरकार और अकादमिक संस्थानों की भी बराबर की साझेदारी होनी चाहिए। स्वदेशीकरण के साथ-साथ हमें तकनीक हस्तांतरण पर भी जोर देना चाहिए। पिछले साल करीब डेढ़ लाख करोड़ रुपये के रक्षा बजट में से करीब 50 हजार करोड़ रुपये का खर्च हथियारों के आयात और रख-रखाव पर किया गया। अब तक भारत के रक्षा खर्च से विदेशों को ही फायदा होता रहा है, लेकिन अब यह फायदा भारतीय उद्योग को मिले इसलिए इस पर स्पष्ट और दूरगामी रणनीति बनाने की बहुत आवश्यक है। 2008 में मुंबई हमलों से सबक लेते हुए भारतीय नौ सेना को देश के तटीय और समुद्री सुरक्षा ढांचे में फेरबदल के लिए अत्याधुनिक उपकरणों की जरूरत है। विशाल तट की रक्षा के लिए नौसेना का सशक्त होना जरूरी है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं) आइएनएस चक्र-2 की विशेषताओं पर शशांक द्विवेदी के विचार दैनिक जागरण (राष्ट्रीय )में 29/04/2012 प्रकाशित 
article link 

Saturday 28 April 2012

भारत में सौर ऊर्जा की संभावनाए

भारत में सौर ऊर्जा की संभावनाए 

भारत में सौर ऊर्जा की असीम संभावनाएँ हैं। गुजरात से प्रेरणा लेकर मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और महाराष्ट्र जैसे राज्यों को भी पहल करनी चाहिए, क्योंकि ये राज्य भी बिजली के संकट से जूझ रहे हैं।
गुजरात ने अनेक विकास कार्यों के साथ सौर ऊर्जा के क्षेत्र में भी मिसाल कायम की है। ६०० मेगावाट के सौर ऊर्जा संयंत्र की स्थापना देश ही नहीं समूचे एशिया के लिए एक उदाहरण है। देश में सौर संयंत्रों से कुल ९०० मेगावाट बिजली पैदा होती है। इसमें ६०० मेगावाट अकेले गुजरात बना रहा है। गुजरात ने नहर के उपर सौर ऊर्जा संयंत्र लगा कर अनूठी मिसाल कायम की है। इससे बिजली तो बनेगी ही, पानी का वाष्पीकरण भी रुकेगा। नहर पर छत की तरह तना यह संयंत्र दुनिया में पहला ऐसा प्रयोग है। पिछले दो माह में २ लाख यूनिट बिजली का इसने उत्पादन किया जा चुका है। गुजरात के मेहसाणा जिले में स्थापित संयंत्र का कुछ समय पहले ही औपचारिक उद्घाटन हो गया। संयंत्र १६ लाख यूनिट बिजली का हर साल उत्पादन करेगा। साथ ही वाष्पीकरण रोककर ९० लाख लीटर पानी भी बचाएगा। यह संयंत्र आम के आम और गुठलियों के दाम की तरह है।

चंद्रासन गाँव की नहर पर ७५० मीटर की लंबाई में यह सौर संयंत्र बनाया गया है। इस तरह के संयंत्र की लागत १२ करोड़ रुपए के आसपास आती हैं। चंद्रासन संयंत्र पहला पायलट प्रोजेक्ट होने की वजह से इसकी लागत कुछ अधिक आई है।

गुजरात में नर्मदा सागर बाँध की नहरों की कुल लंबाई १९ हजार किलोमीटर है और अगर इसका दस प्रतिशत भी इस्तेमाल होता है तो २४०० मेगावाट स्वच्छ ऊर्जा का उत्पादन किया जा सकता है। नहरों पर संयंत्र स्थापित करने से ११ हजार एक़ड भूमि अधिग्रहण से बच जाएगी और २ अरब लीटर पानी की सालाना बचत होगी सो अलग। यह प्रयोग अन्य राज्यों में भी अपनाया जाना चाहिए। 

गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का यह सुझाव भी वजन रखता है कि तेल निर्यातक देशों के संगठन ओपेक की तर्ज पर भारत के नेतृतव में सौर ऊर्जा की संभावना वाले देशों का संगठन "सूर्यपुत्र देश" बनाया जाए। नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री डा.मनमोहनसिंह को लिखे पत्र में कहा है कि जब जी आठ, दक्षेस, जी २० और ओपेक जैसे संगठन बन सकते हैं तो सौर ऊर्जा की संभावना वाले देशों का संगठन क्यों नहीं बन सकता। भारत ऐसे देशों के संगठन का नेतृत्व कर सकता है और सौर ऊर्जा के क्षेत्र में शक्ति बनकर अपना दबदबा कायम कर सकता है । भारत में सौर ऊर्जा की असीम संभावनाएं है। गुजरात से प्रेरणा लेकर मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और महाराष्ट्र जैसे राज्यों को भी पहल करनी चाहिए। ये राज्य भी बिजली के संकट से जूझ रहे हैं, जबकि धूप यहाँ साल में आठ महीने रहती है। मध्यप्रदेश सरकार ने सौर ऊर्जा के लिए भूमि बैंक की स्थापना के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है। अनुपयोगी भूमि को चिन्हांकित कर उन पर सौर संयंत्र लगाने की पहल की जाएगी। महाराष्ट्र सरकार ने भी उस्मानाबाद व परभणी में ५०-५० मेगावाट के दो संयंत्र लगाने की पहल प्रारंभ की है।

Thursday 26 April 2012

मानव अंतरिक्ष अभियान


 मानव अंतरिक्ष अभियान की तैयारी में भारत

वह दिन अधिक दूर नहीं है जब दो भारतीय पहली बार स्वदेशी रॉकेट और स्पेस कैप्सुल में बैठकर अंतरिक्ष में जाएंगे. ऐसा होने पर भारत दुनिया का चौथा ऐसा देश बन जाएगा जिसने अपनी तकनीक के माध्यम से अपने अंतरिक्षयात्रियों को अंतरिक्ष में भेजा हो. अमेरिका, रूस और चीन के पास पहले से ही यह तकनीक है. 

भारत ने भी अब अपने मानव अंतरिक्ष अभियान पर काम शुरू कर दिया है और अब इसकी रूपरेखा भी तैयार कर ली गई है. इस बारे में अधिक जानकारी देते हुए इसरो अध्यक्ष एस. राधाकृष्णन तथा इस अभियान से जुड़े अन्य महत्वपूर्ण वैज्ञानिकों ने बताया कि मानव अंतरिक्ष अभियान के सभी चरणों की रूप रेखा तैयार कर ली गई है और इस पर काम भी शुरू हो चुका है. 

कार्यक्रम:

इसरो की योजना अपने दो अंतरिक्षयात्रियों को पृथ्वी की नजदीकी ध्रुवीय कक्षा तक ले जाने की है. ये अंतरिक्षयात्री वहाँ 7 दिन तक रहेंगे और फिर पृथ्वी पर लौट आएंगे. इसके लिए इसरो एक नया लॉंच पैड बनाएगा जहाँ से पीएसएलवी के सम्पादित रॉकेट के माध्य्म से स्पेस कैप्सूल को अंतरिक्ष तक ले जाया जाएगा. इस नए लॉंच पैड पर ही नई असेम्बली यूनिट भी स्थापित की जाएगी.

चरण:
मानव अंतरिक्ष अभियान के तीन चरण होंगे. पहले चरण में जटिल तकनीकों को विकसित किया जाना है जैसे कि आपातकालीन निकास व्यवस्था, लॉंच पैड से आपातकालीन निकास व्यवस्था, स्पेस कैप्सूल को वापस धरती पर लाने की तकनीक विकसित करना आदि. दूसरे चरण में ह्यूमन रेटेड रॉकेट तैयार करने का कार्य होगा. यह वह रॉकेट होता है जो मानव को अंतरिक्ष में ले जाने के उपयुक्त होता है और हर लिहाज से सुरक्षित और काफी भरोसेमंद भी होता है. तीसरे चरण में अंतरिक्षयात्रियों की पहचान कर उन्हें ट्रेनिंग देने का कार्य होगा. सम्भावित अंतरिक्षयात्रियों को ट्रेनिंग देने में कम से कम तीन वर्ष का समय लगता है. 

स्पेस कैप्सूल: 

भारत ने अपने स्पेस कैप्सूल की डिजाइन तैयार कर ली है. यह कैप्सूल रूस के सहयोग से बनाया जाना है. इस कैप्सूल में दो अंतरिक्षयात्रियों के बैठने की जगह उपलब्ध होगी. इसके अलावा भारत ने लाइफ सपोर्ट सिस्टम, थर्मल प्रूफिंग और क्रु एस्केप सिस्टम की रूप रेखा भी तैयार कर ली है. यदि लॉंचपैड पर ही कोई गडबडी सामने आ जाए और अंतरिक्षयात्रियों को तुरंत रॉकेट से बाहर निकालना हो तो इस तरह के लॉंच पैड इमरजेंसी एस्केप सिस्टम को भी विकसित किया जाना है. भारत 2013 में पीएसएलवी रॉकेट के माध्यम से इस तरह के स्पेस कैप्सूल को अंतरिक्ष में स्थापित करेगा. परंतु उसमें कोई अंतरिक्षयात्री नहीं होंगे. दरअसल यह इसरो के लिए परीक्षण का एक दौर होगा. जैसा कि इसरो अध्यक्ष राधाकृष्णन बताते हैं कि - इससे हमें जरूरी आत्मबल मिलेगा.

भारत का स्पेस कैप्सुल रूस के सोयूज़ स्पेस कैप्सुल पर आधारित होगा ऐसी खबर है. इसरो सोयूज़ को अपने तरीके से फिर से डिजाइन करेगा. इसके अलावा इसे ले जाने वाले रॉकेट पीएसएलवी के पहले चरण में बदलाव किए जाएंगे. 

नया लॉंचपैड: 
श्रीहरिकोटा में एक तीसरा लॉंच पैड बनाया जाना है और इसकी जगह तय हो गई है. इस लॉंच पैड को बनाने तथा नई एसेम्बली यूनिट स्थापित करने का अनुमानित खर्च 1000 करोड़ रूपए आंका गया है. इस लॉंच पैड से ही मानव अंतरिक्ष अभियान पर कार्य किया जाएगा. यहाँ बनने वाले नए असेम्बली यूनिट में अंतरिक्षयात्रियों को ले जाने वाले पीएसएलवी रॉकेट के संवर्धित प्रारूप को तैयार किया जाएगा. 

अंतरिक्षयात्रियों को ट्रेनिंग:
प्राथमिक जानकारियों के अनुसार इसरो ने अपने अंतरिक्ष अभियान पर जाने वाले अंतरिक्षयात्रियों की पहचान का कार्य शुरू कर दिया है. बहुत सम्भावना है कि अंतरिक्षयात्री वायुसेना से चुने जाएँ क्योंकि उनको उडान का अनुभव पहले से ही होता है. सुत्रों के अनुसार चार सम्भावित अंतरिक्षयात्रियों का चयन किया जाना है जिन्हें बंगालुरू में बनने वाले अंतरिक्षयात्री ट्रेनिंग संस्थान में प्रक्षिशित किया जाएगा. इन चार अंतरिक्षयात्रियों में कोई 2 अंतरिक्षयात्री अंतरिक्ष में जाएंगे. ये दो अंतरिक्षयात्री कौन होंगे यह गुप्त रखा जाएगा. 

तैयारी:
इसरो ने अपने अंतरिक्ष अभियान पर काफी पहले से काम शुरू कर दिया था. पीएसएलवी के माध्यम से एक स्पेस रिकवरी एक्स्पेरिमेंट मोड्यूल को अंतरिक्ष में भेजा गया था जहाँ से वह वापस धरती पर सकुशल आ गया और बंगाल की खाड़ी में गिरा. यहाँ से नौसेना के जहाज ने इसे बरामद किया. जाँच से पता चला कि इस मोड्यूल ने ठीक ढंग से काम किया था. इससे इसरो ने साबित किया कि वह स्पेस मोड्यूल को अंतरिक्ष में भेज कर वापस सकुशल धरती पर ला सकता है. अब 2013 में वास्तविक स्पेस कैप्सूल के प्रारूप को अंतरिक्ष में भेजकर वापस धरती पर लाने का प्रयास किया जाएगा. इसमें सफलता मिलने पर इसरो की आगे की राह थोड़ी आसान हो जाएगी.

मानव अंतरिक्ष अभियान एक जटिल और जोखिम भरा अभियान है, परंतु भविष्य के लिए यह आवश्यक भी है

रीसैट-1 का सफल प्रक्षेपण


स्वदेश निर्मित राडार इमेजिंग उपग्रह रीसैट-1 का  सफल प्रक्षेपण
आज भारत ने सभी मौसमों में काम करने वाले अपने पहले स्वदेश निर्मित राडार इमेजिंग उपग्रह (रीसैट-1) का पीएसएलवी सी19 के जरिए सफल प्रक्षेपण किया। उपग्रह के द्वारा ली जाने वाली तस्वीरें कृषि एवं आपदा प्रबंधन के क्षेत्र में इस्तेमाल की जा सकेंगी। चेन्नई से करीब 90 किलोमीटर दूर यहां के सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से पीएसएलवी (पोलर सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल) के जरिए 1858 किलोग्राम वजनी देश के पहले माइक्रोवेव रिमोट सेंसिंगउपग्रह को 71 घंटे तक चली उल्टी गिनती के बाद सुबह करीब पांच बजकर 47 मिनट पर प्रक्षेपण के लगभग 19 मिनट बाद कक्षा में स्थापित कर दिया गया।

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के प्रक्षेपण वाहन पीएसएलवीने रीसैट-1 के प्रक्षेपण के साथ अपनी 20 सफल उड़ानें पूरी कर एक बार फिर अपनी विश्वसनीयता स्थापित की है। इसके द्वारा प्रक्षेपित किया गया यह अब तक सबसे भारी उपग्रह है। रीसैट-1 इसरो के लगभग 10 साल के प्रयासों का नतीजा है। इसके पास दिन एवं रात तथा बादलों की स्थिति में भी धरती की तस्वीरें लेने की क्षमता है। अब तक भारत कनाडाई उपग्रह की तस्वीरों पर निर्भर था, क्योंकि मौजूदा घरेलू दूर संवेदी उपग्रह बादलों की स्थिति में धरती की तस्वीरें नहीं ले सकते थे।

इसरो अध्यक्ष के राधाकृष्णन ने कहा कि 44 मीटर लंबा रॉकेट शानदार ढंग से उड़ान भरते हुए आकाश में प्रवेश कर गया। उन्होंने इस मिशन को एक बड़ी सफलताकरार दिया। उपग्रह के कक्षा में स्थापित होते ही नियंत्रण कक्ष में बैठे वैज्ञानिकों में खुशी की लहर दौड़ गई।

प्रसन्नचित दिख रहे राधाकृष्णन ने कहा, ‘‘मुझे यह घोषणा करते हुए अत्यंत खुशी हो रही है कि पीएसएलवी सी 19 मिशन एक बड़ी सफलता है। हमारे पीएसएलवी की यह लगातार 20वीं सफल उड़ान है। इसने भारत के पहले राडार इमेजिंग सैटेलाइट को सटीक रूप से वांछित कक्षा में स्थापित कर दिया।’’ भारत ने 2009 में सभी मौसमों में काम करने वाले एक अन्य राडार इमेजिंग उपग्रह (रीसैट-2) का प्रक्षेपण किया था, लेकिन इसे निगरानी उद्देश्यों के लिए इस्राइल से 11 करोड़ अमेरिकी डॉलर में खरीदा गया था।


विश्व पृथ्वी दिवस(22अप्रैल ) पर लेख

विश्व पृथ्वी दिवस(22अप्रैल ) -नेशनल दुनियाँ 

डीएनए(25अप्रैल )-शशांक द्विवेदी  

Wednesday 25 April 2012

बुढ़ापे की रफ्तार थमेगी जीन थेरपी से


जीन थेरपी से थमेगी बुढ़ापे की रफ्तार
बुढ़ापे को दूर रखने के लिए एक नई इंजेक्शन ईजाद की गई है। जीन रिसर्च फाउंडेशन ने कई सालों के रिसर्च के बाद इसे बनाने में सफलता हासिल की है। इसे जल्द ही लॉन्च करने की तैयारी की जा रही है। 8 साल में 12 हजार से ज्यादा मरीजों पर इसका प्रयोग किया गया, जो सफल रहा। अपने खून की एक बूंद और जीन ऐक्टिवेटर की मदद से शरीर में डैमेज हुए जीन को रिपेयर किया जा सकेगा, साथ ही नए हेल्थी जीन बन सकेंगे।

जीन थेरपी से थमेगी बुढ़ापे की रफ्तार
बेंगलुरु स्थित डॉक्टर अग्रवाल हॉस्पिटल के जीन रिसर्च फाउंडेशन ने डिफेंस रिसर्च ऐंड डिवेलपमेंट ऑर्गनाइजेशन (डीआरडीओ) के साथ मिलकर 20 सालों तक रिसर्च किया। रिसर्च फाउंडेशन की मेडिकल डॉयरेक्टर डॉक्टर सुनीता राणा अग्रवाल ने बताया कि यह स्टेम सेल थेरपी से आगे की प्रक्रिया है। यह सीधे जीन को रिपेयर करती है। जीन थेरपी के जरिये बुढ़ापे की रफ्तार को रोका जा सकता है। इस तरह बुढ़ापे की वजह से होने वाली बीमारियों से भी बचा जा सकता है। हमारे शरीर में कोई भी दिक्कत होती है तो वह कहीं न कहीं डीएनए से जुड़ी होती है। जब बच्चा मां के पेट में होता है उस वक्त सबसे हेल्थी डीएनए होता है। पैदा होने के बाद धीरे-धीरे इनके बनने की संख्या घटती जाती है। 30 साल की उम्र के बाद नया डीएनए नहीं बनता है और 40 साल या इसके बाद डीएनए डैमेज होने शुरू होते हैं। जीन थेरपी में हम डीएनए को रिपेयर करेंगे।

कैसे करेगा काम
डॉक्टर राणा ने बताया कि हमने एक ऐसी किट बनाई है, जिसमें एक इंजेक्शन के अंदर 'माना' यानी डीएनए ऐक्टिवेटर होता है। इस इंजेक्शन में शरीर से एक बूंद खून लेते हैं, जिसमें डीएनए होते हैं। 10-20 सेकंड में इंजेक्शन के अंदर डीएनए रिपेयर होने की प्रक्रिया पूरी हो जाती है। इसके बाद यह रिपेयर डीएनए वाला ब्लड उसी इंजेक्शन के जरिए शरीर में इंजेक्ट कर देते हैं। इस तरह बॉडी में रिपेयर और हेल्थी डीएनए की संख्या बढ़ती है। यह प्रकिया जरूरत के हिसाब से की जा सकती है। इसे कोई भी खुद ही कर सकता है। इस तरह हेल्थी डीएनए के बढ़ने से बुढ़ापे की रफ्तार धीमी होती है और ज्यादा वक्त तक हेल्थी जिंदगी जी जा सकती है। बच्चों में होने वाली डीएनए संबंधी बीमारी में इसके जरिए रोकी जा सकती हैं। उन्होंने कहा कि हमने कई सफल प्रयोग किए हैं जिनमें डीएनए रिपेयर कर कई बीमारियों से राहत मिली।

3 महीने में शुरू होगा प्रॉडक्शन
जीन रिसर्च फाउंडेशन के सीईओ पंकज सोधी ने बताया कि हम डीएनए जीन थेरपी के लिए आर ऐंड डी औरमैनुफैक्चरिंग यूनिट 300 करोड़ रुपये की लागत से शुरू कर रहे हैं। 3 महीने के भीतर प्रॉडक्शन शुरू हो जाएगा।उन्होंने कहा कि देश में 6 करोड़ से ज्यादा लोग डायबीटीज के मरीज हैं। जीन ऐक्टिवेटर के जरिए इस संख्या कोकम किया जा सकता है। ब्रेस्ट कैंसर, रेटिनल डीजनरेशन, आर्थराइटिस जैसे जेनिटिकल डिस्ऑर्डर की पहचान करउसे ठीक किया जा सकता हैलेखिका –पूनम पांडे (साभार-नवभारतटाइम्स)

ग्लोबल वार्मिंग से समाधान


सफेद रंग की छतों से रुकेगी ग्लोबल वार्मिंग
यदि हम घर की छतों पर सफेद पेंट कर दें और सड़कों और पगडंडियों पर हल्के रंग वाले पदार्थो का प्रयोग करें तो हमारे शहर गर्मियों में तापमान में गिरावट महसूस करेंगे। इससे कॉर्बन बचेगा। इस कॉर्बन की मात्रा सड़कों पर 50 साल तक कारें नहीं चलाने से बचने वाले कॉर्बन के बराबर होगी। एक अध्ययन के मुताबिक ग्लोबल वार्मिग से निपटने के लिए शहरी पर्यावरण में फेरबदल करने का सबसे आसान तरीका यह है कि हम शहर की परावर्तकता (रिफ्लेटिविटी) को बढ़ा दें ताकि सूरज की रोशनी को वापस अंतरिक्ष की तरफ मोड़ा जा सके। हल्के रंगों की सतह वाली शहरी इमारतें गर्मी के मौसम में पारंपरिक इमारतों की तुलना में ठंडी होंगी क्योंकि वे इंफ्रारेड रेडिएशन को परावर्तित कर देंगी। इससे एयर कंडीशनिंग पर खर्च होने वाली ऊर्जा की भी बचत होगी। लगातार बढ़ रहे कॉर्बन उत्सर्जन के कारण शहर और नगर गर्मी के टापू बनते जा रहे हैं। सूरज की रोशनी सोखने वाली गहरे रंगों वाली इमारतों और पक्की सड़कों की वजह से गर्मी के मौसम में शहरों में तापमान असहनीय हो जाता है। दो साल पहले अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के ग्लोबल वार्मिग संबंधी शीर्षस्थ सलाहकार और ऊर्जा मंत्री स्टेवन चु ने लंदन में रॉयल सोसाइटी को बताया था कि बढ़ते हुए तापमान से निपटने के लिए जलवायु में फेरबदल या जियो इंजीनियरिंग का सबसे असरदार तरीका यह है कि हम अपनी छतों को सफे द कर दें। कनाडा में कंकोर्डिया यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर हाशिम अकबरी के नेतृत्व में वैज्ञानिकों की टीम ने प्रो चु के सुझाव का विस्तार से अध्ययन करने के बाद पाया है कि यह तकनीक सचमुच बहुत असरदार है। उन्होंने अनुमान लगाया है कि किसी शहर या नगर में छतों और सड़कों पर हल्के रंग वाले पदार्थो का प्रयोग करने से उनकी परावर्तकता में करीब 10 प्रतिशत की वृद्धि हो जाती है। रिसर्चरों का कहना है कि यदि दुनिया के सारे शहरी क्षेत्रों में छतों को सफेद कर दिया जाए और सड़कें हल्के रंगों वाले सामान से निर्मित की जाएं तो पृथ्वी के के तापमान में 0.13 डिग्री फारेनहाइट की कमी की जा सकती है। इससे 130 अरब टन से 150 अरब टन तक कार्बन डाक्साइड उत्सर्जन की बचत होगी। अकबरी का कहना है कि छतों को सफेद पोतने में कोई अनोखी बात नहीं है। यह टेक्नोलॉजी सैकड़ों वर्ष पुरानी है। इस संबंध में पश्चिमी एशिया का उदाहरण दिया जा सकता है, जहां पारंपरिक रूप से इमारतों में सफेद रंग का इस्तेमाल होता है। ग्रीस में भी सदियों से छतों का रंग सफेद रखा जाता है। इन वैज्ञानिकों ने एन्वायरमेंटल रिसर्च लेटर्स में प्रकाशित अपनी अध्ययन रिपोर्ट में कहा है कि अधिक सौर परावर्तकता से वायुमंडलीय तापमान में गिरावट आएगी और ग्लोबल वार्मिग के कारण होने वाली तापमान वृद्धि के प्रभाव कम हो जाएंगे। रिसर्चरों का कहना है कि सड़कों और छतों की सामान्य मरम्मत के दौरान वहां परावर्तक पदार्थ लगा कर शहरों की सौर परावर्तकता बहुत कम खर्च पर बढ़ाई जा सकती है। सौर परावर्तकता को एल्बेडो भी कहा जाता है। इसे शून्य से एक के पैमाने पर नापा जाता है। 1.0 का मतलब पूरी तरह से सफेद यानी पूरी तरह से परावर्तक होता है, जबकि शून्य का मतलब होता है पूरी तरह काला होना। काली सतह सूरज की सारी रोशनी को जज्ब कर लेती है। अकबरी की रिसर्च टीम का कहना है कि सफेद छतों से गर्मियों में इमारतों के एयर कंडिशनिंग बिल में 10-15 प्रतिशत की कमी की जा सकती है क्योंकि इमारत कम मात्रा में गर्मी जज्ब करती है और छतों का ठंडापन अधिक देर तक रहता है। अमेरिका के कई शहरों में लागू बिल्डिंग कोड में छतों को सफेद रखने को कहा जा रहा है। न्यूयॉर्क में 25 लाख वर्ग फुट छतों को सफेद कर दिया गया है। ग्लोबल वार्मिग के खिलाफ जंग में छतों को सफेद रंग पोतने का सुझाव सचमुच एक नायाब विचार है, जिस पर हमारे नगर योजनाकारों, वास्तुशिल्पियों, सिविल इंजीनियरों और आम जनता को भी गौर करना चाहिए। लेखक- मुकुल व्यास 

Monday 23 April 2012

शोध और अनुसंधान की वर्तमान दशा


देश में शोध और अनुसंधान की वर्तमान दशा
शोध कार्य में देश की बड़ी ऊर्जा लगी है और उस पर होने वाला खर्च अरबों रुपयों में है लेकिन अपेक्षित मौलिक शोध सामने नहीं रहा है और इस पर निगरानी रखने वाला जिम्मेदार ढांचा पूरी तरह चरमरा गया है। यानी संस्थानों में ज्ञान के क्षेत्र में सृजन का काम करने वालों की जगह बची ही नजर आती नहीं है। कभी दुनिया भर में होने वाले शोध कार्य में भारत का नौ फीसद योगदान था जो आज घटकर महज 2.3 फीसद रह गया है
देश के विभिन्न विविद्यालयों में ऐसी ढेरों किताबें पाठ्यक्रम में शामिल हैं, जिनकी सामग्री किसी लेखक की किताब या शोध से चोरी की गई है। अमूमन किसी नई किताब के लिए अन्य पुस्तक या शोध से संदर्भ लिये जाते हैं जिसका बाकायदा उसमें जिक्र होता है लेकिन ऐसी अनेक किताबें प्रकाश में आई हैं जिनमें संदर्भ के रूप में सामग्री का इस्तेमाल नहीं है और लेखक ने उसे अपनी रचना या शोध के रूप में प्रस्तुत किया है। यानी चोरी की सामग्री से किताबें तैयार करने और उसे बाजार में बेचने का बड़ा कारोबार देश में चल रहा है। अनुमानत: यह कारोबार पांच सौ करोड़ रुपये सालाना का बताया जाता है। कई विविद्यालय और पुस्तकालय ऐसी किताबों के नियमित खरीदार हैं और कई प्रकाशक ऐसी ही किताबें छापते हैं। यानी इस करोबार का मजबूत ढांचा विकसित हो गया है। इसमें प्रकाशक, विविद्यालय या दूसरे शैक्षणिक संस्थान शिक्षक शामिल हैं। ऐसी किताबों का कारोबार अपेक्षाकृत पिछड़े माने जाने वाले विविद्यालयों महाविद्यालयों में बड़े पैमाने पर होता है। कई बार किसी ऐसे लेखक का परिचय पुस्तक पर छपा होता है जिसका इस पृथ्वी पर मिलना संभव ही नहीं है। कई का किताब में परिचय होता है लेकिन उनका विषय से कोई लेना-देना नहीं होता है। कई ऐसे लेखक होते हैं जिनका विषय से इतना भर लेना होता है कि वे उस विषय के विभाग से जुड़े होते हैं और उसका लाभ अपने परिचय के साथ विभाग का नाम देकर उठाते हैं। ऐसे भी कई लेखक मिलेंगे जो हिन्दी लिखना जानते हैं अंग्रेजी। लेकिन अंग्रेजी हिन्दी में दर्जनों किताबों के लेखक होने का दावा करते हैं और उस आधार पर विविद्यालयों महाविद्यालयों में स्वयं को उच्च पदों पर काबिज होने का हकदार मानते हैं। कई ने चंद दिनों में हजारों पृष्ठों की कई किताबें तैयार करने का दावा बना रखा है। विभिन्न क्षेत्रों में काला बाजारी, नकली सामानों की खरीद-बिक्री और कमीशनखोरी पर टिके कारोबार फल-फूल रहे हैं और किताबों के व्यापार में भी यह दिखता है। अश्लील किताबों का कारोबार इसमें एक है लेकिन फिलहाल हम यहां उन किताबों के बारे में चिंतित हैं जो उच्च शिक्षा के क्षेत्र में चल रही हैं और जिन पर देश की सामाजिक, सांस्कृतिक और तकनीकी प्रगति का दारोमदार है। किताबों के प्रकाशन से भ्रम होता है कि रचनाकर्म जारी है। विद्वतजनों का एक बड़ा तबका सृजनरत है और नित्य नये शोध हो रहे हैं। लेकिन जब हम रचना की तह तक पहुंचते हैं तो पता चलता है कि ये किताबें महज चोरी की सामग्री पर आधारित कारोबार का हिस्सा है। इंटरनेट के विकास के बाद ऐसी चोरी की सामग्री पर आधारित किताबों शोध का कोराबार तेजी के साथ बढ़ा है। सबसे चिंताजनक यह कि इस कारोबार के लिए भारतीय भाषाएं चुनी जा रही हैं। अंग्रेजी में प्रकाशित ऐसी किताबों शोध की चोरी इंटरनेट के सर्च इंजन के जरिये एक हद तक पकड़ी जा सकती है लेकिन अंग्रेजी से चुराकर हिन्दी या दूसरी भारतीय भाषाओं में किताब प्रकाशित करा ली जाए तो इसे पकड़ना संभव नहीं होता। हिन्दी में बड़ी तादाद में चोरी की सामग्री पर आधारित किताबें पीएचडी/एमफिल के लिए शोधों के बारे में जानकारियां मिलती हैं। ये चिंता और तब बढ़ जाती है जब इन किताबों का कारोबार जनसंचार विभाग जैसे क्षेत्रों में दिखता है। पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है लेकिन इस समय मीडिया से जुड़े अध्ययन- अध्यापन क्षेत्र ही इस तरह की किताबों की खपत के सबसे बड़े केन्द्र बने हुए हैं। कई किताबों पर जो आईएसबीएन नंबर दिए गए हैं वे आईएसबीएन की सूची में हैं ही नहीं। एक मुहिम के तहत सभी को भागीदार बनाने के उद्देश्य ऐसी किताबों की जांच-पड़ताल शुरू करनी होगी। यह किसी भी समाज के भविष्य के साथ जुड़ी मूल बात है कि सृजन की प्रक्रिया कुंद कर दी जाए, तो वह स्वत: गुलामी का आकांक्षी हो जाता है। हमारे सामने नकल पर आधारित जिन लेखकों की किताबें आई हैं, उनमें से ज्यादातर किसी किसी विविद्यालय में ऊंचे पदों पर काबिज रहे हैं या हैं। लेकिन उनके नामों का उल्लेख इसीलिए नहीं किया जा रहा है क्योंकि हजारों में से कुछ चुनिंदा के नाम गिनाने का आरोप लग सकता है। कइयों के बारे में मीडिया में खबरें आई भी हैं। एक टीवी चैनल ने तो चोर गुरु शीषर्क से एक कार्यक्रम भी शुरू किया है और विविद्यालय में नकल करके लिखने वाले शिक्षकों के खिलाफ शिकायतें भी दर्ज करायी हैं। शोध कायरे में देश की बड़ी ऊर्जा लगी है और उस पर होने वाला खर्च अरबों में है लेकिन अपेक्षित मौलिक शोध सामने नहीं रहा है और इस पर निगरानी रखने वाला जिम्मेदार ढांचा पूरी तरह चरमरा गया है। यानी संस्थानों में ज्ञान के क्षेत्र में सृजन का काम करने वालों की जगह बची नजर आती नहीं है। कभी दुनिया भर में होने वाले शोध कार्य में भारत का नौ फीसद योगदान था जो आज घटकर महज 2.3 फीसद रह गया है। सृजन के क्षेत्र में हमारी बढ़ती दरिद्रता का आलम क्या है इस पर भी एक नजर डालें। देश में इस्तेमाल की जाने वाली तकनीक (टेक्नोलॉजी) को लें तो तकरीबन पूरी टेक्नोलॉजी आयातित है। इनमें 50 फीसद तो बिना किसी बदलाव के ज्यों की त्यों इस्तेमाल होती है और 45 फीसद थोड़ा-बहुत हेर-फेर के साथ जिसे अंग्रेजी के प्रचलित मुहावरे में कॉस्मेटिक चेंज कहा जाता है के साथ इस्तेमाल होती है। इस तरह विकसित तकनीक के लिए हमारी निर्भरता आयात पर है। कहा तो जा रहा है कि देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं है लेकिन ये प्रतिभा क्या केवल विदेशों में नौकरी या मजदूरी करने वाली हैं? दूसरे पहलू से भी इस बढ़ती दरिद्रता को देखने की जरूरत है। देश की जनसंख्या का मात्र 10-11 फीसद हिस्सा ही उच्च शिक्षा ले पाता है। इसके विपरीत जापान में 70-80 प्रतिशत, यूरोप में 45-50, कनाडा और अमेरिका में 80-90 फीसद लोग उच्च शिक्षा लेते हैं। चिंतनीय यह है कि पहले ही कम लोगों को उच्च शिक्षा मिल पाती है, उस पर भी उन्हें चोरी और नकल की किताबें पढ़नी पड़ती हैं। जहां नकल की संस्कृति विकसित की जा रही हो वहां मौलिक शोध संस्कृति जगह कैसे विकसित हो सकती है? सरकार को चाहिए कि इस बारे में गंभीरता पूर्वक विचार करे। जिन भी शिक्षकों की किताबों या शोध सामग्री के बारे में शिकायत मिलती हो, उसकी तत्काल जांच कराने का प्रभावी ढांचा विकसित हो। जिन शिक्षकों की किताबों या शोधों के बारे में अब तक ऐसी जानकारी मिली है, उन्हें तत्काल सेवा मुक्त कर उसकी जांच कराएं। उन्हें भी दंडित करें जो उन्हें अब तक संरक्षण देते रहे हैं। शोध की संस्कृति विकसित करने के कार्यक्रम तैयार किए जाने चाहिए और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि शोध में भाषा के सवाल को आड़े नहीं आने देना चाहिए। भारत जैसे मुल्क में यहां की भाषाओं में मौलिक शोध की आपार संभावनाएं हैं। अंग्रेजी को शोध का माध्यम बनाने में नकलची और चोरी की संस्कृति के वाहकों की बड़ी भूमिका है। लेखक -अनिल चमड़िया